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लोकस्मृति मधुर तथा संयत जीवन
इनका गरीब-अमीर सभी बालकों पर समान प्रेम रहता था। साथ के बालकों के साथ कभी भी लड़ाई झगड़ा नहीं होता था। उन्होंने कभी भी किसी से झगड़ा नहीं किया। उनके मुख से कभी कठोर वचन नहीं निकले। बाल्य-काल से ही वे शांति के सागर थे, मितभाषी थे।
उनकी खानपान में बालकों के समान स्वच्छंद प्रवृत्ति नहीं थी। जो मिलता उसे वे शांत भाव से खा लिया करते थे। बाल्यकाल में बहुत घी दूधखाते थे। पाव-डेढ़ पाव घी वे हजम कर लेते थे। आज की महान् तपश्चर्या में वही संचित बल काम करता है। सब लोग उनको अप्पा (दादा) कहते थे। वे सादे वस्त्र पहनते थे। खादी का बना १२ बंदी वाला अंगरक्खा पहनते थे। माता सत्यवती सूत कातती थी। इससे यह खादी बनती थी। वे सदा फैटा बाँधते थे। वे तकिये से टिक कर नहीं बैठते थे। तकिये से दूर आश्रय विहीन बैठा करते थे। अश्व परीक्षा आदि में पारंगत
वे अश्व परीक्षा में प्रथम कोटि के थे। वे अपनी निपुणता किसी को बताते नहीं थे, केवल गुणदोष का ज्ञान रखते थे। वे घर के गाय बैल आदि को खूब खिलाते थे और लोगों को कहते थे कि इनको खिलाने में कभी भी कमी नहीं करना चाहिए। आज उनके सुविकसित जीवन में जो गुण दिखते हैं, वे बाल्यकाल में वट के बीज समान विद्यमान थे। बचपन में वे माता के साथ प्रतिदिन मंदिर जाया करते थे। आत्मध्यान की रुचि
बच्चों के समान बारबार खाने की आदत उनकी नहीं थी। वे अपनी निपुणता को सदा शास्त्र पढ़ते हुए पाये जाते थे। ध्यान करने में उनकी पहले से रुचि थी। वेदांती लोग उनके पास आकर चर्चा करते थे। वेदांत प्रेमी रुद्रप्पा से उनकी बड़ी घनिष्टता थी। इनके उपदेश के प्रभाव से वह छानकर पानी पीता था, रात्रि को भोजन नहीं करता था। रात्रि को भोजन करते समय महाराज ने उसे प्रत्यक्ष में पतंगे आदि जीवों को भोजन में गिरते बताया था। इससे रात्रि-भोजन से उसके मन में विरक्ति पैदा हुई। उसको महाराज के उपदेश से यह प्रतीत होने लगा था कि जैन धर्म ही यथार्थ है। उनके प्रभाव से वह उपवास करने लगा था। जब वह प्लेग से बीमार हुआ, तब महाराज ने उसकी आत्मा के लिये कल्याणकारी जिन धर्म का उपदेश दिया था। मुनिभक्ति व निस्पृह जीवन
"मुनियों पर महाराज की बड़ी भक्ति रहती थी। एक मुनिराज को वे अपने कंधे पर बैठा कर वेद गंगा तथा दूध गंगा के संगम के पार ले जाते थे। वे रात्रि-दिवस शास्त्र पढ़ने
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