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लोकस्मृति चली आ रही है, इसलिये सारा परिवार धर्म की भक्ति में तत्पर रहता था। हमारी माता व्रत-संयम पालन तथा साधु सेवा में सदा तत्पर रहती थी।" __ "हमारे यहाँ मुनियों को आहार देने योग्य भोजन सदा बनता था। बस्ती में मुनिराज के आने पर उपाध्याय आकर माता से कहता था, "आजीबाई महाराज आले (महाराज आ गये।), वे कहती थी-“इथे घेऊन या बाबा (उन्हें यहाँ ले आओ)।"
जब माता-पिता ने महाराज से विवाह करने को कहा तब महाराज ने कहा-“मी ब्रह्मचारी राहणार" (मैं ब्रह्मचारी रहूँगा)। उनके शब्दों को सुनते ही मातापिता के नेत्रों में पानी आ गया और वे बोले-"माझा जन्म तुम्ही सार्थक केला बेटा"(तुमने हमारा जन्म कृतार्थ कर दिया बेटा)। उन्होंने बताया हमारी माता हम लोगों को धर्म और सदाचार का उपदेश दिया करती थी कि “पाप करु नका, चोरी करु नका, जीवहिंसा करु नका" इत्यादि कहती थी।
हमने पूछा, “क्या कभी माता-पिता आपको तथा महाराज को दण्ड देते थे ?" उस पर उन्होंने कहा कि हमने तथा महाराज ने दण्ड पाने योग्य अन्याय किया ही नहीं, तो फिर दण्ड की बात क्या ? माता की वाणी कठोर नहीं थी, प्रेम तथा शांत भाव पूर्ण थी। उन पर सब प्रीति करते थे। हमारे पिता बलवान, धनवान तथा ऐश्वर्यवान थे। बड़े बड़े लोग उनके अधीन रहते थे। उन्होंने अपने व्यवहार में बेईमानी को कभी भी स्थान नहीं दिया। पाटिल होते हुए किसी की तनिक भी जमीन अन्याय पूर्वक नहीं ली। अधिकारियों के मुख से यही वाक्य निकलता था-“खरा माणुस आहे"। न्याय के साथ परिवार के गौरव का भी उन्हें बड़ा ज्ञान था। एक बार किसी कुटुम्बी को राज्यअधिकारी ने तीन सौ रुपये दण्ड अथवा जेल की सजा दी थी। उस समय अपने गोत्र के गौरव को धक्का लगेगा, ऐसा सोचकर उन्होंने अपने पास से रुपया देकर उसे छुड़ाया। बंदूक द्वारा सफल लक्ष्यबेध
हम सब लोग भोज में प्लेग होने के कारण अपने मामा के यहाँ थे। उस समय हमारे मामा बड़े प्रतापी थे। उनके आतंक से डाकू वगैरह उपद्रव नहीं कर पाते थे। सरकार ने उनके पास बंदूक आदि हथियार दिये थे । वहाँ हम सब लोग विनोद पूर्वक बैठे थे। नारियल के वृक्ष में लगे हुए नारियल को छेदने की चर्चा चली। महाराज ने अपने जीवन में कभी भी बंदूक हाथ में नहीं ली थी। उस समय उन्होंने बंदूक हाथ में ली और एकाग्र बंदूक का निशाना लगाया और क्षणभर में बंदूक छोड़ दी। गोली ने नारियल को छेद दिया। सब लोग चकित हो गये। इसके पश्चात् कभी उन्होंने बंदूक हाथ में नहीं ली। इस प्रकार की उनकी एकाग्रता तथा कर-कौशल था।
जब महाराज ने दीक्षा ली और हम लोग उनके दर्शनों को जाते थे, तो वे हमसे
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