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विकृतिविज्ञान
व्रणशोथ या शोफ की सूजन साधारण सूजन से पृथक् होती है । इसका प्रमुख कारण व्रण का बनना है । व्रण की आम, पच्यमान और पक्वावस्थाओं का पूर्वस्वरूप व्रणशोथ से ही होता है । इसकी दूसरी विशेषता यह है कि यह एकदेशस्थ होता है । एक देश का अभिप्राय किसी एक ऊति से भी हो सकता है और किसी अंगविशेष से भी । सम्पूर्ण शरीर व्रणमय कदापि नहीं हो पाता उसका एकाधिक अंग व्रणमय हो सकता है | अतः एकदेशस्थ होना व्रणशोथ का महत्त्व का लक्षण है । शोध सर्वाङ्ग प्रायशः हुआ करता है अतः उससे पृथक् प्रगट करने की दृष्टि से इस एक देशोत्थत्व पर विशेष जोर डाला गया है । तीसरी ध्यान देने योग्य बात इस सम्बन्ध में यह है कि यह दोषों के संघात से उत्पन्न होता है । इसमें प्रकुपित हुए दोष विभिन्न लक्षणोत्पत्ति करते हैं । इसी कारण तीनों दोषों के अनुसार व्रणशोथ के वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक और सान्निपातिक विभाग कर दिये गये हैं । रक्तज और आगन्तुज में भी दोषबाहुल्य -रहता ही है । परिपक्वावस्था, जो प्रत्येक प्रकार के व्रणशोथ में सम्भव है, का वर्णन करते हुए इन तीनों दोषों के विभिन्न कार्यों का सुन्दर चित्रण नीचे के श्लोक में सुश्रुत ने किया है:
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वातादृते नास्तिरुजा, न पाकः पित्तावृते, नास्ति कफाच्च पूयः ।
तस्मात् समस्ताः परिपाककाले पचन्ति शोफांस्त्रय एव दोषाः ॥ ( सु. सू. अ. १७-११ )
पाक नहीं हो
सकती, अतः
Marate में बिना वात के शूल नहीं हो सकता, बिना पित्त के सकता तथा बिना कफ के उसमें पूय ( pus) की उत्पत्ति नहीं हो पाककाल में तीनों ही दोष मिलकर उसको पकाते हैं। चौथी ध्यान यह है कि यह व्रणशोथ त्वङ्मांसस्थायी होता है | त्वचा और मांस के अतिरिक्त जिन अन्य भागों में व्रण हो सकते हैं उनका वर्णन करते हुए लिखा गया है कि:
देने योग्य बात
त्वङ्मांससिरास्नाय्वस्थिसन्धिकोष्ठमर्माणीत्यष्टौ व्रणवस्तूनि । अत्र सर्वत्रणसन्निवेशः ॥
(सु. सू. अ. २२-२ )
( walls of the white & grey
त्वचा जिसमें बाह्य (skin ) और आभ्यन्तर ( mucous membrane ) दोनों सम्मिलित हैं, मांस ( muscular tissue ), सिरा veins, arteries & capillaries ), स्नायु ( nerves, matters of the brain and the tendons of the muscles), arfer (bones & cartilages), सन्धि ( joints ) कोष्ठ, ( viscera ), मर्म ( vital parts ) का समावेश किया गया है। इन सभी स्थलों में व्रण देखा जा सकता है । जहाँ व्रण होगा वहाँ व्रणशोथ सर्वप्रथम हुआ करता है । आधुनिक विद्वान् प्रत्येक अंग और ऊति में व्रणशोथ की कल्पना करते हैं ।
अब हम व्रणशोथ का आवश्यक विचार प्रारम्भ करते हैं ।
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परिभाषा - आधुनिक विचारक यह मानते हैं कि व्रणशोथ सजीव शरीरस्थ कोशाओं के द्वारा किसी भी प्रक्षोभ के विरोध में की गई प्रतिक्रिया मात्र है । इसका तात्पर्य यह है, कि किसी भी कारण से हमारे शरीर को क्षति पहुँचाने का जो