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इतक्षणदिददा सहोडचियहोरदोरम्यंधोका अहवादउँनिधिपावकंस पदिया। अमिछाविकिपिधम्म मिलादिमाणराजमविवस पावियाणामिजिणावरक्यणसेन व्यवसात वनिरंतराई अलियाई जिकहमिकहतगईलरहने प्रतिमिनजससाण लश्कलसेसमणमिजल यहाणामअचवहिणिपणापालय कामिण्टमहापुराणु लणदरवणुमहरेण मन करमिकवकिविकरण करिमयरमापजलायरबमाले चललवणजलहिवलयतरासा दावंद सुरमविपश्व जेहतरलहणेजंदा व खारंसोनिहियामावस्गे सुरसिहरिहसहिए उदाहिणंग सरिगरिदरितसमुखसविधिएकछिपसिहनसरहरखेच तहोमपरिहा उमगहदेसु डवाळसकशीमसेस मुदधु लजायजादासदासजयुणाणणछिदासा। वयासुधिनासामारामारामहि पविठलगांमदिराजतदिधवलाहहिंसाहन्दलहररावाददा जासमछहिं णिचंचिदणिमोहहिं अंकुरिययावयवघणाई करमियफलियणदणा वणारंजहिकोपलुश्किसणपिङवणलहिदणकालकरंधुजर्दिछडियसमावलिविहान
जनता के दुर्वचनों से दग्ध उस मदान्ध दुर्विदग्ध को (दुनिया में) अपयश मिले ॥१०॥
में, प्रसिद्ध भरत क्षेत्र है, जो नदियों, पहाड़ों, घाटियों, वृक्षों और नगरों से विचित्र है। उसके मध्य में मगध देश प्रतिष्ठित है, शेषनाग भी उसका वर्णन नहीं कर सकता, यद्यपि उसके मुँह में हजार जीभें चलती हैं, और उसके ज्ञान में दोष के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है।
घत्ता-बह मगध देश, सीमाओं और उद्यानों से हरे-भरे बड़े-बड़े गाँवों, गरजते हुए वृषभ-समूहों, और दान देने में समर्थ लोभ से रहित कृषकसमूहों से नित्य शोभित रहता है ॥११॥
११ अथवा मैं अदय और पापकर्मा हूँ, मैं आज भी कुछ भी धर्म नहीं जानता। मिथ्यात्व के सौन्दर्य से रंजित विवेकवाला मैं जिनवर के वचनों के रहस्य को नहीं जानता। मैं अनवरत रसभाव उत्पन्न करनेवाले झूठे कथान्तरों को कहता रहा हूँ। लो मैं सूर्य से सहित आकाश को अपने हाथ से ढंकना चाहता हूँ। लो मैं समुद्र को घड़े में बन्द करना चाहता हूँ। मैं तुच्छ बुद्धि और नष्टज्ञान हूँ, (फिर भी) लो यह महापुराण कहता हूँ। लो दुर्जन ईष्या से निन्दा करे । लो मैं काव्य करता हूँ। विस्तार से क्या?" जलगजों, मगरों, मत्स्यों और जलचरों के कोलाहल से व्याप्त चंचल लवण समुद्र के वलय में स्थित, दो-दो सूर्यों और चन्द्रों से आलोकित होनेवाले तथा जम्बुवृक्षों से शोभित जम्बूद्वीप है। उसमें सुमेरुपर्वत के, लवणसमुद्र की समीपता करनेवाले, दक्षिणभाग
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जिसमें अंकुरित, नये पत्तों से सघन फूलों और फलोंवाले नन्दनवन हैं। जिसमें काले शरीरवाला कोकिल घूमता है मानो जो वनलक्ष्मी के काजल का पिटारा हो, जहाँ उड़ती हुई भौंरों की कतार ऐसी शोभित होती है
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