________________
४४
आदर्श-जीवन ।
-
- पत्र पाते ही खीमचंदभाई राधनपुर जानेको तैयार हो गये । हीराचंदभाईने उन्हें रवाना होते समय समझाया, देखना वहाँ कुछ गड़बड़ न करना । छगनको समझाना । यदि वह आवे तो ले आना न आवे तो उसकी मर्जी । खीमचंद भाई अपने साथ अपनी भूआ दीवाली बहिनको भी लेते गये। उस समय राधनपुर तक रेल नहीं थी। दूसरे स्टेशन पर उतरकर जाना पड़ता था । खीमचंदभाई जब रेलसे उतरे तो उस समय वहाँ उन्हें कोई गाड़ी आदि न मिले | आपने दीक्षाकी जो मिति लिखी थी उसमें दो दिन ही बाकी रह गये थे। तत्काल ही राधनपुर पहुँचना खीमचंदभाईके लिए जरूरी था । इसलिए ऊँट पर ही सवारी करके राधनपुर पहुँचे। क्योंकि उस समय वही मिला था। कभी ऊँट पर चढ़े न थे इसलिए उन्हें रास्तेमें बड़ी तकलीफ हुई।
राधनपुरमें ऊँटसे उतरते ही खीमचंदभाई सीधे स्वर्गीय महाराज साहबके पास पहुँचे; चरणवंदना की हमारे चरित्र नायकका पत्र सामने रक्खा और संक्षेपमें सब हाल कहा। कहते कहते वे रो पड़े,-" महाराज साहब मेरा छगन मुझे दे दीजिए।" -मोह कैसा प्रबल होता है ? सांसारिक संबंध कितने सुदृढ होते हैं ? धन्य हैं वे नर जो मोहममत्वका त्याग कर आत्मकल्याणमें लगते हैं।
आचार्यश्रीने खीमचंदभाईको समझाकर ढारस बंधाया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org