________________
चारित्र चक्रवर्ती
... आचार्य श्री की आगम सम्मत प्रवृत्ति दुर्भाग्य की बात यह है कि उत्तरप्रांत में बहुत समय से मुनियों की परंपरा का लोप सा हो गया था, अतः मुनि जीवन सम्बन्धी आगम का अभ्यास भी शून्य सम हो गया, ऐसी स्थिति में अपनी कल्पना के ताने बाने बुनने वाले करणानुयोग, द्रव्यानुयोग शास्त्रों का अभ्यास करने वाले श्रावक मुनि जीवन के विषय में अपनी विवेक-विहीन आलोचना का चाकू चलाया करते हैं। ऐसे ही आलोचक कुछ विद्वानों के सम्पर्क में आकर हमारा भी मन भ्रांत हो गया था, और हमने भी लगभग आठ माह तक आचार्य महाराज सदृश रत्नमूर्ति को काँचतुल्य सामान्य वस्तु समझा था। पुण्योदय से जब गुरुदेव के निकट संपर्क में आने का सुयोग मिला तब अज्ञान तथा अनुभव शून्यता जनित कुकल्पनाएं दूर हुई। दुःख तो इस बात का है कि तर्क व्याकरण आदि अन्य विषयों की पंडिताई प्राप्त व्यक्ति चरित्र के विषय में अपने को विशेषज्ञ मान उस चरित्र की आराधना में जीवन व्यतीत करने वाले श्रेष्ठ सन्तों के गुरु बनने का उपहास पूर्ण कार्य करते हैं। ___ मूलगुण-उत्तरगुण समाधान :- एक छोटा सा उदाहरण है । सन् १९४७ में पूज्यश्री का चतुर्मास सोलापुर में था। वहां वे चार माह से अधिक रहे, तब कुछ तर्कशास्त्रियों को आचार्यश्री की वृत्ति में आगम के अपलाप का खतरा नजर आया, अतः आगम के प्रमाणों का स्वपक्ष पोषक संग्रह, प्रकाशित किया गया। उसे देखकर मैंने सोलापुर के दशलक्षण पर्व में महाराज से उपरोक्त विषय की चर्चा की। - उत्तर में महाराज ने कहा- "हम सरीखे वृद्ध मुनियों के एक स्थान पर रहने के विषय में समय की कोई बाधा नहीं है।" फिर उन्होंने हमसे ही पूछा “यह चर्चा मूलगुण सम्बन्धी है या उत्तरगुण सम्बन्धी ?" मैंने कहा-“महाराज यह तो उत्तरगुण की बात है।"
महाराज बोले-“मूलगुणों को निर्दोष पालना हमारा मुख्य कर्तव्य है। उत्तरगुणों की पूर्णता एकदम से नहीं होती है। उसमें दोष लगा करते हैं। पुलाक मुनि के क्वचित कदाचित मूलगुण तक में विराधना हो जाती है।" उत्तर सुनकर मैं चुप हो गया। उस समय समझ में आया कि कई अविवेकी लोग ऐसी कल्पनाएं वर्तमान मुनि पर लादते हैं और यह नहीं जानते कि आगम परंपरा क्या कहती है ?
_ -तीर्थाटन, महाराज की आगम सम्मत प्रवृत्ति, पृष्ठ- १४७-१४८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org