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एम नमो नमो निम्मलदसणस्स म आग पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
(भाग
सवृत्तिक-आगम-सूत्राणि-2
आगम - ४४ + ४५ “नन्दी” + “अनुयोगद्वार" वृत्ति:
मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, पालडी, अमदावाद
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
SonalesaANGal
सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर
सूरीश्वरजी महाराज साहेब
श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद
करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है।
इस संघमें पूज्य साधू-भगवंत एवं साध्वी-महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म. की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है।
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
। सवृत्तिक-आगम-सूत्राणि-2 |
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
WAwaayuniisweet
Tolerances
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी
M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
Araveena
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/98253062751
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* नन्दीसूत्र
• अनुयोगद्वार -[हारिभद्रिया-वृत्ति]
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सवृत्तिक भाग-7
[४४] श्री नन्दीसूत्रम्
नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंव-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
“नन्दीसूत्र" मूलं एवं वृत्ति:
[हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः]
[आद्य संपादकः- पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह)
पुनः संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि-२-श्रेणी भाग-7.
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः:
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आगम
[भाग-7] “नन्दी"- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
............ मूल-1 / गाथा ||-|| ..............
(४४)
प्रत
सूत्रांक
गाथा |-||
NECRASWACHRAWACHASMICW2CWASNACIONALWACHARWACHC
श्रीनन्दीसूत्रस्य हारिभद्रीया वृत्ति :। प्रकाशिका-बुहारीवास्तव्यश्रेष्ठिझवरचंदपन्नाजीवितीर्णकिंचित्साहाय्येन
श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांवर संस्था, रतलाम ।
मुद्रयिता-जैनबन्धुमुद्रणालयाधिपः श्रीजुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा इन्दौर वीर सं. २४५४ विक्रम सं. १९८४ क्राइष्ट सन १९२८ पण्यं १-१२-.
ठकाळ8
IRCRAMOCRAwes
दीप अनुक्रम
-1
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: ... 'नन्दीसूत्र-हारिभद्रिया वृत्ते: मूल टाईटल पेज
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मूलाका: ५९+९०
नन्दी चूलिका-सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: १६३
| पृष्ठांक
०१४
०३३
०१४
मूलांक: | विषय: ००१-- नन्दी -सूत्रं --१६३ - वीरस्तुति
→ संघस्तुति → जिनवंदना, → स्थविरावली
| मूलांक: | विषय:
→ श्रोता, पर्षदा → ज्ञानस्य भेदा: → अवधिज्ञान वर्णनं → मन:पर्यवज्ञान-वर्णनं → केवलज्ञान-वर्णनं
पृष्ठांक: | | मूलांक: | विषय:
पृष्ठांक: → मतिश्रुत ज्ञान वर्णन | ०७० ०३६
→ अङ्गप्रविष्ठसूत्र | १०५ । ०४२ ०५५
अनुज्ञानन्दी - परिशिष्ठं xxx ०६१ ।
योगनन्दी- परिशिष्ठं xxx
०१९
०२५
०२७
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
• जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतरतप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति बुद्धि से : श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर | अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ | • बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरणन्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए|
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवगिणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम • मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हआ |
.सिर्फ मल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत- छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की |
. ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध: | कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये । ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
.........मुनि दीपरत्नसागर...
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप- प्रेरक, चारित्र मार्ग-रागी, प्रवचनपटु, सुपरिवार युक्त
पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए। इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था । आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्यपरिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे ।
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•••• ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए। एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष}दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया" अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को • प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ••• मुनि दीपरत्नसागर.....
अनुदान दाता संस्था:- “श्री परम आनंद श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ"
वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठककर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद
करीब ५० साल पहेले परम पूज्य स्व. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब द्वारा संस्थापित इस संघ में श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेंद्रसागरसूरीजी म०सा० ही है | इस संघमें पूज्य साधू भगवंत : : एवं साध्वीजीओ का उपाश्रय भी है जहा हर साल चातुर्मास करवाके श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | | इस संघ में आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है । ऐसे सम्यग् मार्गी : संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है ।
मुनि दीपरत्नसागर ...
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'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ८ के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये “ सवृत्तिक-आगम-सुत्राणि-2 के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई , उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे । समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यो के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले : को यत्किंचित बहमान प्रगट करते हए कछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
.......मुनि दीपरत्नसागर
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[नन्दीसूत्र- मूलं एवं वृत्तिः ] इस प्रकाशन की विकास- गाथा
यह प्रत सबसे पहले "नन्दीसूत्र" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में ऋषभदेव केशरीमलजी संस्था संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी ) महाराज साहेब | प्रत को मिलाकर एकसाथ मुद्रण करवाया था, (१) चूर्णि और (२) वृत्ति | मगर हमने हमारे प्रकाशनमे चूर्णि को चूर्णि के विभागमे रख दिया और वृत्ति को यहां "आगम- सुत्ताणि-सटीकं प्रताकार net publications भाग-2 मे स्थान दे दिया |
द्वारा प्रकाशित हुई, इस के मूल संपादकश्रीने तो यहां दो
ये 'हारिभद्रीया-वृत्ति' तो कदमे छोटी है, मगर 'नन्दीसूत्र' पर मलयगिरिजी रचित वृत्ति बहोत बडी है, जो हमारे "आगम-सुत्ताणि-सटीकं"
प्रताकार net publications भाग-1 मे हम मुद्रित करवा चुके है ।
*हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर सूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके ।
हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है| हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है ।
* शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणासे और श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, पालडी, अमदावाद की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये "सवृत्तिक- आगम-सूत्राणि_2" भाग -७ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है ।
मुनि दीपरत्नसागर. पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूल-1 /गाथा ||-|| .........
प्रत सूत्रांक
गाथा ||-||
मुद्रितपूर्वग्रन्थाः ।
मुद्रयिष्यमाणाः- प्रतिपादितः, तथा च श्रीमतो हरिभद्रसरे दशबैकालिकचूर्णिः
पूर्वगतकतिचित्स्त्रार्थधारकता या श्रीमऐन्द्रस्तुतयः
उत्तराध्ययनचूर्णिः
द्भिरभयदेवसूरिभिः पंचाशकस्तो गदिता प्रकरणसमुच्चयः
आचारांगचूर्णिः
सावितथैव, एवं च तेषां पूर्वगतकालासअनुयोगद्वाराणां चूर्णिः वृत्तिश्च२-०-०
सूत्रकृतांगचूर्णिः
बकालभावितया श्रीवीरहायनः पंचपंचाज्योतिष्करण्डकवृत्तिः ३-८-० प्राप्तिस्थान
शदधिकवर्षसहस्रलक्षण एवं सत्तासमयो पंचाशकाद्यष्टशाखीमूलं
श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी, योग्यः,एकादशशताब्द्यां माचिनो जिनभद्रा प्रत्याख्यानादि १-४-०
पेढी रतलाम./
| ध्यानशतकादिविधायिभ्योऽन्ये एवेति श्री
धर्मसागरैः स्वयमेव सत्रैव पट्टावल्या मुद्यमाणाः
श्रीहरिभद्रसूरिसमयप्रकाशः ख्यातं तत्र दृष्टचरं कैश्चित्तदाश्रयं, नन्दीआवश्यकचूर्णिः
श्रीमता हरिभद्रसूरिणा पूर्वगतव्या- चूर्णिकालस्तु लेखकादिलिखित इति न वन्दारुवृत्तिः
ख्याने पूर्वगतानां प्रायो व्यवच्छिन्नत्वम-विश्वासाहे, नस अन्धमध्ये अन्ध कृल्लिखिता --- [भिहित, परिकर्मादीनां च समूल उच्छेदः । शतन "
इति न बाधः इति शापयत्यानन्दसामरः
दीप अनुक्रम
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः | ... पूज्यपाद् आनंदसागरसूरीश्वरेण दर्शित: हरिभद्रसूरे: काल-समय
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
........... मूलं । | गाथा ||-||
॥ नमः सर्वज्ञाय ।।
प्रत सूत्रांक
नन्दीहारिभद्रीय
श्रीमद्धरिभद्रसूरिसूत्रिता नन्दीवृत्तिः
सा प्रस्तावना
गाथा ||-||
RECENESS
जयति भुवनैकभानुः सर्वत्राविहतकेवलालोकः । नित्योदितः स्थिरस्तापवर्जितो वर्द्धमानजिनः॥१॥
इह सर्वेणैव संसारिणा सत्त्वेन नारकतिर्यनरामरगतिनिबन्धनानेकशारीरमानसातितीव्रतरदुःखौघसङ्घातपीडितेन जातिजराX मरणशोकरोगाधुपद्रवव्रातरहितनिरतिशयालोकसुखस्वभावापवर्गगतिसम्भवे सति पीडानिर्वेदात तत्परित्यागाय निरतिशयालोक-IX | सुखाभिलाषाच्च तदवाप्तये आत्मपरतुल्यचित्चेन सर्वथा स्वपरोपकाराय प्रवर्चिाव्यमिति, तत्रान्यपरिरक्षणादिना परोपकारपूर्वक | एवात्मोपकार इति विशेषतस्तत्र, स पुनः परोपकारो द्विघा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो भोजनादिविचित्रविभवप्रदानजनिता, अयं चानैकान्तिकोऽनात्यन्तिकच, भावतस्तु सद्धर्मप्रदानजनितः, अयं चैकान्तिकस्तथा आत्यन्तिकच, सद्धर्मश्च श्रुतधर्मचारित्रधर्मभेदादू द्विमेदः, तत्र श्रुतधर्मो जिनवचनस्याध्यायः, चारित्रधर्मस्तु तदुक्तः श्रमणधर्म इति, उक्तश-"मुयधम्मो समाओ चरि-1 चधम्मो समणधम्मो।" तत्र श्रुतधर्मसम्पत्समन्विता एवं प्रायश्चारित्रधर्मग्रहणपरिपालनसमर्था भवन्तीति तत्प्रदानमेवादौ न्याय्य|मिति, तत्रापि श्रुतप्रदाने सत्यपि नाविनातार्थादेव तस्मादमिलपितार्थावाप्तिःप्राणिनामित्यतः प्रारम्यते अहंदूचनानुयोगः, अयं चाल
दीप अनुक्रम
॥१॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: | ... वर्धमानजिनेश्वरस्य स्तुति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............ मूलं 1 / गाथा ||-||
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||-||
नन्दी-18 परमपदप्राप्तिहेतुत्वाच्छ्योभूतो वर्तते, श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति, यथोक्तम्-"श्रेयांसि बहुबिनानि, भवन्ति महतामपि । अश्रेयसिनन्याः हारिभाद्रय प्रवृत्तानां, कापि यान्ति विनायका ॥१॥' इति, अतोऽस्य प्रारम्भ एव विघ्नविनायकोपशान्तये मङ्गलाधिकारे नन्दिवक्तव्यः । अथ शम्दार्थ: नन्दिरिति का शब्दार्थः?, उच्यते, 'दु णदि समृद्धा' वित्यस्य धातोः 'इदितो नुम् धातो' रिति (७-१-५८) नुमि विहितेनुबन्ध
निक्षेपाव काही लोपे च कृते उणादिकः इन् प्रत्ययो विधोयते, 'इन् सर्वधातुभ्य' इति वचनाद्, अनुबन्धलोपे च कृते सति नन्दि, सो रुत्वं विस
हजनीयश्चेति नन्दिः, नन्दनं नन्दिः नन्दन्त्यनेनेति वा नन्दन्त्यस्मिन्निति वा नन्दयतीति वा तदभेदोपचारामन्दिः हर्षः प्रमोद
का इत्यनर्थान्तरं, 'ताम्यामन्यत्रोणादय' इति वचनात् ताभ्यामिति सम्प्रदानापादानाम्यां अन्यत्र उणादयः प्रत्यया भवन्ति, अन्ये तु12 दिनन्दीत्यभिदधति, तत्रापि नन्दिस्थिते 'इक् कृष्यादिभ्य' इति (उणा.) इक् प्रत्ययः, स च कृत्यलुटो बहुल' (३-३-११३)मिति
वचनादावे करण वा अवगन्तव्य इति, ततः 'कृदिकारावक्तिनः, (वार्तिक) 'सर्वतोऽक्तिनादित्येक' इति खीप्रत्ययः, अस्य।
भावार्थः कृदिकारान्तो यः शब्दः क्तिन्वर्जितस्तस्मात् स्त्रीप्रत्ययो भवति, अपरे तु सर्वतः अक्तिमादिकारान्तात् स्त्रीप्रत्ययो भवतीति लामन्यन्ते, अनुबन्धलोपे च कृते 'यस्ये' (६-४-१४८) तीकारलोपे च नन्दीति रूपं भवति, नन्दनं नन्दी नन्दन्त्यनयेति वा भव्याः।
प्राणिन इति नन्दी, इत्यलमप्रस्तुतातिप्रसनेनेति।
___ अयं च नन्दिश्चतुर्विधः, तद्यथा- नामनन्दिः स्थापनानन्दिः द्रव्यनन्दिः भावनन्दिश्चेति, तत्र नामस्थापने प्रकटार्थे, द्रव्यनहन्दिर्बिंधा-आगमतो नोआगमतब, तत्रागमतो नन्दिपदार्थः तत्र च अनुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य' मिति वचनात्, नोआगमतस्तु
शरीरद्रव्यनन्दिः भव्यशरीरद्रव्यनन्दिः शरीरमव्यशरीरव्यातिरिक्तश्च द्रव्पनन्दिः, तत्र शरीरद्रष्यनन्दिः नन्दिपदार्थज्ञस्य ।
दीप अनुक्रम
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ... नन्दीसूत्रस्य अर्थ एवं निक्षेपा:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
...... मूलं 11 गाथा ||१||
प्रत सूत्रांक
नन्दीहारिमद्रिय वृतो
॥
३
॥
गाथा
||१||
शरीरं जीवविप्रमुक्त अनुभूतनंदिभावत्वात्, पश्चात्कृतभावस्य द्रम्पत्वात्, यथोक्तम्-"भूतस्य भाविनी वा भावस्य हि |
नन्या कारणं तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तखः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥ १ ॥' भव्यशरीरद्रव्यनंदिव नन्दिपदार्थपरिज्ञानमाव- निक्षेपाः | योग्यं वालादिशरीरं, पुरस्कृतभावत्वादस्य, व्यतिरिक्तः पुनः क्रियाविष्टो द्वादशविधस्तूर्याङ्गसखातोऽयम्-तयथा-'भमा १ मउंद । २ महल ३ कडंच ४ झल्लरि ५ हुडक्क ६ कंसाला ७ काहल ८ तलिमा ९ वंसो १० संखो ११ पणवो १२ य पारसमो ॥१॥ मावनन्दिरपि द्विविधैव-आगमतो नोआगमतच, तत्रागमतो भावनन्दिा नन्दिपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, 'उपयोगो भाव'इविकृत्वा, नोआगमतस्तु भावनन्दिः पञ्चप्रकारशानसमुदायः, नोशब्दो देशवचनः, अथवा पञ्चप्रकारज्ञानस्वरूपप्रतिपादकोऽध्ययनविशेषः,४ नोशब्दो देशवचन एव । अयं चाध्ययनविशेषः श्रुतांशन सर्वश्रुताभ्यन्तरभूतो वर्तते, अत एव सर्वधुतारम्भेष्वेव विघ्नविनायकोपशान्तये मङ्गलार्थमभिधीयत इति, अस्य च मंगलस्थानावसरप्राप्तस्य सत आचार्याः विनेयानां सूत्रार्थगौरवोत्पादनार्थमविच्छेदेन सन्तानागतस्त्रार्थपददर्शनार्थ चादावेवावलिकामभिधाय व्याख्यानाय यतन्ते, सर्वे श्रुतार्थाश्च यतस्तीर्थकरप्रभवा अतः | प्रज्ञापकश्रावकपाठकाः अभिलपितार्थसिद्धये प्रवर्तमानाः प्रधानोपायत्वाद्भगवद एव नमस्कारपूर्वकं प्रवर्त्तन्त इत्यत आह ग्रंथकार:
जयति गाथा(१-२ पत्रे)। इन्द्रियविषयकषायपातिकर्मभवोपग्राहिकर्मशत्रुगणजयाज्जयतीत्युच्यते, किंविशिष्टो जयति?जगज्जीक्योनिविज्ञायका, इह जगच्छब्देन सकलधर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायपरिग्रहः, जीवशब्देन तु सकलजीवास्तिकायपरिग्रहः, उक्तं च-"जगन्ति जंगमान्याहुः जगद् श्रेयं चराचरम्"योनया-सचित्ताद्याः,उक्तञ्च-सचित्तशीतसंपत्तेतरमिश्रास्तधोनया (तस्व०२-३३
दीप अनुक्रम
॥३
SA
SURERS
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: | ... अत्र मूल नन्दीसूत्रस्य आरंभ: जिन-स्तुति द्वारा क्रियते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
... मूलं 11 गाथा ||१||
प्रत सूत्रांक
नन्दी: 3 जीवोत्पत्तिस्थानानीत्यर्थः, 'यु मिश्रणे' युवन्ति-तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्तः ओदारिकादिशरीरेण मिश्रीभवन्त्यस्यामिति योनिः । जिनहारिभदायाला उक्तम्च-'जोएण कम्मएणं आहारेड अणतरं जीवो । तेण परं मासेणं जाव सरीरस्स निष्फची ॥१॥ ततश्च जगण जीवाथ योन
स्तुतिः वृत्ती
या जगज्जीवयोनयः विविधम्-अनेकधोत्पादाधनन्तधर्मात्मकं जानातीति विज्ञायकः जगज्जीवयोनीनां विज्ञायक २ इति समासः, ॥४॥ अनेन केवलज्ञानप्रतिपादनात् स्वार्थसम्पदमाह । तथा जगद् गृणातीति जगदगुरुः यथोपलब्धजगद्वक्तेति भावना अनेनापि स्वा
लाथसम्पदमेवाह । तथा जगदानन्दः इह जगच्छब्देन सन्निजङ्गमपरिग्रहः, तेषां सर्मदेशनाद्वारेणानन्दहेतुत्वादैहिकामुष्मिकप्रमोदकारणत्वात् जगदानन्द इत्यनेन परार्थसम्पदमाह, तथा 'जगन्नाथ' इह जगच्छब्देन सकलचराचरपरिग्रहः तस्य यथावस्थित-12
स्वरूपप्ररूपणद्वारेण वितथप्ररूपणापायेम्यः पालनात् नाधवनाथ इति, अनेनापि परार्थसम्पदमिति । तथा जगन्धुः इह जगच्छलब्देन सकलपाणिपरिग्रहस्तदव्यापादनोपदेशप्रणयनेन सुखस्थापकत्वाद् बन्धुवत् बन्धुः, तथा चोक्तम्-'सच्चे पाणा सव्वे भूया सब्वे माजीवा सव्वे सत्ता ण हतवा ण अज्जायेयव्या ण परितावेयन्वा ण उबद्दवेयच्या, एस धम्मे धुवे णितीए सासते समेच्च लोय खद-1 Xणेहि पवेदिते' इत्यादि, अनेनापि परार्थसम्पदमिति । तथा 'जयति जगत्पितामह' इति, इह जगच्छब्देन सकलसत्त्वपरिग्रह 181 * एच, तेषां च कुगतिगमनभयापायरक्षणात् पिता धर्मों वर्तते, अतो जगत्पितामहः, तथोक्तम्-'दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् , यस्माद्धा-1
रयते ततः। धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ १॥ तस्यापि चार्थप्रणेतृत्वेन भगवान् पिता वर्तते, अती जमत &ापितामह इति, स्तवाधिकाराच पुनः क्रियाभिधानमदुष्ट, उक्तञ्च सज्झायझाणतवओसहेसु उवएसइपयाणेसु । सन्तगुणकित्त
सु य न होति पुणरुत्तदोसा भो ॥ १॥ अनेनापि परार्थसम्पदमाह । भगवानिति भगा-समोश्वयादिलक्षणः, तथा चोक्कम्
SASSES
गाथा ||१||
दीप अनुक्रम
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
॥२॥
दीप
अनुक्रम
[२]
नन्दी
हारिभूद्रीय
वृचौ
॥ ५ ॥
Xx
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [] / गाथा ||२||
'ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतींगना ||१||' भगो ऽस्यास्तीति भगवानिति, अनेन चोभयसम्पदमाह, स्वपरोपकारित्वादैश्वर्यादेरित्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ १ ॥ ' व्याख्यानयन्ति केचित् स्तुतिमेनामन्यथापि | विद्वांसः । तत्राप्यपौनरुत्यं सूक्ष्मधिया चिन्तनीयमिति ॥ १ ॥ एवं तावदनादिमन्तो मतास्तीर्थकरा इति ज्ञापनार्थं सामान्येन 'नमस्कारमभिधाय साम्प्रतमासनोपकारित्वात् सकलदुःखपरमौषधभूतप्रवचनप्रणेतृत्वाद्वर्त्तमानतीर्थाधिपतेः नमस्कारं प्रतिपादयग्राह
जयति सु० गाहा ॥ (*२-१५) ॥ जयतीति पूर्ववत् श्रुतानां आचारादिभेदभिन्नानां प्रभवः प्रभवन्त्यस्मादिति प्रभवः, तदर्थाभिधायकत्वात्, कारणमित्यर्थः, ऋषभादयोऽप्येवंभूता एवं अत आह-तीर्थकराणामपश्चिमो जयति, तत्र तीर्थकरणशीलास्तीर्थकरास्तेषां तीर्थकराणां भरते अधिकृतावसर्पिण्यां पश्चिम एवानिष्टशब्दपरिहारार्थमपश्चिम इत्युच्यते, पञ्चानुपूर्व्या वा पश्चिम इति, जयति गुरुलोंकानां गृणाति शास्त्रार्थमिति गुरुः, लोकानां इति सच्चानां जयति महात्मा अनन्तज्ञानवीर्ययुक्तत्वान्महानारमा यस्य स महात्मा, महावीर इति 'सूर वीर विक्रान्ता' विति कषायादिशभुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः, 'ईर गतिप्रेरणयो' रित्यस्य वा त्रिपूर्वस्य विशेषेण ईश्यति कर्म गमयति याति वेह शिवमिति वीरः, महाँश्रासौ वीरश्र महावीर इति गाथार्थः ॥ पुनरस्यैवातिशयप्रदर्शनद्वारेण स्तुतिमभिधित्सुराह
भर्द्द॰गाहा(*३-२३)‘भद्रं' कल्याणं भवतु, कस्य ?- सर्वजगदुद्योतकस्येत्यनेन ज्ञानातिशयमाह, इह च "चतुर्थी चाशिष्यायुव्यमद्र भद्रकुशलसुखार्थहितै" रिति (२-३-७३) वचनात् षष्ठयपि भवत्येव यथा आयुष्यं देवदत्तायायुष्यं देवदत्तस्येति, एवं भद्रादिष्वपि
श्री
वीरजिन स्तुतिः
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॥५॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ... अत्र वीर जिनेश्वरस्य स्तुतिः क्रियते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
.... मूल 11 गाथा ||३||
नन्दी
प्रत सूत्रांक
तारिमद्रीय
गाथा ||३||
8 वक्तव्यमिति, भद्रं जिनस्य 'जिं जये' अस्प औणादिकनप्रत्ययान्तस्य जिन इति भवति, रागादिजयाज्जिन इति, अनेनापाया-13. सर्व
दातिशयमाह, अपायो-विश्लेपः रागादिमिः सार्द्धमात्यन्तिकवियोग इत्यर्थः, आह-अपायातिशये सति ज्ञानातिशयभावाद व्यतिक्रमः जनस्तावा वृत्तौ ।
किमर्थ , फलप्रधानाः समारम्भा इति शापनार्थ, भद्रं सुरासुरनमस्कृतस्येत्यनेन पूजातिशयमाह, नहि विभवानुरूपां पूजामक॥६॥
स्वैव सुरासुरा नमस्कारक्रियायां प्रवर्तन्त इति, उक्तं च-"अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिन्यो ध्वनिधामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुमिरातपत्रं, सतप्रतिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥१॥" इति, पूजातिशयान्यथाऽनुपपत्त्यैव वागतिशयो गम्यते, भद्रं धुतरजस इत्यनेन सकलसंसारिकेशविनिर्मुक्ता सिद्धावस्थामेवाह, यतो बध्यमानं कर्म रजो भण्यते, तदभावस्त्वयोगिसिद्धानामेव, न पुनरन्येषां, यत आह-"जीये ण एस जीवे एयइ वेदति चलइ फंदद ताव णं अट्टविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छबिहबंधए पा एगविहबंधए वा" इत्यादि, तत्थ "सत्तविहबंधगा होंति पाणिणो आउवज्जगाणं तु । तह सुहुमसम्पराया छबिहबंधा विणिहिट्ठा ॥१॥मोहाउगवज्जाणं पगडीण ते उ बंधगा भणिया । उवसन्तखाणमोहा केवलिगो एगविहबंधा ।।२।। ते उण दुसमयठिइतस्स बंधगा ण उण संपरायस्स। सेलेसि पडिवना अबंधगा हॉति विनया ॥३॥" आह-भगवतः संसारातीतत्वात् परमकल्याणरूपत्वात् किमेवमुच्यते भद्रं भवतु, न च स्तोत्रा भणितं सर्वमेव भवतीति, अत्रोच्यते, सत्यमेतत् , तथापि कुशलमनोवाकायप्रवृत्तिकारणत्वाच दोष इत्यलं प्रसञ्जेनेति | माथार्थः ।।२।। एवं तावत्तीर्थकरनमस्काराः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं तीर्थकरानन्तरः सह इतिकृत्वा तीयान्तरग्रामव्युदासेन नगररू| पकेण तसंस्तवं कुर्वनाह
गुण गाहा (* ४-४२ ) 'गुणभवनगहन' इह गुणाः-पिण्डविशुद्धयादयः उचरगुणा अभिगृधन्ते, यथोक्तम्--"पिंडस्स
दीप अनुक्रम
[३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
|18-4||
दीप अनुक्रम
[४-५ ]
नन्दीहारिभद्रीय वृचौ
11 11
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [] / गाथा ||४,५||
जा विसोही समितीओ भावणा तवो दुविहो । पडिमा अभिग्गहानिय उत्तरगुणमो वियाणाहि || १ ||” एत एव भवनानि एभिर्गहनं प्रचुरत्वादुत्तरगुणानामेभिः संकुलं, सङ्घन गरमभिगृह्यते, तस्यामन्त्रणं हे गुणभवन गहन !, तथा अतरनभृत् श्रुतान्येव आचारादीनि निरुपमसुखहेतुत्वाद्रत्नानि तैर्मृत-पूरितमित्यर्थः तस्यामन्त्रणं, तथा दर्शनविशुद्धरध्याक, इह दर्शनं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्पाभिव्यक्तिलक्षणं सम्यग्दर्शनं गृह्यते तच्चोपशमिका दिभेदात् पञ्चविधं, तथा चोक्तम्- "तं च पंचधा सम्मं-उवसमं सासायणं खयोत्रसमियं वेदयं खइयं" ति, दर्शनमेवासारमिध्यात्वादिकचवररहिता शुद्धा रथ्या यस्य तत्तथाविधं तस्यामन्त्रणं, 'संघनगर' सङ्घः चातुर्वर्णः श्रमणादिसंघातः स नगरभिव संघनगरं तस्यामन्त्रणं, यथा पुरुषोऽयं व्याघ्र इव पुरुषव्याघ्रः, उक्तश्च- “उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोग " ( २-१-५६) भद्रं कल्याणं तव भवतु, अखण्डचारित्रप्राकार! चारित्रं- मूलगुणा अखण्डम् अविराधितं चारित्रमेव प्राकारो यस्य तत्तथाविधं तस्यामन्त्रणमिति गाथार्थः ||४|| संसारोच्छेदित्वात् संघस्यैव चक्ररूपकेण स्तवं कुर्वन्नाह-
संयम० गाहा (* ५-४३ ) संयमत पस्तुम्वारकाय नमः संयमश्च तपांसि च संयमतपांसि तुम्बं च अरकाश्च तुंबारकाः, तत्र यथासंख्यं संयमतपांस्येव तुम्वारका यस्य तत् तथाविधं तस्मै नमः, तत्र संयमः 'पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिवेति संयमः सप्तदशभेदः ॥ १॥ तपो द्वादशप्रकारं बाह्यमभ्यन्तरं च तत्र वा परिवधं यथोक्तम्- "अनशनमूनोदरता वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनतेति वाद्यं तपः प्रोक्तम् || १ || अभ्यन्तरमपि षड्विधम् उक्तञ्च- 'प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्यं स्वाध्यायो ध्यानं व्युत्सर्गथे” ति, सम्मत पारियल्लस्सात्त पारियां बाह्यपृष्ठकस्य बाह्या अमिरुच्यते, ततश्च सम्य
संघस्य नगरतया 'स्तुतिः
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॥ ७ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः •••• अथ विविध उपमायाः 'संघ' स्तुतय: आरभ्यते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
मूलं / गाथा ||५-८|| ...
हारिभद्रीया
प्रत सूत्रांक
गाथा ॥५-८||
नन्दी
संघस्य क्वाखभ्रमिणे नमः, व्याख्यातं गाथार्थ, चरकादिमिरतुल्यत्वानास्य प्रतिचक्रं विद्यते इत्यप्रतिचक्रं तस्य जयो भवतु इति, सुप्रणि-15
चक्रतया वृत्ती | धानमेतत् , सदा सर्वकालं, संघश्चक्रमिव संघचक्रं तस्येति गाथार्थः ॥५।। इदानी संघस्यैव मार्गगामित्वतो रथरूपकेण स्तवं कुर्वमाह
| पद्यतया भई गाहा (*६-४३) भद्रं कल्याण भवतु, कस्य !-संघरथस्य, भगवत इति योगः, किंविशिष्टस्य :-शीलोच्छ्रितप- चस्वका ॥८ ॥
ताकस्य, प्राकृतशैल्याऽन्यथोपन्यासः, शीलग्रहणात अष्टादशशीलासहस्रपरिग्रहः, तथा तपोनियमतुरगयुक्तस्य तप:| संयमाचयुक्तस्येत्यर्थः स्वाध्यायो-वाचनादिः, यथोक्तम्-"वाचना प्रच्छना परावर्चना अनुप्रेक्षा धर्मकथा "ति, तत्र स्वाध्याय एव | शोभनो नन्दिघोषतूर्यरवो 'सुनेमियोसस्स'ति नेमिनिर्घोषो वा यस्य स तथाविधो यस्य, इह च शीलांगनिरूपणे सत्यपि
| तपोनियमनिरूपणं प्रधानपरलोकांगत्वख्यापनार्थम, अस्ति चायं न्यायो यदुत सामान्योक्तावपि प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषाII भिधानमिति, यथा ब्रामणा आयाता पशिष्टोऽप्यायात इति, एवमन्यत्रापि योजनीयमित्यले प्रसंगेनेति गाथार्थः ॥ संघस्यैव
लोकासंश्लिष्टत्वतः पद्मरूपकेण स्तवं प्रतिपादयन्नाहकम्मरय० गाहा ॥ (*७-४४॥) सावय गाहा।। *(८-४४ ॥) संघपद्मस्य भद्रं-माल भवत्वितिक्रिया, किम्भूतस्य:कर्मरजोजलीयविनिर्गतस्य इह ज्ञानावरणादिलक्षणं कर्म तदेव अनेकधा जीवगुण्डनाद्रजो भण्यते तदेव भवकारणत्वाज्जलीघः तस्मा-131 ॥८॥ ला द्विनिर्गत इव विनिर्गतः, तथा चाविरतसम्पष्टिरप्यपार्द्धपदलपरावर्चः परः संसार उक्त इत्यतो विनिर्गतस्तस्य, श्रुतरत्नमेव दीर्घ
नालं. यस्य सः, तद्वलादेव निर्गत इति भावनीय, पंच महाव्रतानि-प्राणातिपातादिविनिवृत्तिलक्षणानि तान्येव स्थिरा-रढा कर्णिका
+
दीप अनुक्रम
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
...... मूलं 1 | गाथा ||८-१०|| ...
प्रत सूत्रांक
नन्दी- हारिभद्रीय
वृत्तौ ।
॥९॥
गाथा ||८-१०||
मध्यमण्डिका यस्य, गुणा-उत्तरगुणाः त एव तत्परिकरत्वात् केसराणि यस्य विद्यन्ते इति गुणकेसरवत् तस्य गुणकेसरवतः, श्रा-IM
संघस्य वकजनमधुकरीपरिवृतस्येति प्रकटार्थ, नवरमभ्युपेत्य सम्यक्त्वं प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात् साधूनाम
पचन्द्रमारिणां च समाचारी शृणोतीति श्रावकः, उक्तं च-"योऽद्यभ्युपेतसम्पत्यो, यतिम्यः प्रत्यहं कथाम् । शृणोति धर्मसम्बद्धाम
तया स्तव: सौ श्रावक उच्यते ॥१॥" जिनसूर्यतेजोबुद्धस्य--केवलज्ञानभास्करविशिष्टसंवेदनप्रभवधर्मदेशनाबुद्धस्योति भावार्थः, श्रमणगणसहस्रपत्रस्येति प्रकटार्थमेव, नवरं श्राम्यतीति श्रमणः 'कृत्यलुटो बहुल' मितिवचनात् कर्तरि ल्युद, श्राम्यतीति तपस्थति, एतदुक्तं भवति-प्रवज्यादिवसादारभ्य सकलसावययोगविरतो गुरूपदेशादनशनादि यथाशक्क्याऽप्राणोपरमात्तपश्चरतीति श्रमणः, उक्तं च"यः समः सर्वभूतेषु, स्थावरेषु त्रसेषु च । तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः।।१।। इति गाथाद्वयार्थः । इदानी सङ्घस्यैव सौम्यतया चन्द्ररूपकेण स्तवमाह
तवसंघमगाहा ॥१९-४५॥ तपःसंयममृगलाञ्छन तपःसंयममृगचिन्ह-अक्रियाराहुमुखदुष्पधृष्या इह अक्रिया| शब्देन नास्तिका गृह्यन्ते, अनभ्युपगमाद्, अविद्यमानपरलोकक्रियाः अक्रियाः त एव राहुमुखं तेन दुष्प्रधृष्य:-अनभिभवनीयस्त| स्यामन्त्रण, नित्यमिति सदा जय सपचन्द्र!, निर्मलसम्यक्त्वविशुद्धज्योत्स्नाक इह मिथ्यात्वभावतमोरहितं निर्मलं सम्य| स्वमुच्यते तदेव विशुद्धा-निमला ज्योत्स्ना-चन्द्रिका यस्य स तथाविधः तस्यामन्त्रणमिति गाथार्थः ।। अधुना समस्यैव प्रकाशकतया सूर्यरूपकेण स्तवमाह
परतिस्थिय गाहा ।।(*१०-४५)। परतीर्घकग्रहमभानाशकस्य इह परतीथिकाः-कपिलकणभक्षाक्षपादादिमताबल
355AR
दीप अनुक्रम [८-१०] |
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||१०
१२||
दीप
अनुक्रम
| [१०-१२]
नन्दीहारिभूद्रीय
वृता
॥ १० ॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [] / गाथा || १०-१२ ||
स्विनःत एव ग्रहास्तेषां प्रभा-एकदुष्णयज्ञानलक्षणा तां नाशयति अनन्तनय संकुलप्रवचनसमुत्थज्ञानालोकेन अपनयतीति समासस्तस्य तपस्तेजोदीसलेश्यस्य तपस्तेज एवं दीप्ता- उज्ज्वला लेश्या दीधितयो यस्य, ज्ञानोद्योतस्पेति गतार्थ, जगति लोके भद्रं मङ्गलं भवतु कस्य दमस सूर्यस्य दमः- उपशमो भण्यते तत्प्रधानः सङ्घसूर्यः दमसङ्घसूर्यस्तस्येति गाथार्थः । । साम्प्रतं सङ्घस्यैव महत्तया समुद्ररूपकेण स्तवमाह
भ० गाहा ॥ (०११-४५ ) । सङ्घसमुद्रस्य भद्रं भवत्विति क्रिया, किम्भूतस्य धृतिवेलापरिगतस्य धृतिः - आत्मपरिणामः सैव वेला-वेदिका जलान्तररमणलक्षणा मर्यादा वा तथा परिगतस्तस्य, स्वाध्याययोगमकरस्य कर्मविदारणमहाशक्तियुक्तत्वात् स्वाध्याय एव मकरो यस्मिंस्तस्य, अक्षोभ्यस्य परीषहोपसर्गसम्भवे निष्प्रकम्पस्य भगवतः समत्रैश्वर्यादियुक्तस्य, रुन्द्रस्येति विस्तीर्णस्येति गाथार्थः । इदानीं सङ्घस्यैव स्थिरतयाऽचलेन्द्ररूपकेण स्तुतिं कुर्वन्नाह
सम्मर्द्दसण॰गाहा।।(*१२--४५) । सम्यग् अविपरीतं दर्शनं सम्यग्दर्शनं तदेव प्रथमं मोक्षाङ्गत्वात् सारत्वाद्वजं सम्यग्दर्श | नवज्रं तदेव हढं रूढं गाढं अवगाढं पीठं यस्य सङ्घ महामन्दर गिरेः स सम्यग्दर्शनवजदृढरूढगाढावगाढपीठस्तस्य, 'वंदे' चि द्वितीयार्थे षष्ठी प्राकृतशैल्या आर्पत्वाच्च तं वन्दे इत्यर्थः, तत् सम्यग्दर्शनवज्रपीठं, दृढमिति निष्प्रकम्पं शङ्कादिशल्यरहितत्वात्, रूढमिति वृद्धिमुपगतं, प्रतिसमयं विशुध्यमानत्वाद्, प्रशस्ताध्यवसायस्थानेषु वर्तनात्, गाढमिति निविडं तीव्रतत्त्वरूचिरूपत्वात्, सुष्ठु श्रद्धानरूपत्वादित्यर्थः, अवगाढमिति निमग्नं, जीवादिपदार्थेषु सम्यगवबोधरूपतया प्रविष्टमित्यर्थः, धर्मवरेत्यादि धारयतीति धर्मः
संघस्य सूर्यसमुद्रतया स्तवः
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112 11
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............. मूलं 1 / गाथा ||१२-१४||
प्रत सूत्रांक
नन्दी
चलन्द्रतया
गाथा । ||१२१४||
धर्म एव वररत्नमण्डिता प्रधानरत्नमण्डिता चामीकरमेखला यस्य स धर्मवररत्नमाण्डितचामीकरमेखलाकः, क्रियायोजना पूर्ववदे-हैं।
सूर्यस्याहारिभद्रीय
व अवसेया, इह धर्मो द्विविधा, मूलगुणोचरगुणरूपः, तत्रोचरगुणधर्मो रत्नानि मूलगुणधर्मस्तु चामीकरमेखलेति, तथा च न राजते चलेन्द्र वृत्ती मूलगुणधर्मचामीकरमेखलोत्तरगुणधर्मरत्नभूषणविकलेति गाथार्थः ॥
- स्तवः नियमूसियगाहा १३-४५)।इहोत्सृतशब्दस्य व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः, ततवैवं भवति-नियम एव कनकशिलातलानि-15 ॥११॥
नियमकनकचिलातलनि तेचितानि उज्ज्वलानि ज्वलन्ति चिन्तान्येव प्राकृतशैल्या कूटानि यस्मिन् स तथाविधः, इह च ४नियमः इन्द्रियनोइन्द्रियनियमः परिगृधते, उत्सृतानि अशुभाध्यवसायपरित्यागात् , उज्ज्वलानि प्रतिसमयं कर्ममलविगमा
ज्वलन्ति सदा सूत्रार्थानुस्मरणरूपत्वात्, चिन्त्यते यैस्तानि चित्तानि, उक्तं च-"चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषित | दौस्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥ १॥" इति, वनं वृक्षसमुदायः, नन्दनं च तदनं च नन्दनवन, तत्र नन्वन्ति यत्र सुरसिद्धदैत्य४ विद्याधरादयस्तचंदनं चनमित्यशोकसहकारादिजालं, मनो हरतीति मनोहरं,लतावितानविविधपुष्पफलप्रवालायुपपेतस्यात्,नन्दनवन च | तन्मनोहरं चेति 'विशेषण विशेष्येण बहुल मिति समासः, तस्य, सुरभिश्चासौ शीलगन्धश्च सुरभिशीलगन्धः तेनाध्मातः व्याप्तो यः स &
तथाविधस्तस्य क्रिया पूर्ववत् , इह च संघमंदरगिरेः सन्तोष एव नन्दनवनं, तथाहि-नन्दन्ति तत्र साधव इति, तदेव विविधामोषध्या४ दिलब्ध्युपतत्वान्मनोहरं तस्य सुरभिशीलगन्ध एचति, अथवा मनोहरत्वं सुरभिशीलगन्धविशेषणमिति गाथार्थः ॥
जीवदय० गाहा (१४-४५॥ जीवदयव सुन्दराणि स्वपरनिवृत्तिहेतुत्वात् कन्दराणि वस्तुतस्तपस्विनिलयत्वात् ,
RC5HRSSBRAHAS
दीप अनुक्रम | [१२-१४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............. मूलं 1 / गाथा ||१४-१६||
प्रत
सूर्यस्यालन्द्रमा
सूत्रांक
गाथा | ॥१४१६||
नन्दी
तथाहि-अहिंसाव्यवस्थितः तपस्थीति, मुनिवरा एष शाक्यादिमृगपराजयान्मृगेन्द्राः मुनिवरमृगेन्द्राः, उत्पाबल्येन दर्पिताः उद्दर्पिताः, हारिभद्रीय
Vा कर्मशत्रुजय प्रति उहर्पिताच मुनिवरमगेन्द्राश्चेति विशेषणसमासः, जीवदयासुन्दरकन्दरेष उद्दर्पितमनिवरमगेन्द्रास्तैः आकीर्णो-च्याप्तो
* यस्तस्येति, हेतुशत इत्यादि, प्रगलन्ति च तानि रत्नानि च प्रगलद्रत्नानि निस्यन्दवन्ति चन्द्रकान्तादीनि परिगृधन्ते, धातवः। ॥१२॥ कनकादिधातवो गृह्यन्ते, धातवश्च प्रगलद्रत्नानि च धातुप्रगलद्रत्नानि, दीप्ताश्च ता औषधयश्च दीप्तौषधयः, धातुप्रगलद्रत्नानि
इच दीप्तौषधयश्च, ताः गुहासु यस्य स तथोच्यते, इह च संघमंदरगिरी हेतुशतान्येव धातवः, अन्वयव्यतिरेकलक्षणा हेतवो गृधन्ते,
प्रगलद्रनानि तु बायोपशमिकमावनिष्यन्दवन्ति श्रुतरत्नानि गृह्यन्ते, दीप्तोषधयस्तु विशुद्धा आमषिध्यादयो गृह्यन्ते, गुहास्तु
समवायाः प्ररूपणगुहा वा गृह्यन्ते, इति गाथार्थः॥ . द्वि संवर० गाहा (*१५-४६)। संवरश्चासौ वरश्च संवरवरः, संवरम्-प्रत्याख्यानरूपः सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपत्वाकरः
असावेव कर्ममलक्षालनाज्जलमिव जलं संवरवरजलं तस्मात् प्रगलितं च तदुज्झरं च संवरवरजलप्रगलितोमरं, तथा च संवरवरजलादुपचारतः प्रगलति श्रुतज्ञानायुज्मरमिति, तदेव प्रविराजमानः हारो यस्य स तथाविधः, 'सावगजणे'त्यादि, रवन्तश्च ते मयूराश्च खन्मयूराः प्रचुराश्च ते रवन्मयूराब २ श्रावका एवं जनास्त एव प्रचुरवन्मरास्तनृत्यन्तीव कुहराणि यस्येति समासः, इह च स्तुतिस्तोत्रगन्धर्वादि रवणं कुहराणि शास्त्रमण्डपार्दानि गाथाः ।।।
विणयगाहा।।(*१६-४६) स्फुरन्तश्च ता विद्युतश्च स्फुरद्वितः, विनयेन नताः विनयनताः विनयनताश्च ते प्रवरमुनिवराश्चेति,
क
दीप अनुक्रम [१४-१६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
... मूलं 1 / गाथा ||१६-२१||
प्रत सूत्रांक
गाथा । ||१६२१||
नन्दीलत एव स्फुरद्विाज्ज्वलन्ति शिखराणि यस्येति समासः, इह च विनयस्यान्तरतपोभेदत्वात्तपांस्येव स्फुरन्ति प्रावचनिकाचा
18 सूर्यस्याविशिष्टाचार्यादयः शिखराणि, "विविधगुणे'त्यादि, विविधा गुणा येषां ते विविधगुणाः, विशेषणान्यथाऽनुपपन्या साधवो हारिभद्रीय
चलन्द्रतया वृत्ती गृह्यन्ते, त एव विशिष्टकुलोत्पन्नत्वात् सत्त्वसुखहेतुधर्मफलप्रदानाच्च कल्पवृक्षकाः विविधगुणकल्पवृक्षकाः, फलभरश्च कुसुमानि च २४
स्तवः & विविधगुणकल्पवृक्षकाणां फलभरकुसुमानि २ तैयाकुलानि वनानि यस्येति समासः, इह च फलभरो धर्मफलभरो गृह्यते, कुसुमानित ॥१३॥
ऋद्धयो, वनानि गच्छा इति माथार्थः ।।
गाणगाहा ।।(*१७-४६)।। ज्ञानं च तद्वरं च २ परमनिवृत्तिहतुत्वात् तदेव रत्नं दीप्यमानत्वात् कान्ता विमला वैडूर्यचूडा दयस्य स तथाविधः, दीप्यते यथावस्थितजीवादिपदार्थस्वरूपोपलम्भात् , कान्ता भव्यजनमनोहारित्वाद् , विमला तदावरणा
भावाद्, बन्देत्ति विनयप्रणतसंघमहामन्दरगिरेयन्माहात्म्यामिति, कर्मणि वा पष्ठीति गाथार्थः ॥ एवं संघनमस्कारा अपि प्रति-18 पादिताः, साम्प्रतमावलिका प्रतिपाद्यते, सा च त्रिविधा- तीर्थकरावलिका गणधरावलिका स्थविरावालिका च, तत्र तीर्थकराव-18 |लिका प्रतिपादयबाह
वंदे० गाहा, विमल गाहा (०१८१९-४७)।। गाथाद्वयमपि निगदसिद्धं । गणधरावलिका तु या यस्य तीर्थकृतः सा ॥१३॥ प्रथमानुयोगानुसारेण द्रष्टव्येति, महावीरवर्द्धमानस्य पुनरियम्-'पढमेस्थ इंदभूई वीओ पुण होह अग्गिभूइत्ति । तइए य ट्रवाउभूई तओ वियत्ते सुहम्मे य ॥१॥ मंडिय मोरियपुत्ते अंकपिए चेव अपलभाया य। मेयज्जे य पभासे गण
दीप
अनुक्रम
[१६-२१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: ... अथ गणधर-आवलिका दर्शयते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी’- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............. मूलं 1 / गाथा ||२२-२४||
प्रत सूत्रांक
करावलिका
स्तवः ।
गाथा | ||२२२४||
नन्दी- ताहरा हुंति धारस्स ॥२॥' साम्प्रतं वर्तमानतीर्थाधिपतेः स्थविरावलिको प्रतिपादयभतिशयभक्त्या सामान्यतस्तच्छासनस्तवं 18| तीर्थहारिभद्रायाः प्रतिपादयबाहवृत्ती
शासनPा निवुइपहरूपकं ॥(०२२-४८)। निर्वृत्तिपथशासनकमित्यत्र यद्यपि सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि निर्वाणमार्गस्तथा॥१४॥
४ाप्यनेन दर्शनचरणपरिग्रहः, यत आह-जयति सदा सर्वभावदेशनक, सर्वभावप्ररूपकमित्यर्थः, अनेन तुझानपरिग्रहः, अथवा |निचिपथशासनकमित्यनेन सम्पूर्णनिर्वाणमार्गकथनमेवेति गृह्यते, जयति सदासर्वभावदेशनकमित्यनेन तु विधिप्रतिषेधद्वारेण न निवृत्तिमार्गव्यतिरेकेण किचिदस्तीति ख्याप्यते, यत एवंभूतमत एव कुसमयमदनाशनकं कुसिद्धान्तावलेपनाशनकामत्यर्थः, जिनेन्द्रवरवीरशासनकं चरमतीर्थकरप्रवचनमिति हृदयं, अयं रूपकार्थः ।। अधुना यैरविच्छेदेन स्थविरैः क्रमेणैदयुगीनानामानीतं तदावलिको प्रतिपादयमाह--
सुधम्म० गाहा ।।(*२३-४८)। इह स्थविरावलिका सुधर्मस्वामिनः प्रवृत्ता, उक्तं च-"तित्थं च सुधम्माओ णिरवच्चा गणहरा सेस" ति, अतस्तमेव पुरस्कृत्येयं प्रतिपाद्यते सुधर्म भगवद्गणधरं अग्निवैशायनमित्यग्निवैशायनसगोत्रं, तथा तच्छिष्य जम्बुनामानं च काश्यपं काश्यपगोत्र, तस्मात् प्रभषं तच्छिष्य प्रभवनामानं कात्यायनमिति कात्यायनसगोत्रं, वंदे इति क्रिया प्रत्येकमभिसम्बध्यते, तथा तच्छिम्यं 'वच्छ' मिति वत्ससगोत्र सव्यम्भवं तथेति गाथायः॥
जसभर गाथा (७२४-४९॥ शय्यंभवशिष्यं यशोभद्रं तुहिक' मिति तुङ्गिकगणं व्याघ्रापत्यसगोत्रं बन्दे, अस्य च
दीप अनुक्रम [२२-२४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: | ... अथ सुधर्मस्वामी आदि स्थविरावली प्रस्तूयते
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
॥२४
२७॥
दीप अनुक्रम
| [२४-२७]
SSPOR
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [] / गाथा ||२४-२७||
नन्दी- द्वौ प्रधानशिष्या बभूवतुः, तद्यथा--सम्भूतविजयो माढरसगोत्रः, भद्रबाहुच प्राचीनसगोत्र इति, तथा चाह-सम्भूतं चैव मादरं हारिभूद्रीय ॐ भद्रबाहुं प्राचीनमिति, तत्र सम्भूतस्य विनेयः स्थूलभद्रो गौतमसगोत्र आसीद्, आह च-स्थूलभद्रं च गौतममिति गाथार्थः ॥ वृत्ती
।। १५ ।।
एलावच्च० गाहा ॥ ( २५-४९)।। स्थूलभद्रस्यापि द्वावेव प्रधानशिष्यौ, तद्यथा - एलापत्यसगोत्रो महागिरिः बशिष्टसगोत्रः सुहस्ती च यत आह-- एलापत्यसगोत्रं वन्दे महागिरिं, सुहस्तिनं च तत्र सुहस्तिनः सुस्थितसुप्रतिबुद्धादिक्रमेगावलिका यथा सासु तथैव द्रष्टव्या, न तयेहाधिकारः, महागिर्यावलिकयेहाधिकारः, तत्र महागिरेर्बहुलबलिस्सहौ कौशिकसगोत्रौ जमलभातरौ द्वौ प्रधानशिष्यौ बभूवतुः, तयोरपि बलिस्सहः प्रावचनीय आसीदत आह- ततः कौशिकगोत्रं बहुलस्य सदृशव यसं यमलत्वात्, बन्द इति गाथार्थः ।
हारिय॰गाहा ।।(२६-४९) । बलिस्सहशिष्यं हारीतसगोत्रं स्वातिं च वन्दे तथा स्वातिशिष्यं हारीतं च हारीतसगोत्रमेव श्यामार्य, शिष्यं च बन्दे कौशिकसगोत्रं साण्डिल्यं, किम्भूतं?- आर्यजीतधरं आराद्यातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्याय्यं जीतमिति सूत्रं, जीतं मर्यादा व्यवस्था स्थितिः कल्प इति पर्यायाः, मर्यादादिकारणं च सूत्रमिति भावनीयं धारयतीति धूरः, आजीतस्य घरः २ तं, अन्ये तु व्याचक्षते किल साण्डिल्यस्य शिष्यः आर्यसगोत्रो जीतघरनामा सूरिरासीदिति गाथार्थः ॥
तिसमुद्द० गाहा || (*२७-४९) । साण्डिल्यशिष्यं वन्दे, आर्यसमुद्रमिति क्रिया, किम्भूतंी-त्रिसमुद्रख्यातकीर्ति पूदक्षिणापरास्त्रयः समुद्राः उत्तरतस्तु हिमवान् बैतादयो वेति, अत्रान्तरे प्रथितकीर्तिमित्यर्थः, द्वीपसमुद्रेषु गृहीतप्रमाणं अति
गणधराचलिका स्थीविराबलिका
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।। १५ ।।
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं 1 / गाथा ||२७-३०||
प्रत सूत्रांक
नन्दी- शयन द्वीपसागरप्रज्ञप्तिविज्ञायकमिति भावः, अक्षुभितसमुद्रबद् गम्भीरो २ अतस्तमिति गाथार्थः॥
गणधराहारिभद्रीय
बलिका | वृत्ती भणग० गाहा ।।(*२८-५०)। आर्यसमुद्रशिष्यं वन्दे आर्यमगुमिति योगः, किम्भूत-भणकं कालिकादिसूत्रार्थ भण-14
स्थीविरातीति भणः स एव प्राकृतशेल्या भणफस्तं, कारकं कालिकादिसूत्रोक्तमेवोपधिप्रत्युपेक्षणादिक्रियाकलापं करोतीति कारकस्तं, ध्यातारं
बलिका धर्मध्यानं ध्यायतीति ध्याता तं, इहौषतः कारकमित्युक्ते प्रधानपरलोकांगताख्यापनार्थ ध्यानस्य ध्यातारमिति विशेषाभिधानं, यत इत्थंभूतः अत आह-प्रभावकं ज्ञानदर्शनगुणानां यथावस्थितपदार्थावबोधादीनाम्, एकग्रहणातज्जातीयग्रहणाच्चरणपरिग्रहः, श्रुतसागरपारगं धीरमिति गाथार्थः।.
णाणम्मि० गाहा ( * २९-५०) आर्यमंगुशिय आर्यनन्दिलक्षपणं शिरसा बन्द, प्रसन्नमनसं, किम्भूतं ?-ज्ञाने दर्शने | च तपसि विनये च, अनेन चरणमाह, नित्यकाल उद्युक्तम्-अप्रमादिनमिति गाथार्थः ।।
बडउ गाहा (३०-५०) वर्द्धता-वृद्धिमुपयातु, कोऽसौ ?-वाचकवंशः, तत्र विनेयेभ्यः पूर्वगतं सूत्रमन्यच्च वाचय-18 मन्तीति वाचकाः तेषां वंशः भाविपुरुषपर्वप्रवाहः, किम्भूतः ?-यशोवंशः, अनेन विपक्षव्यवच्छेदमाह, तथा झलमयशःप्रधानस्य
संसारहेतोः परममुनिविधृतलिंगविडम्बकस्य वृध्ध्यति, केषां सम्बन्धिसम्भूतः?-आर्यनन्दिलक्षपणशिष्याणां आर्यनागहस्तिना, किम्भूतानां ?-व्याकरणभंगिककर्मप्रकृतिप्रधानानां तत्र व्याकरण-प्रश्नव्याकरण शब्दप्रामृतं वा करणं-पिण्डविशुध्ध्यादि, उक्तं च-'पिंडविसोही समिती भावण पडिमा य ईदियणिरोहो । पडिलेहण गुतीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥१॥" भंगिकाः चतुर्भ
NEKHABAR
गाथा ||२७३०||
दीप अनुक्रम [२७-३२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः अब वे प्रक्षेपे गाथे वर्तते. ते गाथे मत्संपादित “आगमसुत्ताणि" मूलं एवं सटीक द्वयो: अपि पुस्तके मुद्रिते |
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं 1 / गाथा ||३०-३३||
प्रत
नन्दी हारिभद्रीय
सूत्रांक
वृत्ती
4545445%A5%
॥१७॥
गाथा
|गिकाद्यास्तच्छ्रुतं वा कर्मप्रकृतिः प्रतीता एतेषु प्ररूपणामधिकृत्य प्रधानानामिति गाथार्थः ॥
स्थविरावजच्चंधणधाउसमप्पहाण गाहा (* ३१-५१) जात्यश्चासाजनधातुश्चेति समासः तत्समा प्रभा-देहच्छाया येषां
लिका ते तथाविधास्तेषां, मा भूदत्यन्तकृष्णसम्प्रत्ययस्तत आह---मुद्रिकाकुवलयनिभानां पक्कसरसद्राक्षानीलोत्पलनिभानामित्यर्थः,181 | रनविशेषः कुवलयमित्यन्ये, तथाऽप्यविरोधः, वर्द्धता वाचकवंशः, केषां ?-आर्यनागहस्तिशिष्याणां रेवतिनक्षत्रनाम्नां, | रेवतिवाचकानामिति गाथार्थः ॥
अयलपुरा० गाहा (*३२-५१) अचलपुरात् निष्कान्तान् कालिकथुतानुयोगेन नियुक्ताः कालिकश्रुतानुयोगिकास्तान् यद्धा | कालिकश्रुतानुयोग एषां विद्यत इति समासस्तान कालिकश्रुतानुयोगिनः, धीरान स्थिरान् , ब्रह्मदीपिकान् सिंघान् ब्रह्मद्वीपि| कशाखोपलक्षितान् सिंघाचार्यान् रेवतिवाचकशिष्यान् , वाचकपदं तत्कालापेक्षया उत्तम प्रधान प्राप्तानिति गाथार्थः ।।
जेसिं० गाथा (* ३३-५१) येषामयमनुयोगः प्रचरति अद्याप्य भरते वैतायादारतः, बहुनगरेषु निर्गतं प्रसिद्ध यशो || येषां ते बहुनगरनिर्गतयशसः तान् वन्दे, सिंधवाचकशिष्यान् स्कन्दिलाचार्यान् , कई पुण तेसिं अणुओगो ?, उच्यते, बारससंवच्छरिए महन्त दुम्भिक्खे काले भत्तट्ठा फिडियाणं गहणगुणणणुप्पेहाऽभावतो सुत्तं विप्पणहूँ, पुणो सुभिक्खे काले जाते महुराए महन्ते समुदए खंदिलायरियप्पमहसंघेण जो अं संभरहत्ति एवं संघडितं कालिय सुर्य, जम्हा एवं महुराते कयं तम्हा माहुरा वायणा भन्नति, सा य खदिलायरियसम्मतत्तिकाउं तस्संतिओ अणुओगो भण्णति, अन्ने भणंति-जहा सुयं णो गहुँ, तम्मि दुम्भि- ।
||३०
३३||
दीप
अनुक्रम [३३-३५]
AA-%
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
मूलं 1 / गाथा ||३३-३६||
.......
प्रत
नन्दी-
सूत्रांक
वृत्ती
गाथा ||३३
खकाले ; जे अने पहाणा अणुओगधरा ते विणट्ठा, एगे खदिलायरिए संघरे, तेण महुराए पुणो अणुओगो पवत्तिओचि महुरार
स्थविराचायणा मामबइ, तस्सतिओ अणुओगो भण्णइत्ति गाथार्थः ।।
वलिका ततो गाहा (* ३५-५१) ततः स्कन्दिलाचार्यशिष्यं हिमवन्तं वन्दे शिरसेति क्रिया, किम्भृत-हिमवन्महाविक्रम है। हिमवत इव महाविक्रमो-विहारव्याप्त्यादिलक्षणो यस्य स तथाविधस्तं 'धीपरकममणत' न्ति अनन्तधृतिपराक्रम, प्राकृतशैल्या तु अन्य लोपन्यासः, अनन्तः धृतिप्रधानः पराक्रमः कर्मक्रियता वा (शत्रुजये) यस्य स तथाविधस्तं 'सज्झायमणतघरं ति: अनन्तस्वध्वाध्यायधरं, धरतीति धरः अनन्तगमपर्यायत्वादनन्तं-पूर्व तद्विषयः स्वाध्यायस्तस्य धर इति समासः तमिति गाथार्थः ॥
का लिय० गाहा (* ३५-५२) मिउ० गाहा ( ३६-५२) कालिकथुतानुयोगस्य धारकान , धारकांच पूर्वाणां-II उत्पादाद दीनां, हिमवतक्षमाश्रमणान् चन्दे, तथैतच्छिम्यानेव वन्दे नागार्जुनाचार्यानिति गाथार्थः ।। किंभूतान् ?-मृदुमावसम्पन्नवान् उपलक्षणत्वान्मृदुत्वस्य, कान् ?-क्षमामार्दवार्जवसन्तोषसम्पमानित्यर्थः, आनुपूर्त्या वयःपर्यायकालगोचरया वाचकत्वं प्राप्तान, ऐदंयुगीनानामपि सामाचारीप्रदर्शनपरमेतत्, न चायुक्तं द्वितीयपदमाश्रित्यैदयुर्मानानामपि युज्यते | कालोचिचतानुपूर्वी विहाय कचिदप्याचार्यत्वाधारोपणं, महापुरुषाणां गौतमादीनामाशातनाप्रसंगात, कृतं प्रसंगेन, संसार एच दण्डो भगवदाज्ञाचितथकारिणां इति, ओघधुतसमाचरकान् ओघश्रुतम्-उत्सर्गथुतं तत् समाचरन्ति ये ते तथाविधास्तान् । | नागार्जुनझवाचकान् वन्दे हात गाथार्थः ॥
545458
३६||
दीप
अनुक्रम
[३६-३८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
..... मूलं 1 / गाथा ||३७-४१||
प्रत सूत्रांक
नन्दी
स्थविरावलिका
वृत्ती
वरकणग० अ० भूहिषय० ॥ (* ३७ । ३८ । ३९-५२)॥ इदं गाथात्रयमपि प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं हारिभद्रीया
भव्यजनहदयदापितान् मन्यजनहृदयवल्लभान् , तथा सुविज्ञातवहुविधस्वाध्यायप्रधानान् बहुविध आचारादिभेदात् ।
स्वाध्यायः, अनुयोजिता यथोचिते वैयावत्यादौ वरवृषभाः-सुसाधयो यैस्तान, नागेन्द्रकुलवंशनन्दिकरानिति प्रमोदकरानित्यर्थः, ॥१९॥ है भूतहितप्रगल्भान्, भूतदिनाचार्यान् इत्यत्रानुस्वारोऽलाक्षणिका, भवभयव्यवच्छेदकरानिति सदुपदेशादिना संसारभयव्य
बच्छदकरणशीलान् । ____ 'सुमुणिय० ॥ गाहा (४०)॥, अनेकधा सचहितनिपुणानिति भावः, बन्देऽहं भूतदिनाचार्यशिष्यं, बन्दे| लोहिचमिति क्रिया, किम्भूतं ?-सुष्ठु विज्ञातं नित्यानित्यं येन स तथाविधस्तं, किं ज्ञात, विशेषणान्यथाऽनुपपत्तेः वस्तु | इति गम्यते, यथा 'सवच्छा धेनु' रिस्पुक्त गोडवाया विशेषणायोगादिति, तच्च वस्तु सचेतनाचेतनं, तत्र सचेतनभात्मा चेतनत्वायपेक्षया नित्यः नारकतिर्यनरामरपर्यायापेक्षया चानियः, एवमचेतनमप्यण्वादि विज्ञातव्यं, तथाहि--परमाणुरजीवत्वमूर्त-18 त्वादिभिनित्यः, वर्णादिमिर्यणुकादिमिस्त्वनित्य इति, उक्तश्च-'सर्वव्यक्ति नियतं धणे२ऽन्यत्वमथ च न विशेषः । सत्योश्चित्यपचित्योराकृतिजातिव्यवस्थाना ॥१॥दित्यत्र बहु वक्तव्यं तच्च नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयाद्, गमनिकामात्रप्रधानोऽयमारंभ | इति, अनेन न्यायवेदित्वमाह, सुविज्ञातसूत्रार्थधारकमित्यनेन त्वोधत एव स्वभ्यस्तसूत्रार्थधारकामति सद्भावोद्भावना, तध्यमित्यनेन सम्यक्प्ररूपकत्वमाहेति गाथार्थः ॥
अस्थमहत्थकूवाणी गाहा।(४४१-५२)।। लोहित्यशिष्यं प्रयतःसन अनुत्सृष्टप्रयत्नपरः समित्यर्थः, प्रणमामि दुष्य
WEREKASIRSIAS
गाथा ||३७४१||
दीप अनुक्रम [३९-४३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.............. मूलं 1 / गाथा ||४१-४४||
प्रत सूत्रांक
गाथा ॥४१४४||
नन्दी- गणिनमिति क्रिया, किम्भूतं ?-अर्थमहार्थखानि खानिरिव खानिः अर्थमहार्थानां खानिः २ तं, तत्र भाषाऽमिधयाः अर्थाः अनुयोग
घर हारमद्राबाद विभाषावार्तिकगोचरा महार्थी इति, सुश्रमणव्याख्यानकथने निवृत्तिर्यस्य स तथाविधस्त, तत्र व्याख्यानं प्रतीतं कथन-संशये वृत्ता |सति पिनेयप्रश्नोत्तरकालभावि व्याकरण, अथवा व्याख्यानम्-अनुयोगः कथनमोघतो धर्मस्य, धर्मकथेत्यर्थः, प्रकृल्या स्वभा-IMIT
नमस्कारः ॥२०॥ बेन मधुरवाचं मधुरगिरमिति गाथार्थः॥
ग्यविचार सुकुमालकोमल गाहा ।।(*४२-५४)॥ निगदसिद्धा, एवं आवालिकाक्रमेण महापुरुषाणां स्तवमभिधाय साम्प्रतं सामा-18 न्येनैव श्रुतधरनमस्कार प्रतिपिपादयिषुराह
जे अन्ने भगवते ॥(*४३-५४)। ये चान्येऽवीता भाविनश्च भगवन्तः, श्रुतरत्नोपपेतत्वात् समग्रेश्वर्यादिमन्त इत्यर्थः, कालिकश्रुतानुयोगिनो धीराः सत्त्ववन्तस्तान् प्रणम्य शिरसा उत्तमाङ्गेन ज्ञानस्य-आभिनिबोधिकादेः प्ररूपणं वक्ष्ये, क एव-14 माह-दृष्यगणिशिष्यो देववाचक इति गाथार्थः । इदं च पश्चप्रकारं ज्ञानम्, एततप्रतिपादकं चाध्ययनं योग्येभ्य एव विनेयेभ्यो दीयते, नायोग्यभ्य इत्यतो योग्यायोग्यविभागोपदर्शनार्थमेव तावदिदमाह
सेलघण० गाहा ॥(४४-५४)। आह-शुभाध्ययनप्रदानाधिकारे समभावव्यवस्थितानां सर्वसत्त्वहितायोद्यताना महापुरुषाणां | अलं योग्यायोग्यविभागनिरीक्षणेन, न हि परहितार्थमिह महादानोद्यता महीयांसोऽर्थिगुणमपेक्ष्य प्रदानक्रियायां प्रवचन्ते दयालव ॥२०॥ Pइति, अत्रोच्यते, ननु यत एव शुमाध्ययनप्रदानाधिकारे समभावव्यवस्थिताः सर्वसत्वहितायोद्यता महापुरुषाश्च गुरवा अत एव
SASCHERASAEGUSI SASAK*
दीप अनुक्रम [४४-४६]
कक्कर
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.............. मूलं ] / गाथा ||४४|| ......
नन्दी
प्रत सूत्रांक
गाथा ||४४||
हायोग्यायोग्यविभागोषदर्शनं न्यायं, मा भूदयोग्यप्रदाने तत्सम्यनियोगाक्षमार्थिजनानर्थ इति, न खलु तत्त्वतोऽनुचितप्रदानेनायाहारिभद्रीय
योग्या| सहेतुनाऽविवेकिनमर्थिजनमनुयोजयन्तोऽप्यनवगतपरार्थसम्पादनोपाया भवन्ति दयालव इत्यवधूय मिथ्याभिमानमालोच्यतामे
तदिति । आह-क इवायोग्यप्रदाने दोष इति, उच्यते, स चिन्त्यचिन्तामणिकल्पमनकमवशतसहस्रोपात्तानिष्टदुष्टाष्टकर्मराशिजनित-14 ॥ २१॥ दोगत्यविच्छेदकमपीदमयोग्यत्वादवाप्य न विधिवदासवते, लाघवं चास्य समापादयति, ततो विधिसमासेवकः कल्याणमिव मह
दकल्याणमासादयति, उक्तंच-'आमे घडे निहत्तं जहा जलं तं घडं विणासइ । इय सिद्धतरहस्सं अप्पाहारं विणासेई ॥शा' इत्यादि, |अतोऽयोग्यदाने दातृकतमेव वस्तुतस्तस्य तदकल्याणमिति, अलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्राधिकृतगाथा प्रपश्चतः आवश्य|कानुयोगे व्याख्यास्यामः, इह पुनः स्थानाशून्यार्थ भाष्यगाथामियाख्यायत इति ॥
उल्लेऊण न सको गज्जइ इय मुग्गसेलओ रने । तं संवदृगमेहो सोउं तस्सोवरि पडद ॥१॥ रविओत्ति ठिओ मेहो उल्लो लामिणवत्ति गज्जइ य सेलो । सेलसमं गाहेस्सं निविज्जइ गाहगो एवं ॥ २ ॥ आयरिए सुमि य परिवाओ सुत्तअत्थपलिमंथो।
अनेसिपि य हाणी पुट्ठावि न दुडया वंशा ।। ३ ।। वुद्वेऽवि दोणमेहे ण कण्हभोमाउ लोट्टए उदगं । गहणधरणासमत्थे इस देयम-18 छित्तिकारिम्मि ॥ ४ ॥ भाविय इयरे य कुडा अपसत्थ पसत्थ भाविया दुविहा । पुष्फाईहि पसत्था सुरतेल्लाईहिं अपसस्था ।।५॥ | वम्मा य अवम्मावि य पसत्यवम्मा य होंति अग्गज्झा । अपसत्थअवम्मावि य तप्पडिवक्खा भवे गेझा ।।६।। कुप्पवयणओस- ॥ २१ बांह भाविया एवमेव भावकुटा । संविग्गेहि पसत्था बम्माऽवम्मा य तह चेव ॥ ७॥ जे पुण अभाविया खलु ते चतुधा अथविमो | गमो अमो । छिन्द कुड भिन्न खंडे सगले य परूवणा तेसिं ॥८॥ सेले य छिड़ चालिाण मिहो कहा सोउमुट्ठियाणं तु । छिड्डाहर
BHASKAR
दीप अनुक्रम [४६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
.............. मूलं ] / गाथा ||४४|| .........
योग्या
योग्या:
प्रत सूत्रांक
S4
नन्दी- तत्व रिठ्ठो सुमरिंसु सरामिणेदाणि ॥९॥ एगेण विसइ बीएण णीइ कण्णण चालणी आह । धन उत्थ आह सेलो जे पविसति | हारिभद्रीय नीति वा तुझ॥१०॥ तावसखउरकिठिणयं चालणिपडिबक्खि ण संदइ दवपि । परिपूर्णगम्मि य गुणा मलति दोसा य चिट्ठति वृत्ती
॥११॥ सम्वन्नुप्पाममा दोसा हुन सति जिणमते केई। जे अणुवउत्तकहणं अपत्तमासज्ज व हविज्ज ॥ १२ ॥ अंबत्तण ॥२२॥
जीहाए कृचिया होइ खीरमुदगम्मि । इंसो मोत्तूण जलं आवियइ पयं तह सुसीसो ।। १३ ॥ सयमवि न पियइ महिसो ण य जूह पियइ लोलियं उदगं । विग्गहक्किहाहि तहा अथकपुच्छाहि य कुसीसो ॥ १४ ॥ अवि गोपयंमिवि पिए सुढिओ तणुयत्तण तोंडस्स । न करेइ कलुसतोयं मेसो एवं मुसीसोवि ॥ १५॥ मसउच्च तुर्द जच्चादिएदि निच्छु भए कुसीसो उ । जलुगा व अद्मितो पियह मुसीसोवि सुयणाणं ।। १६ ॥ छडेउ भूमीए खीरं जह पियइ दुहमज्जारी । परिसुट्टियाण पासे सिक्खर एवं विणय
भंसी ॥ १७ ॥ पाउं थोवं थोवं खीरं पासाई जाहओ लिहइ । एमेव जिय काउं पुच्छह मइमं न खिज्जेइ ।। १८ ।। अण्णो दोज्झिहि ४ कई णिरत्थयं किं वहामि से चारि । चउचरणगवी उ मता अवन हाणी य बडगाण ॥१९ ।। मा मे होज्ज अवण्णो गोबज्या
मा पुणो व न दलिज्जा । वयमचि दोज्झामो पुणो अणुग्गहो अबढेऽपि ॥ २० ॥ सीसा पडिच्छगाणं भरोत्ति तेऽविर सीस । गभगोत्ति । ण करेंति सुत्तहाणी अमत्थवि दुभ तेसि ।। २१ ॥ कोमुदिया तह संगामिया य उम्भूतिगा उ तिमि मेरीओ।
कण्हस्सासी उ (ए) तया असिवोषसमी चउत्थी उ ।। २२ ॥ सकपसंसा गुणगाहि केसवा मिचंद सुणदन्ता । आसरयणस्स दाहरण कुमार भंग य पुयजुझं ॥ २३ ॥णेहि जिओमित्ति अहं असिवोवसमीइ संपयाण च । छम्मासिय घोसणया पसमह ण य
जायए अण्णो ॥ २४ ॥ आगंतु वाधिखोमे महिहि मोल्लेण कंथ दंडणता । अट्ठमाराहण अनमेरि अनस्स ठवणं च ॥ २५ ॥
SANSWERSEAR
गाथा ||४४||
दीप अनुक्रम [४६]
॥२२॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||४५
४७||
First
दीप
अनुक्रम [४७-५२]
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [] / गाथा ||४५-४७||
नन्दी
मुकं तया अगहिते दुपरिग्गहियं कयं तथा कलहो । पिट्टण अइचिर विकय गतेसु चोरा य ऊनग्धं ।। २६ ।। मा भिण्डव इय दातुं हारिभद्रीय १ उचजुंजिय देहि किं विचितेसि। विच्चामेलियाने किलिस्ससी तं चऽहं चैव ॥ २७ ॥ भणिया जोग्गा २ सीसा गुरवो य तत्य वृत्ती दोपि । वेपालियगुणदोसो जोगो जोगस्स भासेज्जा ।। २८ ।।
एवं तावद्विभागतो योग्यायोग्यविनयविभागोपदर्शनं कृत्वा साम्प्रतं सामान्ये॒न पर्षदं प्ररूषयन्नाह—
॥ २३ ॥
सा समासओ तिविहा पन्नत्तेत्यादि, सा पर्षत् समासतः संक्षेपेण त्रिविधा त्रिप्रकारा प्रज्ञप्ता प्ररूपिता, कैः ? - तीर्थकरगणधरीति गम्यते, 'तयथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'शिके'त्यत्र 'झा अवबोधन' इत्यस्य 'इगुपधज्ञाटकरः क' इति ( ३-१-१३५ ) कप्रत्ययः, 'आतो लोप इटि च किश्ती त्या (६-४-६४) कारलोपः परगमनं टापू जानातीति ज्ञा कप्रत्ययः 'प्रत्ययस्थात् कात् पूर्वस्मात इदाप्यसुप' इति ( ७-३-४४ ) इवं शिका-परिज्ञानवती, न झिका अशिका तद्विलक्षणा, दुर्विदग्धा मिथ्यावलेपगर्भा । तरिथमा जाणिया- 'गुणदोसविसेसण्णू अणभिग्गहिया व कुस्मुत्तिमएस । एसा जाणगपरिसा गुणतचिल्ला अगुणवज्जा ॥ ॥ १ ॥ इमा तु अयाणिया पमतीमुद्ध अवाणिय मिगछावयसीहकुक्कुडयभूया । रयणमिव असंठविया सुहसमच्या गुणसमिद्धा | ॥ २ ॥ इमा पुण दुब्बियडिया किंचिम्मसग्गाही पडवगाही य तुरियगाही य । दुवियडिया उ एसा भणिया तिविदा भवे परि ॥ ३ ॥ साम्प्रतमिष्टदेवतास्तनादिसम्पादितसकलसाहित्यो देववाचकोऽधिकृताध्ययनषिपयभूतस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां कुर्वमिदमाह -
'णाणं पंचविहं पण्णत्तं' इत्यादि, (सूत्रम् १-६५) ज्ञातिः ज्ञानं ' कृत्यल्युटो बहुलं ' इति वचनाद्भावसाधनः, संविदि
पर्षद्भेदाः
~36~
॥ २३ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः •••• पर्षदायाः भेदानां वर्णनं क्रियते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.....
मूलं [१]/ गाथा ||४७...||
प्रत
सूत्रांक
[१]
गाथा ॥४५४७||
नन्दी- त्यर्थः, ज्ञायते वाऽनेनेति (अस्मादिति वा) ज्ञानं तदावरणक्षयोपशमादेव, ज्ञायतेऽस्मिमिति क्षयोपशमे सति, ज्ञानमात्मैव विशिष्ट-18ज्ञानभेदाहारिभद्रीय क्षयोपशमयुक्तो जानातीति वा ज्ञानं तदेव स्वविषयसंवेदनरूपत्वात् तस्य, पंचाविधमित्यत्र पञ्चेति संख्यावाचकः विधानं विधेत्यत्र
नामुद्देशः 'डुधाञ् धारणपोषणयो' रित्यस्यानुवन्धलोपे कृते विपूर्वस्य स्त्रियां वर्तमानायां 'पिद्भिदादिभ्योऽङि' ति (३-३-१०४) | वर्त्तमाने 'आतश्योपसर्गे (३-१-१३६ ) इत्यनेन अप्रत्ययः अनुबंधलोपे कृते आतो लोप इति च किती ( ६-४-६४ ) त्यनेन | चाकारलोपे कृते परगमने च 'अजाधतष्टापिति (४-१-४) टापप्रत्ययोऽनुवन्धलोपः परगमनं विधा, पंच विधा अस्यति समासो 'इस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्येति (१-२-४७) वर्तमाने 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्ये(१-२-४८)त्यनेन इस्वत्वं, सुअम्भावः पंचविघं| पंचप्रकारमित्येतदेवमनवयं, कुव्याख्याव्यपोहाथ चैतदेवं निदर्शितमित्यलं प्रसंगेन, प्रज्ञप्त-प्ररूपितं, कै?-अर्थतस्तीर्थकरैः सू व्रतो | गणधरैरिति, उक्तं च--"अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गथंति गणहरा णिउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुतं पवत्तइ ॥ १॥"
इत्यनेन स्वमनीपिकाव्यपोहमाह, अथवा प्रासादाप्तं प्राज्ञाप्तं, तीर्थकरादाप्तमिति प्राप्त गौतमादिभिः, अथवा प्राज्ञैरान प्राज्ञाप्त ट्र गौतमादिभिः, प्रज्ञया वाऽऽसं प्रज्ञाद्वाऽऽप्तं प्रज्ञाप्त, सर्वेरेव संसारिभिरिति, तथाहिन प्रज्ञाविकलैरिदमवाप्यते इति भावनीय र
तयथत्युदाहरणोपन्यासार्थः, आमिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानं चेति, तत्रार्थाभिमुखो नियतो | बोधोऽभिनिबोधः स एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानादाभिनियोधिक, अभिनिबोधे वा भवं तेन वा निर्वृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वेत्यामि
॥२४॥ निबोधिक, अभिनियुध्यते वा तदित्याभिनिचोधिक:-अवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव, तस्य स्वसंविदितरूपत्वादभेदोपचारादित्यर्थः, अभिनिबोध्यतेऽनेनेत्याभिनिबोधिकं-तदावरणक्षयोपशम इति भावार्थः, अभिनिबुध्यतेऽस्मादिति वा आभिनिबोधिक-तदावरणकर्म
SAEYSERECENT
ॐॐॐॐॐॐॐॐ
दीप अनुक्रम [४७-५३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ... अथ नन्दीसूत्रस्य प्रथम-सूत्र आरभ्यते, तदन्तर्गत: ज्ञानस्य भेआनां वर्णयते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
....
मूलं [१] / गाथा ||४७...||
प्रत सूत्रांक
[१]
ॐ
गाथा ॥४७..||
नन्दी- क्षयोपशम एव, अभिनिबुद्धयतेऽस्मिमिति वा क्षयोपशमे सत्याभिनिबोधिकं, आत्मैव वा अभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वादभिनि- ज्ञानभेदाहारिभद्रीय |बुध्यत इति, आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चाभिनियोधिकज्ञानं १ तथा श्रूयते इति श्रुतं-शब्द एव, भालश्रुतकारणत्वात् कारणे | नामुदेशः
कार्योपचारादिति भावार्थः, श्रूयते वा अनेनेति श्रुतं-तदावरणक्षयोपशम इति हृदयं, श्रूयतेऽस्मादिति वा श्रुतं-तदावरणक्षयोपशम ॥ २५॥
एव, श्रूयतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशमे सति श्रुतं, आत्मैव श्रुतोपयोगपरिणामानन्यत्वाच्छृणोतीति, श्रुतं च तत् ज्ञानं च श्रुतज्ञान 18| तथाऽवधीयतेऽनेनेत्यवधिः, अवधीयत इत्यधोऽधो विस्तृत परिच्छिद्यते मयोदया वेति अवधिज्ञानावरणकमक्षयोपशम एव, तदुपयोग-15
हेतुत्वादित्यर्थः, अवधीयतेऽस्मादित्यवधिस्तदावरणकर्मक्षयोपशम एव, अवधीयते तस्मिमिति वेत्यवधिर्भावार्थः पूर्ववदेव, अवधान | वा अवधिः, विषयपरिच्छेदनमित्यर्थः, अवधिश्चासौ ज्ञान च अवधिनानं ३,. तथा मनःपर्यायज्ञानमित्यत्र परिः सर्वतो भावे अयनं | अयः गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अयः पर्ययः, पर्ययनं पर्यय इत्यर्थः, मनसि मनसो वा पर्ययो मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परि-18 |च्छेद इत्यर्थः, स एव ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, अथवा मनसः पर्याया मनःपर्याया धर्मा पाझवस्त्वालोचनादिप्रकारा इत्यनर्थी-1 |न्तरं तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, इदं चाईतृतीयद्वीपसमुद्रान्तवर्तिसंज़िमनोगतद्रव्यालम्बनमेवेति भावार्थः ४, तथा केवलम्-असहाय मत्यादिज्ञाननिरपेक्षं, शुद्धं वा केवलमावरणमलकलंकांकरहितं, सकलं वा केवलं तत्-18 प्रथमतयेवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं वा केवलं अनन्यसदृशामिति दय, ज्ञेयानन्तत्वादनन्तं वा केवल INT॥२५॥ | यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावाविर्भासीति भावना, केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानं ५ ।। आह-एषां ज्ञानानामित्थमुपन्यासे किं प्रयोजनमिति, उच्यते, इह स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वसाधम्योत् तद्भावे च शेषज्ञानभावादादावेव मतिश्रुत
CONNECCA-3
.
दीप अनुक्रम [१३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[0]
गाथा
||86..||
दीप
अनुक्रम
[43]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्ती
॥ २६ ॥
[भाग-7] "नन्दी"- चूलिकासूत्र- १ (मूलं+ वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४७...||
ज्ञानयोरुपन्यास इति, तथाहित्य एवं मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य, 'जत्थ मतिणाणं तत्थ सुयणाणं' ति वचनात् तथा यावान् मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेवेतरस्य प्रवाहापेक्षया अतीतानानागतवर्तमानः सर्व एव अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया च षट्षष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति, उक्तं च भाष्यकारेण - "दो वारे विजयाइसुं गयस्स तिमच्चते अहब ताई । अइरेगं नरभवियं णाणाजीवाण सम्बद्धं ॥ १ ॥” यथा मतिज्ञानं क्षयोपशमहेतुकं तथा श्रुतज्ञानमपि यथा च मतिज्ञानमादेशतः सर्वद्रव्यादिविषयमेचं श्रुतज्ञानमपि यथा मतिज्ञानं परोक्षं एवं श्रुतज्ञानमपीति, तथा मतिज्ञानथुतज्ञानयोरेव अवध्यादिज्ञानभावादिति । आह-एवमपि मतिज्ञानमादौ किमर्थमिति, उच्यते मतिपूर्वकत्वाद्विशिष्टमत्यंशरूपत्वाद्वा श्रुतस्यादी मतिज्ञानमिति, उक्तं च " मतिपूब्वं जेण सुयं तेणादीए मती विसिडो वां । मतिभेओ चैव सुयं तो मतिसमणंतरं भणियं ॥ १ ॥ इति, पर्याप्तं विस्तरेण । तथा कालविपर्ययस्वामिला भुसाधर्म्यान्मतिश्रुतज्ञानानन्तरमवधिज्ञानस्योपन्यासः, तथाहि पावानेव मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः स्थितिकालः प्रवाहापेक्षयाऽप्रतिपतितैकसत्वा धारापेक्षया च तावानेवावधिज्ञानस्यापि अतः स्थितिसाधर्म्य, तथा यथैव मतिज्ञानश्रुतज्ञाने विपर्ययज्ञाने भवत एवमिदं मिथ्यादृटेर्विभंगज्ञानं भवतीति विपर्ययसाधम्र्म्य, तथा य एव मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः स्वामी स एवावधिज्ञानस्यापि (इति) भवति स्वामिसाधर्म्य, तथा विभंगज्ञानिनखिदशादेः सम्यग्दर्शनावाप्तौ युगपदेव ज्ञानत्रयलाभसम्भवाल्लाभसाधर्म्यं । तथा छग्रस्थविषयभावाध्यक्षसाधर्म्यादवधिज्ञानानन्तरं मनःपर्यायज्ञानस्योपन्यासः तथाहि यथाऽवधिज्ञानं छवस्थस्य भवत्येवं मनःपर्यायज्ञानमपि छद्यस्थस्यैवेति छग्रस्थसाधर्म्य, तथा यथाज्ञविज्ञानं रूपिद्रव्यविषयमेवं मनःपर्यायज्ञानमपि सामान्येनेति विषयसाधर्म्ये, तथा यथाऽवधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे तथा मनः
"
ज्ञानभेदानामुद्देशः
~39~
॥ २६ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) .............. मूलं R,3] / गाथा ||४७...||
प्रत
सूत्रांक
[२-३] गाथा ॥४७..||
नन्दी पर्यायज्ञानमपि इति भावसाधर्म्य, तथा यथा अवधिज्ञानं प्रत्यक्षमेवं मनःपर्यायज्ञानमपीत्यध्यक्षसाधर्म्य । तथा मनःपर्यायज्ञानानन्तरं | रमाकेवलज्ञानस्योपन्यासः, तस्य सकलज्ञानोत्तमत्वात् , तथा अप्रमत्तयविस्वामिसाधर्म्यात् , तथाहिन्यथा मनःपर्यायज्ञानमप्रमचयतेरेब वृत्ता
भवति एवं केवलज्ञानमपि अप्रमत्तभावयतेरेवेति साधर्म्य, तथावसानलाभाच्च, यो हि सर्वज्ञानानि समासादयति स खल्वन्त ॥ २७॥ एवेदमामोतीति भावना, विपर्ययाभावसाधाच्च, तथाहि-यथा मनःपर्यायज्ञानं विपरीतं न भवत्येवं केवलमपि इति साधर्म्य,
अलं विस्तरेणेति सत्रार्थः,
'तं समासतो दुविहं पन्नत्त'मित्यादि (२-७१) तत् पंचप्रकारं ज्ञानं समासतः संक्षेपेण द्विविधमिति द्वे विधे अस्येति | द्विविध-द्विप्रकारं प्रज्ञप्तं प्ररूपितं तयथेत्युदाहरणोपन्यासार्थम्, प्रत्यक्षं च परोक्षं च, तत्र प्रत्यक्षमित्यत्र जीवोऽक्षा, की, अशूव्याप्ता बित्यस्य ज्ञानात्मनाऽश्नुतेऽर्थानित्यक्षः, व्यामोतीत्यर्थः, अश भोजन' इत्यस्य वासनाति सर्वाऽथानित्यक्षः, पालयति मुक्त चेत्यर्थः, तमक्ष प्रति बर्वत्त इति प्रत्यक्षं, आत्मनः अपरनिमित्तमवध्यावतीन्द्रियमिति भावार्थः, चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनपरः, विचित्रतां चास्योत्तरत्र वक्ष्यामः, परोक्ष चेत्यत्राक्षस्य-आत्मनः द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च पुगलमयत्वात् पराणि वर्तन्ते, पृथगित्यर्थः, | तेभ्योऽक्षस्य यत् ज्ञानमुत्पद्यते तत् परोक्ष, पनिमित्तत्वामादग्निज्ञानवद्, अथवा पौरुषा-संबंधनं विषयविषयीभावलक्षणमस्येति 8 टपरोक्षं, चशब्दः पूर्ववद्, एवमन्यत्राप्युत्प्रेक्ष्य चशब्दार्थी वक्तव्य इति सूत्रार्थः ॥ एवं मेदद्वये उपन्यस्ते सत्यनयोः सम्यक्-14 स्वरूपमनवगच्छन्नाह चोदक:
'से किं तं पच्चक्खं १०' (३-७५) सेशग्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातोऽथशब्दार्थे वर्तते, स च प्रक्रियादिवाचकः, यथोक्ता
दीप अनुक्रम [५४-५५]
॥२७॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: ... ज्ञानस्य संक्षेप्त: वे भेदे प्रदर्शयते ।
~40~
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[३-४]
गाथा
||86..||
दीप
अनुक्रम
[५५-५६]
30-5030
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [३,४] / गाथा ||४७...||
नन्दी
'अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्य मंगलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु' इहोपन्यासार्थः किमिति परिप्रश्ने, तत् प्रागुपदिष्ट प्रत्यक्षमिति हारिभूद्रीय हे सूत्रार्थः ॥ एवं चोदकेन प्रश्ने कृते सति न्यायप्रदर्शनार्थमाचार्यः चोदकोक्तानुवादद्वारेण निर्वचनमभिधातुकाम आह वृत्ती
॥ २८ ॥
'पच्चक्खं दुविहं पन्नत्त'मित्यादि, एवमन्यत्रापि यथायोगं प्रश्ननिर्वचनसूत्राणां पातनिका कार्येति, प्रत्यक्षं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-इन्द्रियप्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षं च इन्द्रियाणां प्रत्यक्षं इन्द्रियप्रत्यक्षं, इहेन्द्रः स्वरूपतो ज्ञानाद्यैश्वर्ययुक्तत्वादात्मा तस्येदमिन्द्रियं तच्च द्विधा-द्रव्येन्द्रियं च भावेन्द्रियं च तत्र पुद्गलैर्बाह्यसंस्थाननिवृत्तिः कदम्बपुष्पाद्याकृतिविशिष्टोपकरणं च द्रव्येन्द्रियं 'निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रिय' मिति(तवा.२-१७) वचनात् श्रोत्रेन्द्रियादिविषया सर्वात्मप्रदेशानां तदावरणक्षयोपशमलब्धिरुपयोगश्च भावेन्द्रियं लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रिय' मिति ( तच्चा. २ - १८) वचनात् इन्द्रियप्रत्यक्षं न भवतीति नोइन्द्रियप्रत्यक्षं नोशब्दः सर्वप्रतिषेधे ॥
'से किं तमित्यादि (४-७६ ) अथ किं तदिन्द्रियप्रत्यक्षं १, तत् इन्द्रियप्रत्यक्ष पञ्चविधं प्रज्ञतं, तद्यथा श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्षमित्यादि, श्रोत्रेन्द्रियस्य श्रोत्रेन्द्रियप्रधानं वा प्रत्यक्षं २, श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तमित्यर्थः एवं शेषेष्वपि वक्तव्यम् एतच्चोपचारतः प्रत्यक्षं न परमार्थतः, कथं ज्ञायत इति चेत् सूत्रप्रामाण्यात्, वक्ष्यति च - "परोक्खं दुविहं पनतं, तंजहा आभिणिबोहियणाणपरोक्खं च सुयणाणपरोक्खं च न च मतिश्रुताभ्यामिन्द्रियमनोनिमित्तमन्यदस्ति यत् प्रत्यक्षमञ्जसा भवेत्, भावे च षष्ठज्ञानप्रसंगाद् विरोध इति, तस्मात् परोक्षमेवेदं तत्त्वत इति, आह-इह लोके लिंगजं परोक्षमिति प्रतीतमिति, उच्यते, इह यदिन्द्रियमनोझिलिंगप्रत्ययमुत्पद्यते तदेकान्तेनैवेन्द्रियाणामात्मनश्च परोक्षं, परनिमित्तत्वाद्धूमादग्निज्ञानवदित्यतः परोक्षमिति प्रतीतिः,
इन्द्रियप्रत्यक्षं
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॥ २८ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम
(४४)
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सूत्रांक
[४-७]
गाथा
||86..||
दीप
अनुक्रम
[५६-५९]
नन्दीहारिभद्रीय वृती
॥ २९ ॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४-७] / गाथा ||४७... ||
यत्पुनः साक्षादिन्द्रियमनोनिमित्तं तत्तेषामेव तत्प्रत्यक्षम्, अलिंगत्वाद्, आत्मनोऽवध्यादिवत्, न त्वात्मनः आत्मनस्तु तत् परोक्षमेव, परनिमित्तत्वालैंगिकवत्, इन्द्रियाणामपि तदुपचारतः प्रत्यक्षं न परमार्थतः, कथम्?, अचेतनत्वादित्यत्र बहु वक्त तच्चान्यत्र वक्ष्यामो मा भूत् प्रथमग्रन्थ एव प्रतिपत्तिगौरवमित्यलं विस्तरेण, आह-- 'स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्राणीन्द्रियाणी' ति क्रमः, अयमेव च ज्यायान् पूर्वपूर्वलाभ एवोत्तरोत्तरळाभाद्, अतः किमर्थमुत्क्रमः १, उच्यते पश्चानुपूर्व्यादिन्यायज्ञापनार्थं, स्पष्टसंवेदनद्वारेण सुखप्रतिपत्त्यर्थं चेति, इह मनोज्ञानयपीन्द्रियज्ञानतुल्ययोगक्षेममेव द्रष्टव्यं तथा चाभिनिबोधिकज्ञानप्ररूपणार्या प्रत्यक्षत इति सेतं इदियपञ्चक्त्रं तदेतदिन्द्रियप्रत्यक्षम् ॥
'से किं तं गोइंद्रियपचखं० (५-७६) अथ किं तनोइन्द्रियप्रत्यक्षं ? नोइन्द्रियप्रत्यक्षं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अवधिज्ञानप्रत्यक्षं इत्यादि ॥
'से किं तं०' इत्यादि (६-७६) अथ किं तदवधिज्ञानप्रत्यक्षं १, २ द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा भवप्रत्ययं च क्षायोपशमिकं च, वत्र भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्त्तिनः प्राणिन इति भवः- नरकादिजन्मेति भावः, भव एव प्रत्ययः कारणं यस्य तद्भवप्रत्ययं च पूर्ववत्, तथा क्षयोपशमश्च क्षयोपशमौ ताभ्यां निर्वृत्तं क्षायोपशमिकं ॥ तत्र यद्येषां भवति तत्तेषामुपदर्शमाह -
'दोह 'मित्यादि (७-७६) द्वयोर्जीवसमूहयोः भवप्रत्ययं तद्यथा देवानां नारकाणां च तत्र दीव्यन्तीति देवाः, निरुप मक्रीडामनुभवन्तीत्यर्थः तेषां तथा नरान् कायन्तीति नरकाः, योग्यतया शब्दयन्तीत्यर्थः, ते भवा नारकास्तेषां ।। अत्राह-न
अवधेरधिकारः
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॥ २९ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ... अथ प्रत्यक्ष ज्ञान भेदे 'अवधिज्ञान वर्णयते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............. मूलं -९] | गाथा ||४७...||
प्रत
.
सूत्रांक [७-९]
गाथा ॥४७..||
नन्दी
सम्वधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते देवनारकभवश्वौदायिकस्तत् कथं तद् भवप्रत्ययमिति,उच्यते, क्षायोपशमिकमेव तत् , किंतु स हारभद्रामातएव देवनारकभवे अवश्यंभावि, पविणां गगनगमनलब्धिनिमित्चवदित्येता भवप्रत्यय इति, उक्तं च-"उदयक्खयखयोवसमोवसमा जंच वृत्ती
कम्मणो भणिया । दव्वं खत्तं कालं भावं च मावं च संपप्प ।।९ पंचसं०७६) तथा द्वयोः क्षायोपशमिक, तद्यथा-मनुष्याणां पंचन्द्रियतिर्यग्योनीनां च, न चैपामवश्यतया भवतीत्यतः सत्यपि क्षायोपशमिकत्वे भवप्रत्ययाद् मित्रमिदमिति, तत्त्वतस्तु सर्वमेव | शायोपशमिकमिति ।। अधुना क्षयोपशमस्वरूपं प्रतिपादयबाह-'को हेऊ' इत्यादि, को हेतुः किनिमितं किंविषयं क्षायोपशमिक | यद्वा किं कारणं बायोपमिकमुच्यते इत्यध्याहारः, अत्र निर्वचनमभिधातुकाम आह-क्षायोपशमिक तदावरणायानाम्-अवधिज्ञाना| वरणीयानां कर्मणां उदीर्णानां उदयावलिकाप्राप्तानां क्षयेण प्रलयेन अनुदीर्णानां चात्मनि व्यवस्थितानामुपशमेन उदयनिरोधेन
अवधिज्ञानमुत्पषत इति सम्बन्धः, यत एवमतः कर्मोदयानुदयविषयं, अथवा येन तदावरणीयानां कर्मणां उदीर्णाना क्षयेणानुदी. कार्णानामुपशमेनापधिज्ञानमुत्पद्यते तेन वायोपशमिकमित्युच्यत इति, सच क्षयोपशमो विशिष्टगुणप्रतिपत्तिमन्तरेण तथा गुणप्रतिप
तितश्च भतीत, तत्रान्तरेण यथाऽऽकाशे घनघनपटलाच्छादितमूर्दिवसकरमण्डलस्य कथंचिदुपजातरन्ध्रेण विनिर्गतास्तिमिरनिचियालयहेतवः किरणाः स्वावपातदेशास्पदं द्रव्यमुद्योतयन्ति तथा प्रकृतिभास्वरस्यात्मनो मिथ्यात्वादिजनितज्ञानावरणीयादिकर्म
मलपटलतिमिरतिरस्कृतस्वभावस्यानादौ संसारे परिभ्रमतो यथाप्रकृत्योपजातावधिज्ञानावरणक्षयोपशमविवरस्यावधिज्ञानालोकः13 &| प्रसाधयति स्वकार्यमिति, गुणप्रतिपत्तितस्तु मूलगुणादिप्रतिपत्तेर्भवति, यत आह
'अथवा' इत्यादि।। (१-८१) ॥ अथवेति प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थ, अन्तरेण प्रतिपचिमित्यस्मादिदं प्रकारान्तरमेव, गुणा:
RECSKA53
दीप अनुक्रम [५९-६१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............. मूलं -१०] / गाथा ||४७...|| .......
प्रत
हारिभद्रीय
सूत्रांक
[१०] गाथा ॥४७..||
| मूलगुणादयस्तैः प्रतिपन्नो-गृहीतो गुणप्रतिपत्र इत्यनेन अतिशयपात्रतामाह, यतः पात्राथयिणो गुणाः, उक्तञ्च- "नोद-& न्वानार्थतामेति, न चाम्भोभिर्न पूर्यते । आत्मा तु पात्रतां नेयः, पात्रमायान्त सम्पदः॥१॥" अथवा प्राकृतशैल्या पूर्वापरनि
पातकरणात अतिपत्रगुणस्य अनगारस्य न गच्छन्तीत्यगाः-वृक्षास्तैः कृतमगार-गृहं नास्यागार विद्यते इत्यनगारः परित्यक्तद्र॥३१॥ व्यभावगृह इत्यर्थः, तस्य प्रशस्ताध्यवसायस्य तदावरणकर्मक्षयोपशमे सत्यवधिज्ञानं समुत्पद्यते, तं समासतो इत्यादि, तद् अ
वधिज्ञानं समासतः संक्षपेण षड्विध षट्प्रकारं प्रज्ञप्तं प्ररूपितं, तद्यथा-अनुगामिकं अनुगमनशीलं, अनुगामिकं अवधिज्ञानं लोचनवद्गच्छन्तमनुगच्छतांतिभावार्थः, अननुगामिक ना धज्ञानिनं गच्छन्तमनुगच्छति संकलाप्रतिबद्धप्रदीपवत् इति हदयं, वर्धते बर्द्धमानं तदेव वर्द्धमानकं, संज्ञायां कन् , उत्पत्तिकालादारभ्य-प्रवर्द्धमान, महेन्धननिबन्धनोत्पद्यमानानलज्वालाकलापवदिति भावना, हीयमानक हीयते हीयमानं तदेव हीयमानकं, कुत्सायां कन् , उदयसमयसमनन्तरमेव हीयमानं दग्धेन्धनप्रायधूमध्वजाचिर्वातवदित्यर्थः, प्रतिपाति प्रतिपतनशील प्रतिपाति कथंचिदापादिताजात्यमाणिप्रभाजालवदिति गर्भार्थः, अप्रतिपाति ने प्रतिपाति अप्रतिपाति बारमृत्पुटपाकाद्यापाद्यमानजात्यमणिकिरणनिकरवदित्यभिप्रायः, आह-आनुगामुकानानुगामुकभे| दद्वय एव शेषमेदानां वर्द्धमानकादीनामन्तर्भावात् किमर्थमुपन्यास इति, उच्यते, सत्यप्यन्तर्भाव तद्विकल्पद्वयादेव तेषामपरिच्छित्तेः,
तथाहि नानुगामुकमनानुगामुकं चेत्युक्ते वर्द्धमानकादयो गम्यन्त इति, अज्ञातज्ञापनार्थ च शास्त्रप्रवृत्तिरित्यलं प्रसंगेन ।
।.. 'से कि तमाणुगामिक'मित्यादि ॥ (१०-८२) ॥ अथ किं तदानुगामुकं अवधिज्ञान', २ द्विविध प्रश्नसं, तयथा-अन्तट्रिगतं च मध्यगतं च, इहान्तः पर्यन्तो भण्यते, नान्तवत् , गतं स्थितमित्यनर्थान्तरं, अन्ते गतमन्तगतं अन्ते स्थितं, तच्च फड्ड
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HARENA
दीप अनुक्रम [६२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: ... अथ अवधिज्ञानस्य भेदानां वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
... मूलं [१०] / गाथा ||४७..||
प्रत
सूत्रांक
अन्त
[९-१०]
गाथा ॥४७..||
नन्दी- 131 कावधित्वादात्मप्रदेशान्ते, सर्वात्मप्रदेशक्षयोपशमभावतो वा औदारिकशरीरान्ते, एकीदगुपलम्भाद्वा तदुद्योतितक्षेत्रांते गतमंत-151
अनुहारिभद्रीय
मायागतं, इह चात्मप्रदेशान्तगतमुच्यते, सकलजीवोपयोगे सत्यपि साक्षादेकदेशेनैव दर्शनात् , औदारिकशरीरान्तगतमपि, औदारिकश-लगाम्यायाः वृत्ती 11 |रीरैकदेशेनैव दर्शनाच्च, यथोक्तक्षेत्रान्तगतं त्ववधिमतस्तदन्तवृत्तेरिति भावना, चशब्दः पूर्ववत् , मध्यगतं इह मध्यः प्रसिद्ध ए
गताद्याश्च ॥३२॥ व दण्डादिमध्यवत् , मध्ये गतं मध्यगतं मध्ये स्थितं, तच्च सर्वत्र फडकविशुद्धरात्ममध्ये सर्वात्ममध्ये सर्वात्मनो वा क्षयोपशमयो-11
गाविशेषेऽपि औदारिकशरीरमध्योपलब्धः तन्मध्ये सर्वदिगुपलम्भादा तत्प्रकाशितक्षेत्रमध्ये गतं मध्यगत, अत्र चात्ममध्यगतमभिधी-&
यते. सर्वात्मोपयोगे सत्यपि मध्य एव फडकसद्भावात् , साक्षान्मध्यभागेनोपलब्धेः, औदारिकशरीरमध्यगतमप्यादेििरकशरीरमध्य द्रभागेनेवोपलब्धेः, प्रस्तुतक्षेत्रमध्यगत पुनरवधिज्ञानिनस्तत्र मध्ये भावादिति भावार्थः, चशब्दः पूर्ववत् । MI 'से कि समित्यादि, प्रायः सुगमम्, नवरं उल्का-दीपिका चुडुली-पर्यन्तज्वलिता तृणपूालिका अलातम्-उल्मुकं मणिः-पद्मरा
गादिः प्रदीपशिखादि ज्योतिः मल्लिकाबाधारोऽग्निः प्रदीपः प्रतीतः पुरतः-अग्रतो हस्तदण्डादौ गृहीत्वा 'पणोल्लमाणे पणो-13 दिलेमाणे'त्ति प्रेरयन् २ गच्छेद् यायात् सेतं तदेतत् पुरतोऽन्तगतम् , अयमत्र भावार्थ:-स हि गच्छन् उल्कादिभ्यः सकाशाव
पुरत एव पश्यति, नान्यत्र, एवं यतोऽवधिज्ञानाद्विविधक्षयोपशमनिमित्तत्वाद्देशपुरत एव पश्यति, नान्यत्र, तत् पुरतोऽन्तगतममि-* 1 धीयते इत्येतावताऽशेन दृष्टान्तु इत्येवं सर्वत्र योज्यम् । से किं तमित्यादि, निगदसिद्धं, नवरं 'अणुकड्डेमाणे ति अनुकर्षन् २,
एवं 'परियडूमाणे २' परिकर्षन् २, अथ किं तन्मध्यगतमित्यादि निगदसिद्धमेव, नवरं मस्तके शिरसि कृत्वा गच्छेत् तदेतन्म-1 IPLध्यगतमिति, एतदुक्तं भवति-स तेन मस्तकस्थेन सर्वत्र तत्प्रकाशितमर्थ पश्यति, परमेवं यतोऽवधिज्ञानात् तदुद्योतितार्थावगमस्त
दीप अनुक्रम [६१-६२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रां
[१०-१२]
गाथा
||86..||
दीप
अनुक्रम [६२-६४]
नन्दीहारिभद्रीय
वृत्तौ
॥ ३३ ॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [१०-१२] / गाथा ||४७...||
न्मध्यगतमित्येतावताऽशेन दृष्टान्त इति इह व्याख्यातार्थं सम्यगनवगच्छवाह चोदक:- अंतगतस्य य इत्यादि सूत्रासिद्धं यावत् 'मज्झगतेण 'मित्यादि, मध्यगतेनावधिज्ञानेन सर्वतः सर्वासु दिग्विदिक्षु समन्तात् सर्वैरात्मप्रदेशैर्विशुद्ध फट्टकैर्वा संख्येयानि वा असंख्येयानि वा योजनानि जानाति पश्यति, अथवा समन्ता अवधिज्ञान्येव च गृह्यते, संख्येयानि चेत्यत्र संख्यायन्त इति संख्येयानि - एकादीनि शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तानि गृह्यन्ते, तत ऊर्ध्वमसंख्येयानि, तदेतदानुगानुकमवधिज्ञान इति ।
'से किं त' मित्यादि ॥ ११ ८९॥ प्रकटार्थमेव नवरं ज्योतिःस्थानं अग्निस्थानं कृत्वा तस्यैव ज्योतिःस्थानस्य पर्यन्तेषु किमेकदिग्गतेषु १, नेत्याह- परिः सर्वतो भावे, ततश्च परिपर्यन्तेषु २ परिघूर्णन्, परिभ्रमन् इत्यर्थः, तदेव ज्योतिःस्थानं, ज्योति:प्रकाशित क्षेत्रमित्यर्थः पश्यति, अन्यत्र गतो न पश्यति, तदुपलम्भाभावात्, तदावरणक्षयोपशमस्य तत्क्षेत्रसम्बन्धसापेक्षत्वात्, एवमेव अनानुगामुकमवधिज्ञानं यंत्रेव क्षेत्र व्यवस्थितस्य सतः समुत्पद्यते तत्रैव व्यवस्थितः सन् संख्येयानि वा असंख्येयानि वा । | योजनानि सम्बद्धानि वा असम्बद्धानि वा जानाति पश्यति, नान्यत्र, क्षेत्रसम्बन्धसापेक्षत्वादवधिज्ञानावरणक्षयोपशमस्य, तदेतदनानुगामुकम् ||
'से किं त' मित्यादि ॥ (१२-९०) ।। अथ किं तद्वर्द्धमानकः, २ वर्द्धमानमेव वर्द्धमानकं प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य वर्तमानचारित्रस्य, इहौघतो द्रव्यलेश्योपरंजितं चित्तमध्यवसायस्थानमुच्यते, अस्य चानवस्थितत्वात्तद्रव्यसाचिव्ये सति विशेपभावाद्वत्वमिति, तत्र प्रशस्तेष्वित्यनेनाप्रशस्त कृष्णलेश्यादिद्रव्योपरंजितव्यवच्छेदमाह, अध्यवसायस्थानेषु वर्त्तमानस्य, प्रश
अनानुगामुकं वधेमानकं च
~46~
॥ ३३ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.... मूलं [१२] / गाथा ||४८||
प्रत
नन्दीहारिभद्रीय
अब
सूत्रांक
उक्त
[१२] गाथा
॥४८||
स्ताभ्यवसायस्येत्यर्थः, सर्वतः समन्तादवधिः परिवर्द्धत इति योगः, अनेनाविरतसम्यग्दृष्टेरपि वर्द्धमानक उक्तो वेदितव्यः, वत्तेमानचारित्रस्येत्पनेन तु देशविरतसर्वविरतयोरिति, विशुध्यमानस्य-तदाबरणकर्ममलविगमादुत्तरोत्तरं शुद्धिमनुभवतः अविरतसम्यग्दृष्टेरेव, अनेनावधेः शुद्धिजन्यत्वमाह, विशुध्यमानचारित्रस्य देशसर्वविरतस्य सर्वतः समन्तादवधिः परिवर्द्धत इति, तत्र । परिवद्धेत इत्युक्तम् , अथ सर्वजघन्योऽयं कियत्प्रमाणो भवतीति प्रश्नसम्भये क्षेत्रतः प्रतिपादयबाह
जावइयागाहा।।(४४८-९०)।यावती यावत्प्रमाणा, आहारयतीत्याहारकः त्रिसमयं आहारकः त्रिसमयाहारकः त्रीन् वा समयानिति, तस्य, सूक्ष्मनामकर्मोदयात् लक्ष्मस्तस्य, पनकश्चासौ जीवश्च पनकजीवः, वनस्पतिविशेषः इत्यर्थः, तस्य, अवगाहन्ते यस्यां प्राणिनः सा अवगाहना, तनुरित्यर्थः, जघन्या-सर्वस्तोका, अवधेः क्षेत्र अवधिक्षेत्र, जघन्य- सर्वस्तोक, तुशब्द एक्काकारार्थः, स चावधारणे, तस्य चैव प्रयोगः-अबधिक्षेत्र जघन्यमेतावदेवेति ।। अत्र च सम्प्रदायसमधिगम्योऽयमर्थ:
योजनसहस्रमानो मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेश यः । उत्पद्यत हि सूक्ष्मः पनकत्वेनेह स प्रायः॥१॥ संहृत्य चाद्यसमये स बायाम करोति च प्रतरम् । संख्यातीताख्यांगुलविभागबाहल्यमानं तु ॥ २॥ स्वतनूपृथुत्वमात्र दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात् । तमपि द्वितीयसमये संहृत्य करोत्यसौ सूचिम् ॥ ३ ॥ संख्यातीताख्यांगुलविभागविष्कम्भमाननिर्दिष्टाम् । निजतनुप्रथुत्वदध्या तृतीयसमय तु संहृत्य ॥४॥ उत्पद्यते च पनकः स्वदेहदेशे स सूक्ष्मपरिणामः । समयत्रयेण तस्यावगाहना यावती भवति ॥५॥ तावज्जघन्यमधरालम्बनवस्तुभाजनं क्षेत्रम् । इदमित्थमेव मुनिगणसुसम्प्रदायात् समवसेयम् ॥ ६॥
SARKARI
दीप अनुक्रम [६४-६५]]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
..... मूलं [१२...] / गाथा ||४९||
A
प्रत
सूत्रांक
नन्दीपरम
॥ ३५॥
[१२..] गाथा ||४९||
NSKETREATRESERRORS
अत्र कश्चिदाह- किमिति महान् मत्स्यः ? किं वा तस्य तृतीयसमये निजदेशे समुत्पादः त्रिसमयाहारकत्वं वा कल्प्यते इति, अ त्रोच्यत, स एव हि महामत्स्यस्त्रिभिः समयैरात्मानं संक्षिपन् प्रयत्नविशेषात् सुक्ष्मावगाहनो भवति, नान्यः, प्रथमांद्वतीयसमययो
वातिसूक्ष्मः, चतुर्थादिषु चातिस्थूरः, त्रिसमयाहारक एव च योग्य इत्यतस्तद्ग्रहणं इति, अन्ये तु व्याचक्षते-त्रिसमयाहारक इति | आयामविष्कम्भसंहारसमयद्वयं मूचिसहरणोत्पादसमययते त्रयः समयाः, विग्रहाभाबाच्चाहारक एतचित्यतः उत्पादसमय एव त्रिसमयाहारकः सूक्ष्मः पनकजीवो जघन्यावगाहनचातस्तत्प्रमाणं जघन्यमवधिक्षेत्रमिति, एतच्चायुक्तं, त्रिसमयाहारकत्वस्य पनकजीवविशेषणत्वात् , मत्स्यायामविष्कम्भसंहरणसमयद्वयस्य च पनकसमयायोगात्, त्रिसमयाहारकत्वाख्यविशेषणानुपपत्तिप्रसंगाद्, | अलं प्रसंगनेति गाथाथैः । एवं तावज्जघन्यमवधिक्षेत्रमुक्तमिदानीमुत्कृष्टविभागमभिधातुकाम आह
सव्वबहुअगणिजीवा० ।। (४९.९०) ॥ सर्वेभ्यो-विवक्षितकालावस्थायिभ्योऽनलजीबेभ्य एव बहवः सर्वबहवो, न भूतभविष्यद्भयो नापि शेषजीवेभ्यः, कुतः , असम्भवात्, अग्नयश्च ते जीवाश्च अग्रिजीवाः सर्वबहनश्च ते अग्रिजीवाश्च सर्वबह्वग्निजी-18 वाः, निरन्तरमिति क्रियाविशेषणं, यावद् यावत्परिमाणं भृतवन्तो व्याप्तवन्तः क्षेत्रम्-आकाशम्, एतदुक्तं भवति-नरन्तर्येण विशिष्टमूचिरचनया यावद् भृतवन्त इति, भूतकालनिर्देशश्चाजितस्वामिकाल एब प्रायः सर्वबहवोऽनलजीवा भवन्त्यस्यामवसर्षिण्यामित्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थम् , इदमनन्तरोदितविशेषणं क्षेत्रमेकदिकमपि भवति अत आह-सर्वदिकम् , अनेन सूचीपरिभ्रमणप्रमि- | *|||३५ तमेवाह, परमश्वासाववाधिश्च परमावधिः क्षेत्रमनन्तरव्यावर्णित प्रभूतानलजीवमितमङ्गीकृत्य निर्दिष्टः क्षेत्रनिर्दिष्टः प्रतिपा|दितो गणधरादिभिरिति, ततश्च पर्यायेण परमावधेरेतावत् क्षेत्रमित्युक्तं भवति, अथवा सर्ववहमिजीवा निरतरं यावद्भृतवन्तःक्षेत्र
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दीप अनुक्रम [६६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[१२..]
गाथा
||४९
५३ ॥
दीप
अनुक्रम [६६-७०]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्ती
॥ ३६ ॥
1965
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२...] / गाथा ||४९-५३ ||
सर्वदिकं एतावति क्षेत्रे यानि अवस्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्ययुक्तः परमावधिः क्षेत्रमंगीकृत्य निर्दिष्टो, भावार्थस्तु पूर्ववदेव, अयमक्षरार्थः, इदानीं साम्प्रदायिकः प्रतिपाद्यते तत्र सर्वबह्नग्निजीवा बादराः प्रायोऽजितस्वामितीर्थकर काले भवन्ति, तदारम्भकपुरुषवाहुल्यात्, सूक्ष्माचोत्कृष्टपदिनस्तत्रैवावरुध्यन्ते, ततश्च सर्वबहवो भवन्ति तेषां च बुद्ध्या पोढाऽवस्थानं कल्प्यते, एकैक क्षेत्रप्रदेशे एकैकजीवावगाहनया सर्वतश्चतुरस्रो घनः प्रथमं स एव जीवः स्वावगाहनया द्वितीयं एवं प्रतरोऽपि द्विभेदः, श्रेण्यपि द्विमेदा, तत्राद्याः पञ्च प्रकारा अनादेशाः, क्षेत्रस्याल्पत्वात् क्वचित् समयविरोधाच्च, षष्ठः प्रकारस्तु सूत्रादेश इति, ततश्रासौ श्रेणी अवधिज्ञानिनः सर्वासु दिक्षु शरीरपर्यन्तेन भ्रम्यते, सा चासश्यानलाके लोकमात्रान् क्षेत्रविभागान् व्याप्रोति, एताव दवधिक्षेत्रमुत्कृष्टमिति, सामर्थ्यमङ्गीकृत्यैव प्ररूप्यते एतावति क्षेत्र यदि द्रष्टव्यं भवति पश्यति, न त्वलोके द्रष्टव्यमस्तीति गाथार्थः ॥ एतत्तावज्जघन्यमुत्कृष्टं चावधिक्षेत्रमभिहितम्, इदानीं विमध्यमप्रतिपिपादयिपया एतावत् क्षेत्रोपलम्भे चैतावत्कालोपलम्भः तथा एतावत्कालोपलम्भे चैतावद क्षेत्रोपलम्भ इत्यर्थस्य प्रदर्शनाय चेदं गाथाचतुष्टयं जगाद शास्त्रकारः---
अंगुलमावलियाणं० ||(२०)|| हत्थम्मि० गाहा ||(*५१) || भरहम्मिगाहा || (#५२)। संखज्जीम्म उ० गाहा ।। (*५३-९०) ।। अंगुलं क्षेत्राधिकारात् प्रमाणाङ्गुलं गृह्यते, अवध्यधिकाराच्चोच्छ्रयाङ्गुलमित्येके, आवलिका असङ्ख्येयसमयसङ्घातोपलक्षितः कालः, उक्तञ्च -'असंखयाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेण एगा आवलिगति बुच्चर' अगुलं च आवलिका च अङ्गुलाबलिके तयोरगुलावलिकयेोर्भागमसङ्ख्येयं पश्यति अवधिज्ञानी, एतदुक्तं भवति क्षेत्रमङ्गुला संख्येयभागमात्रं पश्यन् कालतः आवलिकायाः असंख्येयमेव भागं पश्यति, अतीतमनागतं चेति, क्षेत्रकालदर्शनं उपचारेणोच्यते, अन्यथा हि क्षेत्र
विमध्यमावधि
क्षेत्रकाली
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॥ ३६ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१२...] / गाथा |४९-५३||
......
प्रत सूत्रांक
नन्दी- हारिभद्रीय वृत्ती
[१२..] |
गाथा ॥४९
व्यवस्थितानि दर्शनयोग्यानि द्रव्याणि तत्पर्यायाँश्च विवक्षितकालान्तर्वर्तिनः पश्यति, न तु क्षेत्रकालौ, मूर्चद्रव्यालम्बनत्वात्, एवं 81
श्री क्षेत्रकाल| सर्वत्र भावना दृष्टव्या, क्रिया च गाथाचतुष्टय प्यध्याहार्या, तथा दूयोर-अङ्गुलावलिकयोः सङ्घययौ भागौ पश्यति, अङ्गुलसं-12
वृद्धिः | ख्येयभागमात्र क्षेत्रं पश्यन्नावलिकायाः सङ्घयेयभागमेव पश्यतीत्यर्थः, तथा अंगुलं पश्यन् क्षेत्रत आवलिकान्तः पश्यति, भिन्ना-४ मावलिकामित्यर्थः, तथा कालत आवलिकां पश्यन् क्षेत्रतः अगुलपृथक्त्वं पश्यति, पृथक्त्वं हि द्विप्रभृतिरानवभ्यः, इति प्रथमगाथार्थः ।। द्वितीयगाथाव्याख्या-हस्त इति हस्तविषयः क्षेत्रतोऽवधिः कालतो मुहूर्तान्तः पश्यति, भिन्नमुहूर्तमित्यर्थः, अवध्यवधिमतोरभेदोपचारादवधिः पश्यतीत्युच्यते, तथा कालतो दिवसान्तो भिन्नदिवस पश्यन् क्षेत्रतो गव्यूत इति गन्यूतविषयो बोद्धव्यः, तथा योजनविषयः क्षेत्रतोऽवधिः कालतो दिवसपृथक्त्वं पश्यति, तथा पक्षान्ता-भिनं पक्षं पश्यन् कालतः पञ्चविंशति योजनानि पश्यतीति द्वितीयगाथार्थः । तृतीयगाथाव्याख्या-भरत इति क्षेत्रतो भरतविषयेऽवधौ कालतः अर्द्धमास उक्तः, एवं जम्बूद्वीपविषये चावधौ साधिको मासः, वर्ष च मनुष्यलोकविषयेऽवधाविति मनुष्यलोकः खल्वद्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणः, वर्षपृथक्त्वं च रुचकाख्यबाह्यद्वीपविषयेऽवधाववगन्तव्यमिति तृतीयगाथार्थः ॥ चतुर्थगाथाव्याख्या-सलयायत इति सङ्ख्येयः, स च संवत्सरलक्षणोऽपि भवति, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि, सङ्ख्येयो बर्षसहस्रात् परतोपि गृह्यते इति, तस्मिन् | संख्येये कलनं कालः तस्मिन् काले अवधेर्गोचर सति क्षेत्रतस्तस्यैवावधेर्गोचरतया द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्रा अपि भवन्ति IW॥३७॥ संख्येयाः, अपिशब्दात महानेकोऽपि तदेकदेशोऽपीति, तथा कालेऽसंख्येये पल्योपमादिलक्षणेऽवधेविषये सति तस्यैवासंख्येयकालपरिच्छेदकस्यावधेः क्षेत्रतः परिच्छेद्यतया द्वीपसमुद्रास्तु भाज्या:-कदाचिदसंख्येया एव, यदा इह कस्यचिन्मनुष्यस्यासंख्येयद्वीप
५३||
CAM
दीप अनुक्रम [६६-७०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
... मूलं [१२...] | गाथा ||५३-५४||
नन्दीहारिभद्रीय
॥ ३८॥
प्रत सूत्रांक [१२..] | गाथा ||५३५४||
SAREESAKASAXSAX
समुद्रविषयोऽवधिरुत्पद्यत इति, कदाचिन्महान्तः संख्येयाः, कदाचिदेकदेशः स्वयम्भूरमणतिरश्चोऽवधिविज्ञेयः, स्वयम्भूरमणविषय- व्यादि
द्विनियमः मनुष्यबाद्यावधेर्वा, योजनापेक्षया च सर्वपक्षेष्वसंख्येयमेव क्षेत्रमिति गाथार्थः ॥ एवं तावत् परिस्थूरन्यायमंगीकृत्य क्षेत्रवृद्ध्या 4 कालवृद्धिरनियता कालवृद्धया च क्षेत्रवृद्धि प्रतिपादिता, साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया यस्य पद्धी यस्य वृद्धिर्भवति यस्य वा न भवत्यमुमर्थमभिधित्सुराह. काले गाहा ।।(१५४-९०)।। कालेऽवधिज्ञानगोचरे वर्द्धमाने चतुणों द्रव्यादीनां वृद्धिर्भवति, कालस्तु भाज्यो विकल्पयितव्यः, क्षेत्रस्य वृद्धिः क्षेत्रादिः तस्यां क्षेत्रद्धा सत्या कदाचिर्द्धते कदाचिन्नेति, कुतः, क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् , कालस्य च स्थूलत्वाद्, द्रव्यपयोयो तु बर्द्धते, सप्तम्यन्तता चास्य-'ए होइ अयरित पयम्मि बीयाए बहुसु पुंल्लिंगे। तझ्याइस छट्ठीसत्तमीण एकम्मि महि-18 लत्थे।।१॥ अस्माल्लक्षणात् सिद्धेति, एवमन्यत्रापि प्राकृतशैल्या इष्टविमत्यन्तता पदानामवगन्तव्येति, तथा वृद्धौ च-द्रव्यं च पर्यायच. द्रव्यपर्यायौ तयोर्षद्धी सत्या भाज्यौ- विकल्पनीयो क्षेत्रकालावेव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , कदाचिदनयोद्धिर्भवति कदाचिति, द्रव्यपर्याययोः सकाशात् परिस्थरत्वात क्षेत्रकालयोरिति भावार्थः, द्रव्यवृद्धी तु पर्याया वर्धन्त एव, पर्यायवृद्धी च द्रव्यं भाज्य, द्रव्यात् पर्यायाणां सूक्ष्मत्वाद् एकस्मिन् भावे (अ)क्रमवर्तिनामपि च बृद्धिसम्भवात् कालवृध्ध्यभावो भावनीय इति गाथार्थः ।। अत्र कश्चिदाह- जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नयोरवधिज्ञानसम्बन्धिनोः क्षेत्रकालयोरंगुलावलिकाऽसंख्येयभागोपलक्षितयोः परस्सरतः ॥ ३८॥ प्रदेशसमयसंख्यया परिस्थूरसूक्ष्मत्वे सति कियता मागेन हीनाधिकत्वमिति, अत्रोच्यते, सर्वत्र प्रतियोगिनः खल्वावलिकाऽसंख्ये-14 यभागादेः कालादसंख्येयगुणं क्षेत्र, कुत एतदत आह---
दीप अनुक्रम [७०-७१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
........... मूलं [१३-१५] / गाथा ||५||
भदा
प्रत सूत्रांक [१३-१५]
गाथा ||५५..||
%
नन्दी
सुहुमो य० गाहा ॥ (७५५-९०)॥ सूक्ष्मश्च-श्लक्ष्णव भवति कालः, यस्मादुत्पलपत्रशतभेदे समयाः प्रतिपत्रमसंख्येयाः हारिभद्रीय शासन
प्रतिपादिताः, तथापि ततः कालात् सूक्ष्मतरं भवति क्षेत्र, कुतः-१, यस्मादंगुलश्रेणिमात्रे क्षेत्रे, प्रदेशपरिमाणं प्रतिप्रदेशं समय- वधमानाद
गणनया अवसर्पिण्या असंख्येयास्तीर्थकृतिः प्रतिपादिताः, एतदुक्तं भवति-अंगुलश्रेणिमात्रक्षेत्रप्रदेशाग्रं असंख्ययावसर्पिणीसमयरा-11 ।। ३९॥ शिपरिमाणमिति गाथार्थः । सेतं इत्यादि, तदेतद्वद्धमान अवधिज्ञानमिति ।
_ 'से किंत'मित्यादि (१३-९६)।। अथ किं तद्धीयमानकी, २ कथंचिदवाप्तं सत् अप्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य सतः अविरतसम्यग्दृष्टेर्वर्तमानचारित्रस्य देशविरतादेः सक्रिश्यमानस्य बध्यमानकर्मसंसर्गादुत्तरोत्तरं संक्तशमासादयतः अविरतसम्यग्दृष्टेरेव, संक्लिश्यमानचारित्रस्य देशविरतादेः, सर्वतः समन्तादबधिः परिक्षीयते, तदेतद्धीयमानकमवधिज्ञानमिति ।।
___ 'से किंत' मित्यादि (१४-९६)।। अथ किं तत् प्रतिपात्यवधिज्ञान?,२ 'जन्न' मिति, यदवधिज्ञानं जघन्येन सर्वस्तोकतया:31 गुलस्यासंख्येयभागमा वा, उत्कर्षेण सर्वप्रचुरतया यावल्लोकं दृष्ट्वा लोकमुपलभ्य तथाविधक्षयोपशमजन्यत्वात् प्रतिपतेत् । न ला भवेदित्यर्थः, तदेतत् प्रतिपात्यवधिज्ञान इति, क्रियाशेष प्रायो निगदसिद्ध, नवरं पृथक्त्वमिति द्विप्रभृतिरानवभ्य इति सिद्धान्त-| |परिभाषा, तथा हस्तद्वयं कुक्षिरुच्यते, चत्वारो हस्ता धनुरिति, 'से त' मित्यादि, तदेतत्प्रतिपारयवाधिज्ञानम् ॥
॥३९॥ का 'सेकिंत'मित्यादि ।।(१५-९७।। अथ किं तदप्रतिपात्यवधिज्ञानं ?, 'जण' ति येनावधिज्ञानेनालोकस्य सम्बन्धिन एकम-15
प्याकाशप्रदेश, अपिशब्दाहान् वा, पश्येत् शक्त्वपेक्षयोपलभेत, एतावत्क्षयोपशमप्रभवं यत् 'तत कर्ष मिति तत आरभ्याप्रति
E
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दीप अनुक्रम [७२-७६]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[१५-१७]
गाथा
||५५||
दीप अनुक्रम
[७६-७८]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्तौ
1180 11
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [१५-१७] / गाथा ||५५...||
पाति आकेवलप्राप्तेरवधिज्ञानमिति, अयमत्र भावार्थः एतावत्क्षयोपशमसम्प्राप्तात्मा विनिहतप्रधान प्रतिपक्षयोद्धसंघात इव नरपतिर्न पुनः कर्मशत्रुणा परिभूयते, किं तर्हि ? समासादितैतावदालोक एवाप्रतिनिवृत्तः शेषमपि कर्मशत्रु विनिर्जित्याप्नोति केवलराज्यश्रियमिति, लोकालोकविभागस्त्वयं-जीवादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥ १ ॥ 'सेत' मित्यादि, तदेतदप्रतिपात्यवधिज्ञानमिति व्याख्याताः षड् भेदाः, साम्प्रतं द्रव्यादिविषयापेक्षया भेदतोऽबधिज्ञानमेव निरूपयन्नाह
'तं समासओ' इत्यादि ।। (१६-९७) ।। तदवधिज्ञानं समासतः संक्षेपेण चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावत इति, तत्र द्रव्यतः णमिति वाक्यालंकारे अवधिज्ञानी जघन्येनानन्तानि द्रव्याणि तैजसभाषाद्रव्याणामपान्तरालवर्तीनि, यत उक्तम्- 'तेयाभासादब्याण अंतरा एत्थ लभइ पडवओ' ति, उत्कृष्टतः सर्वरूपिद्रव्याणि बादरसूक्ष्म भेदभिन्नानि जानाति विशेषाकारेण, पश्यति सामान्याकारण, आह-आदौ दर्शनं ततो ज्ञानमिति क्रमः तत् किमर्थमेनं परित्यज्य प्रथमं जानातीत्युक्तम् १, अत्रोच्यते, इहावधिज्ञानाधिकारात् प्राधान्यख्यापनार्थमादौ जानातीत्युक्तं, अवधिदर्शनस्य त्ववधिविभंगसाधारणत्वात् पश्चात् पश्यतीति, अथवा सर्वा एव लब्धयस्सांकारोपयोगोपयुक्तस्योत्पद्यन्त इति, अवधेष लब्धित्वादित्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थमादौ जानातीत्याह ततः क्रमेणोपयोगप्रवृत्तेः पश्यतीति, क्षेत्रतः अवधिज्ञानी जघन्येनांगुलस्यासंख्येयभागं, उत्कृष्टतोऽसंख्येयानि अलोके केवलाकाशास्तिकाये शक्तिमपेक्ष्य लोकप्रमाणानि खण्डानि जानाति पश्यति, कालतोऽवधिज्ञानी जघन्येनावलिकासंख्येयभागं उत्क|ष्टतोऽसंख्येया अवसर्पिण्युत्सर्पिणीरतीतं चानागतं च कालं जानाति पश्यतीति, भावार्थः प्राक् प्रतिपादित एव, भावतोऽवधिज्ञानी
अवधिविषया:
द्रव्यादयः
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।। ४० ।।
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ... अवधिज्ञानस्य द्रव्य आदि चत्वारः भेदानां वर्णनं क्रियते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............ मूलं [१७] / गाथा ||५६-५७||
प्रत
अवधे
सूत्रांक
विषयः अवाद्याश्च
[१७]
गाथा ||५६
नन्दी- जघन्येन अनन्तानन्तान् भावान्-पर्यायान, आधारद्रव्यानन्तत्वात्, न तु प्रतिद्रव्यमिति, उत्कृष्टतोऽनन्तान् भावान् जानाति पश्यति,
तेऽपि चोत्कृष्टपदिनः सर्वभावानां सर्वपर्यायाणामनन्तभाग इति ॥ इत्थमवधिज्ञानं भेदतोऽप्यभिधाय साम्प्रतं संग्रहगाथामाह
| ओही भव० इत्यादि (* ५६-९८ ) अबधिर्भवप्रत्ययो गुणप्रत्ययश्च वर्णितो व्याख्यातः एषः अनन्तरं, पाठान्तरं वा ॥ ४१ " वर्णितो द्विविधः, तस्य द्विविधस्यापि बहवो विकल्या द्रव्यत इति द्रव्यविषयाः परमाणुकादिद्रव्यमेदात् क्षेत्रत इति क्षेत्रविषया
अंगुलासङ्घधेयभागादिविशिष्टक्षेत्रभेदात, कालत इति कालविषयाः आवलिकासङ्ख्येयभागाद्युपलक्षितकालभेदात् , चशब्दादा-* वविषयाच, वर्णाद्यनेकप्रकारत्वाद्भावानामिति गाथार्थः ।। एवं तावदवधिज्ञानमभिधाय साम्प्रतं ये बाह्यावधयो ये चाभ्यन्तरावधयो भवन्ति तानुपदर्शयबाह
णेरइय० गाहा (* ५७-९८) नारकाश्च देवाश्च तीर्थकराश्चेति समासः, चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, अस्य च व्यवहितः |प्रयोग इति दर्शयिष्यामः, एते नारकादयः अवधेः अवधिज्ञानस्य न बाह्या अबाह्या भवन्ति, इदमत्र हृदयम्--अवध्युपलब्धक्षेत्र| स्यान्तर्वर्तन्ते, सर्वतोऽवभासकत्वात् प्रदीपवत् अवाद्यावधय एव भवन्ति, नैषां बाह्यावधिर्भवतीत्यर्थः, तथा पश्यति सर्वतः * सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च, खलुशब्दोऽप्येवकारार्थः, स चावधारणे, सर्वावेव दिक्ष्विति, आह-अवधेरवाया भवन्तीत्यस्मादेव सर्वत 18| इत्यस्य सिद्धत्वात् सर्वतो ग्रहणमतिरिच्यत इति, अत्रोच्यते, नन्चभ्यन्तरत्वे सत्यपि न सर्वे सर्वतः पश्यन्ति, दिगन्तरालादर्शनाद्, दाअवधेर्विचित्रत्वात, अतो नातिरिच्यते इति, शेषास्तियनराः देशेनेत्येकदेशेन पश्यन्ति, अत्रेएतोऽवधारणविधेः शेषा एव देशतः
५७||
M
॥४१
दीप अनुक्रम [७८-८१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[१७]
गाथा
॥५६
५७॥
दीप अनुक्रम
[७८-८१]
नदीहारि मद्रीय वृत्ती
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१७] / गाथा ||५६-५७||
॥ ४२ ॥
पश्यन्ति न तु देशत एवेति गाथार्थः ॥ जथवाऽन्यथा व्याख्यायते एवं तावदवधिज्ञानमभ्यधायि, साम्प्रतं ये नियतावधयो ये चानियतावधयो भवन्ति तान् प्रतिपादय आह— "नेरइय" गाहा, नारका देवास्तीर्थकरा एव अवधेरवाद्या भवन्ति, किमुक्तं भवति ? नियतावधयो भवन्ति, नियमेनैवामवधिर्भवतीत्यर्थः तेन चावधिना पश्यन्ति सर्वत एव न पुनर्देशतोऽपि, अत्राह४ पश्यन्ति सर्वत एवेत्येतावदेवास्तु, अवधेरवाला भवन्तीत्येतश्वनर्थकं, नियतावधित्वस्यार्थसिद्धत्वात् तथा चोक्तम्- 'द्वयोर्भवप्रत्ययः, तद्यथा देवानां च नारकाणां च त्यतोऽर्थगम्यमेवषां नियतावधित्वं, तीर्थकृतामपि प्रसिद्ध तरपारभविकावधिसमन्वागमादेव नियतावधित्वसिद्धिरिति, अत्रोच्यते, नियतावधित्वे सिद्धेऽपि न सर्वकालावस्थायित्व सिद्धिरित्यतस्तत्प्रदर्शनार्थं अवधेरबाह्या भवन्तीति सदाऽवधिज्ञानवन्तो भवन्तीति ज्ञापनार्थत्वाद्दृष्टं ययेवं तीर्थकृतां सर्वकालावस्थायित्वं विरुध्यत इति, न, छद्मस्थकालस्यैव विवक्षितत्वात् अलं विस्तरेण, शेषं पूर्ववदिति गाथार्थः । 'सेतं ओहिणाणति, तदेतदवधिज्ञानम् ॥
'से किं तं मणपज्जवणाण' मित्यादि ।। १७-९९ ।। अथ किं तन्मनःपर्यायज्ञानंः, इदं प्राणिरूपितशब्दार्थमेव, साम्प्रतमुत्पत्तिस्वामिमागुणाद्वारेण चिन्त्यते, तथा चाह- 'मणपज्जवणाणं भेते' इत्यादि, मनःपर्यायज्ञानं णमिति वाक्यालङ्कारे, मदन्तः इति गुर्वामन्त्रणं, किमिति परिप्रश्ने, मनुष्याणामुत्पद्यत इति प्रकटार्थम्, जमनुष्याणामुत्पद्यत इत्यमनुष्यादेवादयः, अत्रेद निर्वचनं - गौतम! माणुस्साणमित्यादि । आह-किमिदं अकाण्ड एव गौतमामन्त्रणं, नतु देववाचकरचितोऽयं ग्रन्थ इति, उच्यते, सत्यं, किन्त्येते पूर्वसूत्रालापका एवार्थवशाद्विरचिताः, 'जावइया तिसमयाहारगस्से' त्यादिनिर्युक्तिगाथासूत्रवादित्यतो न दोषः, तत्र च गौतमप्रश्नभगवनिर्वचनरूप एवं ग्रन्थ इति, पुनरप्याह-ननु गौतमोऽपि सूत्रतः प्रवचन
मनःपर्यायाधिकारः
~55~
॥ ४२ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ... अथ प्रत्यक्षज्ञान भेदे मनः पर्यवज्ञानस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं [१७] / गाथा ||५६-५७||
प्रत सूत्रांक
[१७]
गाथा ||५६
HTRANSFEREKARANASI
प्रणेतृत्वाच्चतर्दशपूर्वधरत्वात सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानयुक्तत्वात् सर्वज्ञकल्प एव, उक्तञ्च-सखातीतेऽपि भवे साहइ जवाब
मनःपर्या| परो उ पुच्छेज्जा । ण यण अणाइसेसी बियाणई एस छउमस्थो ॥१॥ ततः किमर्थ पृच्छति', अत्रोच्यते, कुतचिदभिप्राया- याधिकार: |द, जानत एव स्वशिध्येभ्यो वा अरूप्य तत्सम्प्रत्ययनिमित्तं, सूत्ररचनाकल्पतो वेति न दोषः, कृर्त प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः,गौ-14 तमेन पृष्टो भगवानाह-गौतम! मनुष्याणामुत्पद्यते, नान्येषा, विशिष्टचारित्रप्रतिपल्यभावाद्, एवमन्यत्रापि भावना कार्येति, सम्मूछिममनुष्या गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यवान्तादिसमुद्भवाः, उक्तम्च- "कहि गं भेत! समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति?, गोयमा ! अंतो मणुस्सखचे पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अट्ठाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पसरससु कम्मभूमीसुं छप्पनाते अंतरदीवएसु गम्भवतियमणुस्साणं व उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा तेसु वा पित्तेसु वा मुक्केसु वा सोणिएमु वा सुक्क-IN
पोग्गलेसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगयकलबरेसु वा णगरणिद्धमणेसु वा सम्बेसु चेच असुईगम असुइट्ठाणेसु बा, एत्थ णं &ासंमुच्छिममणुस्सा संमुच्छन्ति अंगुलस्स असंखेज्जहभागमेचीए ओगाहणाए असनी मिच्छद्दिढी अनाणी सवाहिं पज्जचीहिं अप-18
ज्जतमा अन्तोमुहुत्तद्धाउया चेव कालं करंति"।। भरताद्याः पंचदश कर्मभूमयः, हेमक्ताचास्त्रिंशदकर्मभूमयः, त्रीणि योजनशतानि लवणजलधिजलमध्यमधिलक्ष्य हिमवतशिखरिपादप्रतिष्ठा एकोरुकायाः षट्पंचाशदन्तीपा भवन्ति, कर्मभूमौ जाताः कर्मभूमिजा इत्येवमक्षरगमनिका कार्या, संख्येषवर्षायुषः पूर्वकोट्यादिजीविनः असंख्येयवर्षायुषः पल्योपमादिजीविन इति, इह प-14 याप्तिर्नाम शक्तिः, सा च पुद्गलद्रव्योपचयादुत्पद्यते, सा पुनः षट्प्रकारा, तद्यथा-आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः भाषापर्याप्सिः मनःपर्याप्तिश्चति, तत्र पर्याप्तिः क्रियापरिसमाप्तिः, आत्मनः शरीरेन्द्रियमाणापानवाश्मनोयो
SHRIPRESEASE
५७||
दीप अनुक्रम [७८-८१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
~56~
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[१७]
गाथा
॥५६
५७॥
दीप अनुक्रम
[७८-८१]
नन्दीहारिभद्रीय वृतौ
॥ ४४ ॥
SSC
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१७] / गाथा ||५६-५७||
ग्यदलिकद्रव्याहरणक्रियापरिसमाप्तिराहारपर्याप्तिः, गृहीतस्य शरीरतया संस्थापनाक्रियापरिसमाप्तिः शरीरपर्याप्तिः, संस्थानरचनाघटनमित्यर्थः, त्वगादीन्द्रियनिर्वर्त्तनक्रियापरिसमाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः, प्राणापानक्रियायोग्यद्रव्यग्रहणशक्तिनिर्वर्त्तनक्रियापरिसमाप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः, भाषायोग्यद्रव्य ग्रहणनिसर्गशक्तिनिर्वर्त्तनक्रियापरिसमाप्तिः भाषापर्याप्तिः, मनस्त्वयोग्यद्रव्यग्रहणनिसर्गशक्तिनिवर्त्तनक्रियापरिसमप्तिर्मनः पर्याप्तिरित्येके, आसां युगपदारब्धानामपि क्रमेण परिसमाप्तिः, उत्तरोत्तरसूक्ष्मतरत्वाद्, अत्र चाद्याथ तस्र एकेन्द्रियाणां पंच विकलेन्द्रियाणां पद् संज्ञिनां, उक्तंच - " आहारसरीरिदियपज्जती आणुपाणभासमणे । चत्तारि पंच छप्पिय | एगिंदियविलसन्नीणं ॥ १ ॥ " तत्र पर्याप्त कनामकर्मोदयात् निष्पद्यमाननिष्पन्नपर्याप्तिमन्तः पर्याप्ताः, अर्शआदित्वात् मत्वर्थीयः, त एवं पर्याप्तकाः, एवमपर्याप्त कनामकर्मोदयादनिष्पन्नपर्याप्तियोगादपर्याप्तास्त एवापर्याप्तका इति, सम्यग् - अविपरीता दृष्टियेषां ते तथा, मिथ्या विपरीता दृष्टिर्येषां ते तथा, सम्यग्मिथ्यादृष्टयस्तु प्रतिपत्त्यभिमुखा अन्तर्मुहूर्तमात्रं भवन्ति न तु परित्या भिमुखाः, यत उक्तम्- "मिच्छत्ता संकंती अविरुद्धा होइ सम्ममीसेसु । मीसाओ वा दोसुवि सम्मा मिच्छं न पुण मीसं ॥ १ ॥ " संयताः सकलचारित्रिणः असंयता अविरतसम्यग्दृष्टयः संयतासंयताः देशविरतिमन्तः श्रावकाः प्रमत्तसंयता गच्छ्वासिनः क्वचिदनुपयोगसम्भवात् अप्रमत्तसंयतास्तु जिनकल्पिकादयः सततोपयोगात्, अथवा गच्छवासिनः तन्निर्गताथ परिणामविशेषतः प्रमत्ताश्राप्रमत्ताश्रावगन्तव्या इति, आमपपध्यादिलब्धिलक्षणा ऋद्धयस्तासामन्यतरप्राप्तियोगात् प्राप्तयः, अवधिऋद्धिभावाद्वा अन्ये त्ववधिऋद्धी नियममभिदधति, इह च सर्वत्रैव मनुष्यादिषु विधाने सत्यर्थतो गम्यमानस्यापि विपक्ष| निषेधस्याभिधानमव्युत्पन्नविनेयजनानुग्रहार्थमदृष्टमेवेति, तथाहि सर्वपार्षदं हीदं शास्त्र, त्रिविधाय विनेया भवन्ति, तद्यथा---
मनः पर्या
याधिकारः
~57~
॥ ४४ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
.... मूलं [१८] / गाथा ||५७...||
(४४)
प्रत
नन्दी
सूत्रांक
हारिभद्रीया वृत्ता
Fake
॥४५॥
[१८] गाथा ॥५७..||
| उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयः प्रपञ्चधियश्चेत्यलं विस्तरेण, स्थितमेतत्-प्राप्तर्षिअप्रमत्तसंयतानामुत्पते, एतच्चोत्पद्यमानं द्विधोत्पद्यते, मनःपयातद्यथा-ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च, मननं मतिः, संवेदनमित्यर्थः, ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः, घटोऽनेन चिन्तितः
याधिकारः इत्यध्यवसायनिवन्धनमनोद्रव्यप्रतिपत्तिरित्यर्थः, एवं विपुला-विशेषग्राहिणी मतिर्विपुलमतिः घटोऽनेन चिन्तितः, स च सौवर्णः४ पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्यायध्यवसायहेतुभूतमनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति भावार्थः, अस्या व्युत्पत्ती स्वतन्वं ज्ञानमेव गृह्यत इति, [ अथवा ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिरस्य सोऽयं ऋजुमतिस्तद्वानेव गृह्यते, एवं विपुला-विशेषग्राहिणी मतिरस्येति विपुलमतिस्तद्वानेव, | भावार्थः प्राग्वद् , उत्तरत्र वा वक्ष्यामः। ___"तं समासतो" इत्यादि (१८-१०७) तत् समासतश्चतुर्विध प्रजातं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः, तत्र द्रव्यतः पमिति पूर्ववत् ऋजुमतिः अनन्तान्-अपरिमितान् अनन्तपरमाण्वात्मकानित्यर्थः, स्कन्धान विशिष्टैकपरिणामपरिणतान् सनिभिः पञ्चेन्द्रियैः पर्याप्तकैरर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वतिभिर्मनस्त्वेन परिणामितानित्यर्थः, जानीत इति मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयोपशमस्य पटुत्वात साक्षात्कारेण विशेषभूयिष्ठपरिच्छेदाज्जानीत इत्युच्यते, सदालोचितं पुनरर्थ घटादिलक्षणमध्यक्षतो न जानाति, किन्तु | तत्परिणामान्यथाऽनुपपत्त्याऽनुमानतः पश्यतीत्युच्यते, उक्तं च भाष्यकारेण-"जाणति बज्झेऽणुमाणाओ" ति, इत्थं चैतदङ्गी-1 कर्तव्यं, यूतो मूर्त्तद्रव्यालम्बनमेवेदं, मंतारस्त्वमूर्तमपि धर्मास्तिकायादिकं मन्येरन् , नच तदनेन साक्षात्कर्तुं शक्यते, तथा चतुर्विधं | च चक्षुदर्शनादि दर्शनमुक्तम्, अतो भिन्नालम्बनमेवेदमबसेयं, तत्र च दर्शनसम्भवात् पश्यतीत्यपि न दुष्ट, एकप्रमात्रपेक्षया तदनन्तरभावित्वाच्चोपन्यस्तमिति, ओघतो वैकविधक्षयोपशमलब्धौ विविधोपयोगसम्भवाद्विशेषसामान्यार्थापेक्षया जानाति पश्यति
RECE
दीप अनुक्रम [८२]
॥ ४५
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
~58~
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[PC]
गाथा
॥५७..।।
दीप
अनुक्रम
[૨]
नन्दीहारिभद्रीय
वृता
॥ ४६ ॥
[भाग-7] "नन्दी"- चूलिकासूत्र- १ (मूलं+ वृत्तिः )
मूलं [१८] / गाथा ||१७||
1
चेत्यदुष्टमित्यलं विस्तरेण, तानेव विपुलमतिः अभ्यधिकतरान् स्कन्धान् द्रव्यार्थतया वर्णादिभिश्च जानाति पश्यति च क्षेत्रतः ऋजुमतिः अधो यावदस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरिमाघस्त्यानि क्षुल्लकप्रतराणीति । क्षुल्लकप्रतरपरिज्ञानार्थमिमं पण्णविज्जति| तिरियलोकस्स उड्डहमडारसजोयणसतियस्स बहुमज्झे एत्थ असंखेज्जंगुलभागमेत्ता लोगागासपतरा अलोगेण संवेदिया सब्बखड्डगतरा खुट्टागपतरत्ति भनंति, ते य सव्वतो रज्जुप्पमाणा, तेसिं बहुमज्झे दो खुट्टागपतरा, तेसिं बहुमज्झे जंबुद्दीचे रयणप्पभपुढवीबहुसमभूमिभागेऽत्थ मंदरस्स बहुमज्जे, एत्थऽट्ठपएसो रुयगो, जत्तो दिसिविदिसाविभागो पवतो, एवं तिरियलोयमज्यं, एयातो तिरियलोयमज्झातो रज्जुप्पमाणखुडागपतरेहिंतो उचरिं तिरियं असंखेयंगुलभागबुडी उबरित्तोवि अंगुल असंख्य भागारोहो चैव एवं तिरियमुवरिं च अंगुला संखयभागबुडीए ताव लोगबुड्डी णेयच्या जाब उडलोयमज्यं, ततो पुणो तेणैव कमेणं संबो कायब्बो जाव उबरिमलोगंतो रज्जुप्पमाणो, तत्तो उनलोगमज्झातो उबार हेट्ठा य कमेण खुट्टागपतरा भाणियव्वा, जाव रज्जुप्प| माणा खुड्डागपयति, तिरियलो यमज्जारज्जूप्पमाणखडगपतरेहिंतोष हेड्डा अंगुलस्स असंख्येयभागबुडी तिरियं अहोअवगाहे वि अंगुलस्स असंख्येयभागो चैव एवमहोलोगो वट्टेयब्बो जाव अहोलोगंतो सत्तरज्जूओ, सतरज्जुपतरेर्हितोऽवि उपरिकमेण खड्डागपयरा भाणियव्वा, जाव तिरियलोयमज्झा रज्जुप्पमाणा खुट्टागपयरत्ति, एवं सुरडागपरूवणे कते इमं भन्नइ 'उवरिम'ति तिरियलोयमज्झाओ अहो जाव णत्र जोयणसयाणि ताव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीते उवरिमखुट्टामपतरत्ति भन्नति, तदधो अधोलोगे जाव अहोलोगिया गामत्ति, एए हेडिमखुड्डागपयरत्ति भन्नति, रिजुमती अहो ताव पस्सतित्ति भणियं होइ, अहवा अहो| लोगस्स उवरिमा खुट्टागपयरा तिरियलोगस्स य हेडिमा खुडागपयरन्ति ते जाव पश्यतीत्यर्थः, अने भणति उबरिमत्ति अघो
मनःपर्यायाधिकारः
~59~
॥ ४६ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[PC]
गाथा
॥५७..।।
दीप
अनुक्रम
[८२]
नन्दीहारिभुद्रीय वृती
॥ ४७ ॥
[भाग-7] "नन्दी"- चूलिकासूत्र- १ (मूलं+ वृत्तिः )
मूलं [१८] / गाथा ||१७||
लोगोवरि जे ते उचरिमा, के य ते १, उच्यते, सब्वतिरियलोगवत्तिणो, तिरियलोगस्स वा अहो नव जोयणसतबरिणो, ताण वेव जे हेडिमा ते जाव पश्यतीत्यर्थः, इमं च ण घडति, अहोलोइयगाममणपज्जवणाणसं भवचा हलत्तणओ, उक्तञ्च - "इहाघोलौकिकान् ग्रामान् तिर्यग्लोकविवर्त्तिनः । मनोगतांस्त्वसौ भावान्, बेति तद्वर्तिनामपि ॥ १||" अलं प्रसंगेन, एवमूर्ध्वं यावज्ज्योतिषकस्योपरितलं, तिर्यग्यावदन्तो मनुष्यक्षेत्रे, मनुष्यलोकान्त इत्यर्थः, शेषं सुगमं यावत् 'सण्णीणं पञ्चेन्द्रियाणामित्यादि, तंत्र संज्ञिनोऽ- | पान्तरा लगतावपि तदायुष्कसंवेदनादभिधीयन्तु एव न तैरिहाधिकार इत्यतः पञ्चेन्द्रियग्रहणं तेऽपि चोपपातक्षेत्रप्राप्ता अपि मनःपर्याप्त्या अपर्याप्तका अपि भण्यन्ते, न च तैरपीहाधिकार इत्यतः पर्याप्तकग्रहणं इति स्वरूपकथनं वा संशिनां पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानामिति, अथवा संज्ञिनो हेतुवादोपदेशेन विकलेन्द्रिया अपि भण्यन्ते तद्व्यवच्छेदार्थे पञ्चेन्द्रियग्रहणं, तेऽप्यपर्याप्तका अपि भवन्ति अतः पर्याप्तग्रहणमिति, इह क्षेत्राधिकारस्यैव प्राधान्यात्तदेव मनोलब्धिसमन्वितजीवाधारक्षेत्रमभिगृह्यते, विपुलमतिः अर्द्ध तृतीयस्य येषु तान्यर्द्धतृतीयानि तैरभ्यधिकतरं, प्रभूततरमित्यर्थः, तदेव प्राकृतशैल्या अभ्यधिकतरकं, एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यं तत्रैकदिशमप्यधिकतरं भवत्यतः सर्वतोऽधिकतरमिति प्रतिपादनार्थमाह-विपुलतरं विस्तीर्ण तरम्, अथवा आयामविष्कम्भावाश्रित्यामभ्यधिकतरं, बाहल्यमाश्रित्य विपुलतरं तथा विसुद्धतरं निर्मलतरमित्यर्थः, यथा चन्द्रकान्तादिप्रकाशकद्रव्यविमल २तरविशेषाद्विमलप्रकाशितद्रष्टुः सकाशाद्विमलतरप्रकाशितद्रष्टा विशुद्धतरं पश्यति, एवं विष्कम्भितोदयमनः पर्यायज्ञानावरणस्य कारणभेदतो मन्दश्तरविशेषभावात् ऋजुमतेः सकाशात् विपुलमतिर्विशुद्धतरमिति, उपशान्तावरणविशेषादपि ज्ञानस्य विशेष इत्येतावताशेन दृष्टान्तः, तथा तदावरणक्षयोपशमविशेषान्च वितिमिरतरं निर्मलतरं, अथवा प्राग्वद्वतदावरणकर्मक्षयोपशमस्य प्रधान
मनःपर्या याधिकारः
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॥ ४७ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
...... मूलं [१९] / गाथा ||१८||
(४४)
वृत्ती
प्रत सूत्रांक [१९] गाथा ||८||
नन्दी-13 त्वाद्विशुद्धतरं, बध्यमानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषाच्च वितिमिरतरं, बध्यमानाभावाच वितिमिरतरमित्यन्ये, अथवैकार्थिका एचैते | मनःपयोयर हारमुद्रापार शब्दाः नानादेशजानां विनेयानां कस्यचित् कश्चित् प्रसिद्धो भवतीत्युपन्यस्ताः, क्षेत्र तात्स्थ्यात् तव्यपदेश इति जानाति पश्यति ॥४॥
शेष निगदसिद्धं यावत्॥४८॥
मणपज्जव० गाहा (8५८-१०८) मनःपर्यायज्ञानं प्राग्निरूपितशब्दार्थ, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, इदं हि रूपिनि-13 बन्धनक्षायोपशमिकप्रत्यक्षादिसाम्येऽपि सत्यवधिज्ञानात् स्वाम्यादिभेदेन विशिष्टमिति स्वरूपतः प्रतिपादयन्नाह-जायन्त इति जनाः तेषां मनांसि २ जनमनोभिः परिचिन्तितः जनमनःपरिचिन्तितः जनमनःपरिचिन्तितवासावर्थश्चेति समासः, तं, प्रकटयतिप्रकाशयति जनमनःपरिचिन्तितार्थप्रकटन, मानुषक्षेत्रम्-अर्द्धत्तीयद्वीपसमुद्रपरिमाणं तनिवन्धनं, तदबहिर्व्यवस्थितप्राणिमन:-12
परिचिन्तितार्थविषयं प्रवर्तत इत्यर्थः, गुणा:-क्षान्त्यादयः त एव प्रत्ययाः-कारणानि यस्य तद् गुणप्रत्ययं, चारित्रमस्यास्तीति। है। चारित्रवान् तस्य चारित्रवत एवेदं भवति, एतदुक्तं भवति-अप्रमत्तसंयतस्य आमषिध्यादिऋद्धिप्राप्तस्य चेति गाथार्थः ।। से ता|
मणपज्जवणाणं,' तदेतन्मनःपर्यायज्ञानमिति ।। । 'सेकिंतं केवलज्ञानमित्यादि (१९-१११॥ अथ किं तत केवलज्ञान, केवलजान द्विविध प्रशतं, तयथा-भवस्थकेवलज्ञानं |311४८॥ &ाच सिद्धकेवलज्ञानं च, भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः, भवो गतिजन्मेति पर्यायाः, भवे तिष्ठतीति भवस्था तस्य
केवलज्ञानर, 'पिधौ संराद्धौं 'राध साध संसिद्धौ' 'पि, शास्त्र मांगल्ये च' सिध्यति स्म सिद्ध-यो येन गुणेन निष्पन्नः- परिनि
दीप अनुक्रम [८३-८५]
CASSANSK
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ... अथ प्रत्यक्षज्ञान-भेदे केवलज्ञानस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.... मूलं [१९] / गाथा ||१८||
प्रत
केवलज्ञानं
सूत्रांक
[१९] गाथा ||८||
नन्दी- ष्ठितो, न पुनः साधनीयः, सिद्धोदनवत् स सिद्धा, सच कर्मसिद्धादिमदादनेकविधः, उक्तं च-'कम्मे सिप्पे य विज्जा य, मते
जोगे य आगमे । अत्य जत्ता आभिष्पाए, तवे कम्मखए इय ।।१॥ इह कर्मक्षयसिद्धेनाधिकारः, स चाशेषकर्माशक्षयात् कमे-18 वृत्ती
क्षयसिद्धः, सितध्वंसित्वात् सिद्धा, 'सिं वर्णगन्धनयो रिति सित- बद्धमष्टप्रकारं कर्म तद् ध्वंसितुं शीलमस्पति सितध्वंसी सिद्धा, ॥४९॥ तस्य कवलज्ञानं २॥
_ 'से किंत'मित्यादि, अथ किं तद् भवस्थकेवलज्ञानी,२ द्विविध प्रजप्त, तथथा-सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च अयोगिभवस्थके| वलज्ञानं च, इह युज्यन्त इति योगा:-कायादयः, उक्तं च-'कायवाङ्मनःकर्म योगः' तत्रौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणति-| विशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतबागद्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो वाग्योगः, तथौदारिकवैक्रिया|हारकशरीरण्यापाराहृतमनोद्रव्यसम्हसाचिच्याज्जीवव्यापारो मनोयोगः, तद्यथासम्भवं योगोऽस्य विद्यत इति सयोगी सयोगी चासो टाभवस्थव २, तस्य कवलज्ञान, एवं न योगी २ स च भवस्थश्च तस्य केवलज्ञानं२, शैलेश्यवस्थागतस्येत्यर्थः, अथ किं तत् सयोगि
भवस्थकेवलज्ञान ,२ द्विविध प्रज्ञप्त, तद्यथा-प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च अप्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च, | तत्र प्रथमसमयस्तत्प्रथमतयोत्पत्तिसमय एवं गृहाते, न प्रथमोऽप्रथमः-द्वितीयादयः सर्व एव शैलश्यवस्थाप्राप्तेरप्रथमसमया इति, |अथवेत्पन्यथा प्रतिपाद्यते, 'चरमसमये'त्यादि, तत्र चरमः-सयोगिकालान्त्यसमयः,न चरमोऽचरमः पश्चानुपूयों चरमादारभ्य
सर्व एवाकेवलप्राप्तरचरमा इति । 'सेत' मित्यादि निगमनम्, 'से किं तमित्यादि, अत्रापि शैलश्यवस्थाभाविकेवलज्ञानम|धिकृत्यैवमेव भावनीयमलं विस्तरेण । 'सेत' मित्यादि, निगमनम्, तदेतद्भवस्थकेवलज्ञानम् ॥
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दीप अनुक्रम [८३-८५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............ मूलं R०-२१] / गाथा ||५८...|| .........
प्रत
सूत्रांक
वृत्ती
[२०-२१]
गाथा ||५८..||
नन्दी- 'से किं तमित्यादि ।। (२०-११३) ॥ अथ किं तत् सिद्धकेवलज्ञानं ?, सिद्धकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-अनन्तरसि-18 सिद्धहारिभद्रीय टीदकेवलज्ञानं च परम्परसिद्धकेवलज्ञानं च, तत्र शैलेश्यवस्थापर्यन्तवर्तिसमयसमासादितसिद्धत्वस्य सस्मिन्नेव समये यत् केवलज्ञान
केवलज्ञानं तदनन्तरसिद्धकेवलज्ञान, ततो द्वितीयादिसमयेष्वनन्तामप्यनागताद्धां परम्परसिद्धकेवलज्ञानमिति ।। ॥५०॥
'से किं तमित्यादि (२१-१३०)। प्रश्नसूत्रस्य निर्वचनम्-अनन्तरसिद्धकेवलनानं पंचदशविध प्रज्ञप्त, सिद्धानामेवानन्तरभहैवगतोपाधिभेदेन पंचदशभेदभिनत्वात् , पंचदशभेदभिन्नतामेव दर्शयन्नाह-तद्यथा-तीर्थसिद्धा इत्यादि, तत्र येनेह जीवा जन्म
जरामरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगभीरं विचित्रदुःखगणकरिमकर रागद्वेषपवनप्रक्षोभितमनन्तसंसारसागरं तरन्ति तत्तीमिति, तच्च यथाऽवस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थप्ररूपकं अत्यन्तानवद्यान्याविज्ञातचरणकरणक्रियाधारं अचिन्त्यशक्तिसमन्विताविसंवायुडुपकल्पं चतुर्खिशदतिशयसमन्वितपरमगुरुप्रणीतं प्रवचनम्, एतच्च संघः प्रथमगणधरो वा, तथा चोक्तम्- "तित्थं भंते तित्थं?, तित्थकरे तित्थं ?, गोयमा! अरिहा नियमा ताब तित्थंकरे, तित्थं पुण चाउचण्णो समणसंघो पढ़मगणहरो वा" इत्यादि, ततश्च तस्मिन्नुपपने ये सिद्धास्त तीर्थसिद्धाः, अतीर्थसिद्धास्तीर्थान्तरसिद्धा इत्यर्थः, श्रूयते च 'जिणन्तरे साहुवोच्छेओत्ति, तत्रापि जातिस्मरणादिनाऽवामापवर्गमार्गाः सिध्यन्ति एव, मरुदेविप्रभृतयो वाऽतीर्थसिद्धास्तदा तीर्थस्यानुत्पमत्वात् , तीर्थकरसिद्धास्तीथेकरा एव, अतीर्थकरसिद्धा अन्य सामान्यकेवलिनः, स्वयम्बुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्ते स्वयंवुद्धसिद्धाः, प्रत्येकयुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्ते प्रत्येकबुद्धसिद्धा इति । अथ स्वयंबुद्धप्रत्येकबुद्धयोः कः प्रतिविशेष इति, उच्यते, बोध्युपधिश्रुतलिंगकृतो विशेषः, तथाहि-स्वयंवुद्धा बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव बुध्यन्ते, प्रत्येकबुद्धास्तुन तद्विरहेण, श्रूयते च वायवृषभादिप्रत्ययसापेक्षा करकंड्वादीनां प्रत्येकबुद्धानां बोधि
दीप अनुक्रम [८६-८७]]
SANSKC
॥५०॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः अत्र 'सिद्ध'स्य पंचदश भेदानां वर्णयते
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आगम (४४)
[भाग-7] “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
............ मूलं R१-२२] / गाथा ||५८...|| ......
प्रत
सूत्रांक
केवलज्ञानं
[२१-२२]
वृत्तौ ।
गाथा
||५८..||
नन्दी- रिति, उपधिस्तु स्वयंयुद्धानां द्वादशविधः पात्रादिः, प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवर्जः, स्वयंबुद्धानां पूर्वाधीतश्रुते अनियमः,
C. सिद्धहारिभद्रीय प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव, लिंगप्रतिपत्तिः स्वयम्बुद्धानां आचार्यसमिधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छ
पला तीरयलं विस्तरेण । 'बुद्धबोधितसिद्धाः' बुद्धा:-आचार्यास्तैबोंधिताःसन्तो ये सिद्धास्ते इह गृह्यन्ते, एते च सर्वेऽपि केचित् स्त्रीलिंग-16I ॥५१॥ सिद्धाः केचित् पुल्लिंगासिद्धाः केचिनपुंसकलिंगसिद्धा इति, आह- तीर्थकरा अपि स्त्रीलिंगसिद्धा भवन्ति !, भवन्तीत्याह, यत उक्तं
सिद्धमाभृते- 'सव्बत्थोबा तित्थगरीसिद्धा, तित्थगरितित्थे णोतित्थसिद्धा संखेज्जगुणा, तित्थगरतित्थे णोतित्थगरिसिद्धाओ संखेज्जगुणाओ, तित्थगरितित्थे णोतित्थगरसिद्धा संखेज्जगुणा' इति, न तु नपुंसकलिंगः, प्रत्येकबुद्धास्तु पुंल्लिंगा एव, स्वलिंगसिद्धा द्रव्यलिंगं प्रति रजोहरणमोच्छकधारिणः, अन्यलिंगसिद्धाः परिबाजकादिलिंग सिद्धाः, गृहिलिंगसिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः, एकसिद्धा इति एकस्मिन् समये एक एव सिद्धा, 'अणेगसिद्धा' इति एकस्मिन् यावत् अष्टशत सिद्धं, यत उक्तम्-बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोद्धब्बा। चुलसीती छन्बउई दुरहिय अटुचरसयं च ॥१॥ अत्राह चोदकः-ननु सर्व एवैते भेदास्तीर्थसिद्धाती
सिद्धभेदद्वयान्तभोपिना, तथाहि-तीर्थसिद्धा एवं तीर्थकरसिद्धाः, अतीथकरसिद्धा अपि तीथे[कर]सिद्धा या स्युः अतीथेसिद्धा वेत्येवं | शेषेष्वपि भावनीयमिति, अतः किमेमिरिति, अत्रोच्यते, अन्तर्भावे सत्यपि पूर्वभेदद्वयादेवोत्तरोत्तरभदाप्रतिपत्तेः, अज्ञातज्ञापनार्थ च | भेदाभिधानमिति । 'सेत'मित्यादि, निगमनम् ॥
॥५१॥ ____ 'से किं तं परम्पर' इत्यादि ॥२२-१३३ ॥ न प्रथमसमयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः- परम्परसिद्धविशेषणप्रथमसमयवर्तिनः, सिद्धत्वद्वितीयसमयपर्तिनः इत्यर्थः, न्यादिषु तु द्विसमयसिद्धादयः प्रोच्यन्ते, यद्वा सामान्येनाप्रथमसमयसिद्धा अभि
RE-RESS
दीप अनुक्रम [८७-८९] |
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.... मूलं R२] / गाथा |५८...||
प्रत सूत्रांक [२२] गाथा ||५८..||
नन्दी- 181 धानविशेषतो द्विसमयादिसिद्धाभिधानामति, शेष प्रकटार्थ, यावत् तं समासतो इत्यादि, तदिति सामान्येन केवलज्ञानमभिगृ-15 केवलोपहारिभद्रीय बिते, द्रव्यतः केवलज्ञानी सर्वद्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि साक्षाज्जानाति पश्यति, क्षेत्रतः केवलज्ञानी सर्व क्षेत्रं लोकालो- यागवादः वृत्ती
कभेदभिनं साक्षाज्जानाति पश्यति, (ग्र०१०००) इह च धर्मास्तिकायादिसर्वद्रव्यग्रहणे सत्ययाकाशास्तिकायस्य क्षेत्रत्वेन रू॥५२॥
|ढत्वाद् भेदेनोपन्यासः, कालतः केवलज्ञानी सर्व कालमतीतानागतवर्तमानभेदभिनं साक्षाज्जानाति पश्यति, भावतः केवलज्ञानी सवान् जीवाजीवगतान् भावान् गतिकपायाचगुरुलघुलक्षणादीन् साक्षाज्जानाति पश्यति ।
इह च केवलज्ञानदर्शनोपयोगचिन्तायां क्रमोपयोगादौ मरीणामनेकविधा विप्रतिपत्तिः अतः संक्षेपतो विनेयजनानुग्रहाय तत्पदशनं क्रियत इति, तत्र-केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा। अन्ने एगंतरिय इच्छंति सुओषदेसेण॥१॥ अन्ने ण चेव वीसुंदसणमिच्छति जिणवरिंदस्स । जं चिय केवलनाणं तंचिय से दंसणं किंति ॥२॥ गाथाद्वयम् , अस्य
व्याख्या-केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भगति, किं?, युगपद्-एकस्मिदेव काले जानाति पश्यति च, कः, केवली, न त्वन्यः, नियमात्- | दनियमेन ।। अन्ये जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः एकान्तरितं जानाति पश्यति चेत्येवमिच्छान्त, श्रुतोपदेशेन यथाश्रुतागमा| नुसारेणेत्यर्थः, अन्ये तु वृद्धाचार्याः न नैव विष्वक् पृथक् तदर्शनामिच्छन्ति जिनवरेन्द्रस्य, केवलिन इत्यर्थः, किं तर्हि', यदेव केवलज्ञानं तदेव 'से' तस्य केवलिनो दर्शनं ब्रुबते, क्षीणावरणस्य देशज्ञानाभाववत् केवलदर्शनाभावादिति भावना, अयं गाथाद्वयार्थः । साम्प्रतं युगपदुपयोगवादिमतप्रदर्शनायाह-जे केवलाई सादी अपजवासियाई दोवि भणियाई । ता पिति केइ जुगवं जाणइ पासई य सम्वन्नू ॥३॥ यस्मात् केवलज्ञानदर्शने साद्यपर्यवसिते द्वे अपि भाणते ततः ब्रुवते केचन सि
दीप अनुक्रम [८९]
॥५२॥
ANSAR
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: अत्र केवल ज्ञान-दर्शनयो: उपयोगस्य वादः दर्शयते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
..... मूलं R२] / गाथा ||५८...||
प्रत सूत्रांक [२२] गाथा ||५८..||
नन्दी
द्धसेनाचार्यादयः, किंी, युगपद्-एकस्मिन् काले जानाति पश्यति च, कः?, सर्वज्ञ इति गाथार्थः ॥इहराऽदीणिधणतं मिच्छा-1 केवलोपहारिभद्रीय
| वरणक्खयोति व जिणस्स । इयरेतरावरणता अहवा निक्कारणावरणं ॥ ४ ॥ इतरथा अन्यथा आदिनिधनत्वं सा-IP योगवाद: वृत्तौ IA
दिपर्यवसानत्वं केवलज्ञानदर्शनयोरुत्पत्त्यनन्तरमेव केवलज्ञानोपयोगकाल केवलदर्शनामावाद, एवं केवलदर्शनोपयोगकालेऽपि | केवलज्ञानाभावाद, तथा मिथ्याऽधरणक्षय इति वा जिनस्य, न ह्यपनीतावरणौ द्वौ प्रदीपी क्रमेण प्रकाश्य प्रकाशयत इत्य| भिप्रायः, तथा इतरेतरावरणता स्वावरणे क्षीणेऽप्यन्यतमभावे अन्यतमाभावादिति भावना, अथवा निक्कारणावरणमित्य-1, कारणमेव अन्यतरोपयोगकालेऽन्यतरस्यावरणं, तथा च सति सर्वदैव भावाभावप्रसङ्गः, तथा चोक्तम्-"नित्यं सत्त्वमसत्वं वाऽहेदोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातो हि भावानां, कादाचित्कत्वसम्भवः ॥ १॥” इति गाथार्थः ॥ तहय असब्वन्नुत्तं असव्वदरिसणप्पसंगो य । एगंतरोवओगे जिणस्स दोसा बद्दविहीया ।। ५ ।। तथा च सति असवेंशत्वासर्वदार्शित्वप्रसंगव, पाक्षिकं वा असर्वज्ञत्वं, यदा सर्वज्ञो न तदा सर्वदर्शी, दर्शनोपयोगाभावाद्, एवं यदा सर्वदर्शी न तदा सर्वज्ञः, ज्ञानोपयोगाभावात् , एवमेकान्तरोपयोगेऽभ्युपगम्यमाने सति जिनस्य-केवलिनो दोषा बहुविधा इति गाथार्थः । एवं परेणोक्ते सत्यागमवाधाहभण्णति भिन्नमुहुत्तोवयोगकालेवि तो तिणाणिस्स । मिच्छा छावट्ठी सागराई तस्स य खओवसमो॥ ६॥ यदुक्तमितरथादिनिधनत्वमिति तदसदिति दर्शयति, उपयोगानुपयोगकालापेक्षयव साद्यपर्यवसितत्वात् केवलज्ञानदर्शनयोरित्यभिप्रायो, न चानाषेमिदं, कर्थी, भण्यते-अन्यथा हि भिन्नमुहर्लोपयोगकालेऽपि मत्यादीनां ततस्त्रिज्ञानिनः मिथ्या षट्षष्टिः सागरो|पमाणि क्षयोपशमः, प्रतिपादितश्च मत्रे, न च युगपदेव मत्यायुपयोगः, एवं क्षायिकोपयोगोऽपि भविष्यति जीवस्थामाव्यादिति गा
KRIES-ॐॐॐ
दीप अनुक्रम [८९]
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॥५३
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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[भाग-7] “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
..... मूलं R२] / गाथा ||५८...||
प्रत
RELE
सूत्रांक
वृत्ती
++
॥५४॥
+
[२२] गाथा ||५८..||
C+५
थाऽभिप्रायः। न च क्षयकार्येण अवश्यमनवरतमेव भवितव्यमिति दर्शयन्नाह-अह णवि एवं ता सुण जहेव वीणतराइओ18 दी अरहा। संतेवि अंतरायक्वयम्मि पंचप्पगारम्मि ॥ ७॥ सततं न देति लहति व भुजति उवर्भुजई व स
व्वन्नू । कज्जम्मि देति लभति व मुंजंति तहेब इहइंपि ॥८॥ किंच-दितस्स लभंतस्स य मुंजंतस्स व जिणस्स ६ एस गुणो। खीणंतराइयत्ते जं से विग्धं न संभवह ॥ ९॥ उवउत्तरसेमेव य णाणम्मि व दंसणम्मि व जिण
स्स । खीणावरणगुणोऽयं जं कसिणं मुणइ पासइ वा ॥ १०॥ चो०-पासंतोऽपि न जाणहजाणं वण पासती जइ जिर्णिदो। एवं न कदाइवि सो सम्वन्नू सव्वदरिसी य ॥ ११ ॥ पश्यन्नपि न जानाति जानन्वा न पश्यति यदि |जिनेद्रः एवं न कदाचिदप्यसौ सर्वज्ञः सर्वदर्शी वा, युगपदन्यतरोपयोगकालेऽन्यतरोपयोगाभावादिति गाथार्थः ॥ सिद्धान्तवा-18 | थाह-जुगवमजाणतो विहुचउहिवि णाणेहिं जहेब चउणाणी। भण्णइ तहेव अरहा सब्वन्नू सव्वदरिसीय ॥१२॥ 81 इयं तु निगदसिदैव, नवरं क्षायिकभावमाश्रित्येति गाथार्थः ॥ पुनरप्याह-तुल्ले उभयावरणक्खयम्मि पुब्बतरमुभवी
कस्सी । दुबिहुवयोगाभावे जिणस्स जुगवति चोदेति ॥ १३ ॥ तुल्ये उभयावरणक्षये केवलज्ञानदर्शनावरणक्षये पूर्व|तरं प्रथमतरमुद्भवः-उत्पादः कस्य?, यदि ज्ञानस्य स किंनिवन्धन इति वाच्यं, तदाबरणक्षयनिबन्धन इति चेत् दर्शनेऽपि
ला॥५४॥ तुल्य इति तस्याप्युद्भवप्रसंगः, एवं दर्शनेअपि वाच्यं, अतः स्वावरणक्षयेऽपि दर्शनाभाववत् शानस्याप्यभावप्रसंगः विपर्ययो वा, एवं-द्विविधोपयोगाभावे जिनस्य युगपदिति चोदयति, अयं गाथार्थः ।। अत्र सिद्धान्तवाधाह-भण्णति ण एस नियमो जुगवुप्पन्नेण जगवमेवेह । होयध्वं उवओगेण एव सुण ताव दिहतं ॥ १४ ॥ जह जुगवुप्पत्तीयवि सुत्ते सम्मत्त
दीप अनुक्रम [८९]
C+CAKCACA
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं R२] / गाथा ||५९|| .....
प्रत
नन्दीहारिभद्रीय
सूत्रांक
वृत्ती
॥ ५५॥
[२२] गाथा ||१९||
मतिसुतादीणं । णधि जुगवीषयोगो सब्वेमु तहेव केवलिणी ॥ १५ ॥ भणियंपि य पनत्तीपन्नवणादीसु जह जि-के
केवलज्ञानं णो समयं जं जाणती न पासा तमणुरयणप्पभादीणं ॥ १६ ॥ इदं गाथात्रयमपि प्रकटार्थम् । अधुना ये केवलज्ञा-14 नदशेनाभेदपादिनस्तनमतमुपन्यस्याह-जह किर वीणावरण देमन्नाणाण संभवो न जिणे । उभयावरणादीते त-14 ह केवलदसणस्साचि ।। १७॥ निगदसिद्धा । सिद्धान्तवाद्याह-देमन्त्राणोवरमे जह केवलणाणसंभवो भणिओ। देस-1 ईसणविगमे तह केवलदंसणं होउ ।। १८॥ अह देसणाणदंसणविगमे तुह केवलं मयं णाणं । ण मतं केवलदंसणमेच्छामेत्तं णणु तवेयं ।।१९।। भण्णइजहोहिणाणी जाणइ व पासइव भासितं सुत्ते। न प णाम ओहिदसणणाणेगत्तं तह इमंपि ॥ २०॥ जह पासह तह पामतु पासति सो जेण-दंसणं तं से। जाणति य जेण अरहातं से णाणंति बत्तव्वं ॥ २१॥ स्वपक्षसमर्थनार्थव सिद्धान्तवाचाह---णाणम्मि दंसणम्मि य एत्तो एगतरयम्मि उपउत्तो।।४ सबस्स केवल लिस्सा जुगणं वो णस्थि उबओगा ॥२२॥ उवओगी एगयरो पणुवीसतिमे सते सिणायस्स । भणिओ वियद्वत्थो च्चिय छडुद्देसे विसेसेउं ।। २३ ॥ गाथाद्वयमपि निगदसिद्ध, नवरं भगवस्या पंचविंशतितमे शतेऽधि-12 कारोपलधिते 'सिणायस्स' ति स्नातकस्य केवलिनः । सिद्धान्तवाद्यनुभूतत्वमागमभक्तिं च परां ख्यापयवाह--कस्स पर णाणुमतमिर्ण जिणस्स जदि होज्ज दोषि उवओगा। पूर्ण ण होति जुगवं जेण णिसिंद्वा सुते बहुसो ॥ २४ ॥8॥५५॥ | निगदसिद्धैवेत्यलं प्रसंगेन, प्रकृतं प्रस्तुमः।
'अह' गाहा ॥(५९-१३४)। इह मनःपर्यायज्ञानानन्तरं सूत्रक्रमोदेशतः शुद्धिलाभतश्च प्राक्केवलज्ञानमुक्तं, तदुपन्यस्तय
दीप अनुक्रम [९०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............. मूलं R३] / गाथा ||६०|| ........
प्रत
सूत्रांक
[२३]
गाथा |||६०||
नन्दी-18 इत्यतस्तदर्थोऽयमथशब्दः, उक्तं च-"अथशब्दः प्रकियाप्रश्नानन्तर्यमंगलोपन्यासप्रतिषचनसमुच्चयेषु सर्वाणि च तानि द्रव्याणि केवलज्ञानं हारिभद्रीय है है सर्वद्रव्याणि जीवाजीवलक्षणानि तेषां परिणामाः-प्रयोगविश्रसोभयाख्या उत्पादादयः सर्वद्रव्यपरिणामास्तेषां भावः सत्तार
|स्वलक्षणमित्यनान्तरं तस्य विशेषेण ज्ञापनं विज्ञप्तिः विज्ञानं वा विज्ञप्तिः, तत्र भेदोपचारात्तस्या विज्ञप्तेः-परिच्छित्तेः कारणं ॥५६॥ ४ सवेद्रव्यपरिणामभावविज्ञप्तिकारणं, अथवा विज्ञप्तिरेव कारणं विज्ञप्तिकारणं, अत एव सर्वक्षेत्रकालविषयं तत् , क्षेत्रादीनामपि
है| द्रव्यत्वात् , तच्च ज्ञेयानन्तत्वादनन्त, शश्वद्भावाच्छाश्वतं, सदोपयोगादिति भावार्थः, प्रतिपतनशील प्रतिपाति न प्रतिपाति अप्र
तिपाति, सदाऽवस्थितमित्यर्थः, आह-यच्छाश्वतं तदप्रतिपात्येवातः किं विशेषणेनेति?, उच्यते, मा भूद् यावद्भवति तावच्छाश्वतमनवरतमेव भवतीति प्रतिपत्तिः, न पुनरवध्यादिवदन्यथेत्यतो विशेषणमित्यनवरतं भवति सर्वकालं चेति, अर्थवैकपदव्यभिचारेऽमि । | विशेषणविशेष्यभावो भवतीति ज्ञापनार्थ, तथाहि-शाश्वतमप्रतिपात्येव, अप्रतिपाति तु शाश्वतमशाश्वतं वा, अप्रतिपात्यवधेर. का प्यशाश्वतत्वादिति, एकविधम्-एकप्रकारं आवरणाभावात क्षयस्यैकरूपत्वात , केवलं-मत्यादिनिरपेक्षं, केवलं च तज्ज्ञानं चेति | 21
गाथार्थः ।। इह तीर्थकृत समुपजातकेवलः सत्त्वानुग्रहार्थ देशनां करोति, तीर्थकरनामकर्मोदयात् , ततश्च ध्वनेद्र्व्यश्रुतरूपत्वात्त|स्य च भावथुतपूर्वकत्वात् श्रुतज्ञानसम्भवादनिष्टापचिरिति मा भन्मतिमोहोऽव्युत्पबबुद्धीनामित्यतस्तद्विनिवृत्त्यर्थमाह-
॥५६ ।। ___ केवल.' गाहा ॥ (*६०-२३सू० १३९) ।। इह तीर्थकरः केवलज्ञानेनार्थान-धर्मास्तिकायादीन मूर्तामूर्तान् अभिलालाप्यानभिलाप्यान् ज्ञात्वा विनिश्चित्य केवलज्ञानेनैव ज्ञात्वा, नतु श्रुतज्ञानेन, तस्य वायोपशमिकत्वात् , केवलिनव तदभावात् , स
शुद्धी देशशुध्ध्यभावादित्यर्थः तत्र' तेषामर्थानां मध्ये प्रज्ञापनं प्रज्ञापना तस्यायोग्याः प्रज्ञापनायोग्याः तान् भाषते-तानेव वक्ति,
दीप अनुक्रम [९१-९२]
SHRST
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............. मूलं R४] / गाथा ||६०||
प्रत
हारिभद्रीय
सूत्रांक
वृत्तौ ।
[२४]
गाथा |||६०||
नन्दा नितरानिति, प्रज्ञापनीयानिति न सर्वानेव भापतेऽनन्तत्वाद् आयुषः परिमितत्वात् , किं तर्हि?, योग्यानेव, गृहीतृशक्त्यपेक्षया, यो
हिमतिश्रुत. शारमायावतां योग्य इति, तत्र केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शब्दराशिः प्रोच्यमानस्तस्य भगवतो चाग्योग एव भवति , न श्रुतं, योर्भेदः
| नामकर्मादयनिवन्धनस्वात् , श्रुतस्य च क्षायोपशमिकत्वात् , स च श्रुतं भवति 'शेष' शेषमित्यप्रधान, एतदुक्तं भवति--श्रातृ-IX |णां श्रुतग्रन्थानुसारि भावभुतनिवन्धनत्वाच्छेपम्-अप्रधानं द्रव्यश्रुतमित्यर्थः, अन्ये त्वेवं पठन्ति-'वइजोग सुपं हवइतेसिस वाग्यो-1
गः श्रुतं भवति तेषां श्रोतृणां, भावभुतकारणत्वादित्यभिप्रायः, अथवा वाग्योगः श्रुतं द्रव्यश्रुतमेवेति गाथार्थः। 'सेतं' इत्यादि | निगमनम् । तदेतत् केवलज्ञान, तदेतत्प्रत्यक्षम् । एवं प्रत्यक्षे प्रतिपादिते सति परोक्षस्वरूपमनवगच्छमाह चोदक:-- | 'से किं त' मित्यादि (२४-१४०)। अथ किं तत् परोक्ष, परोक्षं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आभिनियोधिकज्ञानपरोक्षं |च श्रुतज्ञानपरोक्ष च, चौ पूर्ववत , अनयोवेत्थं क्रमोपन्यासे प्रयोजनमुक्तमेव || साम्प्रतं स्वाम्यभेदप्रतिपादनायाह--'जस्थ | आभिणिपोहियणाण'मित्यादि, यत्र पुरुषे इन्द्रियनोइन्द्रियक्षयोपशमे वा आभिनिचोधिकहानं तत्रैव पुरुषादी श्रुतज्ञान, 181 तथा यत्र श्रुतज्ञानं तत्रामिनियोधिकज्ञानम् । आह-यत्राभिनिबोधिकं ज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानमित्युक्ते यत्र श्रुतज्ञानं तत्राभिनिवाधिकज्ञानमिति गम्यत एवेत्यतः किमनेनोक्तेनेति', अत्रोच्यते, नियमतो न गम्यत इत्यतो नियमार्थ, तथा चाह-दोवि एयाई' इत्यादि, | वे अप्यते-आभिनिवोधिकश्रुते अन्योन्यानुगते-परस्पर प्रतिबद्धे, स्यादेत एवं सत्यभेद एवास्त्वनयोरित्याशयाह-'तहवि पुणों' । ५७ ॥
इत्यादि, तथापि पुनराचार्याः नानात्व-भेदं प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्ति, कथं , लक्षणमेदाद, दृष्टवान्योऽन्यानुगतयोरप्येकाकाश-12 वास्थयोधमाधमास्तिकाययोलेक्षणभेदाढ़ेद इति, तत्र यो हि गतिपरिणामपरिणतयोर्जीवपुगयोगत्युपष्टम्महेतु लमिव अषस्य स
354555
*RICKSTARSXXEKSHES
दीप अनुक्रम [९३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः अथ परोक्षज्ञान-भेदे 'मतिज्ञान' वर्णयते
~70~
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[२४]
गाथा
॥६०॥
दीप अनुक्रम [93]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्तौ
॥ ५८ ॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [२४] / गाथा ||६०||
भेदः
खल्वसंख्येयप्रदेशात्मको मूर्ती धर्मास्तिकाय इति, तथा यः स्थितिपरिणामपरिणतयोजीवपुद्गलयोरेव स्थित्युपष्टम्भहेतुर्विवक्षया ४ मतिश्रुतयो क्षितिरिव झपस्य स खल्वसंख्येयप्रदेशात्मको मूर्त्त एवाधर्मास्तिकाय इति एवमामिनिबोधिक श्रुतयोरपि लक्षणभेदाद्भेदः, तथा चाह-'अभिणिवुज्झइ' इत्यादि, अभिनिबुध्यत इत्याभिनिवोधिकं आत्मनः परिणामविशेषः, एवं शृणोतीति श्रुतं आत्मन एव परिणामविशेष इति एतदुक्तं भवति- यदिन्द्रियमनोनिमित्तमात्मनो विज्ञानं श्रुतग्रन्थानुसारेणोपजायते तत् श्रुतं, शेषमिन्द्रियमनोनि मित्तमाभिनियोधिकमिति । इत्थं लक्षणभेदाद्भेदमभिधायाधुना प्रकारान्तरेण भेदमभिधित्सुराह 'मतिपुरुषं सृतं, पण मती सुयपुव्विया' | पूरणयो' रित्येतस्य पूर्यते प्राप्यते प्रात्यते वाऽनेन कार्यमिति पूर्व-कारणं, मतिः पूर्वमस्येति मतिपूर्व, श्रुतश्रुतज्ञानं, महान् मतिश्रुतयोर्युगपदेव सम्पत्त्यावाप्तौ भाव उक्तः, अज्ञानयोरपि विगमः, तत् कथं मतिपूर्व श्रुतमिति ?, किंच-मतिपूर्वकत्वेऽभ्युपगम्यमाने सति मतिज्ञानभावेऽपि तत्काले श्रुतमज्ञानं प्राप्नोति, अनार्ष चेदमिति, अत्रोच्यते, न लब्धि प्रति मतिश्रुते समकाले भवतः, न तूपयोगोऽनयोः समकाले इति मतिपूर्व श्रुतं इह पुनः को भावार्थ: : श्रुतोपयोगो मतिप्रभवः, यतो नासंचिन्त्य मत्या श्रुतग्रन्थानुसारि विज्ञानमुत्पद्यते । आह एवं मतिरपि श्रुतपूर्वा भवत्येव, तथाहि शब्दं श्रुत्वा या मतिरुत्पद्यते सा श्रुतपूर्वेति प्रतीतं, अतो न विशेषो यथा मतिपूर्व श्रुतं तथा मतिरपि श्रुतपूर्वेति, अत्रोच्यते, ननु सा द्रव्यश्रुतोद्भवा वर्त्तते, इह तु न मतिः श्रुतपूर्वेति, का भावना, भावश्रुतात् सकाशात् मतिर्नास्तीति यद्वा कार्यतया निषिध्यते, न पुनः क्रमेण, क्रमेण तु श्रुतोपयोगात् च्युतस्य मत्यवस्थानमिष्यत एवेत्यलं प्रसङ्गेन, न चैतत् स्वमनीषिकयोच्यते, यतोऽभ्यधायि भाष्यकृता - "णाणाणऽण्णाणाणि य समकालाई यतो
॥ ५८ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम
(४४)
प्रत सूत्रांक
[२५]
गाथा
||&o..||
दीप
अनुक्रम [९४]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्तौ
॥ ५९ ॥
कलकल
[भाग-7] "नन्दी"- चूलिकासूत्र- १ (मूलं+ वृत्तिः )
मूलं [२५] / गाथा ||६०..||
मइसुबाई तो न सुयं मतिपुध्वं मतिणाणे वा सुयऽण्णार्ण ।। १ ।। इह लद्धिमइसुयाई समकालाई न त्वयोगो सिं । मतिपूब्वं सुयमिह पुण सुतोपयोगो मतिप्यभवो ॥ २ ॥ सोऊण जा मती ते सुयपुब्वति तेण ण विसेसो । सा दव्वसुयप्यभवा भावसुयाओ मती नत्थि ॥ ३ ॥ कज्जतया ण तु कमसो कमेण को वा मतिं निवारेह ? । जं तत्थावत्थाणं चुतस्स सुत्तोवयोगाओ ||४|| ” इतश्र मतिश्रुतयोर्भेदः, भेदभेदात्, तथाहि अवग्रहादिभेदादष्टाविंशतिविधं मतिज्ञानं, अङ्गप्रविष्टायनेकभेदभिनं च श्रुतज्ञानं, इन्द्रियोपयोगलाभतो उक्तो ( ० लब्धिविभागतो) वा उक्तञ्च - "सोइंदिओवलद्धी होइ सुतं सेसयं तु मतिणाणं । मोत्तूर्णं व्यसुर्य अक्खरलंभो य सेसेसु ॥ १॥" इतथ मेदः, अनक्षरमपि मतिज्ञानं, अक्षरानुगतं च श्रुतज्ञानमिति, अथवाऽऽत्मप्रत्यायकं मतिज्ञानं स्वपरप्रत्यायकं श्रुतज्ञानम्, आवरणभेदाच भेद इत्यलं अतिप्रसङ्गेन, इह च यथा मतिश्रुतयोः कार्यकारणभेदान्मिथो भेदस्तथा सम्यग्मिथ्यादर्शनपरिग्रहविशेषात् स्वरूपतोऽपि भेद इति दर्शयन्नाह-
'अविसेसिता' इत्यादि । ( २५-१४२ ) ।। अविशेषिता मतिः सामान्येनैव मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च सामान्येनोभयत्रापि मतिशब्दप्रवृत्तेः विशेषिता मतिः स्वामिविशेषेण सम्यग्दृष्टेर्मतिर्मतिज्ञानं, निश्श्रयनयदर्शनेन स्वकार्यप्रसाधकत्वात्, मिथ्यादृष्टेर्मतिः मत्यज्ञानं, तत्वतः स्वफलरहितत्वादित्यर्थः एवं श्रुतसूत्रमपि व्याख्येयम् । आह-क्षयोपशमादिकारणाभेदे घटादिपरिच्छेदकार्याभेदे च कथं मिथ्यादृष्टेरज्ञाने इति, तथा च मिथ्यादृष्टेरपि क्षयोपशमादेव मतिश्रुतप्रवृत्तिः, तथोर्ध्वादिलक्षणाकारमेव घटादिसंवेदनमिति, अत्रोच्यते, मिध्यादृष्टेरज्ञाने मतिश्रुते, सदसतोरविशेषादुन्मत्तकवद्, उक्तं च भाष्यकारेण - सदसदविसेसणाओ भवउजहिच्छिओवलंभाओ । णाणफलाभावातो मिच्छाद्दाट्ठस्स अन्नाणं ॥ १ ॥ विनेयजनानुग्रहार्थमियं लेशतो व्याख्यायत
मति. श्रुतयोज्ञाना ज्ञानता
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............. मूलं R६] / गाथा ||६१||
नन्दी
हारिभद्रीया
प्रत सूत्रांक | [२६]
गाथा | ||१||
वृत्ती ॥६॥
इति, मिथ्याष्टिः कथंचित् सन्तमपि पुरुषे देवादिधर्म न प्रतिपद्यते, पुरुष एवेत्यभ्युपगमात् , तथा असम्तमपि बटादिधर्म अश्नुतनिप्रतिपद्यते, अस्त्येवत्यभ्युपगमात् , अतः सदसतोरविशेष इति, अतश्च मिथ्यादृष्टेमतिश्रुते अज्ञाने, भबहेतुत्वाच्च मिथ्यादर्शनवत, इतथाज्ञानं यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् , इतवाज्ञानं फलाभावादन्धप्रदीपवत्, ज्ञानस्य हि फळं विरतिः, सा च मिथ्यादृष्टेन विद्यते इत्यलं प्रसंगेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, इह मतिपूर्व श्रुतमितिकृत्वा मतिज्ञानमेवाधिकृत्य प्रश्नसत्रमाह
___ 'से किंत मित्यादि (२६-१४४)। अत्र निर्वचनं-द्विविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-श्रुतनिश्रितं चाश्रुतनिश्रितं च, चौ पूर्ववत्, श्रुतमिह | & सामायिकादि लोकबिन्दुसारान्तं द्रव्यश्रुतं गृह्यते, तदनुसारेण श्रुतपरिकर्मितमतेस्तदपेक्षमेव च उत्पादकाले यत्तु तनिरपेक्षमेवोत्पद्यते
तत् श्रुतनिश्रितं अवग्रहादि, यत्तु तषिरपेक्षं तथाविधक्षयोपशमप्रभवमेव वर्चते तदश्रुतनिश्रित-औत्पत्तिक्यादि ॥ आह-इदमप्यवग्रहा-12 ४ दिरूपमेव, सत्यं, किन्तु श्रुतानुसारमन्तरेणोत्पत्ते/देनोक्तं । तत्राल्पतरवक्तव्यत्वादश्रुतनिश्रितमतिज्ञानप्रतिपादनायाह-'से किं त-' मित्यादि, अत्र
उप्पत्तियागाहा(*६१-१४४)।उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, आह-क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः, सत्यं, किन्तु स खल्वन्तरंगत्वात् सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छात्रस्वकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति, विनयो-गुरुशुश्रूषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी, अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्पं नित्यव्यापारः कर्म कादाचित्कं शिल्पं कर्मजति कर्मणो वा जाता कर्मजा, परि समन्तात् नमनं परिणामः सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्म इत्यर्थः स कारणमस्यास्तत्प्रधाना
दीप | अनुक्रम [९५-९६]]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: | ... अत्र औत्पातिकी आदि बुद्धेः वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं R६...] | गाथा ||६२-६६||
.......
प्रत
सूत्रांक
[२६] |
गाथा ॥६२६६||
नन्दी- पारिणामिकी । बुध्यते अनयेति बुद्धिर्मतिरित्यर्थः, सा चतुर्विधोक्ता तीर्थकरगणधरैः, किमिति?, यस्मात् पंचमी नोपलभ्यते केवलिना:- बुद्धिचतुष्क हारिभद्रीय पि,असावादिति गाथार्थः। औत्पत्तिक्या लक्षण प्रतिपादयबाह-पुब्वगाहा।।(*६२-१४४)।पूर्वमिति बुद्ध्युत्पादात प्राक् स्वयमदृष्टः ।
अन्यतश्चाश्रुतः अवेदितो मनसाऽप्यनालोचितः तस्मिन्नेव क्षणे विशुद्धो यथावस्थितः गृहीतोऽवधारितः अर्थोऽभिप्रेतपदार्थों यया सा तथा, इहैकान्तिकमिहपरलोकाविरुद्धं फलान्तराबाधितं चाव्याहतमुच्यते, फलं-प्रयोजनं, अव्याहतं च तत्फलं च २ योगोऽ|स्यास्तीति योगिनी अव्याहतफलेन योगिनी २, अन्ये पठन्ति-अव्याहतफलयोगा अव्याहतफलेन योगोऽस्याः सा अव्याहतफल-15
योगा बुद्धिः औत्पत्तिकी नामेति गाथार्थः ।। साम्प्रतं विनेयजनानुग्रहायास्या एव स्वरूपप्रतिपादनार्थमुदाहरणानि प्रतिपादयबाह| भरहसिल पणिय० ॥ *६३ ॥ भरह० ॥ १६४ ॥ महुसित्थ ।। ६५ ।। (१४४) गाहाओ, आसामर्थः कथानकेभ्य ४ाएवावसेयः, तानि चापसरप्राप्तान्यपि गुरुनियोगान्न ब्रूमः, किन्त्वावश्यके पक्ष्यामः, अधुना वैनयिक्या लक्षणं प्रतिपादयत्राह. . भर्णिस्थ गाहा । ०६६-१५९)॥ इहातिगुरु कार्य दुनिर्वहत्वार व भरः तन्निस्तरण समर्थी भरनिस्तरणसमर्था, प्रयो
वोखिवर्गमिति लोकरूढेधर्मार्थकामाः तदर्जनपरोपायप्रतिपादननिवन्धनं सूत्र, तदन्वाख्यानं त्वर्थः पेयालं प्रमाण सारो वा त्रिवर्ग
सूत्रार्थयोहीतं प्रमाणं सारो वा यया सा तथाविधा, अथवा त्रिवर्ग:-त्रैलोक्य, आह-त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वे सत्यश्रुतनिश्रितत्वं है विरुध्यत इति, न हि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं सम्भवति, अत्रोच्यते, इह प्रायोवृत्तिमंगीकृत्याश्रुतनिश्रितभावेऽपि
न कविदोष इति, उभयलोकफलवती एहिकामुष्मिकफलवती विनयसमुत्था विनयोद्भवा भवति बुद्धिरिति गाथार्थः ॥ अस्या एव विनेयजनानुग्रहार्थ उदाहरणैः स्वरूपमुपदर्शयत्राह
SAR
॥६१॥
दीप अनुक्रम | [९७१००]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम | (४४)
[भाग-7] “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
..... मूलं R६...] | गाथा ||६७-७१|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
नन्दी
बुद्धिचतुष्कं
वृत्ती
[२६] गाथा । ||६७७१||
KAASHA
॥ ६२॥
SRXA
णिमित्तिगाहा ॥१६७सीता गाहा।।(१६८-१५०॥गाथाद्वयार्थः कथानकेभ्य एवावसेयः, तानि चोचरत्र वक्ष्यामः । | साम्प्रतं कर्मजाया बुद्धलक्षणं प्रतिपादयबाह
उवयोगगाहा।।(*६९-१५९)। उपयोजनमुपयोगो-विवक्षिते कर्मणि मनसोऽभिनिवेशः सारः तस्यैव कर्मणः परमार्थः, उपयो|गेन दृष्टः सारो ययेति समासः, अभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्थेत्यर्थः, कर्मणि प्रसंगः २, प्रसंगः-अभ्यासः, परिघोलनं-विचारः, कर्मप्रसंगपरिघोलनाम्यां विशाला, अभ्यासविचारविस्तणिति भावार्थः, साधु कृतमिति सुष्टु कृतमिति विद्वमः प्रशंसा-साधुकारः तेन फलवतीति समासः, साधुकारेण वा शेषमपि फलं यस्याः सा तथा, कर्मसमुत्था कर्मोद्भवा भवति बुद्धिरिति गाथाथैः ।। | अस्या अपि विनयवर्गानुकम्पयोदाहरणैः स्वरूपमुपदर्शयचाह
हेरण्णिए गाहा ||(७०-१६४)॥ अस्या अप्यर्थ वक्ष्यामः।। साम्प्रतं पारिणामिक्या लक्षण प्रतिपादयन्नाह
अणुमाण गाहा ।।(*७१-१६५)। 'अनुमानहेतुदृष्टान्तैः' साध्यमर्थ साधयतीति अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका, इह लिगज्ञानमनुमानं, स्वार्थमित्यर्थः, तत्प्रतिपादकं वचो हेतुः, परार्थमित्यर्थः, अथवा ज्ञापकमनुमान, कारको हेतुः, दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, आह-अनुमानग्रहणादेव दृष्टान्तस्य गतत्वादलमुपन्यासेन, न, अनुमानस्य तत्त्वत एकलक्षणत्वाइ, उक्तंच-"अन्यथाअनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण कि"मित्यादि। साध्योपमाभूतत्र दृष्टान्तः, उक्तञ्च-"यः साध्यस्योपमाभूतस्स दृष्टान्त" इति, कालकृनो | देहावस्थाविशेषो वय इत्युच्यते, तद्विपाकेन परिणामः-पुष्टता यस्याः सा तथाविधा, हितम्-अभ्युदयस्तत्कारणं वा निःश्रेयसं
॥६२।।
दीप अनुक्रम [१०११०५]
E
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आगम (४४)
[भाग-7] “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
......... मूलं २७-२८] / गाथा ||७२-७४||
प्रत
सूत्रांक
मतेमेंट
[२७-२८] |
गाथा | ||७२७४||
नन्दी- मोक्षस्तनिवन्धनं या हितनिश्रेयसाभ्यां फलवती बुद्धिः परिणामिकीति गाथार्थः ।। अस्या अपि शिष्यगणहितायोदाहरणः स्वरूपं 81 हारिभद्रीय दर्शयत्राहवृचौटा
| अलए० गाहा ।।०७२-१६५)। खमए० गाहा (*७३-१६५)। चलणा० गाहा ॥ (*७४-१६५)॥ आसामर्थः ॥ ६३ ॥ कथानकेभ्य एवावसेयः, तानि चान्यत्र वक्ष्यामः 'से तं' इत्यादि, तदेतदश्रुतनिश्चितम्
___'से किंत'मित्यादि, (२७-१६८) चतुर्विध प्रज्ञप्त, तद्यथा-अवग्रह ईहा अपायो धारणा, अवग्रहणमवग्रह: सामान्यमात्रा-1 निर्दिश्यार्थग्रहणमित्यर्थः, तथा ईहनमीहा, सदर्थपर्यालोचनचेष्टेत्यर्थः, एतदुक्तं भवति-अवबहादुत्तीर्ण: अपायात् पूर्वः सद्भतार्थ- 1 विशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूतार्थविशेषस्यागाभिमुखच प्रायो मधुरत्वादयः शंखादिशब्दधर्मा अत्र घटन्ते, न खरकर्कशनिष्ठुरता-1 दयः शागादिशब्दधर्मा इति मतिविशेष ईहेति, तथा तदर्थाध्यवसायोऽपायः, निर्णयो निषयोऽवगम इत्यनर्थान्तरं, एतदुक्तं भवतिशांख एवार्य शार्ग एव वेत्याद्यवधारणात्मकः प्रत्ययोऽपाय इति, तथा तदर्थविशेषधरण धारणा, अविच्युतिस्मृतिवासनारूपा ।। ..' से किंत'मित्यादि ।।(२८-१६८)) अथ कोऽयमवग्रहो?, २ द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अर्थावग्रहश्र व्यजनावग्रहश्च,
अर्यात इत्यर्थः, अर्थस्वावग्रहोर्थावग्रहः, सकलविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यार्थग्रहणमेकसामायिकमिीत भावार्थः, व्यज्यतेऽनेनार्थः का प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जन, तच्चोपकरणेन्द्रिय शब्दादिपरिणतद्रव्यसङ्घातो बा, ततश्च व्यजनेन-उपकरणेंद्रियेण व्यञ्जनानां-शब्दा-131॥ ५२ ।। दिपरिणतद्रव्याणामवग्रहो व्यञ्जनावग्रहः, अथार्थावग्रहस्य तु लक्ष्यत्वात् सकलेन्द्रियार्थव्यापकत्वाचेतरस्य ।
दीप अनुक्रम [१०६११२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: ... अथ मते: अवग्रह-आदि भेदानां वर्णनं आरभ्यते
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[२९-३१]
गाथा
||68..||
दीप
अनुक्रम [११३
११५]
नन्दीहारिभद्रीय वृचौ
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं २९-३१] / गाथा ||७४...||
॥ ६४ ॥
'से किं तमित्यादि ( २९-१६२ ) अथ कोऽयं व्यञ्जनावग्रहः इत्यत्र पुनरुत्पत्तिक्रम एवाश्रितो यथासम्भवमिति सुश्लिष्टमेतदिति, प्रकृतमुच्यते - व्यञ्जनावग्रहश्रतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह इत्यादि सूत्रसिद्धं । आह-पञ्चेन्द्रियमनःसद्भावे सति किमित्ययं चतुर्विध इति ?, अत्रोच्यते, नयनमनसोरप्राप्तकारित्वाद्, अप्राप्तकारित्वं च विषयकृतानुग्रहोपघातशून्य४ स्वात् प्राप्तकारित्वे पुनरनलजलशूलाद्यालोकने दहनक्लेदनपाटनादयः स्युः, अत्र च विषयदेशं गत्वा न पश्यति, प्राप्तं चार्थे नालम्बत इत्येतावनियम्यते, मूर्तिमता पुनः प्राप्तेन भवत एवानुग्रहोपघातौ भास्करकिरणादिनेति, अन्यस्त्वाह-व्यवहितार्थानुपलब्धेरनुमानाद प्राप्तकारित्वं लोचनस्येति एतदयुक्तं, नैकान्तिकत्वाद्, रुचोऽभ्रपटलस्फटिकान्तरितोपलब्धेः स्यादेतत्-नायना रश्मयो निर्गत्य तमर्थं गृहन्तीति दर्शने रश्मीनां तैजसत्वात्, तेजोद्रव्यैरप्रतिस्खलनाददोष इति एतदप्ययुक्तं, महाज्वालादौ प्रतिस्खलनोपलब्धेरित्यत्र बहु वक्तव्यं तन्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयाद्गमनिकामात्रमेतदिति ।
'से किं तमित्यादि ॥ ३०-१७३॥ अथ कोऽयमर्थावग्रहः ?, अर्थावग्रहः षड्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा— श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्र ह इत्यादि सूत्रसिद्धं यावत् ।
'तस्स णं इमे' इत्यादि ॥ * ३१ - १७४ ॥ तस्यावग्रहस्यानूनि णं पूर्ववत्, अवग्रहसामान्यापेक्षयैकार्थिकानि नानाघोपाणि नानाव्यञ्जनानि पञ्च नामधेयानि भवन्ति, घोषा उदात्तादयः कादीनि व्यञ्जनानि, नामैव नामधेयं, अवग्रहविशेषापेक्षया तु कथंचित् भिन्नार्थानि त्रिविधश्वावग्रहः - सामान्यावग्रहो विशेषावग्रहः विशेषसामान्यार्थावग्रह श्रेति, तत्र भिन्नार्थता निदर्श्यते
अवग्रहैकार्यता
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॥ ६४ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४ ] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
... मूलं ३१-३२] / गाथा ||७४...||
प्रत
सूत्रांक
वृत्तौ
॥६५॥
[३१-३२]
गाथा ||७४..||
नन्दी- जहा-ओगिण्हणते' त्यादि, अवगृह्यतेऽनेनेति अवग्रहणं, करणे ल्युट्, व्यञ्जनावग्रहप्रथमसमयप्रविष्टशब्दादिद्रव्यादानप-है।
इहापायहारिभद्रायरिणाम इत्यर्थस्तद्भावः अवग्रहणता, धार्यतेऽनेनेति धारणं उप-सामीप्येन धारणं उपधारण व्यञ्जनावग्रहाद्धाया आ(व्या)दिसमये- पयाया:
प्यबसानान्तं प्रतिसमयमेव शब्दादिद्रव्यादानधारणपरिणाम इति भावना, तद्भाव उपधारणता, भ्रूयतेऽनेनेति श्रवणं एकसामा|यिकसामान्यार्थावग्रहावबोधपरिणाम इत्युक्तं भवति तद्भावः श्रवणता, अवलम्बत इत्यवलम्बनं 'कृत्यल्युटो बहुल' मिति वचनात् कर्मणि ल्युट्, तद्भावः अबलम्बनता-विशेषसामान्यार्थावग्रह इवि भावार्थः, तथा हि उत्तरोत्तरधर्मजिज्ञासायां सत्यां शब्दादिज्ञान-151 मेवावलम्व्यहादयः प्रवर्तन्ते-किमयं शांखः किं वा शाङ्ग इत्यतस्तदनन्तरमेवेहादिप्रवृत्तेविशेषसामान्यार्थावग्रहोऽवलम्बन मिति, एवमुत्तरोत्तरधर्मजिज्ञासायां सत्यां विशेषसामान्यार्थावग्रहेषु मर्यादया धावतो. मेधोच्यते, यावदधिगच्छति, यथा-शांखः स किं
मन्द्रः किं वा तार इत्यादि, यत्र व्यञ्जनावग्रहो नास्ति तत्रायभेदद्वयाभाव इति । 'से तं उग्गहे' सोऽयमवग्रहः । EL 'से किं' मित्यादि, सूत्रम् ॥ ३२-१७५)। निगदसिद्धं यावत् आभोगनता ईहा, अर्थावग्रहसमयसमनन्तरमेव सद्भूता-16 का विशेषाभिमुखमालोचनमाभोगनमुच्यते तद्भाब आभोगनता, मृग्यतेऽनेन परिणामकरणेनेति मार्गणं, सद्भतार्थविशेषामिमुखमेव नर्ध्वमन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणमिति हृदयं, तद्भावो माणता, एवमन्विष्यतेऽनेनेति गवेषणं तत ऊर्ध्व सद्भतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्माध्यासेनालोचनमिति गर्भः, तद्भावो गवेषणता, ततो मुहुर्मुहुः क्षयोपशमविशेषतः स्वधर्मानुगत| सद्भूतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता, विमर्षण विमर्षः-क्षयोपशमविशेषादेवोर्व स्पष्टतरावबोधतः सद्भतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेकधर्महा परित्यागतोऽन्वयधर्मालोचनं विमर्षः, नित्यानित्यादिद्रव्यभावालोचनमित्यन्ये । 'से तं ईहा'।
दीप अनुक्रम [११५
RECARE
११६]
ACTS
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............ मूलं १३-३४] / गाथा ||७४...|| ....
प्रत
सूत्रांक
[३३-३४] |
गाथा ||७४..||
नन्दी
'से किं तमित्यादि ॥(३३-१७६)।। सूत्रसिद्धं यावदावर्त्तनता, वय॑ते अनेनेति वर्चन-क्षयोपशमकरणमेव ईहाभावनिवृत्य- धारणाहारिभद्रायति भिमुखस्यापायभावप्रतिपश्यभिमुखस्य चार्थविशेषावचोधविशेषस्या-मर्यादया वर्तनमावर्चनं तद्भावः आवर्तनता, ततः प्रतिपत्या(प्रती
पर्याया: वृत्ती पमा-) वर्चनं प्रत्यावर्त्तनं, अर्थविशेष एव विवक्षितापायप्रत्यासनतरबोधविशेषाणां मुहुर्मुहुर्ननमित्यर्थः, तद्भावः प्रत्यावर्तनता, अप
अवग्रहा
| दिकाल: ॥६६॥ अयः अपायः विशेषतः सङ्कलनेन निश्चयो निर्णयोऽवगम इत्यनान्तरं, सबैथेहाभावानिवृत्तस्यावधारणावधारितमर्थमवगच्छतो
दपाय इति भावार्थः, ततस्तमेवावधारितमर्थ क्षयोपशमविशेषात् स्थिरतया पुनः पुनः स्पष्टतरमेव बुध्यमानस्य बुद्धिः, विशिष्टं ज्ञानं Pा विज्ञानं क्षयोपशमविशेषादवधारितार्थविषयमेव तीव्रतरधारणाकरणमित्यर्थः, 'से तं अवायो' सोऽयमपायः ।
'से किंत' मित्यादि ॥(३४-१७६ )। निगदसिद्ध यावद्धारणेत्यादि, अपायानन्तरमवगतार्थमविच्युत्या जघन्योत्कृष्टमन्तर्मुहूर्चमात्रं कालं धारयतो धारणेति भण्यते, ततस्तमेवार्थ उपयोगाच्युतं जघन्येनान्तर्मुहादुत्कृष्टतोऽसङ्खयेयकालात् परतः स्मरतो धरणं धारणोच्यते, स्थापनं स्थापना, ततोऽपायावधारितमर्थ पूर्वापरालोचितं हृदि स्थापयतः स्थापना, मूर्चघटस्थापनावत्, वासनेत्यर्थः, अन्ये तु धारणास्थापनयोर्व्यत्ययेन स्वरूपमाचक्षते, प्रतिष्ठापनं प्रतिष्ठा अपायावधारितमेवार्थ हदि प्रभेदेन 120 प्रतिष्ठापयतः प्रतिष्ठा भण्यते, जले उपलप्रक्षेपप्रतिष्ठावत्, कोष्ठक इति अविनष्टसूत्रार्थबीजधारणात् कोष्टकवत् धारणा कोष्ठक इति ।। इहात्मनो ज्ञानस्वभावत्वाज्ञानावरणीयादिकर्ममलपटलाच्छादितस्वभावत्वात् गुरुवदनसमुत्थशम्दाचनेकविधकारणापाथमानवयोपशमसामदिवबोधः, शेयस्य चानन्तधर्मात्मकत्वात् कालक्षयोपशमविशेषतोऽवग्रहेहापायावबोधविशेषो भावनीयः, कथाच-12
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
..... मूलं P५-३६] / गाथा ||७४...||
प्रत
सूत्रांक
[३५-३६] |
गाथा ||७४..||
नन्दी- देकाधिकरणत्वाद्, अन्यथा परिच्छेदप्रवृत्तिलक्षणसकललोकप्रसिद्धसंव्यवहारोच्छेदप्रसङ्ग इत्यलं प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेतत् ॥ अवहारिभद्रीय प्रहादिकालप्रमाणं प्रतिपादयमाह
प्रतिवोधक'ओग्गहे.' इत्यादि।(*७४१३५-१७७)। अर्थावग्रहः एकसामायिकः, आन्तर्मीहूर्तिकी ईहा, आन्तर्मोहूर्तिकोऽपायः, धारणा
लाष्टान्तः ॥ ६७॥
|संख्येयं वाऽसङ्ख्येयं वा कालं स्मृतिवासनारूपा, सङ्खधेयवर्षायुषां संख्येयमसंख्ययवर्षायुषामसंख्येयम् । एवं अट्ठावीसविधस्सेत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण अष्टाविंशतिविधस्य, कथमष्टाविंशविध ?, चतुर्विधो व्यञ्जनावग्रहः पविधोऽर्थावग्रहः पविधा ईहा पदविधोऽपायः पड्पिधा धारणा, एवमष्टाविंशतिविधस्याभिनिबोधिकज्ञानस्प सम्बन्धी यो व्यञ्जनावग्रहः तस्य प्ररूपणं प्रतिपादन करिष्यामि, कथं !, प्रतिबोधकदृष्टान्तेन मल्लकदृष्टान्तेन च, 'से किं तमित्यादि ॥३६-१७७)। प्रतियोधयतीति प्रतिवोधकः स एच दृष्टान्तस्तेन, तयथा नाम कविदनिर्दिष्टस्वरूपः पुरुषः कंचिदन्यतममनिर्दिष्टस्वरूपमेव पुरुष सुप्तं सन्तं पतियोधएज्जत्ति
प्रतिबोधयेत्, कथं १. अमुकामुकेति, तत्र चोदकेत्यादि इह ज्ञानावरणकर्मोदयतः कथितमपि सूत्रार्थमनवगच्छन् प्रश्नचोदनाच्चो-11 सादकः, अविशिष्टक्षयोपशमभावतो वा अगृहीतशाखगर्भार्थः पूर्वापरविरोधचोदनात चोदका, यथाऽवस्थितं सत्रार्थ प्रज्ञापयतीति प्रज्ञाह पकः, श्रीतार्थापेक्षया विरुद्धं पुनरुक्तसूत्रं वा अर्थतोविरुद्ध अपुनरुक्तं प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः, तत्र चोदकः प्रज्ञापकं एवमुक्तवा
निति, भूतकालनिर्देशोऽनादिमानागम इति ख्यापनार्थः, किमेकसमयप्रविष्टत्यादि सुगम यावत् एवं वदन्तं चोदकं प्रज्ञापक एव-IN
मुक्तवान् नो एकसमयप्रविष्टेत्यादि प्रकटार्थ यावत् न सख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति, नवरमय प्रतिषेधः स्फुटशद्वान्दविज्ञानग्राबवामधिकस्य वेदितव्यः, शब्दविज्ञानजनकत्वेनेत्यर्थः, अन्यथा सम्बन्धमात्रमधिकृत्य प्रथमसमयादारभ्य ग्रहणमा-
ACANAKल
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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(४४)
प्रत
सूत्रांक
[३५-३६]
गाथा
||68..||
दीप
अनुक्र
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१२०]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्तौ
॥ ६८ ॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं ३५-३६] / गाथा ||७४...||
गच्छन्त्येव, 'असंखेज्ज' इत्यादि, प्रतिसमयप्रवेशेनादित आरम्य असंख्येयसमयैः प्रविष्टर संख्येय समयप्रविष्टाः, न पुनर्विंशत्या - होभिः पथिकगृहप्रवेशवदपान्तरालागमनसमयापेक्षयाऽसंख्येयसमयप्रविष्टा इति, पुद्गलाः शब्दद्रव्यविशेषा ग्रहणमागच्छन्ति, अर्थावग्रहज्ञानहेतवो भवन्तीति भावः इह च चरमसमयप्रविष्टा एवं ग्रहणमागच्छन्ति, तदन्ये त्विन्द्रियक्षयोपशमकारिण इत्योधतो ग्रहणमुक्तमिति, असंख्येयमानं चात्र जघन्यमावलिकासंख्येयभागसमयतुल्यं, उत्कृष्टं तु संख्येयावलिकासमयतुल्यं तच्च प्राणापानपृथक्त्वकालसमयमिति, उक्तंच "वंजणवग्गहकालो आवलियाऽसंखभागमेत्तो उ । थोबो उकोसो पुण आणापाणूपुहुर्त्तति ॥ १ ॥ " 'से तं' इत्यादि निगमनम् ॥ सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहप्ररूपणेति वाक्यशेषः ॥
'से किं तमित्यादि, अथ कोऽयं मल्लकदृष्टान्तो?, २ नाम तद्यथा नाम कश्चित् पुरुष आपाकशिरसः, आपाकः प्रतीतः तच्छिरसश्च मलकं-शरावं गृहीत्वा, इदं रूक्षं भवति इत्यतोऽस्य ग्रहणमिति, तत्र मल्लके एकं उदकबिन्दुं प्रक्षिपेत् स नष्टः, तत्रैव तद्भावपरिपतिमापत्र इत्यर्थः, शेष सुगमं यावत् जपणं तं मल्लकं रावेहित्ति आर्द्रतां नेष्यति, शेषं सुगमं यावत् एवमेवेत्यादि, अतिबहुत्वात् प्रतिसमयमनन्तैः पुद्गलैः- शब्दपुद्गलैः यदा तद् व्यंजनं पूरितं भवति तदा हुमिति करोति, तमर्थ गृह्णातीत्युक्तं भवति, अत्र व्यंजनशब्देन त्रयमभिगृह्यते-द्रव्यमिन्द्रियं सम्बन्धो वा यदा द्रव्यं व्यंजनमधिक्रियते तदा पूरितमिति प्रभूतीकृतं, स्वप्रमाणमानीतं, स्वविषयव्यक्ती समर्थीकृतमित्यर्थः, यदा व्यंजनमिन्द्रियं तदा पूरितमित्याभृतं भृतं व्याप्तमित्यर्थः, यदा तु द्वयोरपि सम्बन्धोऽधिक्रियते तदा पूरितमित्यंगांगीभावमानीतमनुषक्तमित्यर्थः एवं यदा पूरितं भवति तदानीं तमर्थं गृह्णाति, किंविशिष्टं ?-भामजात्यादिकल्पनारहितं तथा चाह-णो चैव गं जाणद के बेस सद्दादित्तिः न पुनरेवं जानाति क एष शब्दादिरर्थ इति, एकसामयिकत्वादर्था
महक
दृष्टान्तः
~81~
॥ ६८ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............ मूलं ३५-३६] / गाथा ||७४...|| ....
प्रत
नन्दी
सूत्रांक
हारिभद्रीय
वृत्तो
॥६९ ॥
[३५-३६]]
गाथा ||७४..||
वग्रहस्य, अत्रार्थावग्रहात पूर्वः सर्वो व्यंजनावग्रह इति, ततो ईहं पविसतीत्यादि सुगम यावत् संखेज वा असंखज्ज वा है मल्लककालति । अत्राह-सुप्तमंगीकृत्य युज्यते अयं न्यायः, जाग्रतस्तु शब्दश्रवणसमनन्तरमेव अवग्रहहाव्यतिरेकेणैवापायज्ञानमुत्पद्यते, तथो-12 दृष्टान्तः पलम्भात् । न चैतदनाप, यत आह सूत्रकार:- से जहाणामए' इत्यादि, अथवा यदुक्तं न पुनरेवं जानाति क एष शब्दादि, कि बर्हि ?, नामजात्यादिकल्पनारहितं गृहातीत्येतदयुक्तं, यत एवमागमः 'से' इत्यादि, अथवा सुप्तप्रतियोधकमल्लकदृष्टान्ताभ्यां व्यंजनार्थावग्रहयोः सामान्येन स्वरूपमभिधाय अधुना मल्लकदृष्टान्तेनैव प्रतिपादयन्नाह से जहा' इत्यादि, तद्यथा नाम कश्चित् । पुरुषः अव्यक्तं शब्दं शृणुयात् , अव्यक्तमित्यनिर्देश्यस्वरूपं नामादिकल्पनारहितमित्यनेनार्थावग्रहमाह, तस्य च श्रोत्रेन्द्रियसम्बन्धिनो व्यंजनावग्रहपूर्वकत्वात् व्यंजनावग्रहं च, आइ-न छत्रैवं क्रम उपलभ्यते, कित्वक्षेपेण शब्दापायज्ञानमेव वेद्यते, सूत्रेऽव्यक्तसमिति शब्दविशेषणं कृतमतोऽव्यक्तं सन्दिग्धं पुरुषादिशब्दभेदेन शब्द शृणुयादिनि न्याय्यं, तथा चोत्तरसूत्रमप्येतदेवाह- 'तेणं 13
सद्देत्ति उग्गहिते' तेन-श्रोत्रा शब्द इत्यवगृहीतं 'णो चेव णं जाणति के वेस सहादि' न पुनरेवं जानाति-क एप पुरुषादिसमुत्थानामन्यतमः शब्द इति, आदिशब्दाद्रसादिष्वप्ययमेव न्याय इति ज्ञापयति, 'ततो ईह पविसती' त्याद्यपि संबद्धमिति, नैतदेवम् , उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्तेन कालभेदस्य दुर्लक्षत्वाद् अक्षेपेण शब्दापायज्ञानानुपपत्तेः, यच्च तेन शब्द इत्यवगृहीतमित्युक्तम् अत्र शन्द इति भणति वक्ता-सूत्रकार, इतिकरणनिर्देशात , शब्दमात्र वा शपविशेषविमुखं, न तु शब्दबुध्ध्या, तस्यैवापायप्रसंगाद् , अवग्रहादिश्रुतव्यतिरेकेण च मतिज्ञानानुत्पत्तेः, तथा चाह-'णो चेव ण' मित्यादि, न पुनरेवं जानाति क एषा " ५९।। शब्दादिरथेः, सामान्यमात्रप्रतिभासनाद् , आह च भाष्यकार:-"अन्चत्तमणिहेसं सरूवणामादिकप्पणारहितं । जदि एवं जं तेणं
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
... मूलं ५-३६] / गाथा ||७४...||
प्रत
सूत्रांक
अवत्रा मत्तेविषयः
[३५-३६]]
गाथा ||७४..||
नन्दी: 3 गहियं सद्देत्ति तं कह णु॥१।। सद्देति भणति बत्ता तम्मत्तं वाण सद्दमुत्ती(बुद्धी)ए । जदि होज्ज सद्दबुद्धी तोऽवाओ चेव सो होजा हारमाया ॥२॥ जति सद्दबुद्धिमेचयमवग्गहे तबिसेसणमवाओ । णणु सद्दो णासहो ण य रूवादी बिसेसोऽयं ॥३॥ थोपम्मि य णाबायो ट्र
| तब्भेयाविक्खणं अवाओत्ति । तब्भेयाविक्खाए गणु थोबमिणपि णावाओ ।। ४ ॥” इत्यादि, अन्ये त्वाचार्या इदं सूत्रं विशेषसा॥ ७० ॥ | मान्यार्थावग्रहविषर्य व्याचक्षते, अव्यक्तं-अनि रितविशेषस्वरूपं अशब्दव्यवच्छेदेन शब्दं शृणुयात् , तेन शब्द इति शन्दमात्र
मवगृहीतं, न पुनरेवं जानाति क एष शब्दः,, शांखशाादीनामन्यतमः, आदिशब्दासादिपरिग्रहः, तत्रापीयमेव चातीत, युक्तियुक्ता चेयं व्याख्येति, तत ईहां प्रविशति-सदर्थपर्यालोचनां करोति, इह च दुरवबोधत्वाद्वस्तुन अपटुत्वाच्च मतिज्ञानावरणक्षयोपशमस्यासंजातापाय एवेहोपयोगाच्युतः पुनरप्यन्यमन्तर्मुहर्तमीहते, एवमर्माहोपयोगाविच्छेदत एव प्रभृतानप्यन्त मुहूर्तानीहत ४ इति सम्भवः, ततो जानातीत्यादि, वस्तुतः गतार्थ यावत् स्पर्शनन्द्रियवक्तव्यता, उक्तं च भाष्यकारण-"सेसेसुवि रूबादिसु विसए-18 मुवि होइ रूवलक्खाई । पायं पच्चासनत्तणेणमीहादिवत्णि ॥ १॥ थाणुपुरिसादिकुटुप्पलादिसंभिभकरिल्लमसादी । सप्पो- प्पलणालादियसमाणरूवादिविसयाई ॥२॥ एवं चिय सुमिणादिसु मणसो सदादिएसु विसएस । होतिदियवाचारामावेषि | * अवग्गहादीया ॥३॥" इत्यादि, 'से जहा णामए' इत्यादि, इह प्रतियोधप्रथमसमयेऽव्यक्तम्-अनिर्धारितस्वरूपं स्वप्नं प्रतिस-1 ४/ वेदयेत् , तस्य तदार्थावग्रहः, तूत ऊर्ध्वमीहादय इति, अन्ये तु मनसोऽप्यविग्रहात् पूर्व व्यंजनावग्रहं मनोद्रव्यव्यंजनग्रहणलक्षणं
|व्याचक्षते, तत् पुनरयुक्त, अनार्यत्वात् । व्यंजनावग्रहस्य श्रोत्रादिभेदेन चतुर्विधवात, शेष प्रकटार्थ यावत् सेतं मल्लगदिढतेणं ।। Vाइह च सुखप्रतिपत्त्यर्थ स्वप्नमधिकृत्य नोइन्द्रियार्थावग्रहादयः प्रतिपादिताः, अन्यथाऽन्यत्रापीन्द्रियव्यापाराभावे सति मनसा
॥७॥
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं ३७] / गाथा ||७||
अवग्रहापादयो भेदाः
प्रत सूत्रांक [३७] गाथा | ||७५||
+KACT
पर्यालोचयतो अवगन्तव्या इति ॥ अत्राह-किमुक्तलक्षणमवग्रहादिक्रम विहाय क्वचिदपि मतिज्ञानं नोत्पद्यते येन क्रम इति, अत्रोहारिभद्रीय यो
च्यते, नोत्पद्यते, तथाहि- नानवगृहीतमीयते, न चानीहितमवगम्यते, न चानवगतं धार्यते इत्यलं प्रसंगेन ।। सर्वमेवेदं द्रव्या
४ दिभिर्निरूपयनाह॥ ७१ ॥ 'तं समासतो' इत्यादि।(३७-१८४)।। द्रव्यत आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशन, आदेश:-प्रकार:, स च सामान्यतो विशेष
मतच, तत्र द्रव्यजातिसामान्यादेशेन, द्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि जानाति, विशेषतोऽपि यथा धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य देश
इत्यादि, न पश्यति सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन् , शब्दादीस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपि, श्रुतादेशतो वा जानाति, एवं द्राक्षेत्रादिष्वपि भावनीय, नवरं तान पश्यत्येव, तथा चोक्तं भाष्यकारेण-"आदेसोत्ति पगारो ओहादेसेण सव्वदच्याई । धम्मस्थि"काइयाई जाणइ न उ सब्वभावेण ॥ १॥ खेचं लोगालोग कालं सव्वद्धमहब तिविधोऽवि । पंचोदइयादीए भावे ज नेयमेवतिय 8॥२॥ आदेसोत्ति व सु सुतोवलहेसु तस्स मतिणाणं । पसरह तब्भावणभाविणोचि मुत्ताणुसारेण ।। ३॥" साम्प्रतं संग्रहगाथा दउच्यते, तत्र
उग्गह० गाहा ।। (*७५-१८४) ॥ अवग्रहः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, तथा ईहाऽपायश्च, चशब्दः पृथगवग्रहादिस्वरूपहा स्वातन्त्र्यप्रदर्शनार्थः, अवग्रहादीनामीहादयः पर्याया न भवन्तीत्युक्तं भवति, समुच्चयार्थो वा, यदा समुच्चयार्थस्तदा व्यवहितो हा द्रष्टव्यः, धारणा च, एवकारः क्रमपरिदर्शनार्थः, एवमनेनैव क्रमेण भवन्ति चत्वार्याभिनिबोधिकज्ञानस्य भियन्त इति भेदा-विकल्पाः
दीप अनुक्रम [१२१
७
॥ ७१
१२२]
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
• मूलं P७...] / गाथा ||७६-७७||
प्रत
अवग्रहा
सूत्रांक
&दयो भेदाः
[३७..]
गाथा ||७६७७||
नन्द अंशा इत्यनान्तरं त एव वस्तूनि भेदवस्तनि.कथं ?, यतो नानवगृहीतमीयते, न चानीहितमवगम्यते, न चानवगतं धायेंत इति, पाअथवा काका नीयते, एवं भवति चत्वार्याभिनियोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि , समासेन संक्षेपण, विशिष्टावग्रहादिस्वरूपापेक्षया,
नि तु विस्तरत इति, विस्तरतोऽष्टाविंशतिभेदभिन्नत्वात्तस्यति गाथार्थः ॥ इदानीमनन्तरोपन्यस्तानामवग्रहादीनां स्वरूपं ॥७२॥ प्रतिपिपादयिषयाऽऽह
४ अत्थाणं गाहा || (*७६-१८४ ) ॥ तत्रार्यन्त इत्यर्थाः, अर्यन्ते गम्यन्ते परिच्छिद्यन्त इतियावत् , ते च रूपादयः, ला तेषामथानां प्रथमदर्शनानन्तरं च ग्रहण अवग्रह, ब्रुवत इति योगः, आह-वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकतया विशिष्टत्वात् किमिति
प्रथम दर्शनं ततो ज्ञानमिति, उच्यते, तस्य प्रबलावरणत्वात, दर्शनस्य चाल्पावरणत्वादिति, 'तथे त्यानन्तर्ये, विचारणं पयो
लोचनं, अर्थानामिति वर्वते, ईहनमीहा तां, ववत इति सम्बन्धः, विविधोऽवसायो व्यवसाय:-निर्णयस्तं व्यवसायं च, अर्थानामिति | दावर्तते, अपायं त्रुवत इति संसर्गो, धृतिर्धरणं, अर्थानामिति वर्तते, परिच्छिन्नस्य वस्तुनः अविच्युतिस्मृतिवासनारूपं, तद्धरण पुन
धारणां, ब्रुवत इत्यनेन शास्त्रपारतन्त्र्यमाह, इत्थं तीर्थकरगणधरा ध्रुवते, अन्ये त्वेवं पठन्ति 'अस्थाणं उग्गहणम्मि उग्गही इत्यादि, अत्राप्यर्थानामवग्रहणे सत्यवग्रहो नाम मतिविशेष इत्येवं त्रुवते, एवमीहादिष्वपि योज्यं, भावार्थस्तु पूर्ववदिति गाथार्थः।। इदानीमभिहितस्वरूपाणामवग्रहादीनां कालप्रमाणमभिधित्सुराह
उग्गहो० गाहा ।।(*७७-१८४)। इहाभिहितलक्षणोऽर्थावग्रहो यो जघन्यो-नैश्वायिकः स खल्वेकं समयं, भवतीति सम्बन्धः,
OSSES
॥७२॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.... मूलं P७...] / गाथा ||७७-७८||
नन्दी- हारिभद्रीय
वृत्ती
प्रत सूत्रांक [३७..] गाथा |७७७८||
तत्र कालः परमनिकृष्टः समयोऽभिधीयते, स च प्रवचनप्रतिपादितोत्पलपत्रशतव्यतिभेदोदाहरणाज्जीर्णपट्टशाटिकापाटनदृष्टान्ता-है। | अवग्रहाचावसेय इति, तथा सांव्यवहारिकार्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहौ तु पृथक् पृथगन्तर्मुहूर्त्तकालं भवत इति ज्ञातव्यौ, ईहा चापायचेहापायौ,
दीनां | प्राकृतशेल्या बहुवचनं, उक्तं च-“बहुवयणेण दुवयणं छद्विविभत्तीइ भण्णइ चउत्थी । जह हत्था तह पाया नमोऽधु देवाहिदेवाणं कालमान ॥१॥" तावीहापायौ मुहूर्तार्द्ध ज्ञातव्यौ भवतः, तत्र मुहूर्त्तशब्देन घटिकाद्वयपरिमाणः कालोऽभिधीयते, तस्यार्द्ध मुहूर्ताच, तुशन्दो विशेषणार्थः, कि विशिनष्टि १, व्यवहारापेक्षयैतन्मुहूद्धिमुक्तं, तत्वतस्त्वन्तर्मुहर्तमबसेयमिति, अन्ये त्वेवं पठन्ति-- "मुहुत्तमंतं तु" मुहूर्तान्तस्तु, द्वे पदे, अयमर्थः-अन्तर्मध्यकरणे, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, एतदुक्तं भवति-ईहापार्यो बहन्तिः , भिनं यह ज्ञातव्यौ भवतः, अन्तर्मुहर्तमेवेत्यर्थः, कलनं कालः कालं, न विद्यते संख्यायन्ते इयन्तः पक्षमासत्वेयनसंवत्सरादय इत्येवभूता संख्या यस्यासावसंख्येयः, पल्योपमादिलक्षण इत्यर्थः, तं कालमसंख्यं, तथा संख्यायत इति संख्या-1 इयन्तः पक्षमासत्वेयनादय इत्येवं, संख्येय प्रमित इत्यर्थः, तं संख्य, चशब्दादन्तर्मुहूर्त्त च, धारणाभिहितलक्षणा भवति ज्ञातव्या, | अयमत्र भावार्थ:-अपायोत्तरकालमविच्युतिरूपाऽन्तर्मुहतं भवत्येव, स्मृतिरूपापि, वासनारूपा तु तदावरणक्षयोपशमाख्या स्मृति
धारणायाः बीजभूता संख्येयवर्षायुषां सत्त्वानां संख्येयकालं असंखयेयवपीयुषां पल्पोपमादिजीविनां चासंख्येयमिति गाथाङ्कः॥४ | इत्थमवग्रहादीनां स्वरूपमाभिधायेदानीं श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयता प्रतिपिपादयिपुराह
पुढे सुणहगाहा ॥ (*७८-१८४) ॥ तत्र स्पृष्टमित्यालिङ्गितं, तनौ रेणुचत , शृणोति-गृह्णाति, किं', शब्द-शब्दद्रव्यसंघात, कुतः ।, तस्य सूक्ष्मत्वाद्भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्याकुलत्वाच्छोडेन्द्रियस्यान्येन्द्रियग्रहणात् प्रायः पदुतरत्वात् १, रूप्यत इति रूपं तद्रूपंडू
ACNG
दीप अनुक्रम [१२४१२५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............ मूलं P...] | गाथा ||७८-७९||
प्रत
सूत्रांक
[३७..] गाथा ||७८७९||
नन्दी
| पुनः पश्यति--गृह्णाति, अस्पृष्टम् अनालिगितमसंबद्धमित्यर्थः, पूनःशब्दो विशेषणार्थः, तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, ततश्चायमर्थः-अस्पृष्टमेव | प्राप्याप्राहारिभद्रीचा यादा पश्यति, पुनःशब्दादस्पृष्टमपि योग्यदेशावस्थित, नायोग्यदेशावस्थितमधोलोकादि, कुतः, अप्राप्तकारित्वात् परिमितदेशस्थीवषय- प्यकारिता
ग्राहित्वाच्चक्षुष इति २, प्रायत इति गन्धस्तं ३, रस्यत इति रसस्तं च, स्पृश्यत इति स्पर्शस्त, पशब्दी पूरणसमुच्चयायौँ, 'बद्ध-1 ।।७४॥
स्पृष्टमिति' पद्धम्-आक्लिष्टं तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतमित्यर्थः, स्पृष्टं पूर्ववत् , प्राकृतशैल्या चेत्थमुपन्यासो 'पद्धपुढे' ति, अर्थतस्तु | स्पृष्टं च बद्धं च स्पृष्टयद्धमिति विज्ञयं, आलिंगितानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतमित्यर्थः, गन्धादिः, स्तोकद्रव्यत्वादभावुकत्वात् ।। प्राणादीनां चापटुत्वाद्विनिधिनोतीत्येव ध्यागृणीयादिति गाथार्थः । इह स्पृष्टं शृणोति शब्दमित्युक्त, तत्र किं शब्दप्रयोगात्मृ-1 धान्येव केवलानि शब्दद्व्याणि गृहास्युतान्यानि तद्भावितानि आहोस्वित् मिधाणीति चोदकाभिप्रायमाशंक्य न तावत् केवलानि, | तेषां वासकत्वात्तयोग्यद्रव्याकुलत्वाच लोकस्य, किन्तु मिश्राणि तद्वासितानि वा गृहातीति, अमुमर्थमभिधित्सुराह-.
भासा गाहा (७७९-१८४)। भाष्यत इति भापा, पकना शब्दतयोत्सज्यमाना द्रव्यसंहतिरित्यर्थः, तस्याः समश्रेणयो भाषा-12 | समश्रेणयः, समग्रहण विश्रेणीच्यवच्छेदार्थ, इह श्रेणयः क्षेत्रप्रदेशश्रेणयोऽभिधीयन्ते, ताच सर्वस्यैव भाषमाणस्य पर्स दिनु विद्यन्ते, यावत्सृष्टा सति भाषाऽऽद्यसमय एव लोकान्तमनुधावतीति, ता इतो- भापासमश्रेणीतः, इतो गतः प्राप्त: स्थित इत्यनथोन्तरं, एतदुक्तं भवति- भाषासमणिव्यवस्थित इति, शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः भाप रखेन परिणतः प्रगलराशिः तं शब्द, य पुरुषा | श्वादिसम्बन्धिनं शृणोति-गृह्णाति उपलभत इति पर्यायाः, यत्तदोनित्यसम्बन्धा मिथ शृणोति, एतदुक्तं भवति-उत्सृष्टद्रव्य: भावितापान्तरालस्थशब्दद्व्यामिश्रमिति, विणि पुनरित इति वर्तते, ततश्चायमों भवति विश्रेणिव्यवस्थितः पुनः श्रोता शब्द | *
दीप
अनुक्रम [१२५१२६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............ मूलं ८] | गाथा ||७९-८०||
सूत्रांक
क
[३८]
पत्ता
प्रत
नन्दी
| शृणोति नियमेन पराघाते सति, यानि शब्दद्रव्याण्युत्सृष्टद्रव्याभिधाते वासितानि तान्येव, न पुनरुत्सृष्टानीति भावार्थः, कुतः, RI हारिभद्रीय
तेषां अनुश्रेणिगमनात प्रतिपातामावारुच, अधवा विश्रेणिस्थित एव विथोणिरभिधीयते, पदेऽपि पदावयवप्रयोगदर्शनागीमसेनः| सेनः सत्यमामा भामेति यथेति गाथार्थः । साम्प्रतं विनेयगणसुखप्रतिपत्तये मतिज्ञानपर्यायशब्दानभिधिसुराह
याच गाथा | ॥७५ ॥
ईहागाहा ॥(८०-१८४ा ईहनमीहा, सदर्थपोलोचनचेष्टेत्यर्थः, अपोहनमपोहो, निश्चय इत्यर्थः, विमर्पणं विमर्षः, ईहा-14
| पायमध्यवर्ती प्रत्ययः, तथाऽम्बयधर्मान्वेषणा मार्गणा, चः समुच्चयार्थः, व्यतिरेकधर्मालोचना गवेषणा, तथा संज्ञानं संज्ञा-18 ||७९
व्यंजनावग्रहोत्तरकालभायी मतिविशेष इत्यर्थः, स्मरणं स्मृतिः, पूर्वानुभूतार्थालम्बनप्रत्ययः, मननं मातः कथंचिदर्थपरिच्छित्ता-14 ८०||
वपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिरित्यर्थः, तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा विशिष्टक्षयोपशमजन्या अभूतबस्तुगतयथाऽवस्थितधर्मालोचनरूपा संविदिति भावना, सर्वमिदमाभिनिबोधिक मतिज्ञानमित्यर्थः, एवं किंचिझेदाढ़ेदः प्रदर्शितः, तत्वतस्तु मतिवाचकाः सर्व एते। पर्यायशब्दा इति गाथार्थः ।। 'सेत'मित्यादि, तदेतदाभिनिवोधिकज्ञानमिति ।। साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तसकलचरणकरणक्रियाधारश्रुत
ज्ञानस्वरूपजिज्ञासयाहदीप
से किंत'मित्यादि ।।३८-१८०)। अथ किं तत् श्रुतज्ञानं ?, श्रुतज्ञानमुपाधिभेदाच्चतुर्दशविध प्रज्ञप्त, तद्यथा-अक्षरभुतं १ अनुक्रम
5 अनक्षरभुतं २ मशिनुतं ३ असंक्षिश्चतं ४ सम्यक्तं ५ मिथ्याश्रुतं ६ सादि ७ अनादि ८ सपर्यवासितं ९ अपर्यवसित १० गमिका "
AI११ अगमिक १२ अंगप्रविष्ट १३ अनंगप्रविष्ट १४, एतेषां च भेदानां स्वरूपं यथावसरं वक्ष्यामः । अक्षरश्रुतानक्षरश्रुतभेदद्वयान्त-17 [१२६१२९]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः | ... अथ परोक्षज्ञान-भेदे 'श्रुतज्ञानस्य वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत् 'श्रुतस्य १४ भेदानां वर्णनं क्रियते
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
..... मूलं ३९] / गाथा ||८०...||
प्रत
श्रुतभेदाः ला अक्षरश्रुतं
सूत्रांक
[३९] गाथा ||८०..||
नन्दी- र्भावेऽपि शेपभेदानामुपन्यासोऽज्ञातज्ञापनार्थः, न च भेदद्वयादेवाव्युत्पत्रमतीनां शेषभेदावगम इति प्रतीतमेतद् , अलं विस्तरेण ॥ हारिभद्रीयाली साम्प्रतमुपन्यस्तश्रुतभेदानां स्वरूपमनवगच्छन्नाय भेदमधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाहवृत्तों
से किंत' मित्यादि ॥१३९-१८७)।। अथ किं तदक्षरश्रुतं, 'क्षर संचलने न क्षरतीत्यक्षरं, तच्च ज्ञानं चेतनेत्यर्थः, जीवस्खा ॥ ७६ ॥ भाव्यादनुपयोगेऽपि तत्वता न प्रच्यवत इत्यर्थः, इत्थंभूतभावाक्षरकार्यकारणत्वादकाराद्यप्यक्षरमुच्यते, तत्राक्षरात्मकं श्रुतमक्षरश्रुतं
द्रव्याक्षराण्यधिकृत्य, अथवाऽक्षरं च तत् श्रुतं चाक्षरश्रुतं, भावाक्षरमधिकृत्य, इदमक्षरश्रुतं त्रिविध प्रज्ञतं. अक्षरस्यैव त्रिभेदत्वात्, | त्रिभेदतामेव दर्शयन्नाह- संज्ञाक्षरं १ व्यंजनाक्षरं २ लब्ध्यक्षरं ३, 'से किं तमित्यादि अथ किं तत् संज्ञाक्षरं ', संज्ञान संत्रा, संज्ञायते वा अनयेति संज्ञा, तमिवन्धनमक्षरं संज्ञाक्षरं, इदं च अक्षरस्य अकारादेः संस्थानस्याकृतिः संस्थानाकारी, यतस्तनिवन्ध
नेवतेष्वकारादिसंज्ञा प्रवर्तते इति, एतच्च ब्राहम्यादिलिपीविधानादनेकविधं, 'सेतं सनक्वर' तदेतत् संज्ञाक्षरं ॥ MT से कित' भित्यादि, अथ किं तद् व्यञ्जनाक्षरं ?, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेच घट इति व्यञ्जनं तब तदक्षरं च व्यञ्जना
धर, तच्चेह सर्वमेव भाष्यमाणमकारादि हकारान्तं, अर्थाभिव्यञ्जकत्वाच्छब्दस्य, तथा चाह सूत्रकारस-अक्षरस्याकारादेः व्यञ्जनाभिलापः शब्दोच्चारणं, 'से तमित्यादि, तदेतद्वयञ्जनाक्षरम् ॥ I से किं त' मित्यादि, अथ किं तल्लब्ध्यक्षरं!, लब्धिः क्षयोपशमः उपयोग इत्यर्थः, 'अक्खरलवीयम्स' इत्यादि, इहाक्षरे लम्भिर्यस्य सोऽक्षरलाब्धिकस्तस्य, इन्द्रियमनउभयविज्ञानसमुत्थघटाद्यक्षरलब्धिसमन्वितस्येत्यर्थः, अनेन विकलेन्द्रियादिव्यवच्छेद
दीप अनुक्रम [१३०]
॥६॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.... मूलं ३९] / गाथा ||८१||
....
नन्दी
हारिभद्रीय
प्रत सूत्रांक [३९] गाथा ||८||
JNIलब्ध्यवर माह, लब्ध्यक्षरं समुत्पद्यते, कुतश्चिच्छब्दादेनिमित्तात् सञ्जाततदावरणकर्मक्षयोपशमस्य लब्ध्यक्षरं समुत्पद्यते-अक्षरोपलम्भः। सजायते, एतदुक्तं भवति--शब्दादिग्रहणसमनन्तरमिन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतग्रन्थानुसारि शाङ्क इत्याचक्षरानुषक्तं विज्ञानमुत्पद्यते,
तच्चानेकप्रकार, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियलम्ध्यक्षरमित्यादि, इह श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दश्रयणे सति शाङ्गोऽयमित्याद्यक्षरद्वयलाभः श्रोत्रन्द्रिय॥ ७७॥
| निमित्तत्त्वाच्छोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षरामिति, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, 'से त' मित्यादि, तदेतल्लब्ध्यक्षर, 'से त' मित्यादि, तदेतदक्षरा-है कात्मकं अक्षरं च तदिति वा श्रुतं चाक्षरथुतं, तत्र संज्ञाव्यञ्जनाक्षरे द्रव्यश्रुतं, लब्ध्यक्षरं पुनर्भावश्रुतं, लब्धेर्विज्ञानरूपत्वात् ।।
'से किं त' मित्यादि, अथ किं तदनक्षरश्रुतम् १, २ अनक्षरः शब्दः कारणं कार्यमनक्षरश्रुतं अनेकविधम्--अनेकप्रकार प्रज्ञप्तम्, तद्यथा___ऊससियंगाहा ।।(*८१-१८७)। उच्छ्वसनमुच्छ्वसितं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, तथा निःश्वसनं निःश्वसितं, निष्ठीवनं ४ | निष्ठ्यूतं, कासनं कासितं, चशब्दः समुच्चयाः , क्षवणं क्षुतं, चशब्दः समुच्चयार्थ एव, अस्य व्यवहितः सम्बन्धः, की, सेंटितं
चानक्षरं श्रुतमिति वक्ष्यामः,निःसङ्घनं निःसवितं, अनुस्वारवदनुस्वारं, अक्षरमपि यदनुस्वारवदुच्चार्यते, 'अनक्षर'मित्येतदुच्छ्व|सिताधनक्षरश्रुतमिति, सेण्टनं सेटितं तत् सेंटितं चानक्षरश्रुतमिति, इदं चोच्छ्वसितादि द्रव्यश्रुतमात्रं ध्वनिमात्रत्वात् , अथवा श्रुतविज्ञानोपयुक्तस्य जन्तोः सर्व एव व्यापारः श्रुतं, तस्य तद्भावेन परिणतत्वात् , आह-यद्येवं किमित्युपयुक्तस्य चेष्टापि श्रुतं |
नोच्यते, येनोच्छ्वसितायेबोच्यते इति, अत्रोच्यते, रूढ्या, अथवा श्रूयत इति श्रुतं, अन्वथेसंज्ञामधिकृत्योच्छ्वसितायेव श्रुतमुच्यतलिन चेष्टा, तदभाषादिति, अनुस्वारादयस्त्वर्थगमकत्वादेव (तमिति, 'से त' मित्यादि, तदेतदनक्षरभृतम् ।
दीप अनुक्रम [१३१
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१३२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
..... मूलं ४०] / गाथा ||८१...||
प्रत
A-CA
सूत्रांक
वृत्ता
[४०] गाथा ||८१..||
SONAL
नन्दी
'से किं तमित्यादि, ॥ (४०-१८९) ।। अथ किं तत् संज्ञिश्रुतं', संज्ञानं संज्ञा, संज्ञाऽस्यास्तीति संत्री तस्य श्रुतं २ त्रिविध संनिश्रुतं हारिभद्रीय
| अजप्त, संजिन एव त्रिभेदत्वात् , त्रिभदतामेव दर्शयन्नाह-तद्यथा-कालिक्युपदेशन हेतूपदेशन दृष्टिवादोपदेशेन. 'सेकिंतमित्यादि,
अथ कोऽयं कालिक्युपदेशन, इहादिपदलोपाद्दीर्घकालिकी कालिक्युच्यते, संज्ञेति प्रकरणाद्गम्यते, उपदेशनमुपदेशः, कथनमित्यर्थः, ॥७८॥
| दीर्घकालिक्याः सम्बन्धी दीर्घकालिक्या वा मतेनोपदेशो दीर्घकालिक्युपदेशस्तेन यस्य प्राणिनः अस्ति-विद्यते ईहा-शब्दाघवग्रहणोत्तरकालमन्वयव्यतिरेकधर्मालोचनचेष्टेत्यर्थः, तथा अपोहो-व्यतिरेकधर्मपरित्यागेनान्वयधर्माध्यासेनावधारणात्मकः प्रत्यय इति भावना,यथा शब्द इति,तथा मार्गणा विशेषधर्मान्वेषणारूपा संबिदित्यर्थः,यथा शब्दः सन् किं शाङ्कः किं वा शार्ङ्ग इति,तथा गवेषणा
व्यतिरेकधर्मस्वरूपालोचना,यथा खरादय एवंभूता इति,तथा चिन्ता अन्वयधर्मपरिज्ञानाभिमुखा चेष्टा, यथा मधुरत्वादयस्त्वेवभूता || है इति,तथा विमर्षः त्याज्यधर्मपरित्यागेनोपादेयधर्मग्रहणाभिमुख्य,यथा न शाङ्गः,प्रायोऽयं मधुरत्वादियोगाच्छासइति, सेणं सन्नीति है
लब्भतित्ति स प्राणी णमिति वाक्यालङ्कारे संज्ञीति लभ्यते, मनःपर्याप्त्या पर्याप्तोऽवग्रहादिमतिज्ञानसम्पत्समन्वित इत्यर्थः, | अथवा यस्यास्ति ईहा--किमतदिति चेष्टा इदमित्यवगमोऽपोहः अवगतार्थाभिलाषे तत्प्रार्थना मार्गणा तदप्राप्तौ च निपुणोपाय तोऽन्वेषणं गवेषणा प्रयुक्तप्रतिहतोपायस्योपायान्तरचिन्तनं चिन्ता तद्विषय एवोपायालोचनात्मकः प्रत्ययो विमर्पः स संज्ञीति
ला ॥७ ॥ लभ्यते,अयं च गर्भव्युत्क्रान्तिकः पुरुषादिरौपपातिकश्च देवादिरेव मनःपर्याप्तिप्रयुक्तो विज्ञेयः, यथोक्तविशेषणकलापसमन्वितत्वात् , न पुनरन्यस्तद्विशेषणविकल इति, आह च-'जस्से' त्यादि,यस्य नास्ति ईहाऽपोहो मार्गणा गवेषणा चिन्ता विमर्पः सोऽसनीति लम्पते, अयं च सम्मूच्छिमपंचेन्द्रियविकलेन्द्रियादिज्ञेयः, अल्पमनोलम्धित्वादभावाच्च, 'सेत'मित्यादि,सोऽयं कालिक्युपदेशेन ।
ESENSEENET
दीप अनुक्रम [१३३]
CRICS
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
..... मूलं [४०] / गाथा ||८१...||
प्रत
संज्ञिश्रुतं
सूत्रांक
[४०] गाथा ||८१..||
नन्दी- लासे किं तमित्यादि, अथ कोऽयं हेतूपदेशेन', हेतुः कारण स एव उपदेशः हेतोरुपदेशः हेतूपदेशस्तेन, कारणोपदेशेनेत्यर्थः, हारिभद्रीय का भद्रायस्य प्राणिनोऽस्ति-विद्यतेऽभिसन्धारणम्-अव्यक्तेन विज्ञानेनालोचनं तत्पूर्विका- तत्कारणिका करणशक्ति:- क्रियाशक्तिः,
करणं-क्रिया शक्तिः- सामर्थ्य, अव्यक्तविज्ञानालोचननिवन्धनचेष्टासाममिति भावना, से प्राणी णमिति वाक्यालंकार संज्ञीति ।। ७९ ॥ लभ्यते, अयं च द्वीन्द्रियादिः सम्मूच्छिमपंचेन्द्रियावसानो विज्ञेयः, तथाहि- कृम्यादयोऽपीष्टेष्वाहारादिषु प्रवर्तन्ते अनिष्टभ्यश्च
निवर्तन्ते स्वदेहपारपालनार्थ, प्रायो वर्तमान एव, न चासचिन्त्यष्टानिष्टविषयः प्रवृचिनिवृत्तिसम्भव इति संझी, उक्तलक्षणविकलस्त्वसनी, तथा चाह-'यस्य'त्यादि,यस्य नास्ति अभिसन्धारणपूर्विका करणशक्तिः सोऽसंझीति लभ्यते, अयं चैकेन्द्रियपृथिव्यादिरखसेयो, मनोलब्धिरहितत्वाद, आह-यदि स्वल्पसंज्ञायोगाद्विकलन्द्रियादयः संझिन इष्यन्ते पृथिव्यादयः किं नेष्यन्ते । यतस्तेषामपि दशविधाः संज्ञा विद्यन्त एव,तथा चोक्तं परमगुरुभि:-"कतिण भंते एगिदियाणं समाओ पनत्ताओ?,गोयमा! दस,तंजहा-आहारसना भयसना मेहुण. परिग्गहसमा कोह०माणमाया०लोभ ओद्दसत्रा लोगसचाय"त्ति उपयोगमात्रमोषसंज्ञा लोकसंज्ञा स्वच्छन्दविकाल्पिता विश्वगमा लौकिकैराचरिता, तयथा-अनपत्यस्य न सन्ति लोका इत्यादि, अन्ये तु व्याचक्षते- ओषसंज्ञा दर्शनोपयोगो लोकसंज्ञा झानोपयोग इति, अत्रोच्यते इहौघसंज्ञा स्तोकत्वाद् आहारादिसंज्ञाशानिष्टत्वानाधिक्रियते, यथा न कार्षापण| मात्रेण धनवानभिधीयते, मूर्तिमात्रेण वा रूपवानिति, किन्तु यथा प्रभूतरत्नादिसमन्वितो धनवान् प्रशस्तमूर्तियुक्तच रूपवानमिधीयते,एवं महती शोभना च संज्ञा यस्यास्त्यसौ संज्ञीति,विशिष्टतरा च विकलेन्द्रियसंज्ञेत्यलं विस्तरेण, 'सेत'मित्यादि,सोऽयं हेतूपदेशेन । से किं तमित्यादि, अथ कोऽयं दृष्टिबादोपदेशेनी, दृष्टि:-दर्शनं वदनं वादः दृष्टीनां वादः दृष्टिवादः तदुपदेशन तन्मतापेक्षया
दीप अनुक्रम [१३३]
KACAAA-
॥७९॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[४१]
गाथा
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दीप
अनुक्रम
[१३४]
नन्दीहारिभद्रीय वृत्ती
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [४१] / गाथा ||८१...||
॥ ८० ॥
संज्ञिश्रुतस्य क्षयोपशमेन संज्ञीति लभ्यते, जयमत्र भावार्थ:-संज्ञानं संज्ञा तद्योगात् संज्ञी तस्य श्रुतं संज्ञिश्रुतं इदं सम्यक् श्रुतमेव, अन्यथा संज्ञानाभावात् न हि मिध्यादृष्टेः संज्ञानमस्ति, हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्यभावाद्, रागादिप्रवृत्तेः उक्तं च- 'तज्ज्ञानमेव न भवति यास्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् १ ॥ १ ॥ " सम्यग्दृष्टिस्तु तनिग्रहपरत्वाद्वीतराग४५ सम एव, उक्तंच "कलसफलेण ण जुज्जर किं चित्तं तत्थ जं विगतराओ । संतेवि जो कसाए णिगिण्हती सोऽवि तत्तुल्हो ||१|| -" सीत्यादि, अलं प्रसंगेन तदित्थंभूतस्य संज्ञिश्रुतस्य क्षयोपशमेन सता संज्ञीति लभ्यते, अयं च सम्यग्दृष्टिरेव क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तो रागादिनिग्रहपरः, तदन्यस्त्वसंज्ञी, यत आह ग्रन्थकारः-- असंज्ञिश्रुतस्य क्षयोपशमेनासंज्ञीति लभ्यते, 'सेत' मित्यादि, सोऽयं दृष्टिवादोपदेशेन, एवं संनिस्त्रिभेदभिन्नत्वात् श्रुतमपि तदुपाधिभेदात् त्रिविधमेवेति । अत्राह- कालिक्युपदेशेनेत्यादि क्रमः किमर्थ', उच्यते, इह प्रायः सूत्रे यत्र क्वचित् संझिग्रहणं तत्र दीर्घकालिक्युपदेशेन समनस्कसंज्ञिपरिग्रह इति प्रथमं तदुपन्यासः, अप्रधानत्वाच्चेतरयोः अन्ते च प्रधानाभिधानमिति न्याय्यं, 'सेत' मित्यादि, तदेतत् संज्ञिथुतं, असंज्ञिथुतं तु प्रतिपक्षाभिधानादेव प्रतिपादितं, तदेतदसंज्ञिश्रुतम् ॥
'से किं तमित्यादि ॥ (४१- १९१)| अंथ किं तत् सम्यकश्रुतं?, २ यदिदं प्रणीतमिति सम्बन्धः, तत्राशोकाद्यष्टमहाप्रातिहा - र्यरूपां पूजामईन्तीत्यर्हन्तः, तथा चोक्तं-"अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यो ध्वनिश्रामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ १ ॥ तैरर्हद्भिः, तत्र शुद्धद्रव्यास्तिकनयमतानुसारिभिः अनादिशुद्धा एव मुक्तात्मानोऽभ्युपगम्यन्ते, यथो तम् - "ज्ञानमप्रतिषं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्व, सहसिद्धं चतुष्टयं ॥ १॥" इत्यादि, बहवश्व कैश्विदिष्यन्ते, तेऽपि
संज्ञिश्रुतं
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॥ ८० ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः *** श्रुतज्ञानस्य १४ भेद-मध्ये 'सम्यकश्रुतस्य वर्णनं क्रियते
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[४१]
गाथा
||..||
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नन्दीहारिभद्रीय वृत्ती
॥ ८१ ॥
A
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [४१] / गाथा ||८१...||
व स्थापनादिद्वारेण पूर्जार्हत्वादर्हन्तो भवन्त्येव, अतो- भगवद्भिः, भगः खलु समत्रैश्वर्यादिलक्षणः, यथोक्तं- "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, पष्णां भग इतींगना ॥ | १ ||” भगो विद्यते येषां ते भगवन्तः तैर्भगवद्भिः, न चानादिशुद्धानां समग्र रूपमुपपद्यते, अशरीरित्वात्, शरीरस्य च रागादिकार्यत्वात् तेषां च तदभावादिति, स्वेच्छा निर्माणतः समग्रशरीरसम्भवातुल्यतामेवाशंक्याह-उत्पन्नज्ञानदर्शनधरैः न च तेनादिशुद्धाः उत्पन्नज्ञानदर्शन धराः 'ज्ञानमप्रतिघं यस्येत्यादिवचनविरोधात् एवं शुद्धद्रव्यास्तिकनयमतानुसारिपरिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदार्थोऽयं ग्रन्थः, अधुना पर्यायास्तिकन्यमतानुसारिपरिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदार्थमाह- 'त्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजितैः' निरीक्षिताथ महिताच पूजिताश्वेति समासः, त्रैलोक्येन निरीक्षितमहितपूजिता इति विग्रहः, विशेषणसाफल्यं पुनरित्थमवसेयं त्रैलोक्यग्रहणाद्' भवनव्यन्तरनरविद्याधरज्योतिष्कवैमानिकपरिग्रहः, निरीक्षिता भक्तिनम्रैर्मनोरथदृष्टिभिर्दृष्टाः, महिता यथाऽवस्थितान्यासाधारणगुणोत्कीनलक्षणेन भावस्तवेन पूजिताः सुगन्धिपुष्पप्रकरप्रक्षेपादिना द्रव्यस्तवेनेति, तत्र सुगतादयोऽपि पर्यायास्तिकनयमतानुसारिभित्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजिता इष्यन्त एव, आह च स्तुतिकार:"देवागमन भोयानचामरादिविभूतयः । मायाविध्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ||१||" इत्यादि, अत आह- 'अतीतप्रत्युत्पन्नानागतज्ञैः' न चैकान्तक्षणिकवादिनां यथोक्तविशेषणसम्भवः, अतीतानागताभावात्, तथा चागमः, "ण णिहाणगया भग्गा पुंजो णत्थि अणागते । णिब्बुमा णेव चिट्ठति आरग्गे सरिसोवमा || १ ||" असतां च ग्रहणायोगादित्याद्यत्र बहु वक्तव्यं, न च तद्दुच्यते, गमनिकामात्रत्वादस्य प्रारम्भस्य, व्यवहारनयमतानुसारिभिस्तु कैश्चिदतीतानागतार्थग्राहिण इष्यन्त एवं ऋषयः, यथाssहुरेके- "ऋषयः संयतात्मानः फलमूलानिलाशनाः । तपसैव प्रपश्यन्ति, त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। १ ।। अतीतानागतान् भावान्,
सम्यक्क्षुतं
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
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प्रत सूत्रांक [४१] गाथा ||८१..||
नन्दी- वर्तमानांश्च मारत! । ज्ञानालोकेन पश्यन्ति, त्यक्तसंगा जितेन्द्रिया ॥२॥" इत्यादि, अत आह-'सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः' ते तु सर्वज्ञा हारिभदायान भवन्तीत्यभिप्रायः, एवं प्रधानोभयनयमतानुसारिपरिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदनंद नीयते, अन्यथा वाऽविरोधेन नेतन्यामिति,
पूचा प्रणीतम्-अर्थकथनद्वारेण प्ररूपित, किं त-द्वादशांग, श्रुतपरमपुरुषोत्तमस्यांगानीचांगानि द्वादश अगानि-आचारादीनि यस्मि॥८२॥ स्तद् द्वादशांग, गुणगणोऽस्यास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य पिटकं- सर्वस्वं गणिपिटकम् , अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचना, तथा
चोक्तम्-"आयारम्मि अहीए ज णातो होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भन्नति पढम गणिड्डाणं ॥१॥" परिच्छेदस्थानमित्यर्थः, ततव परिच्छेदसमूहो गणिपिटक, तद्यथा-आचार इत्यादि, पाठसिद्धं यावद् दृष्टिबादः। अनंगप्रापिष्टमावश्यकादि, ततोऽर्हत्प्रणीतत्वात् वस्तुत उक्तत्वादनुक्तमपि गृह्यते, इदं सर्वमेव द्रव्यास्तिकनयमतेन तदभिधेयपंचास्तिकायभाववन्नित्यं सत् स्वाम्यस|म्बन्धचिन्तायां सत्रार्थोभयरूपं सम्यक्क्षुतमेव भवति,' स्वामिसम्बन्धचिन्तायां तु भाज्य, स्वामिपरिणामविशेषात् , कदाचित् | सम्यक्श्रुतं कदाचिद्विपर्ययः, तत्र सम्यग्दृष्टेः प्रशमादिसम्यकपरिणामोपेतत्वात् स्वरूपेण प्रतिभासनात् सम्यकथुतं, पिचोदयानभिभूतस्य शर्करादिरिवेति, मिथ्यादृष्टः पुनरप्रशमादिमिथ्यापरिणामोपेतत्वाद्वस्तुनः स्वरूपेणाप्रतिभासनान्मिध्याश्रुतं, पिचोदयाभिभूतस्याशर्करादिवदिति, देशतो दृष्टान्ता, अशर्करादित्वं च तं प्रति तत्कार्याकरणात्, तथाऽप्यभ्युपगमे चातिप्रसंगादित्यल प्रसंगेन ।। श्रुतप्रमाणत एव सम्यकपरिणामनियमनायाह-. __ 'इच्च्चेद'मित्यादि, इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटकं चतुर्दशपूर्विणः सम्यकश्रुतमेव, तथा अभित्रदशपूर्विणोऽपि सम्यकश्रुतमेव, 'तेण परं भिमेसु(दसम्भयण' त्ति पश्चानुपूर्व्या ततः परं मिनेषु दशसु भजना-कदाचित् सम्बकश्रुतं कदाचिन्मिथ्याश्रुतं,
BREASTRA
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दीप अनुक्रम
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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..... मूलं ४२-४३] / गाथा ||८१...||
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सूत्रांक
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॥८.
सामसालिकामा
[४२-४३]
गाथा । ||८१..||
परिणामविशेषाद , एतदुक्तं भवति-आसमभन्योऽपि मिध्याष्टिः सम्पूणदशपूर्वरत्ननिधानं न प्राप्नोति, मिथ्यात्वपरिणामकलं-1&ामिथ्यात्वहारिभद्रीय शकितत्वादारियनिवन्धनपापकलंकांकितपुरुषवर्षिचतामाणिमिति, 'सेत'मित्यादि संदेतत् सम्यकश्रुतम् ॥
श्रुतं वृत्ती
से किंत'मित्यादि ।(४२-१९४)।। अथ किं तन्मिथ्याथुतः,२ यदिदमज्ञानिकः, तत्राल्पज्ञानभावादधनवदशीलबद्वा सम्यग्दृष्टयोऽप्यज्ञानिकाः प्रोच्यन्ते अत आह-मिध्यादृष्टिभिः, किं-स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं, इहावग्रहहे बुद्धिः, अपायधारणे | मतिः, स्वच्छन्देन-स्वाभिप्रायण स्वतः, सर्वज्ञप्रणीतार्थानुसारमन्तरेण बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं, स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमित्यर्थः, तथा 'भारत'मित्यादि सूत्रासिद्धं, यावच्चत्वारश्च वेदास्सांगोपांगाः, एतानि स्वरूपतोऽन्यथावस्त्वभिधानान्मिथ्याश्रुतमेव, स्वामिसम्बन्धचिन्तायां तु भाज्यानि, तथा चाह-मिथ्यादृष्टमिथ्यात्वपरिगृहीतानि विपरीताभिनिवेशहेतुत्वान्निध्याश्रुतं, एतान्येव सम्यग्दृष्टः सम्यक्त्वपरिगृहीतानि असारतादर्शनेन स्थिरतरसम्यक्त्वपरिणामहेतुत्वात् सम्यक्
श्रुतं, अथवा मिच्छहिहिस्सवि सम्यक्श्रुतमित्यादि, अथवा मिथ्यादृष्टरप्येतानि सम्यक्थुतं, कस्मात्, सम्यक्त्वहेतुत्वात, तथा चाहA'जम्हा ते मिच्छादिट्ठीया' इत्यादि, यस्माचे मिथ्यादृष्टयः 'तेहिं चेव समयेहिं चोदिता समाण' त्ति तैरेव समयैः-सिद्धान्तैः
पूर्वापरविरोधद्वारेण यद्यतीन्द्रियार्थदर्शन स्यात् कथाचदर्थप्रतिपत्तिरित्यादिना चोदिताः सन्तः केचन बिबेकिनः सत्यक्यादय इव, दकिी, 'सपक्वदिट्टीओ बति' स्वपक्षदृष्टीस्त्यजन्तीत्यर्थः 'सेत्त'मित्यादि, तदेतत् मिथ्याश्रुतं । 'से किंत'मित्यादि, सादि सपर्यवसितं अनायपर्यवासितं चाधिकारवशायुगपदुच्यते, अथ किं तत् सादि, सह आदिना वर्तत इति सादि इत्येतद् द्वादशांगं गणि
॥८३॥ पिटक व्यवच्छितिप्रतिपादनपरो नयः व्यवच्छितिनयः, पर्यावास्तिक इत्यर्थः, तस्यार्थो व्यवच्छित्तिनयार्थी, तबायो व्यवच्छिति
EMBERNEBAERSEASRE
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
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सूत्रांक
[४२-४३]
गाथा | ||८१..||
नन्दी- नयार्थता तया व्यवच्छित्तिनयार्थभावन, पर्यायापेक्षयेत्यर्थः, किं ?, सादि सपर्यसित, पर्यवसानं पर्यसितं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, सह मिथ्यात्वहारिभद्रीय पर्यवसानेन सपर्यवसित, नारकादिभावापेक्षया एव जीव इति, तथा अव्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयः अव्यवच्छिचिनयः,द्रव्यास्तिकनयला धुवे..
इत्यर्थ, तस्यार्थोऽव्यवच्छित्तिनयार्थस्तद्भावः अव्यवच्छित्तिनयार्थता तया अव्यवच्छित्तिनयार्थभावेन, द्रव्यापेक्षयेत्यर्थः, कि, अनादि ॥८४॥ प्रसाद अर्यसितं, त्रिकालावस्थायित्वात् जीववत् ।। अधिकृतमेवार्थ द्रव्यादिचतुष्टयमधिकृत्य प्रतिपादयत्राह-तं समासतो' इत्यादि, तच्छु-18
है ज्ञानं समासतः संक्षेपेण चतुर्विध प्रज्ञतं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः, तत्र द्रव्यतःणमिति वाक्यालंकारे सम्यक्थुतं एक
पुरुष प्रतीत्य सादिसपर्यसित, कध, सम्यक्त्वावाप्तौ तत्प्रथमपाठतो वा सादि, पुनर्मिध्यात्वप्राप्तौ सति वा सम्यक्त्वे प्रमादिग्ला-17 8 निसुरलोकगमनकेवलोत्पत्तिभावात् सपर्यवसितं, बहून पुरुषान् प्रतीत्य अनाद्यपर्यवसितं, सन्तानेन प्रवत्त्वात् पुरुषत्ववत्, तथा IN क्षेत्रतः पंच भरतानि पंच एरवतानि प्रतीत्य सादि सपर्यसितं, कथं, तेषु सुषमदुष्षमादिकाले तीर्थकरधर्मसंघानां तत्प्रथमतयो18 पत्तेः सादि, एकान्तदुष्षमादिकाले च तदभावे सपर्यवसितं, तथा महाविदेहादि प्रतीत्य प्रवाहरूपेण तीर्थकरादीनामव्यवच्छित्ते
रनाद्यपर्यवसितं, कालतःणमिति वाक्यालंकारे अवसर्पिणीं उत्सर्पिणीं च प्रतीत्य सादि सपर्यसित, कथं , यतोऽवसापिण्यां तिसवेव सुषमदुष्पमादुष्पमसुषमादुष्पमास्विति, उत्सर्पिण्यांद्वयोः दुष्पमासुवमासुपमदुष्पमयोरिति, न परतः, इत्यतः सादि सपर्यवसितं,
॥८४॥ अत्र कालचक्र विंशतिसागरोपमकोटीकोटिपरिमाणं विनयजनानुग्रहार्थ प्ररूप्यते
चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीउ संततीए उ । एगंत सूसमा खलु जिणेहिं सबहिं णिहिट्ठा ।।१।। तीए पुरिसाणमायु तिष्णि INउ पलियाई तह पमाणं च । तिनेव गाउयाई आदीए भणति समयण्णू ॥ २ ॥ उपभोगपरी भोगा जम्मतरमुकयवीयजातातो।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः अत्र 'कालचक्र'स्य स्वरुपम् वर्णयते
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
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Skick
वृता
[४२-४३] |
गाथा ||८१..||
नन्दी- | कप्पतरुसमूहाओ होंति किलेस विणा तेसि ॥ ३ ।। ते पुण दसप्पगारा कप्पतरु समणसमयकेतूहि । धीरेहि विणिदिवा मणोरहापूहारिभद्रीय
रगा एए ॥ ४ ॥ मत्तगया १ य भिंगा २ तुडियंगा ३ दीव ४ जोति ५ चितंगा ६। चित्तरसा ७ मणियगा ८ गेहागारा ९ कालच
अणियणा १० य ।। ५ ।। मत्तंगएसु मज्ज मुहपेजं भायणाणि मिंगसु । तुडियंगेसु य संगयतुडियाणि बहुप्पगाराणि ॥ ६॥ ॥८५॥
दीवसिहा जोतिसणामया य णिच्च करिति उज्जोयं । चिगंगेसु य मल्लं चित्तरसा मोषणढाए ॥७॥ मणियंगसु य भूसणवराणि * भवणाणि भवणरुक्षेसं । आयनेसु य इच्छियवस्थाणि बहुप्पगाराणि ॥८॥ एएसु य असु य नरनारिगणाण ताणमुवभोगो । भवियपुणन्भवरहिया इय सब्वन्नू जिणा बिति ॥९॥ तो तिमि सागरोवमकोडाकोडी उ वीयरागेहिं । सुसमत्ति समक्खाया पवाहरूवेण धीरेहिं ।। १० ।। तीए पुरिसाणमायु दोणि य पलियाई तह पमाणं च । दो चेव गाउयाई आईए भणंति समयन्नू ॥११॥ उपभोगपरीभोगा तेसिपि य कप्पपादवेहितो । होति किलसेण विणा नवरं ऊणाऽणुमावेहिं ॥ १२ ॥ तो मुसमदूसमाए पवाहरूवेण कोडिकोडीओ । अयराण दोण्णि सिट्ठा जिणेहिं जियरागदोसेहिं ।। १३ ।। तीए पुरिसाणमाउं एग पलियं तहा पमाणं | च । एगं च गाउयं तीइ आदीए भणति समयष्णु ॥ १४ ॥ उवभोगपरीभोगा तेसिपि य कप्पपादवेहितो । हाति किलेसेण विणा | पायं ऊपाऽणुभावेहिं ॥ १५ ॥ सूसमदुसमावसेसे पढमजिणो धम्मणायगो भयवं | उप्पनो कयपुनो सिप्पकलादंसगो उसहो
॥ १६ ॥ तो दुसमसुस्समूणा बायालीसाए वरिससहसेहिं । सागरकोडाकोडी एगेव जिणेहि पण्णता ॥ १७॥ तीए पुरिसाणमायु 181 पुवपमाणण तह पमाणं च । धणुसंखानिदिढ विसेससुत्ताओ णायव्वं ॥ १८ ॥ उवमोगा परीभोगा पवरोसहिमाइएहिं विष्णेया। ॥५॥ व जिणचकिवासुदेवा सब्वे य इमीए वोलीणा ॥ १९॥ इगवीससहस्साई वासाणं दूसमा इमीए य । जेविय माणुवभोगादीया व
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[ ४२-४३] गाथा
॥८९.. ।।
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१३६]
नन्दीहारिभूद्रीय वृत्ती
॥ ८६ ॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४२-४३] / गाथा ||८१... ||
दीसंति हायंता ॥ २० ॥ एतो उ किलिङ्कतरा जीतपमाणादिएहिं निहिट्ठा। अतिदुसमति घोरा वाससहस्साई इगवीसं ॥ २१ ॥ ओसप्पिणीए एसो कालविभागो जिणेहिं निदिट्टो । एसोच्चिय पडिलोमं विशेयुस्तविणीरवि ॥ २२ ॥ एवं तु कालचकं सिस्सजणाणुग्गहया भणियं । संखेवेण महत्थो बिसेसमुत्ताओ णायब्बो || २३ || 'णोउस्सप्पिणी' मित्यादि, नोउत्सर्पिणीमवसपिंणीं च प्रतीत्य अनाद्यपर्यवसितं, महाविदेहेष्वेव कालस्यावस्थितत्वादिति भावः, भावतः णमिति पूर्ववत् 'य' इत्यनिर्दिष्टनिर्देश ये केचन यदा पूर्वाह्लादौ जिनः प्रज्ञप्ता २ भावाः पदार्थाः 'आघविज्जति' ति प्राकृतशैल्या आख्यायन्ते, सामान्यविशेषाभ्यां कथ्यन्त इत्यर्थः, प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदाभिधानेन, प्ररूप्यन्ते नामादिस्वरूपकथनेन, यथा 'पर्यायानभिधेय मित्यादि, दृश्यन्त उपमानमात्रतः यथा गौस्तथा गवय इत्यादि, निद हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन, उपदर्श्यन्ते उपनयनिगमनाभ्यामिति, सकलनयाभिप्रायतो वा वा तान् भावान् तदा तत्कालापेक्षया प्रतीत्य सादि सपर्ववसितं एतदुक्तं भवति प्रज्ञापकोपयोग -प्रज्ञापकोपयोगस्वरप्रयत्नासनविशेषतः प्रतिक्षणमन्यथा चान्यथा चावस्थितेः सादि सपर्यदसितं, तथा चोक्तम्- “उपयोगसरपयत्ताआसणभेदादिया या पतिसमयं । भिन्ना पद्मवगस्ता सादिसपज्जन्तगं तम्हा || १ ||" अथवा प्रज्ञापनीयभावापेक्षया गतिस्थितिग्यणुकाद्येकप्रदेशाद्यवगाहैकादिसमयस्थित्येकवर्णादिप्रतिपादनात् सादिसपर्यवसितं क्षायोपशमिकभावापेक्षया पुनरनाद्यपर्यवसितं प्रवाहरूपेण तस्यानाद्यपर्यवसितत्वाद, अथवा चतुभंगिका सादि पर्यवसितं १ सादि अपर्यवसितं २ अनादिसपर्यवसितं ३ अनादिअपर्यवसितं ४, तत्र प्रथमभंगक प्रदर्शनायाह- 'भवसिद्धियस्स' इत्यादि, भवसिद्धिको भव्यस्तस्य श्रुतं सम्यक् श्रुतं सादि सपर्यसितं, उपयोगाद्यपेक्षया भावितमेव, द्वितीयभंगस्तु शून्यः प्ररूपणामात्रतो वा अभव्यस्य वर्त्तमानकालापेक्षया अनागताद्वामधिकृत्य मिध्याश्रुत
कालचक्रं - सादिसपर्य सितादि
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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[भाग-7] “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
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सादिसपर्यवसितादि
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गाथा । ||८१..||
नन्दी मिति, तृतीयभंगस्तु सम्यक्त्वाप्ती भव्यस्य मिथ्याश्रुत,चतुर्थ भंगं पुनरुपदर्शयन्नाह--'अभव' इत्यादि,अभवसिद्धिका-अभव्यस्तस्य हारिभद्रीया श्रुतं मिथ्याभुत अनाथपर्यवसितं,तस्य सदैव संसारवर्तित्वात् । इह च श्रुतस्योपक्रान्तत्वात् तृतीयचतुर्थमंगकद्वये अनादिश्रुतभाव उक्तो-
न्यथा मतेरप्ययमेव द्रष्टव्यः,मतिश्रुतयोरन्योन्यानुगतत्वात् , अत्राह-सोऽनादिज्ञानमावः किं जघन्य उत विमध्यम आहोश्विदु॥८७॥ाला
स्कृष्ट इति, अत्रोच्यते,जघन्यो विमध्यमो वा,न तूत्कृष्टः कथंी,यतस्तस्येदं प्रमाण सध्यागासपदेसग्ग मित्यादि,सर्व च तदाकाशं च सर्षाकाश, लोकालोकाकाशामित्यर्थः, तस्य प्रदेशाः, प्रकृष्टा देशाः प्रदेशा निर्विभागा मागा इत्यर्थः, तेषामग्रं-परिमाणं सर्वाकाशप्रदेशाग्रं, सर्वाकाशप्रदेशः, किं, अनन्तगुणितं अनन्तशो गुणितं अनन्तगुणितं, एकैकस्मिनाकाशप्रदेशे अनन्तागुरुलघुपर्यायमाबात्र पर्यायाधरं पर्यायपरिमाणाक्षरं निष्पयते, सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणमिति भावार्थः, स्तोकत्वाञ्चह धर्मास्तिकायादयो नोक्ताः, अर्थतस्तु गृहीता एव, इह च ज्ञानमक्षरं गृह्यते, तथा तज्ज्ञेयू, तथा अकारादि च, सर्वथाऽप्यविरोध इति, अस्य च सर्वजीवानामपि चाक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घाटितः, सदाप्रावृत इत्यर्थः, स पुनरनन्तभागोऽप्यनेकविधः, तत्र सर्वजघन्यवतन्यमात्र, तत्पुनने कदाचिदुत्कृष्टावरणस्याप्यात्रियते, जीवस्वाभाव्यात्, आह-च ग्रन्थकारः 'जइ पुण' इत्यादि, यदि पुनः सोऽपि आब्रियेत, ततः किं ?, तेन जीवः अजीवतां प्राप्नुयात् , तेनावृतेन जीवः- चैतन्यलक्षणः स्वलक्षणपरित्यागादजीवतां प्राप्नुयात् , नचैतद् दृष्टमिष्टं वा, सर्वस्य सर्वथा स्वभावातिरस्काराद् , अत्रैव दृष्टान्तमाह- 'सुटुंबी' त्यादि, मेघसमुदये चन्द्रसूर्यप्रभाजालतिरस्कारिण सति भवति प्रभा चन्द्रसूर्ययोः, सर्वस्य सर्वथा स्वभावातिरस्कारादिति । अत्राह-'सव्वागासपएसग्गं सन्चागासपदेसेहि अणतगुणियं पञ्जबग्गक्खरं निष्फञ्जती' त्यत्राविशेषितमेवाक्षरमुक्तम्,अविशेषाभिधानाचेदं केवलमिति गम्यते,इह तु श्रुताधिकारादकारादि प्रकृतं यतस्तत् |
दीप अनुक्रम [१३५१३६]
मा॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[ ४२-४३]
गाथा
॥८९..।।
दीप
अनुक्र
[१३५
१३६]
नन्दी - हारिभद्रीय
वृतौ
॥ ८८ ॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [४२-४३] / गाथा ||८१... ||
कथं केवलपर्यायपरिमाणतुल्यं भवेद् ?, उच्यते, नन्वत्राप्यपर्यवसितश्रुताधिकारादकाराद्येव गम्यते, अथ मतिः- 'सब्वजीवाणंपिय णं अक्खरस्स अणतभागो णिच्चुग्घाडिओ'त्ति सर्वजीवग्रहणान तच्छुतं यतः समस्तद्वादशांगविदां तत् समस्तमिति, यद्येवं केवलस्यापि न सर्वजीवानामेवानन्तभागोऽवतिष्ठते, सर्वज्ञसद्भावात्, अतो न तत् केवलाक्षरमपि कस्यासावनन्तभागोऽस्तु है, तथा अविशेषेण सर्वजीवग्रहणे सत्यपि प्रकरणादपिशब्दाद्वा केवलिनो विहायान्येषां अनन्तभागो गम्यते, अत एव किं न श्रुतात्मकमक्षरमंगीकृत्य समस्तद्वादशांगविदो विहायान्येषां अनन्तभागो गम्यते, तस्मात् स्वपरपर्याय भेदा दुभयमप्यविरुद्धमिति, तथाऽप्यत्रापर्यवसितश्रुताधिकारादकाराधेव न्यायानुपाति, तत् पुनरनन्तपर्यायम्, इह अ अ अ इत्यकार उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितः, स सानुनासिको निरनुनासिकच, एवं दीर्घः प्लुतः, एवं तावदष्टादशप्रभेदं अवर्ण अवते, एवं यावतः केवल एवाकारो लभते सानुनासिकादीन् तथाऽन्यवर्णसहितो वा तेऽप्यस्य स्वपर्यायाः, ते चानन्ताः कथम्?, अभिलाप्यबाद्यनिमिचभेदात् तस्य च परमाणुभ्यणुकादिभेदेनानन्तत्वात् ध्वनेश्व तथा तथाभिधायकत्वपरिणामे सति तत्तदर्थप्रतिपादकत्वादिति, सांकेतिकशब्दार्थसम्बन्धवादिमतमप्यावश्यके नयाधिकारे विचारविष्यामः, ततश्चैते स्वपर्यायाः, शेषास्तु सर्व एव घटादिपर्यायाः परपर्याया इति, ते पुनः स्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः, आह-स्वपर्यायाणां तावत्पर्यायता युक्ता, घटादिपर्यायास्तु विभिन्नवत्वाश्रितत्वात् कथं तस्येति व्यपदिश्यन्ते, उच्यते, स्वपर्यायविशेषणोपयोगात, इह ये यस्य स्वपर्यायविशेषणतयोपयुज्यन्ते ते तस्य पर्यायतया व्यपदिश्यन्ते, यथा घटस्य रूपादयः, उपयुज्यन्ते चाकारस्वपर्यायाणां विशेषणतया घटादिपर्यायाः, तानन्तरेण स्वपर्यायव्यपदेशाभावात्, तथा वस्तुस्थित्याऽपि च घटादिपर्याया अभावरूपेणाकारस्य व्यवस्थितत्वाद् घटादिपर्यायाणां अकारपर्यायतायामविरोध इति, इयमत्र भावना घटादिपर्यायाणामनन्तत्वा
सादिसपर्य वसितादि
101~
॥ ८८ ॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.... मूलं ४३-४४] / गाथा ||८१...||
प्रत
नन्दी-
हारिभद्रीय
सूत्रांक
गमिकादि
॥८९॥
[४३-४४]
गाथा ||८१..||
तेभ्यश्चाकारस्य स्वभावभेदन व्यावृत्तत्वात् , स्वभावभेदेन व्यावृत्त्यनभ्युपगमे च घटादिपर्यायाणामेकत्वप्रसंगाद्,अतः स्वभावभेदनिबन्धनत्वादकारपोयता तेषामिति,तस्मात् स्वपरपर्यायापेक्षया खल्वकारस्य सर्वद्रव्यपर्यायराशितुल्यधर्मताऽविरोध इति, न चेदमु- सूत्र, यत आगमेऽप्युक्तम्-"जे एग जाणति से सब जाणति, जे सम्बं जाणति से एग जाणति"त्ति, अस्यायमर्थः-य एक वस्तूपलभते | सर्वपयोयैः स सर्वमुपलभते, कश्चैकं सर्वपर्यायैरुपलभते य एव सर्व सर्वथोपलभत इत्यता-सर्वमजानानो नाकारं सर्वधोपलभत इति, ततश्चास्मात् सत्रात् सर्वमेव वस्तु सर्वद्रव्यपर्यायराशितुल्यधर्मक, इह त्वक्षराधिकारादक्षरमुक्तमिति, इतश्चतदकारायेव प्रतिपत्तव्यं अस्मिन्नेवाधिकारेऽक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घाटित इत्युपन्यस्तत्वात्, केवलस्य चाविभागसम्पूर्णत्वेन निकृष्टानन्तभागासम्भवाद् अवधेरप्यसंख्येयप्रकृतिभेदभिन्नत्वान्मनःपर्यायज्ञानस्याप्योधत ऋजुविपुलभेदभिन्नत्वात् पारिशेप्यादकारादिश्रुताक्षरस्य निबन्ध| नज्ञानस्यवासावित्यलं प्रसंगेन, 'सेतं' इत्यादि निगमनद्वयमपि निगदसिद्धगं ॥
'से किंत' मित्यादि । (४४-२०२)॥ अथ किं तद्गमिकम् , हादिमध्यावसानेषु किञ्चिद्विशेषतः पुनस्तत्सूत्रोच्चारणलक्षणो गमः, यथाऽऽदिविशेष तावत'इह छज्जीवणिके' त्यादि, गमा अस्य विद्यन्ते इति 'अत इनिठमा' विति (५-२-१२५) गमिक, इदं च प्रायोवृच्या दृष्टिवादे, तस्यैव गमबहुलत्वात् , अगमिकं तु प्रायो गाथाद्यसमानग्रन्थत्वात् कालिकश्रुतमाचारादि, 'से तमित्यादि निगमनद्वयं कण्ठ्यं । 'तं समासतो दुविहं पन्नत्तं तद्गमिकागामिकं अथवा तदोषश्रुतमर्हदुपदेशानुसारि समासतः संक्षेपण द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अङ्गप्रविष्टं अङ्गाबाह्य च, अत्राह-पूर्वमेव चतुर्दशभेदोदेशाधिकार अङ्गप्रविष्टं च अंगवाई चेत्युपन्यस्तै, किमर्थं पुनस्तत् समासत इत्याद्युपन्यासेन तदेवोद्दिश्यत इति ?, अत्रोच्यते, सर्वेभेदानामेवाङ्गानाप्रविष्टभेदद्वयान्त-
दीप अनुक्रम [१३६
1534
। ॥८९॥
१३७]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ... अत्र श्रुतज्ञानस्य गमिक-अगमिक भेदयो: वर्णनं आरभ्यते
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आगम (४४)
[भाग-7] “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
....... मूलं ४४] / गाथा ||८१...||
थता
SEKSEKAR
वृत्तौ
प्रत सूत्रांक [४४] गाथा ||८१..||
।
नन्दी- भावनाहवप्रणीतत्वे च प्राधान्यख्यापनार्थमिति, तत्र 'पाददुर्ग २ जो २ रू२ गातदुयगं च २ दो य बाहूओ २ । गीचा १ सिरं उत्कालिक हारिभद्रीय च १ पुरिसो वारसअंगो मुयविसिडो ॥१॥ श्रुतपुरुषस्याङ्गेषु प्रविष्ट, अंगभावव्यवस्थितमित्यर्थः, अथवा 'गणधरफयमंगगयं ट्र
जिंकत थेरेहिं पाहिरं तं तु । नियतं अंगपविट्ठ अणिययमय बाहिरं मणियं ॥१॥ तत्राल्पतरवक्तव्यत्वादंगवायमधिकृत्य प्रश्नमू९०॥
त्रमाह-से किंत' मित्यादि, अथ किं तदंगवायं १, श्रुतपुरुषात् व्यतिरिक्तं अंगबाह्य विविध परोक्ष, तद्यथा-आवश्यकं च आवश्यकव्यतिरिक्त च, 'से किं त' मित्यादि, अथ किं तदावश्यकम् , अवश्यक्रियानुष्ठानादावश्यक, गुणानां या अभिविधिना वश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकम् , पविध प्राप्तम् , तद्यथा-सामायिकमित्यादि, "सावज्जजोगविरती १ उकित्तण २ गुणवओ य पडिवत्ती ३ । खलियस्स जिंदणा ४ वणतिगिच्छ ५ गुणधारणा ६ चेव ॥ १॥" अधिकारगाथा, एतदनुसारेण आवश्यकपिण्डार्थो वक्तव्यः, 'सेत' मित्यादि, तदेतदावश्यकम् ।। 'से किंत' मित्यादि, अथ किं तदावश्यकव्यतिरिक्तं?, २ द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-कालिकं चोत्कालिकं च, तत्राल्पतरवक्तव्यत्वादुत्कालिकमाधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह-'से किंत मित्यादि, अथ किं तदुत्का-12 लिकम् , उत्कालिकमनेकविध प्रजस, तद्यथा-दशवकालिकं प्रतीतं, कल्पाकल्पप्रतिपादकं कल्पाकल्पं, तथा कल्पनं कल्पः
स्थविरकल्पादिः ततप्रतिपादकं श्रुतं २, तत् पुनः द्विभदं-चुल्लकप्पमुयं महाकप्पसुर्य, एकमल्पग्रन्थमल्यार्थ च, द्वितीय महाग्रन्थ 1 महार्थ च, शेषभेदाः प्रायो निगदसिद्धास्तथापि लेशतोऽप्रसिद्धतरान् व्याख्यास्यामः, जीवादीनां प्रज्ञापन प्रज्ञापना वृहत्तरा महा-|
प्रज्ञापना, प्रमादाप्रमादस्वरूपभेदफलविपाकप्रतिपादकमध्ययुनं प्रमादाप्रमाद, प्रमादस्वरूपं महाकर्मेन्धनप्रभवाविध्यातदुःखानलज्वालाकलापपरीतमशेषमेव संसारवासगृह पश्यस्तन्मध्यवर्त्यपि सति तभिर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतधर्मचिन्तामणी यतो विधि
+4%A4%955
दीप अनुक्रम [१३७]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: ... अत्र श्रुतपुरुषस्य द्वादश-अङ्गानां स्पष्टीकरणं दीयते | ... अथ अंगबाह्य-सूत्राणां भेदा: प्रदर्शयते तन्मध्ये कालिक-उत्कालिक सूत्राणां वर्णनं
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आगम (४४)
[भाग-7] “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
........... मूलं ४४] / गाथा ||८१...|| ......
प्रत
सूत्रांक
[४४]
गाथा ||८१..||
REKHE
-
नन्दी- त्रकर्मोदयसाचिव्यजनितात् परिणामविशेषादपश्यचिव तद्भयमविगणय्य विशिष्टपरलांकाक्रयाविमुख एवास्ते सत्त्वः स खलु प्रमाद का हारिभद्रीय ति, तद्भेदाः मयादयस्तत्कारणत्वाद, उक्तन्च-"मज्जं विसय कसाया णिहा विगहा य पंचमी भणिया । " फलविपाको दारु-12"
xणः, उक्तं च-'श्रेया विषमुपभोक्तुं क्षम भवेत् क्रीडितुं हुताशेन । संसारबन्धनगतेने तु प्रमादः क्षमः कर्तुम् ॥१॥ अस्यामेवी ॥११॥ हि जातौ नरमुपदन्याद्विषं हुताशो वा । आसेवितः प्रमादो हन्याज्जन्मान्तरशतानि ।। २॥ यत्र प्रयान्ति पुरुषाः स्वर्ग यच्च
प्रयान्ति विनिपातम् । तत्र निमित्तमनार्यः प्रमाद इति निश्चितमिदं मे ॥ ३॥ संसारबन्धनगतो जातिजराव्याधिमरणदुःखातेः । यमोद्विजते सत्वः सबपराधः प्रमादस्य ॥ ४ ॥ आज्ञाप्यते यदवशः तुल्योदरपाणिपादवदनेन । कर्म च करोति बहुविधमेतदपि फलं प्रमादस्य ॥५॥ इह हि प्रमत्तमनसः सोन्मादवदनिभृतेन्द्रियाचपलाः। यत् कृत्यं तदकत्वा सततमकार्येप्वाभपतन्ति ॥ ६ ॥ नेपामाभिपतितानामुद्धान्तानां प्रमत्तहृदयानाम् । बर्द्धन्त एव दोषाः बनतरव इवाम्बुसेकेन | ॥७॥ दृष्ट्वाऽप्यालोकं नैव विश्रम्भितव्यं, तीरं नीताऽपि भ्राम्यते वायुना नौः । लब्ध्वा वैराग्यं भ्रष्टयोगः प्रमादाच्चित्रं व्याव
तो ब्रह्मदत्तो नरेशः ॥ ८॥ इत्यादि, एवं प्रतिपक्षद्वारेणाप्रमादस्वरूपादयो वाच्या इति, 'नन्दी' स्यादि सुगम, सूर्यप्रज्ञप्तिः ४ सूर्यचरितप्रज्ञापनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा सूर्यप्रज्ञप्तिः, पौरुषीमण्डलं पुरुषःशंकुः शरीरं वा तस्मानिष्पना पौरुषी द्वयम्, अत्र भावलीना-यदा सर्वस्य वस्तुनः स्वप्रमाणा छायोपजायते तदा पौरुपीति, एतच्च पौरुषीमानं उत्तरायणान्ते दक्षिणायनादौ चैकं दिन
भवति, तत ऊर्ध्वमंगुलस्याष्टायेकपष्टिभागा दक्षिणायने वर्द्धन्ते उत्तरायणे च इसतीति, एवं यत्र पौरुषी मण्डले मण्डलेऽन्याऽन्या प्रतिपायते तदध्ययनं पौरुषीमण्डलं । मण्डलमषेशः, यत्र हि चन्द्रसूर्ययोर्दक्षिणोत्तरेषु मण्डलेषु मण्डलान्मण्डलप्रवेषो व्यावय॑ते
दीप अनुक्रम [१३७]
SUKKRRC
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.... मूलं ४४] / गाथा ||८१...||
नन्दीहारभद्रीय
वृत्ती
श्रुत
प्रत सूत्रांक [४४]
गाथा ||८१..||
॥९२॥
| तदध्ययन मण्डलप्रवेश इति । विद्याचरणविनिश्चयः विधेति ज्ञानं तच्च दर्शनसहचारितम् , अन्यथाऽभावात, चरणं चारित्रं एतेषां 18/उत्कालिक | फलविनिश्चयप्रतिपादको ग्रन्थः विद्याचरणविनिश्चय इति । गणिविद्या गुणगणोऽस्यास्तीति गणी, स चाचार्यः, तस्य विद्याज्ञानं गणिविद्या, तत्राविशेषेऽप्ययं विशेषः-'जोतिसणिमित्तणाणं गणिणो पन्यावणादिकज्जसु । उपयुज्जर तिहिकरणादिजाणणत्थबहा दोसो ॥१॥ ध्यानविभक्तिः-ध्यानानि-आध्यानादीनि तेषां विमजन यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा ध्यानविभक्तिः, मरणानि प्राणत्यागलक्षणानि अनुसमयादीनि वर्तन्ते, यथोक्तम्-'अणुसमयं सतरं चेत्यादि, एतेषां विभजनं यस्यां सा मरपविभक्तिः। आत्मनो-जीवस्यालोचनाप्रायश्चित्तप्रतिपच्यादिप्रकारेण विशुध्धिः कमविगमलक्षणा प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनं आत्मविशुद्धिः। वीतरागश्रुतं सरागव्यपोहेन वीतरागस्वरूप प्रतिपाद्यते यत्राध्ययने तद्वीतरागश्रुतं, संलेखनाश्रुतं द्रव्यभावसंले- खना प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनं संलेखनाथुतं, तत्र द्रव्यसंलेखनोत्सर्गत:--'चचारि विचित्ताई विगतीणिज्जूाहियाई चत्वारि ।।* संवच्छरे य दोनि उ एगंतरियं च आयामं ॥१॥ णातिविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं । अमेवि य छम्मासे होति विगिट्ठ तबोकम्मं ।। २॥ वासं कोडीसहिअं आयाम काउमाणुपुबीए । गिरिकंदरं तु गंतुं पादवगमणं अह करेति ॥ ३॥ मावसंलेखना तु क्रोधादिकपायप्रतिपक्षाभ्यास इति । विहारकल्पः विहरणं विहारः तस्य कल्पो-व्यवस्था स्थविरकल्पादीना-2 मुच्यते यत्र प्रन्थेऽसौ विहारकल्पः । चरणविधिः चरणं ब्रतादि, तथा चोक्तम्-वयसमणधम्म गाहा, एततप्रतिपादकमध्ययनं 31
IN||९२॥ चरणविधिः। आतुरप्रत्याख्यानं आतुर:-क्रियाऽतीतो ग्लानस्तस्य प्रत्याख्यान, एत्थ विधी-गिलाणं किरियातीतं गाउं गीय-15 |स्था पच्चक्खावेंति दिणे २ दब्बहासं करेन्ता सन्तः अंते य सव्वदच्वदायणाए भत्ते वेरग्गं जणेचा भत्ते णित्तण्हस्स भवचरिमप-12
दीप अनुक्रम [१३७]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[४४]
गाथा
||..||
दीप अनुक्रम [१३७]
नन्दीहारिभद्गीय
वृत्तौ
॥ ९३ ॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [४४] / गाथा ||८१...||
चक्खाणं कारेंति, एवं जत्थ अज्झयणे सवित्थरं वण्णिज्जति तदज्झयणं आउरपच्चक्खाणं, महाप्रत्याख्यानं महच्च तत् प्रत्याख्यानं चेति समासः, एसित्थ भावत्थो थेरकप्पेण जिणकप्पेण वा विहरेता अंते थेरकप्पिया वारसवासे संलेह करेत्ता जिणकप्पिया पुण विहारेणेव संलीढा तहावि जहाजुतं संलेहं करेता निव्वाघातं सचेा चैव भवचरिमं पच्चकखंति, एवं सवित्थरं जत्थऽज्झयण वण्णिज्जह तमज्ययणं महापच्चक्खाणं । एयाणि अज्झयणाणि जहा अभिधाणत्थाणि तहा वण्णियाणि, 'सेत' मित्यादि निग मनं, तदेतदुत्कालिकं, उपलक्षणं चैतदित्युक्तमुत्कालिकं ॥ ' से किं तमित्यादि, अथ किं तत् कालिकं १, कालिकमनेकाविधं प्रज्ञतं, तद्यथा--उत्तराध्ययनानि उत्तराणि - प्रधानानि रूढ्या चोत्तराध्ययनानि, 'देशे' त्यादि प्रायो निगदसिद्ध, निशीथवन्निशीथं इदं प्रतीतमेव, अस्मादेव ग्रन्थार्थाभ्यां महत्तरं महानिशीथं, जम्बुद्वीपप्रज्ञसिः, इहावलिकाप्रविष्टेतर विमानप्रविभजनं यत्राध्ययने तद्विमानप्रविभक्तिः, तच्चैकमल्पग्रन्थार्थं तथाऽन्यन्महाग्रन्थार्थ, अतः क्षुल्लिका विमानप्रविभक्तिर्महती विमानप्रविभक्तिरिति । अङ्गचूलिका अंगस्य- आचारांदे चूलिका अंगचूलिका, यथाऽऽचारस्यानेकविधा इहोक्तानुक्तार्थसंगहात्मिका चूलिका वर्गचूलिका, इह वर्गोऽध्ययनादिसमूह:, यथाऽन्तकृदशास्वष्ट वर्गा इत्यादि तेषां चूलिका २, व्याख्या- भगवतीत्यस्याश्चूलिका २, अरुणोपपातः, इहारुणो नाम देवस्तत्समयनिबद्धो ग्रन्थस्तदुपपातहेतुः अरुणोपपातः, जाहे तमज्झयणं उबउत्ते समाणे समणे परियट्टेति ताहे से अरुणे देवे ससमयनिवद्धत्तणाओ चलियासणे सभमुन्भन्तलोयणे पउत्तावही वियाणिय हट्ठपट्टे चलचवलकुंडलधरे दिव्वाए जुतीए दिव्वाए विभूईए दिव्वाए गतीए जेणामेव से भगवं समणे तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता भत्तिभरोणयवयणे विमुकवरकुसुमवासे ओवयति, ओवतित्ता ताहे से समणस्स पुरतो ठिच्चा अंतधिए कयंजलिए उवउसे संवेगविसुज्झमा
कालिकधुतं
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।। ९३ ।।
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
.... मूलं [४४] / गाथा ||८१...||
प्रत
हारिभद्रीय
सूत्रांक
॥९
॥
[४४] गाथा ॥८१..||
ठाणझवसाणे सुणेमाणे चिट्ठइ, समत्ते य भणइ-सुसज्झाइयं २, वरं वरेहिति, ततो से इहलोगणिपिपासे समतिणमणिमुचलेठुकंचणे कालिकश्रुत | सिद्धिवधूणिन्भरणुरायचिने समणे पडिभण-ण मे वरेण अष्टोनि, ततो से अरुणदेवे अधिगतरजातसंवेगे पयाहिण करेत्ता बंदि-12
सा णमंसित्ता पडिगच्छइ, एवं वरुणोववायादिसुषि भाणियव्वं, उत्थानश्रुतं अध्ययनं तं पुण सिंगणाइयकज्जेसु जस्सेगकु४ लस्स वा गामस्स वा जाव रायहाणीए वा सच्चेव समणे कयसंकप्पे आसुरुते अप्पस अप्पसनलेसे विसमासणत्थे उपउत्ते समादागे उहाणसुअज्झयणं परियट्रेति एक्कं दो तिमि वा बारे, ताहे से कुले बा गामे वा जाव रायहाणी वा ओहयमणसंकप्पे बिलवते
दुर्ग २ पहावंते उडेति, उब्बसतित्ति वुतं भवति, तथा समुत्थानश्रुतं अध्ययनं तं पुण समत्वकज्जे तस्सव कुलस्स या गामस्स वा जाव रायहाणीए वा सञ्चेव समणे कयसकप्ये तुढे पसण्णे पसण्णलेसे सममुहासणत्थे उवउत्ते समाणे समुट्ठाणसुतज्झयणं परियडूति एक दो तिमि वा वारे, ताहे से कुले वा जावं रायहाणीए वा पदचित्ते पसत्रमणे कलयलं कुणमाण मंदाए गतीए सललिये आगच्छद २ ता समुद्रुति, आवासेतित्ति वुत्तं भवतीत्यर्थः, एवं कयसंकप्पस्स परियट्टिन्तस्स पुन्बुट्टितं समुढेति । णागपरियावणियाओ नागपरिज्ञा, नागात्त-नागकुमारा तस्समयणिबद्धमज्झयण, से जया समणे उवउत्ते परिपट्टेति तदाऽकयसंकप्पस्सवि ते णागकुमारा तस्थस्था चेव तं समणं परियाणंति वंदंति नमसंति बहुमाणं च करेंति, सिंगणादियकज्जेसु य वरदा भवन्तीत्यर्थः,
G ॥९४॥ णिरयावलिया जासु आवलियपविद्वेतरे य णिरया तग्गामिणो य णरतिरिया पसंगओ वमिति । कप्पियाउत्ति सौधर्मादिकल्पगतवक्तव्यतागोचरा प्रन्थपद्धतयः कल्पिका उच्यन्ते । एवं कल्पावसंसिकाः सोधम्मीसाणकप्पेसु जाणि कप्पषिमाणाणि ताण कप्पवर्टिसयाणि, तेसु य देवीओ जा जेण तबोविससेण उवक्त्रा इष्टुिं च पत्ता एवं चमिति जासु ताओ कप्षयडेंसियाओ बु
दीप अनुक्रम [१३७]
N-CAR
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
..... मूलं ४४] / गाथा ||८१...||
प्रत
सूत्रांक
[४४] गाथा ||८१..||
नन्दी
हा चंति । तथा पुफियाउत्ति इह यासु ग्रन्थपतिषु गृहबासमुत्कलनपरित्यागेन प्राणिनः संयमभावपुषिताः मुखिताः पुनः संय-10 हारिभद्रीय
मभावपरित्यागतो दुःखावाप्तिमुकुलिताः पुनस्तत्परित्यागादेव पुष्पिताः प्रतिपाद्यन्ते वाः पुष्पिता उच्यन्ते । अधिकृतार्थविशे-कालिकश्रुतं वृत्ती
पप्रतिपादकास्तु पुष्पचूला इति । तथा अन्धकवृष्णिनराधिपवक्तव्यताविषया अन्धकवृष्णिदशा उच्यन्ते । 'एव-14 ॥९५ ।। | माइयाई इच्चादि', एवमादीनि सर्वथा कियन्त्याख्यास्यन्त ?, चतुरशीतिप्रकीर्णकसहस्त्राणि ममवतोहतः श्रमिषभस्यादिती
र्थकरस्य तथा संख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि मध्यमानां-अजितादीनां पार्चपर्यन्तानां जिनवराणां, तीर्थकराणामित्यर्थः, एतानि च यावन्ति तानि प्रथमानुयोगतोऽजसेयानि, तथा चतुर्दश प्रकीर्णकसहस्राणि अर्हतः, कस्य', बर्द्धमानस्वामिनः, अयमत्र भावार्थ:-भगवता उसहस्स चउरासीति समणसाहस्सितो होत्था, पयनगझयणाणि य सव्वाणि कालियउक्कालियाणं चउरासीतिसहस्साणि, कथं , यतो ताणि चउरासीतिसमणसहस्साणि अरहंतमग्गोबदिवे ज सुयमणसरिता किंचि णिज्जूहंते ताणि सम्बाणि: पतिनगाणि, अहवा मुयमणुसारतो अपणो वयणकोसलचण जे धम्मदेसणादिसु भासते तं सब पहनग, जम्हा अणन्तगमपज्ज.. सुर दिह, तं च वयणं णियमा अजयरगमाणुवाती तम्हा तं पइन्नग, एवं चउरासीतिपइन्नगसहस्साणि भवतीत्यर्थः, एएण! विहिणा मज्झिमतित्थगराणं संखेज्जाई पइन्नगसहस्साणि, समणस्सवि भगवओ महावीरस्स जम्हा चोइस समणसाहस्सीओ उको-४ | सिया समणसम्पया तम्हा चोहसपाइयज्झयणसहस्साणि भवंति, एत्थ पुण एगे आयरिया एवं पत्राविति-किल एतं चुलसीइसह- स्सााद उसमादिजिणवराणं समणपरिमाणं पहाणमुत्तणिन्जूहणसमत्थे समणे पटुच्च भणियं, सामन्त्रसमणा पुण बहुतरा तत्काल
॥९५॥ अने भणंति उसभादीणं भवत्थाणं संचराणं एतं चुलसीदिसहस्सादिगं पमाण, पवाहेण पुणो एगतित्थेमु बहुमा दहण्या, तस्य जेल
SECRECRACK
दीप अनुक्रम [१३७]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
... मूलं ४५-४६] / गाथा ||८१...||
प्रत
B5*555
आचारांग
सूत्रांक
[४५-४६]
गाथा ||८१..||
नन्दी- पमाणभूयसुत्तणिज्जूहणसमत्था अनकालिगावि ते एत्य अहिगया, एए ते सुप्पसिद्धप्पइन्नगणिज्जूहगा चेव ददुव्वा, यत आह- हारिभद्रायाला अथवेत्यादि, अथवेति प्रकारान्तरप्रदर्शन, यस्य ऋषभादेस्तीर्थकृतः यावन्तः शिष्या औत्पत्तिक्या वैनयिक्या कर्मजया पारि-
वृता राणामिक्या च चतुर्विधया बुध्ध्या उपपेताः-समन्विताः तस्य तावन्त्येव प्रकीर्णकसहस्राणि, प्रत्येकघुद्धा अपि तावन्त एव, अत्रै-18 १९६४के व्याचक्षते-किल प्रत्येकबुद्धब्धान्येव तान्यवगन्तव्यानि, प्रकीणकप्रमाणेन प्रत्येकबुद्धप्रमाणप्रतिपादनात, स्यादेतत्-प्रत्येक
द्धानां शिष्यभावो विरुध्यत इति, एतदप्यसत् , तेषां प्रत्येकबुद्धत्वादाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावस्य निषिद्धत्वात्, तीर्थकरप्रणीतशासनप्रतिपन्नत्वेन तु तच्छिष्यभावो न विरुध्यत इति, अन्ये पुनरित्थमभिदधति सामान्येनेह प्रकीणकैस्तुल्यत्वात् प्रत्येकबुद्धानामत्राभिधानं, न तु नियोगतः प्रत्येकबुद्धदृब्धानि प्रकीर्णकाणीत्यलं विस्तरेण । 'सेत' मित्यादि, तदेतत् कालिक, तदेतदावश्यकव्य| तिरिक्तं, तदेतदनंगप्रविष्टमिति ॥
'से किंत'मित्यादि (४५-२०९)।। अथ किं तदंगप्रविष्टम् , अंगप्रविष्ट द्वादशविध प्रज्ञप्त, तद्यथा-आचारः सूत्रकृतमित्यादि ।
'से किंत'मित्यादि ।।(४६-२०९)॥ अथ किं तदाचारवस्तु, यद्धा अथ कोऽयमाचारः?, आचरणमाचारः आचर्यत इति वा आचारः शिष्टाचरितो बानाद्यासेवनविधिरिति भावार्थः, तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्याचार एवोच्यते, अनेन चाचारेण करणभूतेन श्रमणानामाचारादि आख्यायत इति योगः, अथवा आचारे णमिति वाक्यालंकारे श्रमणानां प्राग्निरूपितशब्दार्थानां निम्रन्थानां बाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहिताना, आह-श्रमणा निग्रन्था एव भवन्ति, विशेषणं किमर्थी, उच्यते, शाक्यादिव्यवच्छेदार्थ, उक्तं च|"निगंथ सक तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा" तत्राचारो ज्ञानाद्यनेकभेदभिन्नो गोचरो-भिक्षाग्रहणविधिलक्षणः विनयो ज्ञानादि
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॥ ९६
दीप अनुक्रम [१३८१३९]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः | ... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'आचार' सूत्रस्य वर्णनं |
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[४५-४६] गाथा
॥८९.. ।।
दीप
अनुक्रम
[१३८
१३९]
नन्दी
हारिभूद्रीय वृचौ
॥ ९७ ॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [४५-४६] / गाथा ||८१...||
वैनयिकं फलं कर्मक्षयादि शिक्षा ग्रहणासेवनाभेदभिन्ना, विनेयशिक्षेत्यन्ये विनेयः शिष्यः, भाषा सत्या १ असत्यामृषा २ च अभाषा असत्या १ सत्यामृपा २ वा चरणं व्रतादि करणं-पिण्डविशुध्ध्यादि 'जातामातविसीओ 'ति यात्रा- संयमयात्रा मात्रा तदर्थमेवाहारमात्रा वर्त्तनं वृत्तिः, विविधेरभिग्रहविशेपैरिति, आचारथ गोचरवेत्यादिद्वन्द्वः क्रियते, ततथाचारगोचरविनयवैनयिक शिक्षामापाचरणकरणयात्रामात्रावृत्तय आख्यायन्ते इह च यत्र क्वचिदन्यतरोपादाने अन्यतरगतार्थाभिधानं तत् सर्व तत्प्राधान्यख्यापनार्थमेवावसेयं, सो य समासती इत्यादि, स आचारः समासतः संक्षेपतः पंचविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा ज्ञानाचारः- काले विषए बहुमाणे उवहाणे तह अनिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभए अडविहो णाणमायारो ॥ १ ॥ दर्शनाचार:- 'मिस्संकिय णिकखिय निव्वितिगिच्छा अमृढदिट्ठी य । उधवूह थिरीकरणे वच्छल पभावणे अड्ड || २ || अतिसेस इड्डि आयरिय वादि धम्मकधि खमग मिती । दिज्जा राया गणसम्मया य तित्थं पभावेति ॥ ३ ॥ चारित्राचारः पणिहाणजोगजुतो पंचहिं समितिहिं तिहि य गुतीहि । एस चरितायारो अट्ठविहो होति नायब्यो ॥ ४ ॥ तथाचारः चारसविहम्मिवि तवे सम्भितरबाहिरे जिणुवदिट्टे । अगिलाऍ अणाजीची णायव्वो सो तवायारो ।। ५ ।। वीर्याचारः अणिगृहियवलविरिओ परक्कमह जो जहुत्तमाउत्तो। जुंजति य जहाथामं णायण्यो वीरियायारो || ४ || 'आधारे णं परिता वायणा' आचारे णमिति वाक्यालंकारे परित्ता-संख्येयाः, आद्यन्तोपलब्धेरनन्ता न भवतीत्यर्थः, का?, वाचनाः-सूत्रार्थप्रदानलक्षणाः, अवसर्पिणीकालं वा प्रतीत्य, परित्तत्ति संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि अध्ययनानामेव संख्येयत्वात् प्रज्ञापकवचन गोचरत्वात् संखेज्जा वेढा, बेढा छन्दोविशेषा, संखेला सिलोगा श्लोकाः प्रतीता अनुष्टुप छन्दसा, संखेज्जाओ णिज्जुतीओ नियुक्तानां युक्तिर्नियुक्तयुक्तिरिति वाच्ये युक्तशब्द लो
आचारांग
110~
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४ ] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
... मूलं ४५-४६] / गाथा ||८१...||
(४४)
प्रत
आचार
सूत्रांक
प्रची
*4%AE
[४५-४६]
गाथा ||८१..||
नन्दी- पानियुक्तिरिति, एताश्च निक्षपनियुक्त्याधाः संख्येया इति, संखेज्जाओ परिवत्तीओ द्रव्यादिपदार्थाभ्युपगमाः प्रतिपत्तय', प्रतिहारभद्रीय वायभिग्रहविशेषा वा 'से ण' मित्यादि, स आचारः णमिति बाक्यालंकारे अंगार्थतया अंगायत्येन, अर्थग्रहण परलोकचिंता
प्रति सत्रादर्थस्य गरीयस्त्वख्यापनार्थ, सत्रार्थोभयरूपो वाऽयमिति ख्यापनार्थ प्रथममंग स्थापनामधिकृत्यायमंगमित्यर्थः, द्वौर ॥९८॥
श्रुतस्कन्धी अध्ययनसमुदायलक्षणी, पंचविंशतिरध्ययनानि, तयथा- सत्थपरिमा १ लोगविजयो २ सीतोसणिज्ज ३ सम्म ४ आवंति ५ धुन ६ विमोहो ७ महापरिन्नो ८ वहाणसुये ९॥ १० ॥ पढमो सुबखंधो । पिंडेसण १ सेज्जि २ रिया ३ भासज्जाया य ४ वत्थ ५ पाएसा ६ | उग्गहपडिमा ७ सत्त य सचिकया ७ भावण १५ विमुत्ती १६ ॥ २॥ एवमेतानि निशीथवाजोनि पंचविंशतिरध्ययनानि, तथा पंचाशीत्युद्देशनकालाः, कथं , उच्यते, अंगस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्योद्देशकस्य च एतेषां चतुर्णामप्येक एव, एवं सत्थपरिभाए सत्त उद्देसणकाला, लोगविजयस्स छ सीओसणिज्जस्स चउरो संमत्तस्स चउरो लोगसारस्स छ धुतस्स* पंच एवं विमोहज्झयणस्स अट्ठ, महापरिआए सत्त७ उवहाणसुत्तस्स चउरो, पिंडेसणाए एकारस ११ सेज्जाए तिमि ३इरियाए द तिनि ३ भासज्जाए दोनि २ वत्थेसणाए दो २पाएसणाएं दो २ उग्गहपडिमाए दोनि २ सत्तिक्याए सत्त ७ भावणाए एको १
विमुत्तीए एको१, एवमेए संपिडिया पंचासीई 'भवन्ति, एत्थ संगहगाहा-सत्त य छच्चउ चउरो छ पंच अढेच सच चउरो य ।
एकार ति तिय दो दो दो दो सचेक एको य ॥१॥ एवं समुद्देशनकालावि भाणियब्वा । अष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण, इह यित्रार्थोपलब्धिस्तत् पदं, चोदक आह. यदि दो सुतक्खंधा पणुवीसं अायणाणि अट्ठारस पदसहस्राणि पदग्गेणं भवन्ति तो जैसे
भाणयं 'णवयंभचरमइओ अट्ठारसपदसहस्सियो बेउ'त्ति एवं विरुज्झइ, आचार्य आह-णणु एत्थवि भाणियं 'हवह य सपंचचूलो
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॥९८॥
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(४४)
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सूत्रांक
[४५-४६]
गाथा
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अनुक्रम
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१३९]
नन्दीहारिभद्रीय वृचौ
॥ ९९ ॥
[भाग-7] "नन्दी"- चूलिकासूत्र- १ (मूलं+ वृत्तिः)
मूलं [४५-४६] / गाथा || ८१...||
बहुबहुअयरो पयग्गेणं'ति, इह सुत्तालावयपदेहिं सहितो बहु बहुयरो य वक्तव्य इत्यर्थः, अथवा दो सुयखंभा पणुवीसं अज्झयणानि एवं आयारग्गसहितस्स आयारस्स प्रमाणं भाषियं अट्ठासपयसहस्साणि पुण पढमसुयक्खंधस्स णवंभचेरमतियस्स् पमाणं, विचितत्थवद्धाणि य सुत्ताणि गुरुवदेसतो तेसिं अत्थो जाणियम्वो, संखेज्जा अक्वरा संख्येयान्यक्षराणि, वेढादीनां संख्येयत्वात्, अणन्ता गमाः इह गमा अर्थगमा गृहयन्ते, अर्थपरिच्छेदा इत्यर्थः ते चानन्ताः, एकस्मादेव सूत्रात्तद्धर्मविशिष्टानन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपत्तेः अन्ये तु व्याचक्षते अभिधानाभिधेयवशतो गमा इति, ते चानन्ताः, ते पुनरनेन विधिना अवसेयास्तद्यथा सुयं मे आउ ! ते भगवया आउसंत भगवया सुयं मे आउसंवदा, सुर्य मे आउसे तर्हि सुर्य मे आउर्स, आउसे सुयं मे, आसुर्य मया तूं सुयं मया, आ तथा सुयं मया, आ तर्हि सुयं मया आ, एवमादिभिर्भण्यमानं किलानन्तगममिति, अनंता पज्जया स्वपरभेदभिना, अक्षरार्थपर्याया इत्यर्थः, परिता तसा व्यस्यन्तीति त्रसा-द्वीद्रियादयस्ते च परिचा, अनंता थावरा वनस्पतिकायसहिताः परिगृह्यन्ते सासयकरणियद्धणिकाइयत्ति शाश्वता द्रव्यार्थतया ऽविच्छेदेन प्रवृत्तेः कृताः पर्यायार्थतया प्रतिसमयम न्यथात्वावाप्ता निवद्धाः सूत्र एव निकाचिता नियुक्तिसंग्रह। हेतूदाहरणादिभिः जिणपन्नत्ता जिनैः प्रज्ञप्ता भाषाः पदार्थः, आधविज्जतीत्यादि धुवगण्डिका पूर्ववत् । साम्प्रतमाचारांगग्रहणफलप्रतिपादनायाह से एव' मित्यादि, स इत्याचारंगग्राहकोऽभिसम्बध्यतेः एवं आपत्ति अस्मिन् भावतः सम्यगधीते सति एवमात्मा भवति, तदुक्तक्रियापरिणामात्माव्यतिरेकात् स एव भवतीत्यर्थः एवं क्रियासारमेव ज्ञानमिति ख्यापनार्थ क्रियापरिणाममभिधायाधुना ज्ञानमधिकृत्याह- 'एवं णाय'ति इदमधीत्य एवं ज्ञाता भवति यथैवेोक्तमिति, एवं विनायत्ति एवं विविधो विशिष्टो वा ज्ञाता विज्ञाता एवं विज्ञाता भवति, तन्त्रान्तरीय
सूत्रकृतांगं
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ••• अत्र मूल संपादने सूत्रकृतांग इति मुद्रितं, तत् मुद्रण स्खलना मात्र, एते पृष्ठे 'आचार' सूत्र परिचय एव वर्तते
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[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
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सूत्रांक
[४५-४६] |
गाथा ||८१..||
नन्दा- ज्ञातृभ्यः प्रधानतर इत्यर्थः, एवं चरणकरणपरूवणया आधविज्जतीत्यादि, निगमनवाक्यं भावितार्थमेव ।।
सूत्रकृतांग हारिभद्रीय
से किं तं सूयगडे (४७-२१२)॥ 'सूच सूचायाँ' सूचनात सूत्र सूत्रेण कृतं गूत्रकृतं, तब लोक्यते अनेन वाऽस्मिन् वा वृत्ती
लोक सूच्यत इत्यादि निगदसिद्धं यावत् 'आसीतस्स किरियावादिसतस्स' अशीत्यधिकस्य क्रियावादिशतस्य, व्यूह ॥१०॥ कृत्वा स्वसमयः स्थाप्यत इति योगः, एवं शेषपदेष्वपि क्रिया योजनीयेति, तत्र न कर्तारं बिना क्रियासम्भव इति तामात्मसमवा-131
यिनी बदन्ति सच्छीलाच येते क्रियावादिनः, ते पुनरात्माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः अमुनोपायेनाशीत्यधिकशतसङ्कथा विज्ञेया, जीबाजीवाश्रवबन्धसंबरनिर्जरापुण्यपापमोक्षाख्यान् नव पदार्थान् विरचय परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदायुपन्यसनीयो, तयोरधो नित्यानित्यभेदो, तयोरप्यधः कालेश्वरात्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनथैवं विकल्पाः कर्तव्याः अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्चायं-विद्यते खल्वात्मा स्वेन रूपेण नित्यक्ष कालवादिनः, उक्तनवाभिलापेन ।
द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिनः, तृतीयो विकल्पः आत्मवादिनः 'पुरुष एवेदं सर्व मित्यादि, नियतिवादिनचतुर्थविकल्पः, पञ्चदिमविकल्पः स्वभाववादिनः, एवं. स्वत इत्यजहता लब्धाः पञ्च विकल्पाः, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एते विंशतिर्जीवपदार्थेन ।
लब्धाः, अजीवादिष्वप्यष्टस्त्रेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानाम् , अतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनामिति ।। 'चउरासीते अकिरियावादीणं चतुरशीतेरक्रियावादिनां, क्रिया पूर्ववत्, न हि कस्पचिदव्यवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया 13॥१०॥ समस्ति, तद्भावे चावस्थितेरभावादित्येवंवादिनोऽक्रियावादिनः, तथा चाहुरेके-"क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, अस्थितानां कुतः क्रिया। भूतिया क्रिया सैव, कारक सैव चोच्यत ॥१॥" इत्यादि, एते चारमादिनास्तित्वप्रतिपनिलक्षणा अमुनोपायन चतुरशीविद्रष्ट-19
दीप अनुक्रम [१३८
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः |... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'सूत्रकृत्' सूत्रस्य वर्णनं |
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
... मूलं [४७] / गाथा ||८१...||
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सूत्रांक
[४७] गाथा ||८१..||
कामचकांग नन्दा व्याः, एतेषां हि पुण्यापुण्यविवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव जीवस्याधः स्वपरविकल्पभेदद्वयोपन्यासः, असत्वादात्मनो नित्याहारिभद्रीय
स्थानांग च वृत्तौ IN
नित्यभेदी न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां पष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, पश्चाद्विकल्पाभिलापः नास्ति जीवः स्वतः कालत इत्यादयः पडेच 2
विकल्पाः, एकत्र द्वादश, एवमजीवादिपपि षट्सु प्रतिपदं द्वादश विकल्पाः, एवं द्वादश सप्तगुणाश्चतुरशीतिविकल्पा नास्तिका-1 ॥१०॥ नामिति । 'सत्तट्ठीए अन्नाणियवादीण' ति सप्तषष्टिरज्ञानिकवादिना, क्रिया प्राग्वत , तत्र कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्तीत्य
ज्ञानिकाः, नचैवं लघुत्वात् प्रक्रमस्य प्राग् बहुव्रीहिणा भवितव्यं, ततश्चाजाना इति स्यात्, नैष दोषः, ज्ञानान्तरमेवाज्ञान, मिथ्यादर्शनसहचरित्वात्। ततश्च जातिशब्दत्वात् गौरखरवदरण्यमित्यादिवदवानिकत्वमिति, अथवा अज्ञानेन चरन्ति तत्प्रयोजना वा अज्ञानिकाः, असंचित्यकृतपन्धवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणाः, तेच अमुनोपायेन सप्तपष्टिातव्याः, तत्र जीवादीन् नव पदार्थान पूर्ववत् । व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादयः उपन्यसनीयाः, सत्त्वमसत्वं सदसवं अवाच्यत्वं सदवाच्यत्वं असदवाच्यत्वं सदसदवाच्यत्वमिति च, एकैकस्य जीवादेः सप्त सप्त विकल्पात एते नव सप्तकाः त्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्तु चत्वार एवाचा विकल्पाः | तयथा-सत्त्वमसचं सदसच्च अवाच्यत्वं चेति, त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्ताः सप्तपष्टिर्भवन्ति, को जानाति जीवः समित्येको विकल्पः, ज्ञातेन वा किं, एवं असदादयोऽपि वाच्याः, उत्पत्तिरपि किं सतोऽसतो सदसतोऽवाच्यस्येति वा को जानातीत्येतत्, न कश्चि
दपीत्यभिप्राय: 'बत्तीसाए घेणइयवादीणं' द्वात्रिंशतो वैनयिकवादिना, क्रिया पूर्ववत्, तत्र विनयेन चरन्ति बिनयो वा प्रयोग जिनमेपामिति वैनयिका, एते चानवधृतलिङ्गाचारशास्त्रा विनयप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन द्वात्रिंशदवगन्तव्याः सुरनृपतिज्ञा लतियसिस्थविराधममातृपितृणां प्रत्येकं कायेन वाचा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्यः इत्येते चत्वारो भेदाः सुरा-14
ESSARKEST-SERE
दीप अनुक्रम [१४०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः | ... अत्र मूल संपादने सूत्रकृतांग-स्थानांग इति मुद्रितं, तत् मुद्रण स्खलना मात्र, एते पृष्ठे 'सूत्रकृतांग' सूत्र परिचय एव वर्तते
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आगम
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
.... मूलं ४७-४९] | गाथा ||८१...||
(४४)
प्रत
नन्दी
हारिभद्रीय
दया
सूत्रांक
पत्ती"
॥१०२॥
[४७-४९]
गाथा ||८१..||
दिवष्टसु स्थानेषु, एकत्र मेलिता द्वात्रिंशदिति । सर्वसङ्ख्या प्रतिपादयबाह-'तिण्हं तेसट्ठाण' मित्यादि, त्रयाणां त्रिषष्ट्याधि- समबायाकानां प्राबादुकशतानां, विचित्रकैकनयमतावलम्बिना प्रवादिशतानामित्यर्थः, ब्यूह-प्रतिक्षेपं कृत्वा स्वसमयः स्वसिद्धान्तः | स्थापते, शेष किंचित् व्याख्यातं किंचित् सुगममिति यावत् 'सेते सूयगडे' ति कण्ठ्यम् ॥
'से किंत'मित्यादि ॥(४८.२३८)।। अथ किं तत् स्थानं ?, तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानं, तथा चाह'ठाणे ण' मित्यादि, स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते, व्यवस्थितस्वरूपप्रतिपादनायेति हृदय, शेष प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं 'टंक'त्ति छिनतई टरकं 'कति पश्यतोवर, जहा बेयस्सोवरिं नव सिद्धाययणादिया कडा, 'सेल ति हिमवंतादिया || | सेला, 'सिहरिणीति सिहरेण सिहरिणोति, ते यं वेयढाइया 'पन्भार'त्ति जं कूड उवरि अंबखज्जुयं तं पम्भारं,जं वा पन्बयस्स 8 उवरिभागे हरिथकुंभागिती कुहुहं णिग्गय तं पम्भार भन्नइ 'कुंड'त्ति गंगादीणि कुंडानि 'गुहति तिमिसादिया गुहा 'आगरा | रुप्पसुवबरयणादिउप्पत्तिवाणा आगरा 'वह'त्ति पोंडरीयादीया दहाणदीउति गंगासिंधुमादीओ, शेष क्षुण्णार्थ यावनिगमनमिति । ___'से किं तमित्यादि (४९-२२९॥ अथ कोऽयं समवायः!, सम् अब अयः समवायः,सम्यगधिकपरिच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुकच ग्रन्थोऽपि समवायः,तथा चाह-समवायेन समवाय वा जीचाः समाश्रीयन्ते, अविपरीतस्वरूपगुणभूषिता बुध्ध्या अंगीक्रियन्त इत्यर्थः, अथवा जीवाः समस्यन्ते-कुप्ररूपणाभ्यः सम्यकारूपणायां विप्यन्ते. शेष निगदसिद्धमानिगमनम् । नवरं 'एगादियाण
॥१०२॥ PIमित्यादि, अत्रकायेकोचरं स्थानशतं भवति, यथा 'एगे आया' इत्यादि, शेष पत्रसिद्धं यावभिगमनमिति ।
दीप अनुक्रम [१४०१४२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: |... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'स्थान एवं समवाय' सूत्रयो: वर्णनं ।
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आगम
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............ मूलं ५०-५१] / गाथा ||८१...|| ....
(४४)
प्रत
सूत्रांक
शातधर्मकथायाः
[५०-५१]
गाथा ||८१..||
॥१०॥
नन्दी
'से कि तमित्यादि।(५०-२२९॥अथ केयं व्याख्या?,व्याख्यानं व्याख्या,तथा चाह-व्याख्या जीचादयो व्याख्यायन्ते, हारिभद्रीय इह सब चेव अज्झयणसन, शेप प्रकटार्थ यावत् 'सेतं विवाहेति निगमनम् ॥ वृत्ती
'से किं तमित्यादि ।।(५१-२३०)।। अथ कास्ताः ज्ञाताधर्मकथा:?,ज्ञातानि-उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथाः ज्ञाताधर्म कथाः,आह च-'णायाधम्मकहासु णं इत्यादि,जाताना-उदाहरणभूतानां नगरादीनि व्याख्यायन्ते, 'दस धम्मकहाणं घग्गा इत्यादि, एत्थ भावणा-एगूणवीसं णायज्झयणाणि,णायत्ति आहरणा, दिट्ठतिओ उवाणिज्जति जेहिं वा ताणि गाताणि-अझयणा, | एए पढमसुपखंघे, अहिंसादिलक्खणस्स धम्मस्स कहाओ धम्मकहाओ धम्मियाओ वा कहाओ धम्मकथाओ, अक्खाणगत्ति वुत्तर भवति, एयाणि वितियमुयखंधे, पढमबितियसुयखंधमणियाणं णायाधम्मकहाण नगरादिया भति, चितियसुपखंधे दस धम्मकहाणं वग्गा, वग्गोचि समूहो, तव्विसेसणविसिट्ठा दस अज्झयणा चेव ते ददृण्वा, एगूणवीस णाया दस धम्मकहाओ, तत्थ णातेसु आदिमा दस गाता गाया चेव, ण तेसु अक्खादियादिसमवो, सेसा णव गाया, तेसु पुण एकेके जाते पंच २ चत्तालाई अक्खाइयासयाई, एत्थवि एकेकाए अक्खाइयाए पंच २ उवक्खाइयसयाई, तत्थवि एकेकाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयोबक्खाइयसगाई, एवमेयाई संपिडियाई,कि संजायं, एगीसं कोडिसयं लक्खा पन्नासमेव बोद्धया। एवं ठिते समाणे अधिगत-15 है सुत्तस्स पत्थावो ॥१॥ तंजहा दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्व ण एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयसयाई, एगमेगाए ॥१३॥ ठा अक्खाइयाए पंच २ उवक्खाइयसयाई, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच २ अक्खाइयोवक्खाइयसयाई, एवमेयाई संपिडियाई, कि,
संजात-"पणवीस कोडिसयं एत्थ य समलक्खणाझ्या जम्हा । णवणायगसंबद्धा अक्खाइयमाझ्या तेणं ॥१॥ते सोहिज्जति
दीप अनुक्रम [१४३- | १४४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः | ... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'विवाह-पन्नत्ति एवं ज्ञाताधर्मकथा' सूत्रयो: वर्णनं ।
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आगम
(४४)
प्रत सूत्रांक
[५२-५३]
गाथा
॥८९..।।
दीप
अनुक्रम
[१४५
१४६]
नन्दीहारिभद्रीय
वृचौ
॥१०४॥
[भाग-7] "नन्दी”- चूलिकासूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [५२-५३ ] / गाथा ||८१... ||
फुडं इमाओ रासीओ वेगलाणं तु । पुणरुत्तवज्जियाणं पमाणमित्थं विनिहिं ॥ २ ॥ सोधिए य समाणे अद्धट्ठाओ कहाणगकोडीओ चेव हवंति, अत एवाह एवमेव सपुष्वावरेण भणियपगारेणं, गुणणसोहणे कतेत्ति वृत्तं भवति, अध्धुट्ठाओ कहानयकोडीओ |भवतीतिमवखायं प्रकटार्थमित्येवं गुरवो व्याचक्षते, अन्ये पुनरन्यथा, तदभिप्रायं पुनर्वयमतिगम्भीरत्वान्नावगच्छामः, परमार्थ त्वत्र विशिष्टश्रुतविदो विदन्तीत्यलं प्रसंगेन, शेषं सुगमं यावत् 'संखेज्जा पदसयसहस्सा पदग्गेणं, ते य किल पंच लक्खा छात्रतारं च सहस्सा पदग्गेणं, अहवा सुत्तालावयपयग्गेण संखेज्जा पदसहस्सा भवंति एवं सव्वत्थ भावेयव्यं, शेषं सूत्रसिद्धं यावानगमनमिति ॥
'से किं तमित्यादि । (५२-३१) ।। उपासकाः श्रावकाः तद्गतक्रियाकलापनिबद्धा दशाः दशाध्ययनोपलक्षिताः उपासकदशाः, तथा चाह- 'उवासगदसासु' णं इत्यादि सूत्रसिद्धं यावत् 'संखेज्जा पदस (यस) हस्सा पदग्गेणं, ते च किल एकारस लक्खा बावनं परगेणं' ति शेषं कण्ठयमानिगमनमिति ।
'से किं त' मित्यादि (५३-२३२) अन्तो विनाशः स च कर्मणस्तत्फलभूतस्य वा संसारस्य कृतो वैस्तेऽन्तकृतस्ते च तीर्थकरादयस्तेषां दशाः प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तत्संख्यया अन्तकृद्दशा इति, तथा चाह- 'अंतकडदसासु ण' मित्यादि, पाठसिद्धं यावत् 'अतकिरियाओ' ति भवापेक्षया अन्त्याश्च ताः क्रियाश्चेति समासः, ताथ शैलेश्यवस्थाद्या गृशन्ते, शेषं प्रकटार्थ यावत् 'अट्ट बग्गा' एल्थ 'वग्गो' चि समूहो, सो य अंतगडाणं अज्झयणाणं वा, सव्याणि अज्झयणाणि जुगवं उद्दिसंति,
अन्तकृतादयः
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॥१०४॥
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः ••• अथ अंगप्रविष्ट सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'उपासकदशा एवं 'अंतकृत्दशा सूत्रयोः वर्णनं |
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आगम
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............ मूलं १४-५६] / गाथा ||८१...|| ......
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[५४-५६] |
गाथा ||८१..||
नन्दा अतो भणियं-अट्ठ उद्देसणाकाला, इच्चादि, संखेज्जा पदसहस्सा पयग्गेणं, ते य किल एवतिया-तेवीसं लक्खा चउरो य सहस्सा | विपाकहारिभद्रीय पदग्गेणं'ति, शेष सूत्रसिद्धं यावनिममनमिति ।
दृष्टिवादी वृत्ती हा
से किं तमित्यादि । (५४-२३३) ।। उत्तर:-प्रधानः, नास्योचरो विद्यत इति अनुत्तरः उपपतनमुपपातः जन्मेत्यर्थः, I ॥१०५॥ अनुत्तरः प्रधानः संसारेज्यस्य तथाविधस्याभावात् उपपातो येषामिति समासः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशाः दशाध्ययनोप
लक्षिता अनुत्तरोषपातिकदशाः, तथा चाह- 'अणुत्तरोववाइयदसासु णमित्यादि सूत्रसिद्धं यावत् तिनि 'वग्ग'त्ति इहाध्यनसमूहो वर्गः, वर्गे २ दशाध्ययनानि, वर्गश्च सुगपदेबोद्दिश्यत इत्यत आह-तिन्नि उद्देसणकाला 'इत्यादि, 'संखेज्जा पदसहस्सा पदग्गेणं, ते य किल छायालीसं लक्खा अट्ट य सहस्सति, शेपं प्रकटार्थ पावनिगमनमिति ।
से किं तमित्यादि । (५५-२३४ ) ॥ प्रश्नः प्रतीतस्तन्निवचनं व्याकरणं, बहुत्वादहुवचनं, प्रश्नव्याकरणेषु 'अट्ठोत्तर, पसिणसयं' इत्यादि, अंगुबाहुपसिणादियाओ पसिणाओ, जे पुण विज्जामंता विधीए जविज्जमाणा अपुच्छिया चेव सुभासुभ कहति एता अपसिणातो, तहा अंगुट्ठपसिणभावं च पडुच्च साधेति जा विज्जाओ ताओ पसिणापसिणाओत्ति, अथवा अणंतरं जा कहिति ता पसिणा परंपरं पसिणापसिणचि, तं पुण विज्जाकहितं तस्स परंपरं भवति, अने य दिव्या विचिचा विज्जातिसया,शेष निगदसिद्धं यावत् 'संखेज्जा पदसयसहस्सा पदग्गेण, ते य किल वाणउतिलक्खा सोलस य सहस्सचि, शेष गतार्थ यावदन्त इति । का 'से किं समित्यादि । (५६-२३४)। विपचनं विषाकः, शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः, तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं,
॥१०५॥ शेषमानिगमनं सूत्रसिद्धमेव, नवरं 'संखेज्जा पदसहस्सा पदग्गेणं, एते य एगा पदकोड़ी चुलसीई च लक्खा बत्तीसं च सहस्साचि ।
SEKSASSASSASGASSERSCLUSAS
दीप अनुक्रम [१४७- | १४९]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः | ... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण एवं विपाकश्रुत' सूत्राणां वर्णनं |
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं [१७] / गाथा ||८२-८४||
प्रत सूत्रांक
नन्दीहारिभद्रीय वृत्ती
दिखत्राणिच
[१७]
॥१०६॥
गाथा ॥८२८४||
'से किं त' मित्यादि । (५७-२३५)॥ दृष्टयो दर्शनानि, बदनं बादः, दृष्टीनां वादः दृष्टिवादः, 'दृष्टीनां वा पातो
परिकर्माणि यत्रासौ दृष्टिपातः, सर्वनयदृष्टय एवेहाख्यायन्त इत्यर्थः, तथा चाह--दृष्टिवादेन दृष्टिपातेन दृष्टिवादे दृष्टिपाते वा सर्वभावप्ररूपणाडू आख्यायते, ‘से य समासओ पंचविहे पन्नत्ते' इत्यादि, सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिचे तथापि लेशतो यथाऽगतसम्प्रदाय किंचिद् I व्याख्यायत इति, तत्र सूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थानि परिकर्माणि, गणितपरिकर्मवत् , तं च परिकम्मसुर्य सिद्धसेणियादिप| रिकम्ममूलभेदतो सत्तविह, उत्तरभेदतो तेरासीतिविह, माउगपदानि, एयं च सर्व मूलुत्तरभेदं सुत्तत्थतो बोच्छिदं यथागतसम्प्र-15| दाय वा वाच्यं, एएसि परिकम्माण छ आदिमा य परिकम्मा ससमइया चेव, गोसालयपत्तिया आजीवगपासंडिसिद्धृतमएण पुण चुयअचुयसेणियापरिकम्मसहिया सत्त पनविज्जति, इयाणिं परिकम्मे णयचिंता, तत्थ गमो दुविहो-संगहितो असंगहितो यः | संगहिओ संगहं पविट्ठो, असंगहिओ ववहारं, तम्हा संगहो ववहारो ऋजुसुत्तो सद्दादिया य एको एवं चउरो णया, एतेहिं चउहिट णएहि छ ससमइयाई परिकम्माई चितिजति, अतो भणियं-छ चउक्कणया भवति, ते चेव आजीविया तेरासिया भणिया, कम्हा', उच्यते, जम्हा ते सव्वं जगत् त्र्यात्मकमिच्छन्ति, यथा जीवोऽजीवो जीवाजीवा, लोए अलोए लोयालोए, सते. असते संतासंते, एवमादि, णयचिंताए ते तिविहं णयभिच्छंति, तंजहा-दबहितो पज्जवट्टितो उभयडिओ, अओ भणियं-सत्त तेरासियति, सत्त परिकम्माइं तेरासियपासंडत्था, तिबिहाए णचिंताए चिंतयन्तीत्यर्थः, से तं परिकम्मति निगमन । 'से किं तं सुत्ताई,२ उज्जुसुयादियाई यावीसं भवंति' इह सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि, अमून्यपि च सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नान्येवर यथाऽऽगतसम्प्रदायतो वा वाच्यानि, एतानि चेव चावीस सुत्चाई विभागतो अट्टासीति हवंति कथं ,उच्यते, इच्चेयाई बावीस सुत्ताई II
दीप
अनुक्रम [१५०
१५४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: ... अथ अंगप्रविष्ट-सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते, तदन्तर्गत 'दृष्टिवाद' सूत्रस्य वर्णनं |
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आगम (४४)
[भाग-7] “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः )
............. मूलं [१७] / गाथा ||८२-८४||
.......
पखेंगत
प्रत सूत्रांक [५७]] गाथा ॥८२८४||
नन्दी- छिमछेदणइयाई, 'ससमयसुत्तपरिवाडीए' नि सुत्न, एत्थं जो णी सुसं छिन छदेणं इच्छइ सो छिमछेदणओ, जहा-"धम्मो रमाया मंगलमुकिट्ठ' ति सिलोगो सुत्चत्यो पलेयं छेदनयाठओ ण वितियादिसिलोए अवेक्खह, प्रत्येककल्पितपर्यन्त इत्यर्थः, एयाणि 2 वृत्ती
एवं बावीसं ससमया सुत्तपारवाडीए सुत्नाणि ठियाणि, तथा इच्चेझ्याई बाबीस सुत्ताई अच्छिन्नछेदणाइयाई आजीवियसुत्तपरिवा-18 ॥१०॥ डीएत्ति सुत्तमेव इति णओ सुतं अच्छिन्न छदेण इच्छइ सो अछिन्नछेदणयो,जहा धम्मो मंगलमुक्किट्ठति सिलोगो,एस चेव अत्थओ
वितियादिसिलोगमयेक्खमाणोनि वितियादिया य पढमति अन्योऽन्यसापेक्षा इत्यर्थः, एयाणि बावीस आजीवियगोसालपवत्तियपासंडपरिवाडीए. अक्सररयणविभागडियाणिवि अस्थतो अन्नोन्नमवेक्खमाणाणि हवंति, इच्च्चेयाई इत्यादि सुच, तत्थ 'तिकणियाई' ति नयत्रिकाभिप्रायश्चिन्त्यन्त इत्यर्थः, त्रैराशिकावाजीविका एवोच्यन्ते, तथा 'इच्चेताई' इत्यादि सूत्र, एत्थ 'चउणइयाई' ति नयचतुष्काभिप्रायतचिन्तयत इति भावना, एवमेवे' त्यादि सूत्रम्,एवं चउरो बावीसाओ अड्ढासीतिसुत्ताई भ| वंति से तं सुत्ताई' निगमनवाक्यम् । 'से किं तं पुव्वगते इत्यादि, कम्हा पुण्यगतं,उच्यते, जम्हा तित्थगरो तित्थपवत्तणकाले गणघराणं सबसुत्ताधारतणतो पुच्वं पुन्वगयसुत्तत्थं भासह तम्हा पुव्याचि भाणिया, गणघरा पुण सुत्तरयणं करेन्ता आया| रादिकमेण रएंति ठबंति य, अनायरियमतेणं पुण पुव्वगयमुत्तत्थो पुव्वं अरहया मासिओ गणधरेहिवि पुव्वगर्य सुयं चेव पुवं रइयं, पच्छा आयारादि, चोदक आह-णणु पुव्वावरविरुद्ध, कम्हा?,जम्हा आयाराणज्जुचीए माण यं-सव्वेसिं आयारो० गाहा, सत्यमुक्तं, किंतु सा ठपणा, इमं पुण अक्खररयणं पडच्च भणियं, पूर्व पूर्वाणि कृतानीत्यर्थः, ताणे य उप्पायपुब्बादीणि चोइसपुब्बाणि पन्नचाणि, पढम उप्पायपुव्वं, वत्थ सब्बदन्वाणं पज्जवाण य उपायभावमंगीकार्ड पनवणा कया, तस्स य पयपरिमाणं
रस्साकसक
दीप
०७॥
अनुक्रम [१५०१५४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं ५७] / गाथा ||८२-८४||
नन्दी
प्रत सूत्रांक
शबष
[५७]
गाथा ॥८२८४||
नन्दाठिाएगा पयकोडीओ । वितियं अग्गेणियं, तस्थवि सम्वदव्वाण पज्जवाण य सम्बजीवाजीवविसेसाण य अग्ग-परिमाणं बभिज्जतित्ति पालाअग्गेणीयं, तस्स पयपरिमाणं छाउति पयसबसहस्साणि । ततियं वीरियपवाय, तत्थवि अजीवाणं जीवाणं सकम्मेतरं वीरियं पव
यह ति पीरियप्पवायं, तस्स विसत्तरिय पयसमसहस्साणि । चउत्थं अत्थिणत्थिपवाय, जं लोए जहा वा अस्थि जहावा णत्थि अथवा ॥१०॥ सियवादाभिपाततो जहेबास्ति नास्तीत्येवं प्रवदति इति अस्थिणत्थिपवायं भणियं, तंपि पदपरिमाणतो सहि पदसयसहस्साणि ।
पंचम णाणपवादति, तम्मि मतिणाणादिपंचकस्स गाहेण परूवणा जम्हा कया तम्हा णाणप्पवायं, तम्मि पदपरिमाणं एगा कोडी एगपदा । छटुं सच्चप्पवाय, सच्च-संजमो सच्चवयणं चा, तं सच्चं जत्थ सभेयं सपडियक्खं च वनिज्जइ तं सच्चप्पवाय, तस्स पदपरिमाणं एगा पयकोडी छप्पयाहिया । सत्तम आयप्पवायं, आयत्ति आत्मा, सोऽणेगहा जत्थ णयदरिसणेहिं बभिज्जइते आयप्पवायं, तस्सवि पदपरिमाण छब्बीस पदकोडीओ | अट्ठमं कम्मप्पवायं, णाणावरणादियं अट्ठविहं कम पयतिठिअणुभागपदेसादिएहिं भेदेहिं अन्नेहि य उत्तरुत्तरभेदेहि जत्थ वन्निज्जइ त कम्मप्पवायं, तस्सवि पयपरिमाणं एगा पयकोडी असीति च पयसहस्सा भवंति । णयमं पच्चक्खाणप्पवायं, तस्स य पदपरिमाणं चरासीति पयसहस्सा भवंति । दसम विज्जाणुप्पवायं, तत्थ
अणगे विज्जालिसया वणिया, तस्स य पदपरिमाणं एगा पयकोडी दस पयसहस्सा । एकारसमं अवंझत्ति, बझं णाम णिप्फलं जण बंशमवं, सफलमित्यर्थः, सव्वे णाणतवसंजमजोगा सफला बभिज्जति, अप्पसत्था य पमादादिया सब्बे असुहफला वत्रिया,
अतो अझं, तस्सवि पयपरिमाण छब्बीस पदकोडीओ । वारसमं पाणाउं, तस्थ आउं-प्राणविधान सव्यं सभेयं अन्ने य प्राणा वनिता, तस्स पयपरिमाणं एगा पयकोडी छप्पनं च पदसयसहस्साणि । तेरसमं किरियाविसालं, तत्थ कायकिरियाहिंसादओ।
ANSWERS
दीप
१०८॥
अनुक्रम [१५०१५४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
............. मूलं ५७] / गाथा ||८२-८४||
नन्दी
प्रत सूत्रांक [५७]] गाथा ॥८२८४||
J&| विसालात्ति सभेया संजमकिरियाओ बंधकिरियाविहाणा य, तस्सवि पयपरिमाणं णय कोडीओ । चोइसमं लोगबिंदुसार, तं च गडिकानुहारिभद्रीया
| योगे इमम्मि लोए सुअलोए वा बिंदुमिव अक्खरस्स सव्वुत्तमं सब्यक्खरसन्निवायपरितत्तणओ लोगबिन्दुसारं भणिय, तस्स य पयपवृत्ती रिमाणं अद्धत्तेरसपयकोडीओ । से तं पुश्वगते ।
चित्रान्तर॥१०९॥
| मंडिकाः ___ 'से किं तमित्यादि, अनुरूपः अनुकूलो वा योगोऽनुयोगः, सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूपः संबंध इत्यर्थः, सच | द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-मूलप्रथमानुयोगश्च गण्डिकानुयोगश्च, 'से किं तमित्यादि, इहैकवक्तव्यताप्रणयनान्मूलं तावत्तीर्थकरास्तेषां प्रथमः-सम्यक्त्वाप्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः, तथा चाह-'मूलपढमाणुयोगे ण'मित्यादि, सूत्रसिद्ध यावत् 'से तं मूलपढमाणुयोगे । 'से किं तमित्यादि,इहकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगता गण्डिका उच्यन्ते तासामनुयोगः-अर्थ-दा | कथनविधिः गण्डिकानुयोगः,तथा चाह-'गंडियाणुयोगे णमित्यादि,तत्थ कूलगरगंडियासु कुलगराणं विमलवाहणादीणं पुन्यज४म्मणामादि काहिज्जइ,एवं सेसासुवि अभिधाणवसतो भावेयव्वं जाव चित्ततरगंडियाओ,चित्रा:-अनेकार्थी अन्तरे-ऋपभाजिततीय-11
करान्तरे गण्डिका-एकवक्तव्यताधिकारानुगताः, एतदुकं भवति-ऋषभाजिततीर्थकरान्तरे तवंशजभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिषगतिगमनानुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाश्वित्रान्तरगण्डिका इति । एयासि परूवणे पुवायरिएहिं इमो विही दिडो
॥१०॥ ____ आदिच्चजसाईणं उसमस्त पउपए परवाणं । सगरसुताण सुबुद्धी इणमो संखं परिकहेइ ॥१॥ चोदस लक्खा सिद्धा णिव| वीणिको य होति सम्बढे । एकिकट्ठाणे पुण पुरिसजुगा होतऽसखेज्जा ॥२सा पुणरवि चोदसलक्खा सिद्धा णिवतीण दोनि सव्ववे।
AUGALASSETSASSASSASSASSAI
दीप अनुक्रम [१५०१५४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
........... मूलं ५७] / गाथा ||८२-८४||
.......
प्रत सूत्रांक
[५७]
गाथा ॥८२८४||
नन्दी
18| दुगठाणेवि असंखा पुरिसजुगा होति णायव्या ॥३॥ जाव य लक्खा चोइस सिद्धा पचास हॉति सबढे । पासवाणेऽविता गाडकानुहारिमद्रीय पाटापुरिसजुगा हॉतिऽसंखेज्जा ॥ ४॥ एगुत्तरा उठाणा सब्वट्ठाणे य जाव पनासा । एवेकेकगठाणे पुरिसजुगा होतऽसखेज्जा।। ५॥
योगे वृत्ती |विवरीयं सबढे चोदसलक्खा उणिव्वुतो एगो । सच्चव य परिवाडी पन्नासं जाव सिद्धीए ॥ ६॥ तेणं परं तु लक्खा दो दो
चित्रान्तरठाणा य समग बच्चति । सिवगतिसब्बडेहिं इणमो तेसि विही होइ ॥ ७॥ दो लक्खा सिद्धीए दो लक्खा नरवतीण सवढे । एवं
मंडिका ॥११०॥
तिलक्ख चउपंच जाव लक्खा असंखेज्जा ॥ ८॥ सिवगतिसबढेहिं चित्तरगंडिया ततो चउरो। एगा एगुत्तरिया एगादिविउत्तरा वितिया ॥ ९॥ ततिएगादितिउत्तरा तिगमादिविउत्तरा चउत्थेयं । पढमाए सिद्धिको दोषिय सन्चट्ठसिद्धम्मि ॥१०॥ तत्तो तिनि नरिंदा सिद्धा चत्तारि होंति सबढे । इय जाब असंखेज्जा सिवगतिसम्बदसिद्धेहि ॥ ११ ।। ताहे घिउत्तराए सिद्धिको तिमि होंति सबढे । एवं पंच य सत्त य जाव असंखेज दोभित्ति ॥ १२ ॥ एग चउ सत्त दसगं जाव असंखज्ज हॉति दोनि
ति । सिवगतिसञ्चद्वेहिं तिउत्तराए मुणेयच्या ॥१३॥ ताहे-तियगाइ बिउत्तराए अउणत्तीस तितग ठावेतुं । पढमे गस्थि क्खेवो दासेसेसु इमो भवे खेवो ॥१४॥ दुग पण णवर्ग तेरस सत्तरस दुबीस छच्च अडचा बारस चौदस तह अडवीस छब्बीस पणुवीसा IP॥ १५ ॥ एकारस तेवीसा सीयाला सतरि सतहत्तरी तह य । इग दुग सचासीई एगुत्तरिमेव चावडी ॥ १६ ॥ अउणचरि IA
चउवीसा छायाल सयं तहेच छब्बीसा । एए रासीक्खेवा तिगअंतता जहाकमसो ॥ १७ ॥ सिवमतिसबढेहिं दो दो ठाण विसम्रचरा गेया । जाणतीसट्टाणे उणतीसं पुण छवीसाए ॥१८॥ विसमुत्तरा य पढमा एषमसंख विसमुचरा गेया । सवत्थवि अंतिल्लं ॥११०॥ अनाए आदिमं ठाणं ॥ १९ ॥ अउणचीस वारे ठाउं गस्थि पढमए खेवो । सेसेसुऽडवीसाए सव्वत्थ दुगादिओ खेवो ॥ २० ॥
दीप
ACN
5BE
अनुक्रम [१५०१५४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं ५७] / गाथा ||८२-८४||
प्रत
नन्दी
सूत्रांक
वृत्ती ॥११॥
मंडिकानु.योगे गंडिका
चित्रान्तर
[५७]] गाथा ॥८२८४||
SACRECAUSA
| सिवगतिपढमादीए वितियाए तह य दोति सम्बई । इस एगतरियाई सिवगइसवठाणाई ।। २१ ॥ एवमसंखेज्जाओ चितर- गडियाओ यव्वा । जाव जियसत्तुराया अजियजिणपिया समुप्पभो ॥ २२ ॥ एवं गाहाहिं चितरगंडियाओ समत्ताओ । इमा य एयासि ठवणा
एसिया लक्खा सिद्धिगया| १४ | १४|१४|१४|१४|१४|१४|१४ १४/१४ १५
एतिया सबढ गया, ।१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १०५ एवं जाव असंखा पुरिसजुगा सिद्धा एसा पढमा, अओ पर | १ २ ३ | ४ ५ ६ ७८९१०५० सन्बटुंपि गया एपिआ लक्खा १४ १४|१४ १४ १४ाचा सिद्धा एत्तिया लक्खा ॥ एवंपि असंखेज्जा पुरिसजुगा सिद्धा,
एसा बीया, अओ परं सबढेवि गया एतिया लक्खा. २ ३ ४ ५ ६ ७..
-एवं जाव असंखेज्जा आवलिया, सिद्धा एचिया लक्खा | २ ३ ४ ५ ६ ७/
दीप
अनुक्रम [१५०१५४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
........... मूलं ५७] / गाथा ||८२-८४||
प्रत
सूत्रांक
84545
गडिकानुनन्दी
"योगे हारिभद्रीया दुगाइएगुत्तरा दोवि गच्छति | आवलिया दूरगमणओ पंचासीइमे ठाणे चिट्ठति तश्या मैडिया,21
चित्रान्तर वृत्ती
गडिकाः ॥११२॥ अतः परं चतस्रो गण्डिका एकोत्तरिकादिकाः प्रदश्यन्ते-शिवगतौ सर्वार्थे च एवं असंखेज्जा चित्ततरगंडिया, एगाइ एगुत्तरिया
पढमा णेया, सिद्धा एत्तिया सध्यढे एत्तिया चेव, एवं जाव असंखेज्जा, एगादिविउत्तरा श चितिया | | चितवर गण्डिया, सिद्धा एतिया सबहे एतिया चव, एवं जाव असंखेज्जा चित्रंतरगंडिया, एगादितिउत्तरा |
[५७]] गाथा ||८२८४||
___ तइया तवश्चतुर्थी व्यादिका द्वयादिविषमोत्तरप्रक्षेपा एकोनविंशत्रिदंकान् संस्थाप्य निदर्श्यते,
दीप
एचिया सवढे
| ३ ८ | १६ | २५ ११ | १७ | २९ १४ ५० ८० | ५ | ७४ ७२/४९/२९] शिवगतौ सिद्धा | ५ | १२ २०१५/३१ २८.२६/७३ | ४/९०६५ २८१०३ .
११२॥
अनुक्रम [१५०१५४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............ मूलं [१७] / गाथा ||८२-८४||
प्रत सूत्रांक
नन्दी: हारिभद्रीय
मंडिकानु
वृचौ
चित्रान्तर
[१७]
॥११३॥
गडिकाः
गाथा ॥८२८४||
एचिया पुणोषि | २९ ३४ ४२ ५१ ३७ ४३ ५५ ४० ७६ १०६, ३१ १००९८ ७१ ५५ सिक्गतौ ।
एवं पुनः पुनः पक्ष| सव्वद्वसिद्धौ तु |३१|३८४६ ३५/४१५७/५४ ५२ ९९/३० ११६, ९१.५३ १२५ . | पश्चाशदादौ कृत्वा एकोनत्रिंशत् स्थानानि संस्थाप्य द्वयादिप्रक्षेपकेन यावत् पश्चिमस्थाने एकानीतिर्भवति ५५ ६०/६८ ७७ ६३ ७९/८५ ६६ १०२१३२ ५७ १२६१२४१०१ ८१.
अनेन उत्तरा असंख्येयाचित्रान्तरग५७/५४ ७२ ६१ ६७ ८३ ८०७८ १२५/ ५६ १४२११७ ७९.१५५ . | ण्डिका मेया, सेसं गाहाणुसारेणं नेयव्वं जाव असंखेज्जा, शेषं निगदसिद्धं यावत् से तं अणुओगे'
से कि तमित्यादि । चूडा इव चूडा, इह दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोगोक्तानुक्तार्थसंग्रहपरा अन्यपद्धतय चूडा इति । एताकाथानां चतुर्नामेव पूर्वाणां भवन्ति, न शेषाणामिति, अत एवाह-आदिल्लाण' मित्यादि, संख्याताः । सम्प्रति पूर्वा-2 गामियं यथासंख्यं " चउ बारसट्ठ दस या हवंति चूडा चउण्ह पुन्वाणं । एए य चूलवत्थू सन्नुवरि किल पढिज्जति ।। १॥" शेषमानिगमनं सूत्रसिद्धमेव, नवरं 'संखेज्जा वत्थुचि पणुवीसुत्तराणि दो सयाणि, 'संखेज्जा चूलवत्यु चि चउतीसं ।। साम्प्र- तमोघतो द्वादशांगविषयमेव दर्शयाह--
दीप
शा
अनुक्रम [१५०१५४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
...... मूलं [८] / गाथा ||८५||
प्रत
सूत्रांक
[५८] गाथा ||८||
नन्दी
'इच्चेय' मित्यादि ।( ५८-२४७ )। इत्येतस्मिन् द्वादशाङ्गे गणिपिटक इति पूर्ववत्, अनन्ता भावाः प्रज्ञप्ता इति योगः,5 चूला हारमायावत्र भवन्तीति भावाः जीवादयः पदार्थाः, एतेच जीवपद्लामन्तत्वात् अनन्ता इति, तथा अनन्ता अभावाः, सर्वभावानामेवाबादशा वृत्तों पररूपेणासचात् त एवानन्ता अभावा इति, स्वपरसत्ताभावाभावोभयाधीनत्वात् वस्तुतच्चस्य, तथाहि-जीयो जीवात्मना भावो-II
बिराधना॥११४॥ जीवात्मना चाभावोऽन्यथाजीवत्वप्रसंगाद्, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते गमनिकामात्रत्वात् आरम्भस्य, अन्ये तु धर्मापेक्षया
फलं अनन्ता भावाः अनन्ता अभावाः प्रतिवस्त्वस्तित्वनास्तित्वाभ्यां प्रतिबद्धा इति व्याचक्षते, तथाऽनन्ता हेतवः, तत्र हिनोति-नामयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः, ते चानन्ता वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वात् तत्प्रतिवद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकत्वाच्च हेतोः, सूत्रस्य चानन्तगमपर्यायात्मकत्वादिति, यथोक्तहेतुप्रतिपक्षतोऽनन्ता अहेतवः, तथाऽनन्तानि कारणानि मृत्पिण्डतन्त्वादीनि घट-18 पटादिनिर्वर्तकानि तथाऽनन्तान्यकारणानि, सर्वकारणानामेव कार्यान्तराकारणत्वात्, न हि मृपिण्डः पट निर्वयतीति, एवं मावाभावाः हेस्वहतवः कारणाकरणानि, जीवा:-प्राणिनस्तथा अजीवा-यणुकादयः, तथा भष्या:-अनादिपारिणामिकमध्यभावयुक्ताः, एतेऽनन्ताः प्रज्ञप्ताः, तथा अभव्याः-अनादिपारिणामिकाभव्यभावयुक्ताः, एतेऽनन्ताः प्रज्ञप्ताः इति योगः, तथा सिद्धा अनन्ताः, तथा अनन्ता असिद्धाः प्रज्ञप्ता इति, दह भन्याभव्यानामानन्त्येऽभिहिते अनन्ता असिद्धा इति यत् पुनरमिधानं तत् | सिद्धेम्योऽनन्तगुणत्वख्यापनार्थमिति ॥ साम्प्रतं द्वादशांगविराधनाराधनानिष्पन्नं त्रैकालिकं फलमुपदर्शयमाह-'इच्चेय' मित्यादि, ११४॥ इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटकं अतीतकाले अनन्ता जीवा आजवा बिराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारं 'अणुपरियहिसु' चि अनुपरावृ-15 | चिमन्त आसन् , इदं हि द्वादशांगं सूत्रार्थोभयभेदन त्रिविधं, ततश्चाज्ञया-नत्राज्ञयाऽभिनिवेशतोऽन्यथापाठादिलक्षणया विराध्य
दीप अनुक्रम [१५५१५७]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति: |... द्वादशांगे: आराधन-विराधनाया: फलम्
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं १८] / गाथा ||८५|| ......
प्रत
सूत्रांक
नन्दी- हारिभद्रीय वृत्ती
॥११५॥
[५८] गाथा ||८५|
अतीतकाले अनन्ता जीवाश्चतुरन्त संसारकान्तार-नारकतिर्यनरामरविविधवृक्षजालदुस्तरं भवाटवीगहनमित्यर्थः, अनुपरावृत्ता-MI
द्विादशांग्यआसन् जमालियत , अर्थाज्ञया पुनरभिनिवेशतोऽन्यथानरूपणादिलक्षणया गोष्ठामाहिलवत् , उभयाजया पुनः पंचविधाचार |
आराधना
नापरिज्ञानकरणोधतगुर्वादेशादिलक्षणया गुरुप्रत्यनीकद्रव्यलिङ्गधार्यनेकश्रमणवत् , अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षयाऽऽगमोक्तानुष्ठा-डू
'फलं नमेवाज्ञा, एतद्विराधनयवानुपरावृत्ता आसन् । उक्तंच-"सव्वाओवि गतीओ अविरहिया गाणदसणधरेहि" इत्यादि, 'इच्चेय-1 मित्यादि, गतार्थमेव, नवरं 'परित्ता जीवा' इति संख्येया जीवाः, वर्तमानविशिष्टविराधकमनुष्यजीवाना संख्येयत्वात् , 'अणुपरियहति' ति अनुपरावर्तन्ते, भ्रमन्तीत्यर्थः, 'इच्चेत'मित्यादि, इदमपि भावितार्थमेव, नवरं 'अणुपरियडिस्संति' ति अनुपरावर्तिष्यन्ते, पर्यटिष्यन्ति इत्यर्थः ।। 'इच्चेत' मित्यादि, इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटक अतीतकालेऽनन्ता जीवा आराध्य चतुरन्तं संसारकन्तारं 'बीतिवइंस्वि' ति व्यतिक्रान्तवन्तचतुर्गतिकसंसारोल्लंघनेन मुक्तिमवाप्ता इत्यर्थः, 'इच्चेय मित्यादि, गतार्थ नवरं 'बीइवयंनिति व्युत्क्रामन्ति, 'इच्चेद' मित्यादि गतार्थमेव, नवरं 'वितीवयिस्मति' चि व्युत्क्रमिष्यन्ते, एतत्प्रभा-14 वात् सेत्स्यन्तीत्यर्थः । यदिदमनिष्टतरभेदभिन्नं फलं प्रतिपादितमेतत् सदाऽवस्थायित्वे सति द्वादशांगस्योपजायत इत्यत आह-121 'एच्चेय' मित्यादि इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटकं न कदाचिनासीद् अनादित्वात्, न कदाचिन भवति सदैव भाषात् , न कदाचि-18 न भविष्यति, अपर्यवसितत्वात् , किं तर्हिी-'भुर्वि चे' त्यादि, ध्रुवत्वादेव नियत, पञ्चास्तिकायेषु लोकवचनवत् , नियतत्वादेव शा- ॥११५॥ श्वतं, समयावलिकादिषु कालवत् , शाश्वतत्वादेव वाचनादिप्रदानेऽप्यक्षयं, गंगासिन्धुप्रवाहेअपि पौण्डरीकहदवत् , अक्षयत्वादेवाव्ययं, मानुषोचराद् बहिःसमुद्रवत् , अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थित, जम्बूद्वीपादिवत् , अवस्थितत्वादेव नित्यमाकाशवत् , साम्प्रतं रष्टा
दीप अनुक्रम [१५५१५७]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:)
........... मूलं १८] | गाथा ||८५-८७||
प्रत
सूत्रांक
नन्दी- हारमा
वृत्ती ॥११॥
[५८]
गाथा ॥८५
न्तमाह-'से जहा णामत्यादि, वयथा नाम पंचास्तिकायाः-धर्मास्तिकायादयः न कदाचिभासन् न कदाचिन्न सन्ति न कदाचिम श्रुतस्यभविष्यन्ति, अभूवम् भवन्ति भविष्यन्ति च, धुवा इत्यादि पूर्ववत् , 'एवामेवे त्यादि निगमनं निगदसिद्धमेव । 'से समासओंविषयाभदा इत्यादि, तद् द्वादशांगं समासतश्चतुर्विध प्रज्ञप्तं इत्यादि, प्रायो गतार्थमेव, नवरं द्रव्यतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सन् सर्वद्रव्याणि जानाति पश्यतीत्यत्राभिन्नदशपूर्वधरादिः श्रुतकेवली परिगृह्यते, तदारतो मजना, सा पुनर्मलविशेषतो ज्ञातव्येति, अत्राह-ननु पश्य-12 तीति कर्थी, सकलगोचरदर्शनायोगाद्, अत्रोच्यते, प्रज्ञापनायां श्रुतज्ञानपश्यत्तायाः प्रतिपादितत्वादनुत्तरविमानादीनो चालेख्यकरणात् सर्वथा चादृष्टस्यालेख्यकरणानुपपत्तेः, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयमिति, अन्ये तु न पश्यतीत्यभिदधति ॥ साम्प्रतं | संगहमाथामाह___'अक्खर सन्नी' त्यादि (१८६-२४९)। इयं गतार्थेव, नवरं सप्ताप्येते सप्रतिपक्षाः, ते चैवं-अक्षरश्श्रुतमनक्षरश्रुतमित्यादि, | इदं पुनः श्रुतज्ञानं सर्वातिशयरत्नसमुद्रकल्पं, तथा प्रायो गुर्वायत्ततत्वात् पराधीनं, अतो विनेयानुग्रहार्थ यो यथा चास्य लाभस्तथा दर्शययन्नाह
'आगम' गाहा॥(*८७-२८९)। आगमनमागमः, आङ अभिविधिमर्यादार्थत्वात् अभिविधिना मर्यादया बागमः-परिच्छेद आगमः, स च केवलमत्यवाधिलक्षणोऽपि भवति अतस्तव्यवच्छित्यर्थमाह-शास्यतेऽनेनेति शास्त्र-श्भुत, आगमग्रहणं तु पष्टि- ११६।। तंत्रादिकशासव्यवच्छेदार्थ, तेषामनागमत्वात् , सम्पपरिच्छदात्मकत्वाभावादित्यर्थः, शाखतया च रूढत्वात् , तत आगम
८७||
दीप अनुक्रम [१५८१६०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [९] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.... मूलं १८...] | गाथा ||८७-८९||
प्रत
नन्दी
सूत्रांक
वृत्तौ
विधिः
[५८] गाथा ||८७८९||
थासौ शाख च आगमशास्त्रं तस्य ग्रहणमिति समासः, गृहीतिर्ग्रहणं, यद् बुद्धगुणैर्वक्ष्यमाणलक्षणैः करणभूतैरष्टभिष्टं तद् ब्रुवते बुद्धिगुणाः हारिभद्रीय
श्रुतबानस्य लाभः श्रुतज्ञानलाभस्तं तदेव ग्रहणं बुवते, के ?-पूर्वेषु विशारदा-विपश्चितो धीराः, व्रतानुपालने स्थिरा इत्यर्थः, अयं श्रवण
गाथार्थः ।। बुद्धिगुणैरष्टभिरित्युक्तं ते चामी॥११७|| ___'सुस्सूसतिगाहा ॥(*८८-२४९।। विनययुक्तो गुरुमुखात् श्रोतुमिच्छति शुषते, पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति, तत् श्रुतमर्श
कित करोतीति भावार्थः, पुनः कथितं सच्छृणोति, श्रुत्वा गृह्णाति, गृहीत्वा चेहते-पर्यालोचयति, किमिदमित्थमुतान्यथेति, च31 शब्दः समुच्चयार्थः, अपिशब्दात् पर्यालोचयन् किंचित् स्वबुध्ध्याऽप्युत्प्रेक्षते, ततस्तदनन्तरमपोहते च, एवमेतद्यदादिष्टमाचार्येणेति, BI
पुनस्तमर्थमागृहीतं धारयति करोति च सम्यक् तदुक्तमनुष्ठानमिति, तदुक्तानुष्ठानमपि च श्रुतप्राप्तिहेतुर्भवति, तदावरणक्षयोप-13 शमादिनिमित्तत्वात्तस्येति, अथवा यद्यदाज्ञापयति गुरुस्तत् सम्बगनुग्रहं मन्यमानः श्रोतुमिच्छतीति, पूर्वसन्दिष्टश्च सर्वकार्याणि
कुर्वन् पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति पुनरादिष्टः सन् सम्यक् शृणोति, शेष पूर्ववत् ।। बुद्धिगुणा व्याख्यातास्तत्र शुश्रूपतीत्युक्तं, इदानीं || दश्रवणविधिप्रतिपादनायाह
'मूअं' गाहा (८९-२४९)।। मृकमिति मुकं शृणुयात् , एतदुक्तं भवति-प्रथमश्रवणे संयतगात्रस्तूष्णीं खल्वासीत, तथा ॥११॥ द्वितीये हुंकारं च, ईपद्वन्दनं कुर्यादित्यर्थः, तृतीये बाढकारं कुर्यात् बाढमवमेतन्नान्यथेति, चतुर्थश्रवणे गृहीतपूर्वापरसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रतिपृच्छां कुर्यात् , कथमेतदिति, पंचमे तु मीमांसां कुर्यात् , मातुमिन्छा मीमांसा प्रमाणजिज्ञासेतियावत् , ततः पष्ठे |
दीप अनुक्रम [१६०१६२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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आगम (४४)
[भाग-7] "नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः)
.... मूलं १९] / गाथा ||९०||
......
નિના
वृत्ती
प्रत सूत्रांक [५९] गाथा ||२०||
नन्दी-18 अवणे तदुत्तरोचरगुणप्रसंगपारगमनं चास्य भवति, परिनिष्ठा सप्तमे श्रवणे भवति, एतदुक्तं भवति-गुरुवदनुभाषत एव सप्तमे श्रवणव्याहारिभद्रीय श्रवणे इति । एवं तावत् श्रवणविधिरुतः, इदानीं व्याख्यानविधिमभिधित्सुराह
ख्यान । 'सुत्तत्थो' गाहा ।।(४९०२४९) सूत्रार्थमावप्रतिपादनपरः सूत्रार्थः,अनुयोग इति गम्यते,खलशब्दस्त्वेषकारार्थः, स चावधा
विधिः रणे, एतदुक्तं भवति गुरुणा सूत्रार्थमात्राभिधानलक्षण एवं प्रथमोऽनुयोगः कार्यः, मा भूत् प्राथमिकविनेयानां मतिमोहः, द्वितीयोऽ-18
उपसंहारश्च ॥११८॥
नुयोगः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रः कार्य इत्येवंभूतो भणितो जिनैश्चतुर्दशपूर्वधरेश्व, नृतीयश्च निरवशेष, प्रसकानुप्रसक्तमप्युच्येत एवंलक्षणो निखशेषः कार्य इति 'एष' उक्तलक्षणो विधानं विधिः प्रकार इत्यर्थो 'भणितः प्रतिपादितो जिनादिभिः, क्व -सूत्रस्य | निजनाभिधेयेन सार्धमनुकूलो योगोऽनुयोगः सूत्रान्वाख्यानमित्यर्थः, तस्मिन्ननुयोग इति गाथार्थः, आह-परिनिष्ठा सप्तम इत्युक्तं, | जयश्चानुयोगप्रकाराः, तदेतत् कथमिति, अत्रोच्यते, विनेयमणं विज्ञाय त्रयाणामन्यतमप्रकारेण सप्तवारकरणादविरोधादित्योपविने| यविषयं तावत् सत्रं, न पुनः स एव नियमविधिः, उद्घट्टितजविनेयानां सकृत् श्रवण एवाशेपग्रहणदर्शनादलं विस्तरेण ।।
'सेत'मित्यादि ॥(५९-२५९)।। तदेतत् श्रुतज्ञानमिति निगमन, 'सेत'मित्यादि, तत् परोक्षमिति निगमनमेव । नन्द्यध्य| नविवरणं समाप्तम् ।।
यदिहोत्सूत्रमज्ञानाद् , व्याख्यातं तदू बहुतैः । क्षन्तव्यं कस्य सम्मोहश्छवस्थस्य न जायते ॥ १॥
नन्यध्ययनविवरणं कृत्वा यदवाप्तमिह मया पुण्यम् । तेन खलु जीवलोको लभतां जिनशासने नन्दीम् ॥ २॥ कतिः सिताम्बराचार्यजिनभट्टपादसेवकस्थाचार्यश्रीहरिभद्रस्पेति। नमः श्रुतदेवतायै भगवत्यै। समाप्ता नन्दिटीका।।ग्रन्थाग्रं२३३६ ॥११
दीप अनुक्रम [१६२
१६३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४४] चूलिकासूत्र [१] नन्दीसूत्र मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ४४)
“नन्दीसूत्र” (हारिभद्रिया-वृत्ति:) परिसमाप्तं
~131
Page #132
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
भाग-7
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च
"नन्दी-चूलिकासूत्र” [हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "नन्दीसूत्र” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त:
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि-2' श्रेणि, भाग-7
~132
Page #133
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अत्र
नन्दीसूत्रं परिसमाप्तं
अथ
अनुयोगद्वारं आरभ्यते
~133~
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[४५] श्री अनुयोगद्वार सूत्रम्
“अनुयोगद्वार" मूलं एवं वृत्तिः
[हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्तिः]
[आदय संपावकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ।
(किश्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागर Micom. M.Ed. Ph.D. श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
सवृत्तिक-आगम-सुल्ताणि-२-त्रणी भाग
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४ाचूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
~134
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........... मूलं / गाथा [-] .......... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
.............
|
प्रत सूत्रांक
*
श्रीअनुयोगद्वाराणां
***************562-631 श्रीहरिभद्राचार्यकृता वृत्ति
गाथा I
प्रसिद्धताकारिणी-रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबरसंस्था.
कालीयावाडीवास्तव्यश्रेष्ठिरायचंद्रदुर्लभदासमगनलालनेमचन्द्राभ्यां,
श्रीमद्विजयकमलमूरिकृतोपदेशात् दत्तसाहाय्येन. मुद्रणकत्-इन्दौर पीपलीबजार श्रीजैनबन्धुयन्त्रालयाधिपः शाः जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा. वीर संवत् २४५४ विक्रम संवत् १९८४ क्राइस्ट १९२८ प्रतयः ५०० पयं २-०-०
दीप अनुक्रम
H
... 'अनुयोगद्वार' हारिभद्रिया-वृत्ते: मूल टाईटल-पृष्ठ
~135
Page #136
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दीप-अनुक्रमा: ३५०
मूलाक:
विषय:
पृष्ठांक:
मूलाका: १५२+१४१
अनुयोगद्वार चूलिका-सूत्रस्य विषयानुक्रम RANI
|| मूलाक: विषय: पृष्ठांक: मूलांक:
विषय:
पृष्ठांक | ००१- अनुयोगदवारसूत्रं | १३८ " ज्ञानविषयक वर्णनं । १३८
→द्रव्यस्कन्ध:
१६० → आवश्यक-तस्य | १४३
→ उपक्रमः, तस्य अध्ययनं,
→ आनुपूर्वी
१६७ → श्रुत- तस्य निक्षेपा: | १५७
→ अनुगमं
१७७ . भेदा:, इत्यादि
→ नाम एवं तस्य भेदा: | १९६
१६४
, प्रमाण प्ररुपणा → समय आदि → जीवादि द्रव्य→ निक्षेप-व्याख्या → सप्तनय स्वरुपम्
२१० २१९ २३६
२५८
| २६०
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४]चूलिकासूत्र [२२अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
~1360
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[अनुयोगद्वार- मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “अनुयोगद्वार सूत्र" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में ऋषभदेवजी केशरिमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | ये वृत्ति एक छोटी वृत्ति है, इस के अलावा श्री मल्लधारी हेमचन्द्राचार्यजी की रचित एक बडी वृत्ति भी है, जो हमारी 'आगम-सुत्ताणि-सटीक' श्रेणिमे हमने मुद्रित करवाई है | इस के अलावा 'अनुयोगद्वार चूर्णि भी है, जो हमारे चूर्णि-साहित्य के प्रकाशनोमे प्रकाशित हुइ है |
* हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी. ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर सूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके |
हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस -] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है। * शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री -
------- की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक_आगम_सूत्राणि_२_भाग-७ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है |
..मुनि दीपरत्नसागर.....
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
~137
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.......... मूलं [१] | गाथा - ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत
हरिभद्राचार्यक्रेला अनुयोगद्वारटीका.
सूत्रांक
Aimeo
AccessSL
नन्दी व्याख्याना नियमः उद्देशादि विधि:
[१] गाथा
||-||
जनवरेन विदशेन्द्रनरेखपूजितं बीरम् । अनुयोगद्वाराणां प्रकटा विवृतिमाभिधास्ये ॥१॥ प्रान्तोऽयमई- दप्राप्तिहेतुवायोभूतो वर्त्तते, अयोनि विनानि भवन्ति, तथा चोक्तम्-"अवांसि बहुविनानि भवन्ती" त्यादि । विनविनाशामाये मालाधिकार नावः प्रतिपादिता, साम्प्रतमनुयोगद्वाराभ्ययनमारभ्यते, अथास्यानुयोग
इति, उच्यते राहतातुरोगस्य काम्तत्वात्तस्य चानुयोगद्वारमन्तरेण प्रतिपादयितुमशक्यत्वादनुयोगद्वाराणां I साकल्यवाअप प्रायः प्रत्यध्ययनमुपयोगित्वाअन्व यमव्याख्यानसमनन्तरमेयानुयोगद्वाराध्ययनावकाश इत्यमभिसंबंध:, लदनेन सम्बन्धेना Gऽयातमिदमनुयोगद्वाराध्ययन, अस्य चाध्ययनान्तरत्वात् साकल्यतोऽपि प्रायः सकलाध्ययनब्यापकरवान्महार्थत्वाचाधावेव मालशब्दाभिधान
पूर्वकमुपन्यासमुपदर्शयता पन्धकारेणेदमभ्यधायि 'णाणं पंचविहं पण्णत्त'मित्यादि,(१-१)अबाह-इह मजलाधिकारे नन्दिः प्रतिपादित एव, ततश्चानर्थक एवं अस्य सूत्रस्योपन्यास इति, अत्रोच्यते, नैतदेवं, अस्याक्षेपस्य चाभ्ययनान्तरत्यादित्यादिनवानवकाशत्वात् , अनियमप्रदर्शनार्थत्वाच्च तथाहि-नार्य नियमो नन्मभ्ययनानुयोगमन्वरेणास्थानुयोगो न कर्त्तव्य इति, यदा यदा च क्रियत तदा सार्थक एव इति, यथोक्तोपन्यासस्तु प्राचोवृत्त्यपेक्षयाऽनवय एव, अन्ये तु व्याचक्षते-कञ्चिदाचार्य देशजातिषत्रिंशद्गुणालंकृतं कश्चिद्विनेय; सविनयमुक्तवान्-भगवन् ! अनुयोगद्वार| प्ररूपणया मे क्रियतामनुपहः, ततस्तमसावा पार्यो योग्यमधिगम्य अव्यवच्छित्तयेऽनुयोगद्वारप्ररूपणायां प्रवर्तमानो विघ्नविनायकोपशान्तये
दीप
CHANCE
अनुक्रम
॥१॥
... ज्ञानस्य पंच-भेदानाम उल्लेख:
~138
Page #139
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.......... मूलं R] | गाथा [-] ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत सूत्रांक
हारचा
[२]
॥ २
॥
हाउडेशादि
गाथा -
भावमजलाधिकारे इयमुपन्वस्तवान्-णाण' मित्यादि, अस्व सूत्रस्थ समुदायार्थोऽवयवार्यश्च नन्यभ्ययनटीकायां प्रपत्रतः प्रतिपादित 31 नन्दी एवेवि नेइ प्रविपाधव इति । 'तस्थ' इत्यावि, (२-३)सत्र-तस्मिन् मानपत्रके चत्वारि सानानि-मत्यवधिमन:पर्यायकेवळाल्यानि,
किलव्याख्याना म्यवहारनयाभिप्रायतः साक्षादसंव्यवहार्यत्वात्स्थाप्यानीव स्थाप्यानि, यतश्चैवमतः स्थापनीयानि, विष्ठतु तावत् न वैरिहाधिकारः, अथवा नियमः स्वरूपप्रतिपादनेऽप्यसमर्थत्वात्स्थाप्यानि, इह चानुयोगद्वारप्रक्रमे ऽनुपयोगित्वात्स्थापनीयानि, अथवा स्थाप्यानि सन्यासिकानि, नाजशाद
ID विधिः चामिहाजुयोगः, पुनर्विवृणोवि-स्थापनीयानीत्यर्थः, यतश्चैवमतः 'नो अदिस्सन्ती' त्यादि, नो उद्दिश्यन्ते नो समुदिश्यन्ते नो अनुझायंते, तत्र वयेवमध्ययनं पठितव्यमित्युरेशः १ तदेवाहीनादिमणोपेतं पठित्वा गुरोनिवेदयति, तत्रैवविध स्थिरपरिचितं कुर्षिति समनुज्ञा समुरेशः २ वथा कृत्वा गुरोर्निवेदिते अन्यधारण शिव्याध्यापनं च कुर्विति अनुज्ञा ३'सुयणाणस्से' त्यादि, इह अवज्ञानस्य स्वपरप्रकाशकत्वाद् | गुर्वादेरायत्तत्वाच्च किन्तूदेशः समुरेशः अनुझा अनुयोगश्च प्रवर्गत इति, संक्षेपेणोदेशादीनामर्थ:कथित एव । अधुना शिष्यजनानुग्रहार्थ विस्तरेण कथ्यते-तत्य आयारादिवंगस्स उत्तरायणादिकालियसुयस्खंधस्स य उववाइयादिउहालियच्वंगमयणस्स य इमो उद्देसणविही, पुच्वं सज्मार्थ पनवेचा ततो सुयगाही विष्णसिं करे-च्छाकारेण मुग मे सुयमुहिसह, ततो गुरू इच्छामोत्ति भणति, तो सुधगादी वंदणय देह, पदम १, | वदो गुरू बढ़िया बेइए बंदर, ततो बंदियपरचुष्टियसुयग्गाहाँ वामपासे ठवेत्ता जोगुक्खेबुस्सग सगवीसुस्सासकालियं करेइ, तो उस्सरितलोकङ्कितचलवीसत्यओ तहडिओ चेव पंचनमोकारं तिणि वारं उपचारेता 'माणं पंचविहं पण्णत' मित्यादि उसनन्दी कट्टर, दीसे य अंते भणावि-इमं पुण पडवणं पजुच इमस्स साघुस्स इमं अंग सुबर्खधं अमायण वा उरिस्सामि, अहंकारवजणत्वं भणनि-खमास-10
॥२ ॥ माणं हत्येणं सुतेणं अत्येण तदुभएणं च पदिई, नंतरं सीसो इच्छामोति भणिता वंवणं देश, वितियं, ततो दहितो भणादि-संदिसह कि
दीप
EXERCASSAGE
अनुक्रम
२]
... सूत्राणां उद्देशादि-विधि:
~139
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं R] | गाथा -1....... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
R
प्रत सूत्रांक [२] गाथा -
श्राअनु भ णामो १, ततो गुरू भणादि-बंदिचा पवेयसुत्ति, ततो सीसों इच्छामोति भणित्ता बंदणगं देड, तायं, सीसो पुण उद्वितो भणादि-तुम्हेहिं मे INउदेशादि हार पाबमुगं सुषविलु इच्छामि अणुसहि, ततो गुरू भणति-जोग करेहिणि, एवं सविडो इच्छामोत्ति भणिचा बंदणं देश चजत्थर्य, एत्यंतरे णमोकार-19 विधि:
लापरी गुरुं पदक्खिणेड, पदक्खिणित्ता पुरओ ठिचा मणादि-तुम्हेदि मे अमुर्ग सुतमुरिहं, ततो गुरुणा जोगे करे हिचि संविहो वजओ इच्छामोपिला
भणित्ता कंदित्ता व पदक्विर्ण करेइ, एवं वइयवारंपि, पते व ततोऽवि वंदणा एक थेव बंदणवाणं, तइयपवक्षिणते य गुरुस्स पुरओ चिट्ठा, 2
वाहे गुरू निसीदति, निसण्णवस्स व गुरुणो पुरसओ अद्धावणयकाओ भणति-तुभ पवेदितं संदिसह साहूर्ण पवेदामि-18 लाति, चतो गुरू भणाति-पवेदिदिपि, तवो इच्छामोत्ति भणित्ता पंचमं बंदणगं देइ, बंदियपकचुद्वित्तो च कवपंचणमोकारो छई दणयं 5
देश, पुणो व बंदियपक्चुडिओ तुम्भं पवेवितं साहूर्ण पवेदिवं संदिसह करेमि उत्सगं, ततोणं गुरू भणति-फरेहि, ताहे वणयं देव सत्समयं । एते च सुवपकचया सत्त वंदणगा । तो वंदियपकचुद्वितो भणति-अमुगस्स मुवस्स हदिसावर्ण करेमि जस्मां अन्नस्थ अससिएणं जाब वोसिरामिति, ततो सत्चाचीसुस्सासकालं ठिरुवा लोगस्स उक्जोअगरं चिंतिता उस्मारित्ता भणादि-णमो अरहताणंति, लोयस्सउज्जोअगरं कविता | सुवसमत्तउसकिरियतणओ अने फेटावंदणवं बेड, जं पुण बंदणगं देवि तं न सुतपकचत, गुरूवकारिति विणयपरिवत्तिओ अट्ठमं बंदणं देति।
एवं अंगादिसुं समुरेसेऽषि, णवरं पवेदिते गुरू भणति-चिरपरिजिनं करेहित्ति, गंदी य ण कडिजति, जोगुक्खेबुस्समगो य_ण कीरड, ण य| | पदाक्षिणं तओ बारे करिज्जति, जेण णिसण्णो गुरू समुदिसति, एवं अंगादिसु अणुण्णाए जहा उसे तहा सव्वं कवजनि, णवरं पवेदिते* | गुरू भणवि-सम्मं धारय अण्णेखि प पवेयसुत्ति, जोगुक्खेचुस्तम्गो ण व भवति, एवं आवस्सगाविसु पाइण्णगेसु य तंदुळवेयालियादिसु एसेव विही, णवरं सज्झायो ण पट्टविजइ, जोगुक्खेबलस्वगो ण कीरइ, एवं सामावियादिसुवि अन्झयणेसु उसएम य उदिसमासु चिइवंदणपद
दीप
अनुक्रम [२]
॥
३
॥
~140
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........... मूलं R] | गाथा ......... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
विधिः
प्रत सूत्रांक [२] गाथा -
१
॥
श्री अनुविणादिविसेसकिरियापन्जिया सत्त चेव बंदणगा पुठवकम्मेणेब भवंति, जया पुण अणुओगो अणुण्णविराति तदा इमो बिही-पसत्येमु उद्देशादि
इतिहीकरणमुहुतणक्वचेसु पसत्थे य खेत्ते जिणाययणादौ भूमी पञ्जित्ता दो णिसिजाओ कारंति, एका गुरुणो बितिया अक्खाणंति, तओ
चरिमफाले. पवेदिते णिसज्जाए णिमण्णा गुरू अहजाउवगरपोटिओ सीसो ततो दोवि ते गुरू सीनो य मुद्दपोनिबं पडिहिन्ति, तओ सीसो
बारसावत्तगं वंदणगं दाउं भणति-संदिसह सज्झायं पट्ठवेमि, तओ दुरयावि सज्झायं पट्टवेंति, तो पढविते गुरू णिसीदति, वतो सीसो बारसासवतेण वंदति, ततो दोवि उद्वेता अणुओगं पडवेंति, ततो पट्टविते गुरू पिसीदति, ततो सीसो वारसावचेण वंदति, बंदिते गुरुका अक्खामवणे |
कवे गुरू निसेन्जाओ उद्देति, ततो निसेन्जं पुरओ कार्य अधीयसुयं सीसं वामपासे ठवेत्ता चेतिए चंति, समते चेइयवंदणे गुरू ठितो चेव णमोकार कछित्ता पदि कति, तीसे य अन्ते भणति-मस्स साहुस्स अणुओर्ग अणुजाणामि खमासमणाणं हत्येणं दब्वगुणपज्जवेहि अणुण्याओ, ततो सीसो बंदणगं देइ, उहितो भणति-संदिसह किं भणामो?, तओ गुरू भणति-बंदणं दाउं पवेदेह, ततो वंदति, वंदिचा इहितो भणतिर | तुमहिं मे अणुजोगो अणुण्णाओ, इच्छामो अणुसहि, ततो गुरू भणति-सम्मं धारय अण्णसिं च पवेदय, ततो बंदति, वंदिता गुरुं पदक्खिर
वि, एवं तवो बारे, दाडे गुरू निसजाए णिसीयति, चाहे सीसो पुरओ ठितो भण्णति-तुभ पवेदितं संदिसह साहूणं पवेदयामि, एवं शेष | प्राग्वत् । ततो उस्सग्गस्सते वदेत्ता सीसो गुवं सह निसज्जाए पदक्षिणीकरेति, वंदेइ य, एवं ततो वारा, ताहे उद्देत्ता गुरुस्स दाहिणभुयासणे णिसीदति, ततो से गुरू गुरुपरंपरागए मंतपए कहेति ततो वाग, नतो वतियातो ततो अक्खमुट्ठीतो गंधसहियातो देति, ताहे गुरू निसज्जाओ उढेइ, सीसो तत्व निसीदति, ताहे सह गुरुणा अहासण्णिाहता साहू वंदणं देति, वाहे सोऽवि निसज्जाटिओ अणुओगी 'गाणं पंचविहं पण्णत्त 'मित्यादि मुत्तं कट्टति, कट्टित्ता जहासत्तिं वक्खाणं करेति, वक्खाणे य कते साहूर्ण वंदणं देति, ताहे सो उद्देइ, णिस
SGDISCAॐ
-
दीप
अनुक्रम [२]
~141
Page #142
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
....... मूलं ३-६] / गाथा [-] ..... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्रीजनु हारि-वृत्ती
प्रत सूत्रांक [३-६] गाथा
आवश्यकनिक्षपाः
||-II
जाओ, पुणो गुरू व तस्थ निसीवति, तओ अणुओगविसज्जणथं कायस्सयां करेंति कालस्स य पाटकमंति, ततो अणुण्णायाणुओगो साहू निरुवं पवेदेति । एवमेते उदेशादयः खतज्ञानस्यैव प्रवर्तन्ते, न शेषज्ञानानामिति, न चेहोदेशादिमिरधिकारः, किंतर्हि १, अनुयोगेन, तस्यैव प्रकान्तत्यादिति, 'जति सुतणाणस्से' त्यादि (३-६) (४-६) (५-७) सर्व निगदसिद्धं यावत् । इमं पुण पट्ठवण पदुच आवस्सगस्साणुोगोंति, नवरमिमा पुनरपिकता प्रस्थापना प्रतीत्य, प्रारम्भप्रस्थापनामेनामाश्रित्यावश्यकस्य, अवश्य क्रियानुसानादावश्यक वस्थानयोग:- अर्थकथनविधिस्तेनाधिकार इत्यर्थः हानुयोगस्य प्रक्रान्तत्वातनवतम्यतालम्बनायाः खल्वस्या द्वारगाथायाः प्रस्तावः । तयथा-'णिक्खेवेगह नित्ति विही पवित्तीय केण वा कस्स । तद्दार भेद लक्षण तदरिहपारसा य मुत्तथा ॥१॥ अस्याः समुदायार्थमययवार्थे च ग्रन्थान्तरे स्वस्थान एवं व्याख्यास्यामः, अन तु कस्येति द्वारे 'इम पुण पट्टवर्ण पदुश्च आवस्सगस्स अणुओगो'त्ति सूत्रनिपातः, 'जइ आवस्सगस्से'त्यादि, (६-९) प्रश्नसूत्र,निवेचनसूत्र चोत्तानार्थमेव । नवरमाह चोदक:-बहावश्यकं किमर्ग किमगानीत्यादिप्रश्नसूत्रस्थानवकाश एव, नन्धनुयागादेवावगतत्वात, तथाहि-तत्रावश्यकमनंगप्रविष्ठभताधिकार एवं व्याख्यातं, तहाप्यमबाघोत्कालिकादिक्रमेणैव आवश्यकस्योदेशादीनां प्रतिपादितत्वादिति, अत्रोच्यते, यत्तावदुक्तं 'नन्यनुयोगादेवावगतत्वा' दिति तदयुक्तं, यतो नायं नियमोऽवश्यमेव नन्दिरादो व्याख्येयः, कुतो गम्बत इति घेत, अधिकृतसूत्रोपन्यासान्यथानुपपत्तेः, इदमेव सूत्र ज्ञापकमनियमस्येति, मङ्गटार्थमवश्यं व्याख्येय इति चेत् न, ज्ञानपंचकाभिधानमात्रस्यैव मालत्वात् । यञ्चोक्तं 'इहाप्यनाप्रविष्टोत्कालिकादिक्रमेणैवाऽ ऽवश्यकस्योरेशादयः प्रतिपादिता' इति, एतदपि न बाधकमन्यार्थत्वात् , इहागप्रविष्टादिभेदभिन्नस्य श्रुतस्योद्देशादयः प्रवर्तन्ते इति शापनार्थमेतदित्यम्यार्थता, अन्ये | तु व्याचक्षते-चारित्र्यपि भिन्नकर्मक्षयोपशमजन्यत्वात् ज्ञानस्यानाभोगबहुलो भवति माषतुषवत् सोऽपि प्रज्ञापनीय एवेति दर्शनार्थ ।।|
दीप अनुक्रम [३-६]
453
॥५॥
5-45
... 'आवश्यक'स्य निक्षेपा:
~142
Page #143
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[९]
गाथा
दीप अनुक्रम [७-१०]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [७-९] / गाथा [१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५] चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्री अनु० हारि. वृत्तौ
॥ ६ ॥
इहाधिकृतानुयोगविषयीकृतशास्त्रनाम आवश्यकश्रुतस्कन्धाध्ययनानि नाम च यथार्थीदिभेदात् त्रिविधं तद्यथा-यथार्थमयथार्थमर्थशून्यं च तत्र यथार्थ प्रदीपादि अयथार्थ पलाशादि अर्थशून्यं ङित्यादि, तत्र यथार्थे शास्त्राभिधानमिष्यते, तत्रैव समुदायार्थपरिसमाप्तेः, यतएवमतस्तनिरूपयन्नाह' तम्हा आवस्वयं ' इत्यादि, ( ७-१० ) तस्मादावश्यकं निक्षेप्स्यामीत्यादि उपन्याससूत्रं प्रकटार्थमेव चोदकस्त्वाह-'खंधो नियमयणा अज्झवणावि य ण धवइरिता । तन्हा ण दोविज्झा अण्णतरं गेण्ड घोदेति ॥ १ ॥' आचार्यस्त्वाह' खंधोत्ति सत्यनामं तस्स य सत्थस्स भेद अज्झयणा । फुड भिण्णत्था एवं दोन्ह गद्दे भणति तो सूरी ॥ १ ॥' साम्प्रतं यदुक्तं 'आवश्यक निक्षेप्स्यामी' त्यादि, रात्र ज न्यतो निक्षेपमेदनियमनायाह- ' जत्थ' गाहा (१-१०) व्याख्या यत्र जीवादी वस्तुनि यं जानीयात् कं १-निक्षेप, न्यासमित्यर्थः, यत्तदोनित्याभिसंबंधात् तनिक्षिपेत् निरवशेषं समयं यत्रापि च न जानीयात्समयं निक्षेपजाऊं 'चतुरकं' नामादि भावान्तं निक्षिपेत् तत्र, यस्माद् व्यापकं नामादिचतुष्टयमिति गाथार्थः 'से किं त' मित्यादि ( ८-१० ) प्रश्नसूत्रं, अत्र 'से' शब्दो मागधदेशी प्रसिद्धः अथशब्दायें वर्त्तते, अथशब्दश्च वाक्योपन्यासार्थः तथा चोक 'अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलेोपन्यासार्थप्रतिवचनसमुचयेषु, किमिति परिप्रश्ने, तदिति सर्वनाम पूर्वप्रक्रान्तावमर्शि, अतोऽयं समुदायार्थ:-अथ किं तदावश्यक १, एवं प्रश्ने सति आचार्यः शिष्यवचनानुरोधेनाद राधानार्थ प्रत्युच्चार्य निर्दिशति| अवश्य कर्त्तव्यमावश्यकं, अथवा गुणानामावश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकं यथा अंतं करोतीत्यंतकः, प्राकृतशैल्या वा 'वस निवास' इति गुणशून्यमा• त्मानमावासयति गुणैरित्यावासकै, चतुर्विधं प्रज्ञप्तं चतस्रो विधा अस्येति चतुर्विधं प्रशनं-प्ररूपितं अर्थतस्तीर्थाः सूत्रतो गणधरैः, तद्यथा नामावश्यकमित्यादि, 'से किं तु' भित्यादि (९-११) वत्र नाम अभिधानं नाम च तावश्यकं च नामावश्यक, आवश्यकाभिधानमित्यर्थः, इद्द नान्न इदं लक्षणं यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा ॥ १ ॥ यस्य वस्तुनः 'ण'मिति
~143~
आवश्यक. निक्षेपाः
11 & 11
Page #144
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१०]
गाथा
दीप अनुक्रम [११]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१०] / गाथा [१]...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृचौ
॥७॥
वाक्यालङ्कारे जीवस्य वा यावत्तदुभवानां चावश्यकमिति नाम क्रियते 'सेत' मित्यादि, तदेतन्नामावश्यकमिति समुदायार्थः, अवयवार्थस्वयं 'आवरसति नामं कोई कासति जहिच्छिया कुणति । दीसइ ढोए एवं जह साहिग देवदत्ताची || १ | अनीसुवि केसुवि आवास भणवि एगदव्यं तु । जह अधित्तममिणं भर्गति सप्पस्स आवासं ॥ २ ॥ जीवाण बहूण जहा भणति अगा तु मूसगावासं । अजीवाबिहु बहवो जद्द आवासं तु सदस्सि || ३ || उभयं जीवाजीचा तणिकरणं भांति आवासं । जह राईणावासं देवावासं विमाणं वा ॥ ४ ॥ समुदाएणुभयाणं कप्पावासं भणति इंदस्स । नगरनिवासावासं गामावासं च इत्यादि ॥ ५ ॥ 'से किं' समित्यादि ( १०-१२ ) तत्र स्थापयत इति स्थापना स्थापना चावश्यकं चेति स्थापनावश्यक, आवश्यक त्रतः स्थापनेत्यर्थः, स्थापनालक्षणं चेदं यस्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच तत्करणिः। लेप्यादि कर्म तरस्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥ १ ॥ यत् 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे कर्मणि वा यावदावश्यकमिति स्थापना स्थाप्यते, 'सेच ' मित्यादि, तदेतत्स्थापना ऽऽवश्यकमिति समुदायार्थः, अवयवार्थस्स्वयं- 'आवश्य करेन्तो उवणार जे उविजए साहू । तं तह ठवणाया भण्णति साजिमेहिं तु ॥ १ ॥ काष्ठ कर्म काष्टकम् तच कुट्टिमं तस्मिन्, चित्रकम्मे प्रतीतं, पुस्तकम् धीउल्लिकादि वस्त्रपल्लवसमुत्य या संपुटकं मध्यवर्त्तिकालेख्यं वा पत्रच्छेदनिष्कण्णं वा उक्तं च- 'डल्डिंगादि बेल्जियम्मादिनिव्वत्तियं च जाणादि । संपुढगवत्तिलिदियं पत्तच्छेज्जे व पोत्यति ॥ १ ॥ लेप्यकम्र्म्म प्रतीतं, मन्थिसमुदायजं पुष्पमालावत् जालिकावडा, निर्वर्तयन्ति च केचिदतिशयनैपुण्याविवास्तत्राप्यावश्यकवन्तं साघुमित्येवं बेष्टिमादिष्वपि भावनीयं तत्र वेष्टितं वेष्टनकसंभवनानन्दपुरे पूरकवत्, कलाकुशलभावतो वा काली वस्त्रवेष्टनेन चावश्यकक्रियायुक्तं यतिमवस्थापयति परिमं-भरिमं सगर्भरीतिकादिभृतप्रतिमादिवत् संघाविमं कंचुकवत्, अक्ष:-चन्दनकः मराटक:- कपर्दकः, एतेषु एको वा आवश्यक क्रियावान् अनेके का ततः सद्भावस्थापनाया वा असद्भावस्थापनया वा रात्र तदाकारवती सद्भाव
~144~
आवश्यकनिक्षेपाः
॥७॥
Page #145
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........... मूलं [११-१३] / गाथा [१...] ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
S
आवश्यक
प्रत सूत्रांक [११-१३] गाथा
॥८॥
श्रीजनु स्थापना अतदाफारवती चासद्भावस्थापनेति, उक्तं च-"अक्खे बराडए वा कडे पोत्ये व चित्तकम्मे वा । सम्भावमसम्भावं ठवणाकार्य हारतवियाणाहि ॥ १॥ लेप्पगहत्थी हस्थित्ति एस सम्भाविया भवे ठवणा | होइ असम्भावे पुण हत्यित्ति निराकिती अक्खो ॥ २ ॥' आव-द
| श्यकमिति क्रियाक्रियावतोरभेदाचद्वानत्र गृह्यते, स्थापना स्थाप्यते-स्थापना क्रियते 'सेत' मित्यादि, तदेतत्स्थापनाऽऽवश्यक । साम्प्रतं | नामस्थापनयोरमेवाशकापोहायद सूत्र 'नामठवणाण' मित्यादि, (११-१५ ) का प्रतिविशेषो नामस्थापनयोरिति समासार्थः । आक्षेपपरिहारलक्षणो विस्तरार्थस्त्वयं-भावरहितम्मि दब्वे णामढवणाओ दोवि अविसिट्ठा । इतरेतरं पडुचा किह व विसेसो भवे तासि ॥१॥ कालकंतोऽत्थ विसेसो णाम ता धरति जाव तं दव्वं । ठवणा दुहा य इतरा यावकहा इत्तरा इणमो ॥ २॥ इह जो ठवणिंदकओ अक्खो सो पुण ठविग्जए राया । एवित्तर आवकहा कलसादी जा बिमाणेमु ॥ ३॥ अहव विसेसो भण्णति अभिधाणं वत्थुणो णिरागारं । ठवणाओ आगारो सोषि य गामस्स णिरवेक्खो ॥ ४ ।' से किंत' मित्यादि, (१२-१४ ) तत्र द्रवति-गच्छति तास्वान् पर्यायानिति द्रव्य, द्रव्यं च* तदावश्यकं च द्रव्यावश्यक, भावावश्यककारणमित्यर्थः, द्रव्यलक्षणं चेदं- 'भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्रव्यं | तत्त्वज्ञः संचतनाचेतन कार्यतम् ॥.१ ॥ इह चावश्यकशब्देन प्रशस्तभावाधिष्ठिता देहादय एवोच्यते, तद्विकलास्तु त एव द्रव्यावश्यकमिति,
उक्तं च-"देहागमकिरियाओ दवावासं भणंति सब्वण्णू । भावाभावत्तणओ दवाजिवं भावरहितं वा ॥१॥' विवक्षया विवक्षितभाव४. रहित एव देहो गृखते, जावो न सामान्यतो, भावशून्यत्त्वानुपपत्तेरलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, द्रव्यावश्यकं द्विविध प्रज्ञप्त, तथथा-आगमत:-18 & आगममाश्रित्य नोआगमतश्च, नोशब्दार्थ यथाऽवसरमेव वक्ष्यामः, चशब्दो द्वयोरपि तुल्यपक्षतोद्भावनायौँ । 'से किं त' मित्यादि
(१३-१४) आगमतो द्रव्यावश्यक 'जस्स ण' मित्यादि, यस्य कस्यचित् 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे आवश्यकमित्येतत्पर्य, इह चाधिकृत
दीप
454
अनुक्रम [१२-१४]
6. आवश्यकस्य द्रव्य-निक्षेप अधिकार:
~145
Page #146
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[११-१३]
गाथा
||..||
दीप अनुक्रम
[१२-१४)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [११-१३] / गाया (1...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि वृत्तौ #18 ||
| पालम्बनं शास्त्रमभिगृह्यते, शिक्षितं भवति, स तत्र वाचनादिभिर्वर्त्तमानोऽपि द्रव्यावश्यक मेति क्रिया, अत्र च 'सुपां लुग' त्यादिना छंदास एन (इति) शिक्षितमित्यपि भवति, तत्र शिक्षितमित्यंतं नीतमधीतमित्यर्थः स्थितमिति चेतसि स्थितं न प्रच्युतमितियावत् जितमिति परिपार्टी कुर्वतो द्रुतमागच्छतीत्यर्थः, मितमिति वर्णादिभिः परिसंख्यातमिति हृदयं परिजेदमिति सर्वतो जितं परिजितं परावर्तनां कुर्वतो यदुत्क्रमेणाप्यागच्छतीत्यभिप्रायः नाम्ना समं नामसमं नाम अभिधानं एतदुक्तं भवति-स्वनामवत् शिक्षितादिगुणोपेतमिति घोषा उदात्तादयः वाचनाचार्याभिहितपापैः समं घोषसमं, अक्षरम्यूनं हीनाक्षरं न हीनाक्षर महीनाक्षरं अधिकाक्षरं नाधिकाक्षरमनत्यश्वरमिति, विपर्य स्तरत्नमाला गतरत्नानीव न व्याविद्धानि अक्षराणि यस्मिंस्तदव्याविद्वाक्षरं उपलाकुलभूमिलाङ्गलवन्न स्वहितमस्पाडितं न मिलितममिडि असदृशधान्यमेलकवत् न विपर्यस्तपदवाक्यमन्यमित्यर्थः असंतपदवाक्यविच्छेदं चेति, अनेकशास्त्रप्रन्यसंकरात् अस्थाननिमन्थनाद्वा न व्यत्याऽऽम्रेडित फोलिकपायसवत् भेरीकंथावचेत्यष्यत्याग्रेडितं, अस्थानादिगन्धनेन व्यत्या मेहितं यथा प्राप्तराज्यस्य रामस्य राक्षसा निधनं गते' त्यादि प्रतिपूर्ण ग्रंथवोऽर्थवत्र तत्र प्रथतो मात्रादिभिर्यत्प्रतिनियतप्रमाणं छंदसा वा नियतमानमिति, अर्थतः परिपूर्ण नाम न साकांक्षमव्यापकं स्वतंत्रं चेति, उदात्तादिघोषा विकलं परिपूर्णपोषं आह-पोषसममित्युक्तं ततोऽस्य को विशेषः ? इति उच्यते, घोषसममिति शिक्षितमधिकृत्योक्तं प्रतिपूर्णघोषं सूचार्यमाणं गृह्यत इत्ययं विशेष: कंठ ओष्ठ कंठोष्टं प्राण्यङ्गत्वादेकबद्धावस्तेन विप्रमुक्तमिति विग्रहः, नाव्यरूपालमूकभावितवत् वाचनया उपगतं गुरुवाचानया हेतुभूतयावा, न कर्णाघाटकेन शिक्षितमित्यर्थः पुस्तकाडा अधीतमिति, स इति सम्व: 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे तत्राऽऽवश्यके वाचनया प्रतिप्रश्नेन परावर्त्तनेन धर्मकथया वर्तमानो द्रव्यावश्यकमिति वाक्यशेषः नानुप्रेक्षया व्यावृत्तले ज्यावश्यक, कस्माद् १ अनुपयोगो द्रव्य मिति कृत्या, अनुप्रेक्षा तु तदभावः तत्र ग्रन्थतो शिष्याध्यापनं वाचना
~ 146 ~
"
द्रव्यावश्य
काधिकारः
॥ ९ ॥
Page #147
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.......... मूलं [११-१३] / गाथा [१...] ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
व्यावश्यकाधिकारः
प्रत सूत्रांक [११-१३] गाथा
NEN
श्रीअनु अनवगतार्थादौ गुरु प्रति प्रश्नः प्रतिप्रश्नः मन्थस्य पुनः पुनरभ्यसनं परावर्तन अहिंसालक्षणधन्विाख्यानं धर्मकथा ग्रंथार्थानुचिन्तनमनुप्रेक्षा, हारिहत्तौआइ-आगमतोऽनुपयुक्तो व्यावश्यकमित्येतावतैवामिलपितार्थसिद्धेः शिक्षितादिश्रुतगुणोत्कीर्तनमनर्थकमिति, उच्यते, शिक्षिताविथुत- ॥१०॥
गुणकीर्तनं कुर्वन्निदं ज्ञापयति यह सकलदोषविषमुक्तमपि श्रुतं निगदतो द्रव्यश्रुतं भवति, द्रव्यावश्यक च, एवं सर्व एव ईयादिकियाविशेषः अनुपयुक्तस्य विफल इति, उपयुक्तस्य तु यथा स्खलितादिदोषदुष्टमपि निगदत्तो भावश्रुतमेवमीर्थादयोऽपि क्रियाविशेषाः कर्ममलापगमायेति, एत्व य अवायदसणथं होणक्खरंमि उदाहरण-इह भरहमि रायगिह नगरं, तत्व राया सेणिओ नाम होस्था, तरल पुत्तो पयाणु| सारी चविषद्धिसंपन्नो अभओ णाम होत्था, अण्णचा तेणं कालेणं तेण समपर्ण समणे भगवं महावीरे ह भरहंमि विहरमाणे तंमि णगरे।
समोसरिंसु, तत्थ य बहवे सुरसिद्धविणाहरा धम्मसवणनिमित्तं समागञ्छिसु, ततो धम्मकहावसाणे णियणियभवणाणि गच्छताणं एगस्स | विग्जाहरस्स णगामिणीए विजाए एकमक्खरं पम्हमासी, तओ तं वियलविज णियगभवणं गंतुमच्चाएन्तं मधुक इवोप्पणिषयमाणं
सेणिए अदक्नु, ततो सो भगवंतं पुरिर्थसु, से व भगवं महावीरे अकहिंस.तं च कहिाजमाण निसणेत्ता सेणियपुत्ते अभए विम्जाहरं एवं लावयासी-जह ममें सामण्णसिद्धिं करेसि ततोऽहं से अक्खर भामि पयाणसारितणओ.सेय कहिंस, ततो से अभए तमक्खर लर्मिस. भाभिचा य विजाहरस्स काहिमततो से य पुण्णविजो तीर विजाए अभयस्स साहणावाचं कहेचा णियगभवर्ण गमिमुसि, एस विडंतो, हा अयमत्योवणओ-जा स विजाहरस्सहीणक्खरदोसणं जहगमणमेव पम्हद्रमासी.मि य अहंते बिहला विक्जा. एवं हीनाक्षरभेदोऽथेलाभेदात् क्रियाभेदादयस्तनो मोक्षाभावस्तदभावे च दीक्षावैयमिति अहियकखरंमि उदाहरणं-पाटलिपुसे पथरे चंगुत्तपुसस्स बिंदुसारस्स पुत्तो
असोगो नाम राया, वस्स असोगस्स पुत्तो कुणालो नाम, उजेणी से कुमारमोचीप दिण्णा, मा बुट्टर, अण्णता तस्स रण्णो निवेविसं-जहा कुमारी
दीप अनुक्रम [१२-१४] |
~147
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.......... मूल [११-१३] / गाथा [१...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११-१३] | गाथा
काधिकार
श्रीअनुलासाइरेगट्टवासो जाओत्ति, वाहे रण्णा सयमेव लेहो लिहिओ जहाहीयतु कुमारी, कुमारस्स व मादीसम्बकीए रण्णा पासहियाए तस्थ हारि.वृत्ती पच्छण्णो बिन्दू पाडिओ, रण्णा अवाइय मुदिता उजेणी पेसिओ, वाइओ, वायगा पुषिछया-किं लिहिया, ते णेच्छंति कहिलं, ताकुमारेण
सयमेव वाइओ, चिंतिय चऽणेण-अहं मोरियवंसियाण अपडिया आणाओ, कहमहं अपणो पिरणो आणं भंजामि', तओ अणेण तत्तसळा॥११॥
गाए अच्छीणि अंजियाणि, ताहे रण्णा णार्य, परितपित्ता उजेणी अण्णस्स कुमारस्सै दिण्णा, सम्सवि कुमारस्म अण्णो गामो दिण्णो, अण्णया
तस्स कुणालस्स अंधयस्स पुत्तो जाओ, णामं च से कर्य संपती, सो अंधयो कुणालो गंधव अतीवकुश, अण्णया य अण्णायो बजेणीए लगायतो हिंडड, तत्थ रण्णो निवेदियं जहा एरिसो सो गंधव्वि जो अंधल ओत्ति, तओ रण्णा भणियं-आणेहनि, ताहे आणिओ जवणिव
| तरिओ गायनि, जाहे अतीच असोगो अक्खितो. ताहे भणति-कि ते देमि ?, तओ एत्य कुणालेण गीत- 'चंगुलपपोतो त, बिंदुसारस्स | अत्तुओ । असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायति कागिर्णि ॥ १ ॥ वाहे रण्णा पुफिडतं-को एस तुमी, तेण कहितं-तुम्भं चेव पुत्तो, ततो जवलियं अवसारे कंठे पधेनु सुपातो को, भणियं च-किं देमि, तेण भाणिय-कागणि मे देदि, रण्णा भणियं-किं कागिणिए व तुम करिहिसि जे कागणिं जायसि, ततो अमरहिं भणिय-सामि रायपुत्तार्ण र कागणि भण्णति, रण्णा भाणयं-कि तुम काहिसि रमण, कुणालेप माणिव-मम पुत्तो अस्थि संपतीणाम कुमारो, तओ से दिण्णं रज, सो चेव उवणओ णवरमहियसरणति अभिलायो कायव्यो, अड्वा भावाहिए छोकयं इमं अक्वाणय-कामियसरस्स तीरे व वंजुलरुक्खो महतिमहालओ, तत्थ किर रुक्खे अवलग्गि जो सरे |पहति सो जातिरिक्खजोणिओ तो मणुस्सो होति, अहमणुस्सो पनि ततो देवो होति, अहो पुणो वीर्य वारं पडति तो पुण सोधेवा व होइ, तत्थ वाणरो सपत्तिओ ओयरति पविदिणं पाणितं पातु, अण्णया पाणिपियणढाए आगतो संतो वंजुलरुक्खाओ मणुस्सिस्थिमिहु
दीप
अनुक्रम [१२-१४] |
॥११॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार'- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................... मूल [१४] | गाथा [१...] ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत सुत्रांक [१४] गाथा ॥१..||
श्रीअनु माणगं कामसरे पडितं, ततो सं देवभिहणमं जार्य पेच्छति, ओ वाणरो सपत्तिओ संपहारेति जहा रुक्म्य अवलम्गितुं सरे पढामो जा देव- द्रव्यावश्यहारि प्रचाराला मिहुणर्ग भवामो, तओ पटिताणि, उरालं माणुसजुभलं जार्य, सो भणइ-पडामो जाहे देषजयलगं भवामो, इस्थी बारेती, को जाणति मा ण टाकाधिकार ॥१२॥
होमो देवा, पुरिसो भणति-जइ प होज्जामो कि माणुसत्तणपि णस्सिहिति !, तीए भणिय-को जाणइत्ति, ततो सो सीए वारिग्जमाणोऽथि पडिओ, पुणोषि वाणरो चेव आओ, पच्छा सा रायपुरिसेहिं गहिया, रण्णो भज्जा जाया, इतरोऽवि मायारणहि गहिओ खण्डुओ सिक्खा|वितो, अण्णया य ते मोयारगा रणो पुरओ पेच्छं देति, रायावि सह तीए देवीए पेस्छति, ताहे सो वाणरो देवि निझाएंतो अहिलसति, तो तीए अणुकंपाए वाणरो भणिजो-जो जहा वट्टए कालो, तंतहा सेव वाणरा! । मा वंजुलपरि महो, वाणरा पढणं सर ॥१॥ उपलय: पूर्ववत् , भावहीणाधितभावेषि उदाहरणं, जहाँ काइ अगारी पुत्तस्स गिलाणस्स हेण तित्सकबुभेसयाई मा णं पीलेज्ज ऊणए देइ, पउणति ण तेदि, अहिएहिं मरति बालो, तहाहारे । साम्प्रतमिदमेव द्रव्यावश्यकं नवनिरूप्यते, ते च मूलनया नेगमादयस्तथा चोक्तम्-'णेगम संगह ववहार काजुमुतो चेक होइ घोग्धव्यो । सदे य समभिरूढे एवंभूते व मूळनया ॥१॥' तो 'गेगमस्से' स्यादि (१४-१७) नैगमस्यैकोऽनुपयुक्तो देवदत्तः आगमतः एक व्यावश्यकं द्वाषनुपयुक्ती देवदत्तयशदची आगमतो द्रघ्यावश्यक प्रयः अनुपयुक्ता देवदत्तयझदत्तसोमदत्ताः आगमनो दम्यावश्यकानि, किंबहुना ?, यावन्तोऽनुपयुक्ता देवदत्मादयस्तावत्येव तानि नैगमस्याऽऽगमतो दुव्यावश्यकानि, एवमतीतान्यनागतानि च प्रतिपद्यत इति, नैगमस्य सामान्यविशेषाभ्युपगमप्रधानत्वात् , विशेषाणां च विवक्षितत्वात, आह-एवं सामान्य| विशेषाभ्युपगमरूपत्वात् अस्य सम्यग्दृष्टित्वप्रसङ्गः, न, परस्परतोऽत्यन्तनिरपेक्षत्वाभ्युपगमात् , उक्तं च-दोहिबि णपहिं नीतं सत्थमुलूएण
॥१२॥ तहषि मिळतं । * सविसयपहाणतणेण अण्णोण्णनिरपेक्खो ॥१॥'' एवमेव बबहारस्सबि' एवमेव यथा नैगमस्य तथा व्यवहारस्यापि
C454
दीप
अनुक्रम [१५] ।
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[19-18]
गाथा
दीप अनुक्रम [१६-१७]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१५-१६] / गाया [t...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० दारि वृत्तौ
॥ १३ ॥
एक: अनुपयुक्त देवदतः आगमत एकं द्रव्यावश्यकमित्यादि, अस्य व्यवहारनिष्ठत्वात् व्यवहारस्य च विशेषायत्तत्वात् विशेपव्यतिरेकेण च सामान्यासिद्धेः विशेषाभ्युपगमसान्यादविदेशेनैवाधिकृतनयमताभिधानलक्षणेष्टार्थसिद्धेर्लापवार्थ नैगमनयमतोपन्यासानन्तरं व्यवहारनय
मतोपन्यास इति । 'संगहस्से' त्यादि, संग्रहस्यको वानेके वाऽनुपयुक्तो वा अनुपयुक्त वा आगमतो द्रव्यावश्यकं वा व्यावश्यकानि वा 'से एग' सि तदेकं द्रव्यावश्यक सामान्यापेक्षया, द्रव्यावश्यक सामान्य मात्रप्रतिपादनपरत्वादस्य, सामान्यव्यतिरेकेण विशेषासिद्धेः, 'उज्जुमुत्तस्से - त्यादि, ऋजुसूत्रस्यैको वाऽनुपयुक्तो देवदत्तः आगमतच एकं द्रव्यावश्यक, पृथक्त्वं नेच्छति, अयमंत्र भावार्थ:- वर्तमानकाळभावि आत्मीयं चच्छति तस्यैवार्थक्रियासमर्थत्वात् स्वधनवन्, अतीतानागतपरकीयानि तु नेच्छति अतीतानागतयोर्विनष्टानुपपन्नत्वात् परकीयस्य व स्वकार्याप्रसाधकत्वादिति । ' तिन्हं सद्दणयाण' मित्यादि, त्रयाणां शब्दनयानां शब्दसमभिरुद्वैभूतानां शः अनुपयुक्तः अवस्तु, अभाव इत्यर्थः, 'कस्मादिति कस्मात्कारणात्, यदि ज्ञः अनुपयुक्तो न भवति, कुत एतद् १, उपयोगरूपत्वात् ज्ञानस्य ततञ्च झोऽनुपयुक्तत्वसंभव एव 'सेत' मित्यादि, तदागमतो द्रव्यावश्यकं, आह-कोऽयमागमो नाम इति उच्यते ज्ञानं कथमस्य द्रव्यत्वं भावरूपत्वात् ज्ञानस्येति, सत्यमेतत् किंत्यागमस्य कारणमात्मा देहः शब्द, द्रव्यं च कारणमुक्तमतस्तत्कारणत्वादागम इति कारणे कार्योपचारात् । ' से किं तं नोआगमती इत्यादि ( १५-१९ ) अथ किं तन्नो आगमतो द्रव्यावश्यकं १, नोआगमतो इत्यत्र आगमसम्वनिले मोसो अहव देसपडिले सहवे जह णसरीरं भव्यस्त य आगमाभावा ॥ १ ॥ फिरियागमुषरंतो आवासं कुगति भावमुण्णोति । किरियाऽऽगमो ण होई तस्स निसेो भवे देसे ॥ २ ॥ नोआगमतो द्रव्यावश्यकं त्रिविधं प्रज्ञतं, तद्यथा शशरीरद्रव्यावश्यकं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकं ज्ञशरीरमव्यशरीरव्यविरिकं च द्रव्यावश्यक' से किं तमित्यादि ( १६-१९) प्रश्नसूत्र ज्ञातवानिति : तस्य शरीरं उत्पादकालादारभ्य प्रतिक्षणं शीर्यत इति शरीरं
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द्रव्ये नयाः
॥ १३ ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं १५-१६] / गाथा [१...] ...... * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७] गाथा ॥१..||
ACMS
श्रीअनुः तदेवानुभूतभावत्वात् द्रव्यावश्यक प्रशरीव्यावश्यक । आवस्सएत्तिपदत्याधिकारजाणगस्सेत्यादि, आवश्यकमिति यत्पदं भव्यशरीर- नोआगम हारि.वृत्ती हव्यावश्यक, अस्वार्थ एवार्थाधिकारः तद्गता अर्थाधिकारा वा गृह्यन्ते तस्य तेषां वा शातुः यच्छरीरकं, संज्ञायां कन् , किंभूतं ?- व्यपगत-निद्रव्ये भेदाः
च्युतच्यावितत्यक्तदेई, छ्यपगतम्-ओघतश्ववनापर्यायादचेतनत्व प्राप्त च्युत-देवादिभ्यो भ्रष्ट च्यावित-तेभ्य एवायुःक्षयेण भ्रशितं त्यक्तदेहं-जीव॥१४॥
संसर्गसमुत्थशक्तिजनिताहारादिपरिणामप्रभवपारित्यक्तोपचयं, तत्र व्यपगतं सर्वगताऽऽमनः प्राकृतमपि भवति तद्विच्छित्तवे च्युतं, इदमपि स्वभावत एवं कैश्चिदिष्यते तद्व्यपोहाय च्यावितं, इत्थं त्यक्तोपचयमिति चैतज्जीवशरीरयोर्विशिष्टसम्बन्धज्ञापनार्थमिति, उक्तं च वृद्धैः"पज्जार्यवरपर खीरंच कमेण जह दधित्तेणं । तह चेतणपजायादचेयपत्तं क्वगतंति ॥१॥ चुतमिह ठाणभई देवोव्य जहा विमाणवासाओ । इय जीविरायणादिकिरियाभहूँ चुतं भणिमो ॥२॥ चइयंमि चाषितं जं जह कप्पा संगमो सुरिदेणं | तह चावियमिति जीवा पलिएणाउक्खएणति ॥ ३ ॥ आहारसत्तिजणिताऽऽहारसुपरिणामओवचयमुण्ण । भण्णाहु चत्तदेई देदीवरओसि एगट्ठा ॥४॥ एवमुक्तेन विधिना जीवेन-आत्मना विविधमनेकधा प्रकर्षण मुक्तं जीवचिप्रमुक्तं, तथा चान्यैरप्युक्त-पंधणदत्तणओ आउक्त्रायव्य जीवविप्पजद । विजदंवि पगारेण जीवणभावद्वितो जीवो ॥१॥' ततश्चेदं व्यपगतादिविशेषणकलापयुक्तं यावज्जीवविप्रमुक्तं शशरीरद्रव्यावश्यकमिति गम्यवे, कंधे, यस्मादिदं शथ्यागतं वा संस्तारगतं वा सिद्धशिळातलगतं वा वष्टा कश्चिदाह-अहो ! अनेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनदृष्टेन भावेन आवश्यकमित्येतत्पदमास्यातमित्यादि, तस्मावतीतकालनवानुवृत्त्याऽतीत वृत्तिमपेक्ष्य ब्यावश्यकमित्युच्यत इति क्रिया, यथा को दृष्टान्त इति १, प्रश्नानिवचनमाइ-अयं मधुकुम्भ आसीदयं घृतकुम्भ आसीदित्यादि अक्षरगमनिका, भावार्थ उच्यते-तत्र शय्यासंस्तारको प्रतीतो, सिद्धशिलातलं तु यत्र शिलातले साधवस्तपःपरिकर्मितशरीरा: स्वयमेव गत्वा भक्तपरिणयअनशनं प्रतिपन्नपूर्वाः प्रतिपद्यन्ते प्रतिपत्स्यन्ते
RESSES
दीप
ता॥१५॥
अनुक्रम [१८]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं [१७-१८] / गाथा [१...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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रोभव्य
प्रत सूत्रांक [१७-१८] गाथा
शरीराव
लाति, क्षेत्रगुणतश्च तत्र यथामद्रिकदेवतागुणादाराधना सिद्धिमासादयतीति, अन्ये तु व्यापक्षते-यस्मिन् शिलातले सिद्धः कचिदिति, गतं स्थितश्रीअनु हारि-वृत्ती
मित्वनर्यान्सर, अहो दैन्यविस्मयामंत्रणेषु त्रिष्वपि युज्यते, वनानित्यं शरीरमिति दैन्ये, आवश्यकं ज्ञातमिति विस्मये, अन्य पार्श्वस्थमामंत्रयत
आमंत्रणमिति, अनेन प्रत्यक्षेण उत्पत्तिकालादारभ्य प्रतिसमयं शीर्यत इति शरीरं तदेव पुरळसंघातनरूपत्वात् समुरुड्यस्तेन जिनदृष्टेन भावेन ॥१५॥ भूतपूर्वगत्या जीवितशरीरयोः कथविदभेदात् आवश्यकमित्येतत्पदमाझ्या सामान्यविशेषरूपेण, अन्ये तु व्याचक्षते-आपषियं' ति प्राकृत
शैल्या छान्दसत्वाच गुरोः सकाशादागृहीतं, प्रज्ञापितं सामान्यतो विनेयेभ्यः , प्ररूपितं प्रतिसूत्रमर्थकथनेन, दर्शितं प्रत्युपेक्षणादिवर्शनेन, इयं क्रिया पामरक्षरैरुपात्ता इत्थं च कियत इति भावना,निदर्शितं कथचिदगृहतः परयाऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्शित, उपदर्शितं सकलमययुक्तिभिः, अन्ये वन्यथापि व्याचक्षते, तद तपन्यासलक्षणेन प्रयासनेति, अतः द्रव्यावश्यकमभिधीयते, आह-आगमक्रियातीतमचेतनमिदं कथं द्रव्यावश्यकमभिधीयते , अनोच्यते, अतीतकालनयानुवृत्त्या, यथा को दृष्टान्तः, तत्र दृष्टमर्थमन्तं नवतीति दृष्टान्त:, लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिअर्थ बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्त इत्यन्ये, अर्थ मधुकुम्भ आसीदित्यादि, अतीतमधुघृतपटवदिति भावना । सेत' मित्यादि निगमनं । 'से किंत'मित्यादि (१७.२१) भव्यो योग्यो दलं पात्रमिति पर्यायाः, तस्य शरीरं तदेव भाविभावाऽऽवश्यककारणत्वात् द्रव्यावश्यकं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकं, 'जो जीवो' त्यादि, यो जीवो योन्या-अवाच्यदेशलक्षणया जन्मत्वेन सकळनिवृत्तिलक्षणेन, अनामगर्भव्यवच्छेवमाद, निष्कान्तो-निर्गतोऽनेनेच शरीरसमुच्छयेणेति पूर्ववत्, पावसेन-गृहीतेन, अन्ये त्वभिदधति- 'अत्तएणं' ति आत्मीयेन, जिनदृष्टेन भाषेनेत्यादि पूर्व| वत्, अथवा तदावरणक्षयोपशमलक्षणेन 'सेयकाळे' चि छान्दसत्वादागामिनि काले शिक्षिष्यते, न तायच्छिक्षते, तदेतद्भाविनी वृश्चिमंगफित्य भव्यशरीरद्रव्यावश्यकमित्युच्यते, यथा को दृष्टान्त इत्यादि भावितार्थ यावत 'से त' मित्यादि । 'से किं त' मित्यादि (१८-२२) शरीर
OMGHOSARSEX
दीप
॥१५
अनुक्रम [१८-१९]|
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................... मूलं [१९] | गाथा [...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [१९] गाथा ||१..||
श्रीअनु० भव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकमिति निरूपितशब्दार्थमेव विविध प्रज्ञान, तद्यथा-लौकिकं कुप्रावचनिक लोकोत्तर, 'से किं त'मित्यादि लौकिक हारि-वृत्ती (१९-२२ )एते राजेश्वरादयः मुखधावनादि कृत्वा ततः पश्चाद्राजकुलादी गच्छीत तदेतल्लौकिक द्रव्यावश्कमिति क्रिया, तत्र राजा-चक्रव-प द्रव्याच.
मादिमहामाण्डालिकान्तः ईश्वरो-युवराजा माण्डलिकोऽमात्यश्च, अन्ये तु व्याचक्षते-अणिमायष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर इति, तलवर:-परितुष्ट॥१६॥
| नरपतिप्रदत्तपट्टपंधभूषितः मानम्बिका-छिन्नमंडलाधिपः कोदुम्विका कतिपयकुटुम्बप्रभुः इभ्य:-अर्थवान , स च किल यस्य पुत्रीकृतरत्नराश्य-1|न्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येतावताऽर्थेनेवि, श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाः पुरज्येष्ठो पणिक, सेनापतिः- नरपनिनिरूपितोष्ट-1
हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणाया: सेनायाः प्रभुरित्ययः, सार्थनायक:- गणिमं धरिमं मेज़ पारिच्छेज व दबजावं तु । घेणं लामट्टी। ६ वञ्चइ जो अण्णदेसं तु ॥१॥ निवबहुमओ पसिद्धो दीणाणाहाण बच्छलो पंथे । सो सत्यवाहनामं धणोव्य लोए समुन्वहति ॥ २ ॥
प्रभृतिमहणेन प्राकृतजनपरिग्रहः, 'कलं पादुप्पभाताए' इत्यादि, कल्लमिति : प्रज्ञापकापेक्षमेतत् , यतः प्रज्ञापको द्वितीयायामेव प्रशा| पयति, प्रादुः प्रकाशन इत्य धातुः, ततश्च प्रकाशप्रभातायां रजन्यां सुविमलायामित्यादिनोत्तरोत्तरकालभाविना विशेषणकलापेनाऽत्यंतीचम|वतां मामवानां तमावश्यककालमाह, 'फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते' इहोत्पलं पद्ममुच्यते कमलवारण्यः पशुविशेषः ततध फुल्लोत्पल
कमलयो:-विकशितपद्मकमलयोः कोमलं-अकठोरं उन्मीलितं यस्मिन्निति समासः, अनेनारुणोदयावस्थामाइ, 'अहापंडुरे पहाए' 8 अथ आनन्तर्ये, तथा 'रक्तासोगे ' त्यादि, रक्ताशोकप्रकाशकिंशुकशुकमुखगुंजार्द्धरागसहशे, आरक्त इत्यर्थः, तथा 'कमलाकरनलिनीखण्ड-181
बाधके' कमलाकरो-हृदादिजलाअवस्तास्मिन्नलिनीखण्डं तद्वोधक इत्यनेन स्थलनलिनव्यिवच्छेदमाह, यद्वा कमलाकरनलिनीखण्डयोर्भेदने ग्रहणं, 'उत्थिते' उद्गते सूर्ये सहस्त्ररश्मी-सहस्रकिरणे दिनकरे-आदित्ये तेजसा ज्वलवि सति, विशेषण पहुत्वं महत्त्वाशयशुद्धयर्थ कर्तव्यमितिख्यापनार्थ,
RECORECIES
दीप
अनुक्रम [२०]
S*
... लौकिक-द्रव्य-आवश्यकस्य अधिकार: वर्णयते
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........... मूलं R०-२१] / गाथा [१...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [२०-२१]
गाथा ||१..||
श्रीअनुय ते सर्व एव विशेषाः सन्ति तस्मिन्नुदिने, अशातज्ञापनार्थ वा विशेषकलाप इति, 'मुधोवणे' त्यादि, निगमनान्तं प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं पुष्प
द्रव्याहारि.वृत्ता मास्ययोरयं विशेष:-अपथितानि पुष्पाणि प्रथितं माल्य, विकशितानि वा पुष्पाण्यविकशितानि माल्यं, आरामोद्यानयोरप्ययं विशेष:-विविधपुष्प
वश्यक जात्युपशोभितः आरामः चम्पकवनावपशोभितमुद्यान | ‘से किंत' मित्यादि (२०-२४) यदेते चरकादयः इडाज्यादेरुपलेपनावि कुर्वन्ति तदेतत्कु॥१७॥ प्रावनिक द्रव्यावश्यकामिनि फ्रिया, तत्र चरका:--धाटिभिक्षाचराः चीरिका-रध्यापतितचीरपरिधानाचीरोपकरणा इत्यन्ये, चर्मखण्डिका:
चर्मपरिधानाचर्मोपकरणा इति चान्ये, मिक्षोण्डा:-मिक्षामोजिन: सुगतशासनस्था इत्यन्ये, पाडुरङ्गाः- भौता: गीतमा:-लघुतराक्षमालाचार्षतविचित्रपादपतनादिशिक्षाकलापववृषभकोपायत: कणभिक्षामाहिणः, गोवृत्तिका:-गोश्चर्यानुकारिणः, उक्तं च-गावीह समं निगमपवेसठाणासणाइ य करेंति । मुंशति य अह गावी तिरिक्सवासं विभावेन्ता ॥१॥ गृहधर्मा:- गृहस्थ एव अयानित्यभिसंधाय तद्यधोक्तकारिण: धर्ममंहितापरिज्ञानवत: सभासदः, अविरुद्धाः- वैनथिका, उक्त च- 'अविरुद्धविणयकारी देवादीणं पगए भत्तीए । जह वेसियायणसुओ एवं | अण्णेवि नायव्वा ॥ १॥ विरुद्धा-अक्रियावादिन:, परलोकानभ्युपगमात्मर्ववादिभ्य एव विरुद्धा इति, वृद्धा:-तापसाः प्रथमसमुत्पन्नत्वात् प्रायो वृद्धकाल एवं दीक्षाप्रतिपत्तेः श्रादका धिग्वर्णाः, अन्ये तु वृद्धभावका इति ब्याचक्षते धिग्वर्णा एव, प्रभृतिषहणात् परिधाजकादिपरिग्रहः, पाखण्डस्थाः 'कल्ल' मित्यादि पूर्ववत् 'इंदं सिवेत्यादि, इन्द्रः प्रतीत: स्कन्द:-कार्तिकेयः रुद्रः-प्रतीवः शिवो-महादेवः वैषषणो-यक्षनायक: देवः-सामान्यः नागो-भवनवासिभेदः यो-व्यन्तरः भूत: स एव मुकुन्दो-बलदेवः आर्या-प्रशान्तरूपा दुर्गा कोटिकिया-सैव महिषाचारूढा, IN॥१७॥ उपलेपसम्मार्जनावर्षणधूपपुष्पगन्धमाल्यादीनि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति, तत्रोपलेपनं-छगणादिना प्रतीतमेव सम्मार्जनं दण्डपुच्छादिना आवर्षणं गन्धोदकादिनेति 'से-च' मित्यादि । 'जे इमे' त्ति (२१-२६) ये एते ' समणगुणमुकजोगित्ति' श्रमणा: साधवस्तेषां गुणा:
दीप
अनुक्रम [२१-२२]]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं R०-२१] / गाथा [१...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [२०-२१]
गाथा ||१..||
कृपावचनिक लौकिकद्रव्यावश्यके
श्रीअनु मूलोत्तराख्या: प्राणातिपातादिविनिवृत्यादयः पिण्डविशुनचादयश्च, योजनं योगः आसेवनमित्यर्थः श्रमणगुणेषु मुक्तो योगो यैस्ते तथा- हारि.वृत्तीद विधाः, शेषाः अवयवाः यावत् पवति अवयवावयविनोरभेदोपचारात् जल्धे फेनकादिना घृष्टे येषां ते घृष्टाः, तथा 'महा' तैलोदकादिना मृष्टाः द ॥१८॥
मतुप्लोपाहा मृष्टवतो मृष्टाः 'तुप्पोट्ट 'त्ति तुप्रंस्निग्धं तुमा ओष्ठाः समदना वा वेषां ते तुपौष्ठाः, शेष कण्ठ्यं, यावदुभयकालमावश्यकस्थेत्येवावश्यकाय, छट्ठीविभत्ताइ भण्णइ चउत्थीति लक्षणात् , प्रविक्रमणायोपनिष्टन्ते तदेतत् द्रव्यावश्यक, भावशून्यत्वादभिप्रेतफलाभावाच, एत्थ उदाहरण- वसंतउरं नगरं, सस्थ गच्छो अगीयस्थसंविग्गो भविय विहरति, तत्थ य एगो संविग्गो समणगुणमुकजोगी, सो दिवसदेवसिय मुदउहादियाओ अणेसणाओ पडिगावेत्ता महता संवेगेण पदिकमणकाले आळोएति, तस्स पुण सो गहाणी अगीयत्थसणओं पायच्छित देतो भणत्ति-अहो इमो धम्मसट्टियो साह, सुहं पाडसवितुं दुक्खं आलोएवं, एवं नाम एसो आलोएति अगूईतो असढत्तओ सुद्धोत्ति, एवं च दट्टणं अण्णे अगीयत्वसमणा पसंसंति, चिंतेति य-णवरं आलोएयब्वंति, णत्यि किंचि पहिसेवितेणंति, वस्थ अण्णया कयादी गीयत्यो संविगो विहरमाणो आगओ, सो दिवसदेवसिय अविहि दर्ण उदाहरण दापति गिरिणगरे वाणियओ रत्तरयणाणं परं भरेऊण वरिसे २ संपलीवेर, एवं च वर्ण सव्वलोगो | अविवेगत्तमो पसंमति-अहो! इमो धण्णो जो भगवतं अगि तप्पति, तत्थऽणया पळीषियं गिहं वाओ य पवलो आओ सम्वं नगरं बई, ततो सो पच्छा रण्णा पडिहओ, पिण्णायकओ, अण्णादि गरे एवं चेव करेइ, सो राणा सुतो जहा कोवि वाणिओ एवं करे इत्ति, सो तेण सब्यस्सहरणो कारण विसजिओ, अडवीए किं न पळीवेसि?, वो जहा तेण वाणिएण अवसेसावि पड्डा एवं तुर्मपि एवं पसंसंतो एते साटुणो
दीप
अनुक्रम [२१-२२]
SACOCKS
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं R२-२७] / गाथा [१...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्रीअनु
प्रत सूत्रांक [२२-२७] गाथा
सब्वेवि परिचयासि, वाहे जाहे सो म ठाइ ताहे तेण साहुणों भणिता-एस महानिद्धम्मो अगीयत्थो, ता अल एयस्स आणाए, जइ एयस्स णि
x भावागगहो ण कीरइ तओ अण्णेवि विणस्संतित्ति | 'सेत' मित्यादि निगमनत्रयं निगदसिद्धं । 'से किंत' मित्यादि (२२-२८) अवश्यकियानुष्ठा-17 हारि-वृता
| वश्यकम् नादावश्यक गुणानां च आवश्यमात्मानं करोत्यावश्यकं, उपयोगाद्यात्मकत्वादावश्चासाबावश्यक चेति समासः, भावप्रधानं वाऽऽवश्यक ॥१९॥ भावावश्यक, भावावश्यक विविध प्रशतं, तद्यथा- आगमतो नोआगमतच, ‘से किंत' मित्यादि, (२३-२८) उपयुक्तः, अयमत्र भावार्थ:
आवश्यकपदार्थज्ञस्तजनितसंवेगेन विशुनपमानपरिणामस्तत्रैवोपयुक्तस्तदुपयोगानन्यवादागमतो भावावश्यकमिति, तथा चाह- 'सेत'मित्यादि निगमनं । “से किंत मित्यादि, (२४-२८) नोआगमतो भाषावश्यकं ज्ञानाकियोभयपरिणामो, मिश्रवचनत्वानोशब्दस्य, त्रिविध प्रकारे तयथा-लौकिकमित्यादि से किंत'मित्यादि (२५-२८) पूर्वी भारतमपराहे रामायणं, तवचनोतणां पत्रकपरावर्तन| संयतगात्रादिक्रियायोगे सति तदुपयोगभावतो ज्ञानक्रियोभयपरिणामसद्भावादित्यभिप्रायः, ' से त' मित्यादि निगमनं, से कित' मिस्यादि &ा(२६-२९) गतार्थ यावदिजनहित्यादि, इनंजलिहोमजपाणुरूवनमस्कारादीनि श्रद्धानुभावयुक्तत्वान, भावावश्यकानि कुर्वति, तत्र इण्या
बलियोगांजलिरुच्यते, स च वागदेवताविषयः मातुर्वाञ्जलिरिजाब्जलिर्मातृनमस्कारविधावितिभावः होमामिः-हवनक्रिया जपोमंत्रादिन्यास: उजुरुक्ख(क) ति देशीवचनं वृषभर्जितकरणाचर्थ इति, अन्ये तु व्याचक्षते-नंदु-मुखं वेण कक्षं (क)ति-सहकरण वंपि वसभदेकियादि चेव घेप्पलि, नमस्कारः प्रतीतो, यथा- नमो भगवते दिवसनाधाय, विशब्दात् स्तपादिपरिग्रहा, 'सेत 'मित्यादि, निगमन,
से किंत'मित्यादि, (२७-३०) यदित्यावश्यकमभिसंबद्धयते, श्रमणो वेत्यादि सुगम, यावत्तचित्तत्यादि, सामान्यतस्तस्मिन आवश्यके .॥१९॥ | चित्त-भावमनोऽस्येति तश्चित्तः, तथा तन्मनो द्रव्यमन: प्रतीत्य विशेषोपयोग वा, तथा तस्लेश्य:- तत्स्थशुभपरिणामविशेष इति भावना,
दीप अनुक्रम [२३-२८]
CREATEG
... अथ भाव-आवश्यक-अधिकार: वर्णयते
~156~
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[२८]
गाथा
॥२॥
दीप अनुक्रम [३१]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (मूलं वृत्तिः)
मूलं [२८] / गाथा [२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५] चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्री अनु० हारि-वृत्ती
॥ २० ॥
उक्तं च- 'कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मन: । स्फटिकस्येव तत्रायं श्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ १ ॥ तथा 'तद्व्यवसितः' इहाभ्यव सायो ऽध्यवसितं वश्चित्तादिभावयुक्तस्य सतः तस्मिन्नावश्यक एवाभ्यवसितं क्रियासंपादनविषयमस्येति तदष्यवसितः तथा ततीव्राध्यद साय: इह प्रारम्भकालादारभ्य संतानक्रियाप्रवृत्तस्य तस्मिन्नेव वीनमध्यवसाय प्रयत्नविशेषलक्षणमस्येति समासः, तथा तदर्थोपयुक्त:-- तस्यार्थस्तद्र्भस्तस्मिन्नुपयुक्तः प्रशस्ततर संवेगविशुध्यमानस्याऽऽवश्यक एवं प्रतिसूत्रं प्रत्यये प्रतिकिय चोपयुक्त इति भावार्थ: तथा सर्पितकरण: दह उपकरणानि र जोहरणमुखरिकादीनि तस्मिन्नावश्यके यथोचितव्यापार नियोगेनापितानि न्यस्तानि करणानि येन स त धाविधः द्रव्यतः सम्यक स्वस्थानम्यस्तोपकरण इत्यर्थः तथा सद्भावनाभावितः असकृदनुष्ठानात्पूर्व भावनाऽपरिच्छेद एव पुनः २ प्रति पत्तेरिति इदयं, असकृदनुमानेऽपि प्रतिपत्तिसमवभावना अविच्छेदादिति, उपसंहरवा अन्यन्त्र-प्रतुव्यतिरेकेण कुत्रचित्कार्यान्तरे मनः अकुर्वन् मनोग्रहणं कायवागुपलक्षणं, अन्यत्र कुत्रचिन्मनोवाक्कायानकुभिस्वर्थ: उभयकाले उभयसनयमावश्यकं प्राग्निरूपित शब्दार्थ करोति-नियति सावश्यकपरिणामानन्यत्वादावश्यकमिति क्रिया, सेत मित्यादि निगमनं उर्फ भावावश्यकं ॥ अस्यैवेदानीमोहा पर्यायनामानि प्रतिपादयन्नाह तस्स णं इमे ' इत्यादि (२८-३०) स्व 'ण' निति वाक्यालङ्कारे अमूनि मानि एकार्थिकानित एका नानापपाणि नानाव्यञ्जनानि नामानि भवन्ति इद घोष उदात्तादयः कादीनि जनानि । तद्यथा-- ' आवस्सगंगा (२०३०) उयाख्या अवश्य क्रियाऽनुष्ठानादावश्यक गुणानां वा वश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यके, अवश्य करणीयमिति मोक्षार्थिना नियमानुष्ठेयमिति त्रनिमह इत्यनादित्वात् ध्रुवं कम्तफलभूत व भावस्तस्य निमोवनमः निपानिमहः तथा कर्ममलिनस्यात्मनोविशुद्धिः अध्ययनपदकवर्ग:-- सामायिकादिपदध्ययन समुदायः
... अथ 'श्रुत' शब्दस्य निक्षेपाः वर्णयते
~ 157 ~
नोआगम भावावश्यक श्रुतनिक्षे
पाथ
॥ २० ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................. मूलं R९-३७] | गाथा [३] ........ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत सूत्रांक [२९-३७] गाथा
RAN
R
||३||
श्रीअनु: सम्यग् जीवकर्मसंबंधव्यवहारापनयनान्न्यायः मोक्षाराधनानिबन्धनत्वादाराधना माग:-पन्थाः शिवस्पेति गाथार्थ:-। 'समणेण' गाहाव्यतिरिक्त हारि.वृत्ती | (*३-३१) निगदसिद्धेव, नवरं अन्त इति मध्ये, 'सेत' मित्यावि निगमनं ।। 'से किंत'मित्यादि (२९-३१) श्रुतं प्रागनिरूपितशब्दार्थमेव, चतु
विधं प्रक्षप्तमित्याद्यावश्यकविवरणानुसारतो भावनीय, यावत् 'पत्तययोत्थयलिीहंत ( ३७-३४) इह पत्रकाणि तलताल्यादिसंबन्धीनि | तत्संघातनिष्पास्तु पुस्तकाः, वस्त्रानिष्फण्णे इत्यन्ये, इयमत्र भावना- पत्रकपुस्तकलिखितमपि भावश्रुतनिबन्धनत्वात् द्रव्यश्रुतमिति । साम्प्रतं प्राकृतशैल्या तुल्यशब्दाभिधेयत्वात् शरीरमव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रुताधिकारे एवं निर्दोषत्वाविख्यापनप्रसंगोपयोगितया सूत्रनिरूपणायाह- अह वे त्यादि ' अथवेति प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः सूत्रं पश्चविध प्रशत, तद्यथा- 'अंडज' मित्यादि से कित' मित्यादि अंडाज्जातमण्डज सगर्भादि, कारणे कार्योपचारान, हंसः किल पतङ्गः तस्य गर्भ:२ कोशिकारकः, आदिशब्दः स्वभेदप्रकाशकः कौशिकारप्रभवं चटकसूत्रमित्यर्थः, पञ्चेन्द्रियहंसगर्भजीमत्यादि केचित् , 'सेत' मित्यादि निगमन, एवं शेषेष्वपि प्रश्नानगमने वाच्ये, पोण्डात् | जातं पोण्ड फलिहमादित्ति-कपीसफलादि कारणे कार्योपचारादेवेति भावना, कीटाज्जातं कीटजं पञ्चविध प्रज्ञान, तद्यथा- ‘पट्टे'. त्यादि, पट्टिति-पट्टसूत्र मलय-अंशुकं चीणांशुकं-कृमिरागादि, अत्र वृद्धा व्याचक्षते-किल अंमि विसए पट्टो उप्पज्जति तत्थ अरण्णे वण|णिगुंजहाणे मंस चीणं वा आमिसं पुरुजपुंजेहिं ठविजइ, ततो तेसिं पुजाण पासओ णिप्पुण्णया अंतरा बहवे खौलिया भूमिए उद्धा ५ है निहोडिज्जति, तत्थ वर्णतराओ पयंगकीडा आगच्छति, ते मंसचीणादियमामिस चरंत इतो ततो य कोलंतरेसु संचरंता लागा मुयंति, एस ॥२१॥ पत्ति, एस य मलयवज्जेसु भणितो, एवं चेव मलयविसउप्पण्णे मलपत्ति भण्णइ, एवं चेव चीणविसयवहिमुप्पण्णे अंसुए, चीणविसयुप्पण्णे चीणंसुएत्ति, एवमेतसि खत्तयिससओ कीडविसंसो कीडविसेसतो य पट्टसुत्तविसेसतो भवति, एवं मणुयादिहिरं घेत्तुं केणावि जोएण जुत्तं
दीप अनुक्रम [४१]
EC
~158~
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............ मूलं ३८-४३] | गाथा [४] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८-४३] गाथा ||४||
श्रीअनु० भायणत्थं ठविज्जति, तो तत्थ किमी उप्पज्जति, ते वायाभिलामिणो छिदेण णिग्गता इतो ततो आसन्नं भमंति, तास णीहारलाला फिमिराग-18| नोआगम हारि.वृत्तौद सुर्च भण्णइ, तं सपरिणामरंगरंगियं चेव भवइ, अन्ने भणति-जाहे कहिरुप्पना किमिते तस्थेव मलित्ता कसवर्ट उचारित्ता तत्य रसेहिं जोग लाभावभुत ॥२२॥
पक्खिवित्ता पट्टसुतं स्यंति २ किमियन भण्णा, अण्णुभाली, बालयं पंचविध उष्णिय' मित्यादि उण्णादिया पसिद्धा, मिणहितो मसरा स्कंधानक्षमृगाकृतयः बृहत्पिछाः तेसि लोमा मियलोमा, कुतवो उंदररोमेसु, एतेर्सि चेव उण्णियादीण उवहारो किटिस, आहवा एवेसि दुगादि-18
पाश्च संजोगेण किट्टिसं, अइवा जे अण्णे सणमादिया रोमा ते सब्वे किट्टिसं भण्णति, 'से तं वालज मिति निगमनं | 'से किं तं वागज मित्यादि, सनिगमनं निगदसिद्धमेवेति, 'से किस' मित्यादि, (३८-३५) इदमप्यावश्यकविचरणानुसारतो भायनीय, प्रायस्तुल्यवक्तव्यत्वात् , नवरमागमतो भावश्रुतं तन्झस्तदुपयुक्तस्तदुपयोगानन्यत्वात, नोआगमतस्तु लौकिकादि, अत्राह-नोआगमतो भावभुतमेव न युज्यते, तथाहि-यदि | नोशब्दः प्रतिषेधवचनः कथमागमः?, अब न प्रतिषेधवचनः कथं तर्हि नोआगमत्त इति, अनोच्यते, नोशब्दस्य देशप्रतिषेधवचनत्वात् चरणगुणसमन्वितश्रुतस्य विवक्षितत्वात् चरणस्य च नोआगमत्वादिति । 'जं इमं अरहतही' (४२-३७ ) स्यादि, नन्दीविशेषविवरणा-1 नुसारतोऽन्यथा बोपन्यस्तविशेषणकलापयुक्तमपि स्वबुद्धया नेयमिति, शेष प्रकटार्थ यावनिगमनमिति | 'तस्स णं इमे' इत्यादि पूर्ववत 'सुतसुत्त ' गाहा (*४-३८) व्याख्या-श्रूयते इति श्रुतं, सूचनात्सूत्र, विप्रकोणार्थमन्थनाद् प्रथः, सिद्धमर्थमन्तं नयतीति सिद्धान्तः, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगप्रवृत्तीयशासनात् शासनं, पाठांवरंबा प्रवचन, तत्रापि प्रगतं प्रशस्तं प्रधानमादौ या वचनं ४ ॥२२॥ | प्रवचनं, मोक्षायाज्ञप्यन्ते प्राणिनोऽनयेत्याशा, उक्तिर्वचनं वाग्योग इत्यर्थः, हितोपदेशरूपत्वादुपदेशनमुपदेशः, यथावस्थितजीवादिपदार्थ| प्रज्ञापनात् प्रज्ञापनेति, आचार्यपारम्पर्येणागच्छतीत्यागमः, आप्तवचनं आगम इति, एकार्थपर्यायाः सूत्र इति गाथार्थः । “से त' मित्यादि |
SASARASEX
दीप
BACCOREGAOCERS
*
अनुक्रम [४२-४९]]
|... अथ 'स्कन्ध' शब्दस्य निक्षेपा: वर्णयते
~159~
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं ४४-५१] / गाथा [४...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत सूत्रांक [४४-५१] गाथा
स्कन्ध निक्षेपाः
श्रीअनु०
|४||
निगमनं । ' से किंत' मित्यादि (४४-३८) वस्तुतो भांवितार्थमेव, यावज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्त्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा, 'सचित्तेहारि-वृत्ती
त्यादि प्रश्नसूत्रं । ४७-३९)चित्तं मनोऽर्थविज्ञानमिति पर्यायाः सह चित्तेन वर्चत इति सचितः सचित्तश्चासौ द्रव्यस्कन्धश्चेति समासः,
दह विशिष्टैकपरिणामपरिणतः आत्मप्रदेशपरमाण्वादिसमूहः स्कन्धः अनेकविधः-अनेकप्रकार: व्यक्तिभेदेन प्राप्त:-प्ररूपितः, तद्यथा-5 ॥ २३॥ 'हयस्कन्ध' इत्यादि, हयः-अश्वः स एव विशिष्टकपरिणामपरिणतत्वात्स्कन्धो हवस्कन्धः, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, इह च सचित्त
द्रव्यस्कन्धाधिकारावात्मन एव परमातश्चेतनत्वादसख्येयप्रदेशात्मकत्याच कथञ्चिच्छरीरभेदे सत्यपि हयादीनां हयादिजीवा एवं गृह्यन्ते इति सम्प्रदायः, प्रभूतोदाहरणाभिधानं तु विजातीयानकस्कन्धाभिधानेनकपरमपुर पस्कन्धप्रतिपादनपरटुनयनिरासार्थ, तथा चाहुरेके-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकथा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रयत् ॥ १॥" एवं हि मुक्तेवरायभावप्रसङ्गात् व्यवहारानुपपचिरिति । 'सेत'मित्यादि निगमने । 'से किं तमित्यादि, (४८-४ | सौ द्रव्यस्कन्धश्चेति समास:, अनेकविधः प्रज्ञप्त इति पूर्ववत् , तद्यथा-द्विपदेशिक इत्यादि आनिगमने सूत्रासद्धमिति, ‘से किंत'मित्यादि (४९.४०) मिश्रः-सचित्ताचित्तसंकीर्णः ततो मिश्रश्वासी द्रव्यस्कन्धश्चेति समासः, सेनाया-दस्त्यश्वरथपदासिसन्नाहखगकुन्तादिसमुदायलक्षणाया अगस्कन्धं अपानीकमित्यर्थः, तथा मध्यमः पश्चिमति, 'सेत' मित्यादि निगमने, 'अहो'त्यादि (५०-४०) सुगम यावत् से कितं कासणखंधे (५१-४०) कृत्स्न:-संपूर्णः कृत्स्नश्चासौ स्कन्धश्चेति विग्रहः 'सच्चेब' इत्यादि, स एव हयस्कन्ध इत्यादि आह-यद्येवं ततः किमर्थ भेदेनोपन्यास इति, उच्यते, प्राक् सचित्तद्रव्यस्कन्धाधिकारात् तथाऽसम्भविनोऽपि बुद्धया निकष्य जीवा एवोक्ताः इह तु जीवप्रयोगपरिणामितसरीरसमुदायळक्षण: समग्र एव कृत्स्न: स्कन्ध इति, अन्ये तु जीवस्यैव कृत्स्नस्फन्धत्वाद् व्यत्ययेन व्याचक्षते,
दीप
॥ २३ ॥
अनुक्रम [५०-५५]|
~160
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[[५२-५६]
गाथा
||४||
दीप अनुक्रम [48-62]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं १५२-५६] / गाया [४]...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि-वृत्ती
॥ २४ ॥
"
तथाऽप्यविरोधः, 'सेत' मित्यादि निगमनं । ' से किं त ' मित्यादि (५२-४१) न कृत्स्नः अकृत्स्नः अकृत्स्नञ्चासौ स्कन्धा अकृत्स्नस्कन्धः 'से वेवे' त्यादि, स एव द्विप्रदेशादिः, अयमत्र भावार्थ:- द्विप्रदेशिक त्रिप्रदेशिकमपेक्ष्या कृत्स्नो वर्तते इत्येवमन्येध्वपि वक्तव्यं, न यावत् कातस्यैमापद्यत इति यदेवं हयादिकृत्स्नस्कन्थस्यापि तदन्यमहत्तरस्कन्धापेक्षया अकृनस्कन्धत्वप्रसगो, न, असंख्येयजीव प्रदेशान्योन्यानुगतस्यैव विवक्षितत्वात् जीवप्रदेशानां च स्कन्धान्तरेऽपि तुल्यत्वाद् बृहत्तरस्कन्धानुपपत्तिः, जीवप्रदेशपुद्गलसाकल्यवृद्धौ हि महत्तरत्वमिति, अत्र बंडु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते प्रन्थविस्तरभयाद् गमनिकामात्रमेतत्, सेत मित्यादि निगमनं ' से किं तमित्यादि (५३-४१ ) अनेकद्रव्यवासौ स्कन्धश्चेति समासः, विशिष्टकपरिणामपरिणतो नखजघोरु रदन केशाद्यनेकद्रव्यसमुदाय इत्यर्थः तथा च ' तस्सेवे'त्यादि, तस्यैव विवक्षितस्कन्धस्य देश:-एकदेश: अपचितो जीवप्रदेशविरहादिति भावना, तथा तस्यैव देश उपचितो जीवप्रदेशभावादिति हृदयं एतदुक्तं भवति जीवप्रयोगपरिणामितानि जीव प्रदेशावचितानि च नखरोमरदन केशादन्यनेकानि द्रव्याणि तथाऽन्यानि जीवप्रयोगपरिणामितानि जीवप्रदेशोपचितानि च चरणजङ्घोरुप्रभृतानि प्रभूतान्येव, एतेषामपचितोपचितानामनेकद्रव्याणां पुनयों विशिष्टैकपरिणामो देहाख्यः सोऽनेकद्रव्य इति, अत्राह- ननु द्रव्यस्कन्धादस्य को विशेष ? इति उच्यते स किल यावानेव जीवप्रदेशानुगतस्तावानेव विशिष्टकपरिणामपरिणतः परिगृहाते, न नखाद्यपेक्षयापि, अयं तु नखाद्यपेक्षयाऽपीत्ययं विशेष इत्यकं प्रसङ्गेन' 'सेत ' मित्यादि निगमनं 'से किं त'मित्यादि सुगम ( ५५-४२) यावत् एतेसि ' मित्यादि नवरमागमतो भावस्कन्धः ज्ञ उपयुक्त तदर्थोपयोगपरिणामपरिणत इत्यर्थः, नोआगमतस्तु ज्ञानक्रियासमूहमय इति, अत एवाह एतेसिं चेत्र इत्यादि (५६-४१ ) एतेषामेव प्रस्तुतावश्यकभेदानां सामायिकादीनां षण्णामध्ययनानां समुदायसमितिसमागमेन इद्दाध्ययनमेव पदवाक्यसमुदायत्वात् समुदाय, समुदायानां समिति:-मेलकः, समुदाय
6
... अथ 'आवश्यक स्य निरूपणं क्रियते
~161
M
द्रव्यभाव स्कन्धाः
॥ २४ ॥
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक [[७-१८]
गाथा
दीप
अनुक्रम [६३-६८]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१७-१८] / गाया (५-६)
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि-वृत्ती
।। २५ ।।
मेलकः समुदायसमितिः, इयं च स्वस्वभावव्यवस्थितानामपि भवति अत एकीभावप्रतिपत्त्यर्थमाह- समागमेन समुदयसमितेः समागमोविशिष्टैरुपरिणाम इति समासस्तेन आवश्यकश्रुतभावस्कन्ध इति लभ्यते, अयमत्र भावार्थ:-- सामायिकादीनां पण्णामध्यवनानां समावेशात् ज्ञानदर्शन कियोपयोगवतो नोआगमतो भावस्कन्धः, नोशन्दस्य मिश्रवचनत्वात् क्रियाया अनागमत्यादिति, निगमनं । 6 तस्स ग - मित्यादि (५७-४३) पूर्ववत् यावत् 'गणकाय ' गाहा ( *५-४३) व्याख्या- मल्ळगणत्रगणः पृथिवीसमस्तजीव कायवत्कायः ज्यादिपरमाणुस्कन्धवत्स्कन्थः गोवर्गवद्वर्गः शालिधान्यराशिवद्राशिः विप्रकीर्णधान्यपुजीकृत पुजवत्पुञ्जः गुडादिपिण्डीकृतपिंड पिण्डः हिरण्यादिद्रव्यनिकरनिकरः तीर्थादिषु संमिलित जनसंघातवत् संवातः राजगृहाणजनाकुवन् आकुडं पुरादिजनसमूहवत् समूहः 'सेत-' मित्यादि निगमनं । आाइनकं पुनरिमावश्यकं पडध्ययनात्मकमिति १, उच्यते, पडर्थाधिकारविनियोगात् क एवेऽर्वाधिकारा ? इति तानुपदशयन्नाह-- आवस्सगस्स ण ' नित्यादि (५८-४३ ) सावज्जगादा ( *६-४३) व्याख्या सावययोगविरतिः स पापञ्यापारविरमणं सामाधिकार्याधिकारः, कीर्तनेति सकलदुःखविरेकभूरसायययोगविरस्युपदेशकत्वादुपकारित्वाद्भूत गुणकीर्तन करणादन्तःकरणशुद्धेः प्रधानकम्मयकारणत्वादर्शनविशुद्धिः पुनधिलाभ हेतुत्वाद्भगवतां जिनानां यथाभूतान्या साधारणगुणोत्कीर्तना चतुर्विंशतिस्तवस्येति गुणवतश्च प्रतिपत्यर्थं वन्दना बन्दनाध्ययनस्य तत्र गुणा मूउगुजी तरगुणत्र तपिण्डविशुद्वयादयो गुणा अस्य विद्यन्त इदि गुणवान् तस्य गुणवतः प्रतिपत्य वन्दनादिगा (प्रतिपत्तिः) कार्येति, उकं च 'पासत्थादी' गादा, चात्मानमासाद्यागुणतोऽपीत्याह, उक्तं च 'परियाय' गाहा, स्वतस्य निंदा प्रतिक्रमणाधिकारः कथंचित्प्रमादतः स्खलितस्य मूलगुणोत्तरगुणेषु प्रत्यागतसंवेगविद्युद्यमानाध्यवसायस्य प्रमादकारणमनुसरतोऽकार्यमिदमतीवेति भावयतो निंदाऽऽश्वसाक्षिकीति भावना, व्रणचिकित्सा कात्सर्गश्य, इयमत्र भावना निन्दया शुद्धिमना
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आवश्यकनिरूपणं
।। २५ ।।
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
................ मूलं ५९] / गाथा [७] ........... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत सूत्रांक [५९] गाथा ||७||
श्रीअनुसादयतःत्रणसाधोपनयेनालोचनाविदशविधप्रायश्चितभैषजेन चरणातिवारनषिकित्सति, गुणधारणा प्रत्याख्यानार्थाधिकार इति, अयमत्र हारित्तोल भावार्थ:- यह मूलगुणोत्तरगुणप्रतिपत्तिः निरतिचारसंधारणं च तथा प्ररूपणमर्धाधिकार इति, चशब्दादन्ये पापान्तराला अर्थाधिकारा धिकाराः ॥२६॥
विशेया इति, एवकारोऽवधारण इति गाथार्थः । एषां च प्रत्यध्ययनमर्याधिकारद्वार एवावकाशः प्रत्येतव्यः । साम्प्रतं यदुक्तमादौ 'श्रुत| स्कन्धाभ्ययनानि चाचश्यक' मिति तनावश्वकादिन्यासोऽमिहित इदानीमध्ययनन्यासावसरः, स चानुयोगद्वारप्रक्रमायान: प्रत्यध्ययनमोप| निष्पा पर वक्ष्यते, लापवार्थमिति । साम्प्रतमावश्यकस्य याचारूयातं यच्च व्याख्येयं तदुपदर्शयन्नाह-आवस्स' गादा (*७-४४) | व्याख्या-पिण्डार्थ:-समुदायार्थः वर्णित:--कथितः समासेन--संक्षेपेण आवश्यकश्रुतस्कन्ध इति शास्त्रस्यान्वर्थाभिधानात्, इत ऊर्द्धमेकैकमध्ययनं कीर्तयिष्याम:- वक्ष्याम इति गाथार्थः । कीर्तनं कुर्वन्निदमाह-'तंजहा-सामाइय' मिस्यादि (५९-४४) सूत्रसिद्धं यावत् 'तत्थ पढममज्झयण सामाइयं ' तत्रशब्दो वाक्योपन्यासार्थों निवारणार्थों वा, प्रथम-आय शेषचरणादिगुणाधारत्वात्पधानं मुक्तिछेतुत्वाद्, उक्तं च'सामायिक गुणानामाधारः खमिव सर्वभावानाम् । नहि सामायिकहीनाचरणादिगुणान्विता येन ।। १ ।। तस्माजगाद भगवान् सामा- | विकमेव निरुपमोपायम | शारीरमानसानेकदुःखनाशम्य मोक्षस्व ॥२॥ बोधादेरधिकमयनमध्ययनं प्रपञ्चतो वक्ष्यमाणशब्दार्थ सामा-16 यिकम् , इह च समो-रागद्वेषवियुतो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः, समस्य आयः समायः, समो हि प्रतिक्षणमपूवैज्ञानदानधरणपर्यावैभवाटवीभ्रमणसंशविच्छेदकैर्निरूपममुखहेतुभिरवाकृतचिन्तामणिकल्पनुमोपमै युज्यते, स एव समाय:18 प्रयोजनमस्याध्ययनवेदनानुमानन्दस्वेति सामायिक, समाय एवं सामायिकं तस्य सामायिकस्य 'ण' मिति वाक्यालकारे 'इमे' तिला अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानि महापुरस्येव चत्वारीवि संख्या न त्रीणि नापि पञ्च अनुयोगद्वाराणि, पहाध्ययनार्थकवनविधिरनुयोगः, द्वाराणीच
दीप
अनुक्रम [६९-७०]]
4454
~163
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[[६०-६४ ]
गाथा
दीप अनुक्रम [७१-७३]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं ६०-६४] / गाया [...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि वृत्ती
॥ २७ ॥
4
द्वाराणि नगरप्रवेशमुखानि सामायिकपुरस्यार्थाधिगमोपायद्वाराणीत्यर्थः भवति, ' तद्यथे' त्युपन्यासार्थः ' उबकमे ' त्यादि, इह च नगरष्टष्टान्तमाचार्याः प्रतिपादयन्ति यथा धकृतद्वारमनगरमेव भवति कृतैकद्वारमपि दुरधिगमनं कार्यातिपत्तये च चतुर्मूलद्वारं तु प्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगमं कार्यानतिपत्तये च, एवं सामायिकपुरमप्यर्थाधिगमोपायद्वारशून्य मशक्याधिगमं भवति, एकद्वारानुगतमपि च दुरधिगमं, सप्रभेदचतुर्द्वारानुगतं तु सुखाधिगममित्यतः फलवान् द्वारोपन्यास इति, तत्रोपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः शास्त्रस्य भ्यासदेश समीपकर णलक्षणः, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवारयेोगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः उपक्रम्यतेऽस्मादिति वा विनीतविनेयविनयादित्युपक्रम इत्यपादानसाधनः तथा च शिष्यो गुरुं विनयेनाराध्यानुयोगं कारयन्नात्मनाऽपादानार्थे वर्त्तत इति । एवं निक्षेपणं निक्षेपः निक्षिप्यते वा अनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपः न्यासः स्थापनेति पर्याय: एवमनुगमनमनुगमः अनुगम्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वाऽनुगमः, सूत्रस्यानुकूलः परिच्छेद इत्यर्थः, एवं नयनं नयः नीयतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा नयः, अनन्वधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेद इत्यर्थः । आह-एषामुपक्रमादिद्वाराणां किमित्येवं क्रम इति अत्रोच्यते, न धनुपक्रान्तं सदसमीपीभूतं निक्षिप्यते, न चानिक्षिप्तं नामादिभिरर्थतोऽनुगम्यते, न पार्थतोऽननुगतं नयैर्विचार्यत इत्यतोऽयमेव क्रम इति उक्त च संबध्धमुपक्रमतः समीपमानीय रचितनिक्षेपम् । अनुगम्यतेऽय शास्त्रं नयैरनेकप्रभेदेस्तु ॥ १ ॥ तत्रोपक्रमो द्विप्रकार:- शास्त्रीय इतरश्च तत्रेतराभिधित्सयाऽऽह--' से किं त' मित्यादि (६०-४५ ) वस्तुतो भावितार्थमेव यावत् 'से किं तं जाणगसरीरभवियसरीरखइरिते दव्योवकमे ' इत्यादि, त्रिविधः प्रज्ञतस्तद्यथा' सचिते त्यादि (६१-४६) द्रव्योपक्रम इति वर्त्तते, शेषाक्षरार्थः सचित्तद्रव्योपक्रमनिगमनावसानः सूत्रसिद्ध एव, भावार्थस्त्वयमिह 'सचित्ते' त्यादि, द्रव्योपक्रमः द्विपदचतुष्पदा पदभेदभिन्नः एकैको द्विविध:--परिकर्म्मणि वस्तुविनाशे च तत्र परिकर्म-द्रव्यस्य गुणविशेष परिणामकरणं तस्मिन् सति, तद्यथा-घृताद्युपयेोगेन नटादीनां वर्णा
... अत्र 'उपक्रम'स्य निक्षेपा: वर्णयते
~ 164~
उपक्रमभिक्षेपानुयोगनयानां क्रमः
॥ २७ ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........... मूलं ६५-६७] / गाथा [७...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत
सूत्रांक
[६५-६७] गाथा ॥७..||
श्रीअनु० दिकरणमथवा कर्णस्कन्धवर्द्धनादिक्रियेवि, अन्ये शास्त्रगान्धर्वनृत्यादिकलासम्पादनमपि द्रव्योपक्रम व्याचक्षते, इदं पुनरसाधु, विज्ञानविशे-18 द्रव्योपहारि.वृत्तीला षात्मकत्वाच्छाचादिपरिज्ञानस्य, तस्य च भावत्वादिति, कित्वात्मद्रव्यसंस्कारविवक्षाऽपेक्षया शरीरवर्णादिकरणवत्स्यादपीति, एवं चतुष्पदाना
मपि हस्त्यश्वादीनां शिक्षागुणविशेषकरणं, एवमपदानां अप्यानादीनां वृक्षविशेषाणां वृक्षायुर्वेदशेपदेशाद्वार्द्धक्यादिगुणापाइनमिति, एतत्फ॥२८॥
६ लानां वा गर्ताप्रक्षेपकोद्रवपलालाविस्थगनाविनेति, आह-यः स्वयं कालान्तरभाब्युपक्रम्यते यथा तरोबौद्धक्यादि तन्त्र परिकर्मणि द्रव्योपक्र
मता युक्ता, वर्णकरणकलादिसंपादनस्य तु कालान्तरेऽपि विवक्षितहेतुजालमन्तरेणानुपपत्तेः कथं परिकर्मणि द्रव्योपक्रम इति, अत्रोच्यते, विवक्षितहेतुजालमन्तरेणानुपपत्तेरित्यसिद्ध, कथं ?, वर्णस्य तावनामकमीवपाकित्वात्स्वयमीप भावात् , फलादीनां भायोपशमिकत्वात्तस्य च कालान्तरे स्वयमपि संभवात् , विभ्रमविलासादीनां च युवावस्थायां दर्शनात् , तथा वस्तुविनाशे च पुरुषादीनां खड्गादिभिर्विनाश एवोपक्रम्यत इति । आह-परिकर्मवस्तुनाशोपक्रमयोरभेद एव उभयत्र पूर्वरूपपरित्यागेनोत्तरावस्थापत्तेरिति, अत्रोच्यते, परिकर्मोपक्रमजनितोत्तररूपापचावपि विशेषेण प्राणिनां प्रत्यभिज्ञानदर्शनात्, वस्तुनाशोपक्रमसंपादितोत्तरधर्मरूपे तु वस्तुन्यदर्शनाद्विशेषसिद्धिरिति, अथवैकत्र नाशस्यैव विवक्षितत्वाददोषः, 'से कि त अचित्तदब्बोवकमे ' त्यादि (६५-४६) निगमन, निगदसिद्धमेव, नवरं खण्डादीनां गुडादीनामित्यत्रानलसंयोगादिना माधुर्यगुणविशेषकरणं विनाशश्च, मिश्रद्रव्योपक्रमस्तु स्थासकादिविभूषिताश्वादिविषय पवेति, विवक्षातश्च कारकयोजना द्रष्टव्या, दम्यस्य द्रव्येन द्रव्याद् द्रव्ये वोपक्रमो द्रव्योपक्रम इति । ' से कित' मित्यादि, (६७-४८ ) क्षेत्रस्योपक्रमः क्षेत्रोपक्रम इति, आह-क्षेत्रममूर्त नित्यं च, अतस्तस्य कथं करणविनाशाविति !, अत्रोच्यते, तद्व्यवस्थितद्रव्यकरणविनाशभावादुपचारतः खल्वदोषः, तया चाइ-तास्थ्यात्तव्यपदेशो युक्त एव, मचाः कोशन्तीति यथा, तथा चाह सूत्रकार:-'जमिण' भित्यादि, यद्धलकुलिकादिभिः क्षेत्राण्यु
RECAREERCE
दीप
अनुक्रम [७४-७७]
~1650
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.......... मूल ६८-६९] / गाथा [७...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
श्रीअनु: हारि.वृत्ती
प्रत सूत्रांक [६८-६९] गाथा ॥७..||
॥ २९ ॥
पक्रम्यन्ते-योग्यतामापाद्यन्ते आदिवादाद्विनाशकारणगजेन्द्रबंधादिपरिग्रहः 'सेत' मित्यादि निगमनं । 'से कित' मित्यादि,INअप्रशस्त(६८-४८) कालस्य वर्सनाविरूपत्वात् द्रव्योपक्रम एवोपचारान् कालोपक्रम इति, चंद्रोपरागादिपरिज्ञानलक्षणो वा, यद्वा जंण' मित्यादि,
भावोपयनालिकादिभिः काल उपक्रम्यते--ज्ञानयोग्यतामापायते, नालिका-पटिका, आदिशब्दात् प्रहरादिपरिपहा, 'सेत' मित्यादि निगमनवाक्य, क्रमः भावोपकमो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता जपयुक्तः, नोऽआगमतस्तु प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चति, तत्राप्रशस्तो डोहिणिमणिकामात्यादीनां, एत्योदाहरणानि-एगा मरुगिणी, सा वितति-किह धूताओ सुदिताओ होजात , तो जेहिता धूया सिक्वाविया, जहा-वरंती मत्थए पण्हीप आहणिज्जासि, ताए आहतो, सो तुट्टो पादं मदितुमारदो, ण दुक्खाधियत्ति, नीए मायाए कहिय, ताए भणिय-जं करेहि तं करेहि, |एस किंपितुन्म अवर झतिति, वितिया सिक्खाबिया, वीरवि आदओ, सो ऋखित्ता वसंतो, मा भणति--तुमंपि बीसस्था विहर, णवरं झंखणओ एसोति, तझ्या सिक्वविया, तीएवि आइओ, सो सहो, लेण दुर्द पिहिया वाडिया य, तं अकुलपुत्ती जा एवं करेसि, तीर माया कहियं, पच्छा कहवि अणुगनिओ-अम्ह एस कुलधम्मोति, पूया व भणिया--जहा देवयस्स पट्टिाजासित्ति, मा बहिदिति । एगम्मि पयरे चउसट्ठिकलाकुसला गणिया, नीए परभावावक्रमणनिमितं रतिपरम्म सब्याओ पगतीओ नियनियबाबारं करेमाणीओ आलिहावियाओ, तत्य य जो जो वडामाई पर सो सो नियं२ सिप्पं पसंसति, णायभावो त मुअणुयत्तो भवति, अणुयत्तिओ य यथारं गाहिओ सदं खर्बु दव्याजातं वितरेति, एसवि अपसत्थो भावोजकमो । एगम्मि पयरे कोई राया अस्सपाहणियाए सह अमच्चेण णिमाओ, तत्थ य से अस्सेगऽबाघेणं खलिणे काश्या वोमिरिया, खहरे बद्धं, तं च पुढविविरतणओ तहड़ियं चेव रण्या पडिनियत्तमाणेण सुइरं निज्झाइयं, पितियं । २९ ।। चाणेण-दद तलागे साहणं हबइत्ति, ण उण बुत, अमरवेणं इगितागारकुसलेण रावाणमणापुच्छिय महासरं खणावियं चेव, पालीए आरामो
दीप
अनुक्रम [७८-७९]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं ७०-७१] / गाथा [...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७०-७१]
गाथा ||७..||
श्रीअनुमा से पवरो कओ, तेणं कालेणं अस्सबाहणियाए गच्छंतेण दिलु, भणियं चऽणेण-कणेयं खणावितं १, अमरवेण भणिय-सामिराय ! तुम्हेहि घेव, प्रशस्तोहारिवृत्ती कहंपि य?, अवलोषणाए कहिए परितुडेण संवडणा कता, एसवि अपसत्थो भावोवकमोत्ति, सक्कोऽप्रशस्तः । इदानी प्रशस्त: उच्यते, नत्रदा भावोप
श्रुतादिनिमित्तमाचार्यभावोपक्रमः प्रशस्त इति, आह-याख्यामाप्रतिपादनाधिकारे गुरुभावोपक्रमाभिधानमनर्थकमिति, न, तस्यापि व्याख्या- क्रमः ॥३०॥
मात्वात् ,उक्तंच-" गायत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवंति सर्वेऽपि । तस्माद् गुरुवाराधनपरेण हितकाक्षिणा भाव्यम् ॥ १॥ तथा| भाष्यकारेणाप्यभ्यधायि-'गुरुपित्तायचाई वक्खाणंगाई जेण सम्याई । जेण पुण सुप्पसणं होति तयं तं तहा कुज्जा ।। १॥आगारिंगित-1* कुसलं जइ सेव वायसं वदे पुज्जा । सहविय सिं णवि कूडे विरहंमि य कारण पुच्छे ॥ २ ॥ निवपुच्छिएण भणिो गुरुणा गंगा कओ भही वाति। संपादित सीमो जह तह सम्वत्थ कायव्य ॥३॥" मित्यादि, आदल्ययेवं गुरुभावोपक्रम एवाभिधातव्यो न शेषाः, निष्प-IG योजनत्वात् , न, गुरुपित्तप्रसादनार्थमेव तेषामुपयोगित्वात् , तथा च देशकालावपेक्ष्य परिकर्मनाशी द्रव्याणामुदकौवनादीनामाहारादिकार्येषु कुर्वन् विनेयो गुगहरति चेता, अथवोपक्रमसाम्यात्मकते निरुपयोगिनोऽप्यन्यत्रोपयोक्ष्यन्त इत्यलं प्रसङ्गेन, उक्त इतरः | अधुना | शास्त्रीयप्रातिपादनायाह- अहवे ' त्यादि (७०-५१), यद्वा प्रशस्तो द्विविध:--गुरुभावोपक्रमः शाखभावोपक्रमश्च, तत्र गुरुभावोपक्रमः प्रतिपादित एव, शानभावोपक्रमं तु प्रतिपादयन्नाह- अहवे, त्यादि, अधवेति विकल्पार्थः, उपक्रमोभावोपकमः पदविधा प्रशस्तयथा-'अणपच्ची' त्यादि. उपन्याससूत्रं निगदसिमेव, से किंत'मित्यादि (७१-५१), इद पूर्व४
सा॥३. प्रथममादिरिति पयायाः, पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव इति ' गुणवचनत्राक्षणादिभ्यः कम्मणि ष्यम् चेति (पा. ५-१-१२४) स चाय भावप्रत्ययो नपुंसकलिने बकरणसामाच्च बीलिङ्गेऽपि, तथा हि तस्मादनुपूर्वभावः आनुपूर्वी अनुकमोऽनुपरिपाटीति पयोयाः, त्र्यावि
- 9844
दीप अनुक्रम [८०-८१]|
|... अत्र 'आनुपूर्वी वर्णनं आरभ्यते
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.......... मूलं ७२-७३] / गाथा [७...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
श्रीअनु
आनुपूर्वी भेदाः
प्रत सूत्रांक [७२-७३]] गाथा ॥७..||
हारि वृत्तो ॥३१॥
वस्तुसंहतिरिति भावः, इयमानुपूर्वी दशविधा-नाशप्रकाराः प्रजाप्तास्तद्यथा 'नामानुपूर्वी ' त्यादि, वस्तुतो भावितार्थत्वात्सूत्रसिद्धमेव तावद्यावत् ' उवणिहिया य'(७२-५१)अणोचणिहिया य' तत्र निधानं निधिन्यासो विरचना निक्षेपः प्रस्तावः स्थापनेति पर्यायाः, तथा च लोके-निधेहीदं निहितमिदमित्यर्थे निक्षेपार्थों गम्यते, उप-सामीप्येन निधानमुपनिधिः-विवक्षितस्यार्थस्य विरचनायाः प्रत्यासन्नता, उपनिधिः प्रयोजनमस्या इति प्रयोजनार्थे ठक् औषनिधिकी, एतदुक्तं भवति-अधिकृताध्ययनपूर्वानुपूादिरचनाभयप्रस्तारोपयोगिनी औपनिधि-| कीत्युच्यते, न तथा अनापतिधिकी, 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र याऽसावोपनिधिकी सा स्थाप्या-सांभ्यासिकी तिष्ठतु तावत् अल्पतरवक्तव्यत्वातस्याः, किंतु यौव बहु वक्तव्यमस्ति तत्र य: सामान्योऽर्थः सोऽन्यत्रापि प्ररूपित्त एवं लभ्यत इति गुणाधिक्यसंभवात् सैव प्रथममुच्यत । इनि, आह च सूत्रकार:-'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र याऽसावनौपनिधिकी सा नयवक्तव्यताश्रयणात् द्रव्यास्तिकनयमतेन द्विविधा प्राप्ता,
गमव्यवहारयोः संप्रहस्य च, अयमत्र भावार्थ:-होघतः सप्त नया भवन्ति, नैगमादयः, उक्तं चनेगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसम* भिरूडैवंभूता नया: ' एते च नयद्वयेऽवस्थाप्यन्ते-द्रव्यास्तिका पर्यायास्तिकश्र, तत्राद्यानयो द्रव्यास्तिका, शेषाः पर्यायास्तिक इति, पुनः द्रव्यास्ति
कोऽप्यौपतो द्विभवः-अविशुद्धो विशुद्धश्च, अविशुद्धो नैगमव्यवहारौं विशुद्धः संग्रह इति, कथं ?, येन नैगमव्यवहारौ कृष्णायनेकगुणाधिठितं त्रिकालविषयं अनेकभेदास्थतं नित्यानित्यं द्रव्यमित्येवंवादिनी, संग्रहस्तु परमाण्वादिसामान्यवादीत्यलं विस्तरेण । 'से कित' मित्यादि अत्राप्यल्पबक्तव्यत्वात् संग्रहाभिघानं पश्चादिति, पञ्चविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा 'अर्थपदपरूपणते ' स्वादि, (७३-५३) तत्र अर्यत इत्यर्थः तयुक्तं-तद्विषयं तदर्थ वा पदं अर्थेपदं तस्य प्ररूपणा-कथनं तद्भावोऽर्थपदप्ररूपणता, संज्ञासंक्षिसम्बन्धप्ररूपणतेत्यर्थः, तथा भंगसमुत्कीतैनवा, इहार्थपदानामेव समुदितविकल्पकरणं भंगः भंगस्य मंगयोः भङ्गानां वा समुत्कनि-उच्चारणं भंगसमुत्कीर्तनं तकाव इति समासः,
दीप
अनुक्रम [८२-८३]]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
.................. मूल ७४] | गाथा [७...] ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत सूत्रांक [७४] गाथा ||७..||
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पूया
श्रीअनु तथा भनोपदर्शनता, इह यो भास्तेनार्थपदेन वैवार्थपदैरुपजायते तस्य तथोपदर्शनं २ तद्भाव इति विग्रहः, सूत्रतोऽर्थतश्च प्ररूपणेत्यर्थः,18 अनौपनिहारि वृत्ता तथा समवतार:-इहानुपूर्वीद्रव्याणां स्वस्थानपरस्थानसमवतारान्वेषणाप्रकारः समवतार इति, तथानुगमः आनुपूादीनामेव सत्पदप्ररूपणा- धिक्यानु
दिभिरनुयोगदारैरनेकधाऽनुगमनं अनुगम इति । ' से किंत' मित्यादि, (७४-५३) 'तिपदेसिए आणुपुब्बी' त्रिप्रदेशिकाः स्कन्धाः | ॥३२॥ आनुपूर्व्यः, अयमत्र भावार्थ:- इहादिमध्यान्तांशपरिग्रहेण सावयवं वस्तु निरूप्यते, तत्र कः आदि किं मध्यं कोऽन्त इति?, लोकप्रसिद्धमेव, यस्मा
अथपदं स्परमस्ति न पूर्व स आदिः, यस्मात्पूर्वमस्ति न परमंतः सः, तयोरतरं मध्यमुपचरति, तदेतत् त्रयमपि यत्र वस्तुरूपेण मुख्यमस्ति तत्र गणनाक्रमः सम्पूर्ण इतिकृत्वा पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव आनुपूर्वी , एतदुक्तं भवति-संबन्धिशब्दा ह्येते परस्परसापेक्षाः प्रवर्तन्त इति यत्रैषां मुख्यो व्यपदेश्यव्यपदेशकभावोऽस्ति अयमस्यादिरयमस्यान्त इति तत्रानुपूर्वीव्यपदेश इति, त्रिप्रदेशादिषु संभवति नान्यत्रेति, यः पुनरसंसक्तं अपं केनचितस्त्वन्तरेण शुद्ध एव परमाणुस्तस्य द्रव्यतः अनवयवत्वात् आदिमध्यावसानत्वाभावात् अनानुपूर्वीत्वं, यस्तु द्विपदोशिकः स्कन्धस्तस्थाप्यागन्तव्यपदेशः परस्परापेक्षवाऽस्तीतिकृत्वा अनानुपूर्वीत्वमशक्यं प्रतिपत्तु, अथानुपूर्वीत्वं प्रसक्तं तदपि चावधिभूतवस्तुरूपस्यासंभवात् अपरिपूर्णत्वात् न शक्यते वक्तुमिति उभाभ्यामवक्तव्यत्वात् अबक्तव्यकमुच्यते, यस्मान्मध्ये सति मुख्य आदिर्लभ्यते मुख्यश्चान्तः परस्परा
शंकरेण, तदत्र मध्यमेव नास्तीतिकृत्वा कस्यादिः कस्य वान्त इतिकृत्वा व्यपदेशाभावात् सुटमवक्तठयकं, 'तिपदेसिया आणुपुल्वीउ' 8 इत्यादि, बहुवचननिर्देशः, किमर्थोऽयमिति चेत् आनुपूादीनां प्रतिपदमनन्तव्यक्तिख्यापनार्थः, नैगमव्यवहारयोश्वत्थंभूताभ्युपगमला प्रदर्शनार्थ इति, अत्राह-एपा पदानां द्रव्यवृद्धधनुक्रमादेवमुपन्यासो युज्यते-अनानुपूर्वी भवक्तव्यकं आनुपूर्वी च, पश्चानुपूर्त्या च व्यत्ययेन, तत्
किमर्थमुभयमुल्लंध्यान्यथा कृतमिति, अत्रोच्यते, अनानुनूळपि व्याख्यानांगमिति ख्यापनार्य, किंचान्यत्- आनुपूज्बा द्रव्यमहत्वज्ञापनार्थ
SASSASA*****
र
दीप अनुक्रम [८४]
CSCRCRACK
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
................ मूल ७५-८०] | गाथा [८] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
दर्शनता
प्रत सूत्रांक [७५-८०]] गाथा ||८||
श्रीअनु०स्थानवमापनार्थ चादावानुपूया उपन्यासः, ततोऽल्पतरद्रव्यत्वादवकव्यकस्येत्यविस्तरेण । 'सेत' मित्यादि निगमनं, 'एताए णमित्यादि, हारि.चो .५-५५) एतयाऽर्थप्ररूपणया कि प्रयोजनमित्यत्राह- एतया भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते, सा चैवमवगन्तन्या-त्रयाणामानुपूल्यांदिपदानामेक-
बचनेन त्रयो भङ्गाः, बहुवचनेनापि प्रयः, एते चामयोगतः, संयोगेन तु आनुपूर्धनानुपूर्योचतुर्भङ्गी, तथा आनुपूल्यवक्तव्यकयोगपि सैव, 18 ॥३३॥
तथाऽनानुपूर्व्यवक्तव्यकयोश्चेति, त्रिकसंयोगवस्तु आनुपूय॑नानुपूज्यवक्तव्यकेष्वष्टभङ्गीति, एवमेते पविशतिर्भङ्गाः, अत्राह-मनसमुत्की-1
ने किमर्थ ?, उच्यते, वक्तुरभिप्रेतार्थप्रतिपत्तये नयानुमतप्रदर्शनार्थ, लथाहि-असंयुक्तं संयुक्तं समानमसमानं अन्यद्रव्यसंयोग(संयोगे) च यथा | वक्ता प्रतिपादयति तथैवेमी प्रतिपायते इति नयानमतप्रदर्शन, एपोऽत्र भावार्थ:, भङ्गकास्तु अन्धत एवानुमतव्याः, 'सेत 'मित्यादि निगमनं, शेषमनिगूढार्थ यावत् 'तिपदोसए आणुपुथ्वी ' त्यादि, त्रिप्रदेशिकोऽर्थः आनुपूर्वीत्युच्यते, एवमर्थकथनपुरस्सराः शेषभङ्गा अपि भावभीया इति,पतदुक्तं भवति-तेरेव भंगकाभिचानेत्रिपदेशपरमाणुपदलाविपदेशार्थकथनविशिष्टैस्तदभिषेधान्याख्यान भंगोपदर्शनतेति, आह-अर्थपदप्ररूपणाभंगसमुत्कीर्तनाभ्यां भंगोपदर्शनार्थताऽजगमा दतस्तदभिधानमयुकमिति, अत्रोच्यते, न,उभयसंयोगस्य वस्त्वन्तरत्वात् नयमतवैचिच्यप्रदर्शनार्थत्वाकचादोष इति, शेष निगमनं सूत्रसिद्धमिति । 'से किं तं समातारे' त्यादि (७९-५८) अवतरणमवता:-सम्यगविरोधतः स्वस्थान एवावतारः समवतार:, इहानुपूर्वीद्रव्याणामानुपूर्वीद्रव्येष्वतारःन शेषेषु, स्वजासावेव वर्तन्ते न तु स्वजातिव्यतिरेकेणेति भावना, एवमनानुपाविष्वपि भावनीयमण्डावसया चाक्षरगमानकेति न प्रतिपद विवरणं प्रति प्रयास इति | 'से किं त' मित्यादि (८०-५९) अनुगम:-प्राग्निरूपितशब्दार्थ एव नवविधो-नवप्रकार: प्रज्ञप्रस्ताथा- 'संतपदपरूवणा' गाहा (*८-५९) व्याख्या-सश | तत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपण सत्पदप्ररूपर्ण तस्य भावः सत्पदप्ररूपणता-सवर्थगोचरा आनुपूष्योंदिपप्ररूपणता कार्या, तथा आनुपूज्योदिद्र
दीप
अनुक्रम [८५-९१]
सरसर
॥३३॥
~170~
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[८०-८३]
गाथा
॥
दीप अनुक्रम [९९-९४]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [४०-८३] / गाथा [८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्तौ
॥ ३४ ॥
व्यप्रमाणं वक्तव्यं तथाऽऽनुपूर्व्यादिद्रव्याधारः क्षेत्रं वक्तव्यं, तथा स्पर्शना वकत्र्या, क्षेत्रस्पर्शनयेोरयं विशेष:-' एगपदेसोगार्ड सतपदेसा य से कुमणा' कालयानुपूर्व्यादिस्थितिकालो कव्यः तथा अन्तरं स्वभाव परित्यागे सति पुनस्तद्भावप्राप्तिविरद्द इत्यर्थः तथा भाग इत्यानुपूर्वद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कविभाग इत्यादि, तथा भावो वक्तव्यः, आनुपूर्व्यादिद्रव्याणि कस्मिन् भावे वर्त्तन्त इति, तथाऽल्पबहुत्वं वक्तव्यम्, आनुपूर्व्यादीनामेव मिथो द्रव्यार्थप्रदेशार्थोभयार्थैः, व्यासार्थं तु प्रत्यवयवं प्रन्थकार एवं प्रपचतो वक्ष्यते इति, तत्राद्यमवयवमधिकृत्याह'गमववहाराणं आणुपुव्विदव्बाई किं अत्थि गत्थी' त्यादि (८१-६०) कुतस्ते संशय: १, घटादौ विद्यमाने खकुसुमादौ वाऽविद्यमाने वाऽविशेषेणाभिधानप्रवृत्तेः तत्र निर्वाचनमाह-'नियमा अस्थि' तथा वृद्धेरप्युक्तं--जम्दा दुबिहाभिहाणं सत्थयमितरं व घडखपुष्फादी विद्रुमओ से संका णत्थि व अस्थिति सिस्सस्स || १ | आत्यति य गुरुवयणं अभिदाणं सत्यं जतो सव्वं । इच्छाभिहाणपच्चयतुतभिधेया सदस्यमिणं ॥ २ ॥ ' यध्यास्य सदर्थः स उक्त एव द्वारं । द्रव्यप्रमाणमधुना-' नेगमववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई किं संखेज्जाह ' (८२-६०) इत्यादि निगमनान्तं सुप्रसिद्धमेव असंख्येयप्रदेशात्मके च लोकेऽनन्तानामानुपद्रव्याणां सूक्ष्मपरिणामयुक्तत्वादवस्थानं भावनीयमिति, दृश्यते चैकगृहान्तर्वयकाशप्रदेशेष्वेकप्रभा परमाणुयामेध्यपि प्रतिप्रदीपं भवतामेवानेकप्रदीपप्रभा परमाणूनामवस्थानामिति, न च दृटेऽनुपप नामेत्यलं प्रसङ्गेन द्वारं । क्षेत्रमधुना, वत्रेदं सूत्रं 'योगमववहाराणं आणुपुविदव्वाई लोयस्स किं संखेज्जहभागे होज्जा ' ( ८३ - ६० ) इत्यादि प्रनसूनं, एकानुपूर्वीद्रव्यापेक्षया तत्प्रमाणसंभवे सति प्रभसूत्र सुगमं निर्वचनसूत्रं य प्रन्यादेव भावनीयं नवरं 'सव्वलोए वा होज्ज ' ति यदुक्तं तत्राचित्तमहास्कन्धः सर्वलोकव्यापकः समयावस्थायी सकललोकप्रमाणोऽवसेय इति णाणादव्वाई पडुच्च' इत्यादि, नानाद्रव्याण्यानुपूर्वी परिणामवन्त्येव प्रतीत्य प्रकृत्य वाऽधिकृत्येत्यर्थः नियमात् नियमेन सर्व्वलोके, न शेषभागेष्विति, 'होज्ज
"
"
~171~
सत्पदन
रूपणता द्रव्यप्रमाणं क्षेत्रस्पर्शनाने
॥ ३४ ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.......... मूलं९४-८५] / गाथा [८...] ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
श्रीअनु
प्रत सूत्रांक [८४-८५]
गाथा ||८..||
हारि वृत्ती ॥३५॥
SHRECASHRESTHA
त्ति आर्षत्वाद्भवन्ति वर्तन्त इत्यर्थः, यस्मादेवैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे सूक्ष्मपरिणामपरिणतान्यनन्तान्यानुपूदिव्याण वियन्त इति भावना, अनानुपूर्वीअवक्तव्यकव्ये तु एकं दूर्व प्रतीस्य संख्येयभाग एवं वर्तन्ते, न क्षेषमागेषु, यस्मात्परमाणुरेकप्रदेशावगाढ एव भवति, अवक्तव्यक3कालोऽन्तर त्वेकप्रदेशावगाद विप्रदेशावगाडं च, नानाद्रव्यभावना पूर्वषदिति, द्वारं । साम्प्रतं स्पर्शनाद्वारावसरः, तत्रेवं सूत्र-गमववहाराण'मित्यादि (८४-६५) निगमनान्तं निगदसिद्धमेव, नवरं क्षेत्रस्पर्शनयोरयं विशेष:-क्षेत्रमवगाहमा स्पर्शना तु स्वचतसृष्वपि दिक्षु तगहिरपि वेदितव्येति, यथेह परमाणोरेकप्रदेश क्षेत्र सप्तप्रदेशा स्पर्शनेति, स्यादेतद्-एवं सत्यणोरेकत्वं हीयत इति, उक्तं च-'दिग्81 भागभेदो यस्यास्ति, तस्यैकत्वं न युज्यते ' इत्येतदयुक्तं, अभिप्रायापरिज्ञानात् , नांशतः स्पर्शना नाम काचिद् , अपि तु नैरन्तर्यमेव संशनां धूम इति, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते विस्तरभयादिति, द्वारं । साम्प्रतं कालद्वार, तत्रेवं सूत्र-णेगमववहाराण' मित्यादि, (८५-६३) 12 निगमनं पाठसिद्धमेव, णवरभियमित्वं भावणा--दोहं परमाणूणं एका परमाणू संजुत्तो समय चिदिरुण विजुत्तो, एवं आणुपुब्बिदन्वं जह-18 प्रणेणं एगसमयं होति, उकोसेणं असंखजं कालं चिट्विाण वित्तो, एवमसंखों कालं, णाणावबाई पुण पडुन सम्बद्धा-सर्वकालमेव विद्यन्ते, अणाणुपुल्वीसु तु एगो परमाणू एगसमयं एकागो होऊण एोग बा दोहि वा बहुपरमाणूहि वा सम जुग्जद, एवं जहण्णेणं एवं समय होति, उकासेणं असंखेग्जकार्ड एकाहगी होऊण सम जजइ, एवमसंखेज का, णाणावब्वाई पुण पवृष सम्मका विजंति, एवं
DI॥ ३५॥ अवत्तश्वगेमुवि पगं दवं पडुच्च दो परमाणू एगसमयं ठाऊग विजुति, अण्णण वा संजुति, एवं अवत्तबगदव्वं जहण्षण एक समयं होजा, नकोसेणं असंखेज काळं चिहिऊण विउज्जति संजुजति बा, एवं असंखेज कालं, णाणादवाई पडुच सम्बद्धं चिट्ठति, द्वारं । अधुनाऽन्तरद्वार, तत्रे सूत्र- गमववहाराणं आणुपुविदयार्ण अंतरं कालओ केचिरं होती
दीप
अनुक्रम [९५-९६]|
~172
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................... मूलं ९६] / गाथा [८...] ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत सूत्रांक [८६] गाथा ||८..||
श्रीअनु:15 त्यादि, (८६-६३ ) यादिस्कन्धास्यादिस्कन्धतां विहाय पुनर्यावता कालेन त एव तथा भवतीत्यसावन्तरं, एगदव्वं आनुपूच्या हारि.वृत्ती
आणुपुग्विदम्ब पडकप जहण्णेण-सम्वत्योवतया एग समयंकाललक्षण, कई १. तिपदेसियादियाओ परमाणुमादी विपत्तो प्रदानामन्तर | समयं चिट्ठिऊण पुणो तेण दवेण विस्ससापओगाओ तहेव संजुजइ, एवमेगं समय अंतरंति, नकोसेणं-उकोसगतया अणतं कालं, कह १, ताओ चेव तिपदसियादियाओ सो चेव परमाणुमाई विउत्तो अण्णसु परमाणुग्यणुकागकोत्तरकृया अनन्ताणुकावसानेषु स्वस्थाने प्रतिभेदमनन्तव्यक्तिवत्सु ठाणेसु उक्कोसमंतराधिकारातो असई (उक्कोस) ठितीए अफिछऊण कालस्स अनन्तत्तणओ घंसणधोलगाए पुणोवि नियमण चेव तेणं दव्वेणं पओगविस्मसाभावओ तहेव संजुज्जइति, एवमुक्कोसतो अर्णतं कालं अंतरं भवति, गाणादब्बाई पडुच्च णस्थि अंतरं, इह लोके सदैव तद्भावादिति भावना, अणाणुपुन्विचिंताए एग दव्यं पडुकच जहष्णेणं एग समयंति, कह?, एगो परमाणू अण्णणं अणुमादिणा पडिऊण समयं चिंहिता विउपजाति एवं एगसमयमन्तर, उकोसेणं असंमेज कालं, कहं , अणाणुपुग्विदग्ध अण्णण अणाणुपुश्विदयण अवत्तव्यगदव्येणं आणपुग्विदध्वेण वा संजुरी कोमद्वितियमसंखेजकालनियमितलक्षणे होकण ठितिअन्ते तओ भिण्णो नियमा परमाणू चेव भवति, अण्णब्बाणवेक्वत्तणओ, एवं उकासेण असंखेजकालंति, एल्थ चोदगो भणति-णणु अणतपदेसगाणुपुब्बीदवसंजत्तं खंडखंडेहि विचडिऊण व्यणुकादिभावमपरित्यजेदवान्यान्यस्कन्धसम्बन्धस्थित्यपेक्षयाऽस्यानन्तकालमेवान्तरं ॥३६॥ कम्मान भवति इति, अत्रोच्यते, परमसंयोगस्थितेरप्यसंमयेयकालादूमभावादणुत्वेन तस्य संयुक्तवादणुत्वत एव वियोगभावादिति, कथ-IN मिदं शायत इति चेदुच्यते, भाचार्यप्रवृत्तेः, तथाहि-इदमेव सूत्रं ज्ञापकमित्यलं चसूति । णाणादब्वाई' तु पूर्ववत, अवत्तब्वगचिंताए। एग दवं पडुरुच जहण्णं एग समय एवं-दुपरमाणुखंघो विउजिऊण पगं समय ठाऊण पुणो संजुज्जइ, अण्णेण वा आणुपुवादिणा |
दीप अनुक्रम [९७]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं ७-८८] / गाथा [८...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
प्रत सूत्रांक [८७-८८]
गाथा ||८..||
श्रीअनुवासन
संजजिय समयमंग तहा चिट्वि काम पुणो विजुजात, अवतव्वगं चेव भवतीत्यर्थः, उकोसेणं अणतकाल, कई १, एगमवनव्यगदव्यं । नगमव्य हारि.वृत्ती अवत्तव्वगत्तेण विजुजिऊण अण्णेतु परमाणु व गुफाये कोत्तरवृदयाऽनन्ताणुझावसानेषु स्वस्थानप्रतिभेदमनन्तव्याक्तिवत्सु ठाणेमुक्कोसंतराधिका
हाराम्यति रात् असर्ति उकोसगठितीए अच्छिण कालस्म अणततणओ ,सणपोलणाओ पुणोवि ते चेव परमाणू विस्ससापओगतो तहेव जुज्जति,
कातायकाव्यानुपूर्वी ॥३७॥
एवमुक्कोसतो अणंत कालं अंतरं हवति, णाणादब्वाई पडुच्च णस्थि अंतर, इह लोके सदैव तद्भावादिति भावना, द्वारं । इदानी भागद्वार, तत्रेदं सूत्र ‘णेगमववहाराणं आणुपुषिदमाई सेपदयार्ण कतिभागे होज्जा'(७-६५ ) इत्यादि, सेसदव्य'ति अणाणुपु. | बिदव्वा अवत्तब्धगदम्बा य, यद्वा एका रासी कओ तता पछा चतुग, एल्थ निदारिसणं इम-सतस्स संखेम्जातिभागे पंच, पंचभागे सतस्स | वीसा भवंति, सतस्स असंखेजतिभागो दस, दसभागे दस चेव भवंति, सतस्म संखेननु भागेमु दोमाइपसु पंचभागेसु चत्तालीसादी भवंति, सतस्स असंखेजेसु भागेसु अहलु नसभागेमु असीति भवति, चोदग आह--णगु एतेण णिसगेण सेसगदव्याण अणुपुब्विव्वा ४ | थोवतरा भवंति, जो सतस्स असीति धोवतरत्ति, आचार्य आइ-ण मया भण्णइ तद्भागसमा ते ददुचा, तभागस्थेसु वा दम्वेसु ते समा, किंतु सेसच्वाण आणुपुरिवदवा असंखजसु भागेसु अधिषा भवतीति वकसेसो, सेसदव्या असंखे भागे भवन्तीत्यर्थः, अणाणुपुब्बिव्वा अम्बत्तब्वगदब्वा य आणुपुब्धिदव्याणं असंखेजभाने भवंति, सेसं सुत्तसिद्धमिति (भाग) द्वारं । साम्प्रतं भावद्वारं, तत्रेदं सूत्र-'नेगमवबहाराण आणुपुग्विदम्बाई कयरंमि भावे होज्ज' तीत्यादि (८८-६६ ) इह कर्मविपाक उदयः उदय एवं औदविकः स चाष्टानां कर्भप्रकृतीनामुदयः तत्र भवस्तेन वा निवृत्त औदयिका, उपशमो--मोहनीयकर्मणोऽनुदयः स एकोपशमिकलत्र भवस्तन वा निवृत्त इति, क्षय:कर्मणोऽत्यस्तविनाशः स एव क्षायिकस्तत्र भवस्तन वा निर्वृत्त इति,कर्मण एवं कस्यचिवंशस्य क्षवः कस्यचिदुपशमः ततश्च क्षयश्चापशमश्च
दीप
अनुक्रम [९८-९९]]
~174
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................. मूलं ९९] | गाथा [८...] .......... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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श्रीअनु हारि.वृत्ती
प्रत सूत्रांक [८९] गाथा ||८..||
॥३८॥
क्षयोपशमी ताभ्यो निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः, परिणमनं परिणामः, द्रव्यस्य तथा भाव इत्यर्थः, स एव पारिणामिकः तत्र भवस्तेन वा निवृत्त इति, नैगमव्यवसानिपातिको य एषामेव द्विकादिसंयोगादुपजायते, एष शब्दार्थः, भावार्थ पुनरमी स्वस्थाने एवोपरिष्टावक्ष्यामः, नवरं निर्वचनं, निर्वचन-जाहाराभ्यामसूत्रोपयोगीतिकृत्या परिणामिकभावार्थों लेशतः प्रतिपाद्यत इति, इह परिणामः द्विविधः- सादिरनादिश्व, तत्र धर्मास्तिकायाविद्रव्यादिष्व- ल्पबहुत्वं नादिपरिणामः रूपिद्रव्येष्वादिस्तिद्यथा अभेन्द्रधनुरादिपरिणाम इत्येवमवस्थिते सतीदं निर्वचनसूत्रं : णियमा ' इत्यादि, नियमेनअवश्यतया सादिपरिणामिक भावे भवन्ति, दया परिणतेनावित्वाभावाद् , उत्कृष्टतो द्रव्याणां विशिष्टैकपरिणामत्वेनासंख्येयकालस्थिते:, शेष सूत्रसिद्ध, द्वारं । साम्प्रतमल्पबहुत्वद्वार, नत्रे सूत्र- एतेसिग ' मित्यादि (८९-६७ ) द्रव्यं च तदर्थश्च द्रव्यार्थः तस्य मावो द्रव्यार्थता, एकानेकपुरलद्रव्येषु यथासंभवत: प्रदेशगुणपर्यायाधारतेत्यर्थः, तपा द्रव्यत्वेनेतियावत, प्रकटो देशः प्रदेश: प्रदेशश्वासावर्थश्व प्रदेशार्थस्तस्य भावः प्रदेशार्थता, तेष्वेव द्रव्येषु प्रतिप्रदेशं गुणपर्यायाधारतेति भावना, तया, अगुल्वेनेत्यर्थः, द्रव्यार्थप्रदेशार्थता यथोक्तोभय| रूपतया, शेष सूत्रसिद्ध. यावत 'सम्बत्योबाई गमववहाराणं अम्बत्तबगाई दबदत्तवाए'ति, का तत्र भावना !, उच्यते, संघातभेदानमिसाल्पत्वात्, वेभ्य एव अणाणुपुब्बिाई बढवाए बिसेषाधिताई, कर्ष', उच्यते बदतरब्योत्पचिनिमित्तत्वात , तेभ्योऽपि आणुपुषिदम्बाई दबढ़वार असंखेनगुणाई, क , उच्यते, व्यायेकवदेशोत्तरवृश्या व्यस्थानानां निसर्गत एवं बहुत्वात, संघानभदनिमित्तबहुवारच, इह विनेयानुप्रार्थ भावनाविधिकच्यते-एग दुग तिग चउपदेसा य ठाविता १, २, ३, ४, | एस्थ संघातभेदतो पच अवत्तव्यगदम्बाई हवंति, दस अणाणपुत्रिदब्धा भेदतो संघाततो वा, एककाळे तिणि य आणपुग्विदम्वा, कमेण पुण एगदुगादिसंजोगभेदतो अणेगे भवंति, अण्णे भणति-पोरस हवंति, तदभिपाय तु नवर्य सम्यगवगल्छामोउतिगंभीरत्वादिति,एवं पंचदसा-12
दीप
अनुक्रम [१००]
~175
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं १०-९३] / गाथा [८...] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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श्रीअनु० हारि-चौ
प्रत सूत्रांक [९०-९३]]
गाथा ||८..||
॥ ३९॥
दिसु भावयव. सव्वावरसतो व सवेग, नान्यथावादिनी जिना:, 'पदेसट्टयाए सम्बत्योचाईणेगमयवहाराण' मित्यादि, स्तोकरले कारण 'अपदेसट्टयाए' शि अप्रदेशार्थत्वेन नास्य प्रदेशा विद्यन्त इत्यप्रवेशः-परमाणु:, उक्तंच-'परमाणुरप्रदेश'इति तद्भावस्तेन, अणोर्निरवयवत्वावित्या संग्रहेणदआह--प्रवेशार्थतया सस्तोकानीत्यभिप्राय अपदेशाधेवनेति कारणाभिधानमयुक्तं, विरोधान् , स्वभावो हितुर्यवि प्रदेशार्थता कथमप्रदेशा-1व्यानुपूवी र्थता इति, अत्रोचवे, आरमीयैकपदेशव्यतिरिक्तपदेशान्तरप्रतिषेधापेक्षा प्रदेशाधता, न पुनर्निजैकप्रदेशप्रतिषेधापेक्षापि, धर्मिमण एवाप्रसङ्गाविचारवैयध्यप्रसंगातू असं विस्तरेण 'अवत्तब्धगदवाई पदेसट्टयाए विसेमाधियाई 'अनानुपूर्वर्दिव्येभ्य इति, अब विनेयासमोहार्थमुवाहरणबुद्धीए सयमे अवत्तव्वगवचा कया, अणाणुपुग्विदग्बा पुण दिवसयमेवगा, एवं द्रव्यत्वेन विशिष्टविशेषाधिका भवन्ति, पवेसत्तणे पुणा अणाणुपुव्यिदव्वा अप्पणो दब्बताए तुला चेव, अपदेसत्तणओ, विसिविसेसाधिता (अवत्तब्धया) दुसयमेता भवंति, आणुपुत्रिदम्बाई अपरेसकृताए अणतगुणाई, तेहितोषि पसठ्ठताए आणुपुग्विदम्बाई अणंतगुणाई, कथं ?, उच्यते, आणुपुषिदवाणं ठाणबत्तणओ, तेति च संखा अर्णनपदेसत्तणो, उभयार्थता सूत्रसिद्धव से त' मित्यादि निगमनद्वयं, से कित' मित्यादि (९०-६९) इह सामान्यमात्रसंप्रहणशील: | संग्रहः, शेषं सूत्रासिद्धं यावत् 'तिपदेसिया आणुपुब्बी' त्यादि, इह संग्रहस्य सामान्यमात्रप्रतिपादनपरत्वाचावन्तः केचन त्रिप्रदेशिकास्ते विप्रदेशिकत्वसामान्याव्यतिरेकात् व्यतिरेके च त्रिप्रदोशकत्वानुपपत्ते: सामान्यस्य चैकत्वादेव त्रिप्रदेशिकानुपूर्वीति, एवं चतुष्पदेशिकादिष्वपि भाषनीय, पुनश्च विशुद्धतरसंग्रहापश्या सर्वासामेबानुपूर्वीत्वसामान्यभेदादेकैवानुपूर्वीति, एवमनानुपूर्व्यवक्तव्य केष्वपि स्वजात्यभेदतो वाच्यमेकत्वमिति से त' मित्यादि निगमनं, बहुत्वाभायाहुवचनाभावः 'एताए ण 'मित्यादि (९२-७०) पाठसिद्ध, यावत ' अस्थि आणुपुथ्वी ' त्यादि सप्त भंगाः, व्यक्तिवद्रुत्वाभावाद्वहुवचनानुपपत्तितः शेषभंगाभाव इति, एवं भंगोपदर्शनायामपि भाचनीय। 'से कित
दीप अनुक्रम [१०१
NCHACHA+ACNG
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................. मूल ९४-९५] | गाथा [९] ..... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [९४-९५] गाथा
हनुगमः
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श्रीअनुःला समोतारे' त्यादि (९४-७१) सूत्रीसद्ध, यावत् 'संगहस्त आणुपुलिबदबाई आणुपुब्बिवहिं समोतरवि' तज्जाती वर्तन्ते, आनुपूर्वी-18 संग्रहेणाहारि वृत्ती
| त्वेन भवन्तीत्यर्थः, एबमनानुपूर्ववक्तव्यकद्रव्यचिन्तायामपि भावना कार्या, पाठान्तरं वा 'सटाणे समोतरति ' स्वस्थान तस्मिन् समवतरं॥४०॥ Vतीति, अत्राह-जं सहाणे समोवरंतीति भणह, किंतं आतभावो सहाण परदब्बं वा समभावपरिणामणो सट्टाणं ?, जदि आतभावो सट्टाण
| तो आतभावे ठितत्तणतो समोतारो भवति, अह परदव्वं तो आणुपुब्बिदम्बस्स अणाणुपुग्विअवत्तम्बगदम्याषि मुत्तित्तवण्णादियहि समभावत्तणतो सट्टाणं भविस्संति, एवं चोदिते गुरू भगति-सम्बया आतभावे वणिजमाणा आतभावसमोतारे भवंति, जतो जीवब्वं जीवभाविमु समोतरिउजाणोऽजीवभावे, अजोपदपि अजीवभावे न जीवभावप्रित्यर्थः परवपि समभावविसेसादिसामनत्तगओ सहाणं घेपइति ण दोसो, इहपुग अधिकारे आणुपुचिमाववितेसत्तगओ आणपब्धिवम्बपरखे समोत अवत्तब्वेमुवि सट्टाणे समोतारो भाणियब्बो इति, 'सेत'मित्यादि, निगमने । से कितं अणुगमे, अणुगमे अट्ठविहे पण्णते, | तंजहा- सन्तपद' गाहा (९-७१) णरं अप्पाबहुं पास्थि' नि (९५-७१) विशेषत इयं च नपान्तराभित्रायतो व्याख्यातेव,
य एवंह विशेषोऽसावेव प्रतिद्वारं प्रतिपाद्यत इति, तत्र संगहस्से' त्यादि, अन्यसिद्धमेव, यावनियमा एको रासी, एत्य सुत्तुधारणसमण| तरमेव आह चोड़क:--पाणु दयपमाणे पुढे अतिलिट्टनुत्तरं, जओ एको रासित्ति पमाण कड़ियं, जो बरणं सालिबीयाणं एको रासी भण्णति, एवं बहूर्ण आणुपब्विव्वाणं एको रामी भविस्यति, वह पग दया पडिय
रामी भविस्यति,बह पग या पडिजितब्बा, आचार्य आह-एकासिमहणण बहुसुवि ॥४०॥ आणुपुत्रिदब्बेसु एवं चेव आणुपुत्रिभा दसति, जहा भूने कठीग मुत तं, अवा जहा बहवो परमाणवो संवतभावपरिणवा एगखंधो भण्णति, एवं बहुआणुपुब्विदव्या आणुपुधिभावपरिणवत्तणतो एगाणुपुचित्तं पगक्षणओ एगो रासीति भणितं न दोसो, 'संगहस्स आणु
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अनुक्रम [१०५१०८]
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आगम
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं R६-९७] / गाथा [९...] ...... . पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९६-९७]
गाथा ||९..||
श्रीअनु० हारि.वृत्ती ॥४१॥
विदबाई लोयस्स किं संखेज्जतिभागे होज्जा' इत्यादौ निर्वचनसूत्रं - नियमा सबलोए होज्जा' सामण्णवेक्खाए आणुपुत्रीए औपानिएगत्तणो सवायत्तणओ य, एवमणाणुपुब्धिअवत्तब्वगावि भाणितव्वा । फुसणावि एवं पेव माणितम्या, कालतो पुण सम्बद्धं, आणुपुथ्वी-12धिकी द्रसामान्यस्य सर्वकालमेव भावात् , एवमणाणुपुटिवअवतव्वगावि भाणियचा, अंतरचिन्ताप णत्यि अन्तरं, प्रयोजनमनन्तरोक्तमेव, भाग-1 द्वारेऽपि नियमात् त्रिभागो, जेण तिमि वेत्थ रासी, एत्य चोदगो भगति-गणु आदीए अवत्तम्बोहितो अगाणुपुब्बी विससाधिता तेहिंतो| आणुपुब्बी असंखेग्जगुणा, आचार्य आह- नेगमववहाराभिप्पायवो, इर्म पुग संगहामिपावतो भणित, किंचायत-जहा एगस्स रगो। | तओ पुत्ता, तोसें अस्से मगन्तार्ण एगस्स एगो आसो दिण्णो, सो छ सहस्ते लम्भति, विवियस्स दो आसा दिया, ते तिमि तिणि सहस्से लभंति, तइयरस वारस आसा दिण्णा, से पंच पंच सए लम्भति, विसमावि ते मुजमाव पडस्प विभागपहिता भवंति, एवं आणुपुब्धि| मादीवि दवा आणपबिअणाणुपुब्बिअवत्तब्धगतिभागसमक्षणतो नियमा तिभागत्ति भणितं ण दोसो, सादिपारिणाभिए भावे पूर्ववत्,' गता अणोवाणिहिया दवाणुपुवी । ' से कित' मित्यादि, अथ कथमोपनिधिकी द्रव्यानी, औपनिधिको पानी विविधा प्रजाता,13 तद्यथा-'पूर्वानुपूर्वी 'त्यादि ( ९६-७३) तस्मात्प्रथमावभूति आनुपूर्वी अनुकमः परिपाटी पूर्वानुपूर्वो, पावापान-चरमादारभ्य व्यत्य| येनैवानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी, न आनुपूर्वी अनानुपूर्वी यथोक्तप्रकारद्वयातिरिक्तरूत्यर्थः, ‘से कित' मित्यादि. (९७-०३) तत्र व्यानु-81 | पूळधिकारात् धर्मास्तिकायादीनामेव च द्रव्यत्वादिदमाइ-'धम्मस्थिकाए' इत्यादि, तत्र जीवपुद्र लानां स्वाभाविके क्रियावसे गतिपरिण| तानां तत्स्वभावधारणाद्धर्मः, अस्तव: प्रदेशास्तेषां काय:-संघात: अस्तिकायः धर्मधासावस्तिकायति समासः, तवा जीवपुतलानां स्वाभा
॥४१ |विके क्रियावत्त्वे तत्परिणतानां ततस्वभावाधारणादधर्भ, शेषे धर्मास्तिकायवन, तत्र सर्वव्यस्वभावाऽऽओपनादाकाशं, स्वभावनावस्थानादि
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................. मूल ९६-९७] | गाथा [९] ....... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९६-९७]
गाथा ||९..||
द्रव्याणि ततक्रमश्व
श्राअनुत्य र्थः, आशब्द। मर्यादाभिविधिवाची, मर्यादायामाकाश भवन्ति भावाः स्वात्मनि च, वत्संयोगेऽपि स्वभाव एवावतिष्ठन्ते नाकाथाभावमय। साधयान्ति, अभिविधौ तु सर्वभावण्यापनादाकाश, सर्वात्मसंयोगादिति भावः, शेष धर्मास्तिकायवात् , तथा जीवति जीविष्यति जीवितवान् ॥४२॥ | जीवः, शेष पूर्ववत्, तथा पूरणगलनधर्माणः पुदला: त एवास्तिकायः पुदलास्तिकाय इत्यनेन सावयवानेकप्रदेशिकस्कन्धमहोऽप्यव
| गन्तव्यः, तथाऽद्वेत्ययं कालवचन: स एव निरंशत्वावतीतानागतयोविनिष्टानुत्पन्नवेनासस्वारसमयः, समूहाभाव इत्यर्थः, आवलिकादयः सन्तीति चेत्, न, तेषां व्यवहारमात्रतयैव शब्दात, तथादि-जानेकपरमाणुनिर्वृत्तस्कन्धसमूहवत् आवलिकादिपु समयसमूह इति । आइ-एषों कथमस्तित्वमवगम्यते । इति, अत्रोक्यो, प्रमाणात , तवे प्रमाण-इह गतिः स्थितिश्च सकललोकप्रतिक्षा कार्य वर्तते, कार्य व परिणामापेक्षाकारणायत्तात्मलाभ वर्तते, पटादि कार्येषु तथा दर्शनात् , तयाच मृत्पिण्वभावेऽपि दिगदेशकालाकाशप्रकाशाचपेक्षाकारणमन्तरेग न घटी। भवति, यदि स्वान्मृपिण्डमात्रादेव स्यात् , न च भवति, गतिस्थिती अपि जीवपुरलाख्यपारिणामिककारणभावेऽपि न मास्तिकायाख्यापक्षाकारणमन्तरेण भवन एव, यतश्च भावो दृश्यते अतस्तत्सत्ता गम्यत इति भावार्थः, गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुरलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायः मत्स्वानामिव जलं, तथा स्थितिपरिणामपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भक अधर्मास्तिकायः मत्स्वानामिव मेदिनी, विवक्षया जलं वा, प्रयोगगविस्थिती अपेक्षाकारणवत्यो कार्यस्वाद् घटवत्, विपक्ष लोक्य शुषिरममावो वेत्वलं प्रसंगेन, गमनिकामात्रमेतत् | आ६-आकाशा-1 | स्तिकायसत्ता कथमवगम्यते, कयते, अवगाहर्शनातथा चोक्तं---अवगाइलक्षणमाकाश' मिति, आह-जीवास्तिकायसत्ता कथमवग-1 म्यते , उफयते, अवमहादीनां स्वसंवेदनसिद्धत्वात् , पुद्रास्तिकायसत्ताऽनुमानतः, पढादिकार्योपलब्धेः सांव्यवहारिकप्रत्यक्षतश्चीत, | आह-कालसत्ता कथमवगम्पते ?, तक्यते, बकुलचम्पकाशाकादिपुष्पफलप्रदानस्य नियमेन दर्शनात, नियामकच काळ इति, आह--पूर्वानुपूर्वी
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४२॥
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
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गाथा
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अनुक्रम
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [९६-९७] / गाथा [९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि-वृत्तौ
॥ ४३ ॥
4
त्वमभीषामित्थमेव किं कृतमिति १, अत्रोच्यते इत्थमेवोपन्यासवृत्तेः, आह-इत्थमेव क्रमेण धर्मास्तिकायाद्युपन्यास एवं किमर्थमिति ?, उच्यते, धर्मास्तिकायादिपदस्य मांगलिकत्वाद्धर्मास्तिकायस्य प्रथममुपन्यासः गतिक्रिया हेतुत्वाच्च पुनर्धमस्तिकायप्रतिपक्षत्वादधर्मास्तिकायस्थ, पुनस्तदाधारत्वादाकाशास्तिकायस्य, पुनः प्रकृत्याऽमूर्ति साम्याज्जीवास्तिकायस्थ, पुनस्तदुपयोगित्वात् लास्तिकायस्थ, पुनर्जीबाजीवपर्ययत्वादद्वासमयस्येति, 'से किं तं पच्छाणुपुच्ची' त्यादि पश्चात् प्रभृति प्रतिलोमपरिपाटी पश्चानुपूर्वी, उदाहरणमुत्क्रमेदमेव अद्धासमय इत्यादि, निगदसिद्धं, ' से किं तं अणाणुपुथ्वी' त्यादि, न आनुपूर्वी अनानुपूर्वा यत्रार्थं द्विप्रकारोऽपि कमो नास्ति, एवमेवादेवितदेतया विवदद्यत इत्यर्थः तथा चाह--' एयाए चैव चि 'एते च समाने ' इति वचनादस्यामेवानन्तराधिकृतायां 'एगादियाए 'ति एकादिकायां एगुत्तरियाए 'सि एकोत्तरायां छगच्छगतेति पणां गच्छ समुदाय: षड्गच्छतं गता प्राप्त गच्छता तस्यां 'सेडीए ' ति श्रेण्यां कि ?' अण्णमन्नम्मासो 'ति अन्योऽन्यमभ्यासेोऽन्योऽन्याभ्यासः, अभ्यासो गुणनेत्यनर्थान्तरं दुरूवूणो 'सि द्विरूपन्यूनः आद्यन्तरूपरहितोऽमानुपूर्वीति संटकः, एष तावदक्षरार्थः, भावार्धस्तु करणगाथानुसारतोऽवगन्तव्यः, सा चेयं गाया--' पुवाणुपुव्वि देट्ठा समयाभेदेण कुण जहाजे । उदरिमतुलं पुरओ णसज्ज पुम्बकमो सेसे ॥ १ ॥ नि, पुब्बाणपुसिद्दत्यो पुवं वणितो, देहति पढमाए पुल्बाणुपुब्विलताए अधोभागे रयणं वितिवादिलादिसु 'सम' ति इद अगाणुपुब्विभंगरयगव्यवस्था समयः अर्भिदमाणो 'सि तां भंगरचनाव्यवस्थां अविणांसेमाणो, तस्स य विणासो जति सरिसमं छताए ठवेति जति वाऽभिहितलक्षणतो उकमेणं ठवे तो भिण्णो समओ, उक्तं जहियंभि उ निक्लित्ते पुणरवि सो चेव होइ दायब्बो । सो होति समयभेओ बजे पयतेणं ॥ १ ॥ " तं भेदं अवधमाणो कुणसु ' जहाजेड ' न्ति जो जस्स आदी एस तस्स जेडो हवति, जहा दुगस्स एको जेडो, अणुजेडो जहा विगस्स एको,
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अनानुपू
मेदाः तदानयनोपायश्च
॥ ४३ ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
................ मूल ८-१००] | गाथा [१०] ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्रीअनुः हारि ऋचा
प्रत सूत्रांक [९८१००] गाथा ||१०||
॥४४॥
जेहाणुजवा जवा च तकस्स एको, अतो पर सव्वे जेहाणु जेट्टा भाणितब्वा, पतेसि अण्णतरे ठविते पुरोति अम्गओ उवरिलतासरिसे क्षेत्रानुपूअंके ठवेजा, जेहादिअंकठवणतो जे एगादिया सेसहाणा तेसु जे अडविया सेसगा अंका ते पुवकमेण ठवेज्जा, जस्ल अणंतरो परंपरो वा पुढ्यो हाव्योदयः अंको स पुवं ठविज्जते पुत्वकमो भण्णतीत्यर्थः, तत्थ विण्डं पदाणं इमा ठवगा, १२३-२१३-१३२-३१२-२३१-३२१ अहवा अणागुपुवीणं परिमाणजाणणत्यो सुहविण्णेयो इमो उवाओ धम्मादिए चेव छप्पदे पडुच्च दंतिम्जइ-गादिएमु परोप्परम्भासेण सच सता वीमुत्तरा भवंति, एकोण दुगो गुणिओ दो दो तिग छ छ चनक चउब्बीस चवीस पंच वीसुत्तरं सतं वीमुत्तरं सतं छकगाण सत्त सता वीमुत्तरा, एते पढमंतिमहीणा अणाणुपवीण सत्त सता अट्ठारमत्सरा हवंति, अगेण उवातो भणिओ व 'पुवाणुपुची हेहा' इत्यादिना, एवमन्येऽपि भूयास एवोपाया विद्यन्ते न च तैरप्रस्तुतैरिहाधिकार इति न दयन्ते, से तं अगाणुपुरीति निगमनं, 'अहवे ' स्यादि (९८-७७) अहवेति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्राप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी' स्यादि सूत्रमिद यावनिगमनमिति, नवरमाह चोदक:-अथ कस्मात्सुद्गलास्तिकाये एव त्रिविधा दर्शिता, न शेषास्तिकायेषु धादिष्विति, अत्रोच्यते, असंभवाद्, असंभवश्व धमाधम्माकाशानां प्रत्येकमेकद्रव्यत्वादेकद्रव्येषु च पूर्वाद्ययोगान् जीवास्तिकायेऽपि सर्वजीवानामेव तुल्यप्रदेशत्वादेकारोकोत्तरपद्धभावादयो न इति, अद्धासमयस्त्वकत्वादयोग इत्यलं प्रसङ्गन, प्रस्तुमः प्रकृतं, गवा द्रव्यानुपूर्वी । साम्प्रतं क्षेत्रानुपूर्वी प्रति
पाद्यते, तत्रेदं सूत्र-- से किं ते खेचाणुपूची ' ( ९९-७८ ) व्यावगाहोपलक्षित क्षेत्रमेव क्षेत्रानुपूर्वी, सा द्विविधा प्रक&त्यायन यथा दुग्यानुपूर्वी तथैवाक्षरगमनिका कार्या, विशेष तु वक्ष्यामः, 'तिपदेसोगाढे आणुपुचि' ति त्रिप्रदेशावगाढः |
| व्यणुकाविस्कन्धः अवगायावगाहफयारन्योऽन्यसिद्धेरभावेऽप्या काशस्यावगाहलक्षणत्वात् क्षेत्रानुपूर्वधिकारात क्षेत्रप्राधान्यात क्षेत्रानुपूर्वी-121
दीप अनुक्रम [१११११५]
M४॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं ८-१००] | गाथा [१०] ..... * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्रीजन
प्रत सूत्रांक [९८१०० गाथा ||१०||
हारि ॥४५॥
सक
ति, एवं यावदसंख्येयप्रदेशावगाढोऽनन्तप्रदेशिकादिरानुपूर्वीति, 'एगपदेसावागढोष्णाणुपुखि 'त्ति एकप्रदेशावगाढः परमाणुः यावदन न्ताणुकस्कन्धो वाऽनानुपूर्वी, 'दुपदेसोगाढे अवत्तव्बए' द्विपदशावगाढो घणुकादिरवक्तव्यक, एत्थावगाहो दवाणं इमेणका विहिणा-अणाणुपुषिदब्याणं परमाणूर्ण नियमा एगम्मि चेव पड़ेसेऽवगाहो भवति, अवत्तव्ययवाणं पुण दोपवेसियाणं एगम्मि पा& बोसुवा, आणुपुब्बियाण पुण तिपदेखिगादीणं जहण्णं एगम्नि पदेसे उकोसेणं पूण जो खंधो अत्तिपहिं परमाणदिगिफण्णो सो वत्तिपहिं । चेव पएसेहिं ओगाहति, एवं जाव संखेजासंखेन्जपदेसिओ, अणंतपदेसिओ पुण संधो एगपदेसारद्वो एगपदेसुत्तरवुडीए उकोसओ जाव | असंखजेसु पदेसेसु ओगाहति, नानन्तेषु, लोकाकाशस्यासंख्येयप्रदेशात्मकत्वात्परतश्चावगाहनाऽयोगादित्यलं प्रसंगेन, शेष सूत्रसिद्धं यावत णेगमववहाराण आणुपुब्बियाई कि संखेरजाई असंखेन्जाई अणताइं?, नेगमवव० आणु नो संखजाई असंखजाईनो अणताई, एवं अणाणुपुब्बिदन्वाणिवि, तत्र असंखेयन्ति क्षेत्रप्राधान्यात् द्रव्यावगाहक्षेत्रस्वासंख्येयप्रदेशात्मकत्वात्तुल्पप्रदेशावगाढानां च द्रव्यतया बहूनामप्येकत्वादिति । क्षेत्रद्वारे निर्वचनसूत्र-'एग दबं पडुकच लोगस्त संखेन्जतिमागे वा होजे ' त्यादि, तथाविधस्कन्धसद्भावादू, एवं शेषेष्वपि का भावनीय, यावद्दे सूणे वा लोए होज 'त्ति आह-अचित्तमहास्कन्धस्य सकललोकव्यापित्वात्क्षेत्रप्राधान्यविवक्षायामपि कस्मात्संपूर्ण एव लोको
नोच्यते? इति, उच्यते, सदैवानानुपूर्यवक्तव्यकद्रव्यसद्भावान् जघन्यतोऽपि तत्तदेशत्रयणो नत्वाद् व्याप्ती सत्यामपि तत्प्रदेशेष्वानुयाः प्राधान्याभावाद्, उक्तं च पूर्वमुनिभिः- महखंधापुण्णेवी अबत्तबगऽणाणुपुबिदब्वाई। देसोगाढाई तसेणं मलोगोणो ॥१॥णय सस्थ तस्स जुज्जइ पाथणं वावि विवि (तमि) देसंमि । तप्पाधन्नत्तणओ इहराऽभावो भवे तासि ॥२॥" अधिकृतानुपूर्वीस्कन्धप्रवेशकल्पनातो वा देशोन एष कोक इति, यथोक्तमजीवनज्ञापनाया-" धम्मत्यिकाए धम्मस्थिकावस्स देसो धम्माधिकापस पदेसे, एवमधम्मागासे,
SHERE
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INCES
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................ मूलं 8८-१००] | गाथा [१०] ..... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [९८१००
गाथा
||१०..||
श्रीअनुाठा पुगसुवि"हचावयवावयविरूपत्वावरतुनः अवयवावयविनोध कथंचिदेवादेशप्रदेशकल्पना साध्वीति, न च देश एव देसी सर्वचा, तरे-तापत्रानुषी हार वृषाला कवे देशमात्र एवासी स्थारेको वा देशिमात्र इति, अत: स्वदेशस्यैव कथंचिदन्यत्वादशोनो लोक इति । किंच-खेत्ताणुपुब्बीए भाणपुग्वीमच-TC ॥४६॥
चव्वगष्यविभागत्तणो ण वेर्सि परोप्परमवगाहो, परिणमंति बा, ण वा तेसिं खंधभावो अस्थि, कथं?, उच्यते, पदेसाण अचलभावतणओ, सतो य अपरिणामत्तणओ, तेसि च भावप्पमाणनिरूचत्तणओ, अतो खेवाणुपुथ्वीय एर्ग बब्वं पदुरुच देसूणे लोगोत्ति भणियं, दवाणुपु-18 व्वीए पुण दख्वाण एगपदेसावगाहसणओ एगावगाहेऽवि दवाण आयभावेणं भिन्नत्तणओ परिणामत्तणओ खंघभावपरिणामत्तणो य, अतो एग दव्वं पडुपच सम्वतोगति, भाणितं च-" कह णवि दविए चेऽयं बंधे सविवक्खया पिधत्तेणं । दवाणुपुब्बिताई परिणामइ संघभावेणा॥१॥" | अत्रोच्यते, बादरपरिणामेसु भानपुस्विदवपरिणामो चेव भवति, नो अणाणुपुब्बिअवत्तव्वगदव्येणं, जो पावरपरिणामो संघभावे एव भवति, ते kIपुण सुहुमा ते तिविहाबि अस्थि, किंच-जया अचित्तमहासंधपरिणामो भवति तदा ते सध्ये सुहमा भावभावपरिणाम अमुचमाणा तत्परिणता | | भवंति, तस्स सहमसणओ सम्वगतत्तणओ य, कथमेवं १, उच्यते, छायातपोधोतवारपुदम्परिणामवत् , स्फटिककृष्णादिवपिरंजितवत् . सीसो पुच्छर-दव्वाणुपुब्बिए एगदव्वं सबलोगावगाढंति, कई पुण महं एवर्ग वा भवति', उच्यते, केवालसमुद्घातवत् , उक्तं च-"केवालजग्घाओ इव समयट्टम पूर रेयति य लोथे । अच्चित्तमहाखंधो वेला इव अतर णियतो य॥१॥" अचित्तमहाखंभो सळोगमेतो वीससापरिणतो भवति, तिरियमसंखेज्जजोयणप्पमाणो अणियतकालठांती वट्टो उडमहो चोइसरम्जुप्पमाणो सुहमपोग्गलपरिणामपरिणओ पढमसमए दंडो भवति वितिए कबाडं तइए मयं करेइ चउत्थे लोगपूरणं पंचमादिसमएसु पडिलोमं संहारेण खडसमयंते सव्वहा वस्स खंघओ विणासो, एच जलनिहिवेला इव लोगपुरणरेयकरणेण ठितो लोगपुरगळाणुभावो, सवण्णुवयणतो सदेवो इत्यर्क प्रसंगेन ।'णाणादवाई पहुच्च णियमा
SSSSSSSSS
दीप अनुक्रम [१११११५]
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[(101)
गाथा
दीप अनुक्रम [११६]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (मूलं वृत्तिः)
मूलं [१०१] / गाथा (१०...)
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्ती
॥ ४७ ॥
सच्चलोएवी 'त्यादि (१०१-७०), अस्य भावना ध्यादिप्रदेशाव गादैर्द्रव्यमेदैः सकललोकस्यैव व्याप्तत्वादिति । अनानुपूर्ष्यालोचनायां स्वेकं क्षेत्रानुपूर्वी द्रव्यं प्रतीत्य असंख्येयभाग एवं तस्य नियमत एवेकप्रदेशावगाढत्वात् जाणादन्याइं पहुच नियमा सम्बलोएसि विशिष्टैकपरिणामबद्भिः प्रत्येकप्रदेशावगाढैरपि समग्र लोकव्याप्तः, आधेयभेदेन बाधारभेदोपपत्तेः, वस्तुनश्चानन्तधर्मात्मकत्वात्तत्सहकारिकारणसन्निधाने सवि तस्य २ धर्मस्याभिव्यते धम्मिभेदेन च क्षेत्र प्रदेशाविशेषेऽप्यानुपूर्वी तराभिधानप्रवृत्तेरपि सूक्ष्मधिया भावनीयं । एवं अवत्तवगव्दाजिवि, भावार्थ उक्त एव, नवरमवक्तव्यकैकद्रव्यं द्विप्रदेशावगाढं भवति, स्पर्शनायां तु यथाऽऽकांशप्रदेशानामेव स्पर्शना, वतः खल्यानुपूर्व्यादिद्रव्याधारत्यादिष्टानामेव पदिकास्थितानंतरप्रदेशैरेव सह वाऽवगन्तव्या, इह पुनः किल सूत्राभिप्रावो यथाऽऽकाशप्रदेशाव गाढस्य द्रव्यस्यैवं चिन्तनीयेति वृद्धा व्याचक्षते, भावार्थस्वनंतर द्वारानुसारतो भावनीय इति । कालचितायामपि यथाकाशप्रदेशानामेव कात्यिते ततः किल नभः प्रदेशानामनाद्यपर्यवसितत्वात् स एव वक्तव्यः, सूत्राभिप्रायस्त्वानुपूर्व्यादिद्रव्याणामे वावगाहस्थितिकाल चिन्त्यते इत्येके, न चेह क्षेत्रखंडानामपि विशिष्टपरिणामपरिणताधेयद्रव्याधारभावो ऽपि चिन्त्यमानो विरुध्यत इति युक्तिपतितश्रावमेव क्षेत्रानुपूर्व्यधिकारादिति तत्र एवं दव्यं पहुंच जमेणं एक समय मित्यादि, अस्य भावना- द्विप्रदेशावगाढं तदन्यसन्निपाते त्रिप्रदेशावगाढं भूत्वा समयानस्वरमेव पुनर्द्विप्रदेशावगाढमेव भवति, उत्कृष्टतस्त्वसंख्येयं काळं भूत्वेति, आधेयभेदाच्चेहाधारभेदो भावनीय इति शेषं भावितार्थ । अन्तरचिंता प्रकटार्थी, नवरमुत्कृष्टतः असंख्येयं कालं, नानन्तं यथा नानुपूर्व्यामिति, कस्मात् ?, सर्वपुङ्गलानामवगाहक्षेत्रस्य स्थितिकालस्य चासंख्ये यत्वात् क्षेत्रानुपूवैधिकारस्य व्याख्येयत्वात् क्षेत्रानुपूर्व्यधिकारे च क्षेत्रप्राधान्याद्, असंख्येयकाळादारतच पुनस्तत्प्रदेशानां तथाविधाधेयभावेन तथाभूताधारपरिणामभावादित्यति गहन मे तदवहितैर्भावनीयमिति ॥ भागचिन्तायामानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्येभ्योऽसंख्येयेषु भागेष्व
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1180 11
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१०१]
गाथा
॥१०..।
दीप
अनुक्रम
[११६]
“अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः)
मूलं [१०१] / गाथा [१० ...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५ ] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृचौ
॥ ४८ ॥
त्युक्तं, अत्रैके म्याचक्षते यदा यदा खप्रदेशानुपुव्विमादि चिंतिज्जति तदा तदा पण्णवणाभिप्यायपरिकप्पणाए समूणातिरितभागी भाणितव्यो, जया पुण अवगादिव्वा तदा संखेनेसु भागेसुत्ति, जहा दब्बाणुपुब्बीए तहा भाणितव्यं तत्र विनेयजनानुग्रहार्थे क्षेत्रानुपूर्व्या एव प्रान्तत्वात् द्रव्यानुपूर्व्यास्तूपाधित्वेन गुणीभूतत्वात् क्षेत्रानुपूर्वीमेवा विकृत्य प्रज्ञापनाभिप्रायः प्रतिपाद्यते तत्रानुपूर्वद्रव्याणि शेषद्रव्येभ्योऽसंरव्येयभागैर|धिकानीति वाक्यशेषः इत्थं चैतदंगीकर्त्तव्यं यस्मादनानुपूर्व्यवकन्यकद्रव्याणि तेभ्योऽसंख्येयभागरधिकानीति, क्षेत्रानुपूर्वधिकारात् क्षेत्रखण्डान्यधिकृत्येयमालोचना, ततः खल्वानुपूर्व्यादिद्रव्याधार लोकक्षेत्रस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकत्वेन तुल्यत्वात्तदंतर्गत प्रदेशानां च सर्वेषामेवानुपूर्व्यादिभिर्द (व्यैर्व्याप्तत्वात् समत्वं द्र) व्याधारलोकक्षेत्रस्य प्रत्युत ज्यादिप्रदेश समुदायेष्वाकाशखण्डेषु प्रतिखण्ड मे कैकानुपूर्वीगणनादानुपूर्वीणामेवास्पता युक्तिमती, अवक्तव्यानानूपूर्वीयां तु द्विप्रदेश के प्रदेशिकखंडानां गणनात् बहुता, तत्किमर्थं विपर्यय इति ?, अत्रोच्यते, इह त्र्यादिप्रदेशाधेयपरिणामद्रव्याधारत्वेन क्षेत्रानुपूर्योऽभिधीयते, तत्र त्रिप्रदेशाभिधेयपरिणाम त्यनंसान्यपि द्रव्याणि विशिष्टैकत्रिप्रदेशसमुदायलक्षणक्षेत्रव्यवस्थितान्येकैका क्षेत्रानुपूर्वी, एवं चतुः प्रदेशेष्वाधेयपरिणामवंत्यपि असंख्येयप्रदेशाधेयपरिणामवत्पर्येतानि विशिष्टैकचतुः प्रदेशादसंख्येयप्रदेशान्तसमुदाय लक्षणक्षेत्रच्यवास्थितानि प्रतिभेदमेकैकैवेति, किन्तु यदेकं त्रिप्रदेशसमुदायलक्षणमानुपूर्वोव्यपदेशार्थं क्षेत्रं तदेव तदन्यानंतचतुःप्रदेशाद्याधेय परिणामबद्द्रव्याध्यासितमेकैकक्षे त्र प्रेदशवृद्धचा परिणामभेदतो भेदेनानुपूर्वी व्यपदेश मईति असंख्येयाच प्रभेदकारिणः क्षेत्र प्रदेशा इति न चायमवक्तव्यकानानुपूर्वीणां न्यायः संभवति, नियत प्रदेशात्मकत्वादतोऽसंख्य भागरधिकानीति स्थितं न च तज्जेनैव स्वभावेन त्रिप्रदेशाधेयपरिणानवतां द्रव्याणामाधारता प्रतिद्यते नैव चतुः प्रदेशाद्याधेयपरिणामवतामपि तेषामति त्रिप्रदेशाधेयपरिणामोपपत्तेः विपर्ययो वा तदेवमनन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति विवक्षितेवर धर्मप्रधानोपसर्जनद्वारेणाखिलमिद्द भावनीयमित्यलं
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कालानुपूर्वी
॥ ४८ ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
...... मूलं [१०२-१०३] | गाथा [१०...] ...... * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०२१०३] गाथा ||१०..||
श्रीअनु:। | प्रसंगेन । भावचिन्तायामानुपूर्वीद्रव्याणि नियमान् सादिपारणामिके भावे, विशिष्टाधेयाधारभावस्य सादिपरिणामिकात्मकत्वाद् , एवमनानुपूर्वीअ- हारि.वृत्तौ ।
पूर्वाभ- भावानुपूर्वी वक्तव्यकान्यपि, अल्पबहुत्वचिन्तायां द्रन्थार्थनां प्रत्यानुपूर्वीणा कैकगणनं, प्रदेशावता तु भेदेन तद्गत्तप्रदेशगणनं, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतां तूमय- अल्पबहुत्वं
| गणन, तत्र सम्बत्योबाई गमववहाराणं अवत्तम्वगदव्वाई दवट्ठयाए, कथं १, द्विपदेशात्मकवादवक्तव्यकद्रव्याणामिति, अण्णाणुपुश्विवल्याई ॥४९॥
दबट्ठयाए बिसेसाधियाई, कथं !, एकअंदशात्मकत्वादनानुपूणां इति, आह- यद्येवं कस्माद् द्विगुणान्येव न भवत्येकप्रदेशात्मकत्वात् तद्विगुपणत्वभावादिति, अबोच्यते, तदन्यसंयोगवोऽवधीकृतावक्तव्यकबाहुल्याच्च नाधिकृतद्रव्याणि द्विगुणानि, किंतु विशेषाधिकान्येव, 'आणुपुब्बी-18
दवाई दबट्टयाए अमेखेज्जगुणाई' अत्र भावना प्रतिपादितव, 'पदेसट्टयाए सव्वत्योबाई गमववहाराणं अणाणुपुश्विब्वाई पति प्रकटार्थ, P' अवत्तबगदवाई पदेसट्टयाए विसेसाधिताई' अस्य भावार्थ:-इह खलु रुचकादारभ्य क्षेत्रप्रदेशात्मकत्वादयक्तव्यकोणिव्यतिरिक्ततद-18
न्यप्रदेशसंसर्गनिष्पन्नावक्तव्यकगणनया तथा लोकनिष्फुटगतप्रदेशावक्तव्यकायोग्यानानुपूर्वीयोग्यभावतश्चेति सूक्ष्मबुद्ध्या भावनीय इति । इह | IMI विनेयजनानुमहा स्थापना लिख्यते, शेष भावितार्थ यावत् । सेत्तं गमक्वहाराण अणोषणिहिया खेत्ताणुपुब्बी ' सेयं नैगमध्यवहारयोका रनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी । ‘से कि त संगहस्से' त्यादि (१०२-८७) इयमानिगमनं द्रव्यानुपूर्व्यनुसारतो भावनीया, नवरमत्र
क्षेत्रस्य प्राधान्यमिति । औपनिधिक्यपि प्रायो निमसिद्धैव, णवरं पंचत्थिकायमइओ लोगो, सो आयामओ उडमहे पसिडिओ, तस्स तिहार
परिकप्पणा इमेण विहिणा-बहुसमभूमिभागा रयणप्पभाभागे मेरुमझे अट्ठषदेसो गयगो, तस्स अहोपयराओ अहेण जाव णव योजणशतानि I ४ तिरियलोगो, ततो परेण अहे ठितत्तणओ अहोलोगो साहियसत्तरज्जुप्पमाणो, रुयगाओ उपरिहत्तो णव जोयणसताणि जाव जोइसकस
उवरिवको ताव तिरियलोगो, तओ उडलोगठितत्तणओ उवीर बलोगो देसूर्णसत्तर जुप्पमाणो, अहोलोगडोगाण मज्झे अट्ठारसजोयण
दीप
॥४९॥
अनुक्रम [११७११८]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
....... मूलं [१०२-१०३] | गाथा [१०...] ...... * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१०२
१०३] गाथा ||१०..||
श्रीअनु सतप्पमाणो तिरियभागठियत्तणो सिरियलोगो, ' अहव अहो परिणामो बेत्तणुभावेण जेण उस्सणं । असुभो अहोत्ति भणिओ दव्वाण तेण-13 औपनिधिहारि.वृत्तौदा होलोगो ॥१॥ सङ्घति उवरिमंति व सुहखेत्तं खेत्तओ य दब्वगुणा । उपजति य भावा तेण य सो उद्दलोगो ति ॥ २॥ माणुभावंदकी क्षत्रानु
खेच जंतं तिरियं वयणपज्जयो । भण्णइ विरिय विसालं अतो यतं तिरियलोगोति ॥ ३॥ होलोक क्षेत्रानुपूर्ध्या रमप्रभादीनाम- ॥५०॥
पूर्वी तियेनादिकालसिद्धानि नामानि यथास्वममूनि विशातल्यानि, ताथा-'धम्मा पंसा सेला अंजण रिहा मघा च माधवती । पुढवीण नामाई रयाणादी[ग्लाकादि होति गोत्ताई॥१॥'नमभादमिगोत्राणि, तत्रेन्द्रनीलादिबहुविधरनसंभवान्नरकर्ज प्रायो रमाना प्रभा--ज्योत्सना बस्यां सा रत्नप्रभा, एवं शेषा अपि यथानुरूपा वाच्या इति, नवरं शर्कग-उपला: वालुकापंकधूमकृष्णातिकृष्णदुख्योपलक्षणहारेणेति, तिर्यग्लोकक्षेत्रानुपूल्यों जंबुद्दीबे दीये लवणसमुद्दे धाबइसंडे दीवे कालोदे समुद्दे उद्गरसे पुक्खरवरदीवे पुक्खरोदे समुदे उद्गरसे वरुणवरे दीवे वरुणोदे समुरे वरुणरसे खोदवरे दीवे खोदोदे समुद्दे पयवरे दीवे घओदे समुदे खीरवरे दीवे वीरवरे समुद्दे, अतो परं सब्वे दीवसरिसणामिया समुद्दा, ते य | सब्बे खोदरसा भाणियव्वा । इमे दीवणामा, संजह--णंदीसरो दीवो अरुणवरो दीयो अरुणावासो दीयो कुंडलो दीवो, एते जंबूदीवाओ जिरंतरा, अतो परं असंखेज्जे गंतुं भुजगबरे दीये, पुणो असंखेग्जे दीवे गंतुं कुसवरे दीवे, एवं असंखेज्जे २ गतुं इमेसि एकेक णार्म भाणियव्वं, कोंचवरे दीये, एवं आभरणादओ आय अन्ते सयंभूरमणो, से अन्ते समुद्दे उदगरसे इति । जे अन्तरंतरा दीये तेसि इह सुभणामा जे केह वण्णामाणो ते भाणितव्या, सल्वेसि इम पमाण, 'उद्धारसागराणं अड्राइज्जाण जत्तिया ममया । दुगुणादुगुणपवित्थर दीवानादि रज्जु एवईया
M ॥५०॥ ॥१॥ अवेलोकक्षेत्रानुपूयोसुकीधर्मावतंसकाभिधानसकलविमानप्रधानविमानविशेषोपलाक्षित: सौधर्मः, एवं शेषेष्वपि भावनीयमिति, लोकपुरुषपीवाविभागे भवानि औवेयकानि, न तेषामुत्तराणि विद्युत इत्यनुत्तरागि, मनारभाराकान्तपुरुषवत् नता अंतेषु ईषत्माग्भारेत्यलं प्रसंगेन
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दीप अनुक्रम [११७११८]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१०४-११३] / गाथा [११-१५] ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४११३] गाथा ॥११
श्रीअनु० हारिवृत्ती
॥५१॥
-549
१५||
|प्रकर्व प्रस्तुमा, तापेत्रानुपा ॥ साम्पतं कालानुपूर्म्युच्यते--तत्रेदं सूत्र--से कि ते कालानुपुच्ची' (१०४-९२) पत्र व्यपर्यायत्वारका-1
का- अनौपनिलस्य व्यादिसमयस्थित्यायुपलशितद्रव्याण्येव । 'कालानुपूर्वी द्विविधा अज्ञात 'त्यादि, (१०५-९२) अस्या यथा द्रव्यानुपूर्यास्तथैवाक्ष- धिकी रगमनिका कायों, विशेष तु वच्यामः, तिसमयहितीए आणुपुब्वित्ति त्रिसभयस्थित्यणुकादि द्रव्यपर्याययोः कथंचिदभेवेऽपि नुपूय॑धिकारासमाधान्यारकालानुपूति, एवं यावपसंख्येपसमयस्थितिः, एवमेकसमयस्थित्यनानुपूर्वी, द्विसमयस्थित्यवतम्बर्फ, शेष प्रगढार्थ, यावत् 'यो संखे-II -पूवी उजाई असंखज्जाई णो अणन्ताई'यस्य भावना-ह कालप्राधान्यान् त्रिसमयस्थितीनां भावानामनंतानामप्येकत्वात्तवनु समययस्याऽसंख्येय-18 समयस्थितीनो परतः खल्वसंभवात, समयवृदयाऽभ्यासितानां चानन्तानामपि द्रव्याणां कालानुपूर्वमिधिकृत्यैकत्वावसंख्येयानि, अथवा ज्यादिप्रदेशावगाहसंबंधिळ्यादिसमयस्थित्यपेक्षयेति उपाधिभूतखस्याप्यसंख्येयप्रदेशात्मकत्वादिति, एवं तिमिणत्ति, आह--एकसमयस्थितीनामनन्ता-12 नामप्येकत्वात्तेषां चानन्तानामपि कालापेक्षया प्रत्येकमेकत्वाद् द्रव्यभेदमहणे चानम्तप्रसङ्गः कथमनानुपूर्वी (अ) वक्तव्यकयोरसंख्येयत्वमिति, अत्रो-3 च्यते, आधारभेदसंबंधस्थित्यपेक्षया, सामान्यतश्चाधारलोकस्यासंख्येयप्रदेशात्मकत्वादित्यनया दिशाऽतिगहनामिदं सूक्ष्मबुद्धयाऽऽलोकनीयमिति । 'एगं दब्बं पच्च लोगस्ल असंखेजतिभागे होज्जा ४ जाव देसूणे वा लोगे होज्जा', कई भणवि-पदेसूणत्ति, कथं १, उच्यते, दबओ एगो बंधो मुहमपरिणामो पदेसणे लोए अवगाढी, सो घेच कवाइ तिसमयठितीओ लभइति संख्या आणुपुथ्वी, जे पुण समचलोगागासपदे-18 सावगाडं दब्वं तं नियमा चउत्थसमए एगसमयठितीओ लाभड, तम्हा तिसमबठितीयं कालाणुपुब्बी नियमा एगपदेसूणे चेव लोए लब्भति, अहवा तिसमयादिकालाणुपुब्बिर व्वं जहण्णओ एगपदेसे अवगाहति, तत्थ च पदेसे एगसमयठितियं कालओ अणाणुपुच्चिदव्वं दुसमयठितियं च अवत्तवर्ग अवगाहति, जम्हा एवं सम्हा अचित्तो महाखंधो चउत्थसमए कालओ आणुपुब्विव्वं, तस्स य सबलोगावगाडस्सवि
दीप अनुक्रम [११९१३६]
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आगम
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१०४-११३] / गाथा [११-१५] ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४११३] गाथा ॥१११५||
SAARCS
एगपदेसूणता कज्जा, कम्हत्ति है, उस्यते, जे कालओ अणाणुपुब्विअवत्तव्वा ते तस्स एगपदेसावगाढा, तस्स य मि पदेसे अप्पाहणत्तविक- कालानुहारि.वृत्तो क्खाओ, अतो तप्पदेसूणे लोके कतो, एत्व दिलुतो जहा खेत्ताणुपुची पदेसोना इत्यर्थः, "एगम्मि तप्पदेसे कारणुपुवादि विण्णि वा दवा। पूज्योदि
ओगाईते जम्हा पदेसूणोत्ति तो लोगो ॥१॥ अण्णे पुण आयरिया भण्णति- कालपदेसो समओ समयचजत्थंमि हवति जवेलं। तेणूणवत्तणत्ता स्थितिः ज लोको कालमयखंघो ॥२॥" अयमत्र भावार्थ:-इह कालानुपूळधिकारात्कालस्य प वर्तनादिरूपत्वात्पर्यायस्य च पर्यायिभ्योऽभेदात्स४ | खल्वचित्तमहाखधश्चतु:समयात्मककालरूप: अत: कालप्रदेशः, कालविभाग: समय इति, ततश्च समये चतुर्थे भवति-वर्त्तते यझेलमितियस्यां वेलायामसौ स्कन्धः, स हि तदा विवक्षयक वाद् न गृह्यते, अतस्तेणूणत्ति विवक्षितः, चतुःसमयात्मकस्कन्धस्तेनोनः परिगृह्यते, कथमेतदेवं | बचण 'चि वर्तनारूपत्वात्कालस्य, जं लोको कालमयखधोत्ति विवक्षयैव यस्माल्लोकः कालसमयस्कन्धो वर्तते, अतस्तस्य प्रदेशस्य समयागणने प्रदेशेनोनो लोक इत्येवमन्यथापि सूक्ष्मबुद्धया भावनीयमिति । णाणादब्वाई पदुश्च णियमा सम्बलोए 'त्तित्र्याविप्रदेशावनाहयादि| समयस्थितीनां सकललोके भावात, अना नुपूर्वीद्रव्यचिन्वायां एग दव्यं पडुच्च लोयस्य असोज्जतिभागो होज्जा, सेस पुरुछा पडिसहितब्बा. दभावार्थस्त्वेकप्रदेशावगाहैकसमयस्थितेर्विवक्षितत्वादिना प्रकारेणागमानुसारतो वाच्यः, आदेशांतरेण वा अस्य भावना-अचित्तमहास्कन्धो दंडावस्थारूविदव्वतण मोक्तुं कवाडावत्थामवणं तं अन्नं चेव दव्वं भवति, अण्णागारभावतणओ बहुतरसंघातपरमाणुसंघातत्तणओदयठि
॥५२ तितो दुपदेसियभवणं व, एवं मंधापूरणलोगापूरणसमएसु महास्कन्धस्याप्यन्यान्यद्रव्यभवनं, अतो काळाणुपुब्बिदव्यं सव्वषुच्छासु संभवतीत्यर्वः, 'णाणादब्वाई पडुरच नियमा सव्वलोए होज'चि भावितार्थ द्रव्यप्रमाणद्वार एवेति, अवक्तव्यकद्रव्यचिन्तायां - एग दव्वं पदुर लोगस्सा भी असंखेजतिभाग होजा' द्विमदेशावगाहद्विसमयस्थितिविवक्षितभावात, आदेशांतरेण वा महाखंधवग्जमण्णदव्येसु नाविकचतपुच्छामु
दीप अनुक्रम [११९१३६]
... अथ कालानुपूर्वी-अधिकार: अन्तर्गत् 'काल-समय'वर्णनं आरभ्यते
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१०४-११३] / गाथा [११-१५] ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०४११३] गाथा ||१११५||
॥५३॥
श्रीअनुहोजा, अस्य हदयं-देशोनलोकावगायपि द्विसमयस्थितिर्भवति, शेष सुगम, यावदन्तरचिन्तायां एगं दवं पडुच्च जहणणं एक समयंकालानुहारि चोकाकोसण दो समया' अन्तरं त्वेग बल्ब पचुपच अइण्णणं एकसमय, एगहाणे विनि वा चत्तारि वा असंखज्जे वा समया ठातिऊण ततोला पूच्या
अन्तरं | अन्नहिं गतूर्ण तत्व एग समयं ठाइऊण अन्नहिं गतुं तिणि वा चत्तारि वा असंज्जा वा समया ठाति, एवं आणुपुञ्चिदव्यस्सेगस्स जह-द ण्णण एगं समयं अंतर होति, उससेण दो समया, एकहि ठाणेहिं तिन्नि वा वत्सारि वा असंखेजे या समये ठाइऊण ततो अन्नहिं ठाणे दो। समया ठानिकण अण्णहिं तिष्णि था चत्तारि वा असंखेज्जा या समया ठाति एवं उपोमेणं दो समया अंतर होइ, जइ पुण मनिझमठाणे। तिमि समया ठाया तो मझिमे वा ठाणे तं आणुपुब्विय वत्ति अंतरं चेव ण होइ, तेणेवं पेव दो समया अंतरं । आह-जहा अन्नादि ठाणे दो समया ठितं एवमन्नाहिपि किमेकं न चिट्ठति?, पुणोवि अन्नहि दो अण्णहि एकति, एवं अणण आयारेण कम्हा असंखेमा समया अंतरं न भवति !, उच्यते, एत्थ कालाणुपुष्वी पगता, तीए य काळस्स पावणं, जहा च अण्णण पदेसहाणेण अंतरं कालइ तदा खेत्तदारेण करणाओ खेत्तस्स पाहणं कतं भवति ण पुण कालस्स, अतो जेण केणइ पगारेणं तिसमयादि इच्छति तेणेष कालपाहणतणओ आणुपुची लभइत्ति का दो चेव समया अंतरंति स्थित, णाणादव्वाई पडुरुच गस्थि अंतरं, जेण असुण्णो लोगो, अणाणपब्विअंतरपुच्छा, एक-1 द्रव्यं प्रकृत्योच्यते-जहण्णेणं दो समया, पढमे ठाणे एगसमय ठाइऊण मझिमे ठाणे दो समय ठाइऊण अन्तिमे एवं समयं ठाति, एवं जहज्येण अंतरं यो समया, जति पुण मसिमवि एक समयं ठायइ ततो अंतरं चैव न होति, मझिमिछठाणे अणाणपुल्पी पेवत्ति, तन्हा दो व जहण्णेणं समया, सकोसणं असंखेजकाल, पदमे ठाणे एक समयं चिहिऊण मज्झिमे ठाणे असंखेग्जे समए चिढिकण अन्तिमे ठाणे एक-13॥५३॥ समयं ठाति, एवमसंखेज्जं कालं उनोसेणं अंतर होति, णाणादव्याई पडुच्च णस्थि अंतरं, भागद्वारं तथा भावद्वारं अल्पबहुत्वद्वारं च क्षेत्रा
दीप अनुक्रम [११९१३६]
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[११४]
गाथा
दीप अनुक्रम
[36]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (मूलं वृत्तिः)
मूलं [११४] / गाथा [१५...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्ती
॥ ५४ ॥
नुपूर्व्यनुसारतो व्याक्षेपान्तरमपास्य स्विमितोपयुक्तेनान्तरात्मना कालप्राधान्यमधिकृत्य निखिलमेव भावनीयमिह पुनर्भावितार्थत्वाबविस्तरभयाच्च नोक्तमिति शेषं सूत्रसिद्धं यावत् 'अहवोणिहिया कालाणुपुब्वी तिविहा पनते त्यादि ( ११४-९८) अत्र सूर्यक्रियानिर्वृत्तः कालस्तस्य सर्वप्रमाणानामाद्यः परमः सूक्ष्मः अमेय: निरवयवः उत्पलपत्रशतवेधाद्युदाहरणोपलक्षितः समयः, तेस असं जाण समुदयसमितीए आवलिया संखेन्जाओ आवलिआओ आणुचि- ऊसासो, संखेज्जाओ आवलियाओ णिस्सासो, दोण्डवि कालो एगो पाणू, सचपाणूकालो एगो थोवो, सत्तथेोवकालो एग लवो सतहत्तरिलबो एगमुहुत्तो, अहोरवादिया कंठा जाव वाससयसहस्सा 'इच्छिवठाणेण गुणं पणमुष्णं चदरासीत्तिगुणितं च । काऊण तझ्यवारा पुब्बंगादीण मुण संखं ॥ १ ॥ पुत्रवंगे परिमाणं पंच सुष्णं चत्ररासीय १, ए पुढबंगं सीए सतसहस्सेहिं गुणितं एवं पुल्वं भवति, तस्स इमं परिमाणं [दस सुष्णा] छप्पर्ण च सहस्सा कोडी सत्तार लक्खा य २, एवं पुषं चुलसीए पुब्वसतसहस्सेहिं गुणितं से एगे तुडियंगे भवति, तस्स इमं परिमार्ण पण्णरस सुण्णा य, तओ चउरो सुण्णं सन्त यो णव पंच ठब्वेज्जा ३, एवं चुलसीवीए सतसहस्सा गुणिवा सव्वठाणे कायव्वा, ततो तुडियादयो भवति, तेसि जहासंखं परिमाणं तुडिए सिं सुण्णा, ततो छवि एगो सच असत व चउरो ट्वेज्जा ४ अडडंगे पणवीसं सुण्णा ततो चड दो चड नव एको एको दो अट्ठ एको चउरो य ठवे ज्जा ५ अडडे ती सुण्णा तओ छ एको छ एको वि सुण्णं अट्ठ णव दो एको पण तिगं ठवेज्जा ६, अबरंगे पणतीसं सुष्णा, तओ च चड सत्त पण पण छ चड ति सुण्णं णव सुण्णं पण णव दो य ठवेज्जा ७, पत्तालसिं सुण्णा तओ उ णव चड़ दो अट्ट सुण्णं एको एको णव अट्ट पण सत्त अट्ठ सत्त च द य बेज्जाहि अबवे य८ हूहूयंगे य पणचत्तालसिं सुण्णा, तओ च छ छ णव दो जव मुण्णं ति पण अट्ट घड सत्त पंच एको दो अट्ठ सुण्णं दो य ठवेज्जा ९, हूहूए पण्णासं सुण्णा, तभो छ सत्त सत्त एगो णव सुष्णं अड गव
... अत्र 'समय' शब्दात् आरभ्य शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त 'काल'स्य वर्णनं
~191~
सम्यादयः शीर्ष प्रहेलि
कान्ताः
॥ ५४ ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [११४] | गाथा [१५........... . पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११४] गाथा ||१५..||
श्रीअनु:
दापण बसत्त बह दोदो एको मुण्णं णव पर सत्त एकच ठवेग्जा १०, उप्पलंग पणपण्ण मुण्णा, तओ पर अह एको णव मुण्णं सत्त | हारि वृत्ती
सपासमयादयः णव तियो पर तिसएको दो सिणि सुर्ण सत्त एको गव चत एणं च ठवेना ११, उपले सहि सुण्णा, तओ छ पण पत्र एको सत्ताशीपप्रहेलिपण पण ति एको छ सत्त दो सत्त एगो सुण्णं सत् सुण्णं ति सुण्ण एको चरति दो एक ठवेज्जा १२, पउमंगे पणसहि सुष्णा, चउ सुष्र्ण कान्ताः | ति दो सुन्नं सुन्नं अह अहति पण णव एको एको पण चटणव य अठ्ठ सत्त पण छ चउ छ छ ति सुषणं एगं च ठवेज्जा १३, पउमे सत्तरि कामुण्णा, तओ छति पण ति णव एको दो गव पण दो एको चर, सुण्णं सुणं व तिएको तिछ दो एको ति अह सत्त सुण्ण सत्त अढय Xठवेजा १४, णलिणंगे पंचसत्तरि सुण्णा, ततो चड़ दो सुण्ण सत्त पण दो चउ चष्ठ सत्त सत्त पण छ चउशिक सत्त छ ति सुण्ण एको
छ दो अट्ट सत्त पण पर एको ति सत्त ठवेज्जा१५, णलीणे असीति सुण्णा, ततो छ एको सुण्णं मुण्णं णव पण सत्त एक पण सुण्ण पण दो एको |एको ति एको अट्ट अट्ठ मुष्णं सत्त दो णव वि सत्त पण चळ दो चउ चउ एको छ ठवेजा १६, अत्यणि उरंगे पंचासी मुण्णा, तो चज चउ |ति एको छ पण सत्त सत्त चउति चल सुण्णं पण चर एको सुण्ण वि सुण्णं चउ पण सत्त अह णव सुण्ण दो चउ छ छ एको एको छ एको पंच य ठवेजा १७, अस्थिणिउरे जति सुष्णा, तओ छ णव अट्ट दो पण एक्ो पण एको एको दो पण छ ति अह एको दो ति पण अट्ट ति
ति पण व दो छ ति णव सत्त णव सत्त ति पण वि ति चउरो य ठवेज्जा १८, अउयंगे पंचणवति सुण्णा, तओ चल छ दो ति च से अह दो सत्त छ सत्त सत्त सत छ दो चउ ति मुण्णं सत्त छ ति चउ अह सुण्णं अह अट्ठ चल छ छ दो सुण्ण णव एको सत्त एको घउ छ
तिणि व ठवेज्जा १९, अनते सुषणसतं, नतो छ सत्त एको चउ ति अड अट्ठ पगो पण चउ दो ति णव चउ अह सत्त अह सुण्णं ति अट्ठ ड अट्ट सुण्णं णव पणव णव पर अट्ठति दो अट्ट णव ति पर सुण्ण णव पण सुण्ण सिण्णि य ठवेज्जा २०, उत्तंगे मुण्णसतं पंचाधित, तओ
FECRECASSENGERCKET
दीप
अनुक्रम [१३७]
॥५५॥
~192
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [११४] | गाथा [१५...] ....... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११४] गाथा ||१५..||
Kाकान्ताः
श्रीअनु० चउ अट्ठ सत्त सुण्णं सत्त सुणं दो अट्ठ पण णव पण दो ति पर विणव सत्त ति णव सत्त ति णव दो ति दो णव णव ति ति मुण्ण समयादयः हारि वृत्ताला दो पण चउ पाच छणव पण णव छ पण दोन्नि य ठवेज्जा २१, णतुते सुण्णसयं दसाधित, तओ छ पण अट्ठ पण चउ णव वि णव अट्ठ चउराशीषप्रहाल
सुण्ण अट्ट ति वि अट्ट चर छ अट्ठ सत्त छ अट्ट सत्त छ छ पण पण ति पण पण अट्ट मुण्णं सत्त णव ति ति चर एको छ चउ अट्ट पण बाएको दोण्णि य ठवेज्जा २२, पयुसंगे पणरसुत्तरं मुण्णसतं, तओ चड सुषणं णब एको पण पर एको गव सुण्ण एका एको छ णव ति
सुण्ण छ चउछ मुण्ण सुण्ण णव मुण्ण मुण्ण एको छ सत्त अह णव चतु अट्ठ एको पण पण ति पण पर मुण्ण छ सस सुण्ण एको ति एको | अह एग ठवेज्जा २३, परते बीमुत्तरं सुण्णसतं, तओ छ वि णव णव पण णव एको अट्ट, एको ति ति सत्त दो ति सत्त छ
दो चउ पण छ पण सच चउ दोणव पण णव अट्ठति पण पण ति अट्ठ णव सुण असच अट्ट तिसुण्णं एको सुण्णं ति दो पण एगं | च ठवेज्जा २४, चूलियंगे पणवीसुत्तरं सुण्णसतं, तओ चड दो छ चउ ति छ चउ अट्ठ दो एको छ अट्ट पण णव चउ पण पण चउ अट्ठ
पण णव चर पण णव सत्त छ सत्त पण दो सत्त दो पण अट्ठएको छ दो सुण्ण छ सत्त पण दो सत्त अट्ठ दो तिषिय नव सत्त दो | एग च ठवेजा २५, चूलियाए तीमुत्तरं सुण्णसतं, तो छ एक्को चउ अट्ट सुण्ण ति णव सुण्ण णव सत्त चउ तिचे पण छ एको छ दु सुण्णं
| एको पण छ एको दो अट्ठ सुष्णं पण चउ छ णव अट्ठ दो छ पण णव णय एकोल अहति णव दो एक छ ति छ चउ सत्त मुण्ण एक 12च ठवेज्जा २६, सीसपहेलियंगे पणतीसुत्तरं सुण्णसतं, तओ चर चउ नक छ सुण्णं णव को अट्ट ति चर दो दो सत्त णव सत्त अट्ट सत्त | ॥५६॥ 1णव एको छह अह एको मुण्ण णव छ अह एको मुण्णं ति ति अटूदा ति छ सत्त सण चाचणव अह अट्ठ घउ सिचउ णव छ दो सुण्ण णव २५, सीसपहेलियाए पचालं सुण्णसर्य, ततो छ णव दो ति अटु एको मुण्णं असुण्ण अट्ट चउ अट्ट छ छगव अट्टएको
दीप
अनुक्रम [१३७]
~1937
Page #194
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[११५
११८]
गाथा
||१६||
दीप
अनुक्रम
[१३८१४२]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [११५-११८] / गाथा [१६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५] चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्ती
॥ ५७ ॥
दो छ सुष्णं च छणव छ पण सक्ष जब जब छ पण ति सत्त णव सत्त पण एको एको भड दो सुण्णं एको सुण्ण ति सच सुण्ण ति पण दो विछ वो अट्ठ पण सक्ष य ठवेज्जा २८, एवं सीसपहेलिया चढणवतिठाणसतं जाव य संववहारकालो ताब संववहारविसए, तेण य पढमढविणेरइयाणं भवणवंतराण व भरहेरवएस सुसमदुस्समाए पछिमे भागे णरविरियाणं आउर उदमिज्जन्ति किं प-सीसपहेलि याए य परतो अस्थि संखेज्जो कालो, सो य अणतिसईणं अववहारिकत्तिकाएं ओबम्मे पक्खित्तो, तेण सीसपद्देलियाए परतो पहिओवमादि उवण्णत्था, शेषमानिगमनं कालानुपूर्व्या पाठसिद्धं । ' से किं त' मियादि (११५-१००) उत्कीर्त्तनं संशब्दनं यथार्थाभिधानं तस्यानुपूर्वी अनुपरिपाटी त्रिविधा प्रज्ञप्ता तथया - — पूर्वानुपूर्वीत्यादि पूर्ववत्, तत्र पूर्वानुपूर्वी उसभ' इत्यादि, आहवस्तुत आवश्यकस्य प्रकृतत्वात् सामायिकं चतुर्विंशतिस्तव इत्यादि वक्तव्यं किमर्थमेतत्सूत्रान्तरमिति, अत्रोच्यते, पशुतस्यापि सामान्यमेतदिति ज्ञापनार्थं, तथाहि - आचाराद्यनुयोगेऽपि प्रत्यध्ययनमेतत्सर्वमेवाभिधातव्यमित्युदाहरणमात्रत्वाद्भगवतामेव च तीर्थप्रणेतृत्वात्, शेषं सूत्रसिद्धं यावत् 'से तं उकित्तणाणुपुब्वि' त्ति 'से किं त' मित्यादि (११७-१०१ ), इहाकृतिविशेष: संस्थानं, तत् द्विविधं जीवाजीवभेदात् इह जीवसंस्थानेनाधिकारः, तत्रापि पंचेंद्रियसंबंधिना, तत्पुनः स्वनामकर्मप्रत्ययं पद्विधं भवति, आह च- 'समचतुरंसे' व्यादि, तत्र समं तुझ्यारोहपरिणामं संपूर्णागोपाङ्गावयवं स्वांगुळाष्टशतोच्छ्रायं समचतुरभं, नाभीत उपर्यादि लक्षणयुक्तं अधस्तादनुरूपं न भवति तस्माप्रमाणादीनतरं न्यग्रोधपरिमंडलं, नाभीतः अषः आदि लक्षणयुक्तं संक्षिप्तविकृतमध्यं कुब्जे, स्कंध पृष्ठदेश वृद्धमित्यर्थः, लक्षणयुक्त मध्यमीवासुपरिहस्तपादयोरप्यादिरलक्षणं न्यूनं च लिंगेऽपि वामनं, सर्वावयवाः प्रायः आदिलक्षणविवादिनो यस्य तत् हुंडं, उक्तं च- 'तुझे वित्थरबहुलं उस्सेहबहुं च मदहकोट्टं च । होल्डकायमडदं सव्वत्यासठियं हुंडं ॥ १ ॥' पूर्वानुपूर्वीक्रमश्च यथाप्रथममेव प्रधानत्वादिति शेषमानिगमनं
~ 194~
कालानुपूर्वी
*
॥ ५७ ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................ मूलं [११५-११८] / गाथा [१६] ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११५११८] गाथा ||१६||
श्रीअनु०
पाठसिद्धमेति । 'से किं तं सामायारियाणुपुच्ची' स्यादि, इह समाचरण समाचार:-शिष्टाचरित: क्रियाकलाप: तस्य भाष: 'गुणवचन- संस्थान हारि वृत्ती
मानणादिभ्यः कर्मणि व्यवति (पा-५-१-१२४) यच् , सामाचार्य, सोऽयं भावप्रत्ययो नपुंसके भावे भवति, पित्करणसामाचली ॥५८॥
स्त्रीलिंगोऽपि, अत: खियां की सामाचारी, सा पुनधिविधा-'पदविभागे ति वचनात् ५६ दशषिधसामाचारीमीयकस्य भण्यते, 'इच्छामिच्छे- यानुपूज्या त्यादि (*१६-१०२)वत्र इच्छाकार: मिथ्याकारः तथाकारः, अत्र कारशब्दा प्रत्येकमभिसंबभ्यते, तषणमिच्छा-क्रियाप्रवृश्यभ्युपगमः करणं | कारः इच्छया करणं इडकारआज्ञावलाभियोगव्यापारप्रतिपक्षो व्यापारणं चेत्यर्थः, एवमक्षरगमनिका कार्यो, नवरं मिथ्या-वितथमयथा यथा भगवद्विरुक्तंन तथा दुष्कतमेतदिति प्रतिपत्ति: मिथ्यादुष्कतं, मिथ्या-अक्रियानिवृत्युपगम इत्यर्थः, अविचार्य गुरुवचनकरण तथाकार,
अवश्य गंतव्यकारणमित्यतो गच्छामीति अस्थार्थस्य संसूचिका आवश्यकी, अन्यापि कारणापेक्षा या वा किया सामिया अवश्या कियेति सूचितं, &ानिषिद्धात्मा अहमारमन प्रविशामीति शेषसानामन्याख्यानाय त्रासादिदोषपरिहरणार्थ, अस्यास्य संसाधिका नौधिकी, करोमीति प्रच्छनं आम
कछना, मकवाचार्यणोक्त इदं त्वया कर्तव्यमिति पुन: प्रानं प्रतिप्रश्न, छंदना-पोसाहना, दं भक्तं मुंश्व इनि, निमंत्रणं अहं ते भक्त लिम्भ्वा दास्यामीति, सच-"पुष्वगहिएण छंदण निर्मसणा होइगाहिएणं ।' सवामित्वभ्युपगमः श्रुतश्चर्यमुपसंपन, पती च'सुग सुहदुक्खे पाखेत्ते मग्गे विणयोवसंपदा एय। एवमेताः प्रत्तिपत्तयः सामाचारीपोनपामिति. आर-किमयों
प्रतिपाद्यत इति, उच्यते, इह मुमुक्षुण्णा सममसामाचार्यनुष्ठानपरेण आझापलाभियोग एष स्वपोपतापहेतुत्वारप्रथमं वर्जनीयः, सामायिकाख्यप्रधानगुणलाभात् , ततः किंचित्रपळनसंभव एवं मिध्वादुकवतं दातव्यं, ततोऽप्येवंविधेनैव सता यथावद् गुरुवचनमनुष्य, सफलप्रयास- ॥५८ त्वात् , परमगुरुपचनाम्यवस्थितस्य स्वनामाथिकवत: स्खलनामलिनस्य वा गुरुवचनानुष्ठानभावऽपि पारमार्थिकफलापेक्षयानिष्पमपदानी(१)त्यता
%
दीप
%
अनुक्रम
3%ECACES
[१३८१४२]
~195
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
................ मूलं [११९-१२३] / गाथा [१७] ............ * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्रीअनु हारि.वृत्ती
प्रत सूत्रांक [११९१२३] गाथा ||१७||
॥ ५९॥
AARREAC
क्र मनियमः, शेष सुगम यावनिगमनमिति । 'से किं तमित्यादि (११९-१०४) तत्र कर्मविपाक उदयः उदय एचौदधिका, यद्वा तत्र भव-II
तत्र भव- विनाम स्तेन वा निच इत्येवं शेषेष्वपि व्युत्पत्तियोंजनीया इति, जबरनुपशम: मोहनीवस्य कर्मणः (सोया प्रकृतीनां ) उदयचतुर्णामष्टानां वा15 प्रकृतीनां क्षयः, कस्थपिदंशस्य क्षयः कस्याभिदुपशम इति भयोपशमी, प्रयोगविश्रसोद्भवः परिणामः, अमीषामेवैकादिसंयोगरचनं सग्निपातः | कमः पुनरमीषां स्फुटनारकादिगत्युवाहरणभावना प्राप्यस्तदन्याधारश्च प्रथममौदायकस्तत: सर्वस्तोकस्यापिशामिकः ततस्तद्वहुतरत्वादेव झायोपशमिकः ततोऽपि बहुत्वात् क्षायिकः ततोऽपि सर्वबहुत्वात्पारिणामिकः ततः औदयिकादिमेलनसमुत्पन्नकः सन्निपातिक इविशेष प्रकदार्य यावत् 'से तं आणुपुस्विति निगमनं वाच्यं ।
'से किं तं दुनामे ? २ दुविहे पचते, तं०-एगक्सरिए य अणेगक्खरिए य' (१२२.१०५) एकशष्या संख्यावाचका, व्यज्यतेऽनेनार्थ प्रदीपेनेव घट इति व्यंजन-अक्षरमुच्यते, तरचेह सर्वमेव भाष्यमाणं अकारादि इकारान्तमेवार्थाभिव्यंजकत्वाच्छब्दस्य, एकं च तदक्षरं पर एकाक्षरेण निम्बर एकाक्षरिक, एवमनेकाक्षरिक नाम, ही:-जा श्री:-देवताविशेष:-धी:-बुद्धिः श्री प्रतीता, से कि ते अणेगक्खरिये । स्यादि प्रकटार्थ, यावत् 'अवसिय जीवदव्यं विससिय नेरइय' इत्यादि, तत्र नरकेषु भवो नारक: तिर्यग्योनो भवः तिर्यक् मननान्मनुष्यः दीव्यत्ति देव:, शेष निगदसिद्ध बाषद् द्विनामाधिकारः, नवरं पर्याप्तके विशेषः पर्याप्तनामकमोदयात् पर्याप्तका, अपर्याप्त नामकम्दियाचापर्या|मक इति । एकेन्द्रियादिविभागेषु स्पर्शनरसनमाणचक्षुषोत्राणींद्रियाणि कमिपिपीलिकाधमरमनुष्यादीनामेकैकद्धानि, सूक्ष्मयावरविशेषोऽपि
सूक्ष्मवादरनामकर्मोदयनिर्वधन इति, संमूछिमगर्भव्युत्कातिकभेदेषु संमूछिमः तथाविधकोक्यावगर्भज एफेंद्रियाविः पंचेंद्रियावसानः, गर्भ| न्यूक्रान्तिकस्तु गर्भवद्रिय एच, 'से तं दूनामे ति। 'से कितं तिनामे (१२३-१०९) अधिकृतं नाम विविध प्रशार, तद्यथा
दीप अनुक्रम [१४३१५०]
... अथ 'नाम्न: 'दुनाम', तीनाम' आदि भेदा: वर्णयते
~196~
Page #197
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[११९
१२३]
गाथा
||१७||
दीप
अनुक्रम
[१४३
140]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [११९- १२३] / गाथा [१७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्ता
॥ ६० ॥
द्रव्यनाम गुणनाम पर्याय नाम, एतानि प्रायो ग्रंथत एव भावनीयानि, नवरं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं द्रव्यं धर्मास्तिकायादि, गुणा गत्यादयः, तद्यथा-गतिगुण धर्मास्तिकायः स्थितिगुणोऽधर्मास्तिकायः अवगाहगुणमाकाशं उपयोगगुणा जीवा वर्त्तनादिगुणः कालः पुत्रळगुणा रूपादयः पर्यायात्वमीषामगुरुपब: अनंता आह-तुल्ये द्रव्यत्वे किं पुद्रलास्तिकायगुणादीनां प्रतिपादनं न धर्मास्तिकायादिगुणादीनां ( यथा) पुलानामिन्द्रियप्रत्यक्षविषयतया तस्य तद्गुणानां च सुप्रतिपादकत्वं न तथाऽन्येषामिति इद वर्णः पंचधा कृष्णीललोदितकापोतशुक्लाख्य: प्रतीत एव कपिशादयस्तु संसर्गजा इति न तेषामुपन्यास, गंधो द्विधा सुरभिर्तुरभिध, तत्र सौमुख्यन् सुरभि: दौर्मुख्यकृत् दुरभिः, साधारणपरिणामो ऽस्पष्टपद इति संसर्गजत्वादेव नोक्तः, एवं रसेष्वपि संसर्गजानभिचानं वेदितव्यं रसः पंचवि धस्तिक्तकटुकषायाम्म चुराख्यः श्लेष्मादिदोषहन्ता तिक्तः वैशद्यच्छेदनकृत्कः अनरुचिस्तंभनकम कपायः आश्रवणक्लेदन कृदम्लः हादनबृंहणकृन्मधुरः छषणः संसर्गज:, स्पर्शोऽविधः स्निग्धशीतोष्णलघुगुरुमृदुकीठनाख्यः संयोगे सति संयोगिनां यन्धकारण स्निग्धः तथैवाबन्धकारणं रूक्षः वैशयकृत्सुमनःस्वभावः शीतो मार्दवपाककृष्णः प्रायस्तिर्यगूर्ध्वगमनहेतुर्दषुः अधोगमनहेतुर्गुरुः संनविलक्षणो मृदुः अनमनात्मकः कठिनः संस्थानानि संस्थानानुपूयों पूर्वोक्तानि, पर्यायानां त्वेकगुणकाकादि तत्रैकगुणका कस्तारतम्येन कृष्णकृष्णतरकृष्णतमादीनां यत आरभ्य प्रकर्षवृत्तिः, द्विगुणकालकस्तु ततो मात्रया कृष्णतरः एवं शेषेष्वपि भावनीयं यावदनंतगुणकृष्ण इति तत्पुनर्नाम सामान्येनैव त्रिविधं प्राकृतशैलीमधिकृत्य, श्रीलिंगादिनाम्नां उदाहरणानि प्रकटार्थान्येव से तं तिणामे' ति से किं तं चउनामे' त्यादि, ( १२४-११२) तत्राऽऽगमेन पद्मानि पयांसि अत्र 'आगमः उदनुबंध: स्वरादम्स्यात्परः' आगच्छतीत्यागमः आगम उकारानुबंध: स्वरादत्यात्परो भवति, सिद्धं पद्मानीत्यादि, सेतं आगमेणं, टोपेनापि ते अत्र इत्यादि, जनयोः पदयोः संहितायां 'पदात्परः पदान्ते छोपमकारः '
7
~ 197 ~
त्रिनाम चतुर्नाम च
॥ ६० ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.............. मूलं [१२४-१२६] / गाथा [१८-२३] .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२४१२६] गाथा
श्रीअनु० हारि.वृत्तो
॥६१।।
||१८
२३||
कातन्त्र रूप, ११५) पदान्ते यी एकारौकारी ताभ्यां पर, अकारो लोपमापद्यते, ततः सिद्ध ते अत्र, से चे लोवेणं, से किंत पयतीएपंचनाम यथाऽग्नी एतौ इत्यादि, एतेषु पयेषु 'विवचनमनी' (कातन्त्र ६२) द्विवचनमौकारान्तं यत् भवति तलक्षण न्तरेण स्वरेण स्वरे परत: प्रक- इनाम च त्या भवति, सिद्ध अमी एती इत्यादि, विकारेणापि दंडस्य अग्र इत्यादि, अत्र 'समानः सवर्णे दीर्थो भवति परश्च लोपमापद्यते' (का० २४) सिद्धं दंडानं इत्यादि, से तं विगारेणं, एवं चतुर्णाम | पंचनाम्नि 'से किं' मित्यादि सूत्रं ( १२५-११३) तत्राश्व इति नामिक द्रव्याभिधा-1 यकत्वात् , खस्विति नैपातिक, खलुशब्दस्य निपातत्वात् , धावतीत्याख्यातिक क्रियाप्रधानस्वात, परीत्यौपसर्गिक परि सर्वतो भाव इत्युपसर्गपाठे पठितत्वात्, संयत्त इति मिश्र, समेकीभाव इत्यस्योपसर्गत्वात् 'यती प्रयत्न' इति च प्रकृतेरुभयात्मकत्वात् मिश्रमिति, तदेतत्पंचनाम ।।
से किं तं छणामे, छब्बिहे पण्णने इत्यादि (१२६-११३) अत्र षड् भावा औदयिकादयः प्ररूप्यन्ते, तथा च सूत्रं-'से किं तं उदथिए?, २ दुबिहे पण्यत्ते, ०-उदए य उदयनिष्फपणे च, अत्रोदय:-अष्टानां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणीयादिलक्षणानामुदयः सत्ताऽच| स्थापरित्यागेनोदीरणावलिकामतिक्रम्योदयावालिकायामात्मीयात्मीयरूपेण विपाक इत्यर्थः, 'ण' मिति वाक्यालकारे, अत्र चैवं प्रयोग:-उदय एव औदविका, उदयनिष्पन्नस्तु द्वेधा-जीवोदयनिष्फण्णे व अर्जावोदयनिष्फण्णे य, वत्र जीव उदयनिष्फन्नो जीवोदयनिष्पन्नः, जीवे कर्मविपाकनि-13 वृत्त इत्यर्थ, अथवा कर्मोदयसहकारिकारणकार्या एव नारकत्वादय इति प्रतीतं, अन्वे तु जीवोदयाभ्यां निष्फण्णो जीवोदयनिष्पन्न इदि व्याचक्षते, इदमप्यदुष्टमेव, परमार्थतः समुदायकार्यस्वात्, एवमजीवोदयनिएफपयोपि वाच्यः, तथा चौदारिकशरीरप्रायोग्यपुद्गलमहणशरीरपरिणतिश्च न तथाकर्मोदयमन्तरेणेति अत उक्तमौदारिक वा शरीरमित्यादि, औदारिकशरीरप्रयोगपरिणामिकतया द्रव्यं, तच्च वर्णगंधादिपरिणामितादि च, न चेदमौदारिकशरीरव्यापारमन्तरेण तथा परिणमतीति, एवं वैक्रियादिष्वपि योजनीयं, इह च वस्तुतः द्वयोरपि द्रव्यात्मकत्वे
दीप अनुक्रम [१५११६३]
... अत्र औदयिक आदि षड् भावानां वर्णनं क्रियते
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं [१२४-१२६] / गाथा [१८-२३] .......... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२४१२६] गाथा
||१८
श्रीअनुः
एकत्र जीवप्राधान्यमन्यत्राजीवप्राधान्यमाश्रीयत इति, ततश्योपपन्नमेव जीवोदयनिष्पन्नं अजीवोदयनिष्पन पेत्यलं विस्तरेण, से तं उदयिए । औदयिकाहारि वृत्तीला 'से कितं उमसमिए, पपसमिए दुबिहे पन्नते, सं०-वसमे य उवसमनिष्फण्णे य, तत्रोपशमो-मोहनीयस्य फर्मणः अनन्तानुबन्धादिभेद-गलादया भावार ॥ ६॥
भभिन्नस्य उपशमः, उपशमश्रेणीप्रतिपन्नस्य मोहनीयभेदाननंतानुवंध्यादीन वपशमयतः, यत उदयाभाव इत्यर्थः, णमिति पूर्ववत् , उपशम एचौप
शमिकः, उपशमनिष्पन्नस्तूपशान्तक्रोध इत्यादि, उदयाभावफलरूप आत्मपरिणाम इति भावना, सेतं उपसमिए । 'से किं तं खइए १, खइए दुबिहे पण्णते, तंजद्दा-खए य खयनिष्फल्ने य, तत्र अय: अष्टानां कर्मप्रकृतीनां शानावरणीयादिभेदानां, झयः काभाव एवेत्यर्थः, 'ण' मिति पूर्ववत् , अब एव झायिका, क्षयनिष्पण्णस्तु फलरूपो विचित्र आत्मपरिणामः, तथा चाह-'उप्पण्णणाणदंसणे' त्यादि, उत्पन्ने श्यामतापगमेनादर्शमंडलप्रभावत् सकलतदावरणापगमादभिव्यक्ते ज्ञानदर्शने यस्य स तथाविधः, अरहा अविद्यमानरहस्य इत्यर्थः, रागादिजेत|स्वाजिनः, केवलमस्यास्तीति केवळी, संपूर्णज्ञानवानित्यर्थः, अत एवाह-श्रीणाभिनियोधिकमानावरणीय इत्यादि, विशेषविषयमेव, यावत् अना-1 वरण:-अविद्यमानाबरण: सामान्येनावरणरहितत्वात् , विशुद्धांपरे चन्द्रबिम्बवत् , तथा क्षीणमेकान्तेनापुनर्मावतया च, निर्गतावरणो-निरावरण: आगंतुकेतरावरणस्वाप्यभावान् राहुरहितचन्द्रविम्बवत् , तथा क्षीणमेकान्तेनापुनीवतयाऽऽवरण यस्यासौ क्षीणावरणः, अपाकृतमलावरणजास्यम-14 णिवत् , तथा ज्ञानावरणीयेन कर्मणा विविधम्-अनेक प्रकारैः प्रकर्षेण मुक्तो ज्ञानावरणीयकमविप्रमुक्त इति, निगमनम्, एकार्थिकानि वैतानि, | नयमतभेदेनान्यथा वा भेदो वाच्य इति, केवलदर्शी-संपूर्णदर्शी,क्षीणनिएफलेन च, निद्रादिस्वरूपमिदं-'मुहपठिपोहो निरा बुहपडियोहो व निरनिरा ||
॥६२॥ य। पयला होति ठियस्स . पयळपयला य कमओ ॥ १ ॥ अतिसकिलिनुकम्माणुवेदणे होइ थीणगिडीओ । महानिरा विधिवियवाचार-Ik | पसाहणी पाय ॥ २॥ सावावेदनीयं प्रीतिकारी, व कोपे' कोधन कोषः, कोपो रोपी दोपोऽनुपशम इत्यर्थः, मानः संभो गर्व तमुको।
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.............. मूलं [१२४-१२६] / गाथा [१८-२३] .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२४१२६] गाथा
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श्रीअनु बईकारो वर्षः स्मयो मत्सर ईध्यत्यर्थः, माया प्रणिधिपधिनिकति वंचना दम्भः कूटमभिसंधानं साक्ष्यमनार्जवमित्यर्थः, खोमो रागो गाय-1ौटायिका
भिच्छा मूच्छी मिलापो संग: काभा स्नेह इत्यर्थः, माया लोभत्र प्रेम कोधो मानश्च द्वेषः, वत्र यदईदवर्णवाददेतुलिंग अर्हवा दिनद्धानविघातकादयो भावाः
दर्शनपरीषहकारणं तन्मिध्यादर्शनं, यन्मिध्यास्वभावप्रचितपरिणाम विशेषाद् विशुध्वमानक सप्रतिघातं सम्यक्त्वकारणं सम्यग्दर्शनं, यन्मिध्या॥६३।।
मस्वस्वभावचितं विशनाविनश्रद्धाकारि तत्सम्यग्मिध्यादर्शनं, त्रिविधं दर्शनमोहनीयमुक्त कर्म, चारित्रमोहनीयं द्विविध-कषायवेदनीयं नो-12
कपायवेदनीयं च, द्वादश कषायाः अप्रत्याख्यान्याद्याः क्रोधाचा:, नव नोकषायाः हास्याश्यः, नारकतिर्यग्योनीमुरमनुष्यदेवानां भवनशरीरस्थिति-13 | कारणमायुष्क, सांस्तानात्मभावान् नामयतीति नाम कंमेपूगल द्रव्यं, प्रति स्वं गत्यभिधानकार
शरीरनाम शरीरोत्पत्तिकारणं, तबगोपांगनाम यथा शरीरनाम पंचविधौदारिकशरीरनामादिकार्येण साधितं यदेषामेवांगोपांगनिव्वत्ति| कारणं तदंगोपांगनाम, तथाऽन्यत् शरीरनाम: कयी, अंगोपांगाभावेऽपि शरीरोपलब्धेः, तरच प्राक् शरीरत्रये नान्यत्र, बोदिः तनुः शरीरमिति पर्याय:, अनेकता च जघन्वतोऽग्यौदारिकतैजसकामेणबादिभावात् , दंतु तदतांगोपांगसंघातभेदात, संघातः पुनरे फैकांगादेरनन्तपरमाणुनित्तत्वादिति । तथा सामायिकादिचरणक्रियाभिद्धत्वास्सिद्धः, तथा जीवादिवत्ववोधाद् बुद्धा, हा बाह्याभ्यन्तरपन्थभेदनेन मुक्तत्वान्मुक्तः, तथा प्राप्तव्यप्रकर्षप्राप्ती परि:-सर्वप्रकारनिर्वृतः परिनिर्वतः, संसारान्तकारित्वादन्तकृत, एकान्तेनैव शारीरमानसदुःखमहीणाः सर्वदुःखपहीणा इति, फक्तः शायिकः । 'से कि तं सोचसमिए, खओवसामिए दुबिहे पण्णत्ते, तं०-वओवसमे य खओ वसमनिष्फण्णे य.' तत्र ॥६३॥
क्षयोपशमश्चतुर्णा पातिकर्मणां, केवलशानाप्रतिपन्नकानां ज्ञानाबरणदर्शनावरणमोहनीयांतरायाणां क्षयोपशमः, ण मिति पूर्ववत् , इद पोदार्ण-1 ट्रस्व क्षयः अनुर्णिस्य च विपाकमधिकृत्योपशम इति गृह्यते, आह-औपशमिकोऽप्येवंभूत एष,न, तत्रोपशामितस्य प्रदेशानुभवतोऽप्यवेदनादस्मिंत्र
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं [१२४-१२६] / गाथा [१८-२३] .......... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२४१२६] गाथा
||१८२३||
श्रीअनु: वेदनादिति, अयं च क्षयोपशमः क्रियारूप एव, क्षयोपशमनिर्वृत्तस्त्वामिनियोधिकज्ञानादिलब्धिः परिणाम आत्मन एवंति, तथा पाह-'खओवस-४औदयिकाहारि.वृत्ती मिया आभिणियोहियणाणलद्धी' त्यादि, सूत्रसिद्धमेव, नवरं बालवीर्य मिध्यादृष्टेरसंयतस्य, पढितवीर्य सम्यग्दृष्टेः संयतस्य, बालपंडितवीर्य दया भावाः ॥६४॥
तु संजतासंजतस्य श्रावकस्य, से तं खओवसमिए। ' से कितं पारिणामिए!, परिणमनं परिणामः अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्भावगमनमिति भावार्थः, उक्तं च-'परिणामो झर्थान्तरगमनं न च सर्वथा ह्यवस्थानं । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥१।स एव पारिणामिकः, तत्र सर्वभेदेष्वन्वयानुवृत्या सुखप्रतिपत्त्यर्थ जीर्णग्रहणमन्यथा नवेष्वष्यविरोधः, तत्रापि कारणस्यैव वधा परिणतेरन्यवेत्ये(था तदे)तदभावादिति कृतमत्र है। प्रसङ्गेन । अभ्रकेण सामान्येन वृक्षास्तान्येव वृक्षाकाराणि संध्यापुद्गलपरिणाम एव, गन्धर्वनगरादीनि प्रतीतान्येव, स्तूपका: संध्याच्छेदावर णरूपाः, उक्तंच- संझाछेदावरणो उ जूवओ सुके दिण तिणि यक्षादीप्तिकानि-अग्निपिशाचा: धूमिका-रुक्षप्रविरला धूमामा महिका-स्निग्धा घना च | रजउद्घातो रजस्वलादिः, चन्द्रसूर्योपरागा राहुग्रहणामि, चन्द्रपरिवेशादयः प्रकटार्धाः, कपिहसितादि सहसादेव नभसि ज्वलन्ति सशब्द रूपाणि, अमोघादयः सूत्रसिद्धाः, नवरं वर्षधराविषु सदा तद्भावेऽपि पुद्रलानामसंख्येयकालादूलतः स्थित्यभावात्सादिपरिणामवेति, अनादिपरिणामिकस्तु धर्मास्तिकायादीनि, सद्भावस्थ स्वतस्तेषामनादित्वादिति, शेषं सुगमं यावत् 'से तं पारिणामिए । से किं तं सन्निवाइए' 'इत्यादि,
सन्निपातो-मेलकस्तेन निवृत्तः सान्निपातिकः, तथा चाह-एतेसिं चे' त्यादि, अयं च भंगकरचनाप्रमाणतः संभवासंभवमनपेक्ष्य षड्विंशतिभंगमकरूपः, इह च मादिसंयोगभंगकपरिमाणं प्रदर्शित, सूत्र 'तत्थ णं दस दुगसंयोगा' इत्यादि, प्रकटाणे, तथाऽपरिशातद्वयादिसंयोगभंग-181
६४॥ भावोत्कीर्तनशापनार्थमिदं, 'तत्थ णं जे ते दस दुगसंयोगा ते णं इम' इत्यायुत्तानार्थमेव, अतः परं सान्निपातिकभंगोपदर्शना सविस्तरामजानानः पृच्छति विनेय:-'कतरे से णाम उदइए' इत्यादि, आचार्याह-'उदइएति मणूसे इत्यादि सूत्रसिद्धमेव, इह च याप्यौदायकोपशमिकमात्रनिर्वृतः
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.............. मूलं [१२४-१२६] / गाथा [१८-२३] .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२४१२६] गाथा
पणनामानि
श्रीअनु० हारि.वृत्ती
॥६५॥
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असंभवी, संसारिणां जयन्यनोऽन्यौदविका योपशमिकपरिणामिकमावत्रयोपतचान, तथापि भंगकरचनामात्राशनार्थत्वावदुषः, एवमन्योऽप्य- संभवी वेदितव्य इति, अबिरुद्धास्तु पंचदश एवं सानिपातिकभदाम् अत्रानधिकृना अपि प्रवेशान्तरे उपयोगिन इनि सान्निपातिकताम्मानिदश्यते- 'उदइयख ओनसमिय परिणामिय उति गलिचरकवि । पयोगाऽवि चओलयभावे उबसमेणपि ।। १ ।। उवममसेढ़ी पको कंवलिणो
विइय तहेव सिद्धस्य । अविरुदसनिवादित एमत हुंनि पन्नरस ॥ २॥' औदविकक्षायोपमिकपारणामिफसान्निपानिक एकैको गतिचतुप्राकेपि, तराथा-उदाति रक्षा खरंचसमिया इंदियाई परिणामिय जीव, जया खइयं समतं नदा ओ यम्बओवसमखड्यपारिणामि कनि
पन्नः सानिपातिकः, एको गतिचतुके पु, तचया-दापति रहर खओवसमियाई दियाई स्वइयं समतं पारिणामिए जीवे, एवं तिर्यगादिच्यपि वाच्यं, तियन्यपि आयिकसम्यग्दृष्टयः कृतभंग मेऊयाऽन्यथाऽनुपपवेरिति भावना, नदभावे आधिकामाचे यशदान शेषत्रयभावे चौपशमिकेनापि चरवार एव, उपशममात्रय गरिधनुष्येऽपि भावान 'ऊसरदेस दडलय पवियाति वणवो पाप । इय मिछम्म अणुदए उचसमसम्म लाइ जीवो ॥१॥' अविशिष्योक्तत्वात , तथा 'वसामियं तु सम्मतं । ओ चा अकतिपुंजो अवधियमिनही रह सम्म ॥ १॥ नित्य अणिव्यतिरेकेण विशिष्येवोक्तवान, अभिलाप: पूर्ववत , नवरं क्षायिकसभ्यत्वस्थाने ओवशमिकसम्मत्तेति वक्तव्यं, एते चाष्टौ भंगा प्राक्तना| श्रवार इति द्वादश, उपशमध्या गो भारतम्य मनुष्येष्वेव भावात् , अभिलाप: पूर्वचन, नवरे मनुष्यविषय एब, केवलिनमक एक-उदइए माणुस्से स्पस्य समतं पारिणामिए जीवे, तथैव सिद्धम्स एक एव-खइयं समर्न पारिणामिए जीवे, एवमेते प्रयो भंगाः महिला: अविरुद्धसानिपातिकभेदाः पंचदश मति, कसं प्रसंगेन । से ते सनिवातिये नाम, योजना सर्वत्र कायो, से तं छ णामे, गर्म पाडनाम ।
'से कि तं सत्त नामे त्यादि (१२७-१२७) सतनाम्नि सप्त स्वराः प्रज्ञाः, तंजहा-'सज्जे' त्यादि (०२५-१२७), 'पद्जो रिषभो
॥६५॥
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१२७-१२८] / गाथा [२४-५६] ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२७१२८] गाथा ||२४
॥६६॥
आअनु गंधारो मध्यमः पंचमस्वरः रेषतावेष निषादः स्वराः सप्त व्याख्याताः, संख्यामसहन कश्चिदाह-काज करणाय जीहा व सरस्स ता असंखेजा। हारि.वृची
सरसंख असंखण्या करणस्स असंखयत्तातो ॥११॥ सत्त य सुत्तणिबद्धा कह ण विरोछो गुरू तओ आइ। सतणुबानी सब्वे बावरगहणं वगंतब्ददा नामानि ॥२|| आदित्य सरा प्रांताः 'एतेसि ण' मित्यादि, सत्र-णाभिसमुत्थो । सरो अधिकारी पप्प जं पदेसं तु| आभोगियरेणं वा अपकारकरं 12 सरट्ठाणं । 'सम्ज व सिलोगो 'णीसाया' सिलोगो,(२६।२७-१२८) जियऽजीयणिसीयत्ता णिस्सासिव अहव निसरिया तेदि । जीवेसु सन्नवित्ती पओगकरण अजविस ॥१॥ तत्व जीवणिस्सिआ 'सज्जवति' दो सिलोगा (७२८५३०-१२८) गोमुही-काहला सीए गोसिंग अण्णं वा । मुहे करजाति तेण एसा गोमुही गोधा चम्मावणद्धा गोहिता सा य दरिया आडंबरेत्ति पडदो, 'सरफरमपहिचारी पाओ दिई णिमित्तमंगे। | सरणिवित्तिफलाओ लक्खे सरलक्षणं वेण ॥१॥ 'सज्जेण लभति विति' सत्त सिलोगा (७३२३३॥३४॥३५॥३६॥३०३८-१२९) | 'सजादि तिधा गामो ससमूहा मुच्छणाण विष्णेओ। तो सत्त एकाएक तो सत्त सराण इगधीसा ॥ १ ॥ अण्णोण्णसरविसेसा उप्पायंतरस मुच्छणा भणिया । कत्ताप मुग्छिओरब, कुणते मुख व सोयति ।। २॥ मंदिमारियाण एगीसाए मच्छणाण सरपिंससी पुबगते सरपा
हुड भणिओ, अभिग्गनेसु य भरहविसाहलादिसु विष्णेओ इति, 'सन सरा कओं (*४३-१३०) एस पुच्छामिलोगो। सच सरानाभीओं
★ उत्तर सिलोगो (४४-१३१) गेयस्स इमे विणि आगारा 'आदिमिउ' गाहा (४५-१३१) किं चान्यत् 'छदोसे' गाहा (०४६-१३१) इमे ... बदोखा बज्जणिज्जा-'भीतद' गाहा (७४७-१३१) भीतं-उन्नस्तमानसं द्वत-वरित उस्पित्य-श्वासयुतं चरितं च पाठान्तरेण तवस्वरं वा भा-18
जाणितव्वं, उत्प्रावस्येन अतितालं अस्थानता वा उत्ताल, श्लक्ष्णस्वरेण काकस्वर, सानुनासिकमनुमासं नासावरकारीत्यर्थः, 'अद्वगुणसंपउत्तं
गेयं भवति' से य इमे-'पुण्णं रत्तं च गाहा (४८.१३१) स्वरकलाभिः पूर्ण गेवरागेणानुरक्त अण्णाण्णसरविसेसफुडसुभकरणवणयो अलंकृतं,
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१२७-१२८] / गाथा [२४-५६] .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२७१२८] गाथा ||२४
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श्रीअनुदाअक्सरसरफुडकरणतणओ व्यक्तं विश्वरं विक्रोशतीव विघुडमबिधुटु मधुरं कोकिलारववत् , तालवंशसरादिसमणुगतं समं ललितं ललतीव स्वरहारि.वृत्ती
घोलनाप्रकारेण सोइंदिवसरफुसणामुहुप्पादत्तणओ वा मुकुमाळ, एभिरष्टभिर्गुणयुक्तं गीतं भवति, अन्यथा विडंबना, किंचान्यत्-'उरकंठ' गाहानामानि ॥६७॥
(#४९-१३१) जइ सरे सरोविसालो तो उरविशुद्ध, कंठे जा सरो बहितो अफुडितो य कंठविशुद्धं, सिरं पत्तो जइ णाणुणासितो तो सिरविशुद्धं, दि अथवा अरकंठसिरेषु श्लेपणा अव्याकुलेषु विशुद्धषु गीयते, किंविशिष्ट ', उच्यते--मवयं' मृदुना स्वरेण मार्दवयुक्तेन न निष्ठुरेणेत्यर्थः, स च | स्वरो अक्षरेषु घोलनास्वबिशेषेषु च संचरन् रंगती व रिभितः, गेयनिबद्ध पदमेवं गीयते-जालंसरेण समं च शरं समताले मुरवलिकादिआतोबजाणाइताणं जो पाणि पदुक्लेवो या तेण य समं नस्यतो वा पदुक्खेवसभ, परिसं पसत्यं निज्जति, सत्तसरसीभरं व गिजा, के व ते सत्तसरसीभरसमा ', समयते, इमे अक्खरसम' गादा (७५०-१३१) दोहक्खरेदीहंसर करोनि, हस्ते हस्स, प्लुते पलुतं, सानुनासिके निग्नुनामिके जं गेयपद णामिकादि अणंतरपवबखेण भद्रं तं जत्थ सरो अणुवादी सत्येव तं गिज्जमाणं पदसमं भवति, हत्यतलपरोप्पराहतसुराण संतीतालसम लया गदारुदतमयो वा अंगुलिकोशिका सेनाहतः तंत्रिस्वरप्रचालो लय: संख्यमणुसरतो गेय लयसमं, पढमतो बंसतंतिमादि. एहिं जो सरो गहितो तस्सम गिज्जमाणं गहसम, तेहि व बंसतंतिमादिहिं अंगुलिसंचारसमं गिजात सं-चारसम, सेसं कंठयं । जो गेयसुत्तनिबंधो, सो इमेरिसो 'णिद्दोस सिलोगो (०५१-१३१) सालियादिबत्तीसमुत्तदोमवीजतं णिहोस अस्थेण जुत्तं सारवं च अत्य|गमकारणजुतं कम्बलंकारहिं जुत्तं अलंकिय उपसंहारोषणाई जुरी अवनीत अं अनिदराभिहाणेण अविस्वालम्जणिज्जेण बद्धं तं सोवयारं ॥६७॥ सोत्पासं वा, पदपादाक्षरेमित नापरिमितमित्यर्थः, मधुरंति-त्रिधा शब्दअर्थाभिधानमधुरं च । 'तिष्णि व विचाई' तिजं वृत्तं तस्स व्याख्या 'समं अद्धसम' लिलोगो (७५२-१३१) कंठयः । 'दुष्णी य भणीतीयोति अस्य व्याख्या 'सक्कया' सिलोगो (५५३-१३१) भणितित्ति
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
............... मूलं [१२७-१२८] / गाथा [२४-५६] .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२७१२८] गाथा ||२४
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श्रीअनु: भासा, सेसं कसा । इत्थी पुरिसा वा केरिसं गायत्ति पुच्छा 'केसी' गाहा (१५४-१३१) उत्तरं 'गोरी' गाहा (*५५-१३१) इमो सरहारि-वृत्ती मंडलसंक्षेपार्थः, 'सत्त सरा ततो गामा' गाहा (*५६-१३२) तती ताना वाणो भन्नइ मजादिसरेस एक सत्तत्ताणओ अणपणास. एते
वीणाए सत्तततीए सरा भवंति, सज्जो सरो सत्तहा तंतीताणसेरण गिजा, ते सम्बे सत्तट्ठाणा । एवं सेसेसुवि ते चेच, इगतंतीए कंठेग || ६८॥ ४वा गिज्जमाणो अधणपण्णासं ताणा भवन्ति, ते सं सत्त नाम ।
से किं तं अट्ठणाम' (१२८-१३३) अट्ठविधा-अष्टप्रकारेण, उच्यन्ते इति वचनानि तेषां विभक्तिर्वचनविभात्तिः, विभजनं विभक्तिः सिऔजासत्यादित्रित्रिवचनसमुदायात्मिका प्ररूपिता अर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैरिति, तंजहा-'निदेसे पढमेंत्यादि (१५७५८४१३३) सिलोग-15 दुगंणिगदसिद्ध, उदाहरणप्रदर्शनार्थमाइ-'तत्थ पढमे' त्यादि, (५९-१३३) तत्र प्रथमा विभक्तिनिर्देिश, स चार्य अई चेति निर्देशमात्रत्वात् ,
द्वितीया पुनरूपदेशे, उपदिश्यत इत्युपदेशः, भणः कुरु वा एतं वा तं चेति कर्मार्थत्वात् , तृतीया करणे कृता, कथं', भणितं वा कृतं वा तेन हावा मया बेति करणार्थः, हंदीत्युपदर्शने णमो साहाएचि उपलक्षण, नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंबषड्योगाच्च (पा. २-३-१६) नमो 3 द्रा देवेभ्यः स्वस्ति प्रजाभ्यः स्वाहा अमये, भवति चतुर्थी संप्रदाने, तत्रैके व्याचक्षते--इदमेव नमस्कारादि संप्रदानं, अन्ये पुनरुपाभ्यायाय गां
प्रयच्छतीत्यादीनि । 'अवणय' इत्यादि(*६१-१३३)अपनय प्रहणे (गृहाण अपनय अस्मान् इत इति वा पंचमी अपादाने 'ध्रुवमपायेऽपादान'मिति (पा.१-४-२४) कृत्वा, षष्ठी तस्यास्य वा गतस्य च भृत्य इति गम्यते स्वामिसंबंधे भवति, पुनः सप्तमी तवस्तु अस्मित्रिति आधारे काले भावे, यथा कुण्डे बदराणि वसंते रमते चारित्रे अवतिष्ठत इति, आमंत्रणी तु भवेत् अष्टमी विभक्तिः, यथा हे जुवानत्ति, वृद्धवैयाकरणदर्शनमिदमिदंयुगीनानां त्वियं प्रथमैव, तदेतदष्टनामेति ।
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६८
२०४]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१२९-१३०] / गाथा [५७-८२] ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
नबरसा
प्रत सूत्रांक [१२९१३०] गाथा ||५७८२||
श्रीअनु० हारि.वृत्ती ॥६९॥
4%A5-
'से कित नवनामे' इत्यादि, (१२९-१३५) नवनाम्नि नव काव्यरसाः प्रज्ञप्ताः, रसा इव रसा इति, उक्तं च-मिदुमधुरिभितसु-18 | भतरणीतिणिहोसभीमणाणुगता । मुहदुहकम्मरसा इव कव्वस्स रसा हवंतेते ॥ १ ॥ 'वीरो सिंगारो' इत्यादि (७६३-१३५) बीर: शंगार; अद्भुतश्च रौद्रश भवति योद्धव्यः वीडनको बीभत्सो हास्यः करुणः प्रशान्तन, एते च लक्षणत उदाहरणतोच्यते-तत्र वीररसलक्षणमानिधित्मराह-'तत्थ' गाहा (७६४-१३६) व्याख्या-तत्र परित्यागे व तपश्चरणे-तपोऽनुधाने शत्रुजमविनाशे प-रिपुजनव्यापत्तो च यथा-TRI संख्यमननुशवकृतिपराकमलिनो वीरो रसो भवति, परित्यागेऽननुशयः नेदं मया कृतमिति गर्व करोति, किंवा कृतमिति विषावं, तपश्चरणे धृति न स्वार्तध्यानं, शत्रुजनविनाशे च पराक्रमोन वैक्लव्यम् , एतलिंगो बारो रसो भवति, उदाहरणमाह-'वीर रसो यथा-'सो नाम' गाहा (२६५-१३६) निगसिद्धा, सिंगारोणाम रसो (६६-१३६) शृंगारो नाम रसः, किंविशिष्ट इत्याह- रतिसंयोगाभिळापसजनन: तत्कार-14 | णानि, मंडनविलासविब्बोकहास्वलीलारमणलिंगो, तत्र मंडनं कटकादिभिः विलास:-कामगर्नी सम्यो नयनादिविधम: वियोकः देशीपदं
अंगविकारार्थे हास्यलीले प्रतीते रमण-क्रीडनं एतकिचन्ह इति गावार्थः, उदाहरणमाह-शंगारो रसो यथा 'मधुर गाहा, (*६७-१३६) निगदसिद्धा, अभुतपक्षणमाइ-बिम्हयकरो' गाहा (*६८-१३६) विस्मयकर: अपूर्वो वा तत्प्रथमतयोत्पद्यमानो भूतपूर्व वा पुनरुत्पन्ने यो रसो भवति स हर्षविषादोत्पत्तिलक्षण: तीजत्वात् अद्भूतनामेति गाथार्थः, उदाहरणमाहअब्भुतो सो यधा 'अद्भुततर गाहा: (०६९-१३६) निगदसिद्धा । रोदरसलक्षणमाह-'भयजणण' गाहा (*७०-१३७) भयजननरूपशब्दान्धकारचिंता ननशब्दः रूपादीनां प्रत्येकमभिसवद्धपते, भयजननरूपदर्शनात् समुत्पन्न एव भवजननशब्दभवणाद्भयजननांधकारयोगात भयजननचिन्तासमूद्भूतः भयजनगकथाश्रवणात समुत्पन्न:-संजासः, विशिष्ट ' इत्यत्राह-'सम्मोहसंभ्रम विषादमरणलिंगो रौद्रः, तत्र सम्मोहः-अत्यन्तमूढता संभ्रम:- |
%
॥९॥
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-
-
... अत्र नव-रसानां वर्णनं आरभ्यते
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(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१२९-१३०] / गाथा [५७-८२] .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीअनु
॥७०॥
[१२९१३०] गाथा ||५७८२||
किंकर्तव्यतावदान्येन आत्मपरिणामः, विषादमरणे प्रतीते इति गाथार्थः । उदाहरणमाह-रौद्रो रसो यथा 'भिउडि' गाहा (१७१-१३७)18 नवरसाः हारि.वृत्ती लाभूकुटि:-छळाटे पलिभंगः, तथा विभितं-ग्यत्कृतं मुखं यस्य तथाविधः, तस्यामंत्रणं हे अकुटिविहंचितमुख! संदष्टोष्ठ-प्रस्तओष्ठ इत्यर्थः, इतः।
इतीतश्वेतश्च रुधिरोत्कीर्ण:-विक्षिप्तरुधिर इति भावः, हसि-पसुं व्यापादयस्यत: असुरनिभ:-असुराकारः भीमरसित: भयानकशब्द! अतिरौद्रः रौद्रो रसो इति गाथार्थः । जीडनकलक्षणमाह-'विणओं' गाहा (*७२-१३७) विनयोपचारगुणगुरुदारव्यविक्रमोत्पन्न इति, विनयोपचारादिषु व्यतिक्रमशब्दः प्रत्येकमभिसंबद्धयते, भवति रसो क्रीडनकः, लज्जाशंकाकरण इति गाथार्थः, उदाहरणमाह-बीडनको रसो यथा 'किं लोइय' गाहा (*७३-१३७) विदेशाचारोऽतिनवअभ्याः प्रथमयोन्यु दरक्तरंजितं तन्निवसनमझतयोनिसंज्ञापनार्थ पटलकविन्यस्तसंपादितपूजोपचारः सकललोकप्रत्यक्षमेव तद्गुरुजनो परिवंदते इत्येवं चात्मावस्था सीपुरतो वधूभणति 'किं लौकिकक्रियाया: - जनकतरम् ? इह हि लज्जिता भवामि, निवारेज्जा-विवाहो नत्र गुरुजनो परिवति यहधूपोनि-वधूनिवसनमिति गाथार्थः । बीभत्सरसलक्षणमाह-'अमुई गाहा (*७४-१३८) अशुचिकुणपदर्शनसंयोगाभ्यासगंधनिष्पन्नः, कारणाशुचित्वादशुचि शरीरं तदेव प्रतिक्षणमासन्नकुणपभावात् इणपतवच विकृतप्रदशत्वाद् दुदेशन तन संयोगाभ्यासासद्धोपलब्धेवों समुत्पन्न इति निर्वदा बाहसालक्षणी रसो भवति भाभत्स इति ।
गाथार्थः, उदाहरणमाह-बीभत्सो रसो यथा 'असुइ' गाहा (*७५-१३८) सूत्रसिद्ध । हास्यलक्षणाभिधित्सवाऽऽह-'रूवश्य' गाहा (*७६-१३८) कारूपवयोवेषभाषाविपरीतविडम्बनासमुत्पनो हास्यो मन:प्रहर्षकारी प्रकाशाग:-प्रत्यक्षलिंगो रसो भवतीति गाथार्थः, उदाहरणमाह-'हास्यो |
IR॥७०॥ | रसा यथा 'पासुत्तमसी' गाहा (*७७-१३९) प्रकटार्थी । करुणरसलक्षणमाह- पियविप्पिओग' गाहा (४८-१३९) प्रियविप्रयोगबांधव| व्याधिनिपातसंभ्रमात्पन्नः शोचितविलपिताम्लानरूदितलिंगो रसः करुणः, तत्र शोषित-मानसो विकास, शष प्रकदार्थमिति गाथार्थः, उदाहर.
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१२९-१३०] / गाथा [५७-८२] ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२९१३०]
नबरसा
गाथा
||५७८२||
श्रीअनुलोणमाह-करुणो रसो यथा 'पज्झाय' गाहा (७९-१३९) प्रध्यालेन-अतिचिंतया कांव-यापागतमप्लुताक्षं स्यन्दमानानु-कयोतलोचनमिति हारि वृत्ती
|भाषा, शेष सत्रसिद्धीमति गाथार्थ: । प्रशान्तरसलक्षणमाह-'निहोस' गाहा (७८०-१३९) निषिमन:समाधानसभया, हिंसाविदोष-1 ॥ ७१॥
रहितस्य इंद्रियविषयषिनिवृत्वा स्वस्थमनसो या प्रशान्तभावेन कोधादित्यागेन अविकारलक्षण:-हास्यादिवि कारवजित: असो रसः प्रशान्तो सातव्य इति गावाबाहरणमाह-प्रशान्तो रसो यथा 'सम्भाच' गाहा (१८१-१३९) सिद्भावनिर्विकारं' न मातस्थानत: उपशांतप्रशांतसौम्याष्ट्रि-उपशांता-इंद्रियदोषत्यागेन प्रशांता-कोषावित्यागतः अनेनोभयेन सौम्या दृष्टियस्मिन् त राधा, हीत्वर्य मुनेः प्रशांतभावाविशयप्रदर्शने, यथा मुमेः शोभते मुखकमलं पीवरलीक-प्रधानलक्ष्मीकमिति गाथार्थः। 'एते णव' गाहा (८२-१३९) एते नब काव्यरसाः, अनन्तरोदिताः द्वात्रिंशदोपविधिसमुत्पन्ना:-अनृतादिद्वात्रिंशत्सूत्रदोषास्तेषां विधिः समुद्भवा इत्यर्थः, तथाहि-वीरो रसो संप्रामादियु हिंसया। भवति तप:संयमकरणादावपि भवति, एवं शेषेष्वपि यथासंभवं भावना कार्या, तथा बाह-गाथाभ्यः उक्तलक्षणाभ्यः गणिवच्या भवंति शुद्धा वा मिश्रा वा, शुद्धा इति काबिहाथा-सूत्रबंध: अन्यतमरसेनैव शुद्धेन प्रतिवद्धाः, कावन मिश्रा: हिकादिसंयोगेनेति गाथार्थ: ।।। उक्तं च नवनाम, अधुना दशनामोच्येत, तथा चाह-.
से किं तं दसनाम' (१३०-१४०) दसनाम दशविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-'गोणं नोगोण' मित्यादि, एतेषां प्रतिवचनद्वारेण स्वरूपमाह'से किं तं गोणे गुणनिप्पण्णं गौण, क्षमतीति अमण इत्यादि, 'से कितं नोगोण?' नोगोणो-अयथाथै, अकुंत: सकुंत इत्यादि, अविन्जमानकुं- तारबाहरणविशेष एव सर्वत इत्युच्यते, एवं शेषेष्वपि भावनीयं । 'से किं तं आदाणपदणं? २' आदानपदेन धर्मो मंगलमित्यादि, इहादिपदमादानपदमुच्यते । 'से कि तं पडिवक्खपदेणं २२ प्रतिपक्षेपु नवेषु-प्रत्यप्रेषु प्रामाकरनगरखेटकर्षटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रमसंबाधस
७१ ॥
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
............... मूलं [१२९-१३०] / गाथा [५७-८२] .......... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्रीअनु:
प्रत सूत्रांक [१२९१३०] गाथा ||५७८२||
हारि.वृत्तौ
निवेशेषु निवेश्यमानेषु सत्सु अमांगलिकशव्यपरिहारार्थ असिवा सिवेत्युच्यते, अन्यदा स्वनियमः, अमिः शीतला विर्ष मधुरकं, कलालगृहेषु अम्ल स्वादु मृष्टं न त्वम्लमेव सुरासंग्क्षणायानिष्टशब्दपरिहारः, इदं सर्वदा-जो लत्तए इत्यादि, जो रक्तो लाक्षारसेन स एवारक्त: नामान प्राकृतशैल्या अलक्तः, यदपि-च लाबु'ला आदान' इति कृत्वा आदानार्थवत् सेत्ति तदसाबु, य: शुभकः शुभवर्णकारी 'से' चि असौ कुसुंभकः, आलपन्तं लपन्तं अत्यर्थ लपन्तं असमंजसमिति गम्यते विपरीतभाषक इत्युच्यते-विपरीतश्चासौ भाषकति समासः अभापक इत्यर्थः, आहे नोगौणान्न भिद्यते?, न, तस्य प्रतिनिमित्तकतजभावमात्रापक्षितत्वाद, इदं तु प्रतिपक्षधर्माध्यासमपेक्षत इति भियत एव । स कि पाहणचाए, पाहणता एवं, चंपकप्रधानं वनं-चपकवनं अशोकप्रधानं अशोकवनमित्यादि, शेषाणि वृक्षाभिधानानि प्रकटार्थानि, आहेदमपि गौणान्न मिजते, न, तत्तन्नामनिबंधनभूनायाः क्षपणादिकियाया: सकलस्वाधारभूतवस्तुव्यापकत्वादशोकादोष बनाव्यापकत्वादुपाधिमेदसिद्धर्यग्जत इति, 'से कि ते' अणादिसिद्धश्वासावन्तश्चेति समासः, अमनमन्तस्तथा वाचकतया परिच्छेद इत्यर्थः, नकिमनादिसिद्धान्तेनानादिपरिच्छेदेनेत्यर्थः, धर्मास्तिकाय इत्यर्थः, आदि पूर्ववत् अनादिः सिद्धान्तो वाऽस्य सदैवाभिधेयस्य तदन्यत्वायोगान , अनेनैव चोपाधिना गौणाझेदाभिघानेऽप्यदोष इति । से कितं नामेण ? पितुपितु:-पितामहस्य नाम्ना उन्नामित-उत्क्षिप्तो यथा पंधुदत्त इत्यादि । 'से किं तं अवयवेणं, अवयवः-शरीरे कदेशः परिगृह्यते वेन शृंगीत्यादि(*१८३-१४२)प्रकटाथै, तथा परिकरबन्धेन भटं जानीयात् , महिलां निवसन,सिक्थुना द्रोणपार्क कर्षि चैकया गावया, तत्तदप्यधिकतावयवप्रधानमेवेति भावनीयमतस्तेनैवोपाधिना गौणादिममेवान । से किं संयोएण, संयाएणं संयो-10
।७२॥ ग:-संबंध:, स चतुर्विधः प्रशप्तः, तद्यथा 'द्रव्यसंयोग' इत्यादि सूत्रसिद्धमेव, नवरं गावः अस्य संतीति गोमान्, छत्रमस्थास्तीति छत्री, हलेना व्यवहरतीति हालिका, भरते जातः भरतो वाऽस्य निवास इति वा 'तत्र जातःपा .४-३-२५) 'सोऽस्य निवास' इति (पा.४-३-४५) या
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१२९-१३०] / गाथा [५७-८२] .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२९१३०] गाथा ||५७८२||
श्रीअनाअण भारत:, एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यं, सुषमसुषमायां आत: 'सतम्यां जनेः' (पा.३-२-९२) सतम्यन्ते उपपदे जनेः ह प्रत्ययः, सुषमसुषमजा, तद्धिता हारि.वृत्तीका एवं शेषमपि, शानमस्यास्तीति ज्ञानी, एवं शेषमपि, संयोगोपाधिनैव चास्य गौणावेद इति ।
|नि प्रमाण ट्रासे किं तं पमाणेणी, पमाणे प्रमाण चतुर्विध प्रज्ञानं, तद्यथा-नामप्रमाणमित्यादि, नामस्थापने क्षुण्णार्थे, नवरामिह जीविकाहेतुर्यस्था जातमा-15
नाम् ॥७३॥
त्रमपत्यं म्रियते सा रहस्यवैचित्र्यात्तं जातमेवाकरादिपूज्झति, तदेव च तस्य नाम कियत इति, आभिप्राथिर्फ तु गुणनिरपेक्षं यदेव जनपदे | प्रसिद्धं तदेव तत्र संन्यवहाराय क्रियते अम्बकादि, अत एवं प्रमाणता, उक्तं द्रव्यप्रमाणनाम । 'से कितं भावप्पमाणनामें भावप्रमाणं | सामासिकादि, तत्र योषहूनां वा पदानां मीलनं समासः, स जात एषां समासितो 'उभयप्रधानो इन्द्र' इति द्वन्द्वः दंतोष्ट, तस्य चकारः अर्थः, इतरेतरयोगः अस्तिप्रभृतिभिः क्रियाभिः समानकालो युक्तः, स्तनौ च उदरं च स्तनोदरं, एवं शेषोदाहरणान्यपि द्रष्टव्यानि, 'अन्यपदार्थप्रधानो | बहुव्रीहिः पुष्पिता: कुटजकदम्बा यस्मिन गिरौ सोऽयं गिरिः पुष्पितकुटजकदम्बः, गिरविशेष्यत्वादन्यपदार्थप्रधानतेति, तत्पुरुषः समाना&ाधिकरणः कर्मधारयः, धवलवासी युपमा विशेषणविशेष्यबहसमिति तत्पुरुषः, धवलत्वं विशेषणं वपमेण विशेष्येण सह समस्यति, पदे
एकमयं ब्रुवत इति समानाधिकरणत्वे, एवं श्वेतपटादिष्वपि द्रष्टव्यं, अयं कर्मधारयसंज्ञः, त्रीणि कटुकानि समातानि 'वद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' (पा. २-१-५०) तरपुरुषः त्रिकटुकमित्युत्तरपदार्थप्रधानः, 'संख्यापूर्वो द्विगु, रिति द्विगुसंज्ञा, एवं त्रिमधुरादि, तीर्थे काक इव आस्ते 'ध्वक्षिण क्षेप' इति (पा, २-१-४२) तत्पुरुषः समासः तर्यिकाका, वणहल्यादीनामस्मादेव सूत्रात निधनज्ञापकात्सप्तमीसमासः, पात्रेसमि| वादिप्रक्षेपाडा, अनु मामादनुपामं प्रामस्य समीपेनाशनिर्गना, 'अनुयत्समया (पा.२-१-१५) अनु यः समवायें, ग्रामस्व अनु समीपः, द्रव्यमरानि |
॥७३॥ प्रवीमि, यस्य यस्य समीपे तेन सुबुत्तरपदेन, प्रामस्य समीपे प्रामेणोत्तरपदेन अव्ययीभावः समासः, भामस्तूपलक्षणमात्र, समास: अतः पूर्व
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S ADESCREERSCIES
... अत्र 'प्रमाण'स्य चत्वारः भेदानां वर्णनं आरभ्यते
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............... मूलं [१२९-१३०] / गाथा [५७-८२] ........... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२९१३०] गाथा ||५७८२||
नाम
श्रीजनुका पदार्थप्रधानः, 'अव्ययं विभक्तिसमीप' इति (पा. २-१-६) सिद्धे विभाषाधिकारे पुनर्वचनं येषां तु समयाशब्दो मध्यवचनः तेषामप्राप्तेतद्धितनाहारि वृत्ताला मामस्य मध्येनाशनिर्गता 'अनुयत्समया' इति (पा.२-१-१५)समास:, अनुप्राम, एवमणुणइये इत्यादि, यथा एकः पुरुषः तथा बहवः पुरुषा अत्राप्रमाण
'सरूपाणामेकशेष एकविभक्ता' (पा. १-३-६४) विति समानरूपाणां एकाविभाक्तियुक्ताना एकः शेषो भवति-सति समास एक: शिष्यते, अन्ये ।।७४॥
लुप्यन्ते, शेषश्च आत्मार्थे लुप्तस्य लुप्रयोः लुसानां वाऽर्थे वर्तते, बहुवर्येषु बहुवचनं, पुरुषी पुरुषाः, एवं कार्षापणाः, वदेतत्सामासिक। 'से किं तं तद्धितरी,२ तद्धितं कर्मशिल्पादीति, तथा चाह-'कम्मे सिप्पसिलोए' इत्यादि (१५२-१४९) कर्मतशितनाम दौषिकादि, नत्र दूषाः पण्यमस्य 'सदस्य पण्यं' (पा. ४-४-५१) तदिति प्रथमासमधेने, अस्येति पयर्थे, यथाविहितं प्रत्ययः ठक् दौधिकः, एवं सूत्रं पण्यमस्य सूत्रिक इत्यादि, तथा शिल्पतद्धितनाम वस्त्रं शिल्पमस्य तत्र 'शिल्प' (पा. ४-४-५५) मस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययः ठक् वाखिका, एवं तंतुवायन | शिल्पमस्य तांत्रिका, इह तुण्णाएत्ति भाणतं, न चात्र तद्धितप्रत्ययो दृश्यते कवं तद्वितं', उच्यते, तद्धितप्रत्ययप्राप्तिमात्रमंगीकृत्योक्त, प्राप्ति
न तशितार्थेन विना भवति, अन्तः स्थगितार्थस्तद्धितार्थः, वद्धितः प्रत्ययस्तहिं केन बाधितः', उच्यते, लोकरूडेन बचनेन, यतस्तेनार्थः प्रतीयते, येन चार्थः प्रतीयते स शब्दः, अधयाऽस्मादेव वचनादत्र जातास्तद्धिता इति तद्धितसंज्ञा, श्लाघातद्धितनाम श्रवण इत्यादि, अस्मादेव सूत्रनिबंधात् श्लाघार्थस्तद्भितार्थ इति । संयोगतद्धितमाह-राज्ञः श्वसुर इत्यादावप्यस्मादेव सूत्रनिबंधात् तद्धितातेति, चित्रं च शब्दनाभृतमप्रत्यक्षं च न इत्यतो न विद्यः, समीपतद्धिवनाम गिरेः समीपे नगरं गिरिनगर, अत्र 'अदूरभव' (पा. ४-२-७०) त्यण न भवति, गिरि-13।।७४॥ नगरमित्येव प्रसिद्धत्वात् , विदिशाबा: अदूरभवं णगरं वैदिशं, अदूरभवेत्यण भवति, एवं प्रसिद्धत्वात् , संजूहसद्धिवनाम तरंगवतीकार इत्यादि संजदो-पन्थसंदर्भकरण, शेषं पूर्ववदापनीयमिति । ऐश्वर्यतद्धितनाम 'राज्ञे त्यादि अत्रापि राजादिशब्दनियंधनमैश्वर्यमवगंतव्यं, शेष
क
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(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
............. मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३११३४] गाथा ||८३
द्वितीय प्रमाणद्वार द्रव्यप्रमाण
१०२||
आअनुाला सूत्रोपर्यशापकसिद्धमेव । अपत्यचद्वितनाम सुप्रसिद्धनाप्रसिद्ध विशेष्यते, विशेष्यते मात्रा पुत्रः, यथा भाश्वलायना, इह पुत्रेण माता, संजहा- हारि.वृत्तो
|तित्थगरमाता चकवटिमातेत्यादि सदेतत्तद्धितं । 'से कितं धातूए,' भूसत्तायां परस्मैपदे भाषा इत्यादि, तत्र भू इत्ययं धातुः सत्तायाम | ॥७५
वचेते अतो (धातो:) इत्ययं प्रमाणभावः, नामनैरुक्तं निगदसिद्धं, भावप्रमाणनामता चास्य भावप्रधानशब्दनयगोचरत्वान्, गुरवस्तु व्याचक्षते-सा- मासादिनाम्ना गुणाभिधानादितिभावः, अनेनैव चोपाधिना शेषभेदा भावनीया इत्येवं यथागम मया अपौनरुक्क्यं दर्शितम् , अन्यथापि सूक्ष्मधिया | भावनीयमेव, अनन्तगमपर्यायत्वात्सूत्रस्थ, तदेवत्प्रमाणनाम, तदेतत्रामेति, नामेतिमूलद्वारमुक्तं । अधुना प्रमाणहारमभिधित्सुराद--
से किं तं पमाणे (१३१-१५१) प्रमीयत इति प्रमितिका प्रमीयते वा अनेनेति प्रमाण, चतुर्विध प्रशन इत्यादि, प्रमेयमेदात दण्या-टि दयोऽपि प्रमाण, प्रस्थकादिवत् शानकारणत्वात, वत्र द्रव्यप्रमाण (१३२-१५१) विविध-प्रदेशनिष्पन्न विभागनिष्पनं च, प्रदेशनिष्पन्न परमाण्वाद्यनंतप्रदेसिकांत, स्वात्मनिष्पन्नत्वादस्य तथा चाण्वादिमानमिति, विभागनिष्पन्नं तु पंचविध प्रज्ञप्त, विविधो भागः विभाग:-विकल्पस्ततो | निर्रचमित्यर्थः, पंचविध मानादिभेदात् , तत्र मानप्रमाणे विविध प्रशन, तद्यथा-धान्यमानप्रमाणं च रसप्रमाणं च, 'से किंत' मित्यादि धान्यमानमेव प्रमाण । 'दो असतीओ पसनी दो पसतीओ य सेइपत्ति, अत्र आइ-ओमत्थामवं जं चन्नप्पमाणं सो असती, अप्पराहुत्तमिदं पुण प्रसूतिरिसि, इद च मानमधिकृत्य प्रसती, 'से कित' मित्यादि, धान्यमानप्रमाण तं सुगममेव, नवरं मुच्चोली-मोहा मुखा-कुशुल इति । 'से कित' मित्यादि, रसमानमेव प्रमाण २, धान्यमानप्रमाणारसेतिकादेः प्रमाणेन चतुर्भागविवर्शितं अभ्यन्तरशिवायुतं शिखा- भागस्य तत्रैव कृतवान् रममानं विधीयत इनि, तद्यथा-चतुःषष्टिपेत्यादि, तत्थ वेष छप्पण्णपलसतपमाणा माणिया, तीसे चतसट्ठिभागो, चवसहिभागा व चपळप्रमाणा, एवं बत्तीसियादमोवि जाणियब्बा, बारको-पटविशेष:, शेषा अपि भाजनविशेषा एच, तरतम्मान । 'से कि
दीप अनुक्रम [२०५
।। ७५॥
२७०]
~212
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१३१
१३४]
गाथा
||८३
१०२||
दीप
अनुक्रम
[२०५
૨૧]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५] चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि वृत्ती
।। ७६ ।।
तं उम्माणपमाणे ?" उन्मीयतेऽनेनोन्मीयत इति बोन्मानं तुला कर्षादि सूत्रसिद्धं, नवरं पत्रम् एलापत्रादि नोय: अदुलविशेषः मच्छंडिया-सकरा विसेसो 'से किं तं ओमाणप्यमाणे ?, अवमीयते तथा अवस्थितमेव परिच्छियतेऽनेनावमीयत इति वाऽवमानं हस्तेन वेत्यादि चतुर्हस्ता दण्डादयः सर्वेऽपि विषयभेदेन मानचिन्तायामुपयुज्जंत इति भेदोपन्यासः, खातं खातमेव चितभिष्टकादि करकचिर्त करपत्रविदारितं कटपटादि प्रकटार्थमेव । 'से किं तं गणिमए ?,' गणिमं संख्याश्रमाणमेकादि सत्परिवामेव भूतभूतिभक्तवेतन कायव्ययनिर्वृत्तिसंसृतानां द्रव्याणां गणितप्रमाणं निर्वृचिलक्षणं भवति, अत्र भृतकः कर्मकरः भृतिः-वृत्तिः भक्तं-भोजनं वेतनं कुंबिदादे, तत्वे सत्यपि विशेषेण लोकप्रतीतत्वाद्भेदाभिधानं एतेषु चायव्ययं संसृतानां प्रतिबद्धानामित्यर्थः, गणितप्रमाणं निर्वृत्तिलक्षणं इयत्ताऽवगमरूपं भवति, तदेतदवनानं । 'से किं तं परिमाणष्पमाणे ?' प्रतिमीयतेऽनेन गुंजादिना प्रतिरूपं वा मानं प्रतिमानं तत्र गुब्जेत्यादि, गुंजा चणहिया, सपादा गुंजा कागणी, पादोना दो गुंजा निष्पावो बहो, तिणि निष्फावा कम्ममासमेव चकागणिक वृतं भवति, वारस कम्ममासगा मंडलओ, छत्तीस गिल्फावा अडयालीस कागणिओ सोलस मासगा सुबण्णो' अमुमेवार्थं दर्शयति--'पंच गुंजाओ' इत्यादि, एवं चतुःकर्ममासकः काकण्यपे क्षया, एवं अष्टचत्वारिंशद्भिः काकणीभिः मंडळको, भवतीति शेषः, रवतं रूपं चन्द्रकान्तादयो मणयः शिला- राजपट्टकः गंधपट्टक इत्यन्ये शेषं सूत्रसिद्धं ।
'से किं तं खेतप्पमाणे' इत्यादि, प्रदेशा:- क्षेत्र प्रदेशा: तैर्निष्यन्नं, विभागनिष्पन्नं त्वंगुठादि सुगमं वरं रयणी इत्थो, दोणि हत्या कुच्छी, सेदी य लोगाओ निष्फज्जति सो व लोगो चउदसरज्जूसितो हेहा देसूणस तरज्जूच्छिष्णो तिरियलोमध्ये रज्जुविच्छिण्णो, एवं बंभलोगमज्झे पंच, उचरिं लोगंते एगरज्जूविच्छिष्णो रज्जू पुणे सर्वभुरमणसमुहपुरत्थिमपच्चास्थिमवेइयंता एस लोगो बुद्धिपरिछेदेणं संषट्टे घणो
... अत्र 'क्षेत्र प्रमाणस्य वर्णनं मध्ये 'लोक-श्रेणेः वर्णनं
~ 213~
प्रमाणद्वारे द्रव्यक्षेत्र प्रमाणे
॥ ७६ ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
............ मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्रीअनु:
प्रत सूत्रांक [१३११३४] गाथा ||८३
हारि.वृत्ती
॥७७॥
१०२||
कीरा, कथं १, उपयते, णालियाए दाहिणिलमहोलोगखंड हेहा देसूणतिरज्जूविच्छिण्णं उबरि रजसूअसंखविभागविच्छिन्न अतिरित्त- लोक श्रेणिः सत्तरजूसितं, एवं पेतुं ओमस्थिय उत्तरे पासे संघातिजाइ | इदाण उडलोए दाहिणिलाई खंडाई बंभलोगबहुसममज्जो देसभागे बिरजुवि-121 किछण्णाई सेसतेसु अंगुलसहस्सदोभागविच्छिण्णाई देसूणअन्धुहरज्जूसिताई, एताई घेत्तुं उत्तरे पासे विवरीताई संपातिअंति, एवं कतेसुला किं जातं १, हेद्विमं लोगद्ध देसूणचउरज्जूविच्छिणं सातिरित्तसत्तरज्जुस्सियं देसूणसत्तरज्जूवाहनं, उवरिल्लमद्धपि अंगुलसहस्सदोभागाधियतिरग्जूविधि देसूणसत्तरज्जूसिय पंचरज्जुबाहरू, एवं भेत्तु हेडिल्लउत्तरे पामे संघातिजति, जंतं अदे खास सत्तरम् । आहियं उपरि त घेत्तुं पत्तरितस्स खंडस्स राजूओ बाहलं ततो उद्वाय संघातिजति, तहावि सत्त रज्जूर ण धरंति, ताहे दक्षिणिई तस्स जमधियं बाहलाओ तस्सद्ध कित्ताओ उत्तरओ बाहले संघातिज्जद, एवं किं जात ?, वित्थरतो आयामतो य सत्तरज्जू पाहतो रज्जूए असंखभागेण अधिगाओ छ रज्जू , एवं एस लोगो बबहारतो सत्तरज्जुप्पमाणे दिट्ठो, एत्थं जं ऊणातिरित्तं बुद्धीय जधा जुज्जइ वहा संघातिज्जा, सिद्धते य जत्थ अविसिटु सेडिगहणं नस्थ एताए सपरतायताए अवगंतब्वं, संप्रदायप्रामाण्यात्, प्रतरोऽप्येवंप्रमाण एष, आह-लोकस्य कथं प्रमाणता ?, उच्यते, आत्मभावप्रामाण्यकरणात,तदभाये तयुदयभावप्रसंगात् । ‘से किं तं अंगुले ? अंगुले ( इत्यादि ) आत्मांगुलं उच्छ्यांगुल प्रमाणांगुलं, तत्रात्मांगुलं प्रमाणानवस्थितेरनियत, उच्छ्यांगुलं त्वंगुलं परमाण्वादिकमायातमवास्थितं, उस्सेहंगुलाओ य कागणीरयणमाणमाणीतं, तओविटू बद्धमाणसामिस्स अद्धंगुलप्रमाण, ततो व पमाणाओ जस्संगुलस्प पमाणमाणिज्जति तं पमाणांगुलं, अवस्थितमेव,अत्र बहुवक्तव्यं तनु नोच्यते,-TRI अन्थविस्तरभया विशेषणवत्यनुसारतस्तु विज्ञेयमिति । नव मुखान्यात्मीयान्येव पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवति, द्रौणिकः पुरुषो मानयुक्तो भवति, मह-11॥ ७७ ।। त्यां जलद्रोण्या उदकपूर्णायां प्रवेशे जलद्रोणादूनात्तावन्मात्रोनायां वा पूरणादित्यर्थः, तथा सारपुद्गलोपचितत्त्वात्तुलारोपितः सन्नद्धभारं तुलयन् |
दीप अनुक्रम [२०५
२७०]
... अत्र 'प्रमाण'-अधिकार: मध्ये 'अङ्गुल'स्य भेदा: आदि वर्णनं क्रियते
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............. मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत
सूचांक
श्रीअनुः हारि.वृत्ती
[१३११३४] गाथा ||८३
।। ७८॥
१०२||
पुरुष उन्मानयुक्तो भवति, तत्तोलमाणे सकळगुणोपेता भवंति, आहच-'माणुम्माण' गाहा (१९६-१५६ ) भवंति पुनरधिकपुरुषाश्चक्रवा- आत्मादय उक्तलक्षणमानोन्मानप्रमाणयुक्ता, लक्षणव्यंजनगुणैरुपेताः, तत्र लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि व्यंजनानि मशादीनि गुणा:-आन्त्यादयः गुलाउत्तमकुलप्रसूता उत्तमपुरुषा भुणितव्या इति गाथार्थः ॥ उत्तमादिविभागप्रदर्शनार्थमेवाह-होति पुण' गाहा-( ९७.१५७) भवंति पुन
धिकारः रधिकपुरुषाचक्रववादयः अष्टशतमंगुलानां उम्बिद्धा-म्मिता उरुचैस्त्वेन वा पुन:शब्दोऽनेकभेदसंदर्शकः, षण्णवतिमधमपुरुषाश्चतुरुत्तरं, शतमिति गम्यते, मज्झिमिल्ला ल-मध्यमाः, तुशब्दो यथानुरूपं शेषलक्षणादिभावाभावप्रतिपादनार्थमिति गाथार्थः ।। स्वरादीनां प्राधान्यमुपदर्शयन्नाइ'हीणा वा गाहा (१९८-१५७) उक्तलक्षण मानमधिकृत्य हीनाः सयाज्ञापकप्रति गम्भीयेपनि: सव-अदैन्यावष्टंभः सार:-शुभपुद्गलोपचयः खत एवंभूताः उत्तमपुरुषाणां-पुण्यभाजां अवश्यं परमंत्रा: प्रेष्यत्वमुपयान्ति, उक्तं च-'अस्थिवर्थाः सुखं मांसे, स्वचि भोगाः खियोधिषु । गती
थानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सखे प्रतिष्टित ॥ १॥” भिति गाथार्थः, शेष सुगम यावत् वावी चरस्सा वदुला पुक्खरिणी पुष्करसंभवतो वा PIसारिणी रिजू दीहिया सारिणी चेव का गुंजालिया सरमेगं तीए पंतिठिता दो सरातो सरसरं कवाडगेण उदगं संचरइत्ति सरसरपंती, विविध
रुक्खसहितं कयलाविपच्छन्नघरेसु य वीसभिताण रमणवाणं आरामो, पत्तपुष्कफलछायोवगाविरुक्खोवसोभित बहुजणविविहवेसु*ण्णममाणस्स भोवणवा जाणं उज्जाणं, इत्यीण पुरिसाण एगपक्खे मोज जे तं काणगं, अथवा जस्स पुरओ पव्वयमस्वी वा सम्बवणाण य
अंते वर्ण काणणं, शीणे वा एगजाइयरुक्षेहि य वर्ण, अणंगजाइण उत्तमेहि व वणसंह, एगजातियाण अणेगजातियाण वा रुक्खाण पंती -४॥७८॥ लाणराई, अहो संकुडा बरि विसाला फरिदा, समक्खया खाहिया, अतो पागाराणतरं अङ्कहत्यो रायमग्गो बारिया, दोण्ड दुवाराण अन्तरे गोपुरं, मातिगो णामागासभूमि तिपहसमागमो य, संघाडगो तिपहसमागमो व तियं, चउरस्सं चउपहसमागमो चेच, चत्वरं छप्पहरामागमं वा, एवं
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
............. मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ............ - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३११३४]
श्रीअनु हारि.वृत्ता ॥७९॥
गाथा
||८३
ERS
१०२||
पाचरं भण्णा, देवडलं चउमुह, महतो रायमगो, तर पहा, सत्-सोभणाविद जं भयंते पोत्ययवायणं वा जत्थ अज्यतो वा मणुयाण आत्मांगल च्छ नहाण वा सभा, जत्युदगं दिज्जति सा पवा,बाहिरा लिंदो, मुकिधी अलिंदो बा सरण, गिरिगुहा लेणं, पव्ययस्सेगदेसलीणं था लेण कप्प- मुत्सेवाबिगादि व जस्थ लयंति तं लेणं, भंड भावणं, तं च मम्मयादि मात्रो-मात्रायुक्तो, सो य कंसभोयणभीडका, उपकरणं अणेगविहं कडगपिडग- गुलं च सूर्पादिकं, अहवा उपकरणं इमं सगडरहादिय, वत्थ रहो ति जाणरहो संगामरहो य, संगामरहस्स कडिप्पमाणा फलयवेझ्या भवति, जाणं पुण गंडिमाइयं, गोषिसए जैपाणं विहस्तप्रमाण पतुरखं सवेदिक उपशोभितं जुग लाडाण थिली जमायं हस्तिन उपरि कोहरं ५ गिलतीव मानुषं गिही लाडाणं जे अणपल्लाणं तं अण्णविसएसु थिल्डी भणइ, उवार कूडागारछादिया सिविया दीहो पाणविसेसो पुरिसरस, खप्रमाणवगासदाणतणओ संदमाणी, लोदिति कावेली लोहकडाईति-लोहकडि, एतं आयंगुलेणं मविजति, तथाऽयकालीनानि च जोजनानि मीयंते, शेष निगदसिद्धं यावत् से आयंगुले ॥
से कि उस्संहगुले २, उच्छ्यांगुळ कारणापेक्षया कारणे कार्योपचारादनेकविध प्रज्ञप्त, तथा चाइ-'परमाणु' इत्यादि (२९९-१६०) परमाणुः त्रसरेणू रखरेणुरमं च वालस्य लिक्षा यूका च यवः, अवगुणविवर्द्धिताः क्रमशः उत्तरोत्तरवृद्धधा अंगुलं भवति, तस्थ णं जे से सुहुमो से उप्पेत्ति स्वरूपल्यापनं प्रति सावत् स्थाप्यो, अनधिकृत इत्यर्थः, 'समुदयसमितिसमागमेणं' ति अत्र समुदायख्यादिमे लकः परमायुपुद्गलो || निष्फजते, तन चोदकः पृच्छनि-से ण भने ' इत्यापि, सो भदन्त ! परमाणुः असिधारं वा शुरधारी पा अवगाहेत-अवगायासीत अमि:-HI|| ७९ ।। खड्गः क्षुरो-नापितोपकरणं, प्रत्युत्तरमाह-दन्तावगाहेत 'हन्त संप्रेषणप्रत्यवधारणविवादेष्विति वचनात् , स तत्र छियेत भिद्येत वा, नत्र छेदो-13 द्विपाकरणं भेदोऽनेकधा विदारण, प्रश्रनिर्वचनं-नायमर्थः समर्थः, नैतदेवमिति भावना, अत्रैवोपपत्तिमाह-न खलु तत्र शस्त्रं संकामति, सूक्ष्म-1
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
............. मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
४
प्रत सूत्रांक [१३११३४] गाथा ||८३
श्रीअनु वादिति भावः, स भवन्त ! अग्निकायस्य-बढेमभ्यमध्येन-अंतरेण गच्छेत-यायात् ,हन्त गच्छेत् , स तत्र दोवेत्यादि पूर्ववत् , नवरं शवमग्नि- उत्सेधांगुलं हारि वृत्ती मयं गृह्यत इति, अवादि च-सस्थग्गिविस' मित्यादि, एवं पुक्खलसंवर्तमपि भावनीय, नवरं अस्यैवं प्ररूपणा 'इह वद्धमाणसामिणो निब्बा॥८ ॥
णकालाओ तिसवीए वाससहस्सेसु ओसप्पिणीए (पंचमटारगेसु उत्साप्पिणीए ) व एकवीसाए वीइक्रतेसु एस्थ पंच महामेहा भावस्संति, पतंजहा-पढमे पुक्खलसंवट्टए य खदगरसे बीए खीरोदे तइए घओरे चउत्थे अमितोदे पंचमे रसोदे, वत्र पुक्खलसंवत्तोऽस्य भरतक्षेत्रस्य अशुभ-४॥
भावं पुष्कलं संवर्गवति, नाशयतीत्यर्थः, एवं शेषनियोगोऽपि प्रथमानुयोगानुसारतो विज्ञेयः, स भदन्त ! गंगाया महानद्याः प्रतिश्रोतो. हव्य-शीप्रमागकहेत !, स तत्र विनिघात-प्रस्खलनमापतयेत-प्राप्नुयाच्छेषं पूर्ववत् , स भदन्त ! उदकावर्त वा उदकर्षितु वा अवगाह्य तिराधे, स तत्रोदकसंपर्कात्कुध्येत वा पर्यापयेत वा?, कुधनं पूतिभावः, पर्यायापत्तिस्तु अन्यरूपापत्तिः, शेष मुगर्म, यावत् अनन्तानां व्यावहा& रिकपरमाणुपुद्गलानां समुदयसमितिसमागमेन सा एका उम्छूक्ष्णश्लचिणकेति वेत्यादि, अत्र उच्क्ष्णाक्षिणकादीनामन्योऽन्याष्टगुणत्वे सत्य
प्यनंतत्वादेव परमाणुपद्रलसमुदायस्यायोपन्यासोऽविरुद्ध एष, तत्र लक्षणलक्षिणकाद्यपेक्षया उत्-प्राबल्येन अक्षणमात्रा तरुक्ष्णलक्षणोच्यते, लक्ष्णलक्ष्या त्वोधत उध्वरेण्यपेक्षया ऊ धस्तिबकचलनधोपलभ्यः ऊर्ध्वरेणुः, पौरस्त्यादिवायुप्रेरितस्त्रस्यति गच्छतीति त्रसरेणुः, स्थगमनो
खातो रथरेणुः, पालापलिक्षायूकादयः प्रतीताः, शेष प्रकटार्थ यावदधिकृतांगुलाधिकार एव, नवरं नारकाणां जघन्या भवधारणीयशरीरावकागाहना अंगुरासंख्येयभागमात्रा सत्पथमानावस्थायां, न त्वन्यदा, उत्तरक्रिया तु तथाविधप्रयत्नाभावादापसमयेऽप्यंगुल संख्ययभागमात्रवेति,
॥८ ॥ एवमसुरकुमारादिदेवानामपि, नवरं नागादीनां नवनिकायदेवानामुत्कृष्टोत्तरवैकिया योजनसहस्रमित्येके, पृथिवीकायिकादीनां त्वंगुलासंख्येयसभागमात्रतया तुल्यायामप्यवगाहनायां विशेषः, 'वणऽणतसरीराण एगाणिलप्तरिग पमाणेण । अणलोदगपुढवीण असंखगुणिया भवे बुड्डी
GRICREA
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HOR
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A
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
............. मूलं [१३१-१३४] / गाथा [८३-१०२] ............ - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३११३४] गाथा ||८३
श्रीअनु० ॥१॥"से किं पमाण' २ एकैकस्य राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिनः, तवान्यान्यकालोत्पन्नानामपि तुल्यकाकणीरवप्रतिपादनार्थमेकैकमहणं, काकिणी हारि.वृत्ती निकपचरितराजशब्दविषयज्ञापनार्थ राजमहणं, षखंडभरतादिभोक्तृत्वप्रतिपादनार्थ चतुरंतचक्रवर्चिन इत्यत्रान्ये, चत्तारि मधुरवणफला | रत्नं उत्से
पाएगो सेयसरिसबो, सोल सरिसवा एगं घण्णमासफलं, दो धण्णमासफलाई गुंजा, पंच गुंजाओ एगो कम्ममासगो, सोलस कम्ममासगाधांगुलं च ॥८१ ॥ " गो सुवण्णो, एते य मधुरतणफलादिगा भरहकालभाविणो चिप्पंते, जतो सब्वचकवट्टीर्ण तुल्लमेव कागणीरयणति, षट्तर्क द्वादशानि ।
अपकनिक अधिकरणिसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञ, वत्र तलानि-मध्यभाण्डानि अश्रय:-कोटयः कर्णिका:-कोणिविभागा: अधिकरणि:-सुवर्णकारोपकरण प्रतीतमेव, तस्य काकणिरत्नस्य एकैका कोटि: उच्छ्याप्रमाणविष्कम्भकोटीविभागा, विक्खंभो-वित्थारो, तस्स प समचतरस्मभावत्तणओ सव्यकोटीण तुल्लायामविष्कभगहणं, तच्छ्रमणस्य भगवतो महावीरस्या गुलं, कहं ?, जतो वीरो आदेसंतरतो आयंगुलेण चुलसीतिभंगुलमुब्बिरो, नस्सह पुण सतसह सयं भवति, अतो दो उम्सेहंगुला वीरस्स आयंगुलओ, एवं वीरस्सायंगुलाओ अब उस्सहंगुलं | दिह, जेसि पुण वीरो आयंगुलेण अठुत्तरमगुलसतं तेसि वीरस्स आयंगुळेण एकमुस्सेहंगुल उस्सेहंगुलस्य य पंच णवभागा भवंति, जेसि
पुणो वीरो आयंगुलेण वीसुत्तरमंगुलसयं तेसि वीरस्सायंगुलेणगमुस्सेइंगुलं उस्सेहंगुलस्स य दो पंचभागा भवंति, एवमेत सव्वं तेरासियHIकरणेण दवण्वं, उच्छ्यांगुलं सहस्रगुणितं प्रमाणाङ्गुलमुच्यते, कर्थ, भण्णाति-भरहो आयंगुळेण वीसुत्तरमैगुलसतं, तं च सपाय धणुय, 1 । उस्सेहंगुलमाणेण पंचधणुसया, जइ सपापण धणुणा पंच धनुसए लभामि तो एगेण धणुणा किं लभिस्सामि ?, आगतं च धणुसताणि || 3 सेढीए, एवं सब्वे अगुलजोयणादयो दहब्वा, एगमि सेढिपमाणांगुले चउगे उस्सेहंगुलसया भवंति, तं च पमाणगुलं उस्सेहंगुलप्पमाणेण अद्धा-3॥८१ दतियंगुलवित्थड, ततो सेढीए चउरो सता अड्डाइयगुलगुणिया सहस्स उस्सेहंगुलाणी, तं एवं सहस्सगुणितं भवति, जे यप्पमाणगुलाओ।
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क रूनऊ
ॐॐ
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आगम
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [१३५-१३७] | गाथा [१०३-१०६] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५१३७] गाथा ||१०३१०६||
श्रीअनु | पुढवादिपमाणा आणिज्जति ते पमाणगुलविक्वंभेणं आणेवव्या, ण सूहअंगुलेणं, शेष सुगम, यावत् तदेवत्क्षेत्रप्रमाणमिति, नवरं काण्डानि 31 समयहारि.वृत्तीला रत्नकाण्डादीनि भवनप्रस्तटान्तरे टंका:-छिन्नटकानि रत्नकूदादयः कूटाः शैला: मुंडपर्वताः शिखरषन्तः शिखरिणः प्राग्भाग-पदवनता इति । निरूपणं ॥८२॥
से किं ते कालप्पमाणं' इति (१३४-१७५) कालप्रमाणं द्विविधं प्राप्तं, तद्यथा-प्रदेशनिष्पन्न विभागनिष्पन्नं च, तत्र प्रदेशनिष्पन्न | एकसमयस्थित्यादि याबदसंख्येयसमयस्थितिः, समयानां कालप्रदेशत्वादसंख्येयसमयस्थितेश्वोचैमसंभवात् , विभागनिष्पन्नं तु भमयादि, तथा चाइ- समयावलिय गाहा (११०३-२७५) कालविभागाः स्खल्विमाः, समयादित्वाच्चैतेषामादौ समयनिरुपणा क्रियते, तथा चाह-से है किं तं समय' (१३७-१७५)प्राकृशिल्याऽभिधेयवल्लिगवचनानि भवन्तीति न्यायादय कोऽयं समय इति पृष्टः सन्नाह-समयस्य प्ररूपण | करिष्याम इति, तद्यथा नाम तुम्नदारकः स्यात् सूचिक इत्यर्थः तरुण: प्रधद्धमानवयाः, आइ-दारका प्रवर्द्धमानवया एव भवति कि विशेषणेन ?, न, आसनमृत्याः प्रवर्द्धमानवयरत्वाभावस्तस्य चासनमृत्युत्वादेव विशिष्टसामर्थ्यानुपपत्तेः, विशिष्टसामर्थ्यप्रतिपादनार्थश्वायमारंभ इति, अन्ये तु वर्णादिगुणोपचिनो मिन्नवयस्तरुण इति व्याचक्षते, बळ-सामर्थ्य तदस्यास्तीति बलवान, युगः-सुषमदुष्षमादिकालः सोऽस्य भावेन न काळदोषतयाऽस्थास्तीति युगवान् , कालोपद्रवोऽपि सामध्यविनहेतुरिति, जुवार्ण युवा वयाप्राप्तः, दारकाभिधानेऽपि तस्यानेकधा भेदाद्विशिष्टययोऽवस्थापरिमार्थमिदमदुध, 'अरूपातक:' आतल्को-रोगः अत्राल्पशव्योऽभाववचन:, स्थिरामहस्ता लेखकवत् | प्रकृतपटपाटनोपयोगित्वाच्च विशेषणाभिधानमस्योपपद्यत एव इतः पाणिपादपार्श्वपृष्टान्तरोरुपरिणतः, मागावयवरुत्तमसंहनन इत्यर्थः, तलय
बाहुस्तत्थ य तदाकारणाहुरिति भावार्थः, आगंतुकोपकरणजं सामध्यमाह-चर्मेष्टकद्रुपनमुष्टि-14 समाइतनिचितकाय इति, ऊरस्यबलसमन्वागतः, आन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इत्यर्थः, व्यायामवत्वं दर्शयति-लंघनप्लवनशीमव्यायामसमर्पः,
MORECASSACRACK
दीप अनुक्रम [२७१
SHAR
२७८]
... अथ 'काल' विभागे 'समय-आवलिका-आदि वर्णनं क्रियते ।
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [१३५-१३७] / गाथा [१०३-१०६] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५
श्रीअनु हारि.ची
१३७]
॥८३॥
गाथा
5523
||१०३१०६||
जैनशब्दों शीप्रवचनाछेक:-प्रयोगशः दक्ष:-शीघ्रकारी प्राप्तार्थ:-अधिगतकर्मनिष्ठां गता, प्राश इत्यन्ये, कुशल-आलोचितकारी मेधावी-
मथुन- समयदृष्टकर्मशः निपुणा-पायारम्भका निपुणशिल्पोपगत:-सूक्ष्मशिल्पसमन्वितः, स इत्थभूतः एका महती पटशाटिका वा पट्टशाटकं वा श्लक्ष्णतया निरूपणं | पटशाटिकेति भेदेनाभिधान, गृहीत्वा 'सयराह मिति सकृद् झदिति रुत्वत्यर्थः, हस्तमात्रमपि उत्सारयेत् पाटयेदित्यर्थः । तत्र चोदक:-शिष्यः प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापको गुरुस्तमेवमुक्तवान्-कि?, येन कालेन तेन तुम्नवायदारकेण तस्याः पदशाटिकाया सबस्तमात्रमपसारित-पाटितमसी समय * इति?, प्रज्ञापक आह-'नायमर्थः समः' नैतदेवामित्युक्तं भवति, कस्मादिति प्रष्ट उपपत्तिमाह-यस्मात्संख्येयानां तन्तूनां समुदयसमितिसमागमेनेति पूर्ववत् , पटशाटिका निष्पद्यते, तत्र वरिल्लात्ति-उपरितने तंती अरिखने-अविदारिते 'हेडिल्ले ति अधस्तनस्तम्तुर्न छिचते, अन्यस्मिन्काले आयोऽन्यस्मिश्चापरस्तस्मायसी समयो न भवति, एतच्च प्रत्यक्षप्रतीतं, संघातस्त्वनंतानां परमाणूनां विशिष्टैकपरिणामयोगस्तेषामनन्तानां संघा-17 वानां संयोगा-समुदयस्तेषां समुदयानां याऽन्योऽन्यानुगतिरसौ समितिस्तेषामेकद्रव्यनिवृत्तिसमागमेन पटः निष्पद्यत इनि, समयस्य चातोऽपि सूक्ष्मत्वात् , परमाणुन्यतिक्रान्तिलक्षणकाळ एकसमय इति, न, पाटकप्रयत्नस्याचिंत्यसक्तियुक्तत्वाद्, अभागे च तन्सुविसंघातोपपत्तेस्तुल्यप्रयनप्रवृत्तानवरतप्रवृत्तगंत्रतुल्यकालेनेष्टदेशप्राप्युपलब्धेः प्रयत्नविशेषसिदिईद्वचनाश, उक्तंच-बागमधोपपत्चिश्व, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् | अती-18 न्द्रियाणामर्थानां, मद्रावप्रतिपत्तये ॥१॥ आगमो ह्याप्तवचनमाप्त दोषशयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न यात्विसंभवात् ॥२॥ उपपत्तिभवेणुक्तिर्या सद्भावप्रसेधिका । सा वन्वयव्यतिरेकलक्षणा सूरिभिः स्मृते ॥३॥" ति, निदर्शनं चेहोभयमपि, असं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतत् , शेष सूत्रसिद्धं यावत् 'हहस्से त्यावि(०१०४-१५८)शष्टस्य-तुष्टस्य अनषकल्लस्य-जरमा अपीवितस्य निरूपक्लिष्टस्य-व्याधिना पूर्व सांप्रता बाऽनभिभूतस्य जन्तोः मनुष्यावेः एक उकवासनिच्छ्वास एकः प्राण इत्युच्यते-'सत्त पाणूणि' सिलोगो (१०५-१७९)निगदसिद्ध एव,
दीप अनुक्रम [२७१
२७८]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१३५-१३७] / गाथा [१०३-१०६] .... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५
१३७]
॥८४॥
नापल्योपमं
गाथा ||१०३१०६||
उच्वासमानेन मुहूर्तमाह-'तिष्णि सहस्सा' गाहा-(*१०६-१७९ ) सचर्हि करसासहि थोवो सत्त थोवा य लवे, सत्चथोवेण गुणितस्स-11 विजया लवे अउष्णपणं उस्सासा लवे, मुहचे य सत्तहत्तर लवा भवंति, ते अउणपण्णासाए गुणिता एयप्पमाणा हवंति, शेष निगदसिद्धला यावत् एतावता चेव गणितस्स सवओगो इमो-अंतोमुत्तादिया जाब पुब्बकोविचि, एतानि धम्मचरणकालं पच नरसिरियाण आउपरिणाम
निरूपणं ४ करणे उवउज्जति, णारगभवणवंतराणं दसवाससहस्सादिया, उवउर्जति आउयनिताए तुलियाविया सीसपहेलियता, एते प्रायसो पुव्वगतेसु५ जवितेमु आउसेडीए उवउज्जविन्ति ।।
से कि त उवमय' ति ( १३८-१८०) उपमया निवृत्तमोपमिक, उपमामन्तरेण यत्कालप्रमाणमनतिशविना प्रहीतुं न शक्यते तदोप-1 ४ मिकमिति भावः, तरच विधा-पल्योपर्म सागरोपमं च, तत्र धान्यपल्यवत्पल्यः तेनोपमा यस्मिस्तत्पल्यापमं, तथाऽर्थत: सागरेणोपमा यस्मिन् | * तत्सागरोपम, सागरवन्महत्परिणामेनेत्यर्थः । तत्र पल्योपमं विधा-'उद्धारपलिओवम इस्यादि, तत्र उद्धारो वालाणां तत्खण्डानां वा अपोद्धरण
मुच्यते, वद्विषयं तत्प्रधानं वा पल्योपमं नद्धारपल्योपम, तथाऽद्धति कालाख्या, ततश्च वालापाणां तत्वंटानां च वर्षशतोद्धरणादद्वापल्यस्तेनोपमा र यस्मिन् , अथवाऽद्धा-आयुःकालः सेाऽनेन नारकादीनामानीयत इत्यद्धापल्योपमं, तथा क्षेत्रमित्याकाशं, सतश्च प्रतिसमयमुभयथापि क्षेत्रप्रदेशापहारे
क्षेत्रपल्योपममिति । 'से किंतं उद्धारपलिओवमें अपोद्धारपल्योपमं द्विविधं प्रश्न, तयथा-संबकरणात् सूक्ष्म, बादराणां व्यावहारिकत्वात् व्यावहारिक, प्ररूपणामात्रव्यवहारोपयोगित्वाचावहारिकमिति, 'से ठप्पे' ति सूक्ष्मं तिपतु तावद् व्यावहारिकप्ररूपणापूर्वकत्वादेतत्परूपणाया इत्यतः पश्चात्परूपयिष्यामः, तत्र यत्तन्यावहारिकमपोद्धारपल्योपमं तदिदं वक्ष्यमाणलक्षण, तद्यथा नाम पल्यः स्यात् योजनं आयामविष्कम्भाभ्यां, वृत्तत्वात ,योजनमूलमुच्चत्वेन अवगाहनतयेति भावना,तयोजनं त्रिगुण सत्रिभागं परित्येष्ण,परिधिमधिकृत्येत्यर्थः स एकाहिकव्याहिकव्याहिकादीनां |
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२७८]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१३८-१४२ / गाथा [१०७-११२] ... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
श्रीअनु। उत्कृष्ट सप्तरात्रिकाणां भूतो वालापकोटीनामिति प्रायोग्या, तत्रैकाहिक्यो मुण्डिते शिरस्यकेनाहा या भवतीति, एवं शेषेष्वपि भावना कार्येति ।।
लिपस्योपम हारि.तोका कथंभूत १, इत्याह-'सम्मढे समिचिए' ति सम्मृष्ट:-आकर्णभृतः प्रचविशेषानिविता, किंबहुना ', इत्थं भृतोऽसौ येन तानि वालाप्राणि 18
मानिदेहेत् , नापि वायुईरेत् , न कुथेयुः, प्रचयविशेषात्सुपिराभावाद्वायोरसंभवान्नासारतां गच्छयुरित्यर्थः,न विध्वंसेरन् ,अत एव न कतिपयपरिशा|टमप्यागच्छेयुः, अत एव पूतित्वेनार्थाद्विभक्तिपरिणामः ततश्च पूतिभावं न कदाचिदागच्छेयुः, अथवा न पूतित्वेन कदाचित्परिणमेयुः, 'तणं बाल
ग्गा समए ततस्तेभ्यो बालाप्रेभ्य: समय २ एकैकं बालाप्रमपहत्य कालो मीयत इति शेषः, ततश्च यावता कालेन स पल्यः क्षीणो नीरजा निर्लेपो निष्ठितो भवति एवावान् कालो व्यावहारिफापोद्धारपस्यौपममुच्यते इति शेषः, तत्र व्यवहारनयापेक्षया पल्यधान्य इव कोष्ठागारः स्वल्पवालामभावेऽपि क्षीण' इत्युच्यते तदभावज्ञापनार्थ आह-नीरजाः, एवमपि कदाचित्कवितसूक्ष्मवालापावयवसंभव इति तदपोहायाहनिर्लेप इति, एवं त्रिभिः प्रकारैः विरित्तो निष्ठितः इत्युच्यते, रसवतीदृष्टान्तेन चैतद्भावनीय, पकार्थिकानि वा एतानि, 'सेच' मित्यादि निग-18 मनं, शेष सूत्रसिद्धं, यावत् नास्ति किंचित्प्रयोजनमिति, अनोपन्यासानर्थकताप्रतिषेधायाह-केवलं तु प्रज्ञापनार्थ प्रज्ञाप्यते, प्ररूपणा क्रियत इत्यर्थः, आह-एवमप्युपन्यासानर्थकत्वमेव, प्रयोजनमन्तरेण प्ररूपणाकरणस्याप्यनर्थकत्वात् , उच्यते, सूक्ष्मपल्योपमोपयोगित्वात्सप्रयोजनैव प्ररूपणे-18
त्यदोषः, वक्ष्यति च 'तत्थ णं एगमेगे वालग्गे' इत्यादि, आह-एवमपि नास्ति किंचित्प्रयोजनमित्युक्तमयुक्तमस्यैव प्रयोजनवाद्, एतदेवं, पता#वतः प्ररूपणाकरणमात्ररूपत्वेनाविवक्षितत्वादित्येवं सर्वत्र योजनीयमिति, शेषमुत्तानार्थ यावत्तानि वालापाण्यसंख्ययखंडीकृतानि दृष्ट्यवगा-IN||८५ ॥
हनातोऽसंख्येयभागमात्राणि, एतदुक्तं भवति-यत् पुद्गलद्रव्यं विशुद्धचक्षुर्दर्शनः छद्मस्थः पश्यति तदसंख्येयभागमात्राणीति, अथवा क्षेत्रमधि| कृत्य मानमाह-सूक्ष्मपनकजीवस्य शरीरावगाहनातोऽसंख्येवगुणानि, अयमत्र भावार्थ:-सूक्ष्मपनकजीवावगाहनाक्षेत्रावसंख्येषगुणक्षेत्रावगाहनाना
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
उद्धाराद्वा
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
श्रीअनु०४ मित्यादि, पावरपृथिवीकायिकपर्याप्तकशरीरतुल्यानीति वृद्धवादः, शेष निगदसिद्धं यावत् 'जावइया अद्धाइज्जाण' मिस्यापि, यावन्तोऽतृतीये-18 हारि.वृत्तासागरेश्वपोडारसमया पालामापोखारोपळक्षिताः समया आपोद्वारसमयाः एतावन्तो विगुणतिगुणविष्कंभा द्वीपसमुद्रा आपोद्वारेण प्रज्ञप्ता,
थत्रपल्योअसंख्येया इत्यर्थः, उक्तमपोद्वारपल्यापमं, अज्ञापल्योपमं तु प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं स्थीयते अनयेत्यायुष्कर्मपरिणत्या नारकादिभवे॥८६॥
पमानि बिति स्थितिः, जीविसमायुष्कभिस्यनर्थान्तरं, यद्यपि कायादियोगगृहीतानां कर्मपुद्रलानां ज्ञानावरणादिरूपेण परिणामितानां वदवस्थानं सा| स्थितिः तथाप्युक्तपुद्गलानुभवनमेव जीवितमिति तब रूढितः इयमेव स्थितिरिति, पज्जचापज्जतगविभागो य एसो-णारगा करणपज्जत्तीय चेव अपज्जत्तगा हवंति, ते य अंतोमुत्तं, लाई पुण पडुकच णियमा पम्जतगा पेय, सओ अपज्जत्तगकालो सब्वाउगातो अबाणिज्जति, सेसो | य पज्जत्तगसमयोति, एवं सञ्चत्य दब्ब, एवं देवावि करणपग्जचीए चेव अपनाचगा दहब्वा, लद्धि पुण पडुकच णियमा पक्जत्तगा चेव, गम्भवतियपंचिनिया पुण तिरिया मणुया य जे असंखेचावासाउया ते करणपजसीए चेव अपग्जत्तगा बहन्या इति, कंच-नारगदेवा || तिरिमणुग गम्भजा जे असंखवासाऊ । एते उ अपजचा उववाते चेव बोल्वा ॥१॥सेसा तिरियमणुस्सा लदि पप्पोववायकाले वा । | दुहओविय भइयव्वा पन्जनियरे य जिणवयर्ण ॥ २ ॥,' इत्थं क्षेत्रपल्योपममपि प्रायो निगदसिद्धमेव, वरं अप्फुण्णा वा अणफुण्णा बचि VIअत्र अप्फुण्णा-फूटा आक्रान्ता इंगियावद्विपरीतं अणफुण्णा, आह-ययेते सर्वेऽपि परिगृहाते किवालाप्रै प्रयोजए. उच्यते, एतद्रष्टियादे द्रव्य-12 मानोपयोगि, स्पृष्टास्पृष्टैश्च भेदेन मीर्यत इति प्रयोजनं, फूष्माण्डानि-पुंस्फलानि मातुलिंगानि-बीजपुरकाणि, अस्पृष्टाश्च, क्षेत्रप्रदेशापेक्षया
IM॥८६॥ वालाप्राणां बादरत्वादिति, 'धम्मत्थिकाए' इत्यादि, (१४१-१९३) धर्मास्तिकायादयः प्राग्निरूपितशब्दार्था एव, णवरं धर्मास्तिकायः संग्रहनयाभिप्रायारेक एब, धर्मास्तिकायस्य व्यवहारनयाभिप्रायादेशादिविभागः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशा इति, अजुसूत्रनयाभिप्रायावन्त्या
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्रीअनु०
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
FE
IN व गृधन्ते, असंख्येयप्रदेशात्मकत्वासच बहुवचन, अद्धासमय इनि वर्तमानकाला, अतीतानागतयोपिनष्टानुत्पमत्वादिति ।।
शरीरपार्क हारि.वृत्तीला 'कति ण भंते ! सरीरा' इत्यादि (१४२-१९५) का पुनरस्य प्रस्ताव इति, उच्यते, जीवख्याधिकारस्य प्रक्रान्तत्वात्सरीराणामपि प;
| सतुभयरूपत्वादयसर इति, व्याख्या पास्य पदस्यापि पूर्वाचार्यकृतैव, न किंचिदधिक क्रियत इति, 'ओरालिय' इत्यावि, शीर्यत इति शरीरं,
तत्थ ताव उदारं तराळ उरलं नरालिय वा उदारियं, तित्थगरगणधरसरीराई पडुच्च उदार, उदारं नाम प्रधान, उरालं नाम विस्तरालं, | विशालंति वा जे भणित होति, कई, सातिरेगजोयणसहस्समबतियापमाणमोरालियं अण्णमेहमिचं णस्थि, वेठब्वियं होग्जा हक्यमाहिया
अवाहियं पंचधणुसते, इमं पुण अवहितपमाणं अतिरेगोयणसहस्सं वनस्पत्यादीनामिति, उरलं नाम स्वल्पप्रदेशोपचितत्वाद् वृहत्वाकच VIभिण्डवत, उरालं नाम मांसास्थिस्नाप्यायवयवद्धत्वात किये विविधा विशिष्ठा का क्रिया विकिया, विक्रियायां भवं वैक्रिय, विविध विशिष्ट | वा कुर्वति तदिति वैकुर्विक, आहियत इस्याहारक, गृह्यते इत्यर्थः, कार्यपरिसमामेश्व पुनर्मुच्यते याचितोपकरणवत , तेजोमावस्तैजसं, रसायाहारपाकजननं निबंधने घ, कर्मणो विकार: कार्मण, अष्टविधकर्मनिष्पन्न सकलशरीरनिबंधनं च, उक्तंच- तत्वोवारमुरालं उरल ओरालमहब विष्णेयं । आगळियति पदम पटुकच तित्वेसरसरीरं ॥ १।। भण्णह य तहोरालं बित्थरवंत बणस्तात पप्प । पर एहमे विसाति ॥२॥ उरवपदेसोचियपि महजग जहा भें। मसहिण्डारबळ उरालियं समयपरिभासा ॥ ३ ॥ विविहान बिसिहगा वा किरिया विकिरिय ती तमिहा नियमा विवाधियं पुण णारगदेवाण पयतीए ।। ४ ।। फज्जभि समुप्पण्णे सुयकेवलिणा ॥८७
विसिट्ठलद्धीय । जं एस्थ आरिजा भणति आहारयं तं तु ।। ५ ।। पाणिदयरिद्विसंदरिसणत्यमत्वावगणहे वा । संसयवोच्छयत्या दिगमणं जिणपायमूलंमि ॥६॥सबस्स उम्दसिद्धं रसादिभाहारपागजणणं च । यगलद्धिानिमित्तं तेयगं होइ नायव्वं ।। ७ ।। कम्मवि
RESEARE
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
... अथ 'शरीरस्य पंच-भेदानां वर्णनं प्रस्तूयते
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आगम
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
.......... मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
हारि.वृत्ती
शरीरे
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
॥८८
S
श्रीअनु वागो (गारो) कम्मणमट्टविहविचित्तकम्मणिफण्णं । सव्वेसि सरीराणं कारणभूवं मुणेयव्वं ॥ ८॥ अत्राह-किं पुनरयमौदारिकादिः क्रमः, औदारिक
अत्रोच्यते, परं परं सूक्ष्मत्वात् परं परं प्रदेशबाहुल्यात् प्रत्यक्षोपलब्धित्वात् कथित एवौदारिकादि: क्रमः, 'केवइया णं मैते ओरालियसरीरादा पण्णत्ता' इत्यादि, ताणि य सरीराणि जीवाणं बद्धमुक्काणि दबनेत्तकालभावहिं साहिज्जति, द्रव्यैः प्रमाणं वक्ष्यति अभव्यादिभिः, क्षेत्रेण श्रेणि-| प्रतरादिना, कालेनाबलिकादिना, भावो द्रव्यान्तर्गतत्वात् न सूत्रेणोक्तः, सामान्यलक्षणत्वाकच वर्णादीनामन्यत्र चोक्तत्वात् , 'उरालिया दुविहा
विचार वद्धिल्लया मुकिल्लया, बद्धं गृहीतमुपातमित्यनन्तरं, तत्थ जे ते बद्धेल्लया इत्यादि सूत्रं । इदानीमर्थतः सखेज्जा असंखेज्जा ण तरंति संखातुं पत्तिएण जहा इत्तिया णाम कोडिप्पमितिहि ततोऽवि कालादीहिं साहिज्जति, काळतो वा समए समए एकोकं सरीरमवहीरमाणमसंने जाहि। | उस्साप्पिीओसप्पिणीहि अवहीरंति, खिचओवि असंखेज्जा लोगा, जे यद्धिमा हिवि जइवि एक पदेसे सर्गरमेककं ठविमति ततोविय
असंखज्जा लोगा भवंति, किंतु अवसिद्धंतदोसपरिहारस्थं अप्पणप्पणियाहि ओगाहणाहिं ठविति, आह-कहमणताणमोगलसरीरीणं असंख
ज्जाई सरीराई भवंति?, आयरिय आह-पत्चेयसरीरा असंखेउजा, तेसिं सरीरावि ताव एवइया चेव बवेजया, मुक्छेल्लया अणंता, कालपरिसंलाखाणं अर्णवाणं जस्सप्पिणीअवसपिणीणं समयरासिप्पमाणमत्ताई, खेत्तपरिसंखाणं अणताणं लोगप्पमाणमेत्ताणं खेत्तखंडाणं पदेसरासिप्पमा
णमेत्ताई, दव्बओ परिसंस्खाणं अभव्यसिद्धियजीवरासीओ अर्णतगुणाई, ता कि सिद्धरासिप्पमाणमेचाई होज्जा ?, भण्णति-सिद्धाण अणतभागमेत्ताई, आह-ता किं परिवडियसम्मरिहिरासिप्पमाणाई होज्जा , सेसि दोहवि राणि मज्झे पाहिज्जतित्ति का भण्णइ-जदि तप्पमा
का॥८८॥ णा होताई ततो तेसिं चेव निदेसो होति, तम्हा ण तप्पमाणाई, तो कि तेसिं हेट्ठा होज्जा', भण्णइ-फयाई हेवा कयाई स्वरि होति कदाई तुल्लाई, तेण सदाऽनियतत्वान् ण णिरुचकालं तापमाणति ण तरिइ वोत्तुं, आह-कह मुकाई अणंताई भवंति उरालियाई १, जदि ताव |
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१३८
१४२]
गाथा
||१०७
११२||
दीप
अनुक्रम
[२७९
२९२]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१३८-१४२ ] / गाथा [ १०४-११२] .....
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्ती ॥ ८९ ॥
उरालियाई मुकाई जाव अधिकलाई ताव घेप्यंति, तो तेसिं अनंतकालवल्याणाभावतो अणतत्तणं ण पावर, अह जे जीवेहिं पोम्गला ओरालियक्षेण चेतुं मुक्का तीतद्वार तेसिं गद्दणं, एवं सब्बे पोधाला गहणभावावण्णा, एवं जं तं भण्णति अभवसिद्धी एहिंतो अनंतगुणा सिद्धाणमअंतभागोत्ति तं विरुझति, एवं सब्वजविहितो बहुए अतत्तं पावति, आयरिय आह ण य अविकलाणामेव केवलाण गहणं एतं. य ओरालियगद्दणमुक्काणं सव्यपोग्गलाणं, किंतु जं सरीरमोरालियं जीवणं मुकं होति तं अणतभेदभिष्णं यो ति जाव ते य पोम्पला तं जीवजिब्बत्तियं ओरालियं ओरालियसरी रकायप्पओगंण मुयंति, ण जाव अण्णपरिणामेण परिणमंति, ताब ताई पत्तेयं २ सरीराई भण्णंति, एवमेकेक्स्स ओरालियसरीरस्स अनंतभेदभिण्णत्तणओ अनंताई ओगलियस राई भवंति तत्थ जाई दब्वाई तमोराडियसरी रप्पओगं मुवंति ताई मोतुं सेसाई ओरालियं चैव सरीरतेोवचरिज्जति कहे ?, आयरिय आह-लवणादिवत् यथा लवणत्य तुला ढककुडवादिष्वपि लवणोपचारः एवं यावदेकसर्करायामपि सैव लवणाख्या विद्यते, केवलं संख्याविशेषः, एवमिहापि प्राण्यंगैकदेशेऽपि प्राण्यंगोपचारः लवणगुडादिवत् एवमन तान्यैौदारिकादीनि त्राह कथं पुनः तान्यनन्त लोकप्रदेशप्रमाणान्येकस्मिन्नेव लोके अवगात इति, अत्रेोच्यते, यबैकप्रदीपार्थिव भवनावभासिन्येषामव्यतिहूनां प्रदीपानामपिस्तत्रैवानुप्रविशत्यम्योअन्याविरोधात् एवमोदारिकान्यपीति एवं सर्वशरीरेष्वप्यायोज्यनिति, अन्नाह किमुत्क्रमेण कालादिभिरुपसंख्यानं क्रियते ?, कस्माद् द्रव्यादिभिरेव न क्रियते, कालान्तरावस्थायित्वेन पुलानां सरीरोपचया इतिकृत्वा कालो गरीयान् तस्मा उदादिभिरुपसंख्यानमिति । ओरा लियाई ओहियाई दुबिहाईपि, जयाई ओहियओरालियाई एवं सव्वेसिपि एगिंदियाणं भाणियब्वाई, किं कारणं ?, हे ओरालियाईपि ते भेव पच्च बुरुचंति ।
~ 226~
मुक्तौदारिकाणि
।। ८९ ।।
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१३८
१४२]
गाथा
||१०७
११२||
दीप अनुक्रम
[२७९
२९२]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१३८-१४२ ] / गाथा [ १०४-११२] .....
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि, वृत्ती
॥ ९० ॥
'केवतिया णं मंते वेडव्यिय' इत्यादि, वेडब्विया बोल्डया असंखेज्जप्पदेसरासिप्पमाणमेत्ताई, मुक्ताई जहोरा लिया। 'केवइयाणं मेते! आहारग' इत्यादि, आहारगाई बढाई सिय अस्थि सिव णत्थि, किं कारणं, जेण तरस अंतरं जहणेणं एवं समयं उकोसेणं छम्मासा, तेण ण होंतिषि कदाई, जदि हाँवि जणं एकं वा दो वा तिष्ण वा उपोसेण सहस्वपुत्तं, दोहिंतो आढत्तं पुत्तमण्णा जाव णव, मुकाई जह ओरालियाई मुकाई 'केवइयाणं भंते! तेयासरीरा पण्णचा?' इत्यादि तेया पद्धा अनंता अनंताहिं उस्सप्पिणीहिं, कालपरिसंखाणं, सेतओ अनंता लोगा, तो सिद्धेहिं अनंतगुणा सब्वजीवाणंतभागूणा, किं कारणं अनंताई?, तस्सामीणं अणन्ततणतो, आइ ओरालियापि सामिणे अणता ?, आयरिओ आह-ओरालिय सरीरमणवाण एवं भवति, साहारणत्तणओ, तेयाकम्माई पुण पत्तेयं सव्वसरीरीणं, तेयाकम्माई पच्च पत्तेयं चैव सब्बजीवा सरीरिणो, ताई च सम्बसंसारीणंति का संसारी सिद्धेहिते ऽगन्तगुणा हाँति, सन्यजीवाण अणन्तभागूणा, के पुण ते १, ते चेव संसारी सिद्धेहि ऊणा, सिद्धा सब्वजीवाणं अनंतभागो जेण तेण उणाऽवभागूणा भवंति, मुकाई अणताई, अनंतादि उस्सप्पिजीहिं कालपरिसंखाणं, खेतओ अनंता, दोषि पूर्ववत् दन्यतो सम्बजीवेहिं अनंतगुणा, जीववम्गस्स अणतभागो, कहं सवजीवा अणंतगुणा?, जाई ताई तेयाकम्माई मुकाई ताई तहेब अनंतभेदभिण्णाई असंखेज्जका उवत्यादणि जीवेदितोऽणतगुणाई हवंति, केण पुण अणंतरण गुणिताई? तं चैव जीवाणंतरां सेणेव जीवाणंतरण गुणियं जीववग्गो भण्णति, एत्तियाई होज्जा ?, आयरिय आह-एत्तियं ण पावति, किं कारणं ?, असंखेज्जकाछावत्थासणओ दिव्याणं, तो किरियाई पुण हवेज्जा ?, जीववग्गरस अणतभागो, कहं पुण एतदेवं घेशवं १, आयरिय आठवणारासीहिं निदर्शनं कीरह, सब्बजीवा इस सहरबाई बुद्धीए घप्पंति, तेसिंग्गो इस फोडीओ हवंति, सरीराई पुण दससयसहरसाई बुद्धीए अवधारिांति, एवं किं जाते?, सरीरयाई जीवेहिंतो सवगुणाई जाताई, जवियग्गस्स सतभागे संयुत्ता, गिरिसणमेतं इद्दरदा सम्भावतो
... अथ 'वैक्रिय' शरीर अधिकार: मध्ये नारकाणां आदिनां वैक्रियशरीराणां वर्णनं
~ 227 ~
वैक्रियाहारकतेजसकार्मणानि
॥ ९० ॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
.......... मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
रावैत्रि
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
अनु: हारच ॥९ ॥
एते तिषिणवि रासी अणंता बहव्या, एवं कम्मयापि, वस्स सहभावितणओ तत्तुसंखाई भनि, एवं ओहियाई पंच सराई भणिता णेरहयाणं भंते।' इत्यारिबिसेसिय णारगाण बेडब्धिगा बद्धेल्लया जाव.या एव पारगा, ते पुण असंखाना, असंखेज्जाहिं उत्सपिणीहिं बाल-161 प्पमाणं, खेतमओ असंखेम्जाओ सेवीओ, ता6ि पदेसमेचा गारगा, आह-पयरमि अखग्जाओ सेढीओ, आयरिय आह-सयलपयरसेटीओ ताव । न भवंति, जदि होतीओ तो पयर बेच भण्णति, आद-सो ताओ मेडीयो कि देसूपयरवत्तिणीओ होजा, तिभागचठभागवतिणीओ होजा?. जाब सेतीओ पतरस्स असंखेजतिभागो, एवं पिरोसियवरं परिसंखाणं काय होति, अदवाइयमण्णं विसेमिततरं विक्संभसूईए एपर्सि खाणं | भण्णति, भणइ-तासि ण सेढीण विक्खंभसूई अंगुलपढमयाभूखं वितियबम्गमूलोपाइयं तावइयं जाव असंखेम्जाइसमितस, अंगुलविक्खंभखेत
बत्तिणो सेढीयसिस्स जं पक्षमं वगमूलं तं विविएण वगमूलेण पप्पातिजवि, एवइयाओ सेढीओ विक्खंभसूई, अहवा इयमण्णेणपगा| रेण पमाणं भण्णइ-अहवा तभंगुलपिनियवगमूलघणप्यमाणमेत्ताओ, तस्से चंगुलपमाणसेत्सवत्तिणो सेदिरासिस्स जं वितियं वग्गमूलं तस्स जो घणो एवतियाओ सेढीओ विक्खभसूरी, सालिणं सेवाण पएसयसिप्पमाणमेसा नारगा, तस्स सरीराई च, तेनिपुण ठवणंगुळे जिदारसणदो छप्पण्णाई सेडिवग्गाई अंगुळे बुद्धीए घेप्पंति, नस्ल पढम वगमूलं सोलस, बिनियं चचारि, तइयं दोषिण, तं पढ़मं सोलसयं वितिएण चउक्करण वगमूलेण गुणिये पडसट्ठी आया, वितियवगामूलस्स चउकयस्त पणा चेव चउसट्ठी भवति, पत्य पुण गणितधम्मो अणुयत्तिओ होति, जदि बहुयं योवेण गुणिज्जति, तेण दो पगारा गुणिता, इहरथा तिगिवि हवंति, इमो तइओ पगारो-अंगुलवितियवग्गमू पढमवग्ग- * मूळपडप्पणं, पोदशगुणाश्चत्वार इत्ययः, एवंपि सा चेव चउसट्ठी भवति, एते सध्ये रासी सम्भावतो असंखेज्जा दहाव्या, एवं ताई नारगयेउब्वियाई खाई, मुकाई जहोहियओरालियाई, एवं सब्बास सरीरीणं सबसरीराई मुसाई भाणियब्वाई, वास्सइतेयाकम्माई मोत्तुं,
॥९
॥
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
......... मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
HASHNE
श्रीअनु देषणारगाणं तेयाकम्माई दुविहाईपि सहाणवेसध्वियसरीराई, सेसाणं षणस्सनिवजाणं सदाणारालियसारसाई । इवाणिं जस्स ण भणिय
दाना
क्रियाणि हाार.वृत्ताद भणीहामो-'असुररुमाराणं भंते प्रत्यादि, असुराण वेचब्बिया बद्धेल्लया असंखेाजा, असंगाहिं पसप्पिणीहि कालओ, सहेव खेत्तओ असं-IC ।। ९२॥
खेग्जाओ सेतीओ पतरस्स असंखेजतिभागो, तामिण सेढीण विक्वंमसूई अंगुलपदमवग्गमूलस्म संखेजतिभागो, तस्स गं अंगुलविक्खंभखेतवत्तिणो सेलिरासिस्स जैसे पदम वमामूल तत्व जामो सेवीओ तासिपि संखेजतिभागो, एवं नेरहपहितो संखेज्जगुणहीणा विक्वंमसूड़े भवति, जम्हा महादवि असंखाजगुणहीणा सम्वे चेष भुवणवासी रवणष्पमापुढपिनेरहमदिलोवि, किमु न सध्याहतो १. एवं जाच थणियकुमाराणंति, पुढविआउतेजस उपडाज कंटा भाणियब्वा । 'बाउकाइयाणं भंते !' इत्यादि, वाउकाइयाण बेडब्बिया बदेल्लया। असंखज्जा, समए समए अवहीरमाणा पलिओवमस्त असंखेजविभागमेणं कालेणं अवहींमंति, जो चेवणं अवाहिता सिया, सूर्य, कई पुण पलिओवमरस असंखेज्जतिभागसम यमेत्ता भति', आयरिय आह-वासकाइया पब्विहा- मुहुमा पजत्ताऽपरजचा, पादरावि व पजत्ता | अपउजत्ता, तत्थ सिण्णि रासी पत्तेय असंखज लोगप्पमाणपदेसरातिप्पमाणमेना, जे पुण बाग पञ्जत्ता पनरासंखेजतिभागमेता, ४ा तत्थ ताव दिई रासीणं वेउब्वियलबी व णरिथ, पायरपाजताणपि अखजतिभागंभतार्ण बद्धी अस्थि, जेलिपि सही अस्थि तओवि ||
|पटिओषमाऽससेग्नभागसमयमेचा संपर्य पुषहासमा अधिवकनिगो, केई भनि-सम्बे घेषिया बायंति, अवेरब्बियाणे वाणं चेवर। Mण पवत्तहान, ण जुजति, किं कारण ?, जेण सम्बेसु चेच लोगादिसु चळा पायो विति, सम्हा अवेडग्वियावि बार्ततीति घेच, TM॥९२ ।। ४ सभावो ते से बाईबब्ब, 'वणफडकाइयाण' मित्यादि कैसा ।।
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
।
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१३८-१४२ / गाथा [१०७-११२] ... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
दीनां
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
श्रीअनु:
'बदियार्ण मंत!' इत्यादि, विओरालिया बजेशपा असंबिनाहि जस्मपिणीओसप्पिणीहि काळपमाणे चव, खेत्तओ असंख- दीन्द्रि हारि.वृत्ताजाओ सेटीओ, नहेब पयरस्म असंखग्ज इभागो, केवल विसंगसूईए विसेमो, विक्वंभसूई असंखात्राओ जोयणकोडाफोडीआत्ति विससित
परं परिसंखाणे, अहवा इदमणं विससिततरं-असंखेमाई सेटिवगमूलाई, कि भणितं होति?, एफकाए सेदीए जो पदेसरासी पढर्म बग्गमूलं विवियं तस्ये जाव असंखेज्जाई वगमलाई संकलियाईजो पाएसरासी भवति तापमाणा विक्खंभई पेपियाणं, णिदरिसणं-सेढी पंचसहिसहस्साई पंच सयाई छत्तीसाई पदेसाणं, तीसे पढमं वगमूलंबे ससा छप्पण्णा बिनियं सोलस तइयं चत्वारि चउत्थं दोषण, एवमेताई वगमू-14 लाई संकलिताई दो सता असत्चग अवंति, एवइया पदेसा, तामिण शीर्ण चिक्खंभसूईए, ते सम्भावा असंखजा बरामूलरासी पवेयर पत्तेयं घेत्तया । इदाणि इमा मग्गणा-किपमाणाहिं ओगाहणाहि रइजमाणा येदिया पवर पूरिनु ?, ततो इमं सु बेईदियाणं ओरा-11 लियबद्धालयेहि पयर अवहीरति असंखज्जाहिं उत्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालओ, तं पुण पतरं अंगुलपतरासंपेजभागमेशाहि ओगाहणाहि रइजनीहिं सब पूरिज्जति, तं पुण केवइएणं कालेणं रइजइ वा पूरावा?, भण्णति, असंखेजहि उस्सपिणीओसप्पिणीदि, कि पमाणेण पुण खेत्तकालावहारेणी, भण्गइ-अंगुलपतरस्स आवलियाए य असंखेजतिपलिभागेणं जो सो अंगुलपतरस्स असंखेजतिभागो एएहि पलिभागेहि हीरति, एस खेतावहारो, आह असंखेतिभागरगहणेण चव सिद्ध कि पलिभागम्यहणेणं', भणति एक वेदिय पति जो भागो सो एलिभागो, जं माणसं अवगाहोति, कालपलिभागी अवलियाए असंबैग्जनिभागो, एवेग आवलिआए विजयभागमेनेणं कालपलिभागे ||९३।। एकको खेचपलिभागो सोहि जमाणेहि सव्यं लोगपतरं सोहिग्जइ खेत्तओ, कालो असंखेम्जाहिं उत्सप्पणियोसपिणीविं, एवं पेइंदियोरा-1 लियाणं उभयमभिहितं संखप्पनाणं ओगाहणापमाणे च, एवं इंदियचाउरिदियपंचादयतिरिक्सजोणियाणवि भाणितव्याणि, पंपियतिरिवखवे
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१३८
१४२] गाथा
||१०७
११२||
दीप
अनुक्रम
[२७९
२९२]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१३८-१४२ ] / गाथा [ १०४-११२] .....
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृतां
॥ ९४ ॥
उब्वियबद्धेया असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं काळतो तब बेसओ असंखेज्जाओ सेढीओ पतरस्स असंखेज्जतिभागे विक्खंभसूई, णवरं अंगुलपटमबम्मा मूढस्त्र असंखेज्जतिभागो, सेसं जहा असुरकुमाराणं ।
मणुयाणं ओलिय वलया सिय संखेज्जा सिव असंखेज्जा, जहण्णपदे संखेज्जा, जत्थ सम्वथोवा मणुस्सा भवंति, आह-किं एवं ससमुच्छिमाणं गाणं अब तब्बिरहियाणी, आयरिय आह-ससमुच्छिमाणं गाणं, किं कारणं १, गम्भवमतिया णिच्चकालमेव संखेजा, परिमितक्षेत्रवर्त्तित्वात् महाकायत्वात् प्रत्येकशरीरवर्तित्वाच्य, तस्स सेतराणां महणं उक्कोसपदे, जहणपदे गम्भवतियाणं पेव केवळाणं किं कारणं? जेण समुच्छिमार्ण चम्बी मुहुत्ता अंतरं अंतोमुद्वत्तं च ठिवी, जण्णपदे संखेज्जत्तिभणिते ण णज्जति कयरंमि संवेज्जर होम्जा, मं विसेसं कारेति, जहा संखेज्जाओ कोढीओ, इणमण्णं विवक्षिततरं परिमाणं ठाणणिदेस पडुच्च वुहचति, कई ?, एकूणतीसङ्काणाणि, तो सामयिगाए सण्णाए णिसं कीरइ, जहा-विजमलपदं एबस्स उपरि चतुजमलपदस्य हेडा, किं भणितं होति ?, अई २ ठाणाणं जमलपदत्ति सण्णा सामयिकी, तिष्णि जमलपदाई समुदियाई विजमपदं अहवा इयं जमलपदं तिजमलपदं, एवस्स विजमखपदस्स उपरिमेसु ठाणेसु बहंति, जं भणितं च उबीसहं ठाप्पाणं उवरिं वरंति चचारि जमलपदाई मत्रजमलपदं अक्ष जमपदं २, किं तं १ बत्तीसं ठाणाई चरजमलपदं, एयस्स च जमलपदस्त हेहा वरंति मणुस्सा, अण्णेहिं विहिं ठाणेहि न पावंति जवि पुण बसीसं ठाणाई पूरंताई तो जमपदस्सर भण्णंति, तं ण पावंति तम्हा हेट्ठा भ्रांति, अदना दोण्णि बन्या जमउपदं भण्णति, छ बग्गा समुदिता तिजमलपदं, अथवा पचमचट्ट वग्गा वयं जमलपदं, अठ्ठ बग्गा पतानि जमलपदाई पजमपदं अड़वा सतमअट्टम वम्णा चत्थं जमलपदं, जेणं छष्टं वाण उवरिं वति सत्तममाणं च हेडा, तेण तिजमलपदस्स उचरिं चउजमलपदस्स देठ्ठा भण्णंति, संखे
••• अत्र "मनुष्याणां संख्यानां वर्णनं क्रियते
~231~
मनुष्याणां संख्या
1198 11
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
श्रीअनु हारिपची
यमल पदानि.
॥९५॥
a
माओ कोटीओ ठाणविसेसेणाणियानिवाउ । इदाणि विसेवियतरं कुठं संस्थाणमेव णिदिसाति, जहा 'अहवा अनं-छठवमो पंचमवमापदुप्पण्यो, पम्गा ठविखंति, तंजदा-एकास वग्गो एको, एस पुण बडी रहिओचिकाई बम्गो व ण भवति, तेण दोण्हं वग्गो पत्तार एस पढमो वग्गो, एतस्स बम्गो सोलस एस वितिओ वग्गो, एतस्य चम्गो चे सवा छप्पण्णा एस तईओ को, एवस्स वनो पहिलो सहस्माई पंच सताईछत्तीसाई एस चउत्थो बग्मो, एतस्स इमो बम्मो, तंजदा-चत्तारि कोटि सता अवणसिं च कोडीओ अक्षणावण्णं च सतसहस्साई सत्तट्ठी सहस्साई दो व सवाई छण्णुया, इमा ठवणा-४२५४९६७२९६ एस पंचमो बग्यो, एतस्म गाहाबो- पत्तारि य कोहिसवा अउणत्तीसं च होति कोडीओ | अउणापणं लक्खा सत्ताव व सरस्सा ॥१॥दो व सया छण्णाज्या पंचमवग्गो समासतो होइन एतस्य को वागो छहो जदोइ तं वोच्छ।२।। एयरस पंचमवग्नस्स इमो वग्गो होसि-एवं कोडाकोडिसयसहस्सं चतरासीह कोडाकोटि मास्था पत्तारि य कोडाकोटि सया सत्तहिमेव कोडीओ चत्तासंघ कोबि सतसहस्सा सस कोडिसहस्सा विणि य सयरा कोडीसता पंचाणई सत्तसहस्सा एकावण्णं च सहस्सा छकच सता सोलमुत्तरा,इमा ठपणा१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ एस बहो कम्मो, एतस्स गाहाओ 'लक्खं कोखाकोडीओ चतरासीई भवे सहस्सा । चत्तारि व सचट्ठा होति मया कोडिकोण ॥१॥ चोवाल क्खाई कोडीणं सत् चैव य सहस्सा | तिमि सथा सत्तारा कोडी होति णायब्वा ॥२॥ पंचाणउई लक्खा एकाक्ष्णं भवे सहस्साई। छस्सोळसुत्तर सया य एस बडो हवति वग्गो ॥३॥ एत्य य पंचावहिपओयर्ण, एस बठ्ठो वयो पंचमेण वग्गेण पदुप्पाइजति, पशुप्पाइए समाणे जे होह एवढ्या जहगणपदिया मणुस्सा भवंति, ते य इमे एवइया .९२२८११६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६, एपमेयाई अउणसिं ठाणाई एकइवा अण्णपरिता मणुस्सा । छ विष्णि२ सुष्णं पंचेव य नव यतिणि पत्तारि। पंचेच तिष्णि णव पंच सच तिष्णव॥१॥ चउछ दो घर
*
*-
॥९५॥
का
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
......... मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
श्रीअनुाएको पण दो छ एक्केक्कगो य अठेव । दो दो णव सत्तेव व ठाणाई उवरि हुताई ।।२।। अहवा इमो पढमक्खरसंगहो-छत्ति तिसु प्पण तिच
शनिवपंचमषष्टहार चाटा पत्तिण पसति तिच छदुचएप दुबएए अबे घेणस पढभक्खरसंगता ठाणा ||१॥ एते सण जिरभिक्षापा कोडीहि या कोडाकोडीहिं वत्तिकाला
| तेसिं पुण पुठ्यपुवंगेहिं परिसंखाण कीरति, परासीति सतसहस्साई पुन्वर्ग भण्णति, एवं एवइतेणं चेव गुणिवं पुर्व भण्णइ, संच इम-सत्तरि ॥ ९६ ॥
| कोडि सतसहस्साई छप्पणण्णं च कोडिसहस्साई, एवेण भागो हीरति, ततो इदमागतफलं भवति-एकारसपुवकोहीकोडीओ बावीस च पुव्व-18 कोडिसतसहस्साई चउरासीइंच कोडिसहस्साई अढ य सुत्तराई पुब्बकोडिसता एकासीईच पुष्वसयसहस्साई पंचाणज्यं च पुब्वसहस्साई तिष्णि य छप्पण्णे पुवसता, एयं भागलद्धं भवति, ततो पुव्वेहि भाग ण पयच्छइति पुच्वंगहि भागो हीरति, ततो इदमागतं फलं भवति-एक्कवीसं पुब्बंगसत्तसहस्साई सत्तरी य पुवंगसहस्साई उच्च एगूणसट्ठीइ पुब्बंगसताई, तो इदमण्ण वेगलं भवति, तेसीइ मणुयसतसहस्साई पण्णासं च मणुयसहस्साई तिणि य छत्तीसा मणुस्ससता, एसा जहाणपदियार्ण मणुस्साणं पुष्वसंखा, एतेसिं गाहातो-मणुयाण जहण्णपदे एक्कारस पुव्व कोडिकोडीओ। बावीस कोडिलक्खा कोडिसहस्सा य चुलसीई॥शा अहे व य कोडिसया पुवाण बसुत्तरा तओ होति । एक्कासीती लक्खा पंचाणउई सहस्साई ॥२॥ छप्पण्णा तिष्णि सता पुव्वाणं पुब्ववणिया अण्णे । पत्तो पुरुवंगाई इमाई अहियाई. अण्णाई ॥शालक्खाइ एक्कवीसं पुब्बंगाण सत्तरि सहस्साई । छच्चेवेगूणहा पुब्वंगाणं सया होति ॥४॥ तेसीति सयसहस्सा पण्णासं खलु भवे सह|स्साई । तिणि सया छचीसा एचनिया वेगला मणुया ॥५॥ एवं चेव य संखं पुणो अनेण पगारेण भण्णति विसेसोवलंभणिमित्तं, तंजहा-'अहवा। । अण्णं छष्णउतिछेदणदो य रासी' छन्नडई छेदणाणि जो देह रासी सो छण्णउतिछेदणदायी, किं भणित होति ?, ओ रासी दो वारा छेरेण छिज्जमाणो छिज्जमाणो ठण्णवति बारे छेद दे सकलरूवपज्जवसिन तत्तिया वा जहन्नपविया माणुस्सा, वत्तिओरालिया बढेहया, को पुण PM
AAD
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
॥९६॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [१३८-१४२ / गाथा [१०७-११२] ... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्रीअनु हारि वृत्ता
मनुष्य शरीर मान
प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
॥९७॥
रासी छनउतिषणतदाई होना?, भण्णइ-एस चेव छट्ठो वग्गो पंचमवग्गषदुप्पण्णो जइओ भाणतो एस बन्नति छेदणए देति, को पचआ,
भण्णइ--पढमवग्गो छिजमाणो दो छदणते देति बितिओ चचारिसइओ अट्ट चत्यो सोलस पंचमो बत्तीस बहो चसट्टी, एतसिपंचम| छहाणं वगाणं छेयणगा मेलिया छण्णाउति हवंति, कई पुण', जहा जो वग्गो जेण जेण वग्गेण गुणिज्जद सेसि दोण्हवि तत्व यणा लमंति, जहा विनियवरगो पढ़मेण गुणितो हिज्जमाणो छेदणे छ. देह, वितिएण सइओ बारस, तइएण चउत्थो गुणिओं चउवीस, चउत्थेण । पंचमो वग्गो गणितो अडयालीस छेदणे दे, एवं पंचमएणवि छठ्ठी गाणिओ छण्ण र ठेवणए देइति एस पश्चओ, अहवा रूवं ठवेऊण तं छण्ण उतिवारे दुगुणादुगुणं कीरइ, कतं समाणं जइ पुठवभणितं पमाणं पावद तो छेज्जमाणपि ते चेव छेदणए दाहित्ति पञ्चओ, एतं जहण्णपदेऽभिहित, उक्कोसं पदं इदाणि, तत्थ इमं सुसं 'उकासपदे असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अबहीरति कालओ खिचओ रूवपक्वित्तेहिं गणूसहि सेढी अबहीरति, कि भणित होइ ?, उफोसपदे जे मंणूमा हवंति तेसु एकमि मणुसरूवे पक्खित्ते समाणे तेहि | मणूमेदि सेढी अवहीरति, तसे य सेढीए कालखेत्तेहिं अबदागे मगिजसि, कालतो ताव असंखेजाहिं उस्सपिणिओसप्पिणीहि, खेत्तओ अंगलपटर्म वामूलं तश्यवामूलपहुप्पण्णं, कि भणितं होसि-तीसे सेटीए अबहीरमाणीए जाव जिट्राइ वाव मणुस्सावि अवहीरमाणा णिऎति,12 कहमेगा सेढी एदहमेत्तेहि खंडहिं अबहीरमाणी २ असंखेज्जाहि उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवदीरति , आयरिओ आइ- सत्तःतिमुहुमत्तणओ, सुसे व भणितं- 'मुहुमो य होइ कालो ततो मुहुमवरयं हवति खेतं । अगुलसेलीमेले उस्सप्पिणीओ असंखा ॥१॥
H बेवियरद्धेलया समए २ अबहीरमाणा असंखेवजेणं कालेणं अवहीरंति, पाठसिद्धं । आहारवणं जहा ओहियाई। 'वाणमंतर' इत्यादि वाणमंतरखेउब्धिया असंखेमा असोजादि रोगपिणि प्रस्सपिणीहि अबद्दीरति तद्देव से जाओ सेदीओ राहेव विससो, तासिणं सेढीण
॥९
॥
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [१३८-१४२] / गाथा [१०७-११२] .... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [१३८१४२] गाथा ||१०७११२||
मानं
श्रीअनुविक्वंमसू, कि वक्तव्येति याक्वशेषः, कंठ, कि कारणी, पंचेदियतिरियओरालियसिद्धरणओ, जम्हा महाबए पंचदियातिरियणपुंसहितो वैक्रिय हारि.वृत्ता असंखेन्जगुणहीणा वाणमंतरा पदिज्जति, एवं विसभसूतीवि तेसिं तो सेहितो असंखेजगुणहीणा चेव भाणिवघ्या । इदाणिं
शरीरि॥ ९८॥
पलिभागो-संखेजजोवणसतबापलिभागो पतरस्स, जे भणितं संजजोयणवम्गमेते पलिमागे एकके वाणमंतरे ठविग्जति, सम्मेत्तपलिभागण पेष अवहीर तित्ति । 'जोइसियाण' भिस्यादि, जोइसियाण वेचब्बिया पबेल्ख्या असंखिजा असंखिताहिं यस्सपिणीओसपिणीहि अवहीरति कालतो, पेचओ असंगजामो सेढीओ पयरस्त असंविग्यतिभागोति, तहेव सेलियाण सेड़ीण विक्खंभसूई, किं वक्तव्येति वाक्यशेषः किं चात? भूयते जम्हा वाणमंतरेहिंसो जोइसिया संखिज्जगुणा पदिम्जंनि सम्दा पिक्संभसूषिवेलि सेदितो। संखेजगुणा चेव भण्णा, णवरं परिभागविसेसो जहा बेछप्पण्णगुलसते वगपलिभागो पतरस्स, एबतिए २ पलिभागे ठपिनमाणो एकको जोइसिओ सम्वेहिं सव्वं पतरं परिग्जइ बहेष सोदिग्मतिथि, जोइसियाणं याणमंतेरहितो असीखज्जगुणहीणो पलिभागो संखेम्जगुण बहिया। सूई । 'माणिय' इत्यादि, वेमाणियाण पब्बिया पद्धेल्ळया असंखेज्जा कालो तहेव खेतओ असपेजतिभागो, वासि सहीण विक्खभः। अलवितियवग्यमूलं तश्यवग्गमूलपापण्णं, अहवा अन्नं अंगुलिनईयवामूलघणपमाणमेचओ खेदीओ सहेय, अंगुलविक्खंभवेत्तवत्तिणोला सेदिरासिस्स पदमवग्गमूल रितियंतइवचनत्य जावं असंखंज्जाइंति, तेसिपि जे वितिय वगमूलसेदिपवेसरासिस (तं नइएण) पगुणिज्जति
गुणिते हो तत्तियाओ सेढीओ विक्रम भवति, पइयस्स वा वग्गमूलस्स.ओ घणो एथतियानो या विक्वंभई, निदरिमणं तहेव, राबडप्पण्णसतमंगालेतस्स पढमवगमूल सोलस, वितिय नपण गुणितं अट्ट भवति, तस्य वितिएण गुणित, ते च अट्ट, ततियस्सवि घणो, सोऽशविते अह एव, एया सम्माव ओ असंखेगा रासी दहव्वा, एवमेयं वेमाणियापमाणं णेश्यप्पमाणाओ असंखिजगुणहाणं भवति, ATM
दीप अनुक्रम [२७९२९२]
EGRANEER
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१४३-१४४] / गाथा [११३-११५] ... - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४३१४४] गाथा ||११३११५||
श्रीअनु० कारणं', जेण महादंडए वेमाणिया एहितो असंसेज्जगुणहीणा चेव भण्णति, एतेहिखो व णेशया असंखिवजगुणभहिअन्तिभाव प्रमाणे हारि वृत्ती जमिहं समयविरुद्धं बद्धं बुद्धि (खि) विकलेण होजाहिजिणवयणबिहन्नू खमिकणं मे पसोर्षितु ॥ १॥ सरीरपदस्म चुण्णी जिण मह- मेदाः
लाखमासमणकया समचा, से ते कालप्पमाणेति, उक्तं कालप्रमाणं ।। ॥ ९९ ॥
साम्प्रतं भावप्रमाणमभिषिमुराह-से किं तं भावप्पमाणे' इत्यादि (१४३-२१०) भयनं भूतिवा भावो वर्णादिवानादि, प्रमिति: प्रमीयतेऽनेन प्रमाणोतीति वा प्रमाण, सत्तरच भाव एवं प्रमाणं भावप्रमाण, त्रिविध प्रज्ञप्तं (१४४-२१) तयथा-ज्ञानमेव प्रमाणं तस्य वाप्रमाण ज्ञानपमाणं, गुणप्रमाणमित्यावि, गुणनं गुणः स एव प्रमाणहेतुत्वाद् द्रव्यप्रमाणात्मकत्वाकच प्रमाणं, प्रमीयते गुणद्रव्यमिति, तथा नीतयो नयाः अनन्तधर्मात्मकस्थ वस्तुन एकांशपरिच्छिचयः तविषया वा ते एव वा प्रमाणं णयप्रमाण, नय समुदायारमकत्यादि स्यावादस्य समुदायसमुदायिनोः कथंचिवभेदेन नया एवं प्रमाण नयप्रमाणं, संख्याप्रमाणं नयसंख्येति वाऽन्ये, नयानां प्रमाणं नवप्रमाणमितिकृत्वा,
संख्यानं संख्या सैव प्रमाणहेतुत्वासषेदनापेक्षया स्वतस्तदात्मकत्वारच प्रमाण संख्याप्रमाणं, आह-संख्या गुण एक, यत उक्तं-'संख्यापरिDIमाण इत्यादि, तस्विमर्थे भेदाभिधानमिति', उच्यते, प्राकृतशेल्या रमानश्रुतावप्यनकार्थताप्रतिपादनाथ, यक्ष्यति च भेदत: संख्यामप्यधित्यानेकार्थतामिति, शेषं सूत्रसिद्ध याबदजीवगुणप्रमाणं । जीवगुणप्रमाणं विविध प्रज्ञतं, ज्ञानगुणपमाणमित्यादि, सानादीनां शानदर्शनयोः सामान्येन सदनित्यात चारित्रस्यापि सिध्याच्यफलापक्षयोपचारेण तद्धावा
वर्तिनो गुणाः सहवर्सिन: पर्याया इत्येतदव्यापकमेय, परिस्थूरदेशनाविषयत्वान् , भावस्ता क्षणमिति न दोषः। 'से कित' मित्वादि, अथ कि द्रवज्ञानगुणप्रमाण?, तज्ञानगुणप्रमाण पतुर्षिध प्रक्षप्त, तद्यथा-प्रत्यक्षमित्यादि, तत्र प्रतिगतमक्षं प्रत्यर्थ, अनुमीयवेऽनेनेत्यनुमान, उपमीयतेऽने
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दीप अनुक्रम [२९३
२९७]
Es.
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
.......... मूलं १४३-१४४] / गाथा [११३-११५] .... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४३१४४] गाथा ||११३११५||
श्रीअनु०का नेत्युपमान, गुरुपारम्पयेणागच्छत्तीत्यागमः । अथैत व्याचष्टे-अथ किं तत्प्रत्यार, प्रत्यक्षं विविध प्रक्ष, नपपा-इंद्रियप्रत्यक्षं च नादंद्रियपरयक्षं का जायज्ञान हारि वृत्ताला
च, सत्रेन्द्रियं-मोत्रादि, सन्निमित्तं यदलनिक शब्दाविज्ञान सार्वद्रियप्रत्यक्षं व्यावहारिक,नोईद्रिय प्रत्य तु यदात्मन एवालिङ्गिकमवध्यादीनि गुण ॥१०॥ समासार्थ, व्यासार्थस्तु नंद्यध्ययनविशेष विवरणादवायसेयः, अक्षराणि तु सुगमान्येव यावत्प्रत्यक्षाधिकार इति । उक्तं प्रत्यक्षं, अधुनाऽनुमान
मान च मुच्यते-तथा चाद-से किसं अणुमाण?' अनुमानं त्रिविधं प्रशान, तयथा-पूर्ववत शेषवत इष्टमाधय॑वति । से कितं पुष्यवमित्यादि, विशेपत: पूर्वोपलब्ध लिभ पूर्वमित्युच्यते, तदस्यास्तीति पूर्ववत् , तद्द्वारेण गमकमनुमानं पूर्ववदिति भावः, तथा चाह-'माता पुत्' इत्यादि (११४. २१२) माता पुर्व तथा नई पालयावस्थायां युवानं पुनरागतं कालान्तरण काचिन स्मृतिमवी प्रत्यभिजानीयात् मे पुत्रोऽयमित्यनुभिनुपात पूर्वलिगेनोक्तस्वरूपेण केनचित, यथा-'क्षतेन वे' यादि, मरपुत्रोऽयं तद साधारणलिंगक्षतोपलमध्यन्यथानुपपत्ते, साधयेवैधयंदृष्टान्तयोः सत्ततराभावाचयमहेतुरिनि रेन, न, हेनोः परमार्थनकलक्षणस्थान तत्प्रभाक्त एवमत्रोपलब्धेः, उक्तं च न्यायवादिना पुरुषचंद्रेण-"अनाथानुपपन्नत्वमा हेतोः स्वलक्षणम । सच्चारुवे हि त हर्मो, दृष्टान्तजयलक्षणः ॥ १॥ तदभाबेसराभ्यां तयोरेव स्खलक्षणायोगादिति भावना, तथा 'धूमादेर्यथापि स्यावां, सत्यासत्त्वे च लक्षणे । अन्यथानुपपन्नस्वानाधान्याजमणकता ||२|" किंच-"अन्यथानुपपन्नत्वं, यत्र तत्र येण किम? इत्यत्र बहु बक्ता, नपच प्रन्धविस्तरभयादन्यत्र च यत्नेनोकरवानाभिधीयत इति । प्रत्यक्षविपयत्वादेवस्यानुमानत्वकल्पनमयुक्त, न, पिण्डप-1* सिक्दित्तावपि पुत्री न पुत्र इति संदेहान पिंडमात्रस्य च प्रत्यक्षविषयत्वान मत्पुत्रोऽयमिति चाप्रतीते; मलिकखादिति कृतं प्रसंगन, प्रकृतं प्रस्तुमः, नवं क्षतमागन्तुको प्रण: लाञ्छनं मसतिलकाः प्रीतास्वदेसत्यूपवदिति । 'से कि सेसव' मित्यादि, उपयुक्तायोऽन्यः स सेप इति कार्यादि ॥१०॥ गृह्यते, तदस्याम्तीति शेपत्र, भावना पूर्ववदिनि, पंचविध प्रज्ञम, तद्यथा 'कार्येणे' स्यादि, तत्र कार्थक कारणानुमानं यथा इय:-अश्व: हिसितेनर
का
दीप अनुक्रम [२९३२९७]
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१४३
१४४]
गाथा
||११३
११५||
दीप अनुक्रम [२९३
२९७]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१४३-१४४] / गाथा [ ११३ ११५ ] ..... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५] चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि वृत्ती
॥१०१॥
शब्दविशेषेणानुभिन्वत इत्यध्याहारः, तत्कार्यत्वासितस्य, एवं शेपोदाहरणयोजनापि कार्येति । तथा कारणेन तंतवः पटकारणं (न) पट तंतुकारणमित्यनेनैतत् ज्ञापयति-कारणमेव कार्यानुमापकं नाकारणं, पटः तन्तूनां तत्कार्यत्वात्तस्य, आह- निपुणवियोजने तत एव तंतुभावास्पटोऽपि तन्तुकारणामिति, ननु तत्त्वनोपयोगित्वाभावात्तदभाव एव तन्तुभावादिति, न, नैव पटोत्पत्तौ सर्वथैव तन्त्वभावस्तेषामेव तथापरिण| तिभावेनोपयोगात्, न चोथं पटपरिणाम एव तवः, तत्वेनोपयोगित्वाभावाद्भावे च पटभावेऽपि तंतुवत् पुनस्तंतुभावेऽपि पट उपलभ्येत न चोपलभ्यत इत्यतस्तंतवः पटकारणे, न पट: संतुकारणामिति स्थितं इदं च मेघोन्नतिः वृष्टिकारणं चन्द्रोदयः समुद्रः कुमुदविकासस्य चेत्याद्युपलक्षणं वेदितव्यं गुणेन सुवर्ण निकषेण, तगतरूपातिशयेनान्ये, सद्गुणत्वात्तस्य, एवं शेषोदाहरणयोजनाऽपि कार्या, अवयवेन सिंह दंष्ट्या तदवयवत्वात्तस्य, आह-तदुपलब्धौ तस्यापि प्रत्यक्षत एवोपलब्धेः कथमनुमानविषयता १, उच्यते, व्यवधाने सत्यन्यत
न दोषः एवं शेषोदाहरणयोजना कार्येति, नवरं मानुष्यादिकृतावयवोऽभ्यूल इत्येके, अन्ये तु द्विपदमित्येवमादिकमेवावयवममिद्धवि, मनुष्योऽयं तद्विनाभूत पदद्वयोपलम्भ्यन्यथानुपत्तेरिति, गोम्ही कर्णसृगाली, तथाऽऽभवेणा घूमेन, जत्राश्रयतीत्याश्रयो धूमो यत्र गृह्यते, अयं चाग्निकार्यभूतोऽपि तदाश्रितत्वेन लोकरूडेमेंदेनोक्त इवि, शेषोदाहरणयोजना सुगमा, तदेतच्छेषवदिति । 'से किं तं दिट्ठसाधम्म' मित्यादि, दृष्टसा धर्म्यवत् द्विविधं प्रज्ञतं, तद्यथा सामान्यदृष्टं च विशेषदृष्टं च तत्र सामान्यदृष्टुं यथा एकः पुरुषः तथा बहवः पुरुषा इत्यादि, सामान्यधर्मस्य तद्भावगमकत्वादिति विशेषदृष्टं तु पूर्वदृष्टपुरुषादि प्रत्यभिज्ञातं सामान्यधर्मादेव विशेषप्रतिपत्तेरित्यमुनाऽशेनानुमानता, ' तस्स समासतो ' इत्यादि, तस्येति सामान्येनानुमानस्य समासतः संक्षेपेण त्रिविधं ग्रहणं भवति, तद्यथा अतीतकालग्रहणमित्यादि, ग्रहण-परिच्छेदः, तत्राती तकालग्रहणं उद्भततृणादीनि दृष्ट्वाऽनेन दर्शनेन तदन्यथानुपपत्त्या साध्यते यथा सुदृष्टिरासीदिति, प्रत्युत्पन्नकालग्रहणं तु साधुं गोचरागतं भिक्षां
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अनुमान प्रमाणं
॥१०१॥
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१४३
१४४]
गाथा
||११३
११५||
दीप
अनुक्रम [२९३
२९७]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१४३-१४४] / गाथा [११३-११५] ....
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्तौ
॥१०२॥
प्रविष्टं 'विद्यर्हितं गृहस्थपारिष्ठापनिकया प्रचुरमापर्याप्तेः भक्तपानं यस्य स तथाविधं तं दृष्ट्वा तेन साध्यते सुभिक्षं वर्त्तत इति, अनागतका महणं अभ्रनिर्मलत्वादिभ्यः साध्यते भविष्यति सुवृष्टिरिति विशिष्टानाममीषां व्यभिचाराभावात् व्यत्ययः सूत्रं इत्युक्तमनुमानं 'से किं तं उम्मे इत्यादि, औपम्यं द्विविधं प्रज्ञतं, तद्यथा-साधम्योपनीतं च वैधम्योपनीतं च तत्र साधम्र्योोपनीतं त्रिविधं किंचित्साधम्र्म्यं प्रायः साधर्म्य सर्वसाधर्म्यं, किंचित्साधम्र्म्यं मन्दर सर्पपादीनां तत्र मंदरसर्वपयोर्मूर्तत्वं समुद्रगोष्पदयोः सोदकत्वं आदित्यस्वद्योतकयोः आकाशगमनोद्योतनत्वं चन्द्रकुंदयोः शुत्वं प्रायः साधयै तु गोगवययोरिति, ककुदखुरविषाणादेः समानत्वान्नचरं सकम्बलो गौवृत्तकंठस्तु गवय इति सर्वसाधर्म्य तु नास्ति, तदभेदप्रसंगात् प्रागुपन्यासानर्थक्यमाशंक्याह तथापि तस्य तेनैवोपम्यं क्रियते, तद्यथाऽहंसा अर्हता सदृशं तीर्थप्रवर्तनादि कृतमित्यादि, स एव तेनोपमीयते, तथा व्यवहारसिद्धेः, तदेतत्साधर्म्यापनीतं, वैधम्र्योपनीतमपि त्रिविधं किंचिद् वैधम्यों पनीतं किंचिद्वैधन्यै शाबलेयबाहुलेययोशिनमित्तत्वात् जन्मादित एव शेषं तुल्यमेव प्रायोवैधर्म्यं वाबसपावसयोः जीवाजीयादिधर्मवैधम्र्म्यात्सत्त्वाद्याभिधानवर्णद्वयसाधर्म्य चास्त्येव सर्ववैधर्म्यं एतत्सकलातीतादिविसदृशं तत्प्रवृत्यभावादतस्तदपेक्षया वैधर्म्यमिति तदेतद्वैधर्म्यापनीतमित्युक्तं उपमानं । 'से किं तं आगमें' त्यादि, नंद्यध्ययनविवरणादवसेयं याव से तं लोउत्तरिये आगमे' अहवा आगमे तिविहे पन्नते, तंजा-सुतागमे' इत्यादि, तत्र च सूत्रमेवागमः सूत्रागमः तदभिधेयवार्थोऽर्थागमः तदुभयरूपः तदुभयागमः, अथवा आगमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- आत्मागम इत्यादि, तत्रापरनिमित्त आत्मन एवागम आत्मागम यथाऽर्हतो भवत्यात्मागमः स्वयमेवोपलब्धेः गणधराणां सूत्रस्यात्मागमः अर्थस्यानन्तरागमः अनन्तरमेव भगवतः सकाशादपदानि श्रुत्वा स्वयमेव सूत्रप्रन्धनादिति, उक्त 'अत्यं भासइ अरहा सुत्तं गुषंति गणइरा विषण' मित्यादि, गणधर शिष्याणां जंबूयामिप्रभृतीनां सूत्रस्यानन्तरागमः गणधरादेव श्रुतेः अर्थस्य परंपरागमः गणधरेणैव व्यवधानात् तत ऊर्ध्व प्रभवाद्यपेक्षया सूत्रस्याप्यर्थस्यापि नात्माऽऽगमो
,
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औपम्य प्रमाणं
॥१०२॥
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आगम (४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
......... मूलं १४३-१४४] / गाथा [११३-११५] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४३१४४] गाथा ||११३११५||
श्रीअनुः नानन्तरागमः वलक्षणविरहात, किंतु परंपरागमः, इत्यनेन वैकान्सापौरुषेयागमव्यवच्छेदः, पौरुष वाल्यादिव्यापारजन्य, नभस्येव विशिष्ट
आगम हारि.वृत्तौ । शब्दानुपलब्धः, अभिव्यक्त्यभ्युपगमे व सर्ववचसामपौरुषेयत्वं, भाषाद्रष्याणां पदणाविना विशिष्टपरिणामाभ्युपगमाद्, पकं प-'गिण्डई या प्रमाणं
काइएणं णिसरति वह वाइएण जोगेण' मिस्यावि, कृतं विस्तरेण, निर्लोठितमेतदन्यत्रेति, सोऽयमागम इति निगमनं, सदेतत ज्ञानगुणप्रमाण । दर्शन ॥१०॥
'से किं तं दसणगुणप्पमाणे इत्यादि,दर्शनावरणकर्मक्षयोपशमादिजं सामाग्यमात्रग्रहणं दर्शन मिति उक्तं च "जं सामण्णाहणं भावाणं कटु नेयमाप्रमाणेच
आगारं । अविसेसिऊण अत्यं ईसणमिति बुधए समए ॥१॥"एतदेव आत्मगुणप्रमाणं च, इदं च चतुर्विध प्रज्ञा-चक्षुर्वर्शनादिभेदात्, तत्र चक्षुदर्शनं | | तावच्चक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमे द्रव्येद्रियानुपधाते च तत्परिणामवत आत्मनो भवतीत्यत आह-चक्षुदर्शनतः घटादिष्वर्थेषु भवतीति शेषः, अनेन |च विषयभेदाभिधानेन चक्षुषोऽप्राप्तकारितामाह, सामान्यविषयत्वेऽपि चास्व घटादिविशेषाभिधानं कथंचित् तदनन्तरभूतसामान्यख्यापनार्थ उक्तंच| 'निर्विशेष विशेषाणां, प्रहो दर्शनमुच्यते' इत्यादि, एवमचक्षुर्शनं शेपेंद्रियसामान्योपलब्धिलवणं, अचक्षुर्दर्शनिनः आत्मभावे-जीवभावे भवतीत्यनेन ४ श्रोत्रादीनां प्राप्तकारितामाह, उक्तंच.पुहूं सुणइ सई रूवं पुण पासती अपुढ तु' इत्यादि, अवधिदर्शन-अवधिसामान्यग्रहणलक्षणं अवधिदर्शनिनः सर्वरूपिद्रव्येषु, 'रूपिष्ववधे' (तत्वा.१ अ.२८सू.) रिति वचनादसबैपर्यायेविवि ज्ञानापेक्षमेतत्तु (त् न) दर्शनोपयोगिनः विशेषत्वात्तवापि तद्वेदका इत्युपन्यासः, केवलदर्शनं केवलिनः, (अन्यत्र) सामान्याऽग्रहणसंभवात् श्योपशमोडूबत्वात् , पठ्यते च विशेषग्रहणादर्शनाभाव इति, तदेतदर्शनप्रमाणं । 'से कि त चारित्तगुणप्पमाण' मित्यादि, चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं चयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रं, अशेषकर्म- ॥१०॥ क्षयाय चेष्टा इत्यर्थः, पंचविध प्राप्त, तच्च सामायिकमित्यादि, सर्वमप्येतदविशेषतः सामायिकमेव सत् छेदादिविशेषविशेष्यमाणमर्थतः | संज्ञात नानात्वं लभते, तत्रा विशेषणाभावात् सामान्यसंज्ञाशामेव चावतिष्ठते सामायिकमिति, तत्र सायद्ययोगविरतिमा सामायिक, तचे
दीप अनुक्रम [२९३२९७]
कस
|... अत्र 'प्रमाण'-अधिकार मध्ये 'चारित्र प्रमाणं वर्णयते
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
.......... मूलं १४३-१४४] / गाथा [११३-११५] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४३१४४] गाथा ||११३११५||
श्रीअनुत्व रं यावत्कथितं च, तत्र स्वल्पकाळामित्वरं, तवायचरमाईतीर्थयोरेवानारोपितत्रतस्थ शैक्षकस्य, यावत्कथाऽस्मनः तावत्कालं यावत्कथं, जाच-18 चारित्र हा जीवमित्यर्थः, वावत्कयमेव वावरकथितं तन्मध्यमाईतीर्थेषु विदेहवासिनां चेति । तथा दोपस्थापनम् , इस यत्र पूर्वपर्यायस्य छेदो महानतेषु ॥१०४॥ चोपस्थापनमात्मनः तच्छेदोपस्थापनमुच्यते, तभ साविचारं निरविचारं च, तत्र निरतिचारमित्वरसामायिकस्य शैक्षकस्य यदारोप्यते, यहा
तीर्थान्तरप्रतिपत्ती, यथा पार्श्वस्वामितीर्थाद्वर्द्धमानतीर्थ संक्रामतः, मूलपातिनो यत्पुनर्वतारोपणं तत्सातिचारम् , उभयं चैतदवस्थितकल्पे, नेतरस्मिन् । तथा परिहारः-तपोविशेषस्तेन विशुद्धं परिहारविमुद्ध, परिहारो वा विशेषेण शुद्धो यत्र तत् परिहारविशुद्ध, परिहारविशुद्धिकं चेति स्वार्थप्रत्ययोपादानात् , तदपि द्विधा-निर्विशमानकं निर्विष्टः कायो यस्ते निर्विष्कायाः स्वार्थिकप्रत्ययोपादानानिर्विष्टकायिकाः, तस्य वोढारः परिहारिकाश्चत्वारः चत्वारोऽनुपरिहारिकाः कल्पस्थितश्चेति नवको गणः, तत्र परिहारिकाणां निर्विशमानकं, अनुपरिहारिकाणां भजनया, निर्विष्टकायिकानां करूपस्थितस्य च, परिहारकाणां परिहारो जघन्यादि चतुर्थीदि त्रिविध तपः श्रीमशिशिरवर्षामु यथासंख्यं, जघन्यं चतुर्थे | षष्ठमष्टमं च मध्यम पष्ठमष्टमं दशमं च उत्कृष्टमष्टमं दशमं द्वादशं च, शेषाः पंचापि नियतभक्ताः प्रायेण, न तेषामुपवस्तव्यमिति नियमः, | भक्तं च सर्वेषामाचाम्लमेष, नान्यत् , एवं परिहारिकाणां षण्मासं तपः सत्प्रतिचरणं चानुपरिहारिकाणां, तत: पुनरितरेषां षण्मासं तपः, प्रति| चरणं चेतरेषां, निर्षिष्टकायानामित्यर्थः, कल्पस्थितस्यापि षण्मासं, इत्येवं मारष्टादशभिरेष कल्पः परिसमापितो भवति, कल्पपरिसमाप्तौ च त्रयी गतिरेषा-भूयस्तमेव कल्प प्रतिपयरन् जिनकल्पं या गणं वा प्रति गच्छेयुः, स्थितकस्पे चैते पुरुषयुगद्वयं भवेयुर्नेतरत्रेति । तथा सूक्ष्मसं
।।१०४॥ परायं, संपर्येति संसारमेभिरिति संपराया:-कोषादयः, लोभांशावशेषतया सूक्ष्मः संपरायो यत्रेति सूक्ष्मसंपरायः, इदमपि संक्किश्यमानक
4% 84-66-560-%2550
दीप अनुक्रम [२९३२९७]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
............ मूलं [१४५] / गाथा [११५] ....... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
PI प्रस्थक
प्रत सूत्रांक [१४५]]
गाथा
॥११५||
श्रीअनु: विशुध्यमानकभेदाद् द्विधैव, तत्र अणिमारोहतो विशुध्यमानकमुच्यते, ततः प्रच्यवमानस्य संक्लिश्यमानकमिति, तथा अथान्यातं, अत्यव्यय नयप्रमाणे हारि.वृत्तौ याधातध्ये, आममिविधौ, याथातध्वनाभिषिधिना वा ख्यात, सदेतद् गुणप्रमाण ।
से कि त णयप्पमाणे' इत्यादि (१४५-२२२) वस्तुनाऽनेकधर्मिण एकेन धर्मेण नयनं नयः स एव प्रमाणमित्यादि पूर्ववत् , विविधान्तः ॥१०५॥
प्राप्तमित्यत्र नैगमादिभदानयाः, ओघतो दृष्टान्तापेक्षया त्रिविधमेतदिति, तथा चाह-तद्यथा प्रस्थकदृष्टान्तेन, तयथा नाम कश्चित्पुरुषः परशु| कुठारं गृहीत्वा प्रस्थककाष्ठायाटबीमुखो गच्छेजा-यायात् , तं च कश्चित्तथाविधो दृष्ट्वा वस्-अभिदधीत क भवान् गच्छति , तत्रैव नयमतान्युच्यन्त, नत्राऽनेकगमो नैगम इतिकृत्वाऽऽह-अविशुद्धो नैगमो भगति-अभिधत्ते-प्रस्थकस्य गच्छामि, कारणे कार्योपचारात्, तथा व्यवहारदर्शनात् , तं च कश्चिम्विन्तं, वृक्षं इति गम्यते, पश्येत्-उपलभेत, दृष्ट्वा च वदेत्-किं भवान् छिनत्ति?, विशुद्धतरो नैगमो भणति-प्रस्थकं छिनशि,
भावना प्राग्वत, एवं तक्षन्तं-सनू कुर्वन्तं वेधन केन विकिरन्तं लिखन्त-लेखन्या स्रष्टकं कुर्वाण एवमेव-अनेन प्रकारेण विशुद्धतरस्य नैगमस्य तनामा उडियउत्ति-मामाहितः प्रस्थक इति, एवमेव व्यवहारस्यापि, लोकव्यवहारपरत्वात्तस्य चोक्तवद्विचित्रल्यादिति, 'संग्रहस्ये त्यादि, सामान्य-181
मात्रपाद्दी संग्रहः चितो-धान्येन ब्याप्तः, स च देशतोऽपि भवत्यत आह-मित:-पूरितः, अनेनैव प्रकारेण मेयं समारूद यस्मिन्नाहितामेराकृतिगणत्वात् सत्र का महणाम्मेयसमारूया, धान्यसमारूढ इत्यन्ये, प्रस्थक इत्यन्ये, अयमत्र भावार्थ:-प्रस्थकस्य मानार्थत्वाच्छेदावस्थामु च तद-12 भावायथोक्त एष प्रस्थकः इति, असावपि तत्प्तामान्यव्यतिरेफेण तविशेषाभावादेक एव, ऋजु वर्तमानसमयाभ्युपगमाइतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्न-1 ॥१०५॥ खेनाकुटिल सूत्रयति ऋजुलबस्तस्य निष्फण्णस्वरुपा क्रियाहेतुः प्रस्थकोऽपि प्रस्थको बर्वमानस्तस्मिन्नेव मानादि अस्थकस्तथा प्रतीले प्रस्थकोऽयमिति व्यमहारदर्शनात्, नहातीतेनानुत्पन्नेम वा मामेन मेयम वार्थसिद्धिरित्यतो मानमेये वर्तमान एष प्रस्थक इति हदयं, त्रयाणां शब्दनयाना
दीप अनुक्रम [२९८]
XKINAR
... अथ 'नय'प्रमाणं वर्णयते
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
............ मूलं [१४५] / गाथा [११५] ....... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
|
नये वसति दृष्टान्तः
प्रत सूत्रांक [१४५]
गाथा
॥११५||
श्रीजनु अमित्यादि, शब्दप्रधानत्वात् शब्दादयः शब्दनयाः,शब्दमर्वेऽन्यथावस्थित नेण्ठन्ति, शब्देनार्थ गमयन्तीत्यर्थः, आधास्तु अर्थप्रधानत्वादर्थनयाः,यथा- हारि.वृत्ती टाकथंचिच्छब्दनार्थोऽभिधीयते इति, अर्धन शब्द गमपन्तीति, अतोऽन्वर्यप्रधानत्वात् त्रयाणां शब्दसमभिरूढवम्भूतानां प्रस्थकार्याधिकारज्ञः । ॥१०६॥
प्रस्थका, वदव्यतिरिको ज्ञाता तलक्षण एवं गृह्यते, भावप्रधानत्वाच्छन्दादिनयानां, यस्य वा बलेन प्रस्थको निष्पद्यते इति, स चापि प्रस्थकशानोपयोगमन्तरेण न निष्पद्यत इत्यतोऽपि तज्ञोपयोग एव परमार्थत: प्रस्थकमितिच, अमीषां च सर्ववस्तु सात्मनि बरते भाम्यत्र, यथा | जीवे चेतना, भेयस्य मूर्तत्वादाधाराधेययोरनर्थान्तरत्या अर्थान्तरत्वे देशादिविकल्पैर्घश्ययोगान, प्रस्थका नियमेन शान तत्कर्ष काष्ठभाजने वर्तेत , समानाधिकरणस्यैवाभावादतः प्रस्थको मानमिति वस्त्वसंक्रमादपप्रयोग इत्योपयुक्तिविशेषयुक्तिस्तु प्रतीततन्मतानुसारतो वाच्येति, सदेतत्प्रस्थकदृष्टान्तेन । से किं तं वसहिदृष्टान्तेन, तपथा नाम कवित्पुरुष पाटलीपुत्रादौ वसंत कश्चित्पुरुषो वदेत्-का भवान वसतीति, अत्रैव नयमतान्युच्यन्ते, तत्र विशुद्धो नैगमो भणति-लोके वसामि, तन्निवासक्षेत्रस्यापि चतुर्दशरग्ज्वात्मकत्वालोकादनान्तरत्वात् (लोकवास )व्यवहारदर्शनात् , एवं तिर्यग्लोकजम्बूद्वीपभारतवर्षदक्षिणा भरतपाटलिपुत्रदेवदत्तगृहगर्भगृहेष्वपि भाषनीय, एवमुत्तरोत्तरभेवापेक्षया विशुद्धतरस्य नेगमस्य बसन बसति, तत्र नितीत्यर्थः, एवमेव व्यवहारस्थापि, लोकव्यवहारपरत्वान, लोके च नेह वसति प्रोपित इति व्यवहारदर्शनात् , संग्रहस्य विष्ठन्नपि संस्तारकोपगत:-स्तारकारूढः शयनक्रियावान् वसति, स च नयनिरूक्तिगम्य एक एव, जुसूत्रस्य येवाकाशप्रदेशेवगाढतेषु वसति, संस्तारकादिप्रदेशानां सदणुभिरेव व्याप्तत्वात् तत्रावस्थानादिकमुक्तं, अन्वर्थपरिमापितत्वं च पूर्ववत् , त्रयाणां शब्दनयानामात्मनो भावे वसति, स्वस्वभावाऽनपानव वन त्तिकल्पनात् तदपोहे खेतस्थावस्तुत्वप्रसंगादिति, तदेतत् वसतिदृष्टान्तेन ।' से किंत' मित्यादि, अथ किं तत्पदेशदृष्टान्तेनी, प्रकृष्टो देशः प्रदेशः, निर्विभागो माग इत्यर्थः, स एव दृष्टान्तस्तेन, नवमतानि चिन्त्यन्ते, तत्र
दीप अनुक्रम [२९८]
॥१०६॥
~243
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१४५]
गाथा
||११५||
दीप
अनुक्रम [२९८]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्तिः)
मूलं [१४५] / गाथा [११५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारिपृचौ
॥१०७॥
***
"
नैगमो भणति पण्णां प्रदेशः, तद्यथा-धर्मप्रदेशः अत्र धर्मशब्देन धर्मास्तिकायः परिगृह्यते तस्य प्रदेशो धर्मप्रदेश: एवमधर्मादिष्वपि योज्यं, याबद् देशप्रदेश इत्यत्र देशो व्यादिभागस्तस्य प्रदेश इति सर्वत्र पछी तत्पुरुषसमासः, सचापि सामान्यविवच्या एक विशेषविषक्षयाऽनेक इति, एवं वदन्तं नैगमं संप्रहो भणति यद् भणासि षण्णां प्रदेश: तन्न भवति, करमादू?, यस्माद्यो देशप्रदेश: स तस्यैव द्रव्यस्य तद्व्यतिरिक्कत्वादेशस्य, यथा को दृष्टान्त इत्याह-दासेन मे खरः क्रीतः दासोऽपि मे खरोऽपि मे तत्संबन्धित्वात् खरस्य, एतावता साधर्म्यं तन्मा भण षण्णां प्रदेशः, पस्य वस्तुतोऽविद्यमानत्वात् परिकल्पनेच प्रभूततरापत्तेः, भण पंचानां प्रदेश इत्यादि, अविशुद्धञ्चायं संग्रह:, अपरसामान्याभ्युपगमात्, एवं वदन्तं संग्रहं व्यवहारो भगति यद्भणसि पञ्चानां प्रदेशस्तन्न भवति न युज्यते, कस्मादू?, यदि पञ्चानां गोष्टिकानां किञ्चिद् द्रव्यं सामान्यात्मकं भवति तद्यथा दिरण्यं वेत्यादि एवं प्रदेशोऽपि स्यात् ततो युज्येत वक्तुं पञ्चानां प्रदेशः न चैतदेवं तस्मात् भण पञ्चविधः, पञ्चप्रकार : प्रदेशस्तद्यथा धर्मप्रदेश इत्यादि, इथं लोके व्यवहारदर्शनात् एवं वदन्तं व्यवहारमृजुसूत्रों भणति यणसि पञ्चविधः प्रदेशस्तन भवति, कस्माद् १, यस्माद् यदि ते पञ्चविधः प्रदेश एवमेकैको धर्मास्तिकायादिप्रदेशः शब्दभुतिप्रामाण्यात्तथाप्रतीतेः पञ्चविधः प्राप्तः एवं च पंचविंशतिविधः प्रदेश: इति, तत् मा भण पञ्चविधः प्रदेशः, भण भाज्यः प्रदेशः, स्वाद् धर्मस्येत्यादि, अपेक्षावशेन भाग्यः यो यस्यात्मयः स एवास्ति, परकीयस्य परधनवत् निष्प्रयोजनत्वात् खरविषाणवदप्रदेश एवेत्यतः स्वाद्धर्मस्य प्रदेश इति एवं ऋजुसूत्रं सम्पतं शब्द भणतिभाज्य: प्रदेशस्तन्न भवति, कस्माद् ?, यस्मादेवं ते धर्मप्रदेशोऽपि स्याद्धर्मप्रदेश इति विकल्पस्यानिवारितत्वात् स्यादधप्रदेश इत्याद्यापत्तेः अनवधारणादनवस्था भविष्यति, सन्मा मण भान्यः प्रदेशो भण-धर्मप्रदेशः प्रदेशो धर्म इत्यादि, अयमत्र भावार्थ:- धर्मप्रदेश इति धर्मात्मकः प्रदेशः, प्रदेश नियमात् धर्मास्तिका यस्तदव्यतिरिक्तत्वात्तस्य, एवमधर्माकाशयोरपि भावनीयं एवं जीवात्मकः प्रदेश: प्रदेशो नोजीव इति
राणी
~244~
नये प्रदेश
दृष्टान्तः
1120011
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आगम
“अनुयोगद्वार - चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः)
(४५)
.......... मूलं [१४५] / गाथा [११५] ..... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [१४५]
गाथा
॥११५||
श्रीअनुरवाव्यतिरिक्तोऽपि सकलजीवास्तिकायाव्यतिरिक्तत्वानुमपत्तेरनेकद्रव्यत्वानोजीवो जीवास्तिकायकदेश इत्यर्थः, एवं सम्धप्रवेशोऽपि भावनीय नये प्रदेश हारि.वृत्तो कि, एवं भणन्त साम्प्रतं शब्दे नानार्थशब्दरोहणान् समभिरून प्रति समभिरूळो भणनि-बद भणसि धर्मप्रदेशः स प्रवेशो धर्म इत्यादि तन्मे लादृष्टान्तः
भण, किमित्यत आइ-इह खलु बी समासौ संभवत:, तद्यथा-तस्पुरुषश्च कर्मधारयश्च, तन्न हायवे कवरेण समासेन भणसि, किं तत्पुरुषेण ॥१०८||
कर्मधारयेण वा ?, यदि तत्पुरुषेण भणसि तन्मैव भण, दोषसंभवादित्यभिप्राय:, दोषसंभव श्वार्य-धर्मस्य प्रदेशो धर्मप्रदेश इति भेदाऽऽपत्तिः, यथा राशः पुरुष इति, नेलस्य धारा शिलापुत्रस्य शरीरमित्यभेदेऽपि षष्ठी श्रूयत इति चेत् उभयत्र दर्शनासंशये एवमेव दोपः, अब कर्मधारयेण ततो विशेषतो-विशेषेण भण-धर्मश्चासौ प्रदेश इति समानाधिकरण: कर्मधारयः, अत एवाह-स च प्रदेशो धर्मस्तव्यतिरिक्तत्वात्तस्य, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, एवं भणन्तं समभिरूट एवम्भूतो भणति-यभणसि तत्तथा-तेन प्रकारेण सर्व-निर्षिशेष कृत्स्नमिति देशप्रदेशकल्पनावजितं प्रपूर्ण आत्मस्वरुपेणाविकलं निरवशेषं तदेवैकत्वानिरवयकं एकाहणगृहीत परिकल्पितभेदत्वादन्यतमाभिधानवालयं, देशोऽपि मे अवस्तु प्रदेशोऽपि मे अवस्तु, कल्पनायोगाद्, इदमत्र हृदयं-प्रदेशस्य प्रदेशिनो भेदो वा स्यादभेदोवा, यदि भेदस्तस्येति संबन्धो वाच्यः, स चातिप्रसंगदोषपदमस्तत्वादशक्यो वक्तुं, अथाभेदः पर्यायशब्दतया घटकुटशनवदुभयोरुच्चारणवैयर्य, तस्मादसमासमेकमेव वस्थिति, एवं निजनिजयचनीयसत्यतामुपलभ्य सर्वनयानां सर्वत्रानेकान्तसमये स्थिरः स्यात् न पुनरसद्माई गच्वेदिति, भणितं च-"निययवयणिज्जसमचार सब्बणया परबियालणे मोहा । ते पुण अपिट्टसमय वि भवंति सच्चे व अलिए वा ॥१॥ तदेतत्, प्रदेशष्टान्तेन नयप्रमाणं, तदेतत्रयप्रमाणं ।
से कितं संखप्पमाण' मित्यादि (१४६-२३०) संख्यावतेऽनयेति संख्या सैव प्रमाण, संख्या अनेकविधा प्रज्ञता, तद्यथा-नामसंख्ये- १०८॥ त्यादि, यह संख्याशखयोः ग्रहणं प्राकृतमधिकृत्य समानशब्दाभिधेयत्वात, गोशम्दन वागरश्म्यादिग्रहणवत्, उक्ताच-गोशब्द: पहाभूम्य
दीप अनुक्रम [२९८]
... अत्र 'संख्या प्रमाण'स्य भेदा: वर्णयते
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५)चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति
श्रीअनुः हारि.वृत्ती
प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८||
॥१०९॥
| शुवाग्विगप्रयोगवान् । मंदप्रयोगो पृष्ठ पेषुवकास्वर्गाभिधायकः ।।१।।" एतेषां च विशेषोऽर्थप्रकरणादिगम्य इति यो यत्र विकरुपे अर्थविशेषो । घटते स तत्र नियोक्तव्य इति । 'से किं तं नामसंखे' त्यादि सूत्रासिद्ध, यावत् 'जाणगसरीरभवियसरीरतव्वइरिने रब्वसंखे तिविहे |
संख्या | पण्णने इत्यादि, तद्यथा-एकभाविक उत्कृष्टेन पूर्वकोटी, अयं च पूर्वकोट्यायुरायुःक्षयात्समनन्तरं शक्खेषु उत्पत्स्यते यः स परिगृयते, अधि- गणन कतरायुषस्तेपु उत्पत्यभावात् , बदायुष्कः पूर्वकोटीत्रिभागमिति, अस्मात् परत आयुष्कबन्धाभावात्, अभिमुखनामगोत्रोऽन्तर्मुहर्गमिति
संख्या च अस्मात्परतो भावसंखत्वभावादिति, को नया के सखमिच्छतीत्यादि सूत्रसिद्धं, नवरं नैगमव्यवहारी लोकव्यवहारपरत्वात् त्रिविधं शवमिच्छतः, जूसूत्रोऽतिप्रसङ्गभवात् द्विविध, शब्दादयः शुद्धतरत्वादतिप्रसङ्गनिवृत्त्यर्थमेवैकविधमिति । औपम्येन संख्यानं औपम्यसंख्या, अनेकार्थत्वाद्धातूनामुपमार्थप्रधाना कीर्तना, परिच्छेद इत्यन्ये, इयं च निगदसिद्धा, परिमाणसंख्या-प्रमाणकीर्तना, बानसंख्यापि शानकीर्त्तनैव, वयमपि निगदसिद्धं । 'से कि तं गणणसंख्या' इत्यादि, एतावन्त इति संख्यानं गणनसंख्या, एको गणना नोपैति तत्रान्तरेण एत्थ संख्या | वस्त्वित्येव प्रतीते, एकत्वसंख्याविषयत्वेऽपि वा प्रायोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वादत आह-द्विप्रभृति: संख्या, तयथा-संख्येय असंख्येयकं अनन्तकं, एत्य संखिज्जकं जहण्णादिगं तिविधमेव, असंखिज्जगं परिचादिगं तिहा काउं पुण एकोकं जहण्णादितिविहविगप्पेण नवविहं भवति, अणंतगंपि | एवं चेव, णबरं अर्णतगाणंतगस्स उकोसस्स असंभवत्तणओ अट्टविहं काववं, एवं मेए कए वेसिमा परूवणा कज्जति-'जहण्णगं संखिज्जगं है केत्तियं' इत्यादि कण्ठयं, 'से जहा णामए पल्ले सिया' इत्यादि, से पल्ले बुद्धिपरिकप्पणाकप्पिए, पल्ले पक्खेवा भण्णनि, सो य हेहा जोय-2॥१०॥ | णसहस्सावगाढो, रयणकंद जोयणसहस्सावगाढं भेत्तुं वेरकंडपतिहिओ, उरि पुण सो वेदियाकतो, वेदिययातो य उवरि सिहामयो कायव्यो, |जतो असतिमावि सव्वं बीयमेज सिहामयं विलु, सेस मुत्तसिद्ध, दीवसमुदाण उद्धारो पेप्पत्ति, सद्धरणमुद्धारः, तेहिं पल
दीप अनुक्रम [२९९३१०]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८||
॥११०॥
श्रीअनुसामाणेहिं सरसकेहि दीवसमुदरा उद्धरितिति, तस्त्रमाणा गृह्यन्त इत्यर्थः, स्या-बद्धरणं किमर्थ १, नस्यसे, अणवाहितसळागप, उत्कृष्ट हारि वृत्तालारिमाणशापनार्थ, चोदगो पुरछति- जदि पढमपल्ले ओक्खित्ते पाखत्ते निहिते य सलागा ण पकनिष्पति तो किं पवितो?.टा सख्य में
उभयवे, पस अणवहितवपरिमाणदसणत्वं परूवितो, इदं च ज्ञापितं भवति-पढमत्तणतो पढमपल्ले अणवहाणभावोपल्यचतुष्क णस्थि, सलागापल्लो अणवडियसलागाण भरेयत्वो, जतो सुते पढमसलागा पढमअणवद्वियपल्लभेदे देसिया, अणवट्टियपल्यपरंपरसला-1 गाण संलप्पा लोगा भारता इत्यादि, असंलप्पत्ति ज संखिज्जे असंस्त्रिज्जे वा एगतरे पक्सेवेन शाक्यते तं असंळप्पंति, कही, उच्यते, उकोससंखेजस्स अविबहुचणओ सुतम्बवहारीण य अव्ववहारित्तणओ असंखिग्जामिव लक्खिज्जति, जम्हा य जइण्णपरित्तासंखिजगं ण पावति आगमपच्चक्सववहारिणो य संस्खेज्जववहारिणत्तणो असंलप्पा इनि भणितं, लोगति सलागापल्लागा, अहवा जहा दुगादि दससतसहस्सलक्खकोडियादिएहि रासीहि अहिलावेण गणणसंखसंववहारा कज्जंति, न तहा उपोसगसंखेज्जगेण आदिल्लगरासीहि य ओमत्यगपरिहाणीए जा सीसपहेलिअंको परिमाणरासी, एतहिं गणणामिलावर्सववहारे ण करजहाचि अतो एसे रासी असंलप्पा, इदं कारणमासम्ज भाणितं असंलप्पा लोगा भरिता इति, अहवा अणवद्वितसलागपडिसलागमहासलागपल्लाण सरूवे गुरुणा कते-भणिते सीसो पुरुचति-ते कई भरेयब्वा ?, गुरू आइ-- एवंविहसलागाण असंलप्पा लोगा भरिता, खेळप्पा नाम संमहा, ण संछप्पा असंलप्पा, सशिखा इत्यर्थः, तहापि नकोसगं संखेजगंण पावतित्ति भणिते सीसो पुच्छति-कई उकोसगससेवजसरूवं जाणिवळी, उच्यते, से जहाणामए मंचे। इल्यादि, नवसंहारो एवं-अणवहितसमागादि-सागापरले पक्खिप्पमाणीहिं तयोः यः पहिसळागापरले. तसोनि महासलागापल्ले, होहोह
४ ॥११॥ | सलागा जा उपोसगसंखिज्जगं पाविदिति । इवाणि सकोसगसखिजगपरूवणथं पुनर म भण्णइ-जा मि मंचे आमलएहिं पखि-II
84564564564561%
दीप अनुक्रम [२९९३१०]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
.......... मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८||
॥११॥
श्रीअनु प माणेहिं होहि आमलां तमंचे भरेहिति, अण्णं आमलगं ण पडिग्छतित्ति, एवमुक्कोसयं संखिजय दिह, तस्स इमा परूवणा-जंबुरीव- ल्यचतुष्क हारि चापमाणमेत्ता पत्तारि पहा, पढ़मो अणवाहितपस्लो विविभो सलागापल्लो तइओ पहिसलागापल्लो पनत्यो महासलागापल्लो, पते परोविका
रयणप्पभाए पुढवीए पढमं रयणकंडं जोयणसहस्साबगाई भित्तूण वितिए वइरकंडे पविडिया. हिठ्ठा, इमा ठवणा-०००० पते तु ठिता, एगो गणणं नोवेति दुप्पभितिसंखित्तिका, सत्य पढमे अणवहितपले दो सरिसवा पक्खिचा, एके जहण्णासंक्षिजगं, तओ एगुत्तरखुद्दीए विगि चरो पंचाव सो पुणो अण्णं सरिसर्व ण पहिच्छतित्ति ताहे असम्भावपट्ठवर्ण पदुच्च वुद्धति,तं कोऽवि देवों दाणचो वा क्सित्तुं वामकरयले का ते सरिसवे जीवाइए दीव समुरे पक्खियेज्जा जाब मिडिया, ताहे सलागा-एगो सिल्थो दो सा समागा, क्यों जाहि. वीवे समुदे वा सिद्धत्यो निहितो सह तेण आरेण जे दीवस मुद्दा वेहि सम्बेहि वप्पमाणो पुणो अण्णो पक्षो भरिक्जद, सोवि सिस्थयाण भरितो जमि णिहितो तो परसो दीवसमुदेसु एकोकं पक्षिवेजा जाव सोऽवि णिडिओ, ततो सळागापल्ले बितिओ सरिसवो छूढो, जत्थ गिद्वितो तेण सह आविश्लएहिं पुणो अण्णो पो आइमति, सोवि सरिसवाणं भरितो, सतो परतो एक दीपसमुरेसु पक्षिवंतेण णिहावितो. ततो सलागापरले खतिया सळागा पक्विचा, एवं एतेणं अणवद्वितपस्टकरणकमेण संहायपदणं करिवेण सलागापल्लो सलागाण भरितो, क्रमागत: अणवहितो, ततो सळागापको सलार्ग ण पबिच्छत्तिकार्ड सो पेव उक्खेतो, मिद्वितद्वाणा परतो. पुण्यकामेण पक्खित्तो विहितोय, सतो अणपहिलो उक्खिचा णिदिवठाणा पुचकमेण पक्वित्तो णिहिओ य, ततो सळागापल्ले सलागा पक्खिता, एवं अगं बनेणं अणवद्धि-M११॥ तेण अतिरनिचिरनेण जाहे पुणो सल्लागापल्लो भरितो अणषाद्वित्तो य, ताहे पुण सळागापरलो उक्लिप्तो पक्खितो. णिवितो य' पुष्पकमेण, का बाहे पटिसलागापरले विड्या पदिसलागा चूहा, एवं आइरनिकिरणेण जाहे विषिणयि पछिसमागसलागअणवाहितपल्ला य भरिता ताहे
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] ... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८||
सा
ॐ पटिसलागापल्लो पक्खितो, पविखप्पमाणो णिवितो य, ताहे महासळागापल्ले महासलागा पक्खित्ता, ताहे सलागापल्लो उक्खित्तो पतिहारि वृत्तालापमाणो णिहितो य, तारे पडिसलागा पक्खिना, ताहे अणवद्वितो उक्वित्तो पक्वित्तो य, ताहे सळागापल्ले सखागा पक्खित्ता, पर्व आइरण-12
णिकिरणकमेण ताय कायव्वं जाव परंपरेण महासलागापडिसलागसलागणवाहितपल्ला य चउरोवि भरिया, ताहे उसोसमतिपिछयं, पत्थ ॥११२॥
जावविया अणवहितपल्ले सलागपल्लि पटिमलागापल्ले महासलागापरले य दीवसमुदा उद्धरिया जे य चापल्लट्ठिया सरिसवा एस सम्बोऽपि ४ | एतप्पमाणो रासी एगरुणो उकोसयं संखेजय हवति, जहण्णुकोसयाण मझे जे ठाणा ते सब्वे पत्तेयं अजद्दण्णमणुकोसया संखेग्जया भाणियव्या, सिद्धते जत्य संखेज्जयगहण कयं तत्थ सव्वं अजहण्णमणुकोसयं ददुव्वं । एवं संखिज्जगे परूविते सीसो पुच्छति भगवं! किमेतेण अणवहिते पल्ले सलागापदिसलागामहासलागापल्लियावीहि य दीवसमुहद्धारगहणेण य उको सगसंखेज्जगपरूवणा कज्जति?, गुरू भणति
गथि अण्णो संरोजगस्स फुडतरो परूवणोवायोति, किंचान्यत्- असंखेजगमणतगरासीविगप्पणावि एताओ चेव आधाराओ, रूबुत्तरगुण| द्धताओं परूवणा कज्जतीत्यर्थः, उक्तं त्रिविध संख्येयकं । इवाणि णवाविहं असंखग्जग भणनि-'एवमेव उकोसए' इत्यादि सुत्तं, असंखेजगे परूविग्जमाणे एवमेव अणवाहितपनदीवृद्धारएण उकोसगं संखिजगमाणीए एगसरिसवरूवं पक्वित्तं वाहे जहण्णगं भवति, 'तेण परंडू इत्यादि सूर्य, एवं असंखेम्जग अजहण्णमणुकोसदाणाण य जाव इत्यादि सुत्, सीसो पुच्छति-'उकोसगं' इत्यादि सुत्त, गुरू बाह-जहण्णगं |
परित्ताअसंखेजगति, अस्य व्याख्या- जहण्णगं परित्तासंखेकजयं बिल्लियं ठविग्जति, सस्स विरहिलयठावियस्स एकेके सरिसवदाणे हजहण्णपरित्तासंखेज्जगमेचो रासी दायब्बो, ततो वेर्सि जहण्णपरित्तासखेज्जमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णम्भासोत्ति-गुणणा काजति, गुणिते जो
रासी जातो सो रूवृणोति रूवं पार्डिग्जइ, तमि पाहिते नकोसगं परित्तासखेग्जगं होति, एत्य दिवतो-जहण्णगं परितासंखाजगं दुर्वाकप्प- 12
SERIES
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॥११२॥
दीप अनुक्रम [२९९३१०]
% 84
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८||
श्रीअनुाराणाए पंच रूवाणि, ते विरल्लिया इमे ५५५५५, एकस्स हेटा जहण्णगपरिसासखेजगमेत्तरासी ठविया ५५५५५, एतेसि पंचगाणं है गणनाहारि.वृत्चाम अण्णमण्णमासोति गणितो जाता एकतीसं सता पणवीसा, एस्थ अण्णमण्णम्भासोनिज माणितं एत्य अण्णे आयरिया भणति-वग्गियसंव
| संख्यावां गियति भणितं, ५५५५५. पत्रोच्यते--स्वप्रमाणेन राशिना रासी गुणिज्जमाणो बग्गियंति भण्णाति, मो व संवद्धमाणो गयी पुब्बिल्हगुणका
असंख्येयाः ॥११॥
रेण गुणिन्जमाणो संवाग्गियंति, अतो अण्णमण्णभत्थस्स वमिायसवग्गियस्थ य नार्थभेद इत्यर्थः, अन्यः प्रकार:, अहवा जद्दण्णर्ग जुत्तासंखेज्जगं तं रूचूर्ण का जति, सतो अकोसगं परित्तासंखेज्जगं होति, उक्तं तिविपि परित्तासंखेज्जगं । इवाणिं तिविहं जुत्तासंखज्जग भण्णति, तस्स इमो समोतारो,-सीसो भणति-भगवं! तुम्भे जहष्णगं जुत्तासंखज्जगपरूवणं करेह तमहं ण याणे, अतो पुच्छा इमा-जद्दण्णजुत्तासंखेजग कत्तियं होन्ति ?, आचार्य उत्तरमाह-'जहण्णगं परित्तासंस्खेज्जगं' इत्यादि सूत्रं पूर्ववत्कंठ्यं, नवरं पडिपुण्णेत्ति-गुणिते रूवं न पाहिज्जति, अन्यः प्रकारः, अथवा 'उकोसए' इत्यादि, सूत्र कंठयं, जावइतो जहण्णनुत्तासंग्जए सरिसवरासी एगावलियाएवि समयरासी वत्तिओ चेव, जत्य सुत्ते आवालियागहणं तत्व जहण्णजुत्तासंखेबजगपडिपुण्णापमाणमेत्ता समया गहितब्वा. 'तण पर' मित्यादि, जहण्णजुत्तासंखेजगा परतो एगुत्तररवट्टिता असंखेज्जा अजहण्णमणुकसजुत्तासंखेजगढाणा गच्छति, जाब उक्कोसगं जुत्तासंखेजर्ग ण पावतीत्यर्थः, सीसो पुच्छतिउकोसगं सुत्तासंखेज्जगं केत्तियं भवति ?, आचार्य आह-जहण्णगजुत्तासंखेजगपमाणरामिणा आवलियासमयरासी गुणितो रूवूणो उकोसगं | जुत्तासखेजगं भवति, अण्णे आयरिया भण्णंति-जहण्णजुत्तासंखेम्जरासिस्स वग्गो कज्जति, किमुक्कं भवति?, आवलिया आवलियाए गुणिज्वति ॥११३॥ रूयूणिओ उकोसग जुत्तासंखेग्जगं भवति, अभ्यः प्रकार:-'अहवा जहण्णगं' इत्यादि सूत्र, कंठ्यं । शिष्यः पृच्छति-'उकोसगं' इत्यादि 5 सूत्र, आचार्य उत्तरमाह--'जहण्णग' मित्यादि सूत्र, कंठ्यं, अन्यः प्रकार: अहया महण्णगं इत्यादि सूत्र, कंठये, अण्णे पुण आयरिया उच्कोसगं
दीप अनुक्रम [२९९३१०]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
......... मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] .... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८||
हारि वृत्ती ॥११॥
सख्य असंख्येयाः
असंखेज्जासंखेजगं इमेण पगारेण पणति-जहाणगअसंखज्जासंखेज्जगरासिस्स वग्गों काजति, वस्स रासिस्स पुणो वगो कजति, तस्सेव | वग्गस्स पुणो कम्मो कज्जति, एवं तिणि वारा वग्गितसंयरिंगते इमे दस पक्खेवया पक्सिप्पंति 'लोगागासपदेसा १ धम्मा २ धम्मे ३ गजी-1 वदेसा य ४ । व्यडिया णिओया ५ पत्तेया चेव योद्धव्या ६॥१॥ ठितिबंधज्यवसाणे ७ अणुमागा ८ जोगळेयपछिभागा ९ । दोण्ह य समाण समया १० असंखपक्खेवया वस ॥२॥ सब्बे लोगागासपदेसा, पर्व धम्मस्थिकायप्पएसा अधमस्थिकायप्पएसा एगजीवप्पदेसा | दबहिया णिओयत्ति-मुहमवादरवणंतवणस्पतिसरीरा इत्यर्थः, पुढवादि जाव पंचेंदिया सवे पत्तेयसरीराणि गहियाणि, ठिविधाझवसाणेत्ति
णाणावरणावियस्स संपरायकम्मस्व ठितिविसेसर्वधा जेहिं अज्झवसाणठाणेहि भवंति ते ठितिबंधज्ज्ञवसाणे, ते य असंत्रा, कही, उच्यते, काणाणावरणसणावरणमेहआउअंतरावस्स जहणिया अंतमुहुत्ता ठिती, सा एगसमउत्तरखुट्टीए ताप गता जाव मोहणिजस्म सत्तरिसागरोवम
कोडाकोदिओ सत्त व वाससहस्सत्ति, पते सब्बे ठितिषिसेसा, सेसि अज्झवसायट्ठाणविसेसेहितो णिरफाजन्ति अतो ते असंखेज्जा भणिवा, अणुभागति-णाणावरणादिकम्मणो जो जस्स विवागो सो अणुभागो, सो य सवजहणठाणाओ जाव सब्बुकोसो समणुभावो, एते अणुभागविसेसा जेहिं अजावसाणवाणविसेंहितो भवंति ते मापसाणवाणा असंखेज्जगाऽऽयासपदेसमेता, अणुभागहाणावि तत्तिया चेव, जोगच्छेयपलिभागा, अस्य व्याख्या-जोगोत्ति जोगा मणवतिकावप्पओगा, वेसि मण्णादियाणं अप्पप्पणो जहष्णठाणाओ जोगाविसेसपहाणु तरवुड्डीए जाच उकोसो मणयइकायपोयत्ति, पते एगुचरखुडिया जोगविसेसट्टाणछेदपलिभागा माणति, ते मणादियवेवपलिभागा पत्तेयं विडिया वा असंखेजया इल्यर्थः, 'दोण्ह य समाण समया उ' ति उस्सप्पिणी ओसपिणी ब, एयाण समथा असंखेज्जा घेव, एते वस असंखपक्खेवया
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ॐBACCheats
॥११४॥
दीप अनुक्रम [२९९३१०]
CHEREMOCRACK
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१४६
१४८]
गाथा
||११६
११८||
दीप
अनुक्रम [२९९
३१०]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्ती
॥११५॥
पक्खिविडं पुणो रासी तिष्णि वारा वग्गिओ, ताहे रुवोणो कओ, एवं उकोस असंखेज्जासंखेज्जयप्पमाणं भवति, उक्तं असंखेज्जगं । इदाणिं अनंतयं भण्णति- सीसो पुच्छति-
'जहण्णगं' इत्यादि सुतं, कंठ्य, गुरू आह- 'जहण्यागं असंखेज्जासंखेज्जगं' इत्यादि सुत्तं, कंठ्यं, अन्यः प्रकार:- 'उकोसए' इत्यादि सुसं, कंठ्य, 'तेण पर' मित्यादि सुत्तं, कंठ्यं, सीसो पुच्छति 'उकोसयं परित्ताणंतयं' इत्यादि सुत्तं, कंठ्यं, गुरू आह- 'जहणमं इत्यादि सुतं, कंठ्यं, अन्य: प्रकार:- 'अहवा जहण्णगं' इत्यादि सुतं, कंठ्यं, सीसो पुच्छति 'जहण्णगं परित्ता' इत्यादि सुत्तं, कंठ्यं, आचार्य आह 'जहण्णगं परित्ताणंतगं इत्यादि सुत्तं, कंठ्यं, 'अहवा उक्कोसए' इत्यादि मुत्तं कख्यं एत्थ अण्णायरियाभिप्पायतो वग्गितसंगितं भाणियवं पूर्ववत्, जष्णो जुसागतयरासी जावइओ अमब्वरासीवि केवलणाणेण तत्तितो चैव दिट्ठो, 'तेण परं' इत्यादि सुतं, कंख्यं, आचार्य आह'जहणएणं' इत्यादि सुत्तं, कंठ्यं, अन्यः प्रकारः 'अहवा जहण्णगं' इत्यादि सुत्तं, कंठ्यं, एत्थ अण्णायरियाभिप्पायतो अभव्वरासीप्यमाणस्स रासीणो सति बग्गो कज्जति, तत्तो उपासयं जुत्ताणंतयं भवति, सीसो पुच्छति 'जहण्णयं अणंताणंतयं केत्तियं भवति ?' सुगं, कंटपं, आचार्य आह- - 'जहणणं' इत्यादि सुतं, कंड्यं, अन्यः प्रकार:- अहवा उक्कोसए' इत्यादि सूत्र, कंठ्यं, 'तेण पर' मित्यादि सुतं, कंठ्यं, उक्कोसयं अनंताणंतयं नास्त्येवेत्यर्थः, अण्णे आयरिया भणति-जणयं अनंताणंतयं तिष्णि बारा बग्गियं, ताहे इमे एत्थ अणतपक्खेवा पखत्ता, जहा सिद्धा १ णिश्रयजीवा २ वणस्सती ३ का ४ पोगला ५ चैत्र । सव्वमोगागास ६ छप्पेतेऽर्णवपक्खेचा || १ || सच्चे सिद्धा सन्वे सुमवादराणिओयजवा परिता अनंता सध्ये वणस्सइकाइया सब्वे तीताणागतवट्टमाणकालसमवरासी सञ्यपोग्गलदव्वाण परमाणुरासी सब्वागासपएलरासी, एते पक्खिावऊण तिष्णि वारा वग्गियसंवग्गओ कार्ड तहवि उद्योसयं अनंतानंतयं ण पावति, तओ केवलणाणं केवल
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गणनाय
अनन्त
संख्या
॥११५॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-११८] .... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८||
श्रीअनुमासणं च पक्खितं, तहावि उकोसर्य अर्णताणतयं ण पाति, मुत्ताभिप्पायाओ, जओ मुत्ते भणित-तेण परं अजहण्णमणुकोसाई ठाणाईति, वर हारि.वृत्ती
अण्णायरियाभिष्पायतो केवलणाणदंसजेसु पक्सित्तेस पर कोसयं अर्णताणतयं, जओ सब्वमणन्तयमिह, त्थि अण्णं किंचिदिति, जाहिंदाजधकारः ॥११६॥
अणंताणतयं मग्गिज्जति नहिं अजहण्णमणुकोसयं अर्णताणतयं गहियग्वं, उक्ता गणनासंख्या। ‘से किं तं भावसंखा' इत्यादि, प्राकृत-18 शैल्याऽत्र शाखा: परिगधन्ते, आह-य पते इति प्ररूपकप्रत्यक्षा लोकप्रसिद्धा वा जीवा आयुःप्राणादिमन्तः स्वस्वगविनामगोत्राणि तिर्यपाति-15 द्वीन्द्रियौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गादीनि नीचेतरगोत्रलक्षणानि कर्माणि सहावापन्ना विपाकेन वेदयन्ति त एव भावसंख्या इत्युक्ता भावसंख्या:, 'सेत्त' मित्यादि निगमनत्रयं, समाप्तं प्रमाणद्वारं ॥ अधुना वक्तव्यताद्वारावसरः, नत्राह--
'से किं तं वत्तव्बया' इत्यादि (१४७-२४३) तत्राध्ययनादिषु सूत्रप्रकारेण विभागन देशनियतगंधनं वक्तव्यता, इयं च विविधा स्वस-17 मयादिभेदात, तत्र स्वसमयवक्तव्यता यत्र यस्यां णमिति वाक्यालंकारे स्वसमय:-स्वसिद्धान्तः आख्यायते, यथा पंचास्तिकायाः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः इत्यादि, तथा प्रज्ञाप्यते यथा गतिलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्ररूप्यते यथाऽसावसंख्येयप्रदेशात्मकादिभिः, तथा दयते मत्स्यानां जलमित्यादि, तथा निदर्श्यते यथा तथैवैषोऽपि जीवपुद्गलानामिति, उदाहरणमात्रमेतदेवमन्यथापि सूत्रालापयोजना कर्तव्येति शेषः, स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता तु यत्र परसमय आयायत इत्यादि, यथा 'संति पंचमहम्भूया. इहमेगेसि आहियं । पुढवी आक य वा-181 ऊब, तेऊ आगासपंचमा ॥१॥ एते पंच महब्भूया, तेभो एगत्ति आहियं । अह तर्सि विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥२॥ इत्यादि ति॥११६॥ लोकायतसमयवक्तव्यतारूपत्वात् परसमयवक्तव्यतेति, शेषसूत्रालापकयोजनापि स्वबुद्धचा कार्या, सेवं परसमयवक्तव्यता, स्वयमयपरसमय
दीप अनुक्रम [२९९३१०]
... अथ 'वक्तव्यता अधिकारः दर्शयते ।
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१४६
१४८]
गाथा
||११६
११८||
दीप
अनुक्रम
[२९९
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"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१४६-१४८] / गाथा [ ११६-११८ ] .....
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५] चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि वृत्तौ
॥११७॥
वक्तव्यता पुनर्यत्र स्वसमयः परसमयश्चाऽऽख्यावेते, यथा 'आगारमावसेतो वा अरण्णा वापि पञ्वया । इमं दरिसगमावण्णा, सब्वदुक्खा विमुचती ॥ १ ॥ त्यादि, शेषसूत्रालापक योजना तु स्वधिया कार्येति, स्वयं स्वसमयपरसमयवक्तव्यता ॥
"
इदानीं नयैर्विचारः क्रियते को नयः ? कां वक्तव्यतामिच्छति ?, तत्र नैगमव्यवहारौ त्रिविधां वक्तव्यतामिच्छतः तद्यथा-स्वसमयवकव्यतामित्यादि, तत्र सामान्यरूपो नैगमः, प्रतिभेदं सामान्यरूपमेवेच्छति स होवं मन्यते - भिण्णाभिधेया अपि स्वसमयवक्तव्यताऽविशेषात्स्वसमयसामान्यमतिरिक्त (च्य न) वर्त्तते, व्यतिरेके स्वसमयवक्तव्यताऽविशेषत्वानुपपत्तेः, विशेषरूपः स नैगमो, व्यवहारस्तु प्रतिभेदं भिन्नरूपमेवेच्छति, पदार्थानां विचित्रत्वादिति, यथाऽस्तिकायवक्तव्यता मूलगुणवश्यतेत्येवमादि, ऋजुसूत्रस्तु द्विविधां वक्तव्यतामिच्छतीत्यादि सयुक्तिकं सूत्रसिद्धमेव, त्रयः शब्दनयाः शब्दसमभिरूडएवंभूताः एकां स्वसमयवक्तव्यतामिच्छन्ति, शुद्ध नयत्वात् नास्ति परसमयवक्तव्यतेति चमन्यंते, कस्मादेतदेवं १, यस्मात्परसमयोऽनर्थ इत्यादि, तत्र 'निमित्तकारणदेषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन' मिति वचनादू हेतवस्त एव इति परसनयानर्थत्वा दद्देतुत्वादित्येवमादयः, तत्र कथमनर्थ इति, नास्त्येवात्मेत्यनर्थप्ररूपकत्वादस्य, आत्माभावे प्रतिषेधानुपपत्तेः उत्थ 'जो चिंतेइ सरीरे णत्थि अहं स एव होइ जावोति । गहु जविभि असंते संसयउप्पायओ अण्णो || १ ||" अहेतु :- हेत्वाभासेन प्रवृत्तेः, यथा नास्त्येवात्मा अत्यन्तानुपलब्धेः हेत्वाभासत्वं चास्व ज्ञानादितद्गुणोपलब्धेः उक्तं च "ज्ञानानुभवतो दृष्टस्तद्गुणात्मा कथं च न १ । गुणदर्शनरूपं च घटादिष्वपि दर्शनम् ||१||" असद्भाव:- असद्भावाभिधानात् असद्भावाभिधानं चात्मप्रतिषेधेनोक्तत्वात् स्यादेतत्सर्वगतत्वादिधर्म्मणोऽसवं रूपादिस्कन्धसमुदायात्मकस्य तु सद्भाव एवेति, न, तस्य भ्रान्तिरूपत्वात् भ्रान्तिमात्रत्वाभ्युपगमन "फेनपिण्डोप रूपं, वेदना बुदोपमा । मरीचिसदृशी संज्ञा, संस्काराः कदलीनिभाः || १ || मायोपमं च विज्ञानमुक्तमादित्यबन्धुने" त्यादि, अक्रियक्षाणकै
~ 254 ~
वक्तव्यतायां नियविचारः
॥११७॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
........ मूलं [१४६-१४८] / गाथा [११६-१९८] ... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४६१४८] गाथा ||११६११८||
श्रीअनु० कान्ताऽभ्युपगसेन कर्मबन्धक्रियाऽभावप्रतिपादकत्वाद्, उक्तं च-"उत्पन्नस्वावकस्थानादभिसंधाययोगतः । हिंसाऽभावान बन्धः स्यदुपदेशो 31 अर्थाहारि.वृत्तोल निरर्थकः ॥१॥" इत्यादि, ऊन्मार्गः परस्परविरोधात् , विरोधाकुलत्वं चैकांतक्षणिकत्वेऽपि हिंसाऽभ्युपगमाद्, उक्तं च तत्र-प्राणी प्राणिज्ञानदाधिकारः
घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा । प्राणैत्र विप्रयोग: पंचभिरापद्यते हिंसे ॥१॥' त्यादि, अनुपदेशः अहितप्रवर्चकत्वाद्, उक्तं च-"सर्व क्षणिकमि॥११८॥
समवतारथ त्येतत् , सात्वा को न प्रवर्तते। विषचायौ? विपाको मे, न भावीति दृढव्रतः॥१॥" इत्यादि, यतश्चैवमतो मिथ्यादर्शनं, ववश्च मिथ्यादनिमितिकृत्वा नास्ति परसमयवक्तव्यतेति वर्तते, एवं समयांतरेववि स्वबुध्या उत्प्रेक्ष्य योजना कार्या, चस्मान् सर्वा स्वसमयवक्तब्बता, नास्ति परसमयवक्तव्यतेति, अन्ये तु ब्याचक्षते-परसमयोऽनोंदि१र्णयरूपत्वाद् , यथाभूतस्त्वसौ विद्यते प्रतिपक्षसापेक्षस्तथाभूतः स्यावादागत्वात् स्वसमय एवेचि, तदुक्तं च-नयास्तव स्यात्पदलाग्छिता इमे, रसोपविद्धा इव लोधातवः । भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितेषिणः ॥१॥" इत्यादि, आइ-न खलु अनेकान्त एक मवममीषां शब्बाद्यानां तत्कथमेवं व्याख्यायते ? इति, उच्यते, विवादस्तद्विपया, शुद्धनवाश्चैते भावप्रधानाः, तद्भावनेत्थमेवेति न दोषः, सेयं वक्तव्यतेति निगमन, उच्च वक्तव्यता ॥ सामश्रत्तमर्धाधिकारापन:-स च सामाविकादीनां प्राक् प्रदर्शिन एवेति न प्रतन्यते, बक्तव्यताधिकारयोश्चायं भेद:-अर्थाधिकारो अध्ययने आदिपदादारभ्य सर्वपदेष्वनुवर्त्तते, पुद्रास्तिकाये मूर्तत्वच, देशादिनियता तु वक्तव्यतेति ।
॥से कितं समोतारे इत्यादि (१४९-२४६) समबतरणं समवारः, अध्ययनासन्नताकरणमिति भावः, अयं च षड्विधः प्राप्त | इत्यादि निगरसिबमेव यावासरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तोग्यसमववारखिविधा प्राप्तः तयया-आत्मसमवतार इत्यादि, तत्र सर्वद्रव्या-ना. | ग्यप्यात्मसमयवारेणात्भावे समववरन्ति-वर्त्तन्ते, तद्व्यतिरिक्तवाद्, यथा जीवद्रव्याणि जीवभाषे इवि, भावान्तरसमववारे तु स्वभावत्यागा-17
दीप अनुक्रम [२९९३१०]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
.............. मूलं [१४९] / गाथा [११९-१२३] .... * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
श्राअनु हारि वृत्ती
प्रत सूत्रांक [१४९] गाथा ॥११९१२३||
॥११९॥
य
वस्तुस्वावंगः, व्यवहारतस्तु परमवचारेण परमावे, यथा कुण्डे पदराणि, स्वभावग्यवस्थितानामेवाल्या भावात, युभवसमवतारेण वदु- ओषभये, यथा गृहे स्तम्मा आत्मभावे चथापि, मूळपाववेहलीभस्तम्भतुलादिसमुदाचात्मकलान् गृहस्थ, वरच स्तम्भस्य भूउपादादया परे, आत्मा निष्प पुनरात्मक, तनुभये चास्य समवतारमतवायुवेरिति, एवं घटे ग्रीवा आत्मभावे च, सामान्यविशेषात्मकत्वात्तस्य, अबका शीरभल्यारी- अध्ययनारब्यतिरिक्तो द्रव्यसमक्वारे विविध प्रशसस्तयथा-आत्मवमवतारस्तदुभयसमवतारश्य, शुद्धः परसमवताये नास्त्येव, पास्मसमयताहि-आहाणादात तस्य परसमवताराभावान्, न खत्मन्यवतमानो गर्भो जनयुदरादौ वचेत इति, 'चउसष्टिया' इत्यादि, छप्पपणा- दो पलसता माणी भण्णति, सस्स चनसट्टाभागो चनसट्रिया चउरो पला, भवति, एवं पत्तीसियाए अट्ट पळा, सोलसियाए सालस, अहमाझ्याप पचास, चमाइयाए चटसहिं, दोभाइयाए, अट्टाचीसुत्तरं पळसरी, सेन कंठ्यं । द्रव्यता त्वमीषां प्रतीव, क्षेत्रकालसमवत्तारस्तु सूत्रसिद्ध एव, एवं सर्वत्र । उभयसमवतारे | तु क्रोध आत्मसमचतारेण आत्मभावे समववरति, तदुभयसमवतारेण माने समवतरति आसाभावे च, यतो मानेन क्रुध्यतीति, एवं सर्वत्रोभयसमवतारकरणे आत्मसामान्याधमत्वाऽत्योऽत्यव्याप्त्याविक कारणं स्वबुद्धपा वक्तव्यमियुक्तो भावसमवतारस्तदभिधानाच्चोपक्रम इति. समाप्त उपक्रमः _ 'से किंतं. निक्खेवे त्यादि (१५०-२५०) निक्षेप इति शब्दार्थः पूर्ववत विविधः प्रज्ञप्तस्तबधा-ओपनिष्फम इत्यावि, चित्र. ओपो,IRI नाम सामान्य श्रुताभिधानं तेन निस्पन इति, एवं नामसूबाळापकेष्वपि वेदितव्य, नवरं नाम वैशेषिकामध्ययनाभिधान, सूत्राखामा परि१९॥ भागापूर्व.इति । 'से कितं ओडमिणो त्यादि, चतुर्विधः प्रशसस्तयधा-अध्ययनमक्षीणमायक्षपणेति । किं से तं आझयण साहि सुगम यावर अज्झप्पस्लाणयणमित्यादि (७१२४ २५१) इनरुफैन विधिना प्रकृतस्वभावाच अभिपस्स-चित्तस्त आणयणं पगारस्सगारअगार
ESCEN
दीप अनुक्रम [३११३१७]
... अत्र 'निक्षेप' अधिकार: वर्णयते
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
.............. मूल [१५०] / गाथा [१२४-१३१] .... * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
गाथा ||१२४१३१||
श्रीअनुसणगारलोवाओ अझयण, इवमेव संस्कृतेऽध्ययनं, आनीयते चानेन शोभनं चेतः, अस्मिन् सति वैराग्यभावात, किमित्येतदेवं?, यतः अस्मिन् नामनि हारि.वृत्ती टासति कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां अपचयो-मास उपचितानां प्रागुपनिबद्धानामिति, पधाऽनुपचयश्च अद्धिश्च नवाना-प्रत्याणां तस्मादुक्त
शब्दार्थोपपत्तेरध्ययनमिच्छन्ति विपश्चित इति गाथार्थः। 'से किं ते अज्झीणे' स्यादि सूत्रसिद्धं यावत् से कितं आगमतो भावज्झीणे', २ ॥१२०॥
पूजाणए उपउचेति, अत्र वृद्धा व्याचक्षते-वस्माच्चतुर्दशपूर्वविद आगमोपयुक्तस्यान्तर्मुदनमात्रोपयोगकालेॉपळम्भोपयोगपर्याया ये ते सम-12
यापहारेण्णानन्ताभिरप्युसप्पिण्यबसविणामिनीपहियन्ते ततो भावाक्षीण मिति, नोआगमतस्तु भावाक्षीण शिष्यप्रदानेऽपि स्वात्मत्यनाशादिति, तथा चाइ-'जह दीवा' गाहा (१२५-२५२) यथा दीपादवाधिभूतादीपशतं प्रदीप्यते, स च दीप्यते दीपः, न तु स्वतः भयमुपगच्छति, एवं दीपसमा भाचार्या दीप्यने स्वतः परं च दीपयति व्याख्यानविधिनेति गाथार्थः। नोआगमता चहाचार्योपयोगस्य आगमत्वाद्वाकाययोश्च नोआगमत्वाल्मिश्रवचनश्च नोशब्द इति वृद्धा व्याचक्षते | 'से कितं आय' इत्यादि, भायो डाम इत्यनान्तरम् , अयं सूचसिद्ध एव, नवरं संतसावएज्जस्स आएनि संत-सिरिघगाविसु विजमाण सावर्ज-पानक्षेपमहणेपु खाधीनं। 'से किं तं झवणा' इत्यादि, अपर्ण अपचनो निजेरोति पर्यायाः, शेष सुगनं. सर्वत्र चेह भावेऽध्ययनमेष भावनीयमिति, उक्त ओधनिष्पन्नः । 'से किं तं नामनिष्फण्णे' त्यादि, सामायिक इति वैशेषिकं नाम, इदं 'पोपलक्षणमन्येषां, शब्दार्थोऽस्य पूर्ववत्, ‘से समासओ चउबिहे पण्णने' इत्यादि सुगम, यावत् 'जस्स सामाणिओं' गाथा, (७१२६-२५५) यस्य सत्वस्य सामानिका सन्निहित आत्मा, क, संयमे-मूलगुणेषु तपे-अनशनादौ सर्वकालव्यापागत् , यस्येत्वंभूतस्य जा
||१२०॥ सञ्षस्य सामायिक भवति, इतिशब्दः सारप्रदर्शनार्थः, एतावत् केवलिभाषितामिति गाथार्थ: । 'जो समो' गाहा (७१२७-२५६) यः समःतुल्यः सर्वभूतेषु-कार्वजीवेषु, भूतशब्नो जीवपर्याय:, त्रस्यन्तीति त्रमा-हीन्द्रियादयस्तेषु, विष्णुतीति स्थावरा:-पृथिव्यादयस्तेषु च, तस्य सामा
दीप अनुक्रम [३१८३३२]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:)
................ मूलं [१५०] / गाथा [१२४-१३१] ........... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा ॥१२४१३१||
श्रीअनुायिकमित्यादि पूर्ववत् ॥ 'जह मम गाहा (१२८-२५६) व्याख्या-यथा मम न प्रियं दुखं प्रतिकूलत्वात , ज्ञात्वा एवमेव सर्वजीकानां दुखहारिवृत्ती प्रतिकूलत्वं न हन्ति स्वयं न घातयत्यन्यैः, चशवाद् घातयन्तं च नानुमन्यतेऽन्यमिति । अनेन प्रकारेण समं अणति-तुल्यं गच्छति यसस्ते- 131
निक्षेपः नासौ समण इति गावार्थः । 'गत्थिय सि' गाथा (७१२९-२५६) नास्ति 'से' तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा, सर्वेष्वेव जीवेषु तुल्थमनस्यात् ॥१२॥
अनुममच
। पतेन भवति समनमः, समं मनोऽस्थेति समनाः, एषोऽन्योऽपि पर्याय इति गावार्थः । 'उरग' गाहा (२१३०-२५६) उरगसमः परकृतबिल-11 निवासात् , गिरिसमः परीपहोपसर्गनिष्पकम्पत्वात् , ज्वलनसमस्तपस्तेजोयुक्तवान् , सागरसमो गुजरनयुक्तत्वात् , नमस्तलसमो निरालंबन-18 त्वात् , मेरुगिरिसमः मुखदुःखयोस्तुल्यत्वात् , भ्रमरसमोऽनियतवृत्तित्वात् , मृगसमः संसारं प्रति नित्योढ़ेगात, धरणिसमः सर्वस्पर्शसहिष्णुत्वात् जळाहसमो निष्पकत्वात् , पाजसस्थानीयकामभोगाप्रवृत्तेरित्यर्थः, रविसमस्तमेोविघातकत्वात् , पवनसमः सर्वत्राप्रतियद्वत्वात्, एतत्समस्तु यः असो श्रमण इति गाथार्थः । 'तो समणो' गाहा (११३१-२५६) ततः श्रमणो यदि सुमनाः, द्रव्यमन: प्रतीत्या भावेन च यदि न भवति पाझमना: एतत्फलमेव वायति-स्वजने च जने च समः, समश्च मानापमानयोरिति गाथार्थः । सामायिकचाँच श्रमण इति सामायिकाधिकारे खल्वस्योपन्यासो न्वाथ्य एवेत्युक्तो नामनिष्पन्नः । 'से किं तं सुत्तालावगनिष्फने त्यादि, यः सूत्रपदानां नामादिन्यासः स स्त्राकापकनिष्णा इति । इवानी सूत्रालपकनिष्पनो निक्षेप इच्छावेइक्ति एषयति प्रतिपादयितुमात्मानमवसरप्राप्तस्वात् , भा.पच प्राप्तलक्षणोऽपि निक्षिप्यते, कार, बधाई, लापकं च अस्ति इत: तृतीयमनुषोनद्वारमनुगम इति तत्र निक्षिप्त इह निक्षित |१२१॥
भवति, इह वा निक्षिप्तस्तत्र निशिमो भवति, परमादिह न निक्षिप्यते, तत्रैव निक्षेप्स्यते इति, आह-कः पुनरित्वं गुण:, सूबानुगमे सूत्रभावः,18 दाइह तु वदभाव इति विपर्ययः, आह-यपेयं किमर्थमिहोच्चार्यते ?, उच्यते, निक्षेपमात्रसामान्यादिति, उक्तो निक्षेपः ।
दीप अनुक्रम [३१८३३२]
~258~
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१५१]
गाथा
||१३२
१३४||
दीप
अनुक्रम [३३२
३३६ ]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ ( मूलं वृत्तिः )
मूलं [१५१] / गाथा [१३२-१३४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५] चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्तौ
॥१२२॥
46096
'से किं तं अयुगमे' इत्यादि ( १५१-२५८ ) अनुगमनमनुगमः, स च द्विविधः सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमञ्चेति, नियुक्त्यनुगमस्त्रिवि धस्तद्यथा निक्षेप नियुक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्यनुगमः सूत्रस्पर्श निर्युतयनुगमा, निक्षेपोपोद्घातसूत्राणां व्याख्या विधिरित्यर्थः, तत्र निक्षेपनिर्बुक्त्यनुगमोऽनुगतः यः खल्बोधनामादिन्यास उक्तो वक्ष्यति चेति वृद्धा व्याचक्षते, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्त्वाभ्यां द्वाभ्यां गाथाभ्यामनुगन्तव्यस्तद्यथा- 'उद्देसे' गाहा, (७१३२-२५८ ) किं कइविई' गाहा, (*१३३-२५८) इषं गाधाद्वयमतिगम्भीरार्थं मा भूदव्युत्पन्नविनेयानां मोह इत्यावश्यके प्रपञ्चेन व्याख्यास्यामः सूत्रस्पर्शनियुक्तयनुगमस्तु सति सूत्रे भवति सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव तत्रेदं सूत्रमुच्चारितव्यं-'अस्खलित' मित्यादि यथाऽऽवश्यकपदे व्याख्यातं तथैव वेदितव्यमिति, विषयविभागस्त्वमीषामयं - 'क्षेत्र कयत्यो यो सपदच्छेदं सुयं सुताणुगमो । सुता अवगणास्त्र नामांदिष्णा सार्वणि भगं ॥१॥ सुतफाक्षियनिज्जुत्तिनिओगो सेसओ पदत्यादी । पायं साच गगणयादिमसगोयरो भणिओ ||२|| एवं च- 'सुतं सुत्ताणुगमो सुत्त लावयकभो य निक्लेवो मुत्तफासिय निज्जुती गया व समग तु वचंति ||३|| शेषानाक्षेपपरिहारानावश्यके वच्यामः, 'तो तत्थ गन्जिहिती ससमयपदं चेत्यादि ततः सूत्रविधिना सूत्र उच्चारिते शास्यते स्वस्मयपदं वा पृथिवीकायिकादि, परसमयपदं वा नास्ति जीव एवेत्यादि, अनयोरेवैकं बन्धपदं अपरं मोक्षपदमित्येके, अन्ये तु 'प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विषय' इति (तस्वार्थे अ, ८सू. ४) बन्धपदं कृत्स्नकर्मक्षयान् मोक्ष इति मोक्षपदं, आह-तदुभयमपि स्वसमयपदे तत्किमर्थं भेदेनोक्तमिति, उच्यते, अधिकार भेदादू एवं सामायिकनोसामायिकयोरपि वाच्यमिति, नवरं सामायिकपदमिदमेव, नोसामायिकपदं तु धम्मो मंगल' मित्यादि, अनेनोपन्यासप्रयोजनमुकमत उच्चार्य इत्यर्थः, ततस्तस्मिन्नुच्चरिते सति केषांचिद्भगवतां साधूनां केचन अर्थाधिकाराः अधिगताः परिज्ञाता भवन्ति, क्षयोपशमवैचित्र्यात् केचिदनीधगतास्ततस्तेषामनधिगतानामर्थाधिकाराणामाभिगमनार्थं पदेन पदसंबंधीत्या प्रतिपदं वा वर्त्तयिष्यामः व्याख्यास्यामः
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निक्षेपादि मिर्युक्तवनुगमः
॥१२२॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
.............. मूलं [१५१] / गाथा [१३२-१३४] .... . पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५१]
दारि.वृत्ती
गाथा
||१३२१३४||
श्रीअनु०सम्प्रति व्याख्यानक्षणमेवाद-संपिता य' (१३४-२६१) इत्यादि, तत्रास्वलितपदेपथारणं सहिता 'पर: सनिकर्षः संहिते' (पा०१-४-१०९- गमः
ति बचनात् , यथा-करोमि भवन्त ! सामायिकमित्यादि, पदानि तु-करोमि भदन्त ! सामायिक पदार्थस्तु करोमीत्यभ्युपगमे, भवन्त ! इत्या- संग्रहश्च ॥१२॥
मन्त्रणे, समभावः सामायिकमिति, पदविषहस्तु प्रायः समासाविषयः, पदयो। पदानां विच्छेदोऽनेकार्यसंभये सति इष्टानियमाय क्रियते, यथारा राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः श्वेत: पटोऽस्येति श्वेतपट इस्थाविसमासभाक्पदाविषयसूत्रानुपानी, चोदना-चालना सव्यवस्थापन प्रसिद्धिा, यथाकरोमि भवन्त ! सामायिकमित्यत्र गुर्षामन्त्रणवचनो भदन्तशब्द इत्युक्त सस्थाह-गुरुधिरहे धरणे निरर्थकोऽयनिति, न, स्थापनाचार्यभावेन, स्थापनाचार्यामन्त्रणेन च विनयोपदेशनार्थ इति सार्थक, एवं पविध विधि-विजानीहि लक्षणं, व्याख्याया इति प्रक्रमागम्यते, वापि (नामि) काविपवादिस्वरूपं त्वावश्यके स्वस्थान एवं प्रपञ्चेन वक्ष्यामि, गमनिकामामेतदित्युक्तोऽनुगमः ।
से कितं नये त्यादि, (१५२-२६४) शब्दार्थः पूर्ववत् , सात मूलनयाः प्रज्ञतास्तथधा-नैगम इत्यादि, तत्थ गहिति-न एक नकं, प्रभुतानीत्यर्थः, एतैः कै?-मान:-महासतासामान्यविशेषज्ञानेमिभीते मिनोतीति वा कम इति मैकमस्य निकक्तिः, निगमेषु भयो मैगमः, निगमा:-पदार्थपरिकठेवाः, तत्र सर्वत्र सरियेवमनुगताकारावयोधहेतुभूतं च सामान्यविशेषं द्रष्यत्वादि व्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च नित्यद्रग्यभूत्तिमन्तं विशेष, आइ-इत्थं नैगमः सहि अयं सम्पन्हाष्टरेवास्तु, सामान्यविशेषाभ्युपगमपरत्वात् , साधुषविति, नैतदेवं, सामान्यविशेष
वस्तूनां अत्यन्तमेदाभ्युपगमपरत्वाचस्य, आह च भाष्यकार:-'जं सामण्णविसेसे परोपरं वत्थुओ व सो भिण्णे | मगइ अच्चतमयो ||१२३॥ तमिच्छरिही कणादब्ब ॥१॥ दोहिदि णपहिं णीय सस्थगुलपण तहवि मिच्छत्तं । जै सषिसयष्पहाणतणेण अण्णोण्णगिरवेक्खो F॥२॥ अथवा निलयनप्रस्थकरामोशाहरणेभ्य: प्रतिपादितेभ्यः सस्वयमवसेय इत्यर्क प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेतत् । 'सेसाण' मित्यादि,
दीप अनुक्रम [३३२३३६]
... अथ 'नय'-अधिकार: वर्णयते
~260~
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
......... मूलं [१५४-१५५] / गाथा [१३५-१४१] .... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५४
१५५]
॥१२॥
गाथा ||१३५१४१||
श्रीअनु शे षाणामपि नयानां संग्रहादीनां लक्षणमिदं शणत वक्ष्य-अभिधास्ये इत्यर्थः । 'संगहित गाहा (*१३६-२६४) आभिमुख्येन गृहीत:-तपात: व्यवहारजुहार.वृत्ताटासंगृहीतः पिडितः, एकजातिमापना अर्थाः विषया यस्य तत्संगृहीतविहितार्थ संघहस्य वचनं 'समासतः' संक्षेपतः इवते तीर्थकरगणधरा G "
इति, एतदुक्तं भवति-सामान्यप्रतिपादनपरः खस्वयं, सदित्युक्ते सामान्यमेव प्रतिपद्यते, न विशेषान, तथा च मन्यते-विशेषाः सामान्यवोऽर्थान्तरभूताः स्युरनान्तरभूता वा, यद्यन्तिरभूता न सन्ति, सामान्यादर्थान्तरत्वात् , खपुष्पवत्, अथानर्थान्तरभूता: सामान्यमात्रमेपतचव्यतिरिक्तत्वात्स्वरूपवत् पर्याप्तं म्यासेन, उक्तः संप्रहः। 'बच्चइ' इत्यादि, ब्रजति निराधिक्ये चयनं चयः अधिकायो निश्चया-सामान्य विगतो निश्चयो विनिश्चय:-विगतसामान्यभावः बदर्थ-तनिमित्तं, सामान्याभावायेति भावना, व्यवहारो नयः, क ?- सर्वव्येषु-सर्वद्रव्यविपये, तथा च विशेषप्रतिपादनपरः खस्वयं पबित्युके विशेषामेव षटादीम् प्रतिपद्यते, तेषां व्यवहारहेतुत्वात्, न तदतिरिक्त सामान्य, तस्य अन्यवहारपस्तित्वात , तथा च सामान्य विशेष यो भिन्नमभिमं वा स्याद ?, यदि मिन विशेषव्यतिरेकेणोपलभ्येत, अथाभिनं विशेषमात्रं तत, बव्यतिरिक्तस्वात, तत्स्वरूपवदिति, अथवा विशेषेण निश्चयो विनिश्रयः आगोपालामानाद्यवयोधो, न कतिपयवितत्संबद्ध इति, वदर्थ व्रजति सर्वद्रव्येषु, आद् च भाष्यकार:- भमरादि पंचवण्णादि णिच्छए जम्मि वा जणवयस्स । अस्ये विणिच्छओ सो विणिमिछयत्थोत्ति जो
गझो ॥१॥ बहुतरओति य त चिय गमेइ संतेवि सेसए मुबह । संवबहारपरतया बबहारो लोगमिच्छतो ॥ २॥ इत्यापि, उक्तो व्यवहार 18 इति गाथार्थ: । 'पचुप्पण्णगाही गाहा (*१३७-२६४) साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नमुच्यते, वर्तमानमित्यर्थः, प्रति प्रति बोत्पन्नं प्रत्युत्पन्न भिन्नेषूक्त
१२४॥ (वात्म ) स्वामिकमित्यर्थः तद् प्रहीतुं शीलमस्येति प्रत्युत्पन्नग्राही स ऋजुसूत्र *जुश्रुतो वा नयविधिर्विज्ञातव्यः, तत्र ऋजु-वर्तमानं अतीI तानागतपरित्यागात् परवखिळं तत् सूत्रयति-गमयतीति ऋजुसूत्रः, यता भुजु वक्रषिपर्ययात् अभिमुखं श्रुतं तु शान, ततश्चाभिमुखं ज्ञानमस्थति
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आगम
(४५)
प्रत
सूत्रांक
[१५४
१५५]
गाथा
||१३५
१४१||
दीप
अनुक्रम [३३७
३५० ]
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र -२ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [१५४ १५५] / गाथा [ १३५-१४१] ....
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्तिः
श्रीअनु० हारि. वृत्ती
॥१२५॥
け
ऋजुश्रुतः, शेषज्ञानानभ्युपगमात् अयं हि नयः वर्त्तमानं स्वलिङ्गवचननामादिभिन्नमप्येकं वस्तु प्रतिपद्यते, शेषमवस्थिति, तथाहि अतीतमेष्यं वा न भावः, विनष्टानुत्पन्नत्वाददृश्यत्वात् खपुष्पवत्, तथा परकीय मध्यवस्तु निष्फलत्वात् खपुष्पवत्, तस्माद्वर्त्तमानं स्वं वस्तु, तच्च न टिङ्गादिभिन्नमपि स्वरूपमुज्झति, लिङ्गभिन्नं वटस्तटी तटमिति वचनभिन्नमापो जलं, नामादिभिन्नं नामस्थापनाद्रव्यभावा इति उक्त ऋजुसूत्रः । इच्छति-प्रतिपद्यते, शेषमवस्थिति, तथाहि अतीतमेध्यं वा न भावः । विशेषिततरं-नामस्थापनाद्रव्यविरहेण समानलिंगवचनपर्याय ध्वनिवाच्येन च प्रत्युत्पन्नं वर्त्तमानं वः कः ? -'शप् आक्रोशे' शप्यतेऽनेनेति शब्दः तस्यार्थपरिमहादभेदोपचारान्नयोऽपि शब्द एव, तथाहि अयं नामस्थापनाद्रव्यकुंभा न संस्येवेति मन्यते, तत्कार्याकरणात् खपुष्पवत्, न च भिन्नलिंगवचनं, भेदादेय, स्त्रीपुरुपवत् कुटवृक्षबद्, अतो घट: कुंभ | स्वपर्यायध्वनिवाच्यमेवैकमिति गाथार्थ: । 'वत्थूओ' गाहा (*१३८-२६४ ) वस्तुनः संक्रमणं भवति अवस्तु नये समभिरूडे, वस्तुनो-घटास्वस्य संक्रमणं - अन्यत्र कुटारूयादो गमनं भवति अवस्तु, असदित्यर्थः, नये पर्यालोच्यमाने, कस्मिन् १- नानार्थ समभिरोहणात् समभिरुडस्तस्निन्, इयमंत्र भावना घट कुम्भ इत्यादिशब्दान् भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्भिन्नार्थगोचरानेव मन्यते घटपटादिशब्दानिव तथा च घटनाद् घटः, विशिष्टचेष्टावानर्थो घट इति, तथा 'फुट कौटिल्ये' कुटनाद् कुट, कोटिल्ययोगःत् कुट इति, तथा 'कुम्भ पूरणे' कुंभनात् कुंभः कुत्सित पूरणादित्यर्थः, ततश्च यदि घटायर्थे कुटादिशब्दः प्रपद्यते तदा वस्तुनः कुटादेस्तत्र संक्रांतिः कृता भवति, तथा च सति सर्वधर्माणां नियतस्वभावत्वादन्यसंक्रान्स्वोभयस्वभायोपगमतोऽवस्तुतेत्यलं विस्तरेण उक्तः समभिरूढः । 'वंजण' इत्यादि, व्यज्यते व्यनक्तीति व्यञ्जनं-शब्दः, अर्थस्तु तद्रोचरः, तच्च तदुभयं शब्दार्थलक्षणं एवंभूतो नयः विशेषयति इदमत्र हृदयं शब्दमर्थेन विशेषयति, अर्थच शब्देन ' घट चेष्टायामित्यत्र चेष्टया घटष्टां (शब्द) विशेषयति, घटशब्देनापि चेष्ट्रां, न स्थानभरणाकियां, ततश्च यदा यो पिन्मस्तकव्यवस्थितश्चेष्टावानर्थो घटशब्देनो
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नयाः
॥१२५॥
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
............ मूलं १५४-१५५] / गाथा [१३५-१४१] ........... - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५]चूलिकासूत्र २]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५४
ज्ञाननयः
१५५]
गाथा ||१३५१४१||
श्रीअनुच्य ते सदा स घटः बवाचकश्च शब्दः, अन्यदा वस्त्वन्तरस्येव चेष्टाऽयोगादघटत्वं, तप्यनेश्चावाचकत्वमिति गाथार्थः । इत्थं तावदुक्ता नया:, हारि.वृत्तीपटाभेदप्रभेदास्तु विशेषतादवसेयाः । साम्प्रतं एत एव शामक्रियाधीनत्वात् मोक्षस्व शानक्रियानयज्ञयान्त वडारण समासत: पोषयन्ते, शाननयः
क्रियानयश्च, तत्र ज्ञानमयदर्शनमिदं-ज्ञानमेव प्रधान ऐहिकामुग्मिकफलप्राप्तिकारण, युक्तियुक्तत्वात , तथा चाहणायंमि' ति (७१३९-२६७) ॥१२६||
ज्ञाते-सम्यक् परिछिने 'गोण्हतब् ति यहीतव्ये उपादेये अगिहियवमिति अग्रहीतब्ये, अनुपादेये इये इत्यर्थः, चशब्दः खलूभयोर्महीतल्यापहीतव्ययोतिष्यत्वानुकर्षणार्थः, उपेक्षणीयसमुच्चयार्थो वा, एवकाररुत्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्य:-शात एवं प्रहीतव्ये अपहीतव्ये वा, तथोपेक्षणीये च ज्ञात एक नाज्ञाते, 'अस्थीमति अर्थ ऐहिका मुमिके, सत्र ऐहिकः प्रहीतव्यः सचन्दनांगनादिः, अमहीतन्यो विपशस्त्रकण्टकादिपेक्षणीयस्तुणादिः, आमुमिको महीसम्यः सम्यगदर्शनादिरणहीतग्यो मिथ्यात्वाविरुपेक्षणीयो विषक्षयाऽभ्युदयाविरिति, तस्मिन्न 'यतितथ्यमेति अनुस्वारलापात् यतितव्यमेवं अनेन प्रकारेशहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यार्थना सवेन प्रत्यादिलक्षण: प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः, इत्थं पैतवंगीकर्तव्यं, सम्यगृहाते प्रवतमानस्य फलाविसंवावदर्शनात, तथा चान्यरप्युक्त-विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फळदा मता । मिथ्याज्ञानात्मवृत त्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥शा" तथाऽमुग्मिफफळमाक्यर्विनाऽपि शान एव यतितव्यं, तथा चाssiमोऽप्यवं व्यवस्थितः, या उर्फ 'पढर्म नाणं तओ दया, एवं चिट्ठर सत्यजए । अण्णाणी कि काहिति, किंवा नादिति छेवपाययं ॥ १ ॥ इवश्चैतदेवमंगोकसम्य, यरमा
तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहार कियाऽपि विपिडा, तथा चाऽऽगमः 'गीयस्थों य विहारो बीओ नीयस्थमीसिओ भणिओ । एसो लिसाय विहारो णाणुण्णाओ जिणवरेहि ॥१॥" नहान्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक् पन्धान प्रतिपद्यत त्यभिप्रायः, एवं तावत, भायोपश
शामिकं ज्ञानमधिकृत्योक्त, शायिकमप्यीकृत्य विशिष्टफलसाधकरवं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादईसोऽपि भवांभोषितटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्योका
STES
का॥१२६॥
दीप अनुक्रम [३३७३५०]
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
......... मूलं १५४-१५५] / गाथा [१३५-१४१] .... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४]चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५४
१५५]
गाथा ||१३५१४१||
श्रीअनु चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजायते बावज्जीबाजीवाचखिलवस्तुपरिच्छेवरूप केवलज्ञानं नोत्पन्न मिति, तस्मात् ज्ञानमेव प्रधानमहिकाहारि.वृत्तीमा मुधिभकफळमानिकारणमिति स्थित, इति जो उवएसो सोणयो णाम' ति इत्येवमुतेन न्यायेन य उपदेशो सानाधान्यस्थापनपर: स
नयो नाम, शाननय इत्यर्थः, अयं चतुर्विधेऽपि सम्यक्त्वादिसामाबिके सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकद्वयमेवेच्छनि, साभात्मकत्वादस्य, देश॥१२७॥
विरतिसविरतिसामायिकेतु तकार्यस्वात्तदायत्तत्वाच मेच्छति, गुणभते वेच्छतीति गाथार्थः, उक्को माननयः, अधुना कियानयावस:तदर्शन चेद-पयेव प्रधानमहिकामुश्मिकफलप्रानिकारणं युक्तियुक्तत्वात , तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह'णायमि गिण्डितब्ये। इत्यादि, अस्य क्रियानुसारेण व्याख्या-शाते महीयन्ये चेवार्थ ऐहिकामुभिकफलप्राप्यथिना यतिवन्यमय, म यस्मात्मवृत्यादिलक्ष प्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यमिलपितार्थावाप्रियते. तथा चान्यैरप्यकं-क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञान फलद मवम् । यतः श्रीभक्ष्यभोगज्ञो,।
न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥ १॥" तथाऽऽमुमिकफलप्राप्त्यधिनापि कियव कर्तव्या, तथा च मुनीन्द्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थित, यत उक्त&'चेयकुळगणसंघ आयरियाणं च पवषणसुए य । सव्येमुवि तेण कयं तवसंजममुज्जमतेणं ॥ १ ॥ इतश्चैतदेवमंगीकर्तव्यं, यस्मा
चीर्थकरगणधरः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्त, वथा चाऽऽगम:-'मुबहुंपि सुतमहीतं किं काहिति चरणविप्पमुशरस ? | अंधस्स जह पलित्ता दविसयसहस्सकोडीगि ॥१॥" शिक्रियाविकलत्वाचस्येत्यभिप्राय:, एवं तावन् क्षायोपशमिकं चारित्रमनीकस्योक्तं, क्षायिकमप्य-14 गीकृत्य प्रकृष्ठफल साधकसं तस्यैव शेय, यस्मादहतोऽपि भगवतः समुत्पन्न केवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्तिप्राप्तिः संजायते यावदखिलकम-M॥१२७||
न्धनानलभूता हस्वपञ्चाक्षरोगिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रकिया नावाप्नेति, तस्मारिकयैव प्रधानमहिकामुभिकफलकारण-का दि मिति स्थित, 'इति जो उवएसो सो गीणाम' ति इत्येवमुक्तन्यायेन य उपदेशः क्रिया माधान्यरूपापगपरसनयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः।दा
दीप अनुक्रम [३३७३५०]
PU
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आगम
(४५)
"अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः )
........ मूलं [१५४-१५५] / गाथा [१३५-१४१] .... - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [४५चूलिकासूत्र [२]अनुयोगद्वार मूलं एवं हरिभद्रसूरिजीरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५४
श्रीअनु:
१५५]
॥१२८॥
गाथा ||१३५१४१||
SERISROSOSORDERSECRESS
अयं च सम्यक्त्यादौ चतुर्विधेऽपि सामायिके देशविरविसर्वविरतिसामायिकद्वयमेवेच्छति, क्रियात्मकत्वादस्य, सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामा-18स्थितपक्षः | थिके तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वात नेच्छति, गुणभूते बेच्छनीति गाथार्थः ।। उक्तः क्रियानयः, इत्थं ज्ञानक्रियास्वरूपं श्रुत्वाऽविविवतदनिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह-किमत्र तत्त्वं ?, पक्षद्वयेऽपि युक्तिसंभवात् , आचार्यः पुनराह-'सब्वेसिपि' गाहा (११४०-२६७) अथवा । ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाइ-'सव्वेसिपि गाहा' गाहा, सर्वेषामिति मूलनयानाम्,अपिशब्दात्तद्देवानां च नवानां | द्रव्यास्तिकादीनां बहुविधवक्तव्यता-सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव बाऽनपेक्षमित्यादिरूपां, अथवा नामादीनां कः कं साधुमित्रावतीत्याविरूपां| | निशम्य-श्रुत्वा तत्सर्वनयविशुद्ध-सर्वनयसम्मतं वचनं याचरणगुणस्थितः साधुः, यस्मात्सर्वनया एव भावनिक्षेपमिच्छंतीति गाथार्थः॥
___समाप्तेयं शिष्यहितानामानुयोगद्वारटीका, कृतिः सिताम्बराऽऽचार्यजिनमट्टपादसेवकस्याऽऽचार्यहरिभद्रस्य 'कृत्या विवरणमेतत्प्राप्त | यस्किवियिह मया कुशलम् | अनुयोगपुरस्सरत्वं लभता भन्यो जनस्तेन ॥ १॥
इति श्रीहरिभद्राचार्यरचिता अनुयोगद्वारसूत्रवृत्तिः
दीप अनुक्रम [३३७३५०]
॥१२८॥
मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ४५) “अनुयोगद्वारसूत्र” (हारिभद्रिया-वृत्तिः) परिसमाप्तं
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
भाग-7 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च
"अनुयोगद्वार-चूलिकासूत्र" [हरिभद्रसूरिजी-रचिता वृत्तिः]
(किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह)
मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "अनुयोगद्वारसूत्र” मूलं एवं वृत्ति:" नामेण परिसमाप्त:
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि-2' श्रेणि, भाग-7
~266~
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आजमराम अनमराज माणसाचा माजा आगाम
आगम
ਨਿੱਕ ਦੇ ਜੀ ਸਤਿ
ਲ ਜਿਸ ਦੇ आणणा शाजा रावण आणावामानामा
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सूत्राणि-2
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
EARN
S
PERMANET
SATTA
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर
सूरीश्वरजी महाराज साहेब
श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद
करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है।
इस संघमें पूज्य साधू -भगवंत एवं साध्वी -महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म. की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है |
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________________ आजम आगम आगम आगम जामा मूल संशोधक - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आमाआमाआजामा आजमा आजम आगम - 44 + 45 “नन्दी” + “अनुयोगद्वार" वृत्ति: आणम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आगम आजम आगम आजम आजम आगम ~270