Book Title: Sagar Ke Javaharat
Author(s): Abhaysagar
Publisher: Jain Shwetambar Murtipujak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री बद्धमान स्वामिने नमः ।। सागर के जवाहरात [ पूज्य श्री जवेरसागर जी म. सा. को जीवनगाथा का हिन्दी प्रालेख ] RANF MA शासनोद्धारकाः महापुरुषाः सदास्तुत्य जोधिनः ANARTY -लेखकपू. पन्यासजी श्री अभयसागरजी म.सा. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वर्धमान स्वामिने नमः ।। सागर केजवाहरात [पू. श्री जवेर सागर जी म. सा. की जीवनगाथा का हिन्दी प्रालेख] लेखक: पू. पन्यासजी श्री अभयसागर जी म.सा. शासनोद्धारकाः महापुरुषाः सदास्तुत्य जीविनः हिन्दी संस्करण १००० विक्रम संवत् २०४१ ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : पुस्तक प्राप्ति स्थान : श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ श्री अजीतनाथ धर्मशाला, मालदास सहरी उदयपुर-३१३००१ :प्रकाशक: मंत्री श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्री संघ उदयपुर-३१३००१ : मुद्रक : विपिन मेहता स्वराष्ट्र प्रिन्टर्स अप्सरा होटल के अन्दर उदयपुर-३१३००१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री महावीराय नमः ॥ प्रकाशकीय.... पूज्य उपाध्याय जी श्री धर्मसागर जी महाराज के शिष्यरत्न पूज्य प. गुरुदेव श्री अमय सागर जी म.सा. के शिष्य पू. गणीवर्य श्री अशोक सागर जी म. सा. आदि ठाणा ८ का उदयपुर शहर में संवत् २०४० का सफल चातुर्मास हुआ। प्रथम व्याख्यान में गनीवर्य श्री ने अजोडवादी शान्त,दान्त, त्यागी, तपस्वी, धुरन्धरविदान, दृढ़संयमी पूज्य श्री बवेरसागर जी म.सा. द्वारा संवत् १९३५ से१९४४ तक लगातार उदयपुर शहर में चातुर्मास कर उपासरे को स्थापना, २४ मन्दिरों का जिर्णोद्धार ध्वजा दण्ड कलश एवं अन्य सामग्री दिलवाई, ज्ञान भण्डार को अभिवृद्धि कर शासन की महान सेवा की, इस प्रकार गमीवयंधी ने उदयपुर श्री संघ तथा धावकों पर उनका महान् उपकार बताया। साथ साथ यह मो बताया गया कि इसका सारा विवरण गुजराती भाषा में पू. गुरुदेव श्री अभय सागर जी म. सा. द्वारा लिखित "सागरनु जवेरात" पुस्तक में आपको पढ़ने में आ सकता है। अतएवं उसी समय चौगान के मन्दिर जो से यह पुस्तक प्राप्त कर यह तय किया गया कि मूल पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद करवाया जावें। __ महाराज श्री के सप्रयासों से तशा श्रावकों की धर्म भावना से व्याख्यान में लिए गये निर्णय के बाद इसके Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी रूपान्तरण का कार्य श्रीमान् केशव कान्त जी जोशी सा. को सौंपा गया। उनके कठिन परिश्रम से पाण्डुलिपि तैयार की गई जिसको श्रीमान् यशवन्त कुमारजी जैन लक्की बिरोक्स फोटो कापीयर उदयपुर ने टाईप किया तत्पश्चात् श्री संघ के आदेश से उसका मुद्रण प्रारम्भ करवाया गया। पूज्य गणीवर्य श्री अशोक सागर जी म. सा. की प्रेरणा से इस ऐतिहासिक पुस्तक का हिन्दी संस्करण प्रकाशित करने का शुभ अवसर हमें प्राप्त हुआ इसके लिए हम गणीवर्य श्री के बड़े आनारी हैं। इस पुस्तक में जिन जिन महानुभावों ने व्याख्यान में द्रव्य सहायता करने में ज्ञान के चढ़ावें मावोल्लास में बोलकर एवं पुस्तके लिखवाकर लिया है उन सबके हम बड़े बामारी हैं। अल्पसमय में पुस्तक मुद्रण के लिए प्रकाशक स्वराष्ट्र प्रिन्टर्स के मी आभारी हैं । आशा है पाठकगण इम हिन्दी संस्करण का पूरा पूरा लाम लेंगे। निवेदक के ०एल० जैन मंत्री श्री जैन श्वेताम्बर मूतियूजक श्री संघ उदयपुर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COM 30 288 288058883200-300035302 6:3306 SETTEREST SEAR श्री सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ जी (मालदास स्ट्रीट, उदयपुर) Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख . . . . .. "सागर नु जवैरात" मूल में गुजराती भाषा में लिखित पुस्तक संवत् 2040 के चातुर्मास में उदयपुर श्री संघ के धर्मप्रेमी बन्धूओं के पढ़ने में आई। श्री जिन शासन के तेजस्वी पूज्य श्री जवेर सागर जी महाराज के जीवन वृतान्त का सम्बन्ध मुख्यतया उदयपुर से रहा है । महाराज श्री की उदयपुर श्री संघ के प्रति उपकार की स्मृति यथावत कायम रहे इस हेतु यह निश्चय किया गया कि महाराज श्री के जीवन-चरित्र से सम्बधिन्त इस पुस्तक का हिन्दी रूपान्तर प्रकाशित किया जावे। हर्ष का विषय है कि यह हिन्दी अनुवाद इस अल्प अवधि में ही पाठकों के हाथों में प्रारहा है । आगमज्ञाता, बाद कला के प्रवीण पूज्य श्री जवेर सागर जी महाराज के इस जीवन-चरित्र से उदयपुर श्री संघ के विस्मृत काल की सहज ही स्मृति हो जाती है । हमने इस पुस्तक का आदि से अन्त तक गहन अध्ययन किया है। महाराज श्री की इस जीवन-गाथा से कई ऐतिहासिक एवं सैद्धान्तिक तथ्यों की झलकियाँ मिलती हैं । इसका संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया हैं जिससे महाराज श्री का अद्भुत व्यक्तित्व, जिन शासन की रक्षा प्रभावनाएवं उपकार परायणता आदि का परिचय मिलेगा । उदयपुर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर में महाराज श्री ने दस चातुर्मास किये मेवाड़ के ऊबड़ खाबड़ क्षेत्रों में विचरण किया । अपने अथक प्रयास से महाराज श्री मूर्तिपूजा के विरोध में व्याप्त-भावना को रोकने में सफल हुवे । भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात, कालान्तर में श्रमणपरम्परा, जैन धर्म में एक रूपता स्थापित नही रह सकी । श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं यानिय सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ । यह सब महावीर निर्वाण के 600 वर्षो के अन्दर हो गया । साथ साथ विभिन्न गच्छों एवं शाखाओं का भी उद्भव हुआ । लेकिन मूलसैद्धान्तिक मान्यताओं में प्राय: कोई भिन्नता नहीं आई । मूर्ति पूजा इन तीनो सम्प्रदायो की धार्मिक मान्यताओ का मुख्य अंग मानी जाती रही । 1 मूर्तिपूजा के लिए ऐतिहासिक विद्वानों की मान्यता है कि भारत में सर्वप्रथम मूर्ति पूजा जैन परम्परा द्वारा स्थापित की गई एवं इसेक्रमशः बौद्ध, शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों द्वारा अपनाया । जहां तक जैन धर्म के उक्त तीनों श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों का प्रश्न हैं तीनों में मूर्ति पूजा धार्मिक अनुष्ठान के मुख्य अग के रूप में कायम रही । सम्पूर्ण भारत वर्ष में विक्रम की 15 वी शताब्दी तक ऐसा कोई धार्मिक सम्प्रदाय नहीं था जो मूर्तिपूजा को नही मानता हो । भगवान महावीर के निर्वाण के करीब दो हजार वर्ष तक यह परम्परा स्थापित रही । यवनों के आक्रमण एवं सत्ता - प्राप्ति से उन की धार्मिक मान्यताओं के आधार पर भारत में मूर्तिपूजा का विरोध प्रारम्भ हुआ । सत्ता के पीछे लगना कहीं कहीं मानव स्वभाव पाया गया है । कुछ भी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो इसी काल में भारत में कई सम्प्रदायों का उद्भव हुआ जिनके द्वारा मूर्ति पूजा का विरोध प्रारंभ किया गया । ईमी श्रंखला में संवत् 1542 में जॉभो जी द्वारा विश्नोई सम्प्रदाय सवत् 1636 में दादु जी द्वारा दादु पंथ, संवत् 1708 में लव जी द्वारा स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय, तारण-स्वामी द्वारा तारण पंथ (जैन दिगम्बर शाखा) विक्रम की 17 वीं शताब्दि के पुत्रधिं में कबीरपथ, नानक पंथ, सवत् 1817 में मेवाड़ के नगर भीलवाड़ा के पास सांगानेर से रामानुज (राम स्नेही सम्प्रदाय ) संवत 1817 ही में मेवाड़ ही के केलवा ग्राम से तेरापंथ जैन सम्प्रदाय एवं 100 साल से आर्य समाज आदि मत मतान्तरो का उद्भव हुआ एवं मूर्तिपूजा के विरोध की लहर चलने लगी । जैनाचार्यों के उपदेश का आधार था कि :बिम्बा फलोन्नति यवोन्नति मेवभक्त्या येकार यन्तिजिन सद्भजिना कृतिवा, पूण्य नदीय मिह वागपिने वशक्ता स्तोत परस्य किमुकारयितु देवस्य " अर्थात बिम्बफल के बराबर मन्दिर बनाकर उसमें जौ के दाने के समान प्रतिमा स्थापित करने वाले गृहस्थ के पुण्य का वर्णन नहीं हो सकता । ऐसी अवस्था में मूर्तिपूजा विरोधी लहरने समस्त जैन समाज में प्रतिरक्षा स्वरूप हलचल पैदा कर दी । पूज्य श्री जवेरसागर जी महाराज की जीवन गाथा इस हलचल का ज्वलंत उदाहरण है । महाराज श्री का विचरण इस ध्येयकी पूर्ति की और एक ठोस कदम रहा हैं । महाराज श्री का वि. सं. 1929 एवं 1930 में रतलाम में चातुर्मास एवं कानोड़, चित्तौड़गढ़, अजमेर, कोटा, रामपुरा, झालावाड़, पाटन, भीलवाडा का विचरण मुख्यतया इसी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्येय की पूर्ति हेतु था। मूर्तिपूजा के विरोध को शान्त करना तत्कालीन मुनि-जन का एक महत्वपूर्ण कार्य रहा है । इस चरित्र में, बुटेरायजी, मुलचंद जी, वृद्धिचन्द जी, आत्माराम जी महाराज के नाम आते है। उपरोक्त सभी सन्त स्थानकवासी सम्प्रदाय से आये हुवे थे। मूर्तिपूजक दीक्षा के बाद भी ये सन्त अपने पूर्व के नाम से ही सम्बोधित किये जाते रहे। बुटेराय जी का नाम बुद्धि विजय जी, बुटेराय जी के शिष्य गच्छाधिपति मूलचन्द जी का नाम मुक्तिविजय जी, आत्माराम जी का नाम आनन्द विजय जी (फिर विजयानन्द सूरी) था । मूर्ति-पूजा हेतु इन स्थानकवासी सम्प्रदाय से निकले हुए साधुओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इसके पश्चात भी कई दिग्गज साधु सन्त इस सम्प्रदाय से आये है, जिन्होने मूर्ति-पूजा की ओर अथक प्रयत्न किया हैं। मुख्यतया विजय कमल सूरिजी के शिष्य चरित्र विजय जी (पूर्वनाम धर्मसिंह) ललित विजय जी के शिष्य वासन्तामल जी, बुद्धि सागर जी के शिष्य अजित सागर सूरि (पूर्वनाम अमिर्षि), विजयसूरि जी के शिष्य रत्लविजय जी (पूर्वनाम रलचन्द जी,) इन्ही रत्लविजय जी के शिष्य ज्ञानसुन्दर जी (पूर्वनाम घेवरचन्द जी, घेवर मुनि) ज्ञान सुन्दर जी के सहयोग से दीक्षित गुण सुन्दर जी (पूर्वनाम-गम्भीर मल जी), के नाम उल्लेखनिय है ? गच्छाधिपति श्री मूलचन्द जी महाराज ने प्रारंभ में ही जवेर सागर जी के गुणों को जान उन्हें इस ओर बढ़ने की प्रेरणा दी। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा व मेवाड़ क्षेत्र में मूर्तिपूजा के बढते विरोध को देख इनका उपयुक्त चयन किया। चरित्रनायक श्री अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु बढते रहे, बढते रहे । इस क्षेत्र में इस तरह से भ्रमण किया कि बारह वर्ष तक निरन्तर भ्रमण करते रहे। एक तथ्य स्पष्टतया प्रकट होता है कि श्री जवेर सागर जी महाराज में शाखा एवं गच्छवाद नही था । महाराज श्री के गुरु गौतम सागर जी थे। लेकिन दीक्षा के तीन वर्ष पश्चात ही गुर्वाज्ञा आगम अभ्यास हेतू प्रोढ़ प्रतिभाशाली पू. मूलचन्द जी (मुक्तिविजय जी) एवं वृद्धिचन्द जी महाराज के पास रहकर इन दोनो की पूर्ण कृपा से श्री जैन सिद्धान्तादि अनेक शास्त्रों का गहन अभ्यास किया । इस हेतु महाराज श्री उसी सींघाड़े के भी कहलाते थे इस चरित्र में चरित्रनायक श्री का मूलचन्द जी महाराज के प्रति अपार विनय भाव परिलक्षित होता हैं। प्रन्यास प्रवर श्री सत्य विजय जी गणी ने गुरु आज्ञा ले कर केवल न यतियों की शिथिलता का क्रिया उद्धार किया। अपितु उन्हे उग्र विहारी बनाया । फिर तपागच्छ के महत्व की विजय, सागर, विमल एवं चन्द्र शाखा जो चली आ रही थी उसमें का प्रादुर्भाव हुवा। जवेर सागर जी महाराज मागर शाखा के एवं मूलचन्द जी विजय शाखा के थे। यह महाराज श्री का समभाव दर्शाता है। इतना ही नही जहाँ तक उदयपुर का प्रश्न है, यहां की स्थिति एक विशिष्ट रूप लिऐ हुवे हैं । यहां की मान्यता वास्तविकता के आधार पर रही है और आज भी यथावत कायम है। श्रावक के लिए Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I समस्त मूर्तिपूजक साधु साध्वियां समान हैं । गच्छवाद एवं सिंघाडेवाद की तथाकथित भिन्नता श्रावको के वंशों एवं गौत्रों की भाँति है । विवाद का कोई प्रश्न ही नही है । इसी आधार पर उदयपुर की धरती पर तथाकथित भिन्नता टिकी नहीं रह सकी है । पूज्य श्री के समय उदयपुर की आबादी करीब 25000 से अधिक नही थी, जिसमें समस्त जैन समाज की आबादी का अन्दाज 5000 तक लगाया जा सकता हैं । दिगम्बर समाज की आबादी भी उदयपुर में बहुत पहले से थी । स्थानकवासी सम्प्रदाय का उद्भव हुवे उस समय करीब 235 साल एवं तेराथी सम्प्रदाय के उद्भव को 125 साल हो चुके थे इन सम्प्रदायों का फैलाव भी उदयपुर में हो चुका था । स्थानकवासी एवं तेरहपंथीं दोनों सम्प्रदाय मुर्तिपूजक सम्प्रदाय से हीं निकले थे । ऐसी अवस्था में उस समय मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की आबादी अनुमानत: 2000 थी। इतनी कम आबादी के क्षेत्र में वि. सं. 1942 में हुई 21 मासखमण, एवं करीब 200 अठाई की तपस्या एव उसी साल में हुवे उपध्यान में 505 श्रावक श्राविकाओं द्वारा भागलेना इसबात का सूचक है कि मुर्तिपूजक सम्प्रदाय पूरा का पूरा एक जूट था । गच्छवाद एवं सिंघाड़ावाद जैसी कोई भिन्नता उदयपुर में नहीं थी । हम इस एकाग्रता का श्रेय पूज्य जवेर सागर जी महाराज सा. को देवें तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी । मेरा इस विवरण से अभिप्राय वर्तमान में फैली अलगाववादी मान्यताओं के कारण विवशतावश है । मूर्तिपूजक सम्प्रदाय विभिन्न के गच्छों को एक तरफ रखते हुए केवल तपागच्छ की वर्तमान स्थिति को ही देखा जाय तो सहज विदित होगा कि यह गच्छ कितने Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टुकड़ो में विभाजित हो गया है कर दिया गया है। किये जाने के प्रबल प्रणाम हैं। पूज्य जवेर सागर जी महाराज के जीवन चरित्र से समस्त साधू साध्वी श्रावक श्राविकाओं को एकता का सबक लेना उचित हैं । पूज्य श्री जवेर सागर जी महाराज सा. के चरित्र से यह भी प्रकट होता है कि तत्समयसमस्त तपागच्छ का एक ही गच्छाधि पति होता था । लेकिन आज की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । क्या हमारा साधु एवं श्रावक समाज पूर्व इस व्यवस्था की सराहना नही करेगा एवं वर्तमान स्थिति की विषमता के निवारण की ओर ध्यान नहीं देगा । चरित्रनायक के देवनागरी में लिखित प्राचीन-पत्रों एवं दस्ता वेजों से ज्ञात होता हैं कि गुजरात ( मेहसाना) के मूल निवासी होते वे भी उन्हें मेवाड़ी, मालवी, एवं हिन्दी का अच्छा ज्ञान था । इन्ही 2 पत्रों एवं दस्तावेजों को आधार बनाकर यह पुस्तक लिखी गई है । इस चरित्र के लेखक श्री आगम ज्ञान निपुण - मति, आदर्शचरित्रधर, बहुतविद्वत प्रवर, प्रन्यास प्रवर श्री अभय सागर जी महाराज है जो अपने श्री संघ की पहली श्र ेणी के विद्वान हैं । इससे आपके शास्त्रीय ज्ञान का लाभ, आदर्श गुरु भक्ति, शास्त्रप्रीति एवं शास्त्र की वफादारी का दर्शन सुज्ञ पाठकों को मिलता हैं । अन्त में इस हिन्दी रुपान्तर की प्रेरणा देने वाले विद्धान गणिवर्य श्री अशोक सागर जी के सद्प्रयासों के भी हम प्रभारी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। उन्हीं की कृपा से यह कार्य सम्पादित हो सका है । मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि आमुख लेखन हेतु आपने मुझे आज्ञादी | मुझे इस बात को प्रसन्नता है कि आज्ञा की अनुपालना में मुझे एक गीतार्थ, गण शणगार श्रमण, त्यागी, तपस्वी एवं संयमी मुनि श्री जवेर सागर जी महाराज सा. की जीवन गाथा को गहराई से अध्ययन करने का लाभ मिला है । मुझे पुर्ण आशा है आप सब भी इससे लाभान्वित होगे । निवेदक जसवन्त लाल मेहता अध्यक्ष जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्री संघ उदयपुर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमः श्री जिनशासनाय । सम्पादक की ओर से....... श्री देवगुरू-कृपा से जिनशासन के महान् ज्योतिधर आगम-सम्राट श्री आगमोद्धारक प्राचार्य देवश्री के समुद्र जैसे अगाध जीवन चरित्र के लेखन का मंगल कार्य पू. गच्छाधिपति आ. श्री माणिक्यसागर सूखियं श्री को वरद कृपा से, उनकी हैसियत के बाहर होने पर भी सुव्यवस्थित रुप से चलाया। उसके दूसरे भाग में पू. प्रागमोद्धारक प्राचार्य देव श्री की दीक्षा के प्रसंग का आलेखन देवगुरु-कृपा से मिले अनेक प्राचीन प्रामाणिक पत्रों का संकलन होने पर मांगलिक विचार स्फुरित हुआ है। जगप्रसिद्ध महापुरुषों के जीवन चरित्र की श्रेणी में पू. प्रागमोद्धारक आचार्य देवश्री गुरुभगवंत श्री झवेर सागर जी म. का नाम मुख्य प्राता Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, फिर भी उनका जीवन-चरित्र क्यों नही लिखा गया ? उसका कारण यह समझ में आता है कि"माधारभूत प्रामाणिक सूचनाओं की श्रृंखला के अभाव में पू. श्री भवेर सागर जी म. का जीवनचरित्र साकार नहीं बन सका। जिससे देवगुरु कृपा से प्राप्त प्रामाणिक सूचनाओं के मिलने के आधार पर पू. प्रागमोद्धारक प्राचार्य देवश्री के जीवनचरित्र तनिक अप्रासंगिकता के दोष को दूर कर समस्त सामग्री का उपयोग यथाशक्ति करने का विचार किया है। इस तरह प्रयत्न करने पर लिखे हुए जीवनचरित्र को स्वतंत्र रुप देने का सोचा गया इस तरफ जिसे इस ग्रंथ का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होने पाया है । इस ग्रंथ के पालेखन में देवगुरु कृपा से उदयपुर के गोडी जी उपाश्रय के कमरे से प्राप्त हुए पुराने पत्रों का सहयोग ज्यादा है। इसके अतिरिक्त वि. सं. १९४५ में प्रकाशित उदयपुर श्री संघ की " श्री गोडी जी महाराज का भण्डार की Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्था श्रोर जैन मुनियों कृ त उपगार का वृतान्त' पुस्तका का भी बहुत सहकार मिला है। इसके अतिरिक्त सागर - शाखा की पट्टपरम्परा, तपागच्छपट्टावली आदि ग्रंथों का भी प्रामाणिक सहारा मिला है । इस प्रलेखना को अधिक सफल बनाने में अनेक धर्मप्रेम पुण्यात्मानों का सहयोग मिला है । जिसमें मुख्य रूप से प्रेस कापी वगैरह बनाने में मुनि श्री निरूपम सागर जी म. मुनि श्री हेमचन्द्र सागर जी म., मुनि श्री पुण्य शेहर सागर जी म. आदि के उद्यात धर्म-प्रेम से मन भरे सहकार की गुणानुराग भरी अनुमोदन करता हूं । मुझे तो इस जीवन चरित्र के कार्य में शुरु से अंत तक पंचपरमेष्ठियों की करूणा और दिव्यशक्ति का अच्छा और स्पष्ट अनुभव हुआ है इसके अतिरिक्त बारीक से बारीक जानकारी स्थल, समय की कीमत की जानकारी किस तरह प्राप्त कर सकूं । जिससे मैं नमस्कार महामंत्र का प्रत्यधिक ऋरणी हुं इस तरह सफलता सबके सामने है । " Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके अतिरिक्त मेरे तारक माराध्यापाद गुरुदेव श्री पू. उपाध्याय भगवंत श्री की अदृश्य कृपा का आभारी हूं। अंत में परमकृपालु परमतारक श्री जिनशासन गगन के तेजस्वी तारक समान पू. श्री झवेरसागर जी म. श्री के अद्भुत लोकोतर व्यक्तित्व के परिरणाम स्वरुप यथाशक्ति खोज तथा स्वयं के परिश्रम पुरुषार्थ के मापदण्ड से प्रमाणित सूची के आधार पर लिखे हुए इस जीवन चरित्र में स्मृतिदोष दृष्टिदोष, छन्नस्थलता यदि कोई रही हो तो चतुविद श्री संघ के समक्ष हार्दिक मिथ्यादष्कृत देने के साथ चतुर्विध श्री संघ में ऐसे महापुरुषों के जीवन से प्रकट होने वाली अपूर्व दिव्यप्रेरणा का बल व्यापक बने इसी शुभ अभिलाषा के साथ विरमित हूं। जैन उपाश्रय निवेदक पानसर तीर्थ पूज्य उपाध्याय वीर नि. सं. २५०६ श्री धर्म सागर जी म. का वि. सं. २०३६ चरणोपासक माघ सु. १२ सोमवार अभयसागर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री जवेरसागर जी म. सा. Page #21 --------------------------------------------------------------------------  Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NeATCH जवाब VCOMM815 EYWOMEMOVAYBOMसप्टनमाल लान JABRDAsthi m SISTURI RVINAS श्री वर्द्धमान स्वामिने नमः सागर शाखा के तेजस्वी ज्योतिर्धर पू. श्री झवेरसागर जी म. श्री के जीवन एवं अद्भुत व्यक्तित्व का संक्षिप्त परिचय जिन शासन रूपी उपवन में अनेक हृदय प्रांदोलित हो उठे ऐसे सुगन्धी वाले अनेक पुष्पों से लदे हुए प्रसून-पादप विकसित होते हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन एवं प्रभुप्राज्ञा को जीव पूर्णतः समर्पित स्वपरक्ल्याण की उच्च भूमिका को भुनाने वाले अनेक महापुरुष जिन शासन-गगन में पंचम-पारा के विषम प्रभाव को भी धूमिल कर प्रकाशित हो गये हैं। ऐसे पवित्र नाम धेय अनेक महापुरुष विक्रम की बीसवीं सदी में अपर पूर्वाध को स्वयं की प्रतिभा एवं शासन प्रभावकताऐ अधिक तेजस्वी बनाने वाले पू. श्री झवेर सागर जी म. के जीवन एवं अदभुत व्यक्तित्व की पूर्ण अज्ञात रहस्यों को कठिन प्रयत्नों से संशोधनपूर्वक संग्रह प्रकट कर उन श्री के लोकोत्तर जीवन-चरित्र का आलेखन करने का विनम्र प्रयास देव गुरु कृपा से किया जा रहा है। सूत्र विवेकी पाठक इस जोवन-चरित्र को पढ़कर विचार कर महापुरुषों के लोकोत्तर शक्तियों का परिचय विशिष्ट रीति से ग्रहण करे इस उदार प्राशय से यह जीवन चरित्र का संक्षिप्त पालेखन किया है। महापुरुष की पहचान जीवन शक्तियों के प्रवाह को उर्ध्वगामो बनाने वाले महापुरुषों में जन्मजात दिखाते कतिपय विशिष्ट सद्गुणों का आकर्षण उनको जगत के सामने Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्यरुप में प्रकट करता है। ऐसे कितनेक गुरणों से युक्त महत्व के गुरण ये हैं - १. विशालता २. अद्भुत क्षमा ३. स्वदोष दृष्टि ४. सहनशीलता ५. परार्थवृति ६. उदात्त करुणा ७. दोषियों पर अधिक करुणा ८. अन्तरदृष्टि का विकास ६. जीव मात्र के कल्याण की तीव अभिलाषा । अजोड़वादी विजेता श्री डॉवेरसागर जी म.सा. शासन नायक श्री महावीर-भगवान् के अविछिन्न प्रणाली के रूप में शुद्ध समाचारो को जीवित रखने वाले श्री तपागच्छ की महत्त्व की, विजय, सागर, विमल तथा चन्द्र शाखाओं में शासनोद्योत तथा आगमिक - परम्पराओं को अधिक सजीव रखने वाले विशिष्ठ महापुरुषों से सागर शाखा पिछले 400 वर्षों में खूद समृद्ध रोति से पुष्पित पल्लवित अनेक मनिषियों के हृदय को आकर्षित करने वाली बनी है । ___ उस सागर शाखा में बारहवी पाट शासन-प्रभावक अजोड़ क्रिया पात्र के रूप में पू. मुनि श्री मयासागर जी म. उन्नीसवी सदी के उत्तरार्द्ध भाग में तेजस्वी तारक सभा-जिन Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन-गगन में चमक रहे कि जिनकी अद्धितीय सयम-प्रभाज्ञानप्रभा तथा चरित्र प्रभा से अहमदाबाद के धनसमृद्ध नगर सेठ के वंशज श्री शासन की अद्धितीय महिमा का ' भावुक भक्त" बनकर स्व-परकल्याणकारी जोवन जी सके थे। उन श्री मयासागर जी म. के दो शिष्य थे : (1) उत्कृष्ट क्रियापात्र शुद्ध संवेगो पू. नेम सागर जी म. (2) अजोड़ विद्धान प्रखर व्याख्याता पू. मुनि श्री गौतम सागर जी म./पू. मुनि श्री गौतम सागर जी म श्रमण संस्था के कालबल से धूमिल पड़े गौरव को दैदीप्य करते थे । वे विविध शास्त्रों के अभ्यासी थे। . उसी प्रकार समयचक्र के परिवर्तन के बल पर शिथिलाचारी बने श्रमणों के व्यक्तिगत जीवन से मुग्ध जीव प्रभुशासन को पहचान से वंचित न रहे इस उद्देश्य से क्रियोद्धार के द्वारा शुद्ध मार्ग को स्थिर रखने में जिस संवेगी परम्परा का सर्जन उस समय के दीर्धदर्शी महापुरूषों ने किया था जिसमें पीत वस्त्र रखकर उत्तराधिकार में प्राप्त ज्ञान को कितनी ही महत्त्व की बातों को गौरग करके भी चरित्र के मार्ग को अक्षुण्ण अबाध रुप में खड़ा रखा था । उस परम्परा के समस्त प्रयत्नों को प्रोत्साहन प्रदान करने विविध प्रदेशों में विचरण करके शास्त्रों की जय जय Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार करने वाले पू. मुनि श्री गौतम सागर जी म. उस समय शासननुरागी गुणग्राही आराधक पुण्यात्मानों में वे ध्रुव तारा के समान थे। पुनः पू. गोतम सागर जी म. राज्य शासन के छिन्न भिन्न तन्त्र के आधार पर फिसले गये प्रजाजीवन में, धर्मतन्त्र की सुन्यवस्था द्वारा, अपूर्व-शान्ति के अमृत-सिंचन करने के द्वारा, भव्य-जीवों के लिए वे आश्वासन रूप थे। ऐसे पू. श्री गौतम सागर जी म. को मोजस्विनी शास्त्रीय शुद्ध देशना तथा उद्यत विहारिता से आकर्षित होकर मेहसाणा जैन श्री संघ ने वि.स. 1912 का चौमासा आग्रहपूर्वक कराकर विविध धर्म कार्यों से तथा विशिष्ट प्रभावना से उसे स्मरणीय बनाया था । इस चातुर्मास के अन्तर्गत झवेर चन्द जी नाम के नवयुवक चढ़ती युवावस्था में जीवन की सफलता सर्वविरक्ति को स्वीकार करना समझ वैराग्य के रंग में खूब रंग गये तथा पू. गुरुदेव श्री के प्रभु-शासन के संयम-मार्ग में निश्रा प्रदान करने के लिए आग्रहभरी विनती की। पूज्य मुनि श्री गौतम सागर जी म. ने भी क्षरण जीवी तरंग तथा भावनाओं के आवेग में कही अपरिपक्व निर्णयों में जीवन उलझ न जाय अत्तः बारम्बार विविध Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्षणों के द्वारा झवेर चन्द को मनोवृति, वैराग्य-भावना की परीक्षा, संयम ग्रहण करने का दायित्व समझाकर कुटम्बियों को सम्मति प्राप्त करने के प्रयत्न करने की बात जताई। प्रारम्भ में मोह के उत्साह-उमंग से लिपटे विवेकी तथा बुद्धिशाली कुटम्बियों के “ यम को दिया जाय पर यति को न दें।" उसी प्रकार " अभी तो तेरी कच्ची उम्र है न” “संसार के भोगों को समझे बिना अनुभव किये बिना क्यों उतावला होता आदि शब्दजाल को भूल भुलेया युक्त जंजाल में झवेरचंद जी के मन को इधर-उधर करने का प्रयास किया । संवेग रंग वाले झवेरचंद ने शरीर की असारता तथा जीवन की क्षण भंगुरता समझने के साथ धर्म आराधना में तनिक भी प्रमाद न करने की प्रकट की, उसी प्रकार अपने रहन-सहन कथनी में सादगी, विगाहयों का त्याग, आंबिल को तपस्या आदि से चालू जोवन व्यवहार में त्याग-बैराग्य का प्रतिबिंब उत्पन्न कर कुटम्बो जनों को अन्ततः सहमत किया । माता जी का मोह किसी भी प्रकार शिथिल नहीं हुआ जिससे जवरचन्द भाई ने पू. श्री गौतम सागर जी म. को सम्पूर्ण बातें कही । पू. श्री गौतम सागर जी म. श्री ने “सॉपमरे नहीं", पत्थर के नीचे अँगुली हो तो बल नहीं, कल का काम " कल के स्थान बल प्रयोग से बात टूटे-बिगड़ जाय" आदि सुभा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षितों को दृष्टि में रखकर झवेर चन्द जो को समझाया है कि- “भाई ! तुम्हारो उम्र अभ पन्द्रह साल की है । कार्तिक कृष्ण में तुम्हें सोलहवॉ साल लगेगा । का. पूनम के बाद में यहाँ से विहार करके अहमदाबाद जाऊँगा, वहां तुम का. व. में आ जाना। सौलह साल के तुम हो जायो बाद में शास्त्रीय ओर सामाजिक नियमानुसार कोई रुकावट नहीं है और तुम्हारी माता तो बहुत धर्म के रंग से रंगी हुई है । मोह के बन्धन प्रच्छे-अच्छों के बाधा डालते हैं किन्तु फिर भी कोई संयम लेने के बाद तुम्हें कोई वापस नहीं ले जायेगा । इसका मुझे विश्वास हैं। कितनी बार संयोगों की विषमताएँ राज मार्ग को भी छोड़कर अपवादिक गलीकूची का भी सहारा लेना पड़ता है। इसलिए थोड़ा धीरज रख। जल्दी किसी काम को बिगाड़तो है। झवेरचन्द ने भी का. पूणिमा होने पर तत्काल अपने आप के संसार रुपी खाई में से छूट पड़ने के अवसर में शिथिलता हो इसकी अपने अन्तरात्मा में विचार कर पू. गुरुदेव के वचनों को शिरोधार्य कर बात कोथोड़ा भूला पटका कार्तिक पूर्णिमा पर सिद्धाचल जी की पटको यात्रा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरो कर पू. मुनि श्री गौतम सागर जी म.श्री ने अहमदाबाद तरफ विहार किया । झवेर चन्द ने पु. गुरुदेव के साथ विहार में रहने को भावना को परन्तु ऐसा करने में कार्तिक विद में स्वयं अहमदाबाद पहुँचकर दोक्षा देने में कुटम्बोजन व्यर्थ में महाराज को लड़का भगा ले जाने के आरोप में वातावरण क्षुब्धन हो अतः गुरु प्राज्ञा का अनुसरण कर झवेर चन्द घर पुन: लौट आये अोर कारागृह में रहें कैदी जेसे दिन गिन ऐसे कार्तिक विद दस दिन दस युग के समान बिताये । पू. गुरुदेव श्री की सूचना के आधार पर का.वि ११ सोमवार को सूर्योदय के समय मंगलकारी विजय मुहूर्त में सात नवकार गिन कर घर से निकल कर मोटा दहेरासरे स्नान कर श्री मनरंगा पार्श्वनाथ प्रभु तथा श्री सुमतिनाथ प्रभु को वासक्षेप पूजा करके एक बधि माला नवकार महामंत्र की गिन कर अमृत चौघड़ियां में 22 नवकार गणी महेसाणा से प्रस्थान करके योग्य साधन द्वारा का. विद. 13 बुधवार के दुसरे अमृत चौघड़ियो में राजनगर अहमदाबाद में झोरोवाड़ा, सूरजमल सेठ के डेला में बिराजमान पू. श्री गौतम सागर जी म. के चरणों में उमंग भरे पहुँच गये । पू. महाराज श्री ने भी चढ़ते उत्साह में संयम भावना से अोतप्रोत बने श्री झवेरचन्द को योग्य आशीर्वाद Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासक्षप द्वारा दिया। झवेर चन्द भाई ने विद 14 को अधोरात्रि-पौषध पू. गुरुदेव श्री के पास किया। पौषध के बीच में दोपहर पू गुरुदेव से श्री झवेर चन्द ने खुद को जल्दी से जल्दो भागवती दीक्षा का प्रदान करने का प्रार्थना की पर पू.महाराज श्री ने कहा कि-"भाई प्रत्येक कार्य पद्धतिपूर्वक करने से पीछे से पछताना न पड़े, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावना का भी कार्य सिद्धि प्रबल निमित्त रूप में महत्व है" यहां के नगर सेठ अपनी सागर परम्परा के श्रद्धावान भक्त है उनके कान में डाले बिना ऐसा महत्वपूर्ण कार्य कैसे हो? अब तू निश्चिन्त रह ! का. वि. 10 से तुझझे सोलहवाँ लगा है अब नियमानुसार तेरे पर तेरे कुटुम्बीजन कुछ भी कर सके ऐसा नहीं है । अन्य कुटुम्बो शायद पाकर झगड़ा करें या मोहमाया का प्रदर्शन करें तो उस हालत में टिक ना तेरे आत्मबल पर निर्भर है । यदि मोह के संस्कारों का तू बराबर जीत न सका हो तो संयम लेक र अन्ततः मोह के स्वार्थ जंजाल में फस जाय । इसलिए शायद कुटुम्बी पाबें तब भी धबराना नहीं । अभी विद पक्ष चल रहा है । सू.2 के मंगल दिन मुहूर्त देखकर Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्य दिवस निर्धारित कर लेंऊ और तदुपरान्त यहां के प्रमुख नेताओं से बात कर देखूँ । यदि वे सहमत हो जाएँ तो शासन प्रभावना पूर्वक तेरो दीक्षा हो तो तुझे क्या हैं ? भवेरचन्द तो पू. गुरुदेव श्री की पुरोगामी दूरदृष्टि, शास्त्रानुसारिता तथा व्यवहार कुशलता देखकर मन ही मन गुरुदेव श्री पर न्यौछावर हो गया । का पू. मुनि श्री गौतम सागर जी म. को माघ सु. 2 दिन पचग-शुद्धि योगबल तथा चन्द्रबल वाले दिन मुहूर्त की दृष्टि से देखव र माग सु. 11 का दिन सर्वश्रेष्ठ लगा । सोने में सुगन्ध की तरह जैसे अठारवें तार्थं कर श्री अरहनाथ प्रभु तथा उनीसवें तार्थकर श्री मल्लिनाथ प्रभु को दीक्षा दिवस के पश्चात डेढ़ सौ तथा तीन सौ कल्याणक की बाररारूप महापवित्र मौन एकादशी रूप गिना जाता है । माघ सु. 11 का दिन मुनि पद दिलाने के लिए सर्वोतम धारकर दीक्षा के मंगल मुहूर्त के रूप में निर्धारित किया । झवेरचन्द भी इस बात को जानकर अपने संयम जीवन को सरलता के लिए उत्कृष्ट कोटि का मंगल मुहूर्त जो गुरु महाराज ने निश्चित किया उसे "गुरु आज्ञा प्रमाण ' मानकर अपना मुँह बंधवा लिया । १० Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चात पू. मुनि श्री गौतम सागर जी म. ने अग्रगण्य श्रावकों, नगरसेठ इत्यादि को ठोक समय पर सारी बात कही । उन्होंने भी उगती उम्र में दोक्षित होने वाले व्यक्ति के व्यवहारिक रूप में परीक्षा जांच कर चढ़ती युवावस्था में प्रबलगुण अनुराग भरा अभिवादन किया। कतिपय पिछले श्रावकों ने प्रश्न किया कि इसके कुटुम्बी क्यों नहीं पाये ? पर विवेकी श्रावकों में पू. महाराज श्री पास से पूरी जानकारी किये हुए होने से भाई सोहे की बेड़ियों काटना सरल है । लेकिन ममता के कच्चे सूत्र के बन्धन शीघ्र नहीं टूटते । इतने दिन से यह भाई यहां है । यदि वास्तव में कुटुम्बियों का विरोध होता तो उसे उठा क्यों न ले गये होते । इसलिए इस मोह की गहरी छाया के नीचे रहने वालों को ऐसी स्थिति होतो है"। आदि समझाकर मन को संतुष्ट किया। - पू गुरु श्री का सम्पति से श्री संभवनाथ प्रभु के दहरे अष्ठान्हिका-महोत्सव तथा दीक्षार्थी को भव्य वस्त्रालंकारों से सुसज्जित कर दोक्षा के अधिक सम्मानार्थ बना ले (वायणा) जिमाने प्रारम्भ किये। संवेगी साधुत्रों की परम्परायें यह पहली छोटी आयु की दीक्षा है । ऐसा जानकर सम्पूर्ण राजनगर में अत्यधिक धर्मोत्साह जारी रहा। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ सु. 10 के दोपहर वर्षीदान का भव्य वरघोड़ा निकला जिसमें अनेक प्रकार की सामग्री हाथी, घोड़ा, छड़ीदार, चौघड़िया विविध देशी बाजे, चाँदी का भव्य रथ जिसमें वीतराग प्रभु की सुन्दर प्रशमरस भरती प्रतिमा श्री प्रभु जी की पालकी प्रभु भक्ति के लिए संगीतकारों की मण्डली उसके उपरान्त चार घोड़ों की सजाई गई बघ्घी में छुटे हाथ से वर्षीदान देते दक्षार्थी थे । ऐसा भव्य वरघोड़ा अहमदाबादी धार्मिक प्रणाली में अनेकों वर्षों के बाद पहली बार देखा । नगरसेठ के घर से यह वर्षीदान का वरघोड़ा निकल कर पूरे शहर में फिर कर भवेरीवाड़ श्री संभवनाथ - प्रभु के जिनालय में उतरा तथा दीक्षार्थी भवेरचन्द भाई पू. गुरुदेव के पास रात्रिवास में रहे । आने वाले कल पू. गुरुदेव श्री के चरणों में ग्रात्म समर्पण स्वरूप महाभागीरथ भागवती दीक्षा लेने के पूर्व में भूमिका के रूप गुरदेव के चरणों में मानसिक पूर्व तैयारी हेतु भोग-विलास के मोहक वातावरण में से विमुख होकर प्रतिक्रमण आदि करके सथारे सो गये । मौन एकादशी के मंगल प्रभात में राई प्रतिक्रमण कर पू. गुरुदेव श्री के चरणों में आत्मनिवेदन युक्त दीक्षा ग्रहण के लिए पूर्व तैयारी रूप जयरणापूर्वक स्नान करके श्री १२ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभवनाथ प्रभु देरे के भावोल्लास भरी अष्टप्रकारी पूजा कर स्नात्र पढ़कर, शान्ति कलश करके मंगल वस्त्र पहनाकर दीक्षा के लिए भव्य सजावटयुक्त खड़े किये गये मण्डप में मंगलवाद्यों के घोष के साथ शुभ शकुन की प्रेरणा जुटाकर सौभाग्यशाली सधवा स्त्रियों के मंगल गीत के मध्य झवेर चन्द भाई ने उमंग भरे प्रवेश किया । पू. गुरुदेव श्री को वंदना कर ज्ञान पूजा कर, मंगल वासक्षेप नीचे डालकर हाथ में श्रीफल रख नंदा समवसरण में रहने वाले चतुर्मुख जन बिबों को साक्षी अरिहंत समान समझकर श्री नवकार मंत्र की गिनती के साथ ही तीन प्रदक्षिणा दी। पश्चात श्री गुरुदेव के दाहिने हाथ इशान कोण के सामने मुख रखकर बारित्र ग्रहण करने के अपूर्व उत्साह के साथ श्री गुरुदेव के स्वमुख से मंगल क्रिया का प्रारम्भ किया। योग्य मुहूर्त में “ोघा” मांत्रिक-विधि के साथ वासक्षेप अभिमंत्रण के साथ जब मिला ता झवेर चन्द भाई जाने तीनों लोकों का राज्य मिल गया हो ऐसा उमंग से उल्लासित खूब नाचा तथा प्रभुशासन के संयम को प्राप्त कर जीवन को धन्य बनाया। AY Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाकी की विधि होने के पश्चात शुभ लग्न नवमांश में मुनि श्री झवेर सागर जी नामक रण हुअा।। सकल श्री संघ में भी जिन शासन के प्रबल जयघोषयुक्त नूतन मुनि श्री ने अभिमत्रण वासक्षेप वाले अक्षत से भावपूर्वक उनका स्वागत किया। पू. गुरुदेव ने मंगलकारी हित शिक्षा फरमायी की "देवों को भी दुर्लभ म नव जीवन के सार रूप सावध योग के सर्वथा त्याग स्वरूप सर्व विरक्ति-धर्म की प्राप्ति की है तो प्रभु शासन के श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने के साथ संयम धर्म का सफल पालन गुरुनि ठा से आत्मसमर्पण युक्त करके जीवन धन्य प.वन बन ओं" नव दीक्षित मुनि श्री ने भी पू. गुरुदेव श्री के वचनों को शुकन की गांठ की तरह हृदय में बराबर धारण कर • लिया। पीछे सकलसंघ के साथ महोत्सव पूर्वक श्री संभवनाथ प्रभु के जिनालय दर्शन, चैत्यवंदन कर सूरजमल सेठ के डेरे पधारे । सागर शाखा के बाहर पट्टधर पू. मुनि श्री मयासागरजी म.के दो शिष्य-प्राध्य शिप्य पू. मुनि नेम सागर जी म. तथा उनकी परम्परा शासन के भव्य गौरव को बढ़ाने वाले बस Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी तरह द्वितीय शिष्य पू. मुनि गौतम सागर जी म. भी.. अजोड़ व्याख्यान व ला तथा वीरता से शासन प्रभावना अद्भूत रीति से कर रहे थे। उनमें शासन के विजयंत प्रभाव के बल से ही संघ के पूण्य में पू. झवेर सागर जी म. जैसे अद्वितीय, अजोड़ यात्मशक्ति वाले शिश्य को प्राप्त कर उनकी शासनोद्योत की प्रवृत्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। दीक्षा हुई तब से हो द्वितीया के चन्द्रमा की कलाओं के समान पूर्वज की विशिष्ठ अाराधना के बल से श्री गुरुदेव की निष्ठा में आवश्यक क्रियाओं के अध्ययन, साथ ही सं म की सूक्ष्मतर जयणा के सम्बन्ध में सावधानीपूर्वक श्री झवेर सागर जी महाराज ने पू. गुरुदेव श्री के संकेत मात्र से गम्भीयुक्त समझ के साथ निपुणता को प्राप्त कर लिया । अधिक में तात्विक दृष्टि के विकास को प्राप्त कर संयम की क्रियाओं, ज्ञानाभ्यास तथा चार प्रकरण, तीन भाव्य, छःकर्मग्रन्थ श्री तत्वार्थ सूत्र आदि का सागोपांग अभ्यास कर लिया। अधिक से हृदय में धड़क रहे विशिष्ट शीसनानुराग को मूर्त रूप प्रदान करना उपयोगी हो सके ऐसा शुभ प्राशय से पू. गुरुदेव श्री के निर्देशन प्रमाण से आगमाभ्यास के Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए आवश्यक शब्दज्ञान की भूमिका परिपक्व करने के लिए “सर्वसामेव विद्यानां मुखं व्याकरणं स्मृतम्" सूक्ति के प्रमाणनुसार पदभंजन, व्युत्पत्ति तथा सचोट भाषा-ज्ञान प्राप्त करने के सारस्वत-व्याकरण का अभ्यास प्रारम्भ किया। ___ बहुत शीघ्रता से पूर्वाध-उत्तरार्ध दोनो के मूलपाठ को कंठस्थ कर उसके अर्थ के विवेचन को भी तीव्र बुद्धि के सफल सहयोग से प्राप्त कर साहित्य शास्त्र में अवगाह्न कर (डुबकीलगाकर) तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र की कठिन परिभाषाओं को भी गुरुकृपा से हस्तामलकवा कर लिया। पू. श्री झवेर सागर जी म. श्री को गुरु कृपा के बल, विनय तथा प्राज्ञाकारिता से मिला हा पूर्व-जन्म की आरधाना से बल प्राप्त कर ज्ञान के तीव्र क्षयोपसम के बल से एक बार में पढ़ा हुअा या सुना हुआस्मृतिपथ पर सावधानी पूर्वक अंकित हो जाता । धारणा शक्ति तथा स्मृति-शक्ति अजोड़ थी । प्राप्त किये ज्ञान को स्थिर करने का इच्छा भो अद्भुत थी। __संध्या को प्रतिक्रमण के पश्चात् रात्रि में ठेठ देर रात ग्यारह बजे तक तथा सवेरे जल्दी उठकर चार बजे कंठस्थ श्लोकों की आवृति पुनरावर्तन करने को उद्यत रहते । ___ यह सब देखकर भविष्य में शासन का यह अजोड़ प्रभावक बनेगा यह धारणा मूर्तिमंत होकर इस कल्पनाचित्र से श्री पू. गौतम सागर जी महाराज का हृदय आन्नदविभोर बना रहता था। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके उपरान्त भी झवेर सागर जी महाराज ने अपने गुरु बन्धुओं के साथ सौमनस्य भाव त्यों ही यथोंचित विनय मर्यादा का व्यवहार कर सामुदायिक-जीवन के आदर्श संस्कारों को जीवन में स्थापित किया। अनेक अवसरों पर पू. गुरुदेव श्री के शासनोपयोगा कार्य में भी यथायोग्य सहकार देकर शासन हितकर प्रांतरिक अनुभव जुटाने में उद्यत रहे । पूज्य श्री साधु जीवन की मर्यादा में तथा क्रियाकांड की स्फूर्ति से सम्पादन में खूब सजग थे । इसी प्रकार उन श्री ने जीवन में तत्व-दृष्टि तथा विवेक पूर्ण प्रवृति के सुमेल से दिन-प्रतिदिन वैराग्य के रंग को दृढ़तर बना लिया था, वे शुद्ध चरित्र की सुगन्ध से स्वसमुदाय के अतिरिक्त दूसरे भी अनेक धर्मप्रेमियों के मन में शुद्ध-साधुता के प्रतीकरूप बन गये। त्याग-तप सुमेल वाले साधु जीवन में श्री पूर्व के महापुरुषों के चरणानुरागी बने थे। अनेक धर्म के कार्यों को शासनानुसारी दूरदृष्टि से सफलतायुवत उन्होंने बनाकर अनेक पुण्यवान धर्मप्रेमी-आत्माओं के आकर्षण केन्द्ररूप प्रकट हुए थे। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु महाराज की निश्रा में गुजरात के छोटे-बड़े गांवों में विचरण करते समय पूज्य श्री व्याख्यान पटुता तथा प्रतिभाशाली शब्द-शैली से अनेक भव्य आत्माओं के हृदय में अद्भुत धर्म प्रेरणा उपजाने में समर्थ हुए थे। दीओपरान्त तीसरे वर्ष अागमाभ्यास के लिए पूर्व भूमिका रूप साधन ग्रन्थों, शब्दशास्त्र व्याकरण तथा तर्क शास्त्र पर अद्वितीय प्रभुत्व प्राप्त कर वि. स. 1915 के राजनगर-अहमदाबाद के चातुर्मास में उस समय के तथा गच्छाधिपति संवेगी शाखा के महाधुरन्धर प्रभावक पूज्य तपस्वी श्री बुद्धि विजय जो महाराज ( बुटेराय जी म.) के शिष्यरत्न, ज्ञान, दर्शन चरित्र, तप, शील, संयमादि अनेक गुणों से विभूषित प्रोड़ प्रतिभाशालो पू. मुक्तिविजय जी म. (मूलचंद जो. म.) गगी के चरणों में विनय भाव पूर्वक बैठकर वे दसवैकालिक सूत्र की हरिभद्रीय टीका के पढ़ने से आगम-अभ्यास का प्रारम्भ किया । अपार समुद्र जैसे श्री आवश्यक सूत्र के वांचन के लिए सं. 1916 का चातुर्मास भी अहमदाबाद में किया, दो वर्ष लगातार गुरुनिश्रा में विनतीभाव से रह कर श्री आवश्यक सूत्र हारिभद्रीय टीका तथा श्री विशेषावश्यक भास्य की मलधारी श्री हेमचन्द्र सूरी म. की टीका में गोता लगाकर उसके रहस्यों को प्रात्मसात करके समस्त प्रागमों को पढ़ने १८ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की पद्धति हस्तगत की । थ-साथ नंदीसूत्र तथा अनुयोग द्वार सूत्र की वाचना भी प्राप्त कर आगमाभ्यास के लिए पीठिका मजबूत तरीके से इन दो चातुर्मास में तैयार कर ली। इस प्रकार पू गुरुदेव श्री की शासन-प्रभावना की अनेक प्रवृतियों को लक्ष्य में रखकर अपने आपको अधिक शासनोपयोगी बनाने के लिए आवश्यक अागमाभ्यास हेतु पू. गुरुदेव श्री के सम्मति से पू. श्री दयाविमल जी म. तथा पू. श्री मणिविजय जो म. के पास श्री मूलचन्द जो म. की निश्रा को स्वीकार करके आगमों केगूढ पदार्थों को ग्रहण प्रासेवन शिक्षा द्वारा प्राप्त करने के लिए भगीरथ प्रयत्न प्रारम्भ किया तथा वर्षों तक गुरुकुलवास के सुमधुर फलस्वरूप आगमनों के गूढ तत्वों की जानकारी तथा विशुद्ध संयमी जीवन के मूल तत्वों की सफल जानकारी प्राप्त करने में पूज्य श्री सौभाग्यशाली बने । उस समय सवेगी साधुओं में प्रौढ़, तेजस्वी, संयममूर्ति तथा अागमी रहस्य के जानकार की तरह पू. श्री इयाविमल जी म. तथा पू. पं. श्री मणि विजय जी म. दादा की ख्याति बहुत थी तथा पू. श्री मूलचन्द्र जी गणि भगवंत का पूज्य प्रताप भी सुलभ था । सम्पूर्ण श्री संघ में उनके वचनों को ग्रहण करने की तैयारी थी। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे महाप्रभावशाली पू. श्री मूलचन्द जी म. की पावननिश्रा में पूज्य श्री में विनोतता गंभीरता, समयसूचकता तथा प्रांतरिक नम्रता थी । पू. श्री दयाविमल जी म. इसी प्रकार पू. मूलचंद जी म. को मन ऐसा संपादन किया हुआ कि सब साधुओं से बढ़कर पूज्य श्री का स्थान द्रव्य भाव से पू. मणिविजय जी म. तथा पू. श्री मूलचंद जी म. के पास था। पूज्य श्री मूलचंदजी म. ने इस पात्रता की सावधानी रखी कि शासन तथा आगमनों के निगुढ-तत्वों को पूज्य श्री एकांत में बिठाकर खूब प्रेमयुक्त पद्धति में मिला पाये थे। परिणामतः पूज्य श्री ने भी आपने अहम् का सर्वस्व समपर्ण तरीके पू. श्री मूलचंद जी म. के चरणों में अर्पित कर दिया था। इससे बाल-गोपाल जनता में यों कहा जाने लगा कि पू. श्री झवेर सागर जी म. पर पू. श्री मूलचन्द्र जी म. के चारों हाथ सिर पर हैं और लोग भी पु. श्री झवेर सागर जी म. को पू. श्री मूलचंद जी म. के ही शिष्य के रूप में पहचानने लगे। ऐसा था पूज्य श्री का निष्ठाभक्ति भरा समर्पण ! ! ! इस प्रकार पूर्ण अर्पित भावना तथा विनीतता भरा सहज नम्रता के सुमेल से पूज्य श्री ने छः-सात वर्ष के अल्प समयावधि में लगभग समस्त प्रागमधारी, आगमिक पदार्थों . २० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के रहस्य को परखने की सभी गीतार्थता एकत्रित कर ली । इतना ही नहीं पर विचारणा के विरोधाभास के समय पूज्य श्री शिक्षा-दीक्षा शास्त्रानुकूल तथा टकसाली मानी जाने लगी । इस अवधि में वि. सं. 1916 से माह विद 7 के दिन स्वयं के जीवनोपकारी दीक्षा दाता गुरुदेव गौतम सागर जी म. के 72 वर्ष की आयु में राजनगर - अहमदाबाद नागोरो शाला के उपाश्रय में कालधर्म होने से स्वयं पू. मूलचंद जी म. की पावनकारिणी निश्रा को जीवन के अन्तिम छोर तक निभा सके ऐमी रोति उन्होंने अंगीकार की । पू. श्री पू. मूलचंद जी म. की निश्रा का लाभ लेने के साथ-साथ बीच के समय में आस-पास प्रदेशों में स्वल्पावधि के लिए विहार कर आते तथा संयम को जयरणाओं का विशिष्ट पालन भी करते थे । वि. सं. 1925 में पू. गच्छाधिपति श्री के पास कपड़वंज का श्री संघ शेषकाल में ग्रष्टान्हिका महोत्सव के प्रसंग हेतु विनती करने आये हुए के साथ पू. गच्छाधिपति ने पू. श्री झवेर चन्द जी महाराज को भेजा। कपड़वंज के श्री संघ ने उमंग भरे बहुत ठाठ से सामैयापूर्वक प्रवेश कलात्मक प्रद्भुत प्रत्यधिक मान किया । प्रथम दिन के व्याख्यान में श्रीफलरुपैया से प्रभावना की । २१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पूज्य श्री की तात्विक तथा बालजीवों को समझाया ऐसी रसभरी व्याख्यान शैली से धर्म-प्रेमी जनता पर्वाधिराज के दिनों में जैसे उपाश्रय में आती हो इतनी बड़ी संख्या में पाने लगी। पूज्य श्री बोधगम्य रीति से तर्कबद्ध उदाहरण, दलील, दृष्टान्तो आगमिक पदार्थों की खूब सरस मूक्ष्म विवेचना करते । परिणामतः श्री संघ में अटूट धर्मोत्साह प्रकटा । * ( प्राप्त हुए ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर वि. सं. 1935 आश्विन सुद 8 राजनगर-अहमदाबाद में पू. पं. श्री मरिण विजय जी म. दादा का तथा वि. सं. 1938 में पूज्य श्री बुट्टे राय जी म. का स्वर्गवास निश्चित हुआ हो तो पू. श्री मूलचंद जी म. गनच्छाधिपति वि. सं. 1938 के पहले नहीं थे। परन्तु पूर्वोक्त दोनों ही पूज्य पुरुषों ने शासन व्याख्या सम्भाल सके । अनुभवी पूण्य प्रभाव तथा सुनेह-कुशलता आदि गुगों से पू. श्री मूलचंद जी को सम्पूर्ण संघ-समुदाय की व्यवस्था का भार वि. सं. 1912 में दीक्षा के तीसर ही वर्ष दोनों पू. श्रीनों ने स्वयं ही सौंपा हो ऐसा जानने को मिलता है। अतः इसा अर्थ में यहां पू. मुलचंद जी म. को गच्छाधिपति शब्द से सम्बोधित किया है । प्रागे भी इसी प्रकार समझना चाहिए। २२ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य चरित्र नायक श्री के पिता जी गांधी मगनभाई, भाईचन्द (भगत) श्रावक जीवन की क्रियाओं को आचरण में अावश्यक तत्व दृष्टि तथा विवेक बुद्धि का महत्व पूज्य श्री के देशना से समझ सके तथा अन्तर में ऐसा प्रकट हुआ. जाने महा मूल्यवान खजाना पड़ा मिला हो ऐसे ही पूज्य श्री के व्याख्यानों से प्रानन्दविभोर होकर स्वयं के जीवन को धर्म क्रिया के चौखटे में ढालने की धरेडमा तत्वदृष्टि विवेक बुद्धि के मिश्रण से उत्तम धर्मक्रिया द्वारा सुन्दर जीवन जीने को रूप-रेखा पड़ने लगे। __इस राति से स्वयं के जीवन को लोक परम्परा में मात्र क्रिया करके संतोष मानने वाले चालू परिपाटी से बाहर निकालकर जीवन को ज्ञानियों की आज्ञानुसार संस्कारों को संयम के साथ कर्म-निर्झर के ध्येय आदर्श तरफ मोड़ने में भाग्यशाली बन सके। उसमें पूज्य श्री का अधिक आभार युक्त उपकार मानते रहें, पधारें । भगनभाई भगत पूज्य श्री के सहवास एवं व्याख्यान से प्राप्त तत्वदृष्टि को अविलम्ब अहमदाबाद जाकर घंटों तक धर्म चर्चा ज्ञान गोष्ठी के रूप में विविध जिज्ञासुनों को स्पष्ट कराकर विकसित करते रहे। ( सम्पूर्ण प्रकरण में जहां-जहां “पूज्य श्री" शब्द भावे वहां यू. मुनि श्री झवेर सागर जी महाराज समझना।) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री भी कपड़वंज - श्री संघ की दिशा में अज्ञात रूप में परन्तु अन्तर्मन से प्राकर्षित बने रहे । जब भी अवसर मिला तब ही पू. गच्छाधिपति की आज्ञा से आस-पास के प्रदेशों में किसी धर्म कार्य के प्रसंग में विहरने में मेल बैठ जाय तो कपड़वंज की स्पर्शना अवश्यम्भावी करते ! यो प्रकृति से विनाश के गति से चलते कालचक्र के कितने ही दाते पूज्य श्री के कपड़वंज के अधिक पक्षपाति तथा मगनभाई के अन्तर के आकर्षण से गतिशील बने रहे । यों पूज्य श्री बि. सं. 1926 के वर्ष तक पू श्री गच्छाधिपति की निश्रा में रहकर गुरुकुलवास, विनय - समर्पण आदि के बल से प्राप्त अद्भुत गुरुकृपा से सचोट प्रागमिक परम्परा के मौलिक तत्वों को आत्मसात किया । पश्चात् पू. गच्छाधिपति की आज्ञा से जन्मभुमि महसारणा पधारे, उनकी जोड़ विद्वता, आलौकिक प्रतिभा तथा सचोट आगमिक व्याख्यानों से प्रभावित होकर कुटुम्बीजनों के अतिरिक्त श्री संघ भी अपने गांव के एक रत्न को शासन के चरणों में समर्पित होकर अद्वितीय शासन को गौरव सुनिश्चिन करता आभूषण बना हुआ जानकर गौरवानवित हुआ । २४ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचोट, धीणोज, चारणस्मा, बडावली, गांभू, मोढेरा, शबलपुर होकर बाद में शंखेश्वर महातीर्थ को स्पर्शना करके पाटण में वि.सं. 1927 का चातुर्मास स्वतंत्र रूप में सर्वप्रथम किया। चार्तुमास की अवधि में विशेषावश्यक भाष्य का वाचन आगमिक पदार्थों की सूक्ष्म विवेचना सहित किया जो अनेक पुण्यात्माओं को प्रेरक हुआ । चातुर्मास में विविध तपस्याएँ तथा अष्टान्हिका महोत्सव हुए। उरण-थराना के वासी श्रद्धासंपन्न श्री पूनमचंद भाई चातुर्मास के मध्य में पूज्य श्री की देशना से आकर्षित होकर व्यवसाय आदि से बंध कर पर्युषण से लगाकर ठेठ का. सू. 15 तक पूज्य श्री को निश्रा में देश विरक्तिभाव से रहकर ससार छोड़ प्रभुशासन की भागवतो दीक्षा स्वीकारने को तैयारी करते रहे। पूज्य श्री ने शास्त्रीय रीति से जांच कर कल्याण का के ध्येय जीवन में टिकाना कितना कठिन है? उसे समझाकर प्रभुशासन के संयम की तुलना मोम के दांतों से लोहे के चने चबाने के समान बताकर योग्य पात्रता की परख करके का वि. 5 के दिन उसके कुटुम्बीजनों तथा श्री संघ के उत्साह पूर्वक धूमधाम से दीक्षा देकर श्री रत्नसागर जी म. नाम प्रदान कर स्वयं के प्रथम शिष्य के रूप में उन्हें स्थापित किया। इसके पूर्व दीक्षार्थी तो अनेकों आये लेकिन उन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबको गुरु भाई अगर पू. गच्छाधिपति श्री के शिष्य के रूप में दीक्षित किया। तदुपरान्त पू. गच्छाधिपति को प्राज्ञा से सौराष्ट्र तरफ विहार किया। साणद, वीरमगाम, लींबड़ी, बढ़वारण, बारोद, आदि शहरों में जाकर शाश्वत गिरिराज श्री सिद्धाचल जी महातीर्थ की भावभारी यात्रा की। पू. गच्छाधिपति के गुरुभाई पू. सरलाश जी महाधुरन्धर, ज्ञान क्रियापात्र पू. मुनि श्री वृद्धि विजय जी (वृद्धिचन्द्र जी) महाराज की पावन निश्रा में भावनगर में चातुर्मास किया। चातुर्मास की अवधि में पू. श्री वृद्धिचन्द जी म. के विशाल अनुभव की मलाई तथा शासन की सूक्ष्मतम पहचान पूज्य श्री से संयोजित कर अपनी ज्ञान गरिमा को बढ़ाया । अनेक धर्म कार्यों से चातुर्मास सानन्द सम्पूर्ण कर पीछे लौटते वल्लभीपुर (वला) में पू. श्री वृद्धिचन्द जी म. के सहवास से वैरागी बने परन्तु योग्य निश्रा की खोज में भटक रहे पुण्यात्मा श्री केशरी चन्द जी भाई ने अचानक पूज्य श्री की प्रौढ़ आगमिक देशना तथा सचोट रदियावली प्रतिपादन शैली के साथ शुद्ध संयमी जीवन से प्रभावित सुषुप्त बनी वैराग्य भावना प्रदीप्त हुई । कुटुम्बियों को समझा कर भी श्री संघ के सहकार से पो. सु. 10 के मंगलमय दिन श्री देर्वाद्ध गणी क्षमाश्रमण भगवंत द्वारा की गई छठे आगम के वाचन की पुण्य भूमि में पचपन वर्ष की २६ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्व आयु में उत्साह चढ़े तथा उल्लासपूर्वक धूमधाम से दीक्षा स्वीकार की तथा मुनि केसर सागर जी नाम रख कर पूज्य श्री ने उन्हें अपना दूसरा शिष्य बनाया। इसके बाद बरवाला-धंधूका, कोठ-बावला होकर पुनः पू गच्छाधिपति की निश्रा में आकर योगवहन कराकर नवदीक्षित को बड़ी दीक्षा दी। एक समय उजम बाई * की धर्मशाला में पू. गच्छाधिपति के पास सिद्धगिरि महातीर्थ की छः मील की यात्रा करके मालवा प्रदेश रतलाम उज्जैन, इन्दौर के अग्रगण्य श्रावकों के वृहदयूथ में वंदना के लिए आये तथा सूखशाता पूछकर नियमानुसार भावार्थ की की विनती की : के नगर सेठ हेमाभाई की बहिन श्री उजम वाई ने वि. सं. 1982 के नव वर्ष में पू. श्री मूलचन्द जी भव की देशना से प्रभावित होकर अपने निवास के घर-हवेली सारी संघ के धर्मध्यान करने धार्मिक स्थान उपाश्रय के रूप में श्री संघ को अर्पण करने की घोषणा की । इस मंगल भावना के पूर्ति स्वरूप पू. श्री . मूलचन्द जी म. का नववर्ष के मांगलिक तथा श्री गौतम स्वामी जी रास सुनाने के सपरिवार प्राग्रहभरी विनती करके स्वयं के धार आंगन में समस्त श्री संघ को आमंत्रित किया तथा स्वर्ग मोहरों से प्रभावना की । आज भी इस धर्म-स्थान रतनपोल में वाधरणपोल में Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'साहब ! देश मनोहर मालवो !” श्रीपालरास में पू. श्री विनय वि. म. ने जिनके गुण गाये हैं, पर दुःख भेजन विक्रमादित्य नाम से जो मालवा प्रख्यात है, जो “मालवा को माँ का पेट" कहाता है वहां के जैनों को संवेगी साधुनों के दर्शन ही नहीं होते । पाखण्डी लोग चित्र-विचित्र तर्कों से मुग्ध जनता को धर्म मार्ग से विमुख कर रहे हैं । साहब ! कृपा कीजिये । कोई एक श्रेष्ठ व्याख्याता तथा शासन की प्रभावना त्यों ही धर्म को प्रकाशित कर सके ऐसे महात्मा को हमारे यहां भिजवाइये । अनेक वर्षों के भूखे प्यासे बैठे हैं ! यहां तो आपकी छत्र छाया में धर्म प्रेमी लोग पाँचों पक्वान भोजन कर रहे है पर हमें तो रोटी-तरकरी होगी तो भी चलेगा। तनिक कृपा करे !!! _ पू. गच्छाधिपति ने मालवा के श्री संघ के प्रमुखों की बात सुनकर कहा, "पूण्यवानों ! बात सच है ! क्या करूं ! मेरा शरीर अधिक काम दे सके ऐसा नहीं हैं। हमारा कर्तव्य है कि ऐसे प्रान्तों में विचरण कर प्रभु शासन की जानकारी लोगों को हो ऐसा प्रयत्न करना चाहिए । तुम्हारी बात पर अवश्य विचार करेंगे। आप लोग कल मिलें । पू. चिन्तामणी पार्श्वनाथ प्रभु के जिनालय के पास पू. श्री मूलचन्द जी महाराज की गादी तौर पर कहाता सकल श्री संघ को धर्म-क्रिया का महत्वपूर्ण केन्द्र है। २८ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छाधिपति के मीठे कोमल आश्वासन से मालवा के धुरन्धर श्रावक उत्साही बने। दूसरे दिन तीन बजे के बाद आने का कह कर विदा हुए। पू. गच्छाधिपति ने मायंकाल प्रतिक्ररण के पश्चात समस्त साधुनों को एकत्रित कर बात प्रस्तुत की - महानुभावों ! स्वकल्याण की भूमिका के साथसाथ परकल्याण का कर्तव्य भी गुंधा हुआ है । मालवा जैसे प्रदेश में संवेगी साधुयों के परिचय घटने से ढूँढिया, तेरापंथी, तोन थुई वाले, खरतर गच्छवाला आदि शासन बाह्य लोग अपना पैर जमा रहे हैं । उस तरफ विचरण करने जैसा है । है किसी की ईच्छा ? उस तरफ जाने की ! " " सब साधू एक आवाज में बोले कि " साहेब ! हमारे तो आपकी आज्ञा प्रमाण है । आपको जैसा ठीक लगे वैसी श्राज्ञा को कार्यरूप में करने के लिए यथाशक्ति हम सब तैयार है । पू. गच्छाधिपति ने संतुष्ट स्वर में कहा-" वाह ! वाह ! धन्य है तुम्हारी निष्ठा को ! ठीक है । अभी तो आप सब जाओ । मैं विचार कर कहूंगा ।" कुछ समय रूककर स्वयं समुदाय के काम-काज को बराबर सम्भालने वाले पू. मुनि श्री मंगल विजय जी म पू. श्री चन्दन विजय जी महाराज तथा पू. भी नेम विजय जी म. पू. गच्छाधिपति ने कहा कि " मालवा के संघ की बात का मैं क्या जवाब दूँ ? वे लोग कल दोपहर आयेंगे ।" को बुलाया 1 २६ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं ने कहा कि "यापकी बात उचित है पर सुनने के अनुसार अभी मालवा में तीन थोय का नया पंथ निकालने वाले श्री राजेन्द्र सूरि का प्रभाव बहुत अधिक है । अतः केवल व्याख्यान दे या प्रतिक्रण करावे अथवा धर्म क्रिया करावे ऐसे साधु को वहां भेजने का कोई अर्थ नहीं । शास्त्रीय रीति से रचनात्मक शैली से शास्त्रीय प्ररूपरण इस तरीके से करें कि जिससे पाखंडियों के समस्त कुतर्क प्रशमित हो जाय । शायद आवश्यकता पड़े तो शास्त्रार्थ चर्चा वाद-विवाद में जिन शासन का डंका बजा सके ऐसे को भेजना आवश्यक है। पूज्य नेम विजय जो म. ने कहा कि “साहब ! ऐसे तो ये मंगल वि. म. तथा मुनि श्री राज विजय जी म. तथा मुनि श्री ऋद्वि विजय जी म. अपने समुदाय में है। पू. चंदन विजय म. बोले कि बात तो बराबर है पर ये सब ही अवस्था वाले हैं । मालवा जैसे दूर देश में तनक शक्तिशाली तथा नवयुवा शक्ति वाला कोई जाय तो उत्तम रहेगा। पू. श्री मंगल विजय जी म. ने कहा कि “साहब ! सारी बात सत्य है लेकिन आपकी निश्रा में आगमिक ज्ञान तथा संयम की शिक्षा मिलती है अतः साहसिक गुरु-भक्ति से इतनी दूर कोई जाने को तैयार ही नहीं है । आप आज्ञा करेंगे तो कोई ना नहीं कहेगा । लेकिन अन्दर से मन संकोचायगा, मुआयेंगा। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. श्री नेमी विजय जी म. तथा पू. श्री चंदन विजय जी म. दोनों वोले कि "हाँ ! यह बात सच्ची है श्रीमान ! मधुर निश्रा के लाभ को जताकर के आये रास्ते टूटने की कोई भी इच्छा करेगा ही नहीं । पू. गच्छाधिपति ने कहा कि "तुम सब पुण्यवान हो कि ऐसी विवेक बुद्धि तुम में परन्तु व्यक्ति से बढ़कर शासन बड़ो चोज है मेरो निश्रा के लाभ को सामने देखने बनिस्पत शासन का हित अधिक विचारना चाहिए । तब भी तुम्हारी मैं अवगणना नहीं करना मांगता। मुझे तो यह लगता है । झवेर सागर जी को पूछ देखें तो। ____ तीनों व्यक्तियों ने कहा कि-हाँ श्रीमान, यह उचित है। युवा है, पढ़पढ़ा कर अभी तैयार हुए हैं । व्याख्यान शैली भी उत्तम है । वाद-विवाद में किसी से दबे ऐसे नहीं है। इसी प्रकार शासन के ऐसे कामों उनका उत्साह भी अधिक है ।" पू. गच्छाधिपति ने अपने समुदाय के नायकों के विचार लेकर अपनी पसंदगी को इस प्रकार सर्वमान्य कराकर शास्त्री पद्धति का निष्पादन किया । प्रातः देरासर दर्शन करके आने पश्चात् पू. गच्छाधिपति ने वंदना करने आये श्री झवेर सागरजी म. को पू. गच्छाधिपति ने कहा कि, 'भाई ! थोड़ा बैठो । मुझे एक बात करनी है ।" पूज्य श्री तो खुश-खुश हो गये कि मेरा सौभाग्य चन्द्र बढ़ती कलाओं से उचित हुआ है कि पू. गच्छाधिपति जैसे महापुरुष मुझे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहना चाहते हैं। विनय पूर्वक आसन बिछाकर वंदना करके बैठे कि पू. गच्छाधिपति ने सम्पूर्ण बात कही "मालवा में प्रभुशासन की छाया धूमिल पड़ गई है। इसके लिए कुछ करना आवश्यक है। __पूज्य श्री ने कहा कि फरमाइये, “आपकी प्राज्ञा शिरोधार्य है।" . पूज्य गच्छाधिपति ने कहा कि, “उस मालवा के प्रदेशों में . मयच्चतुर, शास्त्रनिपुण तथा शुद्ध संयमी साधु को भेजने का विचार विनिमय किया, मेरे साथ के साधुओं में अधिकांश वयोवृद्ध ज्यादा है । इतना दूर उन्हें वहां भेजना ठीक नहीं है । फिर उनका मन परिपक्व आयु के कारण मेरे पास ही रहने को आकृष्ट होता है अतः यदि तेरे मस्तक पर ही कलश का अभिषेक हो तो कैसा? __ पू. श्री बोले कि श्रीमन् ! मुझे आपकी आज्ञा "निहत्ति" है परन्तु ये दो वर्ष अलग रहकर चातुर्मास कर आया, जो अमृत के घूट प्रापकी निश्रा में प्राप्त किये उनके नहीं मिलने से मेरी तो दृढ़-इच्छा आपके चरणों में रहने की है। फिर भी आपकी आज्ञा मेरे लिए प्रमाण है । पू. गच्छाधिपति ने कहा कि "भायला ! तेरा विनय अद्भुत है । वास्तव में तेरी पात्रता मेरे शिष्य जिसे नहीं ले सके । उससे भी अधिक मेरे पास से तुझे अधिक प्रदान किया है। शासन Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की सेवा यही सबसे बड़ा कर्तव्य है । तुम्हारे जैसे शक्तिशाली व्याख्यान शक्ति वाले साधुओं को तो स्थान-2 पर घूमकर प्रभुशासन की विजय पताका फहरानी चाहिए । अब हम तो थके । मेरे साथ के साधू तुम्हारे जैसा कर सके ऐसा नहीं है । अतः पुण्यवान ! तुम्हारा मालवा तरफ जाकर विचरण करना अत्यावश्यक है " पूज्य श्री ने पू. गच्छाधिपति के शब्दों के पीछे की ध्वनि को पहचान तत्काल विनय से मस्तक झुकाकर, 'अाप फरमावो वह मुझे शिरोधार्य है। ऐसा कह पू. गच्छाधिपति के चरणों में वंदन करते रहे। पू. गच्छाधिपति ने भी उसी समय वासक्षेप का कटोरा मगाकर सूरिमंत्र से वासभिमंत्रण करके पूज्य श्री के मस्तक पर उमंग भरा बासक्षेप डाला तथा आर्शीवाद दिया कि "शासन का डंका बजाना।” पूज्य श्री ने "तहत्ति' कहकर परम धन्यता का अनुभव किया। पू गच्छाधिपति श्री को भी योग्य व्यक्ति को योग्य कार्य में नियोजित करने का परम संतोष हुआ। दोपहर में निर्धारित समय पर मालवा के श्री संघ के प्रमुखजन ने आर्य वदना की सुख-शाता पूछी । गत दिवस की विनती का विवरण पूछा । इतने पू. गच्छाधिपति ने पूज्य श्री को भी Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाकर पास बैठाया । श्रावकों को सम्बोधित करते हुए कहा "महापुरुषों ! आपकी विनती पर पूरी तरह सोचा गया है, जरूरत भी आपके प्रदेश में संवेगी- साधुयों के विहार की, हमारा फर्ज भी है कि विशिष्ट धर्मलाभ होता हो उस प्रदेश में जरूर विचरना चाहिए, किन्तु परिस्थितियों के कारण मैं उधर आ नहीं सकता ! मेरे साथ में साधु भी प्रायः वृद्ध हैं । वे इतनी दूर विहार करने में असमर्थ है, ज्ञानाभ्यास आदि के कारण वे इतनी दूर आना भी पंसद नहीं करते एवं आप जिस कार्य के लिए साधुयों को ले जाना चाहते हैं । उस काम के लिए तो ये महाराज ( पूज्य श्री की तरफ ऊँगली निर्देश किया) सब तरह से काबिल है, शास्त्र ज्ञान गहरा है, व्याख्यान शक्ति भी प्रभावशाली है, वाद विवाद में भी मजबूत है । सब तरह से आपके प्रदेश में शासन का जय जयकार करे ऐसे ये सुयोग्य महाराज है । मेरे खास माने हुए इने गिने शिष्यों में उनका स्थान ऊँचा है । इनकों मैं आपके प्रदेश में भेजने का सोचता हूं ।" यह सुनकर पू. गच्छाधिपति की जय बोलते हुए मालवा के श्रावकों ने फिर कहा कि " बावजी बड़ी कृपा की आपने ! हमारे लिए आपके भेजे हुए बाल या वृद्ध कोई मुनि श्री गौतम स्वामी जी के ३४ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराबर है । आप तो शासन के नायक हैं। आप जिसको भेजते होंगे वे हमारे प्रदेश में फैल रहे पाखंड-मिथ्यालय को दूर कर सके ऐसे ही भेजते होंगे। हमें तो आप पर पूरी श्रद्धा है।" मालवा के श्री संघ ने गच्छाधिपति श्री के पास ज्ञानपूजन कर वासक्षेप डलाकर पूज्य श्री के पास जाकर वंदना विनती की कि "आप हमारे प्रदेश में जल्दी पधारो, और अज्ञान के अंधकार को हटाकर जिन शासन का प्रकाश फैलानों । आप यहां से कब विहार करेंगे ? और विहार में कोई जरूरत हो तो फरमावे और हम उधर से जानकार दो चार श्रावकों को भक्ति के लिए भेजना चाहते हैं तो कब भेजें ? पूज्य श्री ने कहा कि, पुण्यवानों ! शासन की महिमा अपार है, देव गुरुकृपा से पू. गच्छाधिपति ने अनेक दूसरे समर्थ साधुओं के होते हुए भी मुझ बाल पर यह जो भार रखा है, सोच समझकर ही रखा होगा । मैं तो गुरु चरणों का सेवक हूं। शासन देव सहाय करेगा ही । मैं यहां से फा. शु. 2 को विहार करना चाहता हूं। विहार में कोई जरूरत नहीं। यहां से गोधरा तक तो श्रावकों के घर हैं ही। उसके बाद शायद जरूरत पड़े, यू कि गोधरा के बाद विकट जंगल भी है तो श्रावकों को गोधरे ही भेजें तो ठीक । क्योंकि ३५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्री झोली गोधरा में करने का विचार है । मालवा श्री संघ ने फिर से ज्ञान-पूजन कर वासक्षेप डलवाकर पूज्य श्री को शीघ्र ही मालवा की पधारने तरफ की विनती कर विदा ली। पूज्य श्री ने पू. गच्छाधिपति के साथ फिर विचार-विमर्श कर विहार की तैयारियाँ की । षूज्य गच्छाधिपति से वासक्षेप ले मंगलाचरण सुनकर दोनों शिष्यों के साथ विहार किया । सर्वप्रथम नरोड़ा जाकर गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु के दर्शन वंदन करके " शासन प्रभावना की शक्ति विकसे" शासन की वफादारीपूर्वक स्वयं की ज्ञान शक्तियों का लाभ शास्त्रीय विधि से जगत को दिया जा सके, आदि मंगल भावना करके जीती जागती मानती श्री पद्मावती देवी के स्थान के सामने भी शासन सेवा में सहयोग प्रदान करने की भावना पूर्वक नवकार महामंत्र का स्मरण कर भावोल्लासपूर्वक शुभ शकुन मिलाकर दहेगाम की तरफ विहार किया । वहां से बहिल प्रांतर सुबा होकर कपड़वंज पधारे । श्री संघ के आग्रह से फागरण चौमासा की आराधना वहीं की । मगनभाई भगत की हृदयरूपी भूमि में भविष्य में उनके कुल में उत्पन्न होने वाले पूज्य चरित्रनायक श्री के जीवन को विशिष्ट बना सके ऐसी शासनोपयोगी तत्वों का बीजारोपण किया। कपड़वंज के श्री संघ का चौमासे के ३६ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए बहुत आग्रह हुआ पर पूज्य श्री ने पू. गच्छाधिपति की आज्ञा से अभी तो मालवा प्रदेश की तरफ जा रहने की जानकारी दी । भविष्य में कभी इस क्षेत्र की स्पर्शना करने की भावना व्यक्त की और आगे किया । विहार प्रारम्भ लसुंदरा वालासिमोर, महेलोल, वेजलपुर होकर गोवरा चैत्र सु 2 के मंगल दिन पधारे । वहां के श्री संत्र ने पूज्य श्री को शाश्वती चैत्रीश्रोली की आराधना के सम्बन्ध में आग्रहभरी विनती की । पूज्य श्री ने योग्य अवसर जानकर स्वीकार करके स्थिरता को । पूज्य श्री की तात्विक देशना पद्धति से गोधरा का श्री संघ खूब प्रसन्न हुआ । घर बैठे गंगा आई समझकर खूब भावोल्लास के साथ श्री नवपद जी की आराधना की । सामुदायिक रीति से जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव शान्ति स्नात्र प्रादि की भव्य तैयारी प्रायोजन के साथ करना प्रारम्भ किया । पूज्य श्री सलाह सूचना के अनुसार ग्रायबल को ओली की आराधना करने वालों के अन्तर वायणां पारणां नो दिनों कि अवधि में प्रतिदिन ठाठ से सामुदायिक विधि चौसठ प्रकारी पूजा, अन्तिम दिवस शान्ति स्नात्र इत्यादि भव्य कार्यक्रम का सूचन कर आराधक भव्य आत्माओं के धर्मोत्साह में अत्यधिक वर्धन किया । पू. श्री ने भी व्याख्यान में श्रीपाल - चरित्र के मुख्य प्रसंगो के रहस्यों का विवेचन के ३७ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ श्री नवपद जी को सर्वाधिक महत्व क्यों ? इस हेतु तात्विक रीति से उदाहरण दुष्टान्त समझाने में प्रावे ऐसा प्रतिदिन एक एक पद को अर्थ गम्भीर रहस्यात्मक व्याख्या प्रसारित की । जैन श्री संघ में संवेगी परम्परा वाले साधुओं की अल्प संख्या तथा विचरण को न्यूनता से सुषुप्त बन गई धर्म भावना को पर्वा धराज श्री पर्युषण महापर्व के मगल दिनों की तरह ही दैदिप्यमान किया। चै. सु. 13 लगभग मालवा के श्री संघ की तरफ से रसलाम से पांच-छः श्रावक पूज्य श्री के विहार में कठिनाई न हो उस रीति से पूरी तैयारी कर साथ आये । पू. श्री ने गोधरा के श्री संघ का आग्रह चातुर्मास के लिए होते हुए भो पू. श्री गच्छाधिपति की आज्ञा के प्रमाण से मालवा तरफ जाने की बात प्रकट की तथा मालवा संघ के श्रावक लेने आये है , अतः रुकना शक्य नहीं है । यो जतलाकर विद 1 सांयकाल को विहार की घोषणा पूर्णिमा के व्याख्यान में की। पूज्य श्री ने विद 1 सांयकाल गोधरा शहर के बाहर मुकाम कर मंगल मुहुर्त देख लिया । मालवा से आये श्रावक भी रसोईया, काम करने वाले व्यक्तियों आदि की सुविधा लेकर आये थे अतः गाड़ी की व्यवस्था करके पूज्य श्री को संयम में अधिक दूषण न लगे, ऐसे विवेकपूर्वक भक्ति के लिए पैदल चल पड़े। पूज्य श्री भी गोधरा से दाहोद तथा दाहोद से रतलाम तक 100 मील के प्रदेश में बोहड़ जंगल, विकट पहाड़ आदि की विषमतावाले मार्ग पर यथाशक्ति संयम की Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपूर्वक विवेकी श्रानकों की भक्ति से वे. सु. 1 रतलाम पहुंच गये। उस समय रतलाम में शिथिलाचारी साधुओं की व्यक्तिगत प्राचार की शोथिलता का जोर कर रही ढंढकपंथी स्थानक मार्गी तथा काल गति के प्रभाव से मतभेद के जंजाल में सत्य की उलझाबट के नमूने स्वरुप हाल हो में प्रकटे हुए त्रिस्तुतिक मत के प्रवर्तक आ. श्री विजय राजेन्द्र सूरि म. के छटादार प्रवचनों की बहार तथा रोचक प्रवचन शैली से शास्त्रीय परम्परा अनुयायियों के लिए खूब हा निसंवादी गातावरण का सुजन हो गया था। पू. शासन-प्रभानक मुनि पुंगव श्री झवेर सागर जी म. श्री कुछ ने दिन सर्वसाधारण धर्मोपदेश की धारा चला कर मूल परम्परा नाहक संवेगी-साधुओं के परिचयसम्पर्क के अभाग में घटी हुई श्रद्धा की बढ़ाने का प्रयत्न किया, साथसाथ पू. गच्छाधिपति ने जिस काम के लिए उन्हें भेजा है उस काम के लिए भूमिका को खोज में वातावरण बनाना प्रारम्भ किया। श्रावकों में एक दूसरे गुथे हुए जाति के संबन्धों के कारण सत्य से चिपके रहने की क्षमता थोड़ी प्रतीत होतो थी। साथ ही ठीक प्रकार से समझ न होने से अज्ञान-दशा का अधकार भी श्रावकों के मानस में अधिक गहरे लगा। इसके उपरान्त पक्षी के दावपेच की खराब खेल भी समय बल से सैद्धान्तिक मतभेदों को विकृत करने में अधिक से प्रसारित थे। अधिक में स्थानक वासियों तथा त्रिस्तुतिक मतवालों Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अपने साधुओं की बाहचर्या जो कि शास्त्रीय वचनों के प्रति-योग के परिणाम स्वरूप शास्त्र की दृष्टि मैं स्वच्छंद भाव वाली कही जाय उसको आगे करके जिन शासन की परंपरा वाले सच्चे भ्रमरणों के सम्पर्क के अभाव मैं शिथिलाचारी यतियों के विकृत आचार को सामने करके शास्त्रीय परम्परा को धूमिल करने के कुचक्र की गतिशीलता देखी । थोड़ े में पू. श्री झवेर सागर जो म. खूब ही गम्भीर प्रतीत होती परिस्थिति का अध्ययन कर किस महत्वपूर्ण केन्द्र पर हथोड़ा मारें जिससे बिगड़े हुए इन्जिन को चालू करने कि कुशलता एवं सूझ-बूझ वाले कारीगर की तरह शास्त्रों के सम्बन्ध में मौलिक चिन्तन तथा गीतार्थपन के मधुर मिश्रण की तैयारी करने लगे । अन्ततः जे. सु. 14 के व्याख्यान में तत्व दुष्टि तथा जिन शासन की मार्मिकता के विवेचन के संदर्भ में आचार शुद्धि में काल-बल से आती न्यूनता, तत्व दृष्टि की निर्मलता से क्षम्य बन सकती है । परन्तु चाहे जितने उत्कृष्ट आचारों का पालन करने पर भी तत्वज्ञ महापुरूषों की परम्परा की विनय-श्रद्धा तथा तत्व दृष्टि की विषमता से जिन शासन के मौलिक विवरणों के सम्बन्ध में अपलाप जोवन को विषमतर कर्मों के बंधन में फसाने वाला बनता है । इस बात को खूब ही तर्कबद्ध तरीके से शास्त्रीय दृष्टान्तों से छानबीन युक्त प्रचारित किया । ज्ये, वि. 5. तक के व्याख्यानों में प्रचार शुद्धि जिन ४० Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन में महत्वपूर्ण अंग होने पर भी जिन शासन के प्रति श्रद्धा सबसे अधिक महत्व की है । "इस सम्बन्ध में महानिशोष यदि सूत्रों का सचोट उदाहरणों से श्रोताओंों के सामने व्यवस्थित रूप से कहा । परिरणाम स्वरूप स्थानकवासा तथा त्रिस्तुनिक मतवालों मे खलबलाहाट प्रारम्भ हो गई । पूज्य श्री ने व्याख्यान पीठ से स्पष्ट घोषणा की कि " जिन जिन जिज्ञासुनों को मेरे वचनों में संशय अथवा शंका उपजें कि वो मेरी बातों की प्रमाणिकता में खातरी करनी हो वे दोपहर दो बजे पूर्व मे ही समय निर्धारित कर अपने पक्ष के नेता श्रावकों को साथ लेकर जिज्ञासु भाव से आमने सामने मिलकर आश्वस्त हो सकते हैं 1,, "आवश्यकता पड़ेतो वे पक्ष जानकार प्रमुख अथवा पक्ष नायकों के साथ खुले में शास्त्रपाठों लेन-देन पूर्वक सत्य बात को प्रकट करने की मेरी तैयारी है" । इस बात पर स्थानकवासी अपने साधु महाराज के पास से तर्कों तथा शास्त्रपाठों के जत्थों को लेकर बहुधा दोपहर में आने लगे । पूज्य श्री ने स्थानकवासीयों को मान्य बत्तीस श्रागमनों के ही पाठों को निकालकर बताया तथा दलीलों में एकांगीपन प्रबल तर्कों द्वारा समझाकर आने वाले स्थूलबुद्धि वाले श्रावकों के हृदय में छेद कर दिये। अधिक में पूज्य श्री के सम्पर्क आये कितने ही जिज्ञासु श्रावक वास्तव में अन्तर की ४१ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व की आग्रहभरी मान्यताओं की पकड़ ढीली कर सके । अपने साधुओं तथा पक्ष के सर्वोच्च प्रमुख को सत्य तत्व को समयुति देने लगे परन्तु मताभिनिवेशना के कारण स्थानकवासोसंघ में खलबलाहट अधिक उग्र बन गई । कुतर्क तथा एक तरफी दलोल व्यक्तिगत प्राचार-शिथिलता की बातों को अलग रखकर पूज्य श्री को प्रतिभा को खंडित करने का वातावरण सृजित हुआ। पूज्य श्री ने तो तत्व दृष्टि को सामने रखकर एक बात ध्यान में रखी किः- “अधिकांशतः अभिनिवेश वाली पांखडियों को सीधी राह सत्य तत्व को उलटना अशक्य समझकर आड़ी तिरछी असंबद्ध तथा मिली-जुली बातों के आक्षेपों को प्रकट कर सामने के पक्ष को उत्तेजितना में लाकर सत्यतत्व के प्रतिपादन की दिशा में से मिली हुई बातों को स्पष्ट करने के उल्टे रास्ते मुंहजोरी की बातों से शक्ति को अपव्यय करा थका दे यदि मूल बात को मिथ्या तर्क बाजी में कटवा दें।" पूज्य श्री ने तो अन्य बातों में सामने पक्ष की तरफ चाहे जैसा भी जोश उत्तेजना आवेश पैदा हो ऐसा प्रकट होने पर भी मूल बात सैद्धान्तिक रूप में पकड़कर रखी कि ये शास्त्र पाठ हैं । इनसे स्पष्ट रीति से मूर्तिपूजा प्रमाणित होती है। इस सम्बन्ध में क्या करना है ? इन शास्त्र पाठों ४२ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मिथ्या ठहराना ? अगर इनके कोई मजबूत प्रमारण तुम्हारे पास हों तो प्रकट करो।" अन्नतः स्थानकवासी पक्ष में जबरदस्त उहापोह मच गई । बाहर गांव से भी उस पक्ष के नेता आकर अपनी. अपनी गाड़ी तिरछी बातें प्रकट कर पूज्य श्री को तर्को में उलझाने लगे परन्तु पूज्य श्री तो शास्त्र के पत्रों को हाथ मैं रखकर ' इस सम्बन्ध में क्या कहना है ?'' अन्य सब बातें बाद में।' इस प्रकार मूल बात पर मजबूती से चिपके रहे । परिणाम स्वरूप भद्रिक परिणामी जनता का बड़ा वर्ग सत्य तत्व से परिचित हुआ तथा पूज्य श्री को निश्रा में शासन की तात्विक भूमिका के समीप पाने में उमंगित हुए । परन्तु कतिपय जड़-प्रकृति के वैसे ही मिथ्याभिनिवेश वालों ने वातावरण बहुत कलुषित कर डाला । अतः पूज्य श्री ने बाद में इस बात पर पर्दा डाल दिया को कोई जिज्ञासा से पूछने आवे तो चर्चा हो अन्यथा उसके बिना असत्य बात की चर्चा ही छोड़ दी । इस अवधि में श्रावण महिने में श्री नेमीनाथ प्रभु के जन्म कल्याणक प्रसंग में श्री वीतराग पर.. मात्मा की भक्ति दिल उदात्त आशय से करनी तथा लौकिक देवों एवं लोकोत्तर देवों के बीच में क्या अन्तर है ? इस प्रसंग में जिन शासन की मर्यादाओं का वर्णन करने सम्यग दृष्टि देवों की आराधना में कैसा उच्च स्थान है ? उसकी ४३ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाभक्ति का हार्दिक बहुमान रखने के साथ प्रासगिक धर्म क्रिया आराधना में विथ-निवारण द्वारा सहायक होने के जैसी स्मरण करने की बात शास्त्रसिद्ध किस रोत से है । इत्यादि विचारणा की शुरुआत की। श्रा. वि. 20 तक व्याख्यान में इस सम्बन्ध में जोरदार प्ररूपणा चलो, इस उपर से त्रिन्तुतिक मत के श्रावक विचलित हुए । पूज्य श्री के पास आकर अपनी चालू दलीलें अविरित धारी नमस्कार क्यों करें आदि प्रकट किया । पूज्य श्री पूज्य ने सचेष्ट शास्त्रीय प्रमाणों के साथ खंडन किया और बताया कि सम्यग् दृष्टि देव शासन के रखवाले है उनकी श्रद्धा भक्ति तथा सम्यग् दर्शन की निर्बलता का अनुमोदन विरक्तिधारी भी कर सकता है “प्रादि इसे सुनकर त्रिस्तुनिक-मत वाले अपने मुख्य गुरु प्रा. श्री विजय राजेन्द्र सूरिम. जो रतलाम में ही थे उनसे सारी बातें की उन्होंने भी संवेगी परम्परा को ये नये साधु आगम में क्या समझे ? यह तो पागम का गूढ़ विषय है । इत्यादि कहकर अपने श्रावकों को पूज्य श्री को विद्वत्ता भरी शैली तथा शास्त्रीय तत्वों की तर्क बुद्धि से प्रस्तुति से उत्पन्न खिझलाहट के प्रभाव से मुक्त करने की कोशिश की। श्रावक उस समय तो शांत हो घर गये परन्तु पूज्य श्री की बातों में शास्त्रीय पदार्थों की भव्य प्रस्तुति शास्त्रीय ४४ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठों को झंकार तथा पूज्य श्री की विशुद्ध संयम-चर्चा से उत्पन्न हृदय की गहराई में प्रभाव कर अन्दर ही अन्दर विचारने लगे कि- 'अपने गुरूजी को हमें फिर से विनती करना चाहिये कि संवेगी साधु महाराज जो शास्त्रीय पाठों की प्रस्तुत करने की तैयारी के साथ त्रिस्तुनिक मत की मान्यता को रूकावट को चुनौती दी है तो इस सम्बन्ध में अपने गुरुजी के मार्फत उत्तर देना चाहिये' इत्यादि । समस्त श्रावकों के प्रमुखों को एकत्रित करके पूरी बात कही- प्रमुख श्रावकों, “गुरु महाराज ने जो कहा है वह ठीक है" यों कहकर टालते रहे, परन्तु कितने ही जिज्ञासु श्रावकों ने कहा- “यों बात को टालने से क्या फायदा? अपने गुरुजी कहते हैं कि वह संवेगी नया साधु है वह पागम में क्या समझे ? यह तो पागम को बात है। परन्तु वह संवेगी तो शास्त्रीय पाठ देने के लिए तैयार है, तो सत्य का निर्णय शास्त्र के आधार पर ही होना चाहिए।" ___ इतने में प्रमुख नेताओं ने कहा कि, "अपने गुरुजी कहते है वह बराबर है । अपने गुरुजी के सामने सवेगी छोटे साधू की क्या औकात? वह शास्त्र के पाठों को क्या दे सकेगा? तुम्हें शास्त्री के पाठों की आवश्यकता हो या समझते हों तो चलो अपने गुरुजी के पास, वे धड़ाधड़ अनेक शास्त्रों के पाठ देगें। यों कहकर वे सब श्री विजय राजेन्द्र सूरिजी म. के ४५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास आये, पूरी बात कही, इसलिए प्राचार्य महाराज ने घोषणा की कि आते कल व्याख्यान में इस सम्बन्ध में शास्त्र पाठ के साथ विस्तार से प्रसारित होगा। ये समाचार पूज्य श्री को भी मिल गये । पूज्य श्री ने समझू-विवेकी श्रावकों को कागज-पेन्सिल लेकर वहां समझने भेजा। वे कौन-कौन से शास्त्रों अथवा आगमों के पाठों का उल्लेख करते है सो लिख लाना । दूसरे दिन हजारों मनुष्य की खचाखच सभा में प्रा. श्री विजय राजेन्द्र सूरिजी ने आपनी बात प्रकट की जिसके पक्ष में शास्त्र पाठ भी प्रस्तुत किये । पूज्य श्री ने भी सम्पूर्ण रतलाम शहर में श्री सघ से की गई घोषणा साथ दूसरे दिन सम्यग् दृष्टि देवों के सम्बन्ध में शास्त्रीय मान्यताओं के साथ ही धर्म में सहायक रूप में आवश्यक क्रियाओं में आपका स्मरण करना उचित है" यह बात ढेर सारे शास्त्रों के प्रमाणों तथा व्यवहारिक दृष्टान्तों एचं बुद्धिगम्य तर्कों के साथ विवेचना प्रस्तुत की। श्रोतागण तो इसे सुनकर दंग रह गये । 'वास्तव में सत्य क्या है ? ' गये कल प्रा. श्री राजेन्द्र सूरिजी ने शास्त्रीय पाठपूर्वक आवश्यक-क्रियाओं में की गई सम्यग् दृष्टि देवों की आराधना अशास्त्रीय है।" ऐसा सिद्ध किया आज पूज्य श्री झवेर मागर जी म. ने शास्त्रीय पाठों,. व्यावहारिक दृष्टान्तों तथा तर्को से शासन में चली आ रही ४६ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्पराओं का यथार्थ सचोट सिद्ध किया । तटस्थ समझदार तथा विवेकी महानुभावों ने सत्य को जान लिया । चर्चा वितडांवाद के प्रथम चरण में कितने ही लोगों ने आगे बढ़ाये। दोनों पक्षों की तरफ से भांति-भांति को बातें प्रवाहित होती रही परन्तु समझदार विचारक आत्मानों ने वास्तविकता की परख कर अज्ञान जन्य वाद विवाद शास्त्रार्थ आ द की घटा बढ़ी मे अलविदा रहने का प्रयत्न करने लगे। ____ सम्पूर्ण चातुर्मास में स्थानकवासो तथा त्रिस्तुनिक मत वालों की तरफ से अनेक सम-विषय कटु-मिष्ठ प्रसगों तथा चर्चा-वाद विवाद इत्यादि घटनाओं से वातावरण उत्तेजित रहा । पूज्य श्री ने सैद्धान्तिक तस्वों को आगे बढ़ाने के अतिरिक्त छोटी-मोटी बातों पर अधिक महत्व ही नहीं दिया। चातुर्मास धूरा होने पर रतलाम के आसपास के क्षेत्रों में विचरण कर जिन शासन की तात्विक पहचान संवेगी साधुओं के विहार के अभाव में नहीं प्राप्त होने से मुग्ध जनता में श्री वीतराग भक्ति प्रभु-पूजा, व्रत नियम पच्चखाण आदि धार्मिक परम्परागों जो दैनिक आचरण विस्मृत हो गई थी उन सबको ताजी की । अनेक जिन मंदिरों का जिर्णोद्वार करवाने के साथ-साथ लोगों की धार्मिक भाषनाओं का भी जीर्णोद्वार किया। ... श्री संघ के आग्रह से पुनः वि.सं. 1930 का चातुर्मास Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी रतलाम में किया। लोगों में स्थानकवासियों तथा त्रिस्तुनिक मतवालों के चालू उहापोह के कारण डगमगाती श्रद्धा को स्थिर करने के लिये भगोरथ प्रयत्न किया। चातुर्मास की अवधि में अनेक धर्म कार्य हुए । लोगों में धर्म भावना खूब बढ़ी अनेक विपक्षियों ने भी सत्य-तत्व की समझ एकत्रित कर आचार शुद्धि का तत्व विकसित किया। चातुर्मास के पश्चात् जावरा, महीदपुर, खाचरोद त्रिस्तुनिक मतवालों तरफ से वागावरण रूपचर्या का पगारण हुआ जिसके परिणाम स्वरूप पूज्य श्री ने धैर्य-पूर्वक मंडनात्मक शैली से अनेक भव्य प्राणियों को मार्गस्थ बनाया। महीदपुर में भव्य अष्टाहिका महोत्सव का उद्यापन भी हुप्रा । आसपास के गांवों में पूज्य श्री ने विहार कर अज्ञानदशा से खंडित बने शिथिलाचारो यतियों के विचार के नाम पर आचार घर कर गये स्थानकवासी के विकृत प्रचार से बढ़ने लगी अनेक अज्ञानताओं को दूर करके उज्जैन, इन्दौर की तरफ जाने का विचार किया परन्तु रतलाम में सनातन दंडो स्वामी श्री नारायण देव जी के अद्वैतवाद काझण्डा आगे करके श्री शंकराचार्य के ग्रंथों के आधार पर वैदिक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों के संप्रदाय नितान्त मिथ्या है । ऐसा जोरदार विचार प्रबल किया। अपने प्रवचनों में ऐसे कटाक्ष ४८ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले विवेचना करना प्रारम्भ किया। रतलाम के श्री संघ ने पूज्य श्री झवेर सागर जी म. को शासन के गौरव की रक्षा करने के लिये पुनः रतलाम पधारने की आग्रह भरी विनती कर उन्हें वापिस लाये तथा पूज्य श्री ने हरिभद्र सूरि म. के षडदर्शन समुच्चय ग्रंथ के आधार पर सर्व दर्शन की समीक्षा रूप"श्री जैन दर्शन की विशेषताये कौनसी है"इस विषय की सूक्ष्मतर विवेचनायुक्त व्याख्यान प्रारम्भ किये। धीरे-धीरे उन सन्यासियों के कानों में बात पहुचो तो प्रथम तो “एते तु जैनाः नास्तिकाः वेदबाहागः क एते षामानासः दर्शनप्ररूपां" ( ये जैन तो वेद को नहीं मानने वाले तथा नास्तिक हैं उनका दर्शन विषयों में क्या विश्वास ?) __"नहि ऐतैः सह वार्ताकरणं सुष्ठ । एतेषामनोश्रवरवा दि-नांन मुखमपि न दृष्टिव्यमिति अस्मार्क स्थितिः ।' (इन लोगों के साथ बात करना भी ठीक नही है।'' ईश्वर को नही मानने वालेइन लोगों का मुंह देखाय ऐसी हमारी मर्यादा है) ऐसे-ऐसे अहंकारपूर्ण उपेक्षा-वचनों से पूज्य श्री की बातों को उड़ादेने का प्रयत्न किया। पूज्य श्री तनिक भी आवेश में आये बिना मूल बात को पकड़ रखो वैदिक धर्म की कौनती भूमिका है ? तथा जैन धर्म की कैसी विशेषता है । इस बात ४६ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दृष्टान्तों, तर्कों आदि से जोश भरे शब्दों "मे" प्रकट करते रहे।" लोग परिणाम स्वरुप सनातनियों में से जानकार जिज्ञासु पूज्य श्री के पास प्राये । पूज्य श्री ने उनका स्वागत पूर्वक सत्य-तत्व की जो जिज्ञासा हो उसे पूछने की प्रेरणा की । पूज्य श्री ने आज तक खंडन शैली को अपनाया नहीं था । जब सन्यासियों ने खुले चौक शीकर-वेदान्त की परम्पराओं में अद्वैतवाद को आगे करके दुसरे सभी को हङहाता खोटा कहकर तिरस्कृत किया । अतः आने वाले जिज्ञासुत्रों ने पूज्य श्री की गम्भीरता को पहचान कर पूज्य श्री को विनती की कि " महाराज हम इन शास्त्रों में क्या समझे ये सब विद्वानों का काम किंतु सन्यासी महाराज जो कहते हैं उसके लिये आपका क्या मंतव्य है ? क्या सचमुच आप जैन धर्मी ईश्वर को नहीं मानते क्या ? और सनातन धर्म की बातों में और आपकी बातों में क्या फर्क है ? हम तो इतना ही जानना चाहते हैं । पूज्य श्री ने कहा "महानुभावों आप लोग भी व्यापारी हैं। हजारों का नफा-नुकसान समझने की हैंसियत रखते हैं । सीधी-सादी बात होते हुए भो विचारों की पकड़ के कारण लोगों के सामने विकृत करके रखने में क्या फायदा ? सन्यासी महाराज जो कहते हैं, उसमें रहे ५० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य को स्वीकार करने में हमें कोई संकोच नहीं । किन्तु सत्य तो है तो है ! उसे अपनी बुद्धि के अनुरूप बनाने का दुष्प्रयत्न तो सत्य को विकृत बना देता । 1 हम जेन धर्मों ईश्वर को मानते न हो हैं । देखो ! ये हजारों मंदिरों लाखों-करोड़ों की लागत के जैनों ने ही बन वाये उनकी पूजा आदि भी कितना भाव-भक्ति से की जाती है । हम जैन धर्मो ईश्वर को मानते नहीं हैं । यह कहना सरासर झूठ है । हां ईश्वर को मानते हुए भी उसके स्वरुप में भेद है । अनन्त गुण सम्पन्न शक्तिशाली परमेश्वर परमात्मा को ईश्वर रूप में जैनी मानते हैं । फिर भी ईश्वर पर जगत् कर्तव्य जो दलीलों के सहारे रोपा गया है, उस पर जैनों का विश्वास नहीं ।" इतना पूज्य श्री ने कह कर जगत्कर्तव्य वाद का थोड़ा सा निरूपण कर उसके विस्तार को प्रकट किया जिसे सुनकर आये हुए सनातन धर्मी खूब खुश हुए । कि महाराज ! सनातन और जैन धर्म में खास फर्क क्या? यह जानना जरूरी है "पूज्य श्री ने कहा कि " महानुभावों ! यह चीज तो काफी लम्बी चौड़ी है, किन्तु फिर भी संक्षेप में जैन धर्म त्याग - प्रधान एवं आचार शुद्धि पर अधिक जोर देता है. जैन धर्म में कर्मवाद का सिद्धान्त एवं स्याद्वाद, अनेकांतवाद और कठिन जीवन चर्या, प्रधान रूप से मुख्य है ।" जिज्ञासू भाव से मिलने आये अन्त में जाते हुए यूँ कहा ५१ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनिय पूज्य श्री की शांत-उद्वात प्रवृति देखकर अत्यधिक संतुष्ट हुए तथा जैन धर्म की विशेषताओं से प्रभावित होकर अपने स्थान पर गये। सन्यासी महाराज के पास जाकर जिज्ञासु भाइयों ने बात की- “महाराज ! हम जैनी-धर्माचार्य के पास गये थे। उनकी बातों से उनकी उदात्त-प्रकृति का परिचय पाया है, वे बड़े मधुर-स्वभाव के शांत प्रकृति के महात्मा है उन्होंने हमें जैन धर्म के बारे में संक्षेप में बहुत अच्छा समझाया। उनको सनातन धर्म के बारे में भी काफी जानकारी है तो हमारी नम्र अर्ज है कि आप प्रवचन में अपनी बात ढंग से समझाइये, किन्तु दूसरों पर कटाक्ष रूप एवं जैन धर्म के बारे में अपेक्षात्मक बातें न हों तो अच्छा । नाहक ही भोली जनता धोखे में पड़ती है और धर्म के नाम पर झमेला बवंडर शायद उठ जाय, ऐसा हो तो हमारी शान्ति बिगड़े। . सन्यासी महाराज बोले कि "अरे ! तुम लोग तो निरे भोंदू हो! तुम लोग उधर गये ही क्यों ? ऐसे नास्तिकों का मुंह देखना ही पाप है । तुम उनकी चिकनी चुपड़ी बातों की लपट में आ गये । क्या वरा है उन जैनों में । जो ईश्वर को नहीं मानते हैं । मनमानी करके लोंगों को धोखा देते हैं, उन जैन साधुओं की ढकोसले में आप वहां फँस गये आदि सन्यासी म. के खूब यद्वा-तद्वा प्रलाप सुनकर जिज्ञासुगण ५२ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुब्ध हुए । परन्तु अन्त में सन्यासी महाराज को कहा कि " प्राप यदि ठीक ढंग से बात करें तो अच्छा । ऐसे उत्तेजक श्रावेश प्रधान शब्दों से क्या फायदा ? श्राप कोई दलीलें बताओ तो उनको और आपकों जाहिर में रूबरन बिठाकर सत्य तत्व का निर्णय करवादें । सन्यासी बोले कि, 'तो मैं क्या घबड़ाता थोड़े ही हूं । बुला प्रोंगे उनको । मैं जाहिर में उनकी सारी पोल खोल दूंगा, सनातनी लोग विचार में पड़ेये सन्यासी जी उग्रता भरी बात करते हैं । इसमें चर्चा-वितं वाद का कोई अर्थ नहीं है । अन्ततः मध्यस्थ भाव वाले उन सनातनियों ने सन्यासी महात्मा को धर्म की बातों कों तनिक शान्ति विवेक से प्रस्तुत करने को कह कर अपने अपने स्थान पर गये । कुछ दिनों बाद पुन: सन्यासी महात्मान "जैनी नास्तिक हैं "जैनों का स्यादवाद कुतर्कवाद है, जैनों के सिद्धान्त बिना ढंगघडे के हैं" इस मतलब के उच्चारण किये । परिणामत: पूज्य श्री ने जैन मुखिया श्रावकों ने वेद पुराण तथा उपनिषदों के लिखित प्रमाणों को देकर सनातनियों की मान्यता कैसी भ्रामक है उसे दर्शाने के साथ-साथ जैन धर्म तथा उसके स्यादवाद की गंभीरता का मार्मिक तर्कों के साथ सन्यासी महात्मा को लिखकर भेजा और उसका उत्तर माँगा । आवश्यकता हो तो सर्व साधारण में इस सम्बन्ध में इस शास्त्रार्थ की तैयारी दिखावे । ५३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्यासी महात्मा तो छिछले विद्वान तथा मात्र आडंबरी ज्ञान के कारण सत्य बात सुनने को तैयार नहीं होने से सार असार के विचार करने के विवेक के अभाव में धमधमातो उत्तेजना में आ गये तथा यद्वा तद्वा प्रलाप करने लगे । जैन के मुखि यात्रों ने ठंडक से बात करते हुए जतलाया कि "आप ज्ञानी है । ज्ञानी की बातों को हम क्या समझें । किन्तु लोगों में बड़ो चर्चा हो रही है । हमारे गुरु जी और आप बैठकर सत्य बात तय कर लोगों के सामने रखें तो अच्छा ।" जैन मुखियाओं ने और अधिक कहा कि " नहाना - घोना तो गृहस्थियों का काम हैं । प्राप लोग तो शुद्ध ब्रह्मचारी ! आपके शरीर में गंदगी कैसे हो ? और ये सब बातें भी रूबरू बैठकर परामर्श करलें कि नास्तिक किसे कहते हैं, देखिये । हम ये सारे वेद पुराण उपनिषद आदि के प्रमाण हमारे गुरूजी के दिये हुए लाये हैं । हम क्या समझें इनमें । आप और हमारे गुरूजी बैठकर कोई निर्णय करें तो अच्छा । फालतू अनपढ़े लोगों के सामने भैंस आगे भागवत की ज्यो शास्त्र की बातें करने से क्या फायदा ? सन्यासी महात्मा चिढ़कर उठकर चलते बने । जैन मुखिया लोगों ने उन पाठकों के पात्रों को सनातनियों के कुछ मुख्य लोगों ने उन पाठकों को दे दिये और कहा कि "इस तरह एक-दूसरों को उतारने की यह नीति ठीक नहीं | आप ५४ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग महात्मा जी को समझावें । देखों ! हमारे गुरुजी ने वेद पुराण एव उपनिषदों के ढेरों प्रमाण निकाल रखे हैं. उ .में के कुछ आपकों प्रस्तुत किये हैं, ढंग से बातचीत हो तो सत्य तत्व का परिचय आम जनता को प्राप्त हो ।' यह कहकर जैन मुखिया अपने स्थान लौट आये। सनातनी मुखियात्रों ने उन शास्त्रों के पाठों के मात्र कागज बता कर सन्यासो महात्मा से प्रवचन-शैली में सुधार करने को विनतो की, परन्तु उत्तर प्रदेश के अडबंग शास्त्री जैसे सन्यासी ने तो अधिक उत्तेजित होकर जैन धर्म तथा उसकी मान्यता के सम्बन्ध में बढ़कर आक्षेप किये। पूज्य श्री झवेर सागर जी म. ने श्री सघ के अगुआवों को बुलाकर “सीधी ऊँगली घी नही निकलता' कहावत के आधार पर बॉके लकड़े को बॉका चीरना" की व्यवहारी नोति अपना कर जिन शासन की हो रही लघुता को रोकने के लिए प्रयत्नकरने की तैयारी दर्शायो । जैन संघ के अगुवाओं ने भी वस्तु स्थिति का अभ्यास करके यथायोग्य करने की विनती करजतलाया कि "बावजी आपकी आज्ञा हमें शिरोधार्य है । किन्तु आप तो चातुर्मास करके पधार जाओं। हमें तो यहीं रहना है । दिन रात सनातन लोगों के साथ व्यवहार करना पड़ता है । अत: उपाय और हैं । उसे हम आजमा लें फिर यदि मामला न बैठें तो जैसा आप कहेंगे Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैसा करने को श्री संघ तैयार है । - पूज्य श्री ने कहा कि "अाखिर आप लोग गृहस्थी है। संसार की मोह माया छूटी नहीं अतः हमारी तरह आप धर्म और शासन को प्राथमिकता नहीं दे सकते । खैर! जैसी प्राप लोगों की अनुकूलता । आप भी व्यवहार कुशल है। साथ ही धर्म-शासन की निष्ठा-भक्ति आपके दिल में भी है । आप लोग भले ही एक बार क्या जब तक आपको कोई ऐसा मध्यम मार्ग मिल जाय अपने को नाहक बखेडा थोड़ा करना है । जाइये खुशी से । आप जो भी व्यवहारू तरोका प्राजमाना चाहे उसे शीघ्र अमल में लाइये । बिना वजह हो रही अपभ्राजना को रोकने में ढील करना ठीक नहीं । बस।' श्री संघ के मुखियाओं ने पूज्य श्री के पास ज्ञान पूजा करके वासक्षेप डलवाकर शासन पर पा रहे आक्रमण · को टालने में समर्थता मिले ऐसे आशय से मंगल आर्शीवाद प्राप्त किया। श्री संघ के अगुवानों ने सन्यासी को उग्रस्वभाव एव जिद्दी मानकर उन्हें समझाने में कोई अर्थ नही यो धारणा कर एक स्थान पर गांव के अग्रगण्य श्रीमंत, व्यवहार चतुर सनातनी के अगुवाओं को जरूरी आमंत्रण भेजा। योग्य सत्कार करने पर जैन अगुवाओं ने अथ से इति तक समस्त बात कर दी । पूज्य सन्यासी महात्मा हमारे माननीय है, वे धर्म गुरू हैं, परन्तु स्वयं की मर्यादा में रह कर योग्य ५६ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति से प्रवचन करें तो उत्तम । इस मतलब की बात प्रकट की। आमंत्रित सनातनी प्रमुखों में समझू, सयाने, समयचतुर होकर उसी प्रकार सन्यासी महात्मा की कठोर भाषा खंडनशैली तथा उग्रताभरी प्रवचन शैली से परिचित थे । अतः जैन अग्रगण्य व्यक्तियों की बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करके कहा कि," "आप लोगों की बातें ख्याल में आई । धर्म और शास्त्र की बातें तो बड़ी गहन है । और अपने जैसे संसारी मोह माया के जीव इन बातों को क्या समझ सके ? अच्छा तो यह है कि दोनों धर्म गुरु साथ बैठकर अपने विचारों का आदान-प्रदान कर लें और दोनों धर्म की सम्मति से जो सही बात तय हो, वह जनता को बताई जावे । बाकी प्राक्षेपात्मक नीति, वाद-विवाद और चर्चा से अाम जनता के पल्ले क्या पड़े ? हम इसके लिए पूरी कोशिश कर परिस्थितियों को सुलझाने का भरसक प्रयत्न करेगे । हम कल शाम तक आपको समाचार पहुंचा देगें । जैन अगुवाओं ने इस मध्यम मार्ग से शान्ति तो ठीक, यो धारण करके पूज्य श्री को भी समाचार विदित कर अवसर-"प्रतीक्षा हेतु विनती की । सनातनी अगुवानों ने भी सन्यासी महात्मा कोफिर से शांति से सारी बात समझायी और अब प्रवचन शैली नहीं बदली तो यहां भारी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्फोट-अशांति होगी इत्यादि मतलब की बात कही । परन्तु सन्यासी तो जड़भरत की तरह अपनी बात को चिपटे रहे और अगुवाओं को भर्त्सना की कि क्या तुम लोग बनियों के गुरु की बातों मे आकर सनातन-धर्म को महिमा बढ़ाने वाले हम पर रोब लगाने आये । चलो ! हटों यहाँ से हम कोई ऐसी बातों से दबने वाले नहीं । आदि। सनातमी अगुवाओं ने बहुत दया भरी विनती करके खडन शैली के बदले सनातन धर्म के तत्वों तथा उनको महिमा मंडन शैली से वर्णन करने के लिए बिनतो की । परन्तु पत्थर पानी की तरह सन्यासी-महात्मा सनातनी अगुवाओं की बात का कोई असर नहीं हुग्रा । बात तय हुई कि उसके अनुसार सनातनी मुखियाओं ने जैन संघ के प्रागुवानों को दूसरे दिन दोपहर कहला दिया कि “हमने काफी कोशिश की । किंतु कोई सारांश नहीं निकला । क्या करें ? काल की गति विचित्र है आदि । जैन श्री संघ के प्रमुखों ने यह समाचार पूज्य श्री को जताया इसलिये पूज्य श्री ने श्री संघ के अगुवानों को कहा कि “अब ढोली नोति कायरता बतायेंगे। अपने को लड़ना नहीं अपने को तो जनता के सामने सत्य रखना है । थोड़ा सा उग्रस्वरुप दिखाये बिना ये शब्द पंडितों की अक्ल ठिकाने नहीं आयेगी । जरा सी चिमकी तो देनी ही पड़ेगी । ५८ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखों! दो चार दिन एक पत्रिका छपवाकर प्रचार करो कि चांदनी चौक में जैन धर्माचार्य श्री की आम सभा का खुला प्रवचन "सनातन धर्म क्या है ? इस विषय पर होगा। बस फिर अपने को कोई आक्षेप या कटुभाषा नहीं वापरना है, किन्तु शब्द की आड़ में इन शब्द पंडितों ने जो ताडव रचा है उसे खोखला करना होगा “घबराओं मत जब रोग बहुत बढ़ जाता है तो इलाज भी जल्दी करना होता है। श्री संघ के आगे वालों ने पूज्य श्री की बात को मंजूर रखो। मोटे अक्षरों में पत्रिका छपवाकर किसी त्यौहार के दिन जब बाजार पूरा बद था ऐसे दिन चांदनी चौक में खुला व्याख्यान रखा । खूब प्रचार किया। लोगों में अन्ततः मध्यस्थ भाव वाले उन सनातनियों ने सन्यासी महात्माओं को धर्म की बातों को तनिक शांति से प्रस्तुत करने की कह कर अपने अपने स्थान पर गये। कुछ दिनों बाद पुनः सन्यासी महात्मा ने "जैनी नास्तिक है" जैनों का स्यादवाद कुतर्कवाद है "जैनों के सिद्धान्त बिना ढंगधड़े के हैं" इस मतलब के उच्चारण किया । परिणामतः पूज्य श्री जैन मुखिया श्रावकों ने वेद पुराण तथा उपनिषदों के लिए लिखित प्रमाणों को देकर सनातनियों की मान्यता कैसी भ्रामक है उसे दर्शाने के साथसाथ जैन धर्म तथा उसके स्यादवाद की गंभीरता का Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्मिक तर्कों के साथ सन्यासी महात्मा को लिखकर भेजा और उसका उत्तर मांगा। जिज्ञासा भी बढ़ी कि जैन धर्म गुरु "सनातन धर्म का रहस्य विषय पर खुले में बोलेंगे । यह क्या? सन्यासी महात्मा की कड़वी भाषा, आक्षेपात्मक नीति से जनता का एक बहुत बड़ा भाग उमड़ पड़ा वे सब सत्य जिज्ञासा धारण कर व्याख्याब के लिए निर्धारित किये दिन की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगे। पूज्य श्री ने श्री संघ के मुखियाओं को कहकर सबकों एक बात की जानकारी करा दी कि खुले में कोई भी बात समझे बिना तथा मेरे आशय को समझे बिना खुले में कोई भी नहीं बोले । जो पूछना हो वह मुझे मिलकर स्पष्ट करा सकता है। अन्य बात-सनातनियों की तरफ से चाहे जो प्रश्न आवे वे किसी भी प्रकार बोलें तो तुम्हें किसी भी प्रकार बुरा नहीं लगना । उस सबका खुलासा मैं करुंगा । तुम्हें अन्दर ही अन्दर कलहाचार में नहीं उतरना।” इन दो के सम्बन्ध समस्त संघ के सब ही लोगों का ध्यान विशेष रूप केन्द्रित कराया गया। निश्चित किये गये दिन नियत समय पर पूज्य श्री सैंकड़ों श्री संघ के भाई बहिनों के साथ चांदनी चौक में पधारे वहां तो जैनेतर जनता पहले से ही उपर पड़ती चीटियों की तरह उमड़ रही थी। fo Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री ने मंगलाचरण करके बालयोग्य शैली से सनातन तथा धर्म इन दो शब्दों का अर्थ, समझाकर तत्वज्ञान की वास्तविकता में भारतीय दर्शनों में एक सरीखा हैं । केवल उसकी विवेचना की पद्धति तथा निरूपण के प्रकार में अन्तर है । इस बात को खूब स्पष्ट किया । "सनातन धर्म शब्द से कोई एक संप्रदाय को सम्बोन्धित नहीं किया जा सकता।" इस बात का घटस्फोट विष्णुराण, भविष्य पुराण, मार्कण्डेय मण्डूकोपनिषद तथा वेदों के कितने ही मंत्रों तथा आगमों के प्रमाणों का उद्धरण "सनातन धर्म मतलब क्या ? उसे स्पष्ट किया? फिर उसके रहस्य में प्रात्मा-परमात्मा, संसार जन्म मरण आदि तत्वों की मौलिक छानबीन के साथ वास्तव में आस्तिक कौन ? इसे व्याख्यान की संयुति में उस दिन का प्रवचन पूरा हुआ। कहीं भी खंडन की बात नहीं तथा सनातनियों के द्वारा मान्य किये पुराणों, उपनिषदों तथा वेदों की ऋचाओं के आधार पर सनातन धर्म का कैसा निरूपण जैन धर्मगुरु ने किया इसे सुनकर अबाल-गोपाल सब हो बहुत प्रसन्न हुए। लोगों ने मांग की कि महाराज ! यह चीज तो हमने अाज नई सुनी । बड़ा ही मजा आया । कृपा करो आपकी वाणी सुनने का फिर मौका दो। अतः पूज्य श्री की सूचना से जैन अगुवाओं ने से फिर इसी विषय पर पूज्य श्री का प्रवचन यहीं Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा यह घोषणा की । प्रतिदिन अमुक विषयों के उपस्थान को पूज्य श्री इस अजीब छटा से करते कि समय पूरा हो जाता पर विषय पूरा नहीं होता । अतः लोग फिर मांग रखें और फिर व्याख्यान प्रारम्भ रहे । ___यों करते करते आठ दिन निकल गये । सन्यासी महात्मा के प्रवचन का समय प्रातः का इसलिए वहां तो सभा बिखर जाते, सब लोग पूज्य श्री के व्याख्यान में पड़ापड़ी कर जगह नहीं मिले तो सकड़ाई में भी मजे में बैठते । समग्ररूपेण लोगों में जैन धर्म के गुणगान होने लगे । सन्यासी महात्मा ने अपने प्रवचन में इस सम्बन्ध में अनेक विरूद्ध बोलने वाले निकले परन्तु धर्म प्रेमी जनता ता उनको अवश्रद्धालु मानकर गुणनुरागी पूज्य श्री को धर्म देशना खूब उत्कंठा से सुनने लगे । रतलाम का जैन श्री संघ भी पूज्य श्री अगाध विद्वता की ऐसो कुशलता देखकर दंग रह गई । पूज्य श्री ने भी सन्यासी महात्मा को सीवी रीति से समझाने या शास्त्रार्थ करने के प्रयास में निष्फलता मिली इसमें किसी गूढ़ संकेत को धारण कर जनता को जो सरल तरीके से जैन धर्म की विशिष्टताओं जानने को मिली तथा परिणाम स्वरुप शासन का जयजयकार हुआ, इसमें शासनदेव की वरद प्रेरणा समझ आत्म संतोष का अनुभव किया। इस प्रकार वि. सं. 1930 का चातुर्मास अन्य भी अनेक शासन प्रभावना के Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ पूरा हुआ । चातुर्मास समाप्ति के लगभग समय में इन्दौर श्री सघ के प्रमुख व्यक्तियों ने उग्रस्वभावी सन्यासी महात्मा के सामने सम्यक सूचकता का प्रयोग कर अपूर्व शासन प्रभावना करने के समाचार जानकर इन्दौर पधारने की प्राग्रह भरी विनती की । पूज्य श्री क्षेत्र स्पर्शना के आधार पर आने का विचार करूंगा यों कहकर इन्दौर संघ को राजी किया । चतुर्मास पूरा होने पर संभलिया की तीर्थ यात्रा पर ले जाने का भाव संघ में होने से श्री गणेश मलजी मूथा ने चतुविध श्री संघ के यात्रा करवाने का लाभ खुद को मिले ऐसी मंगल भावना श्री संघ के सामने व्यक्त कर प्रदेश मांगा । पूज्य श्री की सम्मति से श्री सघ ने तिलक कर संघपति के रूप में उनका चहुमान किया । का वि. 10 के मंगल दिन सैकड़ों भाई-बहिनों के साथ पूज्य श्री ने सेमलिया जो श्री संव को मंगल प्रस्थान किया । तीसरे दिन प्रात: काल सेमालिया जी पहुंच खूब ठाठ से भावोल्लास के साथ देव दर्शन पूजा महोत्सव, व्याख्यान श्रवण आदि मंगल धर्म क्रियाओं से श्री संघ का प्रत्येक भाई-बहिन ने जीवन की धन्यता अनुभव की । पूज्य श्री वहां से जावरा, आलोट होकर महीदपुर पधारे। वहां त्रिस्तुतिक मत के श्रावकों ने कितने ही विकृत शास्त्र पाठ ध्यान में रखकर चालू व्याख्यानों में प्रश्न ६३ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग करके पूज्य श्री की प्रतिभाओं को उलझाने का प्रयत्न किया परन्तु अजब धीरता कुशलता वाले पूज्य श्री ने स्वस्थ मत से तर्कबद्ध सब प्रश्नों का स्पष्टीकरण देकर विरोधो व्यक्तियों को शांत किया। महीदपुर से मक्षी तीर्थ को यात्रा श्री संघ के साथ करने की इच्छा सेठ मंगल चंद सोनो की विधवा पत्नी श्री जड़ाक बेन के बहुत समय से अपूर्ण रह रही थी। उन्होंने पूज्य श्री की निश्रा में माघ वि, 3 मंगल दिन 700 आराधक भाईबहनों के साथ भव्य सुन्दर जिन मन्दिर रथ तथा विविध मंगल सामग्री के साथ बोच में चार मुकाम करके माघ वि.7 के प्रातःकाल की मंगल वेला में मक्षी तीर्थ में प्रवेश किया। खूब उल्लास के साथ पूज्य श्री की निश्रा में सकल श्री संघ में दर्शन चैत्यवंदन करके परमात्मा जो अष्टप्रकारी पूजा स्नात्रपूजा तथा पंचकल्याणक पूजा पढ़ा कर बहुत धर्मोंल्लास अनुभव किया। विद 8 प्रातः व्याख्यान में मालारोपण विधि हुई। उसी व्याख्यान में प्रभु पुरुषा दाणीय श्री पार्श्वनाथ परमात्मा के जन्म दीक्षा कल्याणक की आराधाना के निमित्त पौष दशमी की आराधना तीन दिन तक विधिपूर्वक एकासरणा करने की प्रेरणा दी। जिससे 350 की संख्या में अठुम के तपस्वीयों की संध्या के उत्तर पारणों संघवी तरफ से हुए। विद 9,10,11, तोन दिन तक मामुहिक-स्नात्र तथा श्री Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिहंत-परमात्मा की अपूर्व भक्ति उल्लास वाला स्नात्र महोत्सव तथा पौष दशमी की आराधना की विधि सामूहिक रूप से हुई। तीनों दिनों पूण्यवानों ने कल्याणक निमित 20 माला का जाप भी किया। 50 से 60 पूण्यात्माओं ने साकरका पानी, खीर तथा चालू एकासना तीनों दिनों ठाम चौविहार के साथ कल्याणक का जाप पूर्वक मगल आराधना की । विद 10 के दिन आस-पास के गांवों में से मेले की तरह हजारों मनुष्य एकत्रित हुए प्रभु जी की रथयात्रा बहुत ही ठाठ से निकलो । विद 10 तथा 11 दोनों दिन साधार्मिक वात्सल्य भी श्री संघ की तरफ से हुआ । विद 12 के दिन जेठाभाई झवेर चंद गोखरू को तरफ से तपस्त्रियों का पारणा हुआ, कंकू के तिलक करके श्री फल-रुपयों से तपस्वियों का खूब मान भी हुमा । तीर्थ यात्रा के प्रसंग में मेले में आये इन्दौर, उज्जैन, आगर बडनगर आदि श्री संघों ने पूज्य श्री को अपने क्षेत्र को लाभ देने की विनती की । पूज्य श्री ने योग्य लाभ की आशा में उज्जैन होकर इन्दौर तरफ विचरण करने की भावना प्रदर्शित की। पूज्य श्री ने विद 13 को उज्जैन की तरफ प्रस्थान किया। बीच के एक गांव में स्थानकवासी साधु जहाँ ठहरे थे वहीं ठहरना पड़ा। वहां उन स्थानकवासी मुनियों के ६५ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान में स्थापन निक्षेप की असारता एवं "हिंसा में धर्म नही" इत्यादि बातें रखी पूज्य श्री ने व्याख्यान पूरा किया ही कि, तुरन्त स्वयं ने सक्षेप में परन्तु दांत खट्ट करने वाले शास्त्र पाठ तों से स्थानकवासी मुनियों की बातों की पोल खोल दी। उपस्थित जैन, जैनेतर जनता खूब प्रभावित हुई । पूज्य श्री को दूसरे दिन आग्रह पूर्वक रोक कर सर्वसाधारण में व्याख्यान कराया । उसके पश्चात् पो सु. 3 के मंगल दिन उज्जैन पधारे । वहां स्थानकवासी का खूब जोर था । वहां अपने जिनालय पूर्णतः जर्जरित एवं खंडहर जैसी स्थिति में हो गये थे । संवेगी परम्परा के साधुओं से सम्पर्क के अभाव में तथा शिथिलाचारी साधुओं की विषम प्रवृतियों से मुग्ध जनता को उत्साहित कर ढंढूकों ने जबरदस्त पावों का प्रसार कर रखा था। पूज्य श्री जहां उतरे थे, वहां पास के जिनालय के बाहर प्रेक्षामंडप में स्थानकवासी श्रावक रात्रि में सो जाते तथा दिन में अनाज सुखाते । कभी-कभी उनके साधुओं को भी वहां उतारते । पूज्य श्री ने अपने श्री सघ का इस तरफ से ध्यान आकर्षित किया तो विदित हुआ कि वह मंदिर उनकी जाति वालों द्वारा निर्माण कराया गया तथा उनकी ही व्यवस्था में संचालित है । अतः हम कुछ कर नहीं सकते। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 I अतः पूज्य श्री ने उस जाति के अगुवाओं तथा समझदार श्रावकों को बुलाकर कहा कि भले ही आप मंदिर को नहीं माने परन्तु यह धर्म स्थान है यह सत्य तो स्वीकारते हो ! तुम्हारी जाति भाईयों के द्वारा निर्मित मंदिर धर्म की रीतिमर्यादाओं का भी ध्यान करते हो । यह कोई संसारी गृहस्थी का मकान तो नहीं है । तुम यहां प्रवाज, कपड़ा सुखाते हो, सोते-बैठते हो, यह सब क्या दोषरूप नहीं है ? इसके प्राशय को समझकर योग्य दृष्टान्तों से अगुवाओं के हृदय-मानस को प्रभावित कर देरासर की वह श्राशातना कराई । उज्जैन में श्री छोगमल जी, घासीलाल जी आदि स्थानकवासी अग्र-' गण्य वयोवृद्ध साधु उस समय थे, जो शास्त्र पाठों को सम्पूर्ण रूप से कंठाग्र करके विविध दृष्टान्तों के माध्यम से मुग्ध जनता को जिन शासन की चालु परम्परा से दूर बिठाने का काम करते थे । पूज्य श्री ने व्याख्यान में आर्द्रकुमार, द्रोपदी, शयंभव भट्ट की दीक्षा आदि प्रसंगों को उभार कर मूर्तिपूजा की प्रामाणिकता सम्बन्धी वातावरण में उहापोह जागृत कर दी। जिससे स्थानकवासी साधुगण ने सूत्रों के पाठ सम्मुख रखकर कहा कि मूर्ति पूजा तो अविरति कर्तव्य है | श्रावकों का कर्तव्य कहां है ? यों कहकर मूर्तिपूजा की प्रामाणिकता की स्पर्धा जो स्वीकारने में आई यह कर्तव्य किसका है ? श्रावकों का कर्तव्य कहां है । इस प्रश्न की तरफ पूज्य श्री मे. ६७ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात को प्रकट करने को सरल कर दिया । अनेकानेक शास्त्र पाठों से पूज्य श्री ने "प्रभु पूजा" यह तो श्रावकों का कर्तव्य है । सर्व विरति प्राप्त करने का प्रमुख साधन है" इस बात को सर्वसाधारण को प्रकाशित की । परिणामस्वरुप कितने ही भावुक - पुण्यात्माओं को संवेगी परम्परा के अनुयायी बनाने के सौभाग्यशालो बने । मासकल्प को स्थिर कर इन्दौर चौमासी फाल्गुन पधारे । वहां संवेगी परम्परा के मुनियों के बहुत कम आगमन से धुमिल पड़ी धर्म-छाया को व्याख्यान वाणी से प्रभावशाली बनाकर अनेक धर्म पिपासु लोगों को सन्मार्गाभिमुख बनाया | त्रिस्तुतीक मतवाले कितने ही ग्राग्रही लोगों ने व्यर्थ में चर्चा का नाटक खड़ा किया । पूज्य श्री ने खुले में शास्त्र पाठ के साथ चर्चा करने को स्वीकार किया लेकिन कोई भी सम्मुख नहीं आया । १ इन्दौर श्री संघ चैत्री - प्रोली के लिए स्थिरता के साथ चातुर्मास की प्राग्रह भरी विनती की । पूज्य श्री ने क्षेत्र स्पर्शना के आधार पर निश्चित उत्तर नहीं दिया । परन्तु चैत्री - प्रोली के बीच में रतलाम श्री संघ के आग्रगण्य आठदस अगुवा ये और पूज्य श्रा से बात की कि "उज्जैन में जिन छोगमल जी घासी लाल जी स्थानकवासी साधुनों के साथ आपकी जो चर्चा हुई थी उसके छींटे रतलाम में भी ६८ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये है उन लोगों से अपने गुरु श्री गणेशीलाल जी ने स्थानकवासी सघ को एकत्रित करके मूर्ति पूजा को अशास्त्रीयता पर सर्वसाधारण में व्याख्यान कर वातारण को दूषित कर दिया है । अब चाहे जो करके महरबानी करो। आप तत्काल पधारो। शासन की विजय पताका फहरामो आदि भावार्थ वाली बातें कही। पूज्य श्री ने परिस्थिति का अनुमान निकाल कर इन्दौर श्री संघ के अग्रगण्य श्रावकों को बुलाकर सारी बातें कर चैत्री पूणिमा के बाद विहार की बात निश्चित की । रतलाम श्री सघ को चैत्री अोली के पश्चात तुरन्त रतलाम तरफ विहार करने का आश्वासन दिया। इन्दौर के श्री संघ ने चातुर्मास के लिए खूब आग्रह किया परन्तु पूज्य श्री ने कहा कि शासन पर जो आक्रमण आवे उस सम्बन्ध में विचारण कराना आवश्यक है । अतः वैशाख महिने तो रतलाम पहुंचूगा ही फिर चातुर्मास के लिए शक्यता कम लगती । फिर भी ध्यान रहेगा। पूज्य श्री ने इन्दौर से विहार के समय मक्षीजी में बड़नगर संघ को कही बात के प्रमाण के अनुसार दो-चार दिन स्थिरता का कार्यक्रम संयोजित करके बड़नगर ' की दिशा में विहार किया। बड़नगर में रतलाम शहर के सनातनी सन्यासी महात्मा के साथ पूज्य श्री का पटित प्रसंग से प्रभावित जैनेतर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगों ने व्याख्यान में बहुत लाभ लिया। तेगपंथी श्रावकों ने अपने दान-दया के विचारों को रूपान्तर कर पूज्य श्री के प्रतिभा को धूमिल करने के उद्देश्य से प्रश्न पूछने का दुःसाहस किया । परन्तु अनुकम्पा दान की मार्मिकता तथा सुपात्र को दिये दान की विशिष्ठता के वर्णन के साथ दानधम की तात्विक बातों के प्रकट करने से तेरापंथी श्रावक भी पूज्य श्री के आगे हतप्रभ बन गये। बाद में वेसाख सु. 7 के लगभग पूज्य श्री रतलाम पधारे । स्थानकवासी श्री संघ के श्रावकों के मार्फत कहलाया कि “ मैं आ गया हूं । छोगमल जी म. को मूर्तिपूजा के संबंध में जो कहना हो उसे प्रकट करें। मैं उसका खुलासा देने को तैयार हूं।" गणेशीलाल जी ने कहलाया कि "खुले स्थान में बैठकर हम लोग विचार करें। शास्त्र पाठों को प्रसारित करें तो परिणाम जल्दी प्राप्त होगा" इस मुजब की बातचीत से सनातनियों की जाति-स्थान (पंचायतो नोहरा) पर पूज्य श्री अपने श्रावकों के साथ तथा स्थानकवासी अपने श्रावकों के साथ वहां पधारे। तीन से चार दिन दो पहर दो से चार बजे के समय में विचार-विमर्श चला । अनेक तर्क-वितर्क, शास्त्र पाठों की विचारणा पकड़वाली विचारणा, अर्थघटन की विचित्र शैली तथा स्थापित रूढ़ मान्यताओं आदि का प्रसारण हुआ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसमें कितने आग्रही मान के विकृत कारण कड़वाहट फैलाने वाला वर्ग विगृह का वातावरण जमने लगा। परिणामस्वरुप समझदार वर्ग धीरे-धीरे खिसकता गया । पूज्य श्री ने तात्विक विचार की भूमिका उपयोगो नहीं लगने से बाद में वाड़ी में जाना बंद कर दिया। वितंडावादी स्वरूप से सत्य की शोभा बिखर जाती है इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव हुमा । कुछ दिनों बाद बात खुली बातचीत टूट गयी पर अन्तर मतभेदों की ग्रन्थिय यथावत थी। यदाकदा अपने ही तरीके से आक्षेपात्मक नीति के वर्ग की विकृत बातें प्रसारित होने लगी। पूज्य श्री आक्षेपात्मक नीति के पीछे लगो हुई मनोवृति को पहचान कर मूल बात को पकड़ रखा तथा जनता के मानस पर सत्य तत्व की झॉकी मंडन शैली से करने लगे। रतलाम श्री संघ में आये इस झकझोरे गये वातावरण में चातुर्मास का लाभ फिर मिलने का आग्रह रखकर पूज्य श्री ने जेष्ट विद 10 के मंगल दिन चातुर्मासिक प्रवेश कराया । स्थानकवासी श्री सघ में श्री हरखचंद जी चोपड़ा, किशनलाल जी मानावत तथा श्री सुखमल जी बोथरा वयोवृद्ध तथा स्थिर बुद्धि प्रागमि बातों को सूझपूर्वक समझने वाले थे। उन्होंने पूर्व सूचना कहलाकर पूज्य श्री के पास जिज्ञासा से मिलने की इच्छा प्रदर्शित की । पूज्य श्री ने भी चाहे जब Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपहर दो से चार बजे के बीच में मिलने आ सकते थे संमति प्रकट की। तीनों जानकर श्रावकों ने पूज्य श्री से सम्पर्क साधकर विविध स्पष्ट खुलासा जानकर बड़ा संतोष व्यक्त किया तथा पूज्य श्री की प्रतिभाभरी विद्वता से प्राकर्षित हुए । परिणामस्वरुप उन्होंने उहापोह में रही कटुता तथा श्राक्षेपात्मक नीति बंद करवा दी । सरल-भद्र जनता को जिज्ञासु भाव से सत्य समझने के द्वार खुले कर दिये । जिसके परिणामस्वरुप दो सौ ढ़ाई सौ घर के समुदाय पूज्य श्री के व्याख्यान आदि का लाभ लेने लगे । इससे उनके हृदय में मूर्ति पूजा की प्रामाणिकता के हेतु सचोट विश्वास होने से उन लोगों ने जिन शासन की मर्यादा प्रमाण में श्रावक के रूप में आचरण में दहेरासर दर्शनपूजा आदि में प्रवृतिवान होने लगे । चातुर्मास के बीच में इस प्रकार के स्थानकवासी संघ के उम्र वातावरण की शांति तथा सैंकड़ों की मूर्तिपूजा की श्रद्धा उत्पन्न हो जाने के परिणाम स्वरुप रतलाम जैन श्री संघ ने पूज्य श्री को सच्चा शासन प्रभावक समझकर खूब आदर सम्मान किया । पर्यूषण में नवालन्तुक घाधिकों की बहुत बड़ी संख्या ने तपस्या आदि चढ़ाने में बहुत लाभ लिया । ७२ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 इसके कारण स्थानकवासी संघ में रूढ़िकुशल मानस वाले एक बड़े वर्ग में पर्युषण के पश्चात बहुत उहापोह मचा तथा चातुर्मास स्थित साधू-साध्वियों में कौप्रा - शोर मचाकर मूर्ति पूजा हंबग है, अशास्त्रीय है फिर से ऐसा आवाज उठाई । भांति-भांति के चित्र-विचित्र तर्क-कुतर्क की परम्परा प्रारम्भ की । इस पर भो पूज्य श्री ने अपने मोठे मधुर उपदेशों द्वारा श्री जैन संघ श्रावकों को खूब धैर्य रखने को जतलाया । स्वयं विशिष्ट समता तथा घृणा से युक्त स्थानकवासियों को तरफ से आते विविध आक्रमणों का योग्य प्रतिकार करने लगे । इस प्रसंग में पैंतालिस आगमों में से स्पष्ट मूर्तिपूजा के पाठवाले तेरह आगमों को अमान्य करके बतीस आगमों को भी मूल मात्र मानने की पकड़वाले स्थानकवासियों के अर्थघटन की विषमता का सहारा लिया । अतः पूज्य श्री ने स्थानकवासियों के द्वारा मान्य बतीस श्रागमों में से ही मूर्ति पूजा को वास्तविक समझने वाले पाठों की सारांश विवेचनावालो "भक्ति प्रकाश" नाम की लघु पुस्तिका जनता के विचारने के लिये छपवाकर प्रकाशित की। इसे पढ़कर कम पढ़े हुए लेकिन प्राराधक व्यक्तियों ने स्पष्ट रूप से बतील आगमों में भो मूर्ति पूजा के यर्थाथता जाने-समझे तथा व्यर्थ की वाणी - तांडव ( बकवास ) को अयोग्य मानकर सत्य के ७३ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति आग्रहशील बने । पूज्य श्री ने चातुर्मास के अंतिम दो महिनों में विपक्षी द्वारा उठाये गये तांडव को शमित करने के लिये अत्यधिक परिश्रम उठाया तथा अकेले ही स्थानकवासियों की दलीलों, शास्त्रपाठों तथा विषय को प्रतिपादन पर आधारित पूज्य श्री की प्रतिभा को खंडित करने की समस्त अभिलाषाओं को निष्फल करने में समर्थ हुए। चातुर्मास पूरा होने के बाद में बदनावर के सेठ जड़ावचंद के घर में श्राविका के ज्ञान पंचमी तपकी पूर्णता में उद्यापन करने का भाव होने से पूज्य श्री को माघ सु 3 से प्रारंभ होने वाले उत्सव में पधारने को आग्रह भरी विनती की । पूज्य श्री ने कार्तिक वि 2 के मंगल दिन रतलाम श्री संघ से भाव भरी विदा लेकर करमदो तीर्थ पधार कर श्री संघ की तरफ से पूजा स्वामीवत्सल इत्यादि होने के पश्चात् का. वि. 11 बदनावर की तरफ विहार किया । का. वि 13 बदनावर शहर में भव्य स्वागत सहित प्रवेश किया। व्याख्यान में श्रावक जीवन की महत्ता तया तपधर्म की अनुमोदना पर खूब सूक्ष्मता के साथ तात्त्विक पदार्थों का प्राकरण होने लगा। स्थानकवासी तथा वैष्णवों आदि अन्य दर्शनार्थों घी पूज्य श्री की तात्त्विक देशना से खूब प्रभावित हुए । इस महोत्सव के सम्बन्ध में बखतगढ़, बिड़वाल, उणेल बड़नगर आदि आस-पास से आए पूण्यवंत श्रावकों ने अपने ७४ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 यहां पधारने का बहुत आग्रह किया । अतः उन सबही क्षेत्रों, में फिरकर माघ सु. 5 लगभग बड़नगर पधारे। वहां तेरापंथी साधुत्रों ने दान-दया को विकृत व्याख्या प्रसारित कर वाता वरण को प्रान्दोलित करने का प्रयत्न किया परन्तु पूज्य श्री ने धैर्यपूर्वक शास्त्रीयपाठ तथा बुद्धिगम्य तर्कों के आधार पर " द्रव्य-दया अनुकम्पा दान भी शास्त्रीय है तथा गृहस्थी का उत्तम कर्तव्य है ।" यों सिद्ध किया । f वहां से गौतमपुरा, देपालपुरा, हाटोद इत्यादि गांवों में शासन - प्रभावना पूर्वक विचरते रहे। इस अवधि में इन्दौर में त्रिस्तुतिक आचार्य श्री विजय राजेन्द्र सूरि म. ने व्याख्यान प्रसंग में अविरतिदेवों की वंदना विरति या श्रावत केसे कर सकते है ? यह बात जरा विस्तारपूर्वक तथा छानबीन युक्त चर्चा की । इन्दौर के श्री संघ बिना प्रसंग ऐसी विवादास्पद बातों को छेड़कर वातावरण दुषित क्यों किया जाय ? यों कहकर श्रावकों के द्वारा पू. आचार्यदेव को खामोशी रखने को कहा परन्तु भावोयोग से रतलाम में पूर्णतः सुविधा नहीं होगी तथा यहां उत्तर देने वाला कौन है यो धारणा करके तनिक अधिक विवेचन के साथ उन्होंने वह प्रश्न छेड़ना प्रारम्भ किया । 1. इससे इन्दौर के समझदार विवेकी अग्रगण्यों ने पू. श्री भवेर सागर जी म. को आग्रह भरी विनती कर शीघ्र ही ७५ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें बुला लाये । चैत्र सु. 5 मंगल दिवस उनका प्रवेश हुआ । भाग्य से त्रिस्तुतिक आचार्य महाराज के मुकाम के पास ही उपासरे में पूज्य श्री डेरा डाले होने से व्याख्यान चर्चित विषय की पूरी सूचना सावधानी से मिलती गई । पूज्य श्री ने भी व्याख्यान में श्री वीतराग परमात्मा की भक्ति का स्वरुप के वर्णन प्रसंग में "सम्यग् दृष्टि-देव जिन शासन भक्त देव है" प्राराधक पुण्यात्माओं की भावस्थिरता रूप वैयावच्च का काम वे करते है" "उनका स्मरण मात्र करने में पांचवा छठ्ठा गुणवालों को दोष नहीं लगता है" "उनका निर्मल सम्यकत्व तथा संघ वैयावच्च करने के सम्बन्ध में गुणानुराग दृष्टि से स्वीकारने के बजाय अपलाप करने से सम्यकत्व उल्टा जौखम में हो जाता है ।" आदि शास्त्रीय बातें अनेक शास्त्रों के प्रमाणों से प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया । जिज्ञासुगण यहां से सुनकर वहां जाय और पूज्य आचार्य श्री से प्रश्न पूछे । वहां से सुनकर पूज्य श्री के पास आने तथा शंकाओं का स्पष्टीकरण युक्त समाधान ग्रहण करने लगे । कुछ दिनों के बाद चर्चास्वरुप खड़ा हो गया परन्तु पूज्य श्री ने कहा कि "हमें तो कोई हर्ज नहीं आचार्य श्री से पूछो। वाद-विवाद का तो कोई अन्त नहीं प्रायगा । ओर हमारी, दोनों की बातें समझकर सत्य निर्णय कर सके ७६ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे मध्यस्थ-व्यक्ति के अभाव में फालतू दिखावा करने से क्या फायदा?" आदि कहकर वितन्डावादी वातावरण को वश में रखा। एक बार श्रावकों के आग्रह से आचार्य श्री तथा पूज्य श्री दोनों एकत्र भी हुए, शास्त्र पाठों की समीक्षा भी हुई। बहुत लम्बो चर्चा के अत में "सत्यत्य तत्व निहितं गुहाया" "सत्वं तु केवलीनो बिदन्ति" "प्रागमवादे हो। गुरूगम को नहीं । अतिदुर्गमनयमवाद" प्रादि सूक्तियों को परिभावना में शांति से दोनों अपने अपने स्थान पर गये। * * यहां से सुनी गई किवंदतियों के आधार पर यों जानने मिलता है कि पू आचार्य श्री विजय राजेन्द्र सुरि म. जो उपाश्रय में थे तथा व्याख्यान में देवों का वेदन न हो इस सम्बन्ध में विचार कर रहे थे । तब पूज्य श्री के पास के ही कमरे में बैठकर उनके मुख्य बिन्दुओं को अकित कर लेते थे। कुछ समय बाद पू. आचार्य श्री विहार कर गये । प्रतः पू. श्री झवेर सागर जी म. व्याख्यान में त्रिस्तुतिक आचार्य भगवंत के तर्को का जोरदार खडन करने लगे । शास्त्रीय प्रमाण ढेर सारे देकर त्रिस्तुतिक मत का सूक्ष्म परीक्षा करने लगे। जिससे विस्तुतिक श्रावक खलबला उठे । वे लोग पू आ. श्री विजय राजेन्द्र सूरि म. के पास गये। यह बात विक्रम सं. 1942 में छपी एक हिन्दी पुस्तिका (भाषा मुजराती टाईप हिन्दी डेमी 16 पेजी साइज की पीले रंग की ७७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयपुर श्री संघ ने प्रकाशित की) में निम्नानुसार अक्ति पू. आचार्य श्री राजेन्द्र सूरि जी के पास जाकर उन्होंने जतलाया कि "गुजरात से भागत श्री झवेर सागर जी ने श्रापके वचनों को शास्त प्रमाण सहित खंडित करना प्रारम्भ किया है और वे शास्त्रार्थ के लिये भी तैयार हैं । प्राप नहीं जायें तो संघ में भेद पड़ जायगा ।" इस बात को सुनकर वे लोग इन्दौर पुनः आये तथा शास्त्रार्थ की व्यवस्था हुई । मध्यस्थ का आमंत्रण कर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । थोड़ी देर में ही पू आ. राजेन्द्र सूरि जी म. तथा पूज्य झवेर सागर जी महाराज द्वारा दर्शाये गये आगमक प्रमाणों के सम्मुख उन्होंने मौन धारण किया । " चरित्रनायक श्री पू. आगमोद्वारक आचार्य देव जी द्वारा विरचित विशांतिविंशिका की स्त्रोपज्ञ टीका के प्रसंग में प्रथम अधिकार विशिका 3000 श्लोक प्रमाण टीका की समाप्ति पर अपने सक्षिप्त जीवन वृत को दर्शानेवाली प्रशस्ति में इस बात का गर्भित समर्थन किया है । वे श्लोक इस प्रकार है: ७८ तत्राभवन् मुनिवरा जयवीरसिन्धु सज्ञाः सुवादकुशलाः गणिनः प्रसिद्धाः वादे महेन्द्रपुरि त्रिस्तुतिका दयान नन्दारकाश्य रुद्रपुर्नगरे निरस्ता !!" " Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. 1932 का चातुर्मास श्री संघ के आग्रह से इन्दौर में हुआ । पूज्य श्री को तात्विक आगमप्रधान देशना से अनुरंजित होकर विवेकी श्रावकों ने श्री पन्नवण तथा श्री जीवाभिगम सूत्र की वाचना चातुर्मास की अवधि में प्रातः काल तथा दोपहर में हुई। पांच घंटे आगम वाचना रूप उमंग भर कर सुनी* चातुर्मास की ही अवधि में अनेक तपस्याओं के साथ विविध धर्म कार्य भी हुए। चातुर्मास की हो अवधि में महीदपुर के संघ के अग्रगण्य श्रावक श्री वृद्धि चंद, अम्बालाल जी, रतन चद जी आदि श्रावक आगम वाचन के आकर्षण से ताबड़तोड आठ-दस दिन रूककर चातुर्मास के मध्य डेढ़ माह पूज्य श्री के आगमिक व्याख्याओं को सुनकर चातुर्मास पूरा होते हो तत्काल महीदपुर पधारने की आग्रह * एक वृद्ध मुनि के पास पुगतन सूचना में ऐसा भी उल्लेख है कि "मुनि झवेर सागर जी ने इन्दौर में स्थिरताकर और 46 मागम की वाचना की, इसमें महेन्द्रपुर शब्द है वह साधारण महीदपुर (मालवा) का भ्रम कराता है । परन्तु उपरोक्त हिन्दी की पुस्तिका की बात के आधार पर "महा" शब्द को विशेषण मानकर "इन्द्रपुरे-इन्दौंर नगर में" ऐसा अर्थ माना जा सकता है। ७६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरी विनती की तथा आगम वाचना रूप परमात्मा वीतराग श्री तीर्थंकर परमात्मा की अमृतवाणी सुनने की दोन विनती की । पू. श्री ने भी विषमकाल में समवयोगात संवेगी परम्परा के साधुओं के सहवास की कमी के कारण अन्य संप्रदाय वाले शास्त्र के नाम से मनघडंत बातों को बहुत महत्व दे रहे हैं । इस प्रसंग में श्री संघ में प्रागमिक ज्ञान की बढ़ोतरी हो इस उद्देश्य से का वि. वि. इन्दोर से विहार कर का. वि. 10 प्रातः महीदपुर पधारे । ; महीदपुर में तीन थुई वालों के साथ चर्चा होने की बात का उल्लेख मिलता नहीं है । यह सूचना तनिक विचारणीय लगती । 45 आगमों की वाचना में कम से कम 22 - 3 वर्ष चाहिए । फिर भी ज्यों प्रा. श्री विजय राजेन्द्र सूरि के कुक्षी के चातुर्मास मे नो महिने एक साथ रहकर 45 श्रागम की वाचना का उल्लेख मिलता है । उसी प्रकार कोई विशिष्ठ वाचना की पद्धति अपनाकर पूज्य श्री ने आगम इन्दौर में पढे भी हो यह संभावित लगता है । क्योंकि श्री भगवती सूत्र 11⁄2 वर्ष में पूरा होता है तो भी आज मात्र 4 माह में पूरा श्री भगवती सूत्र पढ़ने वाले गीतार्थ भगवंत मोजूद हैं । इसी प्रकार शायद 45 के वाचन की भी संभावना गिनी जा सकती है । ८० Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ शु. 2 के मंगल दिन भव्य रथ यात्रा निकाल कर पागम ज्ञान का बहुत आदर बढ़ाने की दृष्टि से श्री आवश्यक सूत्र की दशवे कालिक, श्री उत्तराध्ययन, श्री नंदीसूत्र श्री अनुयोगरूप प्रारम्भ किया । प्रतिदिन प्रातः 9 से 11 तथा दोपहर 2 से 4 वाचना के समय घी का दीपक, गेहूं की ज्ञानपूजा इत्यादि विधि का पालन सम्मानपूर्वक किया जाता था। माघ सु 5 श्री आचारांग सूत्र से ग्यारह अंग का वाचन प्रारम्भ होकर चैत्र सु 5 से साढ़े बारह दिन की "असंझायना" के कारण वाचन बंद रह कर इस अवधि में आगमिक भक्ति के निमित्त भव्य अष्टान्हिका-महोत्सव हुआ। चैत्र वि. 2 से श्री भगवती सूत्र की शुरुग्रात हुई। आषाढ़ सु 13 तक श्री भगवती सूत्र पूरा हुआ । चातुर्मास के बीच में पर्युषण के पूर्व श्री ज्ञातासूत्र, श्री उपासक दिशा, श्री अनुत्तरोपपातिक दशा, श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र का वाचन पूरा हुआ । भा. सु. 10 से आसो. सु. 5 तक श्री उववाई, श्री राय पसेणी श्री जीवाभिगम-सूत्र का वाचन हुआ। आसोज वि. 2 से ज्ञान पंचम तक श्री पन्नवणा सूत्र का वाचन हुअा। का. वि. 10 तक बाकी के उपांगों का वाचन पूरा हुआ । पश्चात पूज्य श्री को उदयपुर में स्थानकवासियों तथा आर्य समाजियों की तरफ से महातांडव उपस्थित होने Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समाचार चोमासे में ही बारंबार श्री मूल चंद जी द्वारा प्राप्त होने से चातुर्मास उतरने पर उदयपुर जाने की आज्ञा आई । इससे छः छेदसूत्र का तो सर्वसाधारण में वाचन नही हो सके । मात्र दस पृष्ट आगम के पढ़ने शेष रहे इसके आगे कभी ओर यह रहकर का वि. 13 पूज्य श्री ने शीघ्रताशीघ्र उदयपुर की तरफ विहार बढ़ाया । मृगसिर वि. 5 लगभग उदयपुर पधारे। उदयपुर में संवेगी साधुत्रों के विहार का सर्वथा अभाव या । श्रीपूज्य के यतियों की बोलबाला में श्री वीतराग प्रभुजो के 36 जिनालय होने पर भी धर्म प्रेमी जनता में धर्म भावना की अत्यधिक न्यूनता थी । स्थानकवासियों की आपात-रम्य सुन्दर लगती दलालों के चक्र में चढ़कर बावक जावन के अनुरूप प्रभुदर्शन अथवा श्री वोतराग परमात्मा की अष्टप्रकारी पूजा आदि को पद्धति अत्यधिक गड़बड़ पढ़ गयी। पूज्य श्री उदयपुर श्री संघ के श्रावक कुल की महत्ता जिन शासन की महिमा तथा "अन्नतकर्मी के भार से छूटने के लिए श्री वीतराग परमात्मा की भक्ति के अतिरिक्त कोई आधार नहीं है।" इस विषय पर जोरदार व्याख्यान देकर धार्मिक जनता में अनोखी जागृति उत्पन्न करने लगे। ८२ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री ने स्वयं प्रत्येक देरासरों में विवेकी श्रावकों को लेजाकर प्रशातनामों को दूर करने का प्रयत्न किया । सामयिक, प्रतिक्रमण, नवकारशी, रात्रि भोजन त्याग आदि श्रावकों के आचार विचार की समझाइश के साथ प्रभुदर्शन देवपूजा में पूण्यवानों को अत्यधिक प्रयत्नशील बनाया। इसके अतिरिक्त पूज्य श्री ने स्थानकवासियों 'नायें समाजियों इत्यादि लोग जो बुद्धि भेद करने गले मंतव्यों के थे व्यवस्थित रूप से भडाफोड़ दिया। श्री संघ में पूज्य श्री की विद्वता-शास्त्रीय प्रतिभा तथा अपूर्व शक्ति देखकर श्री संघ के लाभ के लिए वि. सं. 1933 के लिए आग्रहभरी विनती की । पूज्य श्री ने लाभ-हानि का निरूपण कर वर्तमान योग यों कहकर लगभग स्वीकृति प्रदान की। - चातुर्मास के पूर्व उदयपुर के आस-पास के गांवों में विचारण कर वहां के जैनों की जो धर्मवासना यतियों के शिथिलाचार से तथा स्थानकवासियों के बाहृय चरित्र के देखावे से एवं एकांगी स्थापना निपेक्षा को अमान्य करने की बातों से विचलित हो गया था। उसे शास्त्रीय सदुपदेश तथा शुद्ध चरित्र के पालन से व्यवस्थित करके अनेक जैन मन्दिरों को आशातनागों को दूर किया । संघ के प्राग्रह से श्री संघ की धर्मभावना को अधिक परिपुष्ट करने के शुभ आशय से वि. सं. 1933 का चातुर्मास उदयपुर में हुआ। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास के बीच में पंचरंगीतप, श्री नवपदजी की सामूहिक ली इत्यादि आराधना का वातावरण उत्तम जमा । चातुर्मास पूरा होने से वि. सं. 1934 का माग सु. 13 पूज्य श्री ने विहार करके आसपास विचरण करके फागुन चौमासे के लिए उदयपुर पधारे तब सेठ श्री किशना जी द्वारा पूज्य श्री के उपदेश से प्रभावित होकर श्री केसरियाजी तीर्थ का छरी पालन करता हुआ संघ निकालने की भावना हुई । पूज्य श्री को बात की । पूज्य श्री ने धर्म कार्य के मनोरथ शीघ्र पूर्ण हो तो उत्तम यों समझकर फा. वि. 3 का श्रेष्ठ मुहूर्त निकाल दिया । पत्रिका छपवाकर आसपास के गांवों को भेजी। इस प्रसंग में पूज्य श्री के हृदय में एक मंगल मनोरथ उत्पन्न हुआ । युगादि ऋषभदेव भगवंत का जन्म तथा दोक्षा का दिन चैत्र व 8 ( गु. ज. फा. व 8 ) को पड़ता है । केशरियाजी में इस पवित्र दिन मेले का आयोजन किया जाय तो इस बहाने लोगों में उत्तम जागृति आवे | यह धारणाकर बहुत बड़ा हेण्ड बिल प्रकाशित कर केशरिया जी तीर्थ का महत्व तथा वर्तमान अवससर्पिणी काल के प्रथम तीर्थकर, कलियुग की जागृत - ज्योति, श्री केशरियाजी तीर्थ जिसकी प्राचीन प्रतिमाजी है । उनकी यात्रा के निमित्त वार्षिक दिवस के रूप में प्रभु का जन्म तथा दीक्षा कल्याण से ८४ 1. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवित्र चै. वि. 8 के दिन को महत्व का मानने पर अधिक - बल देकर देश-देशान्तर में हजारों पत्रिकायें भिजवाकर खूब ही प्रचार कराया। फा वि. 3 के मंगल मुहूर्त में श्री संघ ने उदयपुर से प्रयाण किया । पुरुषदाणी प्रकट प्रभावी श्री पार्श्वनाथ प्रभु से अधिष्ठित श्री सवीनाखेड़ा तीर्थ में पहला मुकाम हुआ। ___ फा. वि.7 के मंगल दिन केशरियाजी तीर्थ में मंगल प्रवेश हुआ। प्रचार के आधार पर राजस्थान, मालवा, मेवाड़, गुजरात, काठियावाड़ आदि प्रदेशों में हजारों की संख्या में यात्रीगण आये । उन सबकों हर्षोल्लास के मध्य विद अष्ठमी प्रातः तीर्थ पति के समूह-चैत्यवंदन के साथ दर्शन कर देरासर के सामने चौक में तीर्थमाल की विधि सम्पन्न हुई। व्याख्यान भी हुआ । संघपति तरफ से प्रभु जी की अष्ठप्रकारी पूजा ठाठ से हुई। दोपहर में बड़ो पूजा पढ़ाई गयी । सायं चार बजे भव्य रथ यात्रा निकली । पूज्य श्री ने आये हुए यात्रियों को प्रतिवर्ष इस दिन को मेला वार्षिक यात्रा के प्रतिरूप चालू रख कर प्रभु-भक्ति पूजा-रथ यात्रा प्रादि सम्पन्न करके इस दिन को उद्यापन के लिए प्रेरणा की। वि. सं. 1934 के फा. वि. 8 से प्रारंभ हुआ यह मेला आज दिन तक खूब ठाठबाठ से खूब प्रभाव से आयोजित Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है । अब तो इस मेले में भील आदिवासी लोग भी कालिया बाबा की अटूट भक्ति से हजारों की संख्या में एकत्रित होते हैं । पू. श्री केशरियाजी से सलुम्बर प्रादि गांवों को स्पर्श करके उदयपुर वैसाख महीने पधारे । श्री संघ के अनेक धर्मकार्यों को पूरा किये जाने से वि. स. 1934 का चातुर्मास भी उदयपुर में ही सम्पन्न किया। ____चातुर्मास की शुरुआत मे ही श्री वर्धमानतप की अोलो की आराधना कराई । पर्वाधिराज की आराधना के प्रसंग में चौसठ प्रहरी पौषध की प्रेरणा करके अनेक पुण्यवानों को पोषध के साथ पर्वाधिराज की आराधना कराई । पर्युषण के बाद नगर यात्रा का आयोजन कर समस्त जिनालयों में श्रावकों ने स्वयं के हाथों से कचरा निकाल कर प्रभुजी की अष्टप्रकारी पूजा का सामुदायिक कार्यक्रम संयोजित कर पूज्य श्री ने श्री संघ में अपूर्व धर्मोत्साह प्रकट किया। चातुर्मास पूरा होने पर भीलवाड़ा की तरफ विहार कर अनेक गांवों में धर्म की आराधना के विशिष्ट वातावरण को तैयार कर फाल्गुन चातुर्मास पर लगभग पुनः उदयपुर पधारे । कानोड़ के श्री संघ में भींडर वाले यति जो को रूआब भरी सत्ता के कारण स्थानकवासी तथा तेरापंथियों ने देरासर में लागत इत्यादि देना बंद करने से उत्पन्न विक्षेत्र को दूर करने के लिए उदयपुर श्री संघ के अग्रगण्य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार पांच व्यक्तियों को लेकर भीण्डर के यति जी से सम्पर्क साधकर कानोड़ में सर्वसाधारण में व्याख्यान देने से संवेगी साधुओं की विद्वता तथा चरित्र शुद्धि का वातावरण खड़ा करके विपक्षियों, स्थानकवासियों तेरापंथियों को भी आकर्षित किया। व्याख्यान में तात्विक तथ्यों की सूक्ष्मताभरी विचारणा से स्थानकवासी, तेरापंथी भो हिंसा के प्रश्न पर तात्विक रीति से चर्चा विचारणा करके सत्य प्रकाश को प्राप्त कर सके । परिणामस्वरुप पूज्य श्री के आदेश वाक्यता फलने लगी जिससे देरासर सम्बन्धी सामाजिक प्रसंगों के लागा इत्यादि देने को चली आ रही प्रथा को चालू रखने का सयानापन विपक्षियों में भी स्वतः उपज गया। इस प्रकार पूज्य श्री ने अपनी प्रौढ़ प्रतिभा तथा तात्विक देशना के लिए मेवाड़ जैसे संवेगी साधुओं के सम्पर्क मुक्त क्षेत्र में भी अडक तरीके से तत्व भूमि संपादन के रूप में जिन शासन का विजय डंका बजाया । कानोड़ श्री संघ के आग्रह से चैत्री प्रौली की आराधना बड़े ठाठ से की। बाद में आसपास विचरण कर चातुर्मास के लिए अधिक लाभ की संभावना से उदयपुर में सं. 1935 का चातुर्मास किया। चातुर्मास में श्री धर्म रत्न प्रकरण तथा पडव चरित्र का वाचन हुआ इसमें पर्वाधिराज के मा। घर के दिन ८७ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वाधिराज की सफल आराधना के लिए पांच कर्तव्यों में से एक "अमारीप्रर्वतन" नाम से प्रथम कर्तव्य को समझाने जगद्वगुरु पू. आ.श्री हीरसूरीश्वर जो म. के दृष्टान्त से तथा श्री शांति चन्द्रवाचक के प्रसगों से इस मंगल दिनों में संसारो हिंसा की प्रवृतियों को बंद करने कराने पर बल दिया । तर्कबद्ध तरीके से जीवों को धर्म कार्य प्रसगों में अभयदान देने के महत्वपूर्ण बात को समझाया। परिणाम स्वरुप “सांप गया घसीटन रह गयी" की बात की तरह पर्युषण पर्व के प्रारम्भ में दो चार दिन पहले प्राचीन परिपाटी के अनुसार राज्य की तरफ से घोषणा, डांडी पोटने के रूप में होती है । "दो दिन के बाद श्रावकों के पर्युषण प्रारम्म होते हैं इससे धांची धाणी बंद रखेंगे, मछली मार जाल नहीं फेंकेगे, जीवों को कोई कतल नहीं करेगा आदि परन्तु काल चक्र परिर्वतन से लोगों की भावना घिस जाने से धांची, मच्छीमार आदि इस सम्बन्ध में पूर्णरूप से पालना नहीं करते थे। अतः पूज्य श्री ने एक सामुदायिक बड़ी टीम "जीक मुक्ति" की कराई जिसमें धांची, मच्छीमार, कसाई को रुपया देकर पर्युषण पर्व के पवित्र दिनों में हिंसा न हो ऐसा व्यावहारिक उपाय निकाला। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो आज तक महाराणा का राज्य रहा तब तक बराबर प्रत्येक पर्युषण पर सैंकड़ों हजारों जीव से इससे मुक्त होते थे। ऐसा महत्व का कार्य चातुर्मास में हुआ। इसके अतिरिक्त दूसरा महत्व का काम यह हुआ कि आसोज मास की शाश्वत अोली जी की आराधना शाह मनरुप जी चौहान तरफ से अष्टान्हिका महोत्सव के साथ धूमधाम से हुई जिसमें शाह केशरीचंद जी मेहता को तरफ से ओली वालों का पारणा हुआ। इस अोली जी के बीच में प्राकृतिक भावी संकेत के अनुसार अनिच्छनोय घटना यह बनी कि संवेगो शाखा में वर्तमान में समस्त साधुओं के सर्वोपरि पू. पं श्री मणिविजय जो म. “दादा" का स्वर्गवास पासोज सु. 8 प्रातः अहमदाबाद में हो गया जिसका समाचार पूज्य श्री को उदयपुर में सु. 10 प्रातः व्याख्यान के समय मिला। चालू व्याख्यान में पूज्य श्री खूब ही गंभीर उदास बन गये । “वर्तमान समय में श्रमण संख्या को संवेगो परम्परा अभी जूझने को स्थिति में है। ऐसे समय में उत्कृष्ट संयमागीतार्थ-विद्वान महापुरुषों का स्वर्गवास होना निश्चय ही हमारे लिए दुर्भाग्यसूचक है । फिरभी भावी के चक्र को कौन रोक सका" यो विचार करसम्पूर्ण श्री सध के साथ देव वंदन करके पूज्य श्री का परिचय थोड़े में बतलाकर हमारे भी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोपकारी महात्मा पुरुष थे, आदि बताया । पूज्य श्री के आसोज विद में सम्बोधन से उत्साहित संघ की तरफ से तपागच्छ के प्रभावक श्री मणि विजय दादा के स्वर्गवास के निमित्त शान्ति स्नात्र के साथ प्रष्टान्हिका महोत्सव करने का निश्चय किया । पूज्य श्री ने ओली जी की आराधना में एकत्रित पुण्यवानों को विविध प्रेरणा प्रदान कर प्रभुभक्ति स्वयं निज हाथ से करने से अनंत लाभ होगा ऐसे समझाय कर नगर के अन्य देरासर के पुजारियों के भरोसे भगवान की होने वाली ( श्राशातमा) टालने के लिये ध्यान प्राकर्षित किया । अनेक पुण्यात्मानों ने देरासर का कचरा निकालने से लेकर प्रभु भक्ति के समस्त कार्य खुद के हाथ से करने की प्र ेरणा ली। श्री संघ की तरफ से पू. श्री मणिविजयजी म. "दादा" के स्वर्गवास के निमित्त होने वाले अट्ठाई महोत्सव में भी प्रभु भक्ति के महत्व के साथ श्रावक के कर्तव्य के रुप श्रीवताराग-प्रभु को अष्टप्रकारो पूजा इत्यादि स्वहस्ते स्व- द्रव्य करने की बात पर खूब विश्लेषण युक्त प्रकाश फैलाया । महोत्सव के दरम्यान अनेक भाविक पुण्यात्मानों द्वारा शहर के कोने कोने दुरदराज में खुद के हाथ से पूजा करने कराने की प्र ेरणा दी। अनुपयोग के कारण होती हुई बहुत आशातनाओं को दूर कराया । ६० Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास के बाद अदबदजी देलवाड़ा की स्पर्शना कर राजनगर-दयालशाह का किला, करेडा तीर्थ आदि की स्प ना करने की भावना थी परन्तु सेठ मंगलचंद जी सिंधी को अपने माता पिता के श्रेयार्थ जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव करने की भावना होने से देलवाड़ा जाकर विनती की। पौ. शु. 5 के मंगलवार प्रातः पूज्य श्री को उदयपुर पुनः बुलाया। पूज्य श्री के निश्रा में सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ प्रभु के देहरासर में आठ दिनों का श्री जितेन्द्र भक्ति महोत्सव हुया । धर्म प्रेमी जनता ने उत्सव को अवधि में व्याख्यान तथा पूजा इत्यादि में उत्तम लाभ उठाया। इस समय पूज्य श्री की प्रेरणा से यहां श्री सघ में ये धार्मिक कार्य हुणसागर शाखा के अनेक मुनि भगवंत के सहयोग-उपदेश-प्रेरणा से उदयपुर में अनेक धार्मिक स्थानों का निर्माण हुआ। यह बात सागर शाखा के उन मुनियों के जीवन प्रसंगों से स्पष्ट समझ में आती है। __ उसमें एक बात का उल्लेख आ गया है कि वि. सं. 1815 लगभग श्री सागर शाखा के आठवें पट्टधर पू. मुनि श्री सुज्ञान सागर जी म. श्री ने प्राचीन आगमों पुस्तकों इत्यादि का संग्रह करके श्रुत ज्ञान की भक्ति के प्रतीकरुप ज्ञान भण्डार की स्थापना की। उदयपुर श्री संघ के हाथों उस ज्ञान भण्डार को रख कर सागर शाखा के विशिष्ट Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावक पू. मुनि श्री भाव सागर जी मा. पू. मुनि श्री नाण सागर जी म. पू. निधान सागर जी ने उस ज्ञान भण्डार में विवध प्राचीन हस्तलिखित ग्रागम ग्रांथों इत्यादि श्रुत ज्ञान के अनमोल ग्रन्थ अनेक स्थानों से एकत्रित करके सुसद्ध तथा मुoयवस्थित रुप में स्थापित किया । अन्तिम रूप में वि. सं. 1914 चातुर्मास में पू मुनि श्री निधान सागर जी म. श्री ने उदयपुर श्री संघ के धर्मनिष्ठ अग्रगण्य श्रावक शाह किशन चंद जी चपलोत आदि को बुलाकर ( भलामण ) सौंपी - "हमारे साधू लोग गुजरात की तरफ है वे इधर पधारे ऐसा भी नहीं लगता । मेरा शरीर अब थका है | अतः आप लोग हमारी परम्परा के साधु भगवन्तों ने ये जिन मन्दिर उपाश्रय एवम् ज्ञान भण्डार आदि जो धर्म स्थान बनवाये है, इन सबकी देखभाल धार्मिक दृष्टि एवं आत्म कल्याण बुद्धि से करते रहे । हमारी सागर परम्परा के योग्य अधिकारो साधु भविष्य में इधर पधारे तो उनकी देखरेख में नहीं तो जो भो सुविदित - गीतार्थ साधु भगवंत पधारे उनकी देखरेख में किसी तरह इन धर्म स्थानों की प्रशातना न हो इस तरह देखभाल करते रहना । इसमें प्रमादशील न बनना आदि इस ज्ञान भण्डार की देख रेख श्री किशन चन्द्र जी चपलोत इत्यादि श्री संघ के अग्रगण्य श्रावक रखते थे । सागर शाखा के या अन्य शाखा के कोई प्रभावशाली या ६२ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सामान्य संवेगी साधुओं के विहार अपनी सूझबूझ के प्रमाण से ज्ञान भण्डार की साज सम्हाल करते रहते थे । इसमें पू. श्री झवेर सागर जी म. के प्रौढ़ पुण्य प्रभाव प्रागमानुसारी शुद्ध देशना, निर्मलचरित्र तथा चातुर्मास की अनोखा धर्म जागृति श्रादि से श्री संघ के प्रमुखों को लगा कि सं. 1914 में पू श्री निधान सागरजीम. कहने के प्रमाण से गुजरात तरफ के सागर शाखा के विशिष्ट प्रभावक इन मुनिश्रेष्ठों का लाभ हमें मिला है तो इन पूज्य श्री को अपना ज्ञान भण्डार बताकर उसकी रक्षा वृद्धि के लिए आवश्यक मार्ग-दर्शन प्राप्त करें । ऐसा विचार कर श्री संघ के अग्रगण्य श्री किशनचद जी चपलोत आदि श्रावकों ने ज्ञान भण्डार पूज्य श्री को दिखाने के लिए माघ सु. 8 के व्याख्यान में विनती की। दोपहर के समय पूज्य श्री अपने पूर्व के गुरुग्रों के श्रुत ज्ञान को सुरक्षा के शुभ उद्देश्य से स्थापित ज्ञान भण्डार का भावपूर्वक निरीक्षरण किया । श्रावकों की अपनी सोमित मर्यादाओं के कारण ज्ञान के संरक्षण में खूब त्रुटियाँ जान में आई। उन्हे पूज्य श्रो - ढाई माह का समय देकर अधिकारी श्रावकों की सहायता से सम्पूर्ण ज्ञान भण्डार अथ से इति तक गांठों में बंधे, गोलाकार बंधे लपेटे हुए डिब्बों में, अलमारियों में रखे हुए की आद्योपीत सफाई कराई । पुराने पड़े हुए सड़ े हुए आदि को निकाल फेंके तथा नये रुप में उनको बस्तों में बांध कर लपेट ६३ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर डिब्बों, में अल्मारियों आदि में रखकर सम्पूर्ण ज्ञान भण्डार सुन्दर व्यवस्थित सूचि सहित बनाया । अनेक नवीन उपयोगो प्रतियाँ लेखकों के पास से लिखवाकर एकत्रित किये तथा अनेक प्राचीन ग्रंथों का संग्रह करके ज्ञान भण्डार को अधिक समृद्ध बनाने के लिए पूज्य श्री ने संघ का ध्यान आकर्षित किया। चैत्र माह की शाश्वती अोली जी के दिनों में सामुदायिक श्री नवपदजी का आराधना के लिए पूज्य श्री द्वारा व्याख्यान में खूब प्रेरणा करने से अनेक प्राराधकों का विधि के साथ श्री नवपद की आराधना के लिए विचार हुआ । इस प्रसंग में शा हेम चंद जी नलवाया की तरफ से श्री गोड़ी जी महाराज के दहेरे अष्टान्हिका महोत्सव भी खूब ठाठ से शासन प्रभावना के साथ हुआ। जिससे श्री नवपद जी के चाहकों का बहुत उल्लास बढ़ा। उसके बाद वैशाख-ज्येष्ठ दो महिने आसपास के प्रदेशों में घूमने की भावना थी, लेकिन नागोर, पोकरण, जोधपुर से बुलाये गये लेखकों के पास उनके हाथ से बनाये गए काश्मीरी पत्र पर पुराना अप्राप्य प्राचीन ग्रंथों चरित्रों इत्यादि लिखने की प्रवृति जोरदार चली । ऐसी-ऐसी बहुत सी प्रवृतियों के कारण पूज्य श्री ने उदयपुर स्थिरना की । अंत में चातुर्मास Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नजदीक आने से लाभालाभ सोचकर सं. 1936का चातुर्माश, श्री संघ के दूसरे अनेक धर्म-कार्यों की सुव्यवस्था के लिए श्री संघ के आग्रह से किया। पूज्यश्री के वेदस्मृति गीता-महाभारत के उदाहरण देकर जैनों के तीर्थंकरों वेद की ऋचा-मन्त्रों से भरे हुए है और ईश्वर को मान्ता के लिए छालो पानी हुई धारणाएं कितनी भ्रामक तथा खोखली है। सबके सामने उसकी चर्चा शुरू कर दी। श्री दयानंदजी ने मूर्तिपूजा पर से खिसक पायें । विश्वास के आधार पर कैसे अप्रमाणिक तर्को का सहारा लेकर यथावेदों को ऋचाओं अर्थों को तोड़मरोड़ अपनी बात एकांगी रूप से प्रचारित किया है। इसकी भी खूब छानबीन की। सनातनी व्यक्ति पूज्य श्री के इस विवेचन से आकर्षित हो कर आर्य समाज तो वैदिकपरंपरागों के कट्टर विरोध करते है । अनादिकाल से चली आ रही मूर्तिपूजा पर बहुत बड़ा कुठाराघात किया है। अपनी मान्यताओं के जैन साधुओं द्वारा जबरदस्त सहारा मिलने की बात जानकर सनातनी विद्वानों, अग्रगण्यों गृहस्थों ने पूज्य श्री को खूब प्रेम अादर से याद किया तथा "दुश्मनों का दुश्मन वह अपना मित्र" इस सूक्ति के आधार पर सम्पूर्ण उदयपुर शहर में सनातनियों के प्रबल सहकार से पूज्य श्री ने आर्य समाज की मान्यताओं कों सचोट दलीलों से खंडन करना प्रारम्भ किया उसकी अत्यधिक Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावशाली छाया समस्त उदयपुर में व्यापक रुप से प्रसा - रित हुई । प्रार्य समाजियों ने गंगेश्वरानंद जी नाम के अपने एक विद्वान सन्यासो को बाहर से बुलाकर शास्त्रार्थ को योजना बनाई । पूज्य श्री ने सनातनियों के वेद पारंगत अनेक धुरंधर पंडितों का सहकार पाकर वेद उपनिषद प्रादि के आधार पर आर्य समाज की मान्यताओं की असारता को प्रकट किया । इसमें प्रसंग-प्रसंग में जैन धर्म के सिद्धान्तों तत्वों तथा मान्यताओं की बेसमझी से विकृत रुप से श्री दयानन्द स्वामी कैसी मिश्रित बातें प्रकट की हैं । उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश तथां शास्त्र प्रमाणों से शैली से जताकर सर्व साधारण जनता के आर्य समाजियों की खोखली प्रचार नीति की कठिन पाश में से बचाकर जैन धर्मं का जय जयकार बरताया । पर्वोंधिराज की सुन्दर उल्लासभरी आराधना हुई । श्री कल्पसूत्र जो के वाचन के लिए उमगपूर्वक गजराज पर श्री कल्पसूत्र को पवराकर रथयात्रा, रात्रि जागरण इत्यादि कार्यक्रम के साथ अलौकिक धर्मोल्लास जैन श्री संघ में पवर्तित हुआ । भाद्रपद सु 1 जन्म वाचन के अधिक प्रसंग में पूजा श्रा की प्र ेरणा से सुन्दर चादी जड़ित कलात्मक चौदह स्वप्न उतरने की पुरातन पद्धति के धर्म प्रेमी जनता ने उल्लास से अपनाकर हजारों का चढ़ावा बोलकर हार्दिक भक्ति अनुराग प्रदर्शित किया । ६ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन पर्वाधिराज के दिनों में ही यथोत्तर बढ़ती कला की ध्यान प्रवृति के परिणामस्वरुप सेठ श्री इन्द्र चंदजी तातेड़ की विधवा पत्नि श्रीमती छोगा बाई ने श्री नवपद अोली की विधिपूर्वक आराधना की उजमरणा के संदर्भ में अष्टान्हिका महोत्सव के लिये श्री संघ के पास से स्वीकृति मांगी। श्री संघ ने भो धर्म कार्य को चढ़तो भावना के अनुरुप बहुत सम्मानपूर्वक इस सम्बन्ध में स्वीकृति प्रदान की। सुश्राविका छोगाबाई ने पूज्य श्री की प्रेरणा प्राप्त कर पांच भारी तथा चार सादा इस प्रकार नो छोड़ का उजमणा उस सम्बन्धी ज्ञान-दर्शन चरित्र के विविध उपकरणों को यथायोग्य नो नो की संख्या में लाकर श्री गोड़ी जी महाराज के देरासर के पास उपासरा में रचनात्मक रूप में भव्यता से उजमणा संयोजित करके श्री नवपद जी की अोली की आराधना करने वालों को "उत्तर पारणा" कराकर के अपने स्वयं के व्यय से प्रांबिल की अोली कराई । इस बीच में श्री वीतराग प्रभु के गुणगान के साथ श्री जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव खूब ठाठ से सम्पन्न कराया। इस प्रसंग में पत्रिका द्वारा पास गस के श्री संघों को भी श्री नवपदाराधना के लिए तथा महोत्सव में आने के लिए आमंत्रण दिये । पीछे के दिनों में आसपास के सैंकड़ों धर्मप्रेमो भावुकों ने आकर पूज्य श्री के व्याख्यान को Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनकर उजमणा के दर्शन कर प्रभु भक्ति का लाभ लिया । पूज्य श्री की देखरेख में जोधपुर, नागौर, पोकरण इत्यादि के जो लेखक काम करते थे उनके पास लिखवाकर तैयार की गई अनेक प्रतियों को इस उजमणे की अवधि में सेठाणी छोगाबाई ने पधराने का लाभ लिया। इसके उपरान्त आगम को लिखवाने के सम्बन्ध में अपनी भावना व्यक्त की। अोली जी के बाद पूज्य श्री ने गृहस्थों का ध्यान खींचकर सोना, चांदी तथा जवाहरात से भी अधिक मूल्यवान श्रुतज्ञान के धन को सुरक्षा के लिए, दीमक आदि जीव नष्ट न करें ऐसे सुन्दर सागवान के पट्टियों के डिब्बे बनवांकर लाल रंग से रंगवाकर सुन्दर बंधन वाले वस्त्रों में लपेट कर ज्ञान-भंडार को अधिक सुरक्षित बनाने के लिए कठोर परिश्रम उठाया। इस प्रकार अनेकानेक धर्मकार्यों में चातुर्मास सम्पूर्ण हुआ। इसके तत्काल पश्चात विहार को भावना होने पर भी श्रीगोड़ो जो देरासर का वि.सं.1936 वैसाख से प्रारंभ किया जीर्णोद्धार के काम की शिथिलता दूर करने, इसी प्रकार ज्ञान-भंडार को सुसमृद्ध बनाने के लिए अनेकों लेखकों को रोककर प्राचीन श्रुत-ग्रन्थों की प्रतियों को सुरक्षित करने हेतु नये सिरे से लिखवाने की प्रवृति के देख-रेख के अभाव में मंद होने की संभावना से पूज्य श्री ने उस कार्य को स्थिरता Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदान को । परिणामस्वरुप प्रारंभ हुए श्री गोडी जी महाराज के देरासर के जीर्णोद्धार के कार्य को पूरा कराकर उदयपुर की ख्याति प्राप्त कांच जुडने को कला तथा सुन्दर पक्के रग की चित्रकला से गोड़ी जी का देरासर सुन्दर एवं दर्शनीय बनवाया तथा सागर शाखा के मुनिराजों के उपदेश से स्थापित प्राचीन ज्ञान भंडार के मकान की भी आवश्यक परिवर्तन दुरस्ती कराकर ज्ञान समृद्ध संग्रह को सुरक्षित कराया । लेखकों को बिठाकर प्राचीन प्रतों को नये सिरे से लिखवाकर ज्ञान-भंडार की समृद्धि में वर्धन किया। इसके उपरान्त माघ सु. 10 के दिन सहस्त्रफणा श्री पार्श्वनाथ प्रभु के जिनालय के रंग मंडप में दोनों तरफ तीन तीन प्रतिमा जी का महोत्सव कराया। इस प्रसंग में पुण्यवान श्रावकों ने भावोल्लास से श्री गोड़ी जो तथा सहस्त्रफणा जी श्री पार्श्ववनाथ प्रभु के मुकुट कुण्डल इत्यादि स्वर्णाभूषण बनाकर प्रभुजी को अर्पित किया। फाल्गुन चौमासे के प्रसंग में होली-धुलेण्डी के नाम से मिथ्यातत्वियों द्वारा प्रगाढ पाप के आचरण को कराने के तरीके व रिवाज छोड़ने के जोरदार उपदेश दिये । अनेक भाई बहिनों को लौकिक मिथ्यातत्व के फंदे से बचाया । इसके अतिरिक्त शाश्वत नवपद आराधना की चैत्री अोली के प्रसंग में विशेष प्रेरणा करके श्री नवपद जी की आराधना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने वालों को व्यवस्थित सुविधा मिलती रहे इस शुभ रूप से चैत्री-आसोज माह की अोली कराने का श्री संघ द्वारा आशय से सतत प्रस्ताव निश्चित किया। आज भी अोली आराधना सामुहिक रूप में उत्तम प्रकार से चालू है ही। इसके उपरन्त अब तो स्थायी रूप से वर्धमान तप आयंबील शाला स्थापित हो गया है जिसमें बारहों महीने अांबोल तप को सुन्दर व्यवस्था श्री सघ को तरफ से सम्पन्न होतो है । चैत्रो अोली पूरी होने के बाद पूज्य श्री भीलवाड़ा तरफ विहार की भावना से चैत्र विद में तैयारी करने लगे तब उदयपुर श्री संघ के प्रमुखों ने प्राकार विनती की कि “साहेब ! गत चातुर्मास में आर्य समाजियों ने जो खलबली मचाई थी, उनके पं गंगेश्वरानद जो आपकी विद्वता के सामने चुप बन गये थे। तर्कों की बौछार वे बरदाश्त नहीं कर सके थे। परन्तु "हारा जुआरी दूना खेले" कहावत के अनुसार उन लोगों ने बड़ी भारी तैयारी कर ली। देहली से धुरंधर विद्वान शास्त्रार्थ महारथी स्वामी सत्यानन्द जी को आग्रहपूर्वक बुलवाने का तय किया है । ऐसी स्थिति में आप यहां पधार जायें तो "धणी बिना खेत सूना कहावत को ज्यों वहां मिथ्यात्व का घोर अधेरा छा जाय ! अतः कृपा करो महा. राज । आपकों यह आगामी चौमासा यहां ही करना पड़ेगा। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभी चौमासे में भले ही देर हो। किन्तु न जाने यह बवंडर कब उठे ? और बखेड़ा फैला दे । आप अभी विहार का नाम हो न लो !!! पूज्य श्री ने कहा कि, "महानुभाव ! बात आप लोगों की ठीक है किंतु एक ही गांव में बराबर चातुमसि करना उचित नहीं, आप लोग यह तो समाचार लावें कि देहली वाले पंडित जो अभी आ रहे हैं या चौमासे में ? अभी आते हों तो वैसाख-जेठ में आठ-दस दिन में फैसला हो जाय और मैं भी भीलवाड़ा तरफ जा सकू।। श्रावकों ने कहा कि- बावजी सा! ये पक्के समाचार तो नहीं मिले हैं, ये समाचार भो खानगी रूप में हमको मिल गये तो हम आपके पास आये हैं । अचानक हमला करने की फिराक में हैं, तो क्या ठिकाना कि कब ये लोग अपने शासन पर आक्रमण कर बैठें। आप तो शास्त्रों के मर्मज्ञ हैं! दुश्मन सिर पर झूम रहा है ! न जाने कब आक्रमण कर दे ? अतः कृपया आप शासन के लाभार्थ विहार का विचार छोड़ दें। पूज्य श्री ने कहा कि, 'जैसी क्षेत्र स्पर्शना" यो कहकर विहार स्थगित रखा । जेठ विद लगभग में खूब धूमधाम से आर्य समाजियों ने दिल्ली के पंडितजी का नगर प्रवेश कराकर राजमहल के चौक में भव्य मंडप बांधकर पंडित जी का प्रवचन प्रारम्भ करवाया। १०१ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित जी ने भी भांति-भांति के चित्र-विचित्र तर्कों से मूर्तिपूजा को असारना तथा सनातनधर्मियों को कितनी ही मान्यताओं को खोखलेपने को प्रतिपादित किया। उदयपुर की धार्मिक प्रजा में जोरदार खलबलाहट मचा दा। जन श्री संघ के प्रागेवानों का सम्पर्क सावकर सनातनियों ने पू श्री झवेर सागर म. को विनती की __ "केवल बुद्धि के बतंगड़रूप अनेक कुतर्को से भरपूर शब्दाडंबर वाले इन व्याख्यानों से मुग्ध जनता भ्रमित सो हो उठी है । आप तो वादकला के अठंग निष्णात है । रतलाम में आपने अपनी जो प्रतिभा दिखाई थी उसके भरोसे हम आपके पास आये हैं" प्रादि । पूज्य श्री ने कहा कि, “महानुभाव ! आप लोगों का कथन यथार्थ है । यह कलियुग की महिमा है कि वाद-दिवाद के जंजाल में सत्य को छिपाया जाता है ! भैया इस तरह कूट तर्कों के सहारे कभी असलियत को छिपाई नहीं जा सकती। फिर भी आप लोगों का हार्दिक प्रेम का महत्व समझकर मैं अपनी पूरी शक्तियों को इस बवंडर को हटाने हेतु लगाने को तैयार हूं। यों कहकर खुले व्याख्यानों, प्रश्नोत्तरों, चर्चा, सभा इत्यादि के माध्यम से आर्य समाजी साहित्य के खोखलेपन उनके कूट तर्को,प्रतीत होते घटाटोप के पीछे रहने वाली निर्बलता आदि आम जनता के सामने रखने हेतु क्रमबद्ध योजना १०२ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 बनाई । जिसे सुनकर सनातनी अग्रगण्यों को खूब प्रसन्नता हुई। इसके बाद जैन श्री संघ के प्रमुख व्यक्तियों के साथ विचार-विमर्श करके उदयपुर शहर की समस्त धार्मिक प्रजा के नाम पर छटावाद शैली में वृहदाकार पत्रिका प्रकाशित की । स्वामी दयानंद जी के क्रांति के नाम से स्वच्छन्दवाद की उत्तेजक तथा एकांगी शास्त्रीय परम्परा के साथ बिना मेल के विचारों के सामने जबरदस्त उहापोह मच गया तथा पूज्य श्री झवेर सागर जी म. को सर्वसारण के सामने बिठाकर उनकी प्रौढ़ विद्वता भरी तथा अकाट्य क्रमबद्ध तर्कों की परम्परा के बल पर थोड़े दिनों में प्रार्यं समाजियों को अपनी बात प्रकट करना भारी कर दिया । परिरणामस्वरुप कुछ चिड़े हुए आर्य समाजिकों ने चैलेन्ज कर शास्त्रार्थ का खुली सभा में आह्वान किया जिसे पूज्य श्री ने शहर की धार्मिक प्रजा समूह में खुले रूप में स्वीकार कर तथा स्थान का निर्णय करने लिए अग्रगण्य नागरिकों को प्रेरणा दी । राजमहल के आगे के खुले चौक में सनातनियों ने व्यवस्थित विचार कर उसके अनुसार श्रावण विद 3 के मंगल प्रभात में स्वामी जी श्री दयानन्दजी तथा उत्तम धुरंघर कर्मकाण्डी वेदपाठी ब्राह्मणों द्वारा घिरे पू. श्री झवेर सागर जी म. की विचार सभा प्रारम्भ हुई । १०३ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीच में जैन श्री संघ के दो, सनातनियों के सात तथा आर्यं समाजियों के छः पंडित मिलकर पन्द्रह पंडित मध्यस्थल में बैठे दोनों तरफ की बातों को लिख रहे थे, तर्कों का बराबर स्पष्ट है या नहीं आदि लिख लेने के साथ ही बाद में से वितंडावाद न हो सके ऐसी सावधानी भी अंकित करते । प्रारम्भ पू श्री झवेर सागर जी म. श्री ने संसार में धर्म दर्शन तथा उसकी भेद रेखा जताने के साथ ही समस्त भारतीय दर्शन के तत्वदर्शन की भूमिकायें एक हैं । यह बात सचोट रूप से दर्शायी । " सनातनियों की मान्यता के आधारभूत वेदों-उपनिषदों के आधार पर मूर्ति पूजा यथार्थ है" इस बात का प्रतिपादन किया । ہے۔ पश्चात् आर्य समाजी- स्वामीजी ने उनके स्पष्टता में भारतीय दर्शन अलग - अलग मतिकल्पना रूप है " सनातनियों में भी वेद की मान्यता है फिर भी उन पर पूर्ण श्रद्धा के साथ वैदिक विद्वान टिक नहीं सके" आदि जतलाकर मूर्तिपूजा की असारता के सम्बन्ध में तर्क प्रकट किये । पू. श्री झवेर सागर जी ने प्रत्येक विचारणीय बिन्दु से वेद-उपनिषद श्रुति स्मृति तथा व्यावहारिक तर्कों के आधार पर सचोट स्पष्टीकरण किये। इस प्रकार प्रथम दिवस दो घंटे चर्चा चलो । इस तरह तीन दिन चर्चा चलने पश्चात श्रार्य समाजी स्वामी जी इस चर्चा - विचारणा की तटस्थ १०४ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीति को छोड़कर अपने मूल ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के आधार पर वैदिक धर्म तथा जैन धर्म पर उग्र भाषा में आक्षेप किया। इसलिए पूज्य श्री ने भी बढ़े हुए रोग के प्रतिकार के लिए उग्र औषध के उपयोग की नीति के अनुसार कठोर भाषा में स्वामी दयानन्द जी की मौलिक विचार सूची में पाई अपूर्णता का खुले चौक में वर्णन किया । सत्यार्थ प्रकाश के छोटे छोटे सूत्र परस्पर विरोधी कैसे हैं तथा वेद उपनिषद आदि से कैसे विरुद्ध है ? आदि शास्त्र प्रमाण उल्लेख कर प्रकट किये । साथ ही साथ जैन तत्व ज्ञान की परिभाषा का प्राथमिक अभ्यास भी स्वामी दयानन्द जी को नहीं था। ऐसा जैन धर्म के खण्डन में बतलाये गये तथ्यों से जो धर्म के ग्रन्थों से कितने विपरीत है, सिद्ध होता है । स्वामी दयानन्द जी को जैन धर्म का पूर्णतः ज्ञान नहीं था । यह बात भी सचोट रूप से सर्व साधारण में घोषित की। जिसके उत्तर में आने वाले कल दिये जाने को कह वह सन्यासी जी अपने स्थान पर गये । दूसरे दिन सन्यासी का स्वास्थ्य नरम हुआ ऐसा प्रार्य समाजियों ने जाहिर किया तथा थोड़े दिन के लिए स्वामी जी हवा बदलने बाहर गांव जाने की घोषणा की जिसके कारण वाद-विवाद अधूरा रह गया। लेकिन समझदार विवेकी जनता ने सत्य की परीक्षा १०५ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर ली । " पूज्य श्री द्वारा दिये गये स्पष्टीकरण का उत्तर आर्य समाजी स्वामी दे न सके" तथा तबियत खराब का बहाना गढ़कर उदयपुर छोड़ गये । यह बात जतलाती है कि वास्तव में सत्यतत्व को स्वीकारने का नैतिक साहस उनमें नहीं था । केवल खुद की मुग्ध - जनता के सामने अधकचरे तर्कों से प्रसारित करने की वाकपटुता तथा शब्द- पंडिताई मात्र ही है । इस प्रकार पूज्यश्री का वि.सं. 1936 का उदयपुर का चातुर्मास उदयपुरके वयोवृद्ध बुजुर्ग पुरुष स्मारक रूप में याद करते हैं। अधिक रूप में यह कहते हैं-"यदि आर्यसमाजियों का जबड़ा तोड़ जवाब देने वाले पूज्यश्री झवेर सागर जो म. उस समय यहां नहीं होते तो आधा उदयपुर आर्य समाज की चंगुल में फंस जाता। इस प्रकार चातुर्मास के प्रारम्भ में हो शासन का जयजयकार बताने वाली इस घटना के होने से पूज्य श्री की अगाध विद्वता तथा अनेक शास्त्रों की भिज्ञता उदयपुर को आम जनता को होने से चातुर्मास की अवधि में पूज्य श्री के सम्पर्क का उत्तम लाभ जैनेतर प्रजा ने लिया । पू. म. श्री की मंगल प्रेरणा से विविध तपस्याओं की आराधना के साथ प्रभुशासन की महत्वपूर्ण संयुक्ति अनेक भाविक पुण्यात्मानों प्राप्त हुई। इस प्रकार यह चातुर्मास पूज्य श्री के श्री संघ को अत्यधिक भावोल्लास बढ़ाने १०६ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला हुप्रा । पूज्य श्री ने चातुर्मास पूर्णं होते ही उदयपुर श्री संघ का बहुत आग्रह होने पर भी का. वि. 10 विहार करके " श्रायड़" * श्री उदयपुर के महाराणा की प्राचीन राजधानी (1) श्री श्रद्धबुद जी (2) देलवाड़ा (3) दयालशाह का किला (4), राजनगर, श्री करेड़ा तीर्थ (5) * (1) यह गांव वर्तमान उदयपुर से पूर्व दिशा में 3 मील पर है । मेवाड़ के महाराणाओं की प्राचीन राजधानी रूप था: जहां वि. सं. 1285 में मेवाड़ के महाराणाओं ने जिस भूमि पर प्रभु महावीर महात्मा की 44 वीं पाट पर विराजमान पू. प्रा. श्री जगत चंद्र सूरीश्वर जी म. की वर्षो की आंबील आदि की कठिन तपस्या के कारण से 'तपाविरूध ' जैसा गुण ख्याति प्रदान की तथा दिगम्बरों के साथ वाद में हीरे के समान अभेद्य सिद्ध हुए जिससे भी प्रसन्न होकर महाराणा जी ने "हीरे " जैसा विरूध भेंट किया। जहां आजभी श्री संप्रतिम के काल के देरासर जिनबिंब इस भूमि की अतिप्राचीनता की साक्षी भर रहे हैं । (2) मेवाड़ की राजगद्दी के परमाराध्य श्री एकलिंगजी महादेव केराज्य-मान्य स्थान के पास ही उत्तर में है 14 माइल पर यह तीर्थ है | जहां श्री शान्तिनाथ प्रभु की 10 से 12 फीट की बैठी श्याम अतिसुन्दर प्रतिमा जी है । इस मंदिर के आसपास अनेक जैन मंदिरों के भग्नावशेष हैं । १०७ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) मेबाड़ की राज्य सत्ता के परमाराध्य श्री एकलिंग जी महादेव के तीर्थ के पास ही तीन से चार मील यह गांव हैं । विक्रम की आठवी सदी-सोहलबी सदी के मध्य भाग तक अपूर्वं ख्याति प्राप्त तथा धर्म प्रकाश से झिलमिलाता यह प्रदेश उस समय से अदबुध जी के देरासर से प्रारम्भ कर पूर्व दिशा की और केवल देरासर ही देरासर हैं । वृद्ध पुरुषों के कथानानुसार तीन सौ साठ झालर आरती के समय बजउठती थी । इस प्रकार 360 देरासरों के युथ वाले देव कुल पाटक के तरीके कहलाते प्राज के क्रम में "देलवाड़ा" देलवाड़ा हो गया है । आज भी इस इस स्थान पर प्रति भव्य बावन जिनालय बाले चार विशाल जिन मंदिर, गर्भग्रह तथा विशाल जिनबिबों के साथ शोभा प्राप्त कर रहे हैं । और भी इस पुण्य भूमि पर सहस्रावधानी सुरिपुरंदर पू. प्रा. श्री मुनि सुन्दर सूरि म. श्री "संतिकर" जैसे महाप्रभाविका स्तोत्र की 13 गाथाओं की भी संघ हितार्थ रचना की । 1 १०८ इसी प्रकार इस गांव के बाहर पूर्व तथा उत्तर भाग में ये दो छोटे पर्वत हैं, जो अभी तो वीरान हालत में हैं । पुरानी सीढ़ियां कहीं कही दिखती है, उन पर्वतों पर प्राचीन जिन मंदिरों का अवशेष, गर्भगृह आदि के खंडहर कितनी खंडित जिन मुर्तियां आदि अब भी है । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) मेवाड़ की राज्य गद्दी उदयपुर में आने के पश्चात प्रतापी तथा न्यायी के रूप में विख्यात महाराणा राजसिंह जो विक्रम की सत्रहरवीं सदी के उत्तरार्ध जनता के हित में कला समृद्ध अनेक तोरणो वाले मीलों के विस्तार में राजसमुद्र नाम से बहुत बड़ा तालाब बंधवाया जिसका व्यय उस समय एक करोड़ रुपया हुना। उस महाराणा के मंत्री श्री दयाल शाह वीतराग परमात्मा की भक्ति को जीवन का श्रेय करने वाली मानकर मेवाड़ महाराणा से कुछ बताकर एक पाई कम करोड़ रुपया की संपत्ति खर्च कर भव्य चौमुख जिनालय 10 से 11 माला का अति उत्कृष्ट कलाकारीगरी वाला निर्माण कराया । बादशाही काल में यह मंदिर बना फिर भी "दयालशाह का किला' नाम से अद्भुत चौमुख जिनालय राजसमुद्र जलाशय के किनारे भव्य तरीके से अलौकिक आध्यात्मिक प्रेरणा दे रहा है। (5) मांडव गढ़ के महामंत्री पेथड़शाह ने जिसका जीर्णोद्धार कराया ऐसा अतिप्राचीन श्री पार्श्वनाथ परमात्मा का यह तीर्थ धर्मप्रेमी जनता की भाव वृद्धि करे ऐसा मावली जंकशन से चित्तौड़ तरफ जाने वाली रेल्वे लाइन पर भूपाल सागर स्टेशन के पास आया है। १०६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा चित्तौड़गढ़ आदि प्राचीन तीर्थों की स्पर्शना कर, विहार के क्रम में आने वाले गांवों में संवेगी साधुनों के परिचय घट जाने से बाह्य आचार एक तरफी दलीलों से भरपूर मूर्तिपूजा की असारता का जोरदार प्रचार से बड़े बड़े देरासर गांव में होने पर भी दर्शन करने वाला कोई नही ऐसी स्थिति देखकर थोड़ी स्थिरता करके ग्रामीण जनता की धर्म भावना सतेज बने वैसी बालसुलभ शैली से जिन प्रतिमा की तारकता, श्रावकजीवन का कर्तव्य तथा प्रभु भक्ति आदि विषयों की सुन्दर विवेचना करके जनता में विशिष्ट धर्मप्रेम जताया । पूज्य श्री करेड़ा तीर्थ पर पौष दशमी की श्राराधना करके चित्तौड़ में गढ़ ऊपर के देरासरों की यात्रा करके पो. सु. 2 के मंगल दिन नीचे शहर में पधारे । बाजार में पूज्य श्री का वैराग्य भरा व्याख्यान हुआ । जैन, जैनेतर प्रजा पूज्य श्री की वाणी से आकर्षित होकर अधिक स्थिरता के लिए विनती करते रहे । उसी समय रतलाम के जैन श्री संघ के मुख्य श्रावक आठ से दस की संख्या में प्राये और विनती की कि " आपने रतलाम शहर में जो बीज बोया था, उसके मीठे फल विशिष्ठ धर्माराधना के रूप में कई लोग मजे से चख रहे थे, किंतु गतचातुर्मास में त्रिस्तुतिक संप्रदाय के मुनि ११० Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौभाग्य विजय जी ने वातावरण बिगाड़ दिया। उन्होंने पूरे चौमासे में जब भी मौका लगा तब तपागच्छ चारथुई वाले कोई साधु हो क्रिया पात्र अभी नहीं। किसी को शास्त्र ज्ञान नहीं । शिथिलताचारियों के नाम पर पूरे संवेगी परंपरा को दूपित करने का अनुचित प्रचार किया, यह सब तो ठीक है किन्तु जाते जाते किताब छापकर अपने भक्तों को दे गये हैं। जिस किताब में तीन थुई ही शास्त्रीय है। देव-देवियों की मान्यता शास्त्र विहीन नहों । यतियो के शिथिलाचार को आगे कर पूरी संवेगी परंपरा के अस्तित्व को ही उठाने का बालिश प्रयत्न किया है । कृपा कर आप रतलाम पधारो! आप तो बहुत दूर पधार गये । हमारे को तो आपका ही सहारा है।" पूज्य श्री ने परिस्थिति की गंभीरता समझी तत्क ल ताबड़तोड़ विहार कर पोष विद आठम लगभग रतलाम पधार गये। व्याख्यान में त्रिस्तुतिक-संप्रदाय को मान्यताओं के शास्त्र पढ़ने से अप्रमाणित सिद्ध किया। मुनि सौभाग्य विजय जी म. की हाल में छपी पुस्तक को अपूर्ण, भ्रामक-विकृत तथ्यों का पर्दाफाश किया तथा "हमारे आने की बात सुनकर तत्काल यहां से विहार कर गये । लगते हैं । यदि सत्य समझना है तो मैं तैयार हूं ? जाहिर में इस सम्बन्ध में १११ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रोपाठ का मनघडंत अर्थ कैसे किये । इस स्पष्ट समझाकर सारी पुस्तक खोटी सिद्ध की जा सकती है ।' इस सारी बात से खलबला उठे दृष्टि रागी त्रिस्तुतिक श्रावकों ने पूज्य श्री के सम्मुख अधकचरी रटी हुई दलीलों से बहुत सामना किया । बावेला भी बहुत निकाला फिर भी सत्य-वस्तु के प्रतिवादन का दृढ़रूप से पकड़े रहने वाले पूज्य श्री की प्रतिभा को धुंधली (झांखी) नहीं कर सके । अतः बोखलाये हुवे त्रिस्तुतिक श्रावकों ने मुनि श्री सौभाग्य विजय जी म. को पत्र लिख सम्पूर्ण ब्यौरा दिया जिसके जवाब में पूज्य श्री का निम्नानुसार पत्र आया"रतलाम नगरे सवेगी झवेर सागर जी जोगलि. सरवाडा से सौभाग्य विजे की वंदणा वचजो।" अपरंच रतलाम का सरावरकारों कागज आयो थो जीणी मधे श्रवकांय लोख्यों कि आप छपाई थो सेवा पोथी झवेर सागर जी कहते है कि "पोथी खोटी छपाई है और हमने आया सुण्या सो- आधी राते भागी ने चला गया। हमारा डर के मार्या ऐसी बात झवेर सागर जी लोगों ने ऐणी मुजब कहे हैं ऐसा समाचार सरावकाय हमोने लिख्यो छे, सो बात कोणी करे है ? और तुम हमारी छपाई पुस्तक खोटी कोणीतरे से बताई है । जिसका निर्णय उतार के हमारे कु. जल्दी से सिद्धान्त के प्रमारण से लिखो और कदाचित कागज में तुमारे से नहीं ११२ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा जावे तो पीछा कायज जल्दी से हमारा उपर लिखो। सो हम बांचते कागज जल्दी से रतलाम कू पावते हैं । सो पीछे हमारे से पेस्तर चर्चा करके पीछे पुस्तक खो तथा खोटी हमारे सामने पंडिता की सभा में आप करणा और हमारे से चर्चा किया बिगर पुस्तक खोटी छपाई ऐसा पेस्तर तुजारा मुख से कहेना नहि और इस कागद का जवाब पीछा तुरत लिख दीजो भूलसो नहीं। "संवत 1938 का माह सुद. 6" इस पत्र पर से स्पष्ट होता है कि "मुनि सौभाग्य विजय जी उनकी पुस्तक में कौन कौन सी भूलें हैं। उन्हें शास्त्रीय पाठ संहिता मांगा है । अगर आपका पत्र पाने से मैं स्वयमेव आमने सामने चर्चा करुंगा। पंडितों के समक्ष विचारणा के पश्चात ही प्रकट होगा कि पुस्तक सच्ची है या खोटो" आदि परन्तु इ तहास के पृष्ठों को पलटने से यों प्रतीत होता है कि पूज्य श्री ने इस पत्र के मिलते ही तत्काल उस पुस्तक की एक एक शास्त्र पाठ के अर्थघटन की त्रुटि तथा उसको सामने का शास्त्र पाठ लिखकर लगभग सारी पुस्तक की अप्रामाणिकता सिद्ध हो ऐसा ब्यौरेवार मोटा पत्र लिखकर भिजवाया। माह सु. दसम के लगभग यह लिखे गये पत्र के जवाब की राह 10-15दिनदेखी पर उत्तर नहीं मिला कि मुनि सौभाग्य विजय जी म. के रूबरू पाने का कोई भी संकेत ही ११३ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिला ।अपने श्री संध के अग्रगण्यों को पूज्य श्री ने इस बात की स्पष्ट जानकारी दी कि पन्द्रह दिन राह देखने पर भी पत्र का उत्तर नहीं आया और न ही उनका रूबरू आने की कोई भी बात की ध्वनि ही है । अत: व्याख्यान में "वह पुस्तक पूर्णतः खोटी है" ऐसी घोषणा कर पूज्य श्री वडनगर, उज्जैन, मक्षीजी, महीदपुर होकर आगर मुकाम पर चैत्री अोली की आराधना ठाठ से कराई। उस चैत्री अोली की अवधि में उदयपुर श्री संघ के प्रमुख आये और विनती की कि-"बावजी सा! आप झट उदयपुर पधारो । ढूढिया और आर्य समाजियों की पोल आपने खोल दी । कई लोगों को धर्माभिमुख बनाया । किन्तु अब ये तेरापंथी लोग दान-दया का विरोध का झंडा उठाया है । अभी उदयपुर से सुगनचंद जी, चम्पालाल जी आदि छः सात तेरापंथी संत और दस-पंद्रह सतियां पंचायती नोहरे में प्रवचन देकर उदयपुर में बतंगड़ मचा रहे हैं। आप महरबानी कर जल्दी पधारो।" आदि पूज्य श्री ने समय की जांच कर चैत्री ओली पूरी होते ही तत्काल उदयपुर जाने की भावना दर्शायो । उदयपुर श्री संघ के प्रतिनिधि प्रसन्न होकर गये । पूज्य श्री भी चैत्र को बीज विहार करके वैसाख सु. बीज के मंगल प्रभात में उदयपुर शहर में पधारे । श्री संघ ने भव्य स्वागत किया । ११४ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "दुश्मन का दुश्मन मित्र की गरज पूरी करता है" कहावत के अनुसार ढूंढिया गण पूज्य श्री की शास्त्रीय देशना तथा तात्विक तथ्यों से अपने मत के धुंधले पड़ते के दहशत होते हुए भी तेरापंथीढियों के कट्टर विरोधी अतः अपने प्रतिस्पर्धी को छक्के छुड़ाने के लिए बनिया - शाही नीति के प्रमाण से पूज्य श्री के पास दोपहर के समय आकर दान या विरोधा बंवडर को शमित करने की प्रार्थना की । पूज्य श्री दूसरे दिन अक्षय तृतीया के प्रासंगिक व्याख्यान में अवसर्पिणी-काल के वर्तमान युग के श्रेयांस कुमार जो दान धर्म की प्रवृति की उस प्रसंग को उभार कर दान धर्म की विशद प्ररूपणा करके दान-दया के विरोधियों द्वारा उपजाये गये समस्त कूटतर्क का खंडन देकर आगमों के पाठों द्वारा दान-धर्म की स्थापना की तथा द्रव्य - दया, भाव- दया के स्वरुप एवं उसके अधिकारी कौन इसे ब्यौरेवार समझाया । शास्त्र दोपहर तेरापंथी श्रावक पूज्य श्री के पास आये, पाठ को प्रस्तुत करने लगे अतः पूज्य श्री ने प्रकट हुए शास्त्र पाठों के अर्थ की विकृति दर्शाकर उसके साथ के पाठों को दर्शाया । उससे प्रभावित होकर श्रावक ने पूछा कि - "हमारे संतों के साथ वार्तालाप श्राप करेंगे क्या ? ' पूज्य श्री ने कहा कि - " जिज्ञासुभाव से बात कोई भी हमसे कर सकता है बतंगड़बाजी और फिजूल की चर्चा से - हम दूर रहते हैं । ११५ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापथी श्रावक अपने संतों को लेकर आने का कह गये । अपने व्याख्यान में दान-दया के विरोध की बात छेड़ी नहीं । अलबता पहले जैसे गुस्से से उनकी (व्याख्यानों) प्रकट नहीं होते थे। पूज्य श्री भी मौके मौके शास्त्र पाठों का उल्लेख करके तेरापंथी मान्यता को चिकुटि भरते । पूज्य श्री इस प्रसंग को लेकर दूसरे चातुर्मास के लिए जाना उचित नहीं लगा। अन्य कारण यह भी था कि पूज्य श्री के साथ के मुनि श्री रत्न सागर जी म. की सं. 1932 के इन्दौर के चातुर्मास से तबियत नरम हो गयी थी तथा वि. सं. 1934 के उदयपुर में ही आसोज विद सातम को समाधिपूर्वक कालकर गये । दूसरे शिष्य श्री केसर सागर जी म. को मालवामेवाड़ प्रदेश की आहार-चर्चा माफिक नहीं आने से 'सग्रहणी' का योग सं. 1935 के चातुर्मास से लागू हो गया अतः पूज्य श्री ने * पू. श्री मूलचंद जी म. को परिस्थिति जतलादी अतः पू. गच्छाधिपति ने मुनि श्री जयविजय जी म. तथा मुनि श्री देव विजय जो म. को सं. 1938 के फाल्गुन महिने अहमदाबाद से विहार कराया। वे चैत्रो अोली के लिए कपड़वंज रोकाये हुए थे। वे पूज्य श्री के पास मालवे में आते थे। *(1) पूज्य श्री मालवा मेवाड़ में दूर तक विचरण करते Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु फिर उदयपुर जाने का निश्चित होने से वे दोनों ठाणा कपड़वंज से मोड़ासा, शामला जी, डूंगरपुर होकर केसरिया जी की यात्रा करके जेठ सुद में उदयपुर पूज्य श्री के पास आने का होने से अन्य स्थान पर चातुर्मात करने का टाल दिया । इसके अतिरिक्त पूज्य श्री को वहां समाचार मिले कि श्री वीतराग परमात्मा की भक्ति के सन्दर्भ में पूज्य श्री के सचोट प्रतिपादनों से जिन-पूजा की प्रमाणिकता ध्वनित होने से, उसी प्रकार गत चातुर्मास में विरुद्ध दलीलों का जो जोरदार तर्कबद्ध सामना किया उससे उदयपुर के स्थानकवासी जैन खलबला उठे थे । उनके बड़े विद्वान संत को चातुर्मास के लिए लाकर मूर्तिपूजा के खंडन का जोरदार प्रयत्न उठाया है । " प्रादि रहने पर भी पू. श्री गच्छाधिपति मूलचंद जी म. की निश्रा में टिका सके थे । उसके नमूने के रूप में यह प्रसंग है । जों रूकावटे प्राती या कर्तव्य मार्ग में कठिनाई आावे तब वे श्री अपने निश्रादाता पू. गच्छाधिपति के सम्पर्क में रहते थे । इस बात की प्रतीति प्राचीन संग्रहों में मिल आई है । पू. गच्छाधिपति श्री का अपना एक प्राचीन पत्र खूब स्पष्ट प्रकाश देता है । वह पत्र प्राचीन भाषा में है वैसा ही अक्षरसः यहाँ प्रस्तुत है :- पू. मूलचंद जी म. का पत्र श्री झवेर सागर जी म पर अहमदाबाद लिखनेवाले मुनि श्री मूलचंद जी म. श्री अहमदावाद लि. मुनि मूलचंद जी - सुख शांता वर्तित है । ११७ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस समाचार से उदयपुर जैन श्री संघ ने पूज्य श्री को आग्रहभरी विनति की कि .... "बावजी सा अब तो किसी प्रकार आपको विहार करने नही देंगे, आपने यहां आर्य समाजियों का मुंहतोड़ जवाब देकर जो शासन की अपूर्व प्रभावना की है. यह तो वास्तव में सद्भाग्य की बात है । अब यह आने वाला झमेला तो घर में से ही उठ रहा है। श्री उदयपुर मुनि झवेर सागर जी तुम्हारा का. व. 6 का पत्र मिला है । और रु. 20/- की चिट्टी से पांच परतों में बंद की है जिस रूप में रु.200डाक वाले के मारफत मगनलाल पूजावत गोकुल के उपर भेजी उस रुप में - ‘तथा गोकुल भाई ने डाक से मंगाई है उसका तुम्हारे ऊपर कागज लिख--कर उन्होने बंद कर भेजा है। इस देश में इस प्रकार है मुनि आतमाराम जी ठा. 7 श्री अंबाला चातुर्मास है तथा वसन चंद जी लुधियाना है तेइस साधु है। तीन उदयपुर मे है । रायपेसेणी सूत्र वह अत्युत्तम है । जैसे शासन की शोभा बढे. वैसा व्यवहार करे। 11 व्रत को, कोई बाहर की परुपणा करते हैं । उस सम्बन्ध में तिर्यंचना वही व्रत 11 को संभव है। इस बाबत पहले ही बंद कर भेजा है अभी तक देखने में नही आया है । गोकुल भाई को बात की। उन्होने अापके ऊपर पत्र लिखकर भेजा है सो उससे सूचित होना । उनके लिखने पर ध्यान रखना । पुनः पत्र लिखना । मीति सं.1938 का आषाढ विद 11 मुनि वीर विजे जी ने तुम्हे जो पुस्तक की याद लिखाई है वह पुस्तक वर्षा यह पत्र ११८ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहरा श्रात्रमण जितना नुकसान न करे उससे ज्यादा घर का जान भेद धक्का पहुंचा सकता है । अभी इधर और कोई शास्त्रीय बातों से मुठभेड कर सके ऐसे कोई साधू महाराज है नहीं आपको ही यहां बिराजना पड़ेगा ' आदि पूज्य श्री ने स्थानक मार्गियों की तरफ से होने वाली शासन की अपसाजना के निवारण को पवित्र कर्तव्य समझकर पू. श्री मूलचन्द जी म. को शासन -- रक्षा हेतु प्राज्ञा को ध्यान में रखी । वि. सं. 1938 का चातुर्मास उदयपुर में करने के लिए क्षेत्र के आधार पर वर्तमान योग के शास्त्रीय शब्दों से वतीत करने को फर्माया । जेठमहिने में मारवाड़ तथा कच्छ में से दो बड़े घुरघर विद्ववान आयु 60 से 70 वर्ष दीक्षा पर्याय 40 से 50 वर्ष के पूर्ण किये विनती करके उदयपुर चातुर्मास के लिए बुला लाये । उन्होने आते ही अपने व्याख्यानों में " मूर्तिपूजा चैत्य-वासियों के मस्तिष्क की उपज है", हिंसा में प्रभु महावीर ने ऊपर से पू. गच्छाधिपति श्री पूज्य श्री पर कितना सहत्व भरा भाव रखता है । उसको समझाता है । अपने श्राज्ञावती कौन कौन साधू कहां कहां है " इत्यादि ब्योरा भी प्राणप्रिय शिष्य के रूप में पूज्य श्री को जतलाया है । अन्य भी कितनी ही महत्व की सूचनाएं पू' गच्छाधिपति ने जता कर पूज्य श्री पर स्वयम् का हृदय कितना प्रेम पूर्ण है इसे प्रकट किया । ११६ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी धर्म कहा नही है ।", द्रव्य पूजा में कच्चा पानी अग्नि, फूल आदि कितनी ही सारो "हिंसा है।" "धर्म तो दया, ' रुप अहिंसा--रुप होता है ।" आदि भावार्थ के उलटे तर्कों से जोश भराप्रचार करने लगे। "प्रतिपक्षी की जितनी ताकत हो उसे पूरी अजमा लेने का अवसर देकर सामने से जब बवाल निकलते हो तब अवसर की राह देखने के बहाने मौन भो वाद कला का अजब नमूना हैं " इस प्रकार पूज्य श्री अपना कर शुरुअात में विरोधियों को जो कहना है सो पूरा कह दें । अतः बाद में क्रमसर पद्धति के प्रणाम में जवाब देने में सुविधा हो, तत्काल प्रतिकार नहीं किया। लोगों में स्थानकवासियों के बड़े महाराज के तर्कों का उहापोह प्रारंभ हुआ। पूज्य श्री के पास कितने ही जिज्ञासू गण पूछने आये इसलिए पूज्य श्री ने ऐसे जोरदार तर्कबद्ध पूर्तियां तथा शास्त्र के पाठ सामने रखकर सचोट खंडन किया। इस प्रकार से जिज्ञासू पुनः स्थानकवासी महाराज के पास जाय और वह नये तर्क सुनकर लौटकर पूज्य श्री के पास पावै । इस प्रकार आषाढ़ सु. 15 तक बात को टलने दी। इसके पीछे पूज्य श्री को दीर्घदृष्टि यह थी कि जो पहले से ही भड़भड़ाहट से शास्त्र पाठों के प्रकट करने के साथ ही १२० Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी बातों का खंडन करने लगे तो शायद सामने वाला यहां अपनी दाल नहीं गले यों विचारकर "हमें झंझट में नहीं पड़ना" "हम चर्चा को नहीं मानते"" जिसे सत्य समझना हो वह हमारी बातों को विचारे" आदि शब्द छल के पीछे अपनी भ्रामक मान्यताओं को ढॉपढ़पकर विहार कर जाय तो बात का योग्य निराकरण नहीं आवे । अतः पूज्य श्री ने चौमासे को चौदस तक बात को जान बूझकर डोलने दी। बात की बहुत चर्चा नहीं को जिससे सामने वाले तनिकजोर में रहे और यहां से खिसके नहीं। आषाढ़ विद 5 के लगभग से पूज्य श्री ने पद्धतिसर स्थानकमागियों के एक एक मुद्धों का क्रमानुसार दलीलों एवं शास्त्र पाठों को प्रकट कर निरस्त करना प्रारभ किया । स्थानकमागियों को मान्य बत्तीस आगम में से शास्त्र पाठों को एक के पीछे एक प्रस्तुत करने लगे । संघ में चर्चा अत्यन्त रसयुक्त हो उठी । अभिनिवेश वाले गिनती के व्यक्तियों के सिवाय अधिकांश में भोली जनता सत्य तत्व के निर्णय की दिशा में पूज्य श्री के सचोट तर्कों तथा शास्त्र पाठों से मुड़ने लगी। परिणाम में पर्वाधिराज पर्युषण के महापर्व के तीन सप्ताह पूर्व से ही सेंकड़ों की संख्या में स्थानकमागि पूज्य श्री के व्याख्यान में आने लग गये । बाद में "मुहपत्ती" बांधने १२१ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सम्बन्ध में, धोवण के पानी की बात, बासी, विहल को अभक्ष्यता, "पात्र में गिरा वह साधू को चलेगा" की बात का होता हुआ दुरपयोग, आदि विषयों पर जोरदार सचोट दलीलों द्वारा प्रकाश फैलाया। तथा अनेक स्थानकमागियों ने पूज्य श्री की समझाहट शैली से मिथ्यात्व का त्याग कर प्रभुशासन की मर्यादा में आने के लिए उद्यत बने। . पर्वाधिराज पर्युषण-पर्व की आराधना के लिए उदयपुर श्री संघ में अनोखी जागृति आई क्योंकि नवागन्तुक स्थानक मार्गी कुटुम्बों के चढते भावोल्लास से श्री संघ में आराधना का उल्लास प्रबल हुआ । चौसठ-प्रहरी पोषध, अट्ठाई की तपस्या श्री कल्प सूत्र का रात्रि-जागरण तथा वहोरावने के चढावे त्यों ही स्वप्न उतारने आदि की उछामणी अभूतपूर्व होने लगी। संवत्सरी महापर्व की आराधना के प्रसंग में "कषायों का विसर्जन हृदय से करके समस्त जीवो के माथ मेत्रीभावना आदर्श नमूने के रुप "प्रभुशासन के सर्वावरति धर्म का पालन यही यथार्थं आराधनाओं का सार है '' यह जता कर प्रभु-शासन की मार्मिकता को सयझाया। परिणाम में आराधक-पूण्यात्माओं में अपूर्वं भावोल्लास जाग्रत हुआ। इस चौमासे में अनेकानेक धर्म कार्यो में से कितने ही विशिष्ट धर्म कार्यों का उल्लेख उदयपुर के प्राचीन इतिहास की छोटी १२२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सी पुस्तक में इसके प्रमाण मिलते हैं। "सागर शाखा के प्रभावक--मुनि पुगवों द्वारा स्थापित चौगान के विशाल जिनालयों में प्रभुभक्ति के सम्बन्ध में भावोल्लास की वृद्धि हो ऐसा सुन्दर चांदी का कलश-हॉडी आदि सुन्दर उपकरणों की श्रावकों को उपदेश देकर पूज्य श्री ने संग्रह कराया। ज्ञान पंचमी को ज्ञान संग्रह के लिए प्रतिवर्ष-लगे जैसे चदरवा, पछवाई लकड़ी, के चढने-उतरने का स्टेन्ड विविधरंग के सुन्दर रुमाल प्रादि सामग्री श्री संघ द्धारा तैयार कराई । श्री गौड़ी जी महाराज का तिलक जीर्ण हो जाने से रत्न जडित सुन्दर कारीगरी वाला नया तिलक बनवाया। रत्न की प्रतिमा जी को पधराने के लिए सुन्दर मकराना के शिल्प कलावाला भव्य सिंहासन तैयार करवाकर गौड़ो जी म. के देरासर में पधगया, जिसमें रत्त के प्रतिमा जी व्यवस्थित रूप में पधराये । छोटी-बड़ी पंचतीर्थो: चौवीशी, धातुमुर्तियों के अभिषेक के समय आशातना टालने के लिए सुन्दर पीतल का सिंहासन (नालीदार) गोड़ी जी म. के देरासर में पधराया। चोगान के दहेरे विराजमान होती चोवीशी के प्रथम तीर्थकर श्री पद्मनाभ प्रभु भगवान के कुन्डल व्यवस्थित नहीं थे। श्रावकों को उपदेश देकर रत्नजड़ित सोने के सुन्दर १२३ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुण्डल तैयार करवाये । ऐसे अन्य अनेक धर्मकार्यो से चातुर्मास धर्मोल्लास भरे वातावरण में पूरा होने आया । परन्तु आसोज विद दसम लगभग पूज्य श्री को बुखार आने लगा । योग्य उपचार करने पर भी बुखार ने उग्र रुप ले लिया । कार्तिक सुद प्राठम को बायें पिंडलो के बगल में कोई गाँठ जैसा हो गया जिसकी वेदना से बुखार और बढ़ गया । देशो निर्दोष वनस्पति लेप आदि का उपचार प्रारम्भ किया प्ररन्तु आराम नहीं पड़ा । चातुर्मास परावर्तन का कार्य ज्यो त्यों पूरा किया। बाद में का वि तीज लगभग से वेदना बढ़ गई । इस विषय में पूज्य श्री का विहार करने की तौव्र भावना होते हुए भी विहार नहीं हो का और एक ही क्षेत्र में इस कारण उपरा - उपरी चातुर्मास करने पड़े । परन्तु शेष अवधि में गांव-गांव विचारण हो तो ठीक ऐसी भावना पूज्य श्री ने पू. गच्छाधिपति अहमदाबाद पत्र द्धारा सूचित किया । ● इस सारे ब्यौरे की झलक पू. मूलचंद जी म. को सं. 1938 का. वि. 2 के लिखे गये पत्र में जानने को मिलती है । यह पत्र अक्षरश: निम्नानुसार है :श्री अहमदाबाद से मुनि नूलचंद जी की सुख- शाता पढ़ें । श्री उदयपुर मुनि झवेर सागर जी तुम्हारा पत्र सू. 12 का मिला है । 11 १२४ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार जाने । अमारा पत्र तुम्हारे हाथ में देर से आया जिसके कारण विषय तथा चिट्टी नहीं लिखने का कारण लिखा सो जाना । आपके शरीर में बुखार तथा पांव में गांठ दर्द की स्थिति जानकर दुःख हुआ। परन्तु पूर्व संचित उदय होते है, अतः शुभ का उदय हो, शाता होगी। परन्तु औषधोपचार ठीक प्रकार से कीजियेगा। किसी की आवश्यकता हो तो सुखपूर्वक मंगाना । जो एक दो काम के लिए तुमको लिखा है सो ठीक है, तुम्हारे ध्यान में उसकी खटक है, परन्तु शरीर की फुर्ती बिगड़ने से विहार नहीं हो सकता ऐसा लिखा सो जाना। उचित बात है। समझदार को चिन्ता होती ही है। अब तुम्हारे शरीर की प्रवृति का एकांतर अथवा चौथे दिन खबर भेजते रहें। तुम्हारी तबियत सुधरे तब तक बराबर लिखते रहें । हमें तुम्हारे पत्र के नहीं मिलने से अधिक चिन्ता है । अतः पत्र बराबर लिखते रहें। पूरी सावधानी रखनी । जो दो काम हैं उसका अभी अवसर नहीं, इतने में समझ लेना । दयानन्द सरस्वती कहां हैं ? सो लिखना।" उस समय के संवेगी साधुओं, सबके नायक, अनेक साधुओं के सिरमौर पू. श्री मूलचन्द जी महाराज स्वय गच्छाधिपति होते हुए भी पू. श्री झवेर सागर जी म. पर कितना वात्सल्यभाव दर्शाया है। कितनी आत्मीयता दिखाता है । १२५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पत्र द्वारा यह सब विवरण स्पष्ट जानने को मिलता है ? ऐसा ही एक अन्य पत्र पू. श्री मूलचन्द जी म. उपर के पत्र के एक सप्ताह बादलिखा हुआ संग्रह में खोज निकाला है। "अहमदाबाद से लि. मुनि श्री मूलचन्द की सुख-शाता पढ़े । श्री उदयपुर मुनि श्री जवेर सागर जी पत्र विद 8 का प्राप्त हुआ पढ़कर समाचार जाने । और लिखें। तुमने बहुत दवाइयां की है थोड़ी कसर हैं । इसलिए मृगशिर सुद 2 ऊपर विहार करने का विचार है । तुम जब विहार करो उस दिन खबर देना तथा हमें बाद में पत्र कहां लिखना वह खबर देना। किस पते पर तथा किस स्थान पर लिखें सो लिखना तुम्हाराxxxxx सिद्धाचल जी पाने का विचार कैसा है। जो जतलायें। दयानन्द सरस्वती अब भी तुम्हारी तरफ है वह जाना। हर स्थान पर उत्पात करते हैं । अतः वे जैन की निंदा न करें ऐसी बातें तुम्हे तैयार रखनी है। यहां मुनि भक्ति विजय जी आदि सब 12 ठाणे हैं । वे नीति विजय जी तथा कमल विजय जी तथा खाति विजय जी ने विहार किया है। नीति विजय जी कपड़वंज तरफ गये हैं सो जानना । पत्र के पहुँचते ही पूनः पत्र लिखना। सं. 1939 का कार्तिक विद- 10 वार भौमे. १२६ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमारा सेवक गोकल की वंदना पढ़ना " । इसके बाद इस पत्र के लिखने वाले गोकल भाई ने स्वयम के सम्बन्ध में कितनी ही बातें लिखी है । इस पत्र से पूज्य श्री ने विशिष्ठ योग्य उपचार कर जल्दी से माघ. सु. 2 विहार करने की तैयारी की हो ऐसा लगता है। परन्तु पांव की गांठ पूरी पूरी ठीक नहीं हुई थी तथा श्री संघ ने भी मौन एकादशी जैसे महापर्व की श्राराधना करवाने के लिए खूब आग्रह किया जिससे माघ सु. 15 तक स्थिरता की । माघ विद बीज पूज्य श्री गोगुन्दा - सायरा होकर भाणपुरा की नाल होकर राणकपुर तीर्थ की यात्रा के लिए पधारे । वहां से घाणेराव, मूंछाला महावीर जी यात्रा करके देसुरी तरफ विचरण कर माघ विद में शाहपुरा पधारे । वहां दयानन्द सरस्वती के जोरदार प्रवचनों से भ्रमित हुई जनता को सत्य -मार्ग दिखाने के लिए पूज्य श्री ने थोड़ी स्थिनताकी फाल्गुन सुद दशम लगभग * अजमेर पधारे । .... म. आज * यह बात प्राचीन संग्रह में से खोज निकाले नीचे के पत्र से व्यक्त होती है- श्री उदयपुर पुजारी चमना जी गुजरगोड़-श्री बांदनवाड़ा सूलि, मुनि झवेर सागर जी सुख- शाता दिन यहां आया हूँ । परसू सु. 10 को अजमेर पहुंचूगा । वहां सर्व हाल क्या है, सो लिखजो और मंदिरों की पूजा सेवा ठीक रीति से करजों × × × × और मेरे नाम को चिट्ठियां आयी हो वह सब १२७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमेर में पूज्य श्री ने फाल्गुन चौमासा किया । ऐसा पूज्य श्री पर पू. गच्छाधिपति मूलचंद जी म. को अधोलिखित पत्र से जाना है :- "श्री अहमदाबाद से लि. मुनि मूल चन्द जी की सुख-साता पढ़ना श्री अजमेर मुनि झवेर सागर जी आपका सुद 11 का पहुंचा xxxx तुमने बातचीत की होगी सो जवाब आने से मालूम होगा। मिति सं. 1938 का फाल्गुन सं. 13 बुधवार" इस पत्र में कितनी ही नितान्त गुप्त रहस्यभुत बातें पू.गच्छाधिपति श्री को गंभीर समझकर जनाई है। इस ऊपर से पूज्य श्री का कैसे उदात्त व्यक्तित्व होगा। वह गच्छाधिपति के पत्र से समझा जाता है। ओर पू. श्री झवेर सागर जी म. ने अजमेर फाल्गुन चौमासे की आराधना सा. कल्याण जी कोठारी देईने कहजो के अजमेर पहोचाड़ना । मने रास्ता मां दिन लागा ते कारण के सायपुरे होकर मैं यहां आया हू । दयानंद सरस्वती पण सायपुरे था, तेथी दिन-2 तिहारहणो कर्यों xxxx मेरी तरफ से सुख-शाता पूछना समाचार पूछे सुख-शाता कहे देजो पत्र को उत्तर जल्दी अजमेर भेजजो। कोटड़ी में शेठ गुलाबचंद जी भगवान की दुकान पूगे श्री अजमेर . सं. 1939 फाल्गुन सुद 8 वार शुक्र दः पोते १२८ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने के बाद आस-पास के क्षेत्रों में विचरण करने की भावना से पू. गच्छाधिपति श्री को माज्ञा मंगाई होगी ऐसा नीचे के पत्र से समझ में प्राता है । प्राज्ञा की राह देखने में उन्होने चातुर्मास के पीछे पांच दिन बिताये हों ऐसा लगता है :- श्री अहमदाबाद से लिखी मुनि मूलचन्द जी की सुखशांता बांचना | श्री अजमेर मुनि झवेर सागर जी - जत तुम्हारा पत्र × × × × पहुंचा । हकीकत जानी विहार करके देवली को छावनो तरफ जाऊंगा लिखा सो ठीक X x X x आगे विहार x x x x सो लिखना । आत्माराम जी ठा. 13 शेमरेत होकर बीकानेर तरफ विद 7 को विहार करेगें x x x x और आत्माराम जी को बड़ोदरा वाले हंसविजे जी आदि ठा. 3 को माह × × × × इस तरफ भेजा है । xxxx मिति 1939 का फा. व. 5 गुरु पत्र का जवाब विस्तार सेदेना वीरविजे की वंदना x x x x कागज पहुंचे तुरंत जवाब लिखना " इस पत्र में पू. झवेर सागर म प्रति पू. गच्छाधिपति श्री को हृदय के भाव बहुत स्पष्ट रोति से हितैषी एवं स्नेह से भरा दीखता है । अन्य भी अनेक विषयों को इस पत्र में चर्चा की है | लेकिन यहां अप्रासंगिक होकर उनका उल्लेख नही किया है । इस प्रकार पू. गच्छाधिपति श्री के हार्दिक ममता १२६ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरे व्यवहार से पूज्य श्री झवेर सागर जी श्री महाराज श्री ने अजमेर में लगभग दो सप्ताह स्थिरता को हो ऐसा लगता है । उसके बाद पूज्य श्री अजमेर से केकड़ी इत्यादि होकर कोटा शहर में चैत्री श्रौली धूमधाम से कराई। बूंदी होकर रामपुरा में प्रक्षय तृतीया पर वहां के श्री सघ के आग्रह से पधारे । वहां जिनेन्द्र-भक्ति महोत्सव ठाठ से हुआ इस कारण वहां स्थिरता हुई वहां से वैसाख विद 5 लगभग पूज्य श्री ने ने झालावाड़ पाटण तरफ विहार किया । यह सूचना नोचे के पत्र में मिलती है -- "श्री उदयपुर पुजारी चमना श्री कोटा - रामपुरा से लि. मुनि झवेर सागर जी सुख-शाता पढ़ना । यहां श्री देव गुरु कृपा से आनन्द है और मैंने एक चिट्ठी केकड़ी से तुमको भेजी थी उसका उत्तर आया नहीं, फिर बूंदी से भी लिखी थी xx यदि तुम्हें पत्र लिखने की इच्छा हो तो श्री झालरापाटण लिखना । मैं यहां से दिन xx से विहार करके झालरापाटण पहुंचुगा ठिकाना सेठजी गणेश दास जी दोलत राम जी की दुकान का करोगे तो मुझे पहुचेगी x x x x देव पूजा इत्यादि काम काज में होंशियारी रखना, और जो कोई श्रावक श्राविका इत्यादि मेरे सम्बन्ध में पूछे तो उन्हें १३० Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख-शाता कहना । संवत् 1339 वैसाख विद 3 बुधवार लि. झवेर सागर मु. कोटा-रामपुरा से " वहां वैसाख विद चौदस के व्याख्यान में उदयपुर श्री संघ के अग्रगण्य श्रावकों ने भावभरी आग्रहपूर्ण विनती की कि- बापजी सा ! आप तो हमको छोड़कर चले जाओ ! पर हम कहां जावें ? जड़ियों की गली में मंदिर शिखर पर ध्वजडंड पुराना हो गया सो नया कराया है ! प्रतिष्ठा के लिए आपको पधारना पड़ेगा । पूज्य श्री के बहुत आनाकानी करने पर भी अंत में उदयपुर संघ जय बोलायी । पूज्य श्री जे. सु. विहार करके जे. वि. 5 लगभग उदयपुर पहुंच गये । तुरन्त जे. व. 7 से उत्सव चालू करके श्री से जेठ विद 13 के मंगलमुहूर्त में पूज्य श्री के साथ नूतन ध्वजा दंडा रोपण कराया । संघ में ठाठ वासक्षेप के पूज्य श्री ने उदयपुर में चातुर्मास उपरा उपरी कारणवश करना पड़ा । परन्तु पूज्य श्री ने सयम चर्चा की सावघानी, दोष रहित श्राहार की गवेषणा तथा गृहस्थों के अवधि बढ़ने वाले परिचय के प्रभाव, आदि शास्त्रीय जयणा से स्वयं के तथा साथ के साधुओं के संयमी जीवन को निर्मल रखने की विशेष सावधानी युक्त प्रयत्न किये थे । भावी योग से आषाढ़ वि. चौथ की रात्रि मुनि केशव सागर जी म को १३१ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेट का दर्द असहय हो उठा जिससे तत्काल बाह्य उपचार किया। दूसरे दिन देशी वैद्य की देखरेख में उपचार प्रारम्भ किया । परन्तु किन्ही भावी विशिष्ट संकेतों के कारण केशव सागर जी म. की तबियत दिन-प्रतिदिन क्षीण होने लगी, भोजन की रूचि कम हो गयी । दाह ज्वर जैसा खूब ही कष्ट का उदय हुआ । इ . समय पूज्य श्री ने अाराधना-वंदना, संथार-प्रयन्त अनुसरण पयन्न, पाडर-पच्चकखारण तथा पंच सूत्र (प्रथम अर्थ के साथ) व्यवस्थित रूप से समझाकर आराधना का बल देने का सतत प्रयत्न किया। आषाढ़ वि. 12 की रात्रि प्रतिक्रमण के बाद संथारापोरसी पढ़ाकर एकदम छाती में घुटन होने लगी । पूज्य श्री ने नाड़ी तथा प्रांखों की स्थिति देखकर श्रावकों को सचेत कर दिया। सब लोगों ने सामुहिक रूप में श्री नवकार मंत्र का घोष प्रारम्भ किया, अन्ततः सवादस बजे लगभग केशवसागर जी म.स्थूल देह छोड़कर पूज्य श्री के अन्तिम घड़ो के कान में कह गये श्री नवकार महामंत्र को सुनकर दोनों हाथ जोड़कर सबको क्षमावत काल धर्म को प्राप्त हुए । सकल संघ में शोक की लहर फैल गयो । पूज्य श्री ने भी परिपक्व आयु दीक्षा लेकर ग्यारह वर्ष से अपनी तबीयत १३२ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिथिल होने पर हर प्रकार से सेवा भक्ति करने वाले एक पुण्यात्मा के स्वर्गवास से तनिक हत्कंप अनुभव किया। परन्तु संसार में रहद की घटमाला तथा जन्म-मरण की अविरल परम्परा का विचार कर पूज्य श्री स्वस्थ हुए तथा स्वर्गस्थ मुनि की संयमाराधना, तपस्या सेवा भक्ति आदि गुणों के अनुमोदन के भाव से मानसिक धैर्य को धारण किया । महा-परिष्ठा पत्रिका का कार्योंत्सर्ग करके पूज्य श्री ने श्रावकों को सोपे । बाद में श्रावकों ने यथोचित कर्तव्य करके उपाश्रय में ऐसी जगह उन्हें विराजमान किया जहाँ नीचे सब लोग उनको दर्शन कर सके । रातोंरात सुन्दर जरी वाली पालकी बनवाकर प्रातः 7 बजे भव्य शमशान यात्रा "जय जय नंदा, जयजय भद्दा के बुलन्द घोष के साथ संघ निकाल कर योग्य पवित्र भूमि पर 10-30 बजे चंदन के सुगन्धित काष्ट की चिता बनाकर हजारों के चढ़ावे के द्वारा अग्नि संस्कार करके शुद्ध होकर बड़ी शान्ति सुनने के लिए पूज्य श्री के पास आये। पूज्य श्री ने भी मृत शरीर को ले जाने के पश्चात साधू के उचित उलटी देव वंदन आदि क्रिया करके साथ चौमुखी प्रभुजी पधरा कर सकलसंघ के साथ देववंदन किया । उस वंदन की समाप्ति के समय शमशान यात्रा गये हुए पुण्यवान भी आ गये । उन्होंने बड़ी शांति तथा इस विषय में पूज्य श्री १३३ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की मार्मिक वैराग्य भरी देशना सुनकर धर्मकार्य के आचरण की गंभीर प्रेरणा प्राप्त की । पूज्य श्री के उपदेश से श्री संघ में गोड़ी जी महाराज के देहरे आषाढ़ विद13 से प्रष्टान्हिका महोत्सव करने का विचार किया परन्तु संयोग ऐसा हुआ कि महोत्सव में ढील करनी पड़ी । चौगान के दहेरासरों की स्थापना सागर शाखा के मुनियों भगवंतों की प्रेरणा से होने वाली वहां की व्यवस्था में पूज्य श्री अधिक देख-रेख रखते थे जिससे वि. सं. 1862 में श्री मुनि भावसागर जी म. के उपदेश से शासन नायक तीर्थकर प्रभु महावीर परमात्मा के डेरी की हवाला में उस समय संयोगों का अनुशरण करके स्थापना की । परतु बाद में दर्शनार्थियों को वह स्थान अनुकूल न रही अतः आशातना इत्यादि के भय से सं. 1937 में चौगान के देहरासरों के विशाल क्षेत्र में भी शान्तिनाथ जी प्रभु के देहरासर के पास की भूमि तय कराकर पूज्य श्री ने काम प्रारम्भ कराया । परन्तु संयोगवश वह काम ढील में पड़ गया । अन्ततः सं. 1938 के चातुर्मास में विशिष्ठ प्र ेरणा देकर आरस पाषरण, जोधपुरी पाषाण आदि को जोड़कर उत्तम सोमपुरा मिस्त्री को चित्तोड़ से बुलाकर सं. 1939 के मगशिर महिने से तीव्र गति से कार्य प्रारम्भ करा दिया । जिनालय की प्रतिमा का काम " शुभस्य शीघ्रम" न्याय से १३४ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री ने श्रा. सु. 13 का विशिष्ठ मुहूर्त निकाल कर श्री संघ को वह प्रतिष्ठा करवाने की प्र ेरणा दी जिससे वह प्रतिष्ठा महोत्सव के साथ ही पू. महाराज श्री के स्वर्गवास निमित्त उत्सव भी करावाने का पूज्य श्री ने सूचित किया । श्री संघ में पूज्य श्री की आज्ञा का स्वागत किया । धूमधाम से श्रा. सु. 5 से प्रतिष्ठा महोत्सव की शुभ शुरुआत हुई । इस महोत्सव में पूज्य श्री ने संघ के अग्रगण्य की प्रभुभक्ति के प्रदर्श- महिमा तथा यथोचित कर्तव्य की मर्यादा के विशिष्ठ उपदेश से प्रेरणा देकर उदयपुर के स्थानीय जिनालयों में होती हुई आशातना निवारण के लिए आठ-दस श्रद्धालु भक्तिवंत को नामजद करके प्रतिमाह आठ दिन आसपास के गांवों में जाकर आशातना के निवारण की प्रेरणा दी । कुल मिलाकर श्री सघ में पूज्य श्री की प्र ेरणा से अपूर्व भावोल्लास के साथ विविध तपस्याये तथा धर्मं कार्य उत्तम प्रमाण में सम्पन्न हुए । विक्रम सं. 1939 के चातुर्मास के विषय में उदयपुर श्री संघ तरफ से प्रकाशित प्राचोन ऐतिहासिक पुस्तक (पृ. 29 ) में निम्नानुसार धार्मिक कार्यों का उल्लेख मिलता है :- चौगान के देहरासरजी के पास की धर्मशाला जीर्ण हो रही थी उसका तथा कम्पाउण्ड के चारों तरफ का कोट खर-बिखर होने लगा । इन दोनों का जीर्णो १३५ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्धार पूज्य श्री की प्रेरणा से हुआ । और भी आश्विन मास में चौगान के देहरासर में पूज्य श्री की प्रेरणा से श्री नवपद जी महाराज की अोली की आराधना सामूहिक रुप से धूमधाम से हुई। आराधकों के भावोल्लास पूज्य श्री के तात्विक देशना से बढ़ने के कारण परिणाम से श्री नवपद जी की अोली जो के अन्तिम चार दिनों में नवछोड़ का भव्य उजमणा चौगान के देहरासर के बाहर के चौक में बंधाये गये भव्य मंडप में आयोजित हुआ। धर्म प्रेमी जनता ने हजारों की संख्या में ज्ञान-दर्शन चरित्र के विविध उपकरणों-सामग्री को देखकर तपधर्म खूब अनुमोदना को । इसके उपरान्त पाराधकों का भावोल्लास बढ़े इस हेतु पूज्य श्री की प्रेरणा से सुन्दर मुकुट कुण्डल श्री गौडी जी महाराज के मूल नायक प्रभुजी को रोज धारण हो तैयार कराकर पूजा पढ़ाकर अभिषेक को विधि पूर्वक चढवाते । इसके उपरान्त सागर शाखा मुनि-भगवंतो की प्रेरणा तथा उपदेश से स्थापित ज्ञान-भंडार में तथा उसो प्रकार गोड़ी जी महाराज के देहरासर के भण्डार में अनुपयुक्त तथा जीर्ण हुए चन्द्रमा, रुमाल आदि को निकालकर उनकी जरी आदि व्यवस्थित कारीगरों से निकलवाकर उनके सदुपयोग के रुप में श्रावकों को प्रेरण देकर ज्ञान-भक्ति तथा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु-भक्ति के लिए नये रुमाल चंदोवा आदि पूज्य श्री ने बनवाये । सं.1938 के चातुर्मास के दरमियान पूज्य श्री को कफ की व्याधि तथा शीतज्वर बारबार प्रासोज महिने से खुब ही हैरान करने लगा । कार्तिक पूर्णिमा को चातुर्मास परिवर्तन कर का. वि.7 पूज्य श्री ने भीलवाड़ा तरफ विहार करने की तैयारी की । वहां सुगन बाई से चेती की दोक्षा ग्रहण करने की भावना होने से साध्वी जी प्रशम श्री जी म. के समुदाय की रत्न प्रभा श्री जी को साथ लेकर कार्तिक वि. 5 को व्याख्यान के बाद मिले तथा अपने मन को भावना व्यक्त की । उत्तम मुहुर्त में प्राप श्री के शुभ हस्त से मुझे संयम स्वीकारना है ऐसी विनती की। - पूज्य श्री ने संघ के अग्रगण्यों को बुलाकर दीक्षार्थी बहिन के कुटुम्ब इत्यादि जांच कर धर्म शासन की शोभा बढ़े इस रीति से श्री संघ को दीक्षा महोत्सव करने की प्ररणा दी। कातिक वि. 10 के दिन एक बार फिर दीक्षा के मुहुर्त के लिए आई सुगन बाई को पूज्य श्री ने बताया कि "जीवन को प्रभुशासन की मर्यादा में स्थिर करना जरुरी है, बिना उसके संयम कभी सफल नहीं होता । वैराग्य वृति को समझदारी के साथ पहचानने की चेष्टा करो। अनित्य भावनाअशरण भावना का निश्चित चिन्तन, संयम-धर्म को परिपुष्टि के लिए आवश्यक है, उमियों के तूफान में संक्षुब्ध न हो। १३७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी जी श्री म. का परिचय ठीक ढंग से करके जीवन को उनके चरणों में न्यौछावर करना जरूरी है, ठीक तैयारी की है न ? "आदि सुगनबाई ने अपनी भावना को व्यक्त करने के प्रसंग में पिछले डेढ़ दो वर्ष से जीवन को प्रभुशासन की मर्यादा के अनुरूप बनाने का इक्य प्रयत्न किया था । कुटिम्बियों के द्धारा की गई कठोर कसोटी में से निकल कर वैराग्य की भूमिका को दृढ़ता से प्राप्त किया था। पू. साध्वो जी म. का परिचय व्यवस्थित रुप में प्राप्त किया हैं, आदि स्पष्ट जतलाकर पूज्य श्री को संतुष्ट किया। पूज्य श्री ने मगशिर सुद द्धितीय को प्रांबील कर श्री महावीर प्रभु के सामने सात बांधी माला श्री नवकार की त्रिकाल गिनने को कहकर वासक्षेप की पुड़िया दी। सांझ को पौषध लेकर संथारा पोरसी पढ़ाकर सोते समय पुड़िया के सामने नवकार महामंत्र की एक बांधी माला गिनकर "णमो सिद्वाणं सव्वपावण्याणासरणो" की ग्यारह माला तथा "णमो बंभचेरस्स " की तीन माला, "णमो एजमस्स " की तीन माला गिनकर व पुड़िया पूरी तकिये के पास रखकर बायें करवट सो जावे । नींद पूरो हो कि तुरन्त बैठकर सात नवकार गिनकर नासिका के कौन से नसापुट में से श्वास चलता है , इसे जानकर प्रातः पुजा करके 8.37 से 9.23 बजे के समय दीक्षा मुहूर्त के लिए आने को कहा ! Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन बाई ने भी अपनी 42 वर्ष की आयु में, पिछले दम वर्ष के वैधव्य जीवन, भर जवानी में गृह भंग होने का योग, प्रादि को दृष्टि में रखकर पूज्य श्री के “ पानी के पूर्व पाल" की तरफ विकारी-वासनाओं, संयम के मार्ग रुकावट न खड़ी हो, उसे अगमचेतो को सावधानी के रुप में बनाये गयी इस विधि को खूब उमंग से उत्साहपूर्वक इसका आचरण किया। पूज्य श्री के सूचना के आधार पर माघ सु. 2 को आंबील कर चौगान के देरासर में विराजमान प्रभु महावीर परमात्मा के भव्य बिंब के सम्मुख जाप इत्यादि करके सायं पौषध ले, रात्रि संथारा पोरसी, पीछे पुज्य श्री ने बताया उस जाप को बराबर करके संथारा किया। बराबर ढाई बजे जाग्रत हुई सुगन बाई ने सात नवकार गिनकर किस नालिका छिद्र से श्वास जाता है इस खोजा तो दाहिने नासिका रंध्र में से निकल कर ऊपर के भाग में जाता श्वास का अनुभव हुआ। श्री नवकार का जप, नवस्मरण गौतम स्वामी का रास, सोलह सती का छन्द आदि के स्मरण के साथ शेष रात्रि बिताकर राई प्रतिक्रमण करके, पौषध की पालना श्री वीतराग प्रभु की अष्ट प्रकारी पूजापूर्वक करके ठीक निर्धारित समय साढ़े आठ बजे पू. साध्वी जी म. तथा अपने कुटम्बियों को लेकर दीक्षाभिलाषी सुगनबाई पूज्य श्री के पास आई। १३९ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री उस समय श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ मंत्र का मांत्रिक विधि से पूजन करके उसके जप से निवृत हुए ही थे तथा दीक्षा के मुहूर्त के लिए सबको पाया जानकर संकेत से एक तरफ बिठाकर जाप की मुद्रा को बनाये रखा, अंगरक्षा मार्जन आदि संक्षिप्त विधि से करके थोड़ी देर ध्यानस्थ हुए । थोड़ी देर में पूज्य श्री स्वस्थ होकर पंचाग लेकर पंचाग शुद्धि रवियोगादि विशिष्ट योगबल, चंद्रबल कुयोग परिहार, आदि देखकर माघ सु. 3 का श्रेष्ठ मुहूर्त 10-24 से 29 मिनट के श्रेष्ठ निश्चित करके पूज्य श्री ने कागज पर लिख दिया। पूज्य श्री ने भीलवाड़ा की तरफ विहार की बात की। परन्तु दीक्षार्थी बहिन के कुटिम्बियों ने कहा कि-"बावजो सा! उग रहे पौध को पानी मिलना जरुरी है । हमारे घर से यह बाई पूण्यशालिनी होकर प्रभुशासन में अपना जीवन समर्पित करना चाहती है तो इसकी विवेक वैराग्य भावना को परिपूष्ट करने के लिए आपके तात्विक सिंचन की खास जरूरत है, अतः कृपा करके प्राप विहार का विचार न करें। हमारे कुल को तारने वाली दीक्षा के पवित्र-प्रसंग पर हमें क्या करना चाहिए। इसका मार्गदर्शन आपके बिना हमें कौन दे।" आदि दीक्षार्थी के कुटम्बियों की विनती थी पूज्य श्री ने वर्तमान जोग तथा जैसी श्रेत्र-स्पर्शना से संतुष्ट किया। १४० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षार्थी के कुटम्बी श्री संघ के अग्रगण्यों को सांयकाल मिले और अपने घर ऐसा अवसर है सो पूज्य श्री को अवश्य विनती कर रोकने की प्रेरणा कर श्री संघ के गग्रण्यों ने कहा कि " आप स्वय पांचम के व्याख्यान में विनती करें हम भी पूज्य श्री को आग्रह करेगें ही । " मृगशिर सु. पंचम के व्याख्यान में दीक्षार्थी के कुटम्बी तथा श्री संघ ने खूब आग्रह किया तथा स्थिरता के लिए जय बुला दी । मृगशिर सुद सातम दोपहर 2.24 मिनिट घनार्क के मुहूर्त बैठते ही प्रभुशासन की गरिमा तथा मोह के संस्कारों को शिथिल बनाने के लिए पूज्य श्री की प्रेरणा से दीक्षार्थी के आठ दस सखी मंडल के साथ उदयपुर शहर के समस्त देहरासरों स्वयम् के परिश्रम से सफाई करने से लेकर पूजा के समस्त कार्यों को करने के रुप में जिन भक्ति महोत्सव मृगशिर सुद सातम के व्याख्यान में ज्ञान पूजा करके वासक्षेप दूर करके सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ के देहरासर से शुरुआत की । पू, श्री ने " प्रभूभक्ति में स्वद्रव्य तथा खुद प्रवृति से प्रवर्तना के बल से अपूर्व रीति से मोह के संस्कारों का ह्रास होता है " यह बात योग्य तरीके से समझाकर संघ में से भी अन्य श्रावक श्राविकाओं को इस प्रभु भक्ति का १४१ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट कार्य में तन-मन धन से करण - करावण रूप में लाभ लेने की प्रेरणा की । दीक्षार्थी बहिन की इस प्रवृति से संघ 1 अनोखी धर्म भावना खिल उठी । जिस मुहल्ले में दीक्षार्थी बहिन प्रभुभक्ति के लिए जाय, वहां के श्रावक दीक्षार्थी का बहुत इज्जत करें, पूजा में में लगे लोंगों की भक्ति करें तथा स्वयम् भी पूजा के काम में सक्रिय रूप से जुट जाय । 1 परिणाम स्वरुप श्री वीतराग प्रभू की पूजा में श्रावकों का कैसा ऊँचा कर्तव्य है ? उसकी अनुभूति अनेकों के हृदय में होने लगी । मौनी एकादशमी के प्रसंग में पूज्य श्री ने दीक्षार्थी के परिणाम की धारा को अधि निर्मल बनवाने के शुभ लक्ष्य से न बोलने द्रव्य मौन करते प्रभु-शासन की मर्यादा प्रमारण में संयमी जीवन जीने के रुप में भी मौन को महत्ता जतलाकर बारह मास के पर्व की तरह मौन एकादशी के महत्व को सर्व विरती - चारित्र को लगभग प्राप्ति तथा निर्मल- प्राराधना के दृष्टिकोण से समझाई | सुव्रत सेठ तथा श्री कृष्ण - वासुदेव के दृष्टान्त से द्रव्य भाव दोनों प्रकार से मौन एकादशी की आराधना पूण्य शालियों को किस तरीके से करना उसे भी अधिकारपूर्वक विस्तार से समझाया । दीक्षार्थी बहिन के मौह को घटाने तथा जीवन शुद्धि के परमार्थ की पहिचानने, प्रभु भक्ति का १४२ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कार्यक्रम प्रत्येक देहरासर में प्रारम्भ किया उसे पूज्य श्री ने बारंबार प्रोत्साहन देकर श्री संघ में प्रभुक्ति में कालबल से प्रागत व उपेक्षा शिथिलता की प्रवृति को हटाने के लिए वातावरगा का सृजन किया । बोच में प्रसंगोपाल पौष दशमी के दिन सर्वानाखेडा तीर्थ पर सकल श्री संघ के साथ जाकर श्री वातराग परमात्मा का जगत के लिए हितकारी किसलिए तथा किसप्रकार इसे व्याख्यान में सनभाया -" माह के संस्कारों पर विजय प्राप्त करने का भागीरथ पुरुषार्थ के अतिरिक्त जीवन में कुछ भी प्राप्त करने जैसा नहीं है " इस बात पर बल देकर प्रभु श्री पार्श्वनाथ के जन्म का सच्चा उद्यापन सर्वविरति मार्ग पर जाने के रुप में दिखाया। परिणाम स्वरुप दीक्षार्थी बहिन के सर्वविरति का परिणाम उच्च कोटि का हुग्रा । दीक्षार्थी के आग्रह से पूज्य श्री ने दोक्षार्थी के भावों को वृद्धि के लिए व्याख्यान में "सर्वविरति धर्म को महत्ता तथा वासनाविजय" पर शास्त्रीय व्याख्यान प्रारंभ किये । परिणामतः दो कुमारिकायें तथा एक विधवा बहिन को संसार की असारता का भान होकर जोरदार वैराग्य की स्पर्शना हुए । रोज पूज्य श्री के व्याख्यानों को सुनकर दृढ़ होती वैराग्य भावना के बल पर दोनों कुवारी बह्निों ने माता पिता की मोहमय धांधली १४३ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरे वातावरण पर विजय प्राप्त कर कुटबिम्यों को समझाकर पौष सु. 10 के दिन दीक्षा के मंगलमय मुहूर्त को निकलवाया। विधवा बहिन ने भी अपने कुटम्बियों को साथ लेकर मुहूर्त दिखाने का यह असर लाभ लिया । भावो योग से माघ सु. 3 का सुगन बाई की दीक्षा के लिए निश्चित मुहूर्त शान्ति कुमारी तथा भागवंती बहिन (कुमारिका) के लिये इसी प्रकार झत्रक बहिन (विधवा) के लिए यथोचित संगत ठहरा । इस प्रकार श्री संघ में अपूर्व हर्षोल्लास का वातावरण हुआ। क्योंकि मेवाड़ जैसे प्रदेम में एक नही दो नहीं, चार चार श्राविकानों जिनमें दो तो कुवारी यौवन की सीढ़ी पर पांव रखतो सत्रह से बाईस वर्ष का बालिकाये प्रभुशासन को शरण में जीवन समर्पित करने तैयार होने की बात से श्री संघ के आबाल वृद्ध सब में अनुमोदन के भाव तथा सयंम का प्रेम झलक उठा। श्री संघ को तरफ से पौष सु. 13 के मंगल दिन से चारों दीक्षार्थी बहिनों का दीक्षा प्रसंग में बंधाने के लिए अपने घर प्रांगण बुलाकर भक्तिपूर्वक भोजन कराकर बहुत सम्मान करने की शुरुआत हुई । भाँति भाँति के वाद्य यंत्रो के सुमधुर स्वर कोष के बीच में पालकी इत्यादि में बिठाकर शासन शोभा बढ़े इस रीति से दीक्षार्थियों के १४४ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वायणा' प्रारम्भ हुए । रोज प्रातः काल " वायणा" की शुरुआत हो तब दीक्षार्थी बहिने अपने अपने सम्बन्धी तथा श्री संघ के भाई-बहिन के साथ पूज्य श्री के पास वासक्षेप डलवाकर मांगलिक सुनने प्राते तब उत्तम श्रीफल द्वारा " गेंहूली" करके दीक्षार्थी वासक्षेप से ज्ञानपूजा करें तथा वंदना करके "इच्छाकारी भगवन पसाय करे हितशिक्षा पसाय कीजियेगा कहकर कुछ समय ग्रात्म हितकर विषय में समझाने की प्रार्थना करती थी । क्योंकि शासन - प्रभावना के उद्देश्य से धुरन्धर संयमी आत्माओं के बहुत मान की दृष्टि से ' पगला " करने का कार्यक्रम प्रातः नो बजे से सांझ तक चलता है । व्याख्यान का लाभ न मिले इससे दीक्षार्थी बहिने प्रातः पूज्य श्री के पास मांगलिक सुनकर वासक्षेप के समय हितशिक्षा की मांगरणी करती । 1 पूज्य श्री भी दीक्षार्थियों को उद्बोधन करते हुए महत्व को विचार जागृति तरफ अंगुली निर्देश करते कहते कि ये वाय क्या है ? वाचना शब्द का अपभ्रंश वायरणा दिखता है । परन्तु यहां वाचना लेने देने की बात तो कोई नहीं है तो वायणा शब्द का अर्थ ही बहुत गंभीर रहस्य की सूचना करता है । वह यह है कि समझपूर्वक त्यागवैराग्य के चढ़ते परिणामों के बल पर संसार के मोहक १४५ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातावरण तथा उत्तम पदार्थो का स्वच्छा से त्याग करने को . तैयार दीक्षार्थियों का बहुत मानपूर्वक भक्ति करने वाले विवेकी पुण्यात्मा विशिष्ट सुन्दर वर्णगंध-रस-स्पर्श वाले उत्तम खान-पान, पहनने ओढ़ने तथा गहने-जेवरात आदि संसारी पदार्थों से भक्ति को अधिक मान करने तैयार हो तब दीक्षार्थी समझपूर्वक चढते वैराग्य के बल से मन को अच्छे लगने वाले संसारी पदार्थों को हलाहल विष से भी बढ़कर अनिष्ट समझकर उन सुन्दर उत्तम पदार्थो को भो "ना-ना" कहकर वारण करे निषेध करें। भक्ति करने वाले जिस वस्तु का प्रसार करे तो यह त्याज्य है "यह नहीं चाहिए", यह उचित नहीं है " इत्यादि शब्दों से आन्तरिक हृदय के त्याग-वैराग्य के भावों को झलका कर सामने त्याग को बहुत मानपूर्वक संयम-धर्म के अनुमोदन का भाव जिसमें जगावे वह दक्षिार्थी करणानिषेध करने की प्रवृति जितका अपभ्श "दायणा' हुआ है। वह मात्र भोजन करने तथा बाहय बहुत मान के व्यवहार में रुढ़ होने लगा हो इत्यादि " दीक्षार्थी बहिनों ने यह सुनकर अपनी भूमिका के प्रमाण में अभिनव नियम-पच्चकखाण, अभिग्रह इत्यादि पूज्य श्री के पास प्रतिदिन प्रातःकाल वासक्षेप डलवाने प्रावे १४६ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब स्वीकार करके दीक्षार्थी के रुप में संयमी वैराग्यवत जीवन का पूर्वाभ्यास करने लगे । लोग भो दोक्षार्थी की ऐसी चढ़ती भवना तथा छूट से मनवांछित पदार्थों के सुलभ होने पर भी त्याग, व्रतनियम, पच्चक्खाण. अभिग्रह आदि को धारण कर अपने स्वयं को काबू में रखने के संघर्षरत दीक्षार्थियों की उदात्त भावना खुले हृदय से अनर्गल अनुमोदन करने लगे । इस अवधि में पूज्य श्री को समाचार मिला कि पूज्य गच्छाधिपति मूलचंद जी म. के खास प्रीति - पात्र पंजाब देश में जिन धर्म की प्रबल प्रभावना करने वाले पू. श्री आत्माराम जो म. दिल्ली की तरफ पधारे है तथा गुजरात की दिशा में पधारने को हैं । तो दिल्ली से उदयपुर होकर पधारें तो केसरिया जी कोयात्रा हो जाय साथ ही उदयपुर में जिन शासन की जबरदस्त प्रभावना हो, क्योंकि स्थानकवासी साधुपने में बाईस वर्षं रहकर प्रबल विद्वान तथा प्रतिष्ठापात्र होने पर भी सत्य-तत्व को संयुति होने पर भी उन्होने अठारह साधुओं के साथ संवेगी-दीक्षा स्वीकार कर प्रभुशासन की स्वामीभक्ति व्यक्त की ऐसे महापुरुष उदयपुर में पधारें तो यहां की जनता को परमात्मा के शासन का दृढ़ विश्वास हो जिससे उदयपुर श्री ૨૪૭ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ से बात करके प्रमुख व्यक्तियों से ग्राग्रहभरी विनती वाला पत्र लिखवाया जिसका गर्भित उत्तर रूप पूज्य श्री पर निम्नानुसार आया : " ' स्वस्ति श्री शैवा - देवदेव- पद पयोजनि-युगलं प्रणिपत्य मनसा संचिरतार्थ साधुजाति रम्यमुदयपत्तननामक निन्दिरालयं निगम वरमधिष्ठितेभ्यः सत्प्रतिष्तिभ्यः प्रख्यात्चिविलासेभ्यो विद्वज्जन प्रधानेभ्यो मुनिभ्यः श्रीमद् भवेराणापतिभ्यः इन्द्रप्रस्थात् मुनि श्री मदानंद विजियादिनां वन्दनानि च प्रवतुतराम् । शमत्र तत्राप्यस्तु अपरंच समाचार वंचना - पत्र आपको प्रायो, पढके चित्त को श्रानंद हुआ। आपने जो दयानंद की बाबत लिखा सो ठीक है, अब दयानंद का क्या हाल है ? सो लिखना जी, आगे आपके श्रावकों की विनती पहुंची सो हमारो तरफ से धर्मलाभ कहना जी । चिट्ठी जो देर से लिखी गई है सो विहार होणे की सबब से, श्रागे यहां दिल्ली में ठाणे 20 है सा दो तथा तीन रोज में जयपुर तरफ विहार करने का, सो आपको मालुम हो । सुखशाता का पत्र जयपुर कृपाकरी देणाजी, चिट्ठी लिखी सति माह विद 8 भंडारी हीराचंद की वंदना 108 बार मालूम होवे । गुरु दया किरपा करके लिखजो " । ૧૪૬ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयपुर गोड़ी जी म- का उपाश्रय प्राप्त पुराने पत्रों में से मिल पाया एकपत्र...... प. श्री आत्माराम म. के इस पत्र में पूज्य श्री पर भारोभार हार्दिक बहुत सम्मान झलकता है। पूज्य श्री व उदयपुर श्री संघ को भेजी गयी विनती की पहुंच इसमें है । परन्तु गुजरात तरफ जाने की उतावली या अन्य कोई महत्व के कारण उदयपुर तरफ आने का निर्देश इस पत्र में नहीं है। ___ऐसे महिमाशाली पौढ़-प्रतापी पूज्य श्री दीक्षार्थी बहिनों का भावोल्लास की वृद्धि करने विशिष्ट पर्वो के रहस्यों को व्याख्यान में निस्तारण युक्त पेश करते रहे । दीक्षार्थीयों ने पूज्य श्री की प्रेरणा उपदेश को बराबर ग्रहण कर भक्ति करनेवाले चाहे जितने आग्रह के वश में नहीं होते हुए भी संयमपूर्व भूमिका को मजबूत करने जैसे वासनानिग्रह में सफलरुप से यशस्वी निखर आये। यों करते हए पौष विद 13 जो शास्त्रीय माह विद 13 कहाता है- जिसको मेरुत्रयोदशी के रुप में युगादिप्रभु श्री ऋषभदेव भगवंत के निर्वाण-कल्याणक के साथ जुड़ा हुआ महापर्व के रुप में कहा जाता वह दिन आया। पूज्य श्री ने व्याख्यान में अत्यधिक भारपूर्वक कहा-"प्रभु ऋषभदेव की १४६ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण-भूमि तो अष्टापद की है, मेरूपर्वत पर कोई कल्याणक हा नहीं है तो आज का दिन "मेरुतेरस'' क्यों ? " इस प्रश्न को पेश किया। स्पष्टीकरण रुप में पुज्य श्री ने कहा कि-जैसे मेरुपर्वत अखिल विश्व के मध्य भाग में है उसी प्रकार मेरुपर्वत की समभूमितल से दिशा विदिशाओं में प्रत्येक वस्तु का अन्तर नापा जाता है । इसी तरह अवपिणी काल में अठारह सागरों में गम्भीर मिथ्यात्व के अंधकार उलीचकर प्रभुशासन की सर्वप्रथम स्थापना करके जगत में आत्मा का हित किस में ? अपना कर्तव्य क्या? इस बात पर विश्वास को । अतः मेरुपर्वत की तरह प्रभु श्री ऋषभदेव अपने आध्यात्मिक क्षेत्र के मानदण्ड रूप बने । वैसे ही प्रभु के निवाण-कल्याण की आराधना आज के मंगल दिन भावों के चढ़ने पर विवेकपूर्वक करके जीवन में आज्ञारुप मेरु के मानदण्ड से अपनी आराधनाएं कितनी कार्यक्षम होती है ? उसका समझपूर्वक ज्ञान सीखना जरुरी “ आदि समझाकर सबको आज्ञानुसारणयुक्त जीवन बनाने की प्रेरणा दी। भावी योग से दीक्षार्थियों में से सबसे अधिक लाभ कौन ले, ऐसी होड़ा होड़ो में व्यर्थ में वातावरण कलुषित न हो उसी प्रकार किसी की भावना को ठेस न लगे इससे पूज्य श्री की सूचना से श्री संघ में चारों दीक्षार्थियों को १५० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वैच्छा से जो देना है उसे लेकर “दीक्षा महोत्सव श्री संघ की ओर से करना ही. तय कराया। वह जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव विद 11 से प्रारम्भ हुआ जिसमें विविध पूजा श्रावकगण अंतरंग भक्ति से दोपहर के समय पढ़ाते । दीक्षार्थी बहिने भी स्नात्रिया के रुप में खड़े रहकर भव समुद्र से तारने वाले प्रभु शासन की आराधना को सम्पूर्ण सक्रिय रीति से पालन करने के लिए, सर्वविरतिजीवन को सफल आराधना के लिए अष्टप्रकारी पूजा रुप द्रव्यस्तव की प्रासेवा भाव स्तव-प्राप्ति के सफल उद्देश्य से करने का प्रयत्न करने लगे। __ माध सु. 1 के दिन पूज्य श्री ने चारों दीक्षार्थी बहिनों को साध्वी जी के म. के साथ बुलाकर चरित्र-धर्म की सफल आराधना के लिए पांचवे पारा में जरुरी पांच समिति, तीन गुप्तिका जयणमय पालन, गोचरी के बयालीस दोषो तथा मांडली के पांच दोषों की समझ, चरण सितरीकरण, सित्तरी की सूचना प्रादि प्राथमिक विषयों की जानकारी देकर संयम जीवन में पूरी तरह से अघटित अकर्तव्यरूप कितने ही प्रसंगों को नियम पंचकूखाण कराया। माघ सु. 2 दोपहर श्री संघ की तरफ से जल यात्रा की Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्यरथ यात्रा थी जिसमें दोक्षार्थी चारों बहिनें मोरचे पर लड़ने जाते फौजी शिक्षण वाले मिलट्रीमेन को तरह संसार के भीषण वातावरण में से बाहर निकल कर स्वौच्छा से सयम धर्म की पालना के द्वारा उद्दी रणादिपूर्वक कर्म सत्ता के जूझने के लिए आवश्यक भावना के साथ पूज्य श्री के पास उमंगयुर्णक वासक्षेप डलाने जगत के सर्वोत्तम पदार्थों को भी मुक्त मन से त्याग कर देने के प्रतीकरुप वर्षीदान की प्रक्रिया खूब उमंग से की। ___ रथ यात्रा पूरी होने पर सीधे साध्वी जी म. के उपाश्रय में दीक्षार्थी बहिने गयी। वहां प्रतिक्रमण करके, संथारा पोरसी पढ़ाकर सोकर प्रातः जल्दी उठकर संयम मार्ग पर सरलतापूर्वक प्रयाण हो सके इस उददेश्य से श्री नमस्कार महामंत्र का विशिष्ट जप किया। योग्य समय प्रतिक्रमण किया। धर्मोपकरण का पडिलेहण किया। पास के ही घर पर परिमित जल से अंग शुद्धि करके श्री सहष्त्रफणा पार्श्वनाथ प्रभु के देहरे तथा गोडी जी डेरी पर भावपूर्वक अष्टप्रकारी पूजा स्नात्रपुजा के साथ करके पू. गुरुदेव श्री का वासक्षेप लेकर दीक्षा के लिए निर्धारित स्थल पर शासन प्रभावना पूर्वक ससमय उपस्थित हो गये । पूज्य श्री भी दीक्षा के लिए क्रिया-मंडप यथासमय १५२ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपस्थित हो गये । योग्य समय पर राजेहरण-प्रदान हुआ। बाद में संसार के भार को उतारने के प्रतीकरुप कच्चे पानी से स्नान करके वेश परिवर्तन क्रिया हुई, तत्पश्चात पूज्य श्री के पास आकर शेष विधि की " करे निमत्ते" सूत्र द्वारा सम्पूर्ण संसार का त्याग करने के रूप में सर्व - विरति का पंचकखान स्वीकार कर अन्तिम दिग्बंध द्वारा चारों दीक्षार्थियों ने संसार बिल्कुल याद ही न आवे इस उद्देश्य से अपने नाम भी नये स्थापित कराये । पश्चात सकल श्री संघ के साथ चौगान के श्री पद्मनाथ प्रभु के दर्शन करके चैत्यवंदन करके पूज्य श्री के उपाश्रय पर पधारें। पूरे उदयपुर शहर में पूज्यश्री की निश्रा में सम्पन्न दीक्षा के यह प्रसंग जैन एवं जैनेतर सब लोगों को खूब प्रेरणादायी सिद्ध हुआ । पूज्य श्री ने माघ सु. 5 के विहार की तैयारी करके नवीन दीक्षितों के सम्बन्धियों का योग वहन कराके बड़ी दीक्षा के लिए विज्ञप्ति कराकर इस सम्बन्ध में स्थिरता लाने का आग्रह किया । पूज्य श्री ने कहा कि महानुभावों ! आप कहते हैं जो ठीक है | किन्तु भी प्रथमिकशाला में लोग भरती हुए हैं । अभी कुछ दिन इन्हें पूरी तरह से अभ्यास करने दो, बड़ी दीक्षा कोई मामूली चीज नहीं । आप लोगों की निगाह में यह छोटी दीक्षा बड़े महत्व की है क्योंकि आप लोगों का १५३ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह माया का बंधन छूटना आसान नहीं । किन्तु हमारे लिए तो शास्त्रकारों का निर्देश है किछोटी दीक्षा के बाद छ- काय की जयणा, पांच समिति तीन गुप्तिका पालन- जयरणा का पूरा ख्याल, आहार-विहारादि में साधुता का अभ्यास और साधुचर्या पूरी तरह से नवदीक्षित आत्मसात् कर लें फिर योगयता की ज च के बाद पंच महाव्रत रुप बड़ी दोक्षा योग्य क्षेत्र-शुद्धि एवं पंचांग शुद्धि तथा ग्रहों का विशिष्ट बल आदि देखकर दी जाती हैं इसमें उतावली ठीक नहीं । अभी बड़ी दीक्षा का मुहूर्त है भी ठीक नहीं। वैसाख में अच्छा दिन आता है, तब तक नूतन दीक्षितों को साधुचर्या का ठीक ढ़ंग से प्रासेवन करने दो " आदि । दीक्षार्थियों के सम्बन्धियों ने इस बात को सुनकर विनती के भाव से बोले कि- "बापजी सा ! इन सब बातों की ताक भी कांई जाणे ? परन्तु बापजी । वैसाख में पधारनो पड़ेला मे फिर से आपके पास आवांगा ही । पर ग्राप माकी बात जरुर ध्यान में रखजो । " पूज्य श्री ने "वर्तमान जोग" "जेसो क्षेत्र स्पर्शना" का जवाब देकर साधु समाचारी का भान कराया । पूज्य श्री ने संघ के बहुत आग्रह फाल्गुन चौमासे के लिए होते हुए भी माघ सु. 5 प्रातः करेड़ा जी तीर्थं तरफ जाने के लिए विहार किया । वहां से पूज्य श्री रेलमगरा, १५४ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपासन आदि गांवों में स्थिरतापूर्वक विचरण करके श्रामेट चारभुजा रोड़ तक विचरण करके संवेगी साधु जों विचरण के अभाव में माग से विमुख बनें । अनेक जैनों को प्रभुशासन तरफ मोड़ा । चित्तौड़ तोर्थ चैत्री झोली की भावना से चैत्र सु. 3 लगभग चित्तौड़ शहर में पधारे । पूज्य श्री के व्याख्यानों से वहां की जनता लगभग बाहर वर्ष से परिचित हो चुकी थी । परन्तु उस समय रतलाम अचानक जाने का होने से अनेक जिज्ञासुत्रों की धर्माकांक्षा प्रधूरी रह गयी । परन्तु भावी योग से पूज्य श्री के पुनरागमन से अनेक भाविक लोग पूज्य श्री का लाभ लेने लगे । प्रातः के व्याख्यान, दोपहर रात्रि प्रश्नोत्तरी आदि से जैन तथा जैनेतर जनता पूज्य श्री के प्रगाध ज्ञान से प्रभावित हुए । धर्मप्रेमी जनता ने पूज्य श्री को स्थिरता के लिए आग्रह किया। शाश्वत चैत्री - श्रोली की आराधना का महत्व समझाने के साथ मकल जिन शासन के साररूप श्री नवपद जी की अरावना का महत्व ओजस्वी दो में समझाकर अनेक पूण्यात्माओं को श्री नवपद जो की शाश्वत आराधना के प्रतीकरूप चैत्री प्रोली करने के लिये प्रेरणा दी । अनेक पूण्यवानों ने तैयारी करके पूज्य श्री ने भी लाभालाभ समझकर स्थिरता की, पूज्य श्री के व्याख्यान श्रवण से विशिष्ट प्रेरणा प्राप्त कर खूब उमंग से नवपद जी १५५ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विधिपूर्वक आराधना खूब ठाठपूर्वक सम्पन्न हुई । उसमें चैत्र सु. 14 के व्याख्यान प्रसंग में उदयपुर श्री संघ के प्रमुख सात आठ श्रावक तथा दीक्षार्थियों के कुटुम्बी जन उपस्थित होकर "वैसाख में बड़ी दीक्षा कराने के लिए आप श्री उदयपुर पधारों' ऐसी जानदार विनती की । पूज्य श्री ने चैत्र विद 2 चित्तौड़ से विहार करके चैत्र वि. 10 लगभग उदयपुर पधार गये । पूज्य श्री के पास विद 10 दोपहर श्री संघ के प्रमुख तथा दीक्षार्थी के कुम्टुबीजनों ने सम्मिलित होकर बड़ी दीक्षा की मांग की । पूज्य श्री ने साध्वी जी म. को मिलकर नवदीक्षितों की चर्या की बात सुनकर विद 13 को मुहूर्त देखने को बात कही । विद 13 के दोपहर पुन: श्री संघ के आगेवान तथा दोक्षार्थियों के कुटम्बोजन बड़ी दीक्षा के मुहूर्त के सम्बन्ध में मिले । अतः नूतन दोक्षार्थियों को योगवहन कराना बाकी रहने से पन्द्रह दिवस बाद के दो मुहूर्त प्रदान किये "वैसाख विद 7 तथा ज्येष्ट सुद }} 3 साथ ही यों कहा कि " महानिशीथ के योग किये हुए योग तो मैं करा दूंगा लेकिन बड़ी दीक्षा मुझ द्धारा नही दी जा सकती इसलिए घाणैराव में बिराजमान पू. पं. श्री सौभाग्य विजय जी म. को विनती कर बुला लाइये । "" संघ के प्रमुख जन तथा दीक्षार्थियों के कुटम्बीजनों ने तत्काल घाणेराव जाकर पू. झवेर सागर जी म. का पत्र १५६ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताकर बड़ी दीक्षा हेतु उदयपुर पधारने को ग्राग्रह भरी विनती की, वै. सु, 7 को विहार कर तथा विहार में दो भाई साथ रहेंगे ऐसा निश्चित कर संघ के प्रमुखजनों ने पूज्य श्री को समाचार दिये । विद 14 से नूतन दीक्षितों को मांडलिया योग में पूज्य श्री प्रवेश कराया । वे सु. 14 के लगभग पू पं. श्री सोभाग्य विजय जो म, उदयपुर पधारे भव्य प्रवेश महोत्सव हुआ । उसी दिन से बड़ी दीक्षा के निमित्त श्री संघ की तरफ से श्री सहस्त्रपणा पार्श्वनाथ प्रभु के जिनालय में भव्य जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव प्रारंभ हुआ । पूज्य श्री के तपोबल तथा वासक्षेप के प्रताप से चारों नूतन दीक्षितों की बड़ी दीक्षा वैशाख वि. 7 के मंगल दिन के प्रथम प्रहर 9.37 मिनिट पर निर्विघ्न हुई। उस समय संघ के प्रमुखजनों ने पूज्य श्री के चातुर्मास की विनती की। उदयपुर के कितने ही जीर्णता प्राप्त देहरासरों के जीर्णोद्वार के सम्बन्ध में मंगल प्रेरणा त्यों ही पुनीत मार्ग-दर्शन की प्रमुख ग्रावश्यकता पर जोर देकर श्री सघ ने पूज्य श्री के चातुर्मास की जय बुलवा दी । पूज्य श्री ने भी नूतन दीक्षितों की बाकी के योग तथा सात प्रांबिल इत्यादि पूर्ण कराने में जेठ सुद पूरा हो जाय जिसके बाद प्रार्द्रा नक्षत्र समीप होने से वर्षा के कारण विहार में विघ्न विराधना अधिक हो ऐसा समझकर संघ की बात १५७ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का स्वागत किया । पूज्य श्री सौभाग्य विजय जी म. ने भो श्री संघ में स्थिरता चौमासे के लिए बहुत आग्रह किया फिर भी घाणेराव श्री संघ में महत्वपूर्ण कार्यों के लिए चातुर्मास लगभग निश्चित सा हो गया है अतः वै. वि. 10 विहार पून: घाणेराव की तरफ पधारे । इस तरह पूज्य श्री का वि. सं. 1940 का छठवां चातुर्मास संयोगवश उदयपुर में हुआ । चातुर्मास दरमियान श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति तथा श्री परिशिष्ट पर्व का व्याख्यान वाचन हुआ । प्रसंग-प्रसंग में ही श्रावक जीवन में विरति धर्म की महत्ता समझाने के आशय से द्रव्यस्तव के विधिपूर्वक करणीयता के सम्बन्ध में खूब प्रकाश प्रसारित हुआ । चातुर्मास की अवधि में ही चौगान के देहरासर में अव्यवस्था आदि से हो रही अशातना को टालकर निर्माणादि को व्यवस्था में हो रही शिथिलता को दूर कर प्रभु जी के चक्षु टीका माभुषणों तथा पूजा सामग्री में घटित योग्य फेरफार कराकर श्रावकों को अपने कर्तव्य में दृढ़ कराया । चातुर्मास में कपड़वंज मे पू. चरित्रनायक के पिता श्री मगनभाई के बारबार पत्र माते जिसमें उन्होने दीक्षा हेतु प्रवल इच्छा व्यक्त की । साथ ही साथ सांसारिक अवरोधनों की भयानक उलझनों में से छूटने का उन्होने बारंबार आग्रह किया । १५८ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असोज माह में पत्र द्वारा पूज्य श्री को संसार से बाहर निकालने की कितनी ही व्यावहारिक विषयों की गुथी सुलझाने के लिए कपड़वंज श्राने की श्राग्रह भरी विनती की । इस अवधि में कपड़वंज के भाई श्री चिमनलाल को बीस स्थानक तन -नवपद तप तथा ज्ञान पंचमी तप की समाप्ति के प्रसंग में उद्यापन करने की इच्छा जागृत हुई । चिमन भाई के धर्म क्रिया में सतत साथ रहने वाले मगन भाई को पू. चरित्र नायक के पिता जी प्रासंगिक बात की कि- " मुझे ऐसी भावना हुई है ! क्या करना चाहिये ? कौन से महाराज को बुलाऊं ? तुम अधिक जानकार हो । साधुओं के परिचित भी अधिक हो | अतः कुछ योग्य मार्गदर्शन दो । 19 मगनभाई को जो रुचे वही वैद्यने कहा " " यदिष्ट वैद्योपदिष्ट" न्याय के अनुसार कपड़वंज श्री संघ की तात्विक रीति खे नाड़ी परीक्षण करके धर्म भावना में सानुबंध- वृद्धि करने के लिए पू. श्री झवेर सागर जा म. ने सब प्रकार से अनुकुल हो जाय ऐसा विचार कर चिमनभाई से कहा कि 'महानुभाव ! आपकी भावना उदात्त है । अनुमोदनीय भी है । ऐसे रंग में उत्तम चरित्र सम्पन्न तथा तत्व के जानकार मुनि भगवंत को लाने से अपने कार्य को सच्ची सफलता मिले, साथ ही अनेक बाल जीव भी शासन के अनुरूप बने | इससे मुझे ऐसा लगता है कि पू. श्री झवेरसागर को म. जो आज के युग में आगम के श्रेष्ठ जानकार १५६ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौढ़ व्याख्याता तथा शासन प्रभावक हैं । अब श्री संघ में धर्म भावना को अधिक जाज्वल्यमान करने के लिये भी उन श्री की खास जरुरत हैं । वे अपने वहां लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व पधारे थे। आज भी धार्मिकों के हृदय से उनकी झनझनाहट खिसकी नहीं है। इससे यदि तुम्हें ठीक लगे तो हम श्री संघ से बात करके पूज्य श्री को यहां पधारने की बात का संयोग बिठावें।" चिमन भाई ने कहा कि-मगन ! तुम कहो सो सत्रह आना। तुम्हारी बात में विचारने का क्या है ? हम श्री संघ के प्रमुख व्यक्तियों से आज सायंकाल मिलें । तुम साथ प्राओं तो उत्तम ।" मगन भाई के मन में गलगिली हुई कि वाह-वाह मेरा पूण्य उत्तम तप का लगता है । देव गुरुकृपा से मेरे संयम के मार्ग में आने वाले अवरोधों को हटाने के लिए पूज्य श्री की यहां खास आवश्यकता है। तो वैसा संयोग कुदरत से ही खड़ा हो गया है।" इस प्रकार विचारते हुए मगन भाई ने सायंकाल प्रतिक्रमण के पश्चात श्री संघ के अग्रगण्यों को मिलने जाने का चिमन भाई के साथ तय किया। उस दिन आसोज सुद 13 का दिवस था, श्री संघ के किसी महत्वपूर्ण कार्य के सम्बन्ध में बड़े देरासर जी के वहां श्री संघ के अग्रगण्य एकत्रित होने वाले थे। अवसर देखकर . मगन भाई भगत तथा चिमन भाई प्रतिक्रमण करके जल्दी १६० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सामयिकपालन कर अग्रगण्य जहां एकत्रित होने थे वहां जा पहुंचे कुछ ही देर में सब प्रमुख जन आ गये । उन सब ने कुतूहल तथा भक्तिभाव से पूछा “अरे मग भाई आज यहां कैसे ? श्री संघ के काम से कितनी ही बार बुलाते हैं फिर भी वे अपने क्रिया कांड तथा स्वाध्याय से फुर्सत ही नहीं पाते । आज यहां क्यों ?'' "क्यों भगत जी ! हमारे लायक कोई कामकाज ?" इतने में मगन भाई ने सब बात की और कहा कि पूज्य श्री से उदयपुर विनतो करने जाने की भावना है । श्री संघ इस पर विचार करें । अहोहो ! यह तो "मोसाल में मों का परोसना हुया" हम तो कभी से ऐसे प्रसंग की राह देख रहे थे। अवश्य ही श्री संघ की तरफ से तीन व्यक्ति और दो आप यों पांच व्यक्ति ‘शुभस्य शीघ्रम्" उत्तम काम में शीथिलता नहीं, "प्रासोज सु 15 को जा पायो !'' मगन भाई अन्तरमन से खूब प्रसन्न हुए। देवगुरु की अचित्य कृपा के कारण मनोमन गद्गद् हो रहे। आसोज सु. 15 की शुभ वेला में पाचों व्यक्ति उदयपुर रवाना हुए । आसोज विद द्धितीया पूज्य श्री के पास पहुंचे गये । व्याख्यान चाल था । व्याख्यान में- "शाश्वत चैत्य एवं उनको यात्रा करके देवगण विरति-धर्म प्राप्ति के लिये कैसी इच्छा रखते है ? यह अधिकार मगन भाई के अन्तर में स्पर्श १६१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर गया । आंखों में आर्द्रता झलक गई, “विरति धर्म की भूमिका को स्वयं ऐसे गुरुदेव के मार्ग दर्शन में कब शिरोधार्य करूंगा?" यह मंगल भावना प्रबल हुई? व्याख्यानोपरान्त पूज्य श्री से मिले, सम्पूर्ण बात हुई । पूज्य श्री ने कहा कि "भाई ! कार्तिक पूर्णिमा पूर्ण विहात किस प्रकार किया जा सकता है ? कार्तिक 15 बाद की योजना अभी से करनी उचिर नहीं'' “आड़ी रात उसकी क्या बात" कहावत के प्रमाण से साधू लोग मोटे रूप में भविष्य की कोई योजना घड़ने के कष्टप्रद ध्यान में नहीं पड़ते इत्यादि । ‘साहब ! बात सत्य है । आपका प्राचार हम तोड़ना नहीं चाहते । हम तो कार्तिकपूर्णिमा के पश्चात आपको अन्य क्षेत्र की विनती या अन्य कोई कारण आ जाय तो हमारो बात को प्राथमिकता मिले इतना सूचन कराने के लिए आये हैं। ___ अधिक में श्री कपड़वंज श्री संघ के अग्रगण्यों ने कहा कि “ साहेब ! कपड़वंज क्षेत्र में आपने धर्म के जो बीज बोये हैं वे अब सिंचन के अभाव में कुम्हलाने लगे हैं, अतः कृपया उस तरफ का पूर्णिमा के बाद पधारने का विचारियेगा।' "अनुकूल होने पर का. पूर्णिमा लगभग फिर से विनती करने के लिए आवेगें, परन्पु आपका ध्यान हमारे श्री संघ की तरफ फिराने के लिए आज आयें हैं।" मगन भाई भगत ने विनती की कि- “मुझ जैसे को संसार के कीचड़ में से आप सिवाय १६२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन निकालेगा? मेरे आत्म कल्याण के लिये वैसे ही इन चिमन भाई की धर्म पत्नी में उद्यापन करने का शुभ भाव जो जागृत हुअ है उसको सफलता के लिये आप जैसे शास्त्रज्ञगीतार्थ मुनि भागवंत वहां पधारें तो शासन की सानुबन्धप्रभावना हो “आदि । पूज्य श्री के क्षेत्र स्पर्शना "वर्तमान यो" कहने के साथ अहमदाबाद में विराजमान पू. गच्छाधिपति श्री मूलचन्द जी की जैसी आज्ञा' कहकर संक्षेप में साधू तथा श्रावक के कर्तव्य की भूमिका समझाई । मगन भाई समझ गये कि"अहमदाबाद से प्राज्ञा लावें तो बात पूर्ण हो जायेगी"। अतः मगन भाई ने श्री संघ के अग्रगण्यों से कान में कहा किअब यहां अधिक कहने जैसा नहीं है। यहां लगभग सम्मति है । हम लोग अहमदाबाद जाकर पू. गच्छाधिपति पास से पत्र लिखवाने को आवश्यकता है । "कपड़वंज के श्री संघ ने ज्ञान पूजा की, वासक्षेप डलवाकर मांगलि श्रवण किया। इस प्रकार सं. 1940 के चातुर्मास में आसोज विद द्धितीय लगभग पूज्य श्री के कपड़वंज की तरफ जाने का संयोग खड़ा हुमा। कपड़वंज के श्री संघ के आगेवानो दीपावली के पूर्व पूज्य श्री गच्छाधिपति मूलचन्द जी म. के पास जाकर अपनी सारी बात कहकर पू. झवेर सागर जी के उदयपुर से कपड़वंज पधारने की आज्ञा फर्माने की विनती Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की। पू. गच्छाधिपति ने पत्र व्यवहार करके तुमको योग्य सूचना देगें ऐसा आश्वासन देकर विदा किया। उसके बाद पूज्य गच्छाधिपति ने पू. झवेर सागर जी म. को पत्र लिखकर पूछाया, अतः पूज्य श्री ने लिखा कि "साहेब एक के बाद एक धर्म कार्य के कारण मुझे अाज सात चातुर्मास उपरा-ऊपरी यहां हो गये हैं। समाचारी के अनुसार इस गिरते समय में न आवे तो प्रभुशासन की मर्यादायें अस्त व्यस्त हो जायगी। मैने तो यहां बहुत चक्कर किये, अन्य स्थान विहार के लिए गया, परन्तु ऐसे ऐसे कारण से फिर यहां आना पड़ा तथा सात चातुर्मास उपराऊपरी हुए । अतः आप श्री मुझे इस क्षेत्र से अन्यत्र विचरने की आज्ञा प्रदान करें तो उत्तम हो । ___ इस मतलब का पत्र व्यवहार हुआ। कुल मिलाकर पूज्य श्री के पत्रों से पू. गच्छाधिपति श्री पूज्य श्री के हृदय की बात समझकर शासन के कार्य से समाचारी के पालन में अपवाद भुगतनापड़े उसका अधिक दोष नहीं लगे प्रादि जताकर पू. गच्छाधिपति ने का. 12 के अन्तिम पत्र में दर्शाया कि-" कपड़वंज वालों की भावना तुम्हारे ऊपर अधिक है पहले भी आप गये थे तब धर्म भावना बढ़ी थी । तो उस श्री संघ का लाभार्थ अब का. वि. 3 के मंगल दिन कपड़वंज की तरफ़ विहार करों यही इष्ट है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे लोग मेरे पास मुहूर्त दिखला गये है। पहला मुहूर्त माघ. सु. सप्तमी का आता है, दूसरा मुहूर्त माघ सु 3 अथवा दसमी को पाता है । आपके पांव में तकलीफ है, इसके साथ के साधुओं को अनुकूलता बराबर नही । अतः माघ महीने का मुहूर्त लेना । रत्नत्रयी की आराधना में उद्यत रहना । शरीर सम्हालना । चाहिए प्रादि वस्तु मंगवाना, लि. सेवक गोकुल की वंदना सं. 1942 का. सु. 12 पूज्य श्री एक ही क्षेत्र में अधिक रहने में शास्त्र-दृष्टि से अनुचित लगने से पू. गच्छाधिपति की आज्ञा प्रा गई अतः कार्तिक सु. 14 के व्याख्यान में चातुर्मास बदलने की आग्रह भरी विनती हुई । पू. गच्छाधिपति श्री का पत्र कपड़वंज वालों की बात इत्यादि की घोषणा करके कार्तिक वि. का विहार की सूचना प्रकट कर दी। सम्पूर्ण श्री संघ खलबला उठा । पूज्य श्री के रहने से उदयपुर श्री संघ में अलौकिक धर्म जागृति पाई हैं । धर्मशासन पर के अनेक आक्रमण टले है तो पूज्य श्री यहां अब अधिक स्थिरता करे वैसा आग्रह करने लगे । परन्तु पूज्य श्री अधिक बात न करके मौन धारण करके पू. गच्छाधिपति की आज्ञा को आगे करके बात को शमित करने का प्रयत्न किया। पूर्णिमा के दिन चातुर्मास परिर्वतन के प्रसंग में श्री संघ में Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खूब प्राग्रह भरी विनती की । मौन एकादशी तक दृढ़ आग्रह रखा । परन्तु पूज्य श्री ने कहा कि-" पू. गच्छाधिपति ने का. व. 3 का विहार लिखा है, अब मुझसे नही रहा जा सकता “आदि अन्ततः श्री संघ के अग्रगण्य व्यक्तियों ने एक अर्ज की कि- “साहेब ! हमारे श्री संघ पर या शासन पर कोई ऐसी आपत्ती आवे और हम आपके पास दौड़ते आवें तो आप अवश्य यहां पधारना ! इतना वचन दीजिये ! " हां ना में थोड़ा समय गुजरा । अन्ततः शासन के काम में श्री सघ जब भी याद करेगा तब में अनुकूलता मूलव प्रभुशासन के सेवक के रूप में हाजिर होने का वचन तो साधू से नहीं दिया जा सकता परन्तु पूर्णरुपेण प्रयत्न करके आने को तजबीज करूंगा!" श्री संघ ने जोरदार शब्दों में शासन की जय बोलायो तथा पूज्य श्री की बात का स्वागत किया। का.वि.3 के दिन पूज्य श्री ने प्रातः विहार करके केरिया जी की तरफ प्रयाण आरंभ किया। श्री संघ के अनेक भाविक केशरिया जी तक पांव पैदल चल कर पूज्य श्री के साथ गये । पूज्य श्री केशरिया जी से डूंगरपुर होकर टीटोई के श्री मुहरी पार्श्वनाथ जी की निश्रा में एक सप्ताह रह कर मोड़ासा से दहेगाम होकर पूज्य श्री के दर्शन-वंदन बारह वर्ष के पश्चात होने से १६६ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खूब उमंग से अहमदाबाद वंदन करने जाने की भावना दर्शाई । परन्तु पू गच्छाधिपति ने लाभालाभ का विचार कर मोड़ासा से लूनावाड़ा होकर सीधे कपड़वंज जाने की श्राज्ञा फर्माई | कपड़वंज वाले भी ठेठ केसरिया जी से साथ थे । उनका भी कपड़वंज तरफ पधारने का अधिक आग्रह था । अन्ततः पौ. सु. पंचमीलगभग लुनावाड़ा पधारे तथा पोष वि. द्वितीया के पूज्य श्री धामधूम से महामहोत्सव पूर्वक कपड़वंज में श्री संघ के भव्य स्वागतयुक्त पधारे । व्याख्यान में श्री पंचाशक - ग्रन्थ के आधार पर तपधर्म तथा उसके उद्यापन की महत्ता - शास्त्रीय विधि पर विवेचन प्रारंभ किया । श्री संघ में अनोखा धर्मोल्लास जागृत हुआ। अन्य भी पुण्यात्माओं ने तपधर्म की महता समझाई । उसके उद्यापन के लिए भाव जागृत हुआ । परिणाम स्वरूप ग्यारह छोड़ का उद्यापन श्री संघ की तरफ से निश्चित हुआ । तथा घूमवाम से भव्य अष्टान्हिका महोत्सव माह सुद तृतीया से प्रारंभ हुआ । प्रभुभक्ति में रखने योग्य " जयणा" तथा विधि के ख्याल पर भार रखकर श्री सघ के भाविकों ने कपड़वंज के समस्त जिन मन्दिरों में स्वहस्ते स्वद्रव्य से एक एक प्रभु जी की सेवा, पूजा, भक्ति, आशातना निवारण आदि महत्वपूर्ण कार्यक्रम को प्रमुख बनाकर सबको प्रभुभक्ति की यथार्थ भूमिका का १६७ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय कराया । आनन्दपूर्वक शान्ति स्नात्र के साथ महोत्सव पूरा होने के बाद पूज्य श्री विहार का विचार करते थे परन्तु मगन भाई भगत ने माघ सु. 14 की पौषध में रात्रि में पूज्य श्री के सम्मुख अपने हृदय की अन्तर्व्यथा व्यक्त की । अश्रुपात द्धारा हार्दिक वेदना को उडेला, भीषण सांसारिक दावानल से बचाने आजीजी की । अतः पूज्य श्रीं मगन भाई के संयम ग्रहण के मार्ग में आने वाले अवरोधों की गुत्थी को सुलझाने योग्य मार्गदर्शन जरूरी समझकर श्री पंचाशक ग्रन्थ की विवेचना व्याख्यान में प्रारंभ की । और भी श्री गच्छाधिपति श्री ने भी कपड़वंज के श्री संघ के महत्व के काम की सूचना पत्र द्धारा दो हो ऐसा मालूम होता है । उस समस्या के हल के लिए भी स्थिरता करना उचित लगा। वह पत्र निम्नानुसार है :____ श्री अहमदाबाद से लि. मुनि मूलचन्द जी की सुखशाता वाचे, श्री कपड़वंज मुनि श्री झवेर सागर-तुम्हार पत्र एक माघ सु. 12 का लिखा आया उसे पढ़ा है समाचार जानेxx रू. 500/-XX ज्ञान मेंxx वापरने में कोई हरकत दीखती नहीं है । देव विजय जी के लिये प्रत भ्रमण के लिए चाहिये तो मंगाना । गुण विजय जी की वंदना पढ़ना तथा चारित्रय विजय जी की वंदना पढ़ना। भावनशर से आया पत्र साथ बन्द किया है उसका उत्तर भाव नगरxxलिखना। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ जी को धर्मलाभ कहा है । इन्हें वंदना लिखवाई है । सं. 1941 के माघ वि. 13 वार रवि । कहा हुआ काम सरलता से कैसे बने ? उसे रीति पूर्वक सिद्ध करने में ध्यान रखना X X परन्तु धीमी राह डालना । इतने में समझना,, इस पत्र के पृष्ठ भाग पर ता. क. जो लिखा है उसमें जिस काम का निर्देश है, वह कोई महत्व का मालूम होता है जिसके लिए पू. गच्छाधिपति श्री ने यह व्यवस्थित भलामण की है । इस सम्बन्ध में भी पूज्य श्री ने कपड़वंज अधिक स्थिरता की हो यों लगता है । माघ वि. चतुर्दशी के व्याख्यान में बालासोनोवाला शेठ उत्तमचन्द जगजीवन आदि प्रमुख व्यक्तियों ने क्षेत्र स्पर्शना करने की विनती की । अतः पूज्य श्री की कपड़वंज में स्थिरता मासकल्प की हो गयी । अतः क्षेत्रान्तर करने की भावना दर्शायी, परन्तु कपड़वंज श्री संघ में फाल्गुन चातुर्मास नजदीक होने से उसकी आराधना कराने की खूब विनती की। मगन भाई भगत की उलझन भी अभी तक सुलभी नहीं थी अतः बालासिनोर वाला को फाल्गुनचतुर्दशी के बाद आने की भावना दर्शाकर कपड़वज में फाल्गुन चातुर्मास सम्बन्धी स्थिरता की । इस बीच में श्री संघ की महत्वपूर्ण व्यवस्था तत्र सम्बन्धित उलझने सुलभी, मगन भाई भगत को भी संयम सम्बन्धी भावना के मार्ग में अधिक प्रकाश उपलब्ध हुआ । १६६ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समग्ररूपेण पूज्य श्री कपड़वंज श्री संघ के प्रभुशासन को सफल आराधना के मार्ग पर प्रोत्साहित करके पू. चरित्रनायक के पिताश्री के मानसिक स्वास्थ्य को जब व्यवस्थित किया। पू. चरित्रनायक जब बाल आयु में केवल दो वर्ष के थे, उनके हृदय में प्रभुशासन संयम तथा धर्म क्रियाओं की अविस्मरणीय छाप को उभारा। फाल्गुन वि, द्वितीया के दिन पूज्य श्री ने बालासिनोर तरफ विहार कर लसुन्द्रा में दो दिन स्थिरता करके फा. वि. पंचमी प्रातः बालासिनोर पधारे । उस समय संवेगी साधुओं की असंख्य संख्या होकर बालासिनोर क्षेत्र में धार्मिक वातावरण पूरा धुंधला हो गया था। एक सप्ताह स्थिरता करके व्याख्यान द्वारा लोगों को धर्म शासन को भूमिका को पहचान कराकर आराधना हेतु प्रोत्साहित किया। परिणाम स्वरूप केशव लाल दलछाराम भाई को चैत्री ओली करने की भावना जागी । पूज्य श्री को प्राग्रहपूर्वक रोक कर सामुदायिक चैत्री अोली विधिपूर्वक करवाने का निश्चित किया। पूज्य श्री ने भी विशिष्ट लाभ देखकर स्थिरता की । चैत्र सुद पंचमी से श्रीपाल चरित्र की मार्मिक विवेचना प्रारंभ की। पाराधकों को प्रोत्साहित किया। विधि सहित नवपद जी की अोली में 70 से 80 भाविक संयुक्त हए । आंबिल तो लगभग 125 प्रतिदिन होने लगे। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपहर चौसठ-प्रकार पूजा ठाठ से भणा दी । नो दिन भव्य धर्मोत्सव के दिन अबाल गोपाल सब को आनन्ददायी रूप में गुजरे चैत्र विद एकम पारणा कराकर केशुभाई ने प्रत्येक का कुमकुम से तिलक करके श्रीफल रूपया देकर बहुत सम्मान करके अपने जन्म को पावन-धन्य बनाया। चैत्र विद द्वितोया के दिन कपड़वंज के प्रमुख व्यति आये और नम्रभाव से विनती की कि- “गांव में नगरसेठ के यहां वर्षीतप है। उसका पारणा अक्षय तीज को आता है । कारणवश श्री सिद्ध गिरी जाया जाय ऐसा नहीं है। इससे घर आँगन आप श्री की निश्रा में महोत्सव करके वर्षीतप का उद्यापन करना है । अतः आप अवश्य पधारो।" पूज्य श्री के मन में एक बात थी कि- “चरित्रनायक श्री के मन में जो सस्कार सींचित हुए हैं उसका अधिक विकास हो तो शासन को अभी आवश्यकता है समर्थ धुरंधर आगमाभ्यासी प्रौढ़ प्रावाचक की जिसका बाल्यकाल से ही योग्य संस्कारों के साथ संयम ग्रहण द्वारा जीवन घड़ा गया हो । ऐसा कोई शासन-सापेक्षप्रशस्त भावना से श्री संघ की विनती सम्मान देकर, "क्षेत्र स्पर्शना बलीयसी" समझकर पुनः कपड़वंज चै. वि. 7 के दिन पधारे । नगर सेठ की तरफ से भव्य स्वागत सम्मेलन हुआ। उस समय संवेगी साधुनों की अत्यधिक अल्प संख्या १७१ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने से यथाशक्य रूपेण दीक्षा देकर उद्धार के साथ साथ समुदाय बल बढ़ाने की तरफ भी पूज्य श्री लक्ष्ययुक्त हुए । यद्यपि छद्मस्थता के कारण उलझनें भी जबरदस्त खड़ी हो जाती थी जिसका निर्देश अधोलिखित पत्र से मिलता है : 66 14 का पत्र विद 13 का आपका पत्र कल पढ़ा तथा विद आज पहुंचा । समाचार जाने हैं । अन्य काल लोक जम्बूद्धीप का पत्र पहुचा लिख तथा विद 1 परन्तु वह अभी तक हमे नहीं मिला है । का पत्र जो लिखा था विद 14 का पत्र तुमने साध्वी ऊपर प्रथम लिखा तुम्हें दिया है सो वापस मंगाया नहीं तो वे कौन से उपासरे हैं उनका हमारे साथ परिचय नहीं है । वे डेहला के राणा है इसलिए हमसे पत्र वापिस कैसे मांगा जा सके ? वे डोशीवाड़ा की पोल में सीमधर स्वामी जी के डेरा के पास सूरज बाई के सामने उपासरा में रहते हैं । सो जानना तुम पुष्ट विचार करके बात करना क्योंकि XX है, उसकी पत्नी जीवित है अतः पोछे से निकाले इसलिए हमें विचार करके, व्यक्ति देखकर बात करनी । XX साबुन एक मन भेजना X x क्षेत्र लोक पूरा होने में अभी देर है सो जाना । अन्य तुम्हें X X लाभ का कारण न दीखे तो तुम यहां आना । तुम आ सकते हो या नहीं इस पर विचार करूँगा Xx गरमी बहुत पड़ रही है XX हमे बड़ोदा X X काम है १७२ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रतः शीघ्रातिशीघ्र विहार करना । तुम प्रायो इतनी ही देर है सो जानना मिति 1941 चैत्र विद / वार बुध लि. ग्रापका सेवक हीर जी ऊपर लिखा है कि अहमदाबाद प्राना फिर विचारूंगा । X X परन्तु + + के लिए तुम्हारे जब विहार करने का++ सो हमें लिखना + + तुमको छागो जाना है । हम भो तुम्हारे विहार के बाद निकलने का करते हैं सो जानना बाद में बड़ोदा साथ साथ जावेगे । ऊपर के पत्र खूब महत्व की बातें प्रतीत होती है । पत्र के ऊपर सब पत्रों की तरह पू. गच्छाधिपति का नाम नहीं है । परन्तु पत्र की विषयवस्तु से पू. गच्छाधिपति का पत्र हो ऐसा प्रतीत होता है । " इस पत्र का सार इस प्रकार समझा जा सकता है* पत्र में प्रथम तो कोई दीक्षार्थी भाई के लिये पूज्य श्री जो प्रयत्न कर रहे हैं उस विषय में सावधानीपूर्वक कार्य करने का निर्देश है । समुदाय बढ़ाने की जिज्ञासा उत्तम है, परन्तु शासन धर्म को नुक्सान न पहुँचे उस दिशा में पू गच्छाधिपति का अंगुलीनिर्देश है । उस समय कपड़वंज का देशी साबुन उद्योग सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध होना चाहिये । जिससे विशाल समुदाय की आवश्यकता, अभक्ष्यपदार्थ रहित गृह उद्योग रूप में हाथ से बनाया गया, निर्दोष रीति से गृहस्थों के घर से चाहे जितना मिलता रहे इस अपेक्षा से एक मन जितना १७३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिजवाने की व्यवस्था आदि की सूचना की गयी है । * पूज्य गच्छाधिपति श्री की विशिष्ट श्रावश्यकतानुसार बड़ोदा जाना आवश्यक लगता है, परन्तु पूज्य श्री की प्रतीक्षा विशेष रुप से देखी जा रही है यह बताता है कि पूज्य श्री का पू. गच्छाधिपति के हृदय में कैसा स्थान है । पत्र के पृष्ठ में और अधिक महत्व की बात बताई है कि "गरमी अधिक है इससे शायद आप न श्रा सको तो जानना, परन्तु तुम्हें छाणी जाना है तो तुम यहां आओ । बाद में साथ चलेंगे ।" इस प्रकार पू. गच्छाधिपति पूज्य श्री को अपने पास बुलाकर योग्य विचार-विमर्श कर बड़ोदा तरफ विहार की इच्छा करते हैं । पूज्य श्री के व्यक्तित्व की पू. गच्छाधिपति के हृदय में कैसी अद्भुत छाप होगी ? अथवा पूज्य श्री की सलाह की अपेक्षा गच्छाधिपति भी रखते थे । * फिर छारगी जो दीक्षा की खान उस समय गिनी जाती थी जो भूमि ऐसी सामर्थ्यं वाली होगी कि जिससे पूज्य श्री छाणी जाने की इच्छा रखते थे । छाणी जाने की किसी मुमुक्ष की तैयारी हो अथवा कच्ची तैयारी को पक्की करने की हो । इस प्रकार उस काल में छाणी की महत्ता पूज्य श्री के हृदय में कितनी होगी वह भी इस पत्र से समझा जाता है ।" इस प्रकार पूज्य श्री कपड़वंज में प्रवास करते हुए भी छाणी, अहमदाबाद आदि स्थानों के मुमुक्षुजनों की खोज खबर रख १७४ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर प्रभुशासन के मार्ग पर उनको सफल आराधक बनाने में मंथन करते रहे । अधिक पू. चरित्रनायक जी पूज्य श्री के पास यदाकदा ग्रावे, सामयिक करें । पूज्य श्री के सम्पर्क में आकर पू. चरित्रनायक श्री खूब ही विशिष्ट कोटि के पूर्व जन्म की आराधना के बल पर उदात्त तात्विक विवेक दृष्टि को बढ़ाकर प्रभु-शासन का चरित्र धर्म के प्रति अज्ञात हुए भी आकर्षित हो रहे थे । पूज्य श्री को भी चरित्र नायक के उद्यमी जीवन पद्धति को देखकर मगन भाई भगत की चरित्र ग्रहण करने की तीव्र मनोकामना पू चरित्रनायक श्री के संयम ग्रहण करने के ग्रादर्श का पूरक होगा ऐसा विचार कर खूब प्रमोदमय हुए । नगर सेठ की पुत्रवधु के वर्षीतप के पारणा के निमित्त अष्टापद जी के देहरे भव्य प्रष्टान्हिका महोत्सव हुआ, शान्ति स्नात्र भी ठाठ से हुआ । वै. सु. 3 के सुमंगल दिन चतुविध श्री संघ के बाजतेगाजते घर के प्रांगन में निर्मित भव्य मंडप में पधराकर पूज्य श्री के पास ज्ञान पूजा करके वासक्षेप लेकर मांगलिक तथा तप धर्म का पारण अर्थात - " कर्मनिर्जरा के, विशिष्ट अध्यवसाय का बलवाली श्रेणीगत निर्जरा की जा सके ऐसी भूमिका प्राप्त करने के लाभ के साथ तपधर्म में प्रागल बढ़ा जाय" आदि उपदेश सुनकर गुरू महाराज को गन्ने का रस वोरा १७५ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर सकल श्री संघ का बहुमानपूर्वक योग्य समय पर पारणा करके वर्षातप की पूज्य श्री के निश्रा में मंगल समाप्ति की। पूज्य श्री ने वैसाख सुद षष्ठी के दिन अहमदाबाद की तरफ विहार को तैयारी की, क्योंकि पूज्य श्री के खास विश्वासी तथा पू. गच्छाधिपति श्री के भी निजी भक्त श्रावक श्री गोकुल भाई का पत्र निम्नानुसार प्राया "गये कल एक पत्र लिखा है जो मिला होगा हो ! विशेष श्री रतलाम वाला सेठ दीपचन्द जी जोरावर मल जी वाला भूपतसंग जी के पुत्र श्री सिद्धाचल जी है। वैसाख सुद 8-9 को उनका अहमदाबाद आने वाले उचित साथी है। इसलिए उस पर तत्काल यहां आना। अन्य उनके आने की ढील हो तो बाद में आवें पर आपको तो प्रथम पाना ही है। क्योंकि आप उन्हें मिलो यह तो ठीक है अतः समय खोना नहीं यह हमारे ध्यान में आता है। तो तुम पालीताणा पत्र लिखना कि मैं कपड़वज से पालीताणा आने का हूं और अमुक तारीख पाऊंगा। आप अहमदाबाद कब पधारने के हो ? मुझे अहमदाबाद पत्र लिखना और अहमदाबाद मेरे पत्र का ठिकाना-बाई उजम बाई की धर्मशाला में मुनि मूलचन्द जी महाराज के पास यो लिखना जिससे मुझे पहुंच जाय । इस प्रकार जो १७६ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि में प्राय सो लिखना । अब विशेष बात लिखने की नहीं है । क्योंकि ग्रामने- सामने विचार होगा सो जानना । मिति सं. 1942 का वैसाख सुद 1 गुरुवार लि. आपका सेवक गोकुल जी की वंदना इसमें रतलाम के सेठिया पालीताणा से अहमदाबाद आने को है सो उस प्रसंग में पूज्य श्री को जरूरी हो तो पू. गच्छाधिपति श्री के अन्तरग श्रावक ने पूज्य श्री को कपड़वंज से आने का इस पत्र में जतलाया है । परन्तु - " साधु जीवन में क्षेत्र स्पर्शना प्रबल होती है, इससे पूज्य श्री ने इस पत्र के आधार पर तथा स्वयम् को भी पूज्य गच्छाधिपति की वंदना करने की, मिलने की अधिक उत्कठा है ही । बारह वर्ष की अवधि व्यतीत हो गयी। इससे पू. गच्छाधिपति याने की शुभ संकल्प से वै सु. षष्ठी के दिन कपड़वंज से अहमदाबाद तरफ विहार का विचार कर घोषणा भी कर दी । परन्तु भावी योग से दीपविजय जी की तबीयत बिगड़ जाने से सु. 6 का विहार बंद रहा। गर्मी का उपद्रव तनिक अधिक होने से उपचार लेने में विहार की बात एक तरफ रह गई । इस बीच में व सु. 10 के दिन उदयपुर से प्राठदस प्रमुख श्रावक आये । पूज्य श्री को विनती की कि - "बावजीसा । हमें आप सुना रखकर आ गये। वहां धणी बिना खेत सूना" की दशा हो रही है । बापजी । हम पर दया करो । 1 १७७ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत तो भले बिगड़ा । क्या करें? आप इधर पधारे और वे मिथ्यातत्व लोग खेत को रोंद रहे हैं। बावजी दया करो। उधर पवारो।" आदि खूब प्राग्रह भरो विनती की। पूज्य श्री ने कहा कि “आपको बात सच्ची है। परन्तु क्या हम हमेशा वहां बैठे रहें। यह तो संभव नहीं। बिना इच्छा के भी आग्रहवश कारण सर सात चौमासे तो किये। साधुपने की मर्यादा तो ख्याल रखना चाहिये ।' आदि श्री संघ के अगुवानों ने कहा कि- “अापकी बात सच्ची हम लोग तो स्वार्थवश आपको ही कहे न, फायदा तो शासन को ही होगा और बीच-बीच में आप पधार गये। बाहर के गांवों में विचरने को रोका नहीं? बावजी सा। दया करो अब । हमारी तो शान बिगड़ जायगी। शासन की जो शोभा है आपने बढ़ाई है उसमें भी काफी फरक पड़ा है। आदि । __ पूज्य श्री ने पूछा कि- "क्या बात है ? यह तो कहो। श्री संघ के प्रागेवानों ने कहा कि- "बावजी ! टूढिया के बड़े पूज्य श्री अब चौमासे के लिये आ रहे हैं उन लोगों ने ऐसी बात फैलाई है कि-संवेगी साधुओं ने उदयपुर में उल्टासीधा प्रचार करके लोगों को मूर्ति पूजा के अधर्म में फंसाना चालू किया है। उनके प्रतिकार के लिए हम आते हैं।" और "दुष्काल में अधिक मास" की तरह आर्यसमाजी लोग भी विदेहानंद जी नाम के धुरंधर महात्मा को पडितों के साथ १७८ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावण-भादवा दो महीने के लिए बुला रहे हैं ।" बावजी, कृपा करो। आपमें गजब की तर्क शक्ति है आपने ही तो हमारे श्री संघ की लाज पहले भी इन ढूंढियों और समाजियों के तूफान के समय रखी है। हम कहां जावें ? और तो हम लोगों की बात सुने कौन ?" आप तो हमारे बाप की तरह हो। बच्चा भूखा हो कि दुःखी हो तो मां-बाप के सामने नहीं रोये तो कहां जाय ? आदि। पूज्य श्री भारी उलझन में पड़ गये। एक तरफ पूज्य गच्छाधिपति श्री ने खुद को बड़ौदा की तरफ जाने की सलाह परामर्श के लिए अहमदाबाद बुलाते हैं । खुद को भी बारहबारह वर्ष पू. गच्छाधिपति की ठंडी छाया मिले ऐसा संयोग कुदरती तरीके खड़े हुए हैं और ये उदयपुर बालों की बात भी विचारने जैसी । शासन पर आक्रमण अावे तब शक्तिशाली सम्पूर्ण सामर्थ्य से रक्षा के लिए तैयारी करनी चाहिए। आदि । अन्ततः उदयपुर श्री संघ को अहमदाबाद पू. गच्छाधिपति के पास जाने की सूचना की "मेरी तो अकल काम नहीं करती है । दोनों ही बातें मेरे लिये महत्व की है । अतः मैं तो अब पू. गच्छाधिपति श्री की जो आज्ञा होगी वह शीरोधार्य करने को तैयार हूं, आप अहमदाबाद पधारो तो अच्छा । उदयपुर का श्री संघ कार्य सिद्धि के उद्देश्य से पूज्य श्री को -" जवाब लेकर नावे १७६ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब तक आप यहीं बिराजना" यो विनती कर अहमदाबाद तरफ रवाना हुआ। अहमदाबाद जाकर पूज्य गच्छाधिपति को सारी बात कही । सात चातुर्मास में धर्म की कितनी तथा शासन की जो प्रभावना हुई उसे विस्तारपूर्वक श्री संघ के अग्रगण्यों ने जतलाया । इस वर्ष स्थानकवासियों तथा आर्यसमाजियों को टक्कर के सामने टिके रहने के लिए पूज्य श्री को चातुर्मासाथ भेजने का खूब आग्रह किया । वे आपको आज्ञा शिरोधार्य करेगे उस आशय से लिखित पत्र भी पेश किया । पू गच्छाधिपति श्री को पूज्य श्री के साथ गंभीर विचारविमर्श के लिये उनकी रूबरू आवश्यकता थी। परन्तु गर्मी के दिन, अल्प समय, अतः अहमदाबाद सामने बुलाने की बात को गौण करके बात को पत्र द्धारा किंवा व्यक्ति द्वारा पूरा कर देने का विचार करके शासन की रक्षा की बात को अधिक महत्व भरी मानकर पू. गच्छाधिपति श्री ने उदयपुर वालों की विनती मान्य रखकर "क्षेत्र स्पर्शना बलीयसी' न्याय को आगे करके पूज्य श्री को उदयपुर तरफ विहार करने की सूचना दी। उदयपुर का श्रीसंघ प्राज्ञा पत्र लेकर वापिस कपड़वंज आया, पूज्य श्री को पत्र दिया। पत्र पढ़ कर पूज्य श्री ने भी समस्त मानसिक भावनाओं को गौण करके पूज्य श्री की आज्ञा शिरोधार्य करके वै. सु. दसमी को प्रभु महावीर स्वामी १८० Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के केवल ज्ञान कल्याणक के दिन उदयपुर को प्रस्थान रूप में पुस्तक देकर वे. सु. 11 के सायंकाल विहार करने का विचार प्रकट किया। पूज्य श्री ने कपड़वंज से वै. सु. 11 सन्ध्या उदयपुर की तरफ विहार किया। वै. वि. 3 के दिन लूणावाडा पधारे । वहाँ के श्री संघ के देव द्रव्य सम्बन्धी लेखा पत्रक ठीक कराये। थोड़ा काम बाकी रहा परन्तु उदयपुर पहुंचने की उतावली में चार पांच श्रावकों को वह काम सोंपा। और भी वहां दहेरासर का काम भी अटक गया था उसे भी चालू कराने का श्रावकों को समझाकर उदयपुर तरफ विहार किया। जेठ सु. 10 डूंगरपुर पहुंचे यहां उदयपुर का श्री संघ वंदना करने आया । जेठ 13 केशरियाजो पधारे यहां चतुर्दशी की पक्षीय आराधना उदयपुर के अनेक श्रावकों के साथ कर विद 1 प्रातः उदयपुर तरफ विहार किया। जेठ विद 5 प्रातः धूमधाम से उदयपुर के श्री संघ ने पूज्य श्री का नगर-प्रवेश कराया। पूज्य श्री ने उदयपुर की जनता के धार्मिक-मिजाज तथा वातावरण का चिरपरिचय होने से छेडती करने का प्रयत्न अपनाने के बजाय प्रश्न जो सामने आवे उसका जोरदार निराकरण करने की नीति रखकर जोरदार उपदेश प्रारंभ किया। थोड़े दिनों में ही स्थानकवासी के बड़े धुरंधर गिने जानेवाले विद्धान म. श्री किशन चंद जी तथा चंपालाल जी आदि १८१ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुनों ने उदयपुर में पदार्पण किया। आते ही- “एकेन्द्रो आगे पचेन्द्री नाचे" आदि क्षुद्र टिप्पणियों तथा "अहिंसा परमों धर्म " इस वैदिक धर्म को आगे करके "जहाँ हिंसा वहाँ धर्म नहीं" आदि के सूत्र के साथ अपने भक्त श्रावकों को मत-संप्रदाय को चार दिवाल के बीच में रोक रखने, मुर्तिपूजा के सम्बन्ध में शास्त्र पाठों के नाम से ज्यों त्यौं बातें प्रसार करना प्रारंभ किया । इतने में पूज्य श्री ने एक के बाद एक मुद्दे को व्यवस्थित रीति से निस्तारण सहित शास्त्र, सिद्धान्त तक तथा व्यवहार चारों परीक्षाओं में से गुजार कर श्रोताओं को सचोट यह जमा दिया “प्रभु-पूजा यह गृहस्थ का कर्तव्य है ही।" और "अहिंसा परमोधर्म:" सूत्र वैदिकी के मिथ्यात्व में कारण के उदय का प्रतीक है । इस बात को स्पष्ट रीति से समझा कर जिन शासन में तो “आधायें धम्मो "केवलपण्णत्तो धम्मों" आदि सनातन सूत्रों द्वारा “जिनाज्ञा परमाधर्म:" की महत्ता प्रकट की । इसी प्रकार “जहां हिंसा वहां धर्म नहीं' सूत्र के खोखलेपन को हिंसा के स्वरूप हेतु अनुबंध नीन भेदों को दर्शाकरपूजा के अतिरिक्त भी सामयिक-प्रतिक्रमण दानदया आदि प्रत्येक प्रवृति में हिंसा तो है ही। तो फिर धर्म कहां? आदि तर्को से "जहां प्राज्ञा वहां धर्म यह सनातन सूत्र पूज्य श्री ने प्रकट किया । १८२ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासियों के पूज्य श्री तथा प्रमुख श्रावकों के कानों में ये सब बातें पहूंची अत: जिहवा की खुजली से प्रेरित वितंडावाद में प्रवीण ऐसे उन साधुओं ने खुले में चेलेन्ज रुप घोषणा की कि-"संवेगी साधु हिंसा में धर्म और मूर्ति पूजा शास्त्र से प्रमाणित करने की हिम्मत रखते हों तो हम शास्त्रार्थ करने को तैयार हैं " पूज्य श्री ने श्री सघ के अग्रगण्य श्रावकों को बुलाकर स्थल तथा मध्यस्थ आदि तय करने स्थानकवासी संघ के आगेवान व्यक्यिों के पास भेजा। स्थानकवासी श्री संघ के अग्रगण्य श्रावकों ने कहा कि ये महाराज तो दिग्गज विद्धान है, इनकी सर्वतोमुखी विद्वत्ता का परिचय हमें पहले क्या नहीं । पहले भी तों चर्चा हुई थी। सार क्या निकला ? फाल्तू की उस झंझट से दूर रहा जाय तो ठोक । अपने श्री संघ के अग्रगम श्रावकों ने कहा कि"बात तो आपकी ठीक है ! कितु संतों को खले में चेलेंज दी है तो एक बार हमारे महाराज का सदेश उन संतों तक पहुंचाना तो चाहिये।' अन्ततः स्थानकवासी प्रमुख श्रावकों को लेकर श्री संघ के प्रमुख भाई स्थानकवासी संतों से मिले। समस्त बात की "हमारे संवेगी महाराज शास्त्रार्थ द्धारा प्रमाणित करने को तैयार है कि हिंसा में भी धर्म हैं और मूर्तिपूजा शास्त्रसिद्ध हैं । आप जगह और मध्यस्थ का निर्णय करके हमें सूचित १८३ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करें- " स्थानकवासी संतों के अग्रगण्य श्री किशनचंद जी की धारणा थी कि - " संवेगी साधुत्रों में वहां कितनी ताकत होगी कि हमारे सामने शास्त्रार्थ करें " यों घार कर मात्र फुफकार बताने के लिये जाहिर में चेलेन्ज किया परन्तु यह तो बराबरी का खेल आ पड़ा अतः बात को दूसरे तरीके से ढाल कर बोले कि "भैया ! शास्त्रार्थं करना हो तो हमारी ना नहीं । किन्तु क्या कभी इन बातों का निर्णय आज तक हुआ है क्या ? वाद-विवाद में समय खराब करना ठीक नहीं, फिर भी यदि उनकी इच्छा है हम ही आपस में एक दूसरे की बात समझ लेगे कह कर शास्त्रार्थ की बात ढोली रखी । स्थानकवासी श्रावकों ने भी कहा कि "महाराज ! इस बतंगड बाजी में क्या कल्याण है । आप अपनी बात सुनायोगे । वे अपनी बात सुनायेगे । किन्तु असलियत में क्या है ? वह तो ज्ञानी जाने । पहले भी तो वहां इन संवेगी महाराज से वाद-विवाद हुआ था । "यों कह कर शास्त्रार्थ की बात पर शीतल जल उडेला । अन्ततः अपने श्री संघ के प्रमुख ने जैसी आपकी इच्छा "यों कहकर खड़े हो गये । पूज्य श्री के पास आकर सारी बात कही । पूज्य श्री ने कहा कि-" आप को अब कोई बात चला करके नही कहनी है अब शायद वे मूर्तिपूजा की बात जोरदार नहीं छेडेगे । और यदि छेडेगे तो अपने लिये १८४ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाहिर में बेठकर बातों का जवाब देने का क्षेत्र खुल्ला ही है । कौन रोकेगा ।" कह कर बात को ढीली रख दी । स्थानक - वासी संतों ने भी "बड़ी टक्कर लेने जैसा नहीं अन्यथा शास्त्रार्थ के खुले कदमों से उलटा अपने स्थानकवासी वर्ग में से कितने ही कुटम्बी पहले की तरह छुट्टे हो जायेंगे” यों धार कर अधिक खुले में बोलना ही बंद कर दिया। पहले से ही पूज्य श्री की विद्वता, सचोट तर्क-शक्ति आदि का गजब प्रभाव पड़ गया था । श्री संघ में पूरे चातुर्मास के बीच शान्ति रही । इस तरह प्रार्य समाजियों ने हरिद्वार से विदेहानंद जी नाम के धुरंधर सन्यासी विद्वान को श्रावण भाद्रपद दो माह के लिये बुला लाये । उन्होंने भी श्रावण विद में प्रवचन में मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में तथा जैन धर्म के सम्बन्ध में प्रक्षेपात्मक प्रचार प्रारम्भ किया । पूज्य श्री ने श्री संघ के प्रमुख व्यक्तियों के साथ सनातनियों के प्रमुख व्यक्तियों से सम्पर्क साधकर सम्पूर्ण उदयपुर के हिन्दुओं के बल को एकत्रित कर सबके अग्रगण्यों को उन सचोट तर्कों तथा वेद-स्मृतियों के उद्धरण टोक कर आर्य समाजी-स्वामी जी के पास भेजे । प्रारम्भ में तो स्वामी जी ने प्रसत- प्रलापों से जैन धर्म गिराने की चेष्टा की । तथा सनातन वैदिक धर्म को नीचे पूज्य श्री के द्वारा समझाये गये तथा नोट कराये गये मुद्दानों १८५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को क्रमसर प्रस्तुत होते ही स्वामीजी ढीले पड़ गये तथा वेदस्मृति के प्रमाण एक के बाद एक जहाँ प्रस्तुत होने लगे कि स्वामी जी घबरा गये तथा बोल उठे कि-"भाई मानना हो तो मानों। ये सब झंझट में हम पड़ना नहीं चाहते । वेदस्मृति के पाठ ले आये किन्तु इनका अर्थ ऐसा नहीं होता है" आदि । थोड़ी देर बाद सन्यासी फिर बोल कि-"छोड़ो जी इस झंझट बाजी को! हम तो हमारे स्वामी जी दयानन्द महर्षि ने जो समझाया है। वह आपको कह रहे हैं । सुनना हो तो सुनो । मानना हो तो मानों। बाकी यह सब बतंगड़ बाजी हमें पसंद नहीं।" उदयपुर के आर्य समाजियों ने यह बात नहीं कही किजैन विद्वान हमारे यहां पहले भी आ चुके हैं। आर्य समाज के अभिमत का प्रामाणिक खंडन कर चुके हैं। तथा शायद आपको उन जैन साधुओं के साथ वाद-विवाद करना पड़ेगा।" यह बात पूर्व में सूचित नहीं की। इससे स्वामी जी चिढ़ उठे कि- "क्या बतंगड़ है यह सब । हमारी बात सुनकर ठोक लगे तो स्वीकार करो। बाकी जबरदस्ती हम किसी के गले में घोलकर उतारने तो नहीं पाये हैं" आदि कह कर स्वामी जी ने तो बात को ही मूल से काट डाला। अब शास्त्रार्थ के लिये पूज्य श्री के द्वारा कहाई गयी बात करने की रही ही नहीं। अतः जैन श्री संघ के १८६ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रगण्य समझ गये और बात को ठंडी पटक कर खड़े हो गये। इस प्रकार जैन श्री संघ पर प्रागत दोनों आक्रमणों को पूज्य श्री ने अद्भुत विद्वता के मेल से बैठते चातुर्मास ही निष्फल कर दिया। दोनों विपक्षियों को हतप्रभ होकर जिन शासन के साथ ऊंगली उठाने की योग्यता भी नही रही । इस चातुर्मास में सकल श्री संघ में पूर्ण शान्ति रही। विविध धर्म क्रिया द्वारा चातुर्मास खूब ही उमग धर्मोल्लास के वातावरण में व्यतीत हुआ । इस चातुर्मास के उत्तरार्ध में पर्युपण के चालू रहते पूज्य श्री के पास अहमदाबाद से गच्छाधिपति द्वारा तथा भावनगर से पू. श्री वृद्धिचन्दजी द्वारा इसी प्रकार पाली ताणा से मिले समाचार के अनुसार पालीताणा स्टेट की व्यक्ति दीठ कर वसूली की बात के समाचार मिलने से आश्विन मास की अोली के अन्तिम दिन पांच पांडवों के मुक्तिगमन के प्रसंग को विस्तृत करके सकल श्री संघ को कमर कसके राज्य के उपद्रव को हटाने के अभियान उठाने हेतु गम्भीर प्रेरणा दी। श्री संघ को सम्पूर्ण ब्यौरा समझाकर कि सौराष्ट्र के तिलक समान तरण-तारण हार श्री शत्रुजय गिरिराज अपने जैन श्री संघ की (न्वामित्व) मिल्कियत है, जिसके ककर-कंकर में अत्यन्त आत्मायें मोक्ष में गई हैं। अत: वह देहरासर से १८७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी अधिक पवित्र भूमि जैन श्री संघ कब्जे में मालिकाना हक को हो इसमें शंका क्या ? परन्तु अपने श्री संघ के अग्रगण्यों से शान्तिदास झवेरी ने मुगल सम्राट जहांगीर पास से पालीताणा का परवाना प्राप्त करने के पश्चात् व्यवस्थित रीति से यात्रार्थी यात्रा कर सकते हैं। इस आशय से काल चक्र के विषम परिवर्तन से "बाड़ खेत को खाये” इस प्रकार अपने यात्रार्थियों की सुरक्षा हेतु गरियाघर से गुहिलवंश के काठियों को चौकीदार रूप में लाये जो कालान्तर में आज मालिक होने को तैयार हो गये हैं। ई. स. 1650 वि. सं. 1706 में गुहिल काठियों को चौकोदार की तरह लाये तथा उनके साथ निम्नानुसार सर्वप्रथम करार हुआ कि- "गिरिराज का जतन कराना, यात्रार्थियों के जानमाल की रक्षा करनी जिसके बदले में श्री संघ तरफ से तुमको कोई रोकड़ रुपया नहीं मिलेगा। परन्तु जो महत्व के महोत्सव के प्रसंग में अथवा ऐसे ही व्यावहारिक प्रसंग में “सुखड़ी" (अनाज) कपड़े तथा अमुक रोकड़ पैसा (जामी) देना।" इस इकरार माफिक गुहिलवंश के काठी व्यवस्थित रूप से काम करते थे, परन्तु समस्त भारतवर्ष के जैन श्री संघ का माना हुआ सर्वोत्तम तीर्थाधिराज रूप श्री सिद्धागिरि महातीर्थ होकर प्रतिवर्ष सैकड़ों छरी पालन करते श्री संघ तथा १८८ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजारों लाखों यात्रालुओं कार्तिक के चैत्री पूनम के तथा अक्षय तीज के बड़े बड़े मेलों आदि में चौकीदारी करने वाले काठी दरबारों के लोभ का कीड़ा कुलबुलाया तथा जैन श्री संघ से कालचक्र से माथाकूट में उतरे । प्रति सप्ताह पैसा बांध देने की नौंक-झौंक हुई। अन्ततोगत्वा उस समय के अग्रगण्यों ने समयोचित विचार करके ई. स. 1860 वि. सं. 1916 में इकरारनामा करके वार्षिक 500 रुपया रोकड़ा देने का तय किया । अवसरों अवसरों पर दिये जाने वाले कपड़े अनाज आदि लागत बंद की । इस समय गुहिल वंश के ये ठाठी दरबार ने क्षत्री तरीके रहने की शुरूआत पालीताणा में कर दी । व्यवस्था के नाम से राज्यतंत्र व्यवस्थित करके कारकून तरीके नामजद करके स्वयं उनके ऊपर राज दरबार के रूप में रह कर धीरे-धीरे पालीताणा स्टेट का रूप वि. सं. 1875 के लगभग प्राप्त हो गया । इससे भी अन्य कारनामे के समय सत्तावश काठी के पास होने से रोकड़े पैसों से तय की। इस तरह विषम काल चक्र के परिवर्तन के प्रताप से अन्दर ही अन्दर चरमराहट के साथ पालीताणा दरबार तथा जैन श्री संघ की बीच में गिरिराज के रखरखाव के सम्बन्ध में खर्च ई. स. 1860 वि. सं. 1916 तक ठीक ठाक चलता रहा। बाद में विषम काल के प्रभाव में दरबार ने यात्रार्थियों की १८६ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्थित जान माल की रक्षा के सम्बन्ध में खर्च अधिक होने से आवाज उठायी तथा रखवाली की रकम बढ़ाने का अभियान उठाया। परिणाम स्वरूप श्री संघ में वातावरण भधिक आन्दोलित न हो इससे ई. स. 1863 वि. सं. 1919 में वार्षिक सप्ताह की रकम 4500 में वृद्धि करके रक्षा के सम्बन्ध में दस हजार की रक्षा हेतु देने का तोसरा करार पालीताणा दरबार के साथ किया। तीसरे करार के अनुसार जैन श्री संघ के साथ पालीताणा स्टेट व्यवस्थित व्यवहार ठेठ ई. स. 1880 वि. सं. 1936 तक बनाये रखा। परन्तु जहां “जहां लाहो तहां लोहो" तथा गिरते काल के विषम प्रभाव से पालीताणा स्टेट के राज्यकर्ताओं तथा कार्यभारी आदि को यों लगा किइतने अधिक यात्रार्थी आवें तथा मात्र दस हजार रुपयों की बंधी रकम ? यों कैसे? ई. स. 1863 वि. सं. 1919 में सम्पन्न तीसरे करार पत्र को बहुत समय हो गया। देशकाल अब फिर गया। इस लिए यह बंधी रकम के करार को चिपटे रहने से स्टेट को हानि होती है । इसलिए पालीताणा शहर के यात्री दीठ पांच रुपैया तथा बाहर गांव के यात्री दीठ दो रुपया का यात्रीकर डालने का विचार बाहर आया। थोड़े समय में जैन श्री संघ के बहुत विरोध झंझावात होने पर भी राज्यकर्ताओं ने १६० Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाग्रह की अवगणना करके “यात्रीकर" चालू कर दिया। परिणाम स्वरूप धर्मश्रद्धालु यात्रियों तथा जैन श्री संघ के साथ पालीताणा राज्य को खूब संघर्ष में उतरना पड़ा। बहुत धमाल होने लगी। वातावरण बहुत कलुषित होने लगा। अन्ततः आ. क. की पेढी नगरमेठ प्रेमा भाई आदि संभावित अग्रगण्य सेठियों के हस्ताक्षर से वि. सं. 1940 ई. स. 1884 के सितम्बर की पांचवी ताराख (5-9-1885) बम्बई के गवर्नर के समक्ष अपील की। रक्षापानी की रकम बढ़ाकर भी यात्रार्थियों पर कर को रद्द करने जैन श्री संघ के मन को अन्याय को अटकाने की विनती को। इस रोति से पालीतारणा स्टेट के साथ ई. स. 1863 वि. सं. 1919 में सम्पन्न हुए तीसरे करार के अनुसार काम चल रहा था। उसमें काल के विषम प्रभाव से पालीताणा स्टेट ने सिर उठाया है। और यात्रीकर डालने का काला बर्ताव कर रहे हैं । इस प्रसंग में श्री संघ में खूब जाग्रति हुई। राज्यकर्ताओं में उत्पन्न कुमति दूर हो तथा गिरिराज को यात्रा करने वालों का अवरोध दूर हो उस सम्बन्ध में सिद्धगिरि के अट्ठ मन्दी आराध भाव का सुद 13-14-15 को तय को। खूब जोशीले प्रवचनों से भावुक जनता श्री सिद्धगिरि अट्ठम की आराधना मे खूब उमंग से जुड़ गयी । श्री संघ ने तार डाक प्रादि से पेढ़ी को तथा पालीताणा सेठ को अपने १६१ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध पूरित विचारों को प्रकट किया- तीर्थ रक्षा के लिए मर- करने की तैयारी दिखायो । इस अवधि में अहमदाबाद से प्रा. क. की पेढ़ी तरफ से इसी प्रकार पालीताणा से भी समाचार मिले कि "सेठ प्रा. क. की पेढ़ी से नगर सेठ हेमा भाई आदि अग्रगण्य सेठियाओं के हस्ताक्षर से पालीताणा स्टेट के साथ बहुत बातें करने पर भी नहीं मिलने से उस समय के ऊपर के सत्ताधीश के रूप में काठियावाड़ के पोलिटिकल एजेन्ट होने पर भी शायद ऊपर की पैरवी के प्रभाव में पूरा सहयोग न दें इससे सोघा बम्बई गवर्नर के पास अपील की है । उसका योग्य निर्णय अवश्य ही अल्प समय में आवेगा । अभी तत्काल पालीताणा स्टेट ने यात्री कर बंद रखा है ।" 1 इस समाचार के मिलने से श्री संघ में तनिक शान्ति हुई । परन्तु श्री संघ को जागृत रहने की आवश्यकता पर पूज्य श्री ने खूब भार रखा । पूज्य श्री सेठ प्रा. क. की पेढ़ी के साथ पत्र व्यवहार से सम्पर्क बराबर बनाये रखा । पालीताणा स्टेट के सामने पड़ी बाधा के सम्बन्ध में बम्बई गवर्नर के पास की गई अपील की कार्यवाही से पूर्ण रूपेण सूचित होते रहे। इतने में का. सु. 7 लगभग भीलवाड़ा सेठ किसनजी मुणोत भीलवाड़ा जैन श्री संघ के प्रागेवानों को साथ लेकर पूज्य श्री पास आये । १९२ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री की वंदना करके नम्र भाव से किसन जी सेठ ने भीलवाड़ा से केशरियाजी तीर्थ की छरी पालना संघ निकालने की भावना पूर्ण करने हेतु पूज्य श्री को भीलवाड़ा पधारने की विनती की । पूज्य श्री ने बतलाया कि कार्तिक पूर्णिमा के पश्चात श्री संघ तरफ से उदयपुर के छत्तीस तथा आसपास के नजदीक के दस जिन चैत्यों की चैत्य परिपाटी का कार्यक्रम है। इससे चातुर्मास के बाद करीब डेढ़ मास तक स्थिरता होगी। उस समय योग्य विचारेंगे। तुम लोग पुनः माघ सु. 15 लगभग मिलना तो ठीक रहेगा।" ऐसा आश्वासन दिया। भीलवाड़ा संघ ने भी पूज्य श्री को भीलवाड़ा चरण घर कर धर्म भावना शासनोद्योत करने की विनती की। पूज्य श्री ने “क्षेत्र स्पर्शना" तथा "वर्तमान योग' कह कर साधु मर्यादा का दर्शन कराया । "उदयपुर के श्री संघ में पर्वाधिराज पर्युषण-पर्वं के कर्तव्यरूप चैत्य परिपाटी को व्यवस्थित रीति से आचरण में रखने हेतु विचार किया उन देहरासरों की अाशातना का निवारण हो, सर्वजन स्वद्रव्य से स्वयं देहरासर की समग्र जिन प्रतिमाओं की पूजा भक्ति का लाभ लें। स्नात्र पूजा ठाठ से पढ़े। दोपहर “जिन भक्ति की अपूर्व महिमा" विषय पर पूज्य श्री का शास्त्रीय शैली का व्याख्यान प्रभाबना आदि से शासन-प्रभावना १६३ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम हो।" यह सब तय करके पूज्य श्री के पास मुहूर्त दिखलाया। का. वि. 5 का मुहूर्त माया । उस दिन से चौगान के देहरासर से चैत्य परिपाटी का मंगल प्रारम्भ हुआ। अलग-अलग मुहल्लों के श्रावकों के प्राग्रह से व्याख्यान मंडप, सार्मिक भक्ति, प्रभावना आदि की व्यवस्था होने लगी । सम्पूर्ण उदयपुर में जैन शासन का भव्य जय जयकार बर्ताने लगा । इस चैत्य परिपाटी के लगभग एक माह में पूरी हो जाने के बाद एक सप्ताह आस-पास के प्राचीन जिनालयों की चैत्य-परिपाटी करने के लिये पूज्य श्री का विचार था। परन्तु श्री संघ का उत्साह बहुत अधिक था जिससे मुहल्लावार प्रत्येक श्रावक खूब प्राग्रह से एक दिन व्याख्यान की योजना बनाई जिससे पूज्य श्री की वाणी का लाभ लेने की होड़ा होड़ी होने से माघ वि. 10 तक भी उदयपुर स्थानिक जिनालयों की चैत्य परिपाटी पूरी नहीं हो सकी। इस बीच में भीलवाड़ा के किशन जी सेठ के उपरा उपरी विनती पत्र आने पर पूज्य श्री ने चत्य परिपाटी काम पूरा होने पर आने का विचार है ऐसा (माधम) स्वलप उत्तर देते अन्ततः माघ वि. 10 के दिन सवीना खेड़ा तीर्थ सकल श्री संघ के साथ पूज्य श्री पोष-इसमी पर्व की आराधना निमित पधारे । तब वहां भीलवाड़ा श्री संघ आया। पूज्य श्री ने पोष विद अाठम के पूर्व चैत्य परिपाटी पूरी हो नहीं १६४ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा प्रकट कर पोष वि. 10 भीलवाड़ा की तरफ विहार का विचार दर्शाया | उसके पश्चात पोष सु. 3 लगभग उदयपुर की स्थानिक चैत्य परिपाटी पूरी होने पर सिसारमा, नाई, लक्कड़वास, आय आदि के आसपास के प्राचीन जिनालयों की चैत्य परिपाटी की व्यवस्था की । वह कार्य पोष वि. आठम को पूरा हुआ। उस दिन व्याख्यान में विद दसम भीलवाड़ा तरफ विहार करने की घोषणा की । भीलवाड़ा के श्रावक भी उस दिन विनती करने तथा भक्ति का लाभ लेने आ पहुंचे । उदयपुर श्री संघ को चौगान के देहरासर की व्यवस्था में समय चक्र से आ गई क्षतियों को हराकर व्यवस्था तन्न समुचित करने हेतु चातुर्मास का आग्रह था । पूज्य श्री ने " वर्तमान योग' से निपटा कर हाल तत्काल उस सम्बन्ध में स्पष्ट उत्तर न दे सकने की मर्यादा दर्शाई । पूज्य श्री का विद दसम प्रातःकाल उदयपुर श्री संघ से दबदबायुक्त विदाई मान सहित विहार हुआ । माघ सु. सप्तमी भीलवाड़ा में महोत्सव के साथ प्रवेश हुआ | भीलवाड़ा में तीर्थ यात्रा के सम्बन्ध में तीन व्याख्यान हुए । छंरी पालना करते श्री संघ को होते हुए लाभ निस्तारण सहित प्रकट कर यात्रार्थी के रूप में छंरी पालने का दायित्व विस्तार से समझा कर सबको प्रोत्साहित किया । १६५ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संघ में पूज्य श्री के मंगल-प्रवचनों से धर्मोल्लास से अपूर्व वृद्धि हुई। एक सप्ताह तक तीर्थ यात्रा के सम्बन्ध में व्याख्यानों से संघ में उत्तम जागृति पाई। संघवी होने की इच्छा रखते किशन जी सेठ को पैसा खर्च करने की उमंग होते हुए भी मेवाड़ जैसे प्रदेश में ऐसा छंरी पालित संघ कभी निकला नहीं होने से लोग आने को तैयार नहीं थे। यह बात पूज्य श्री को किशन सेठ ने चुपके से बताई जिससे एक धारातीर्थ यात्रा के सम्बन्ध में व्याख्यान पूज्य श्री ने फर्माये । फागुन सु. 10 के मंगल दिन जिन मंदिर, इन्द्रध्वज, नक्कारा, निशान-गजराज, कोंतल, मंगल वाद्ययंत्र आदि की अपूर्व शोभा के साथ भव्य आडंबर युक्त श्री संघ के साथ पूज्य श्री ने प्रयाण किया। क्रमानुसार फा. वि. 2 के मंगल दिन उदयपुर पहुंचे तब उदयपुर के श्रीसंघ ने भव्य गजराजकांतल-डंका, निशान तथा सरकारी पुलिस बैण्ड आदि सामग्री से श्री संघ का स्वागत किया तथा चौगान के देहरासर के विशाल चौक में श्री संघ को ठहरा दिया। उदयपुर श्री संघ ने साधार्मिक-भक्ति का लाभ लिया। पूज्य श्री की प्रेरणा से उदयपुर श्री संघ में से अनेक यात्री छरी पालना संघ में आ जुड़े। फा. वि.7 के मंगल प्रभात में केशरियाजी तीर्थ श्री Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ धूमधाम से पहुंचा । तीर्थ व्यवस्थापक पेढ़ी की तरफ से श्री संघ का सन्मान प्रवेश महोत्सव आदि ठाठ से हुआ 1 दूसरे दिन तीर्थाधिपति श्री ऋषभदेव प्रभु के जन्म तथा दीक्षा कल्याणक के संयुक्त पर्व के रूप में फा. वि. 8 (शास्त्रीय चैत्र वि. 8 ) का भव्य मेला होता था । श्री संघ में पूज्य श्री की निश्रा में श्रांबील की तपस्या, भव्य स्नात्र - महोत्सव तथा विशाल रथयात्रा, सायंकाल साधार्मिक वात्सल्य प्रादि करके जीवन को धन्य बनाया । इस प्रसंग में बाहर के हजारों जैन तथा जैनेतर एकत्रित हुए। अधिक में विद 9 के दिन भीलवाड़ा के छरी पालते संघ के संघवी श्री किशन जी सेठ की तरफ से समस्त देहरासर तमाम जिन प्रतिमाओं की स्वद्रव्य से पूजा भक्ति का लाभ यात्रियों के माध्यम से लिया। दोपहर पंच कल्याणक पूजा भव्य मण्डलालेखन के साथ भणाई | विद 10 प्रात: दादा के रंग मण्डप में नाण जमाकर तुमुख प्रभु जी पधराकर पूज्य श्री ने किशन जी सेठ तथा उनकी पत्नी श्राविका जड़ाव बहिन के तीर्थं माला पहनाने की विधि पूरी कराकर उनके कुटम्बीजनों ने मिलकर देव द्रव्य का चढ़ावा बोलकर चढ़ते रंगतीर्थ माल दोनों को पहनाई किशन जी सेठ ने इस प्रसंग में खुले हाथों से पुजारी, गोठी पंडया, पेढ़ी के कर्मचारीगण, याचक-योजक इत्यादि दान १६७ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देकर शासन की भव्य प्रभावना की। पूज्य श्री विद 11 के दिन डूगरपुर तरफ विहार की भावना रखते थे। परन्तु विद 10 दोपहर संघवी तरफ से नवाह म प्रकारी पूजा में स्पेशल आमंत्रण होने से उदयपुर से श्री संघ के अग्रगण्य 100-150 भाविक आये। उन सब लोगों ने पूजा के पश्चात पूज्य श्री के पास आकर चैत्री अोली के लिये उदयपुर पधारने की आग्रहभरी विनती की । पूज्य श्री ने कहा कि "महानुभावों! हमारे साधु आचार के अनुसार अब उदयपुर शहर में आना या ठहरना उचित नहीं । आप लोगों का धर्म प्रेम हमें जरूर खींचता है, किन्तु आचार निष्ठा साधुनों के लिये महत्व की चीज हैं" आदि-श्री संघ के अग्रगण्यों ने कहा कि-महाराज ! आप तो आचारनिष्ठ हैं ही ! आप तो सलंग सात चौमासे कारणवश हमारे श्री संघ के सौभाग्य से उदयपुर में किये, किन्तु आप तो जलकमलवत् निर्लेप रहे हैं, आप किसी से नाता जोड़ते ही नहीं। शासन के लाभार्थी विचरने वाले श्राप का पदार्पण हमारे श्री संघ के लाभ में ही रहा है। ___ अभी चौगान के मन्दिरजी की व्यवस्था डावाँडोल है। जिन मन्दिरों की अव्यवस्था न हो इसका ख्याल तो आपको भी करना जरूरी है। इसके लिये अभी एक चौमासे की और जरूरत है। किन्तु अभी तो हम आप श्री की निश्रा १६८ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में चेत्री अोली की सामूहिक आराधना हो यह चाहते हैं । आपको जरूर पधारना ही पड़ेगा" आदि-पूज्य श्री ने बहुत प्रकार से आगेवानों को समझाया, परन्तु अन्ततः चैत्री अोली के लिये हाँ करनी ही पड़ी तथा विद 11 उदयपुर तरफ श्रावकों ने विहार कराया। विहार में पांव पैदल चलते अनेक श्रावक गुरु भक्ति में रहे। फा. वि. 14 प्रातः उदयपुर में प्रवेश हुआ। व्याख्यान में शाश्वत नवपदजी की अोली की प्राराधना के महत्व को पूज्य श्री ने खूब सरस तरीके से समझाना प्रारम्भ किया। पूज्य श्री की निथा में चैत्री अोली की आराधना प्रायः नहीं हुई थी। इससे खूब उमंग उल्लास से उदयपुर के श्री संध में पूज्य श्री की बात को ग्रहण कर विशाल संख्या में पाराधकों ने तैयारी की। शा. दीपचन्द जी कोठारी ने नौ ही दिन के प्रायम्बिल का लाभ लेने की बात पूज्य श्री के पास प्रस्तुत की, पूज्य श्री ने श्री संघ द्वारा वह बात मंजूर करायी । खूब ठाठ से सामुदायिक विधि के साथ सैकड़ों पाराधकों ने श्रीपद की अोली जी की आराधना पूज्य श्री के मार्मिक प्रवचनों से उत्पन्न अपूर्व भावोल्लास से की। उस अोली के बीच में श्री संघ ने पूज्य श्री को उदयपुर श्री संघ के लाभार्थ देहरासरों के इन्तजाम की अव्यवस्था टालने के शुभ प्राशय को समुचित १६६ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने करने हेतु चातुर्मास की आग्रह भरी विनती की। पूज्य श्री साधु जीवन की मर्यादानों को ध्यान में रखी इसी प्रकार "अतिपरिचयादवज्ञा " जैसा न हो इसलिए चातुर्मास की अनिच्छा दिखाई | के इसके बाद भी श्री संघ के प्रमुख व्यक्तियों ने एक बाद एक देहरासर की व्यवस्थातंत्र की गुत्थियों को पूज्य श्री के सामने प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया । इसमें मुख्य रूप से चौगान के देहरासर जो कि सागर शास्त्रीय मुनिवरों के उपदेश से बंधा - स्थापित हुए की व्यवस्था के लिये पूज्य श्री सम्मुख समस्या डाली । इसलिए पूज्य श्री को संयोगवश चैत्री प्रोली के पश्चात भी स्थिरता करनी पड़ी । के इस बीच में चैत्र विद तीज के लगभग पालीताणा तथा भावनगर से एवं इसी प्रकार आ. क. पेढ़ी अहमदाबाद से श्री सिद्धगिरि के प्रश्न के सम्बन्ध में समाचार मिले कि" पालीताणा स्टेट के साथ हुए विवाद के हल के रूप में बंबई गवर्नर के पास जैन श्री संघ द्वारा की गयी अपील को काठियावाड़ के पोलिटिकल एजेण्ट जे. डब्ल्यू. वोटसन (J. W. WOTSON) की मध्यस्थता के कारण 8-3-1886 के दिन समस्या के हल रूप में चौथा करार हुआ । उस करार में यों ठहराया गया कि - " जैन श्री संघ पालीताणा दरबार को 15,000 /- रुपया उदरत दे देवे । पालीताणा २०० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्टेट यात्री कर नहीं डालेंगे । अन्य कोई प्रयोग्य दरम्यान गिरी स्टेट की तरफ से नहीं होनी चाहिए ।" इस करार की क्रियान्विती ता. 1-4-1886 सं. 1942 के चैत्र विद 5 से प्रारम्भ करने का निश्चय किया गया । इसके अनुवर्तन में चै. वि. 10 के लगभग अहमदाबाद से निम्नानुसार पत्र भी प्राया- "श्रो उदयपुर मध्ये मुनिराज श्री झवेर सागर जी अहमदाबाद से लि. दलपताई गुई की वंदना 1008 बार पढ़े । अन्य श्री वरधीचन्द जी ने भावनगर मध्ये टीप सिद्धाचलजी की प्रारम्भ की, रु. 20 हजार होंगे । गंभीर विजेजी ने घोघा बंदर में की, श्राप उदयपुर में हो अतः श्रेष्ठ टीप हो ऐसा उद्यम करना । " सही लि. द. स्वयं चैत्र (विद ) 8 ता. 4-4-86 ऐसा ही एक अन्य पत्र पुराने संग्रह में से मिला है निम्मानुसार है - " श्री उदयपुर मध्ये महाराजसाहेब श्री झवेर सागर जी श्री अहमदाबाद से लि. दलपत भाई, भगुभाई की वंदना 1008 बार पढ़ना - अन्य सिद्धाचल जी की टीप के लिये अपनी तरफ के भाइयों द्वारा पत्र बंद कर भेजा है सो श्राप भली प्रकार उपदेश करके अच्छी टीप हो ऐसा करना, ऐसा प्रापका भरोसा है । इस काम में रकम उत्तम स्थान पर जायगी, ऐसा आप समझाकर कहोगे तो तीरथ का काम २०१ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा | आपको अधिक लिखना पड़े ऐसा नहीं है । X ता. 13 वी अक्टोबर 1886 ली. ह. स्वयं X ऊपर के दोनों पत्र अहमदाबाद के अग्रगण्य प्रतिष्ठित धर्मं धुरंधर, शासनानुरागी तथा श्री संघ के प्रमुख सेठिया के द्वारा खुद के हाथ से लिखे हुए हैं। उसके अन्दर का ब्यौरा भी अद्भुत है । इन दोनों पर से पूज्य श्री झवेर सागर जी म. के अप्रतिम गौरववंत व्यक्तित्व की छाया कितनी व्यापक होगी ? वह सूत्र पुरुषों को सहज ही समझ में आ सके ऐसा है । गुजरात में कोई विकट प्रश्न- परिस्थितियां आवे तो अहमदाबाद के धुरंधर सेठिया लोग ठेठ मेवाड़ में बिराजमान पूज्य श्री के उपराउपरी दो पत्रों द्वारा आदरपूर्वक याद करते हैं । 1 यह वस्तु पूज्य श्री के अपूर्व व्यक्तित्व की वाचकों के मन पर भी छाप डालती है । ये दोनों पत्र ऊपर से पूज्य श्री को यों अनुभव हुआ कि तरणतारण हार श्री सिद्धाचलमहातीर्थ की रक्षा के सम्बन्ध में जैन श्री संघ द्वारा उठाया गया भगीरथ कार्य में उदयपुर श्री संघ का सहकार दिलवाने का मेरा कर्तव्य है । अतः शासन के काम के सम्बन्ध में अच्छा लगे या न लगे, मन माने या न माने पूज्य श्री को उदयपुर चातुर्मास की इच्छा करनी पड़ी तथा वै. सु. 3 के व्याख्यान में श्री सघ के द्वारा की गयी आग्रह भरी विनती २०२ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को स्वीकार करके चातुर्मास की जय बुलवा दी। पूज्य श्री ने वि. सं. 1942 का चातुर्मास शासन तथा उदयपुर श्री संघ के लाभार्थ तय किया तथा पूज्य श्री की देखरेख के अन्तर्गत देव द्रव्य के हिसाब में आ रही उपेक्षा वति को दूर करने में व्यवस्थापकों को अपूर्व प्रेरणा मिली। चौगान के देहरासरों के व्यवस्थातत्र में कार्यवाहकों की शिथिलता से आगत अव्यवस्था को निवारण करने के लिये पूज्य श्री ने भारी परिश्रम कर पुराना हिसाब व्यवस्थित किया ।इस सारे काम के निपटाने में चातुर्मास प्रारम्भ हो गया । पूज्य श्री ने बैठते चातुर्मास में ही अहमदाबाद से प्राप्त दोनों पत्रों को श्री संघ को पढ़ाये तथा श्री सिद्धाचल महातीर्थ को रक्षा फंड में तन-मन-धन की शक्ति को छिपाये बिना सबको लाभ लेने का पूज्य श्री ने जोर देकर फर्माया । परिणामस्वरूप तीस हजार जैसी रकम थोड़े समय में हो गई। उदयपुर के श्री संघ में इस प्रकार पूज्य श्री ने धर्म ऋण को चुकाने के साथ ही शासन निमित्त दृढ़ अनुराग प्रदर्शित किया। पूज्य श्री ने इस काम के सम्बन्ध में इच्छा व्यक्त करने के साथ ही भावनगर पू. श्री वृद्धिचन्द जी म. से पत्र द्वारा मार्गदर्शन भी मंगाया दीखता है। क्योंकि सं. 1942 के श्रा. सु. 5 के पत्र में यह विवरण प्राता है । २०३ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयपुर श्री संघ में भी पूज्य श्री की अपूर्व देशना शक्ति से धर्मोल्लास उत्तम प्रकट हुअा, मासखमण, इक्कीस, सोलह तथा पंद्रह की तपस्या ठीक प्रकार से हुई। अट्ठाइ की संख्या तो 150 से 200 ऊपर होने का जानने को मिलता है । सकल श्रीसंघ ने खूब उमंग भर कर पर्वाधिराज की आराधना पूज्य श्री की निश्रा में की। आत्म शुद्धिकर महापवित्र श्री कल्पसूत्र के रात्रि जागरण हाथी के हौदे पर पधराकर पूज्य गुरुदेव के बांचने के लिए विदा करने की मंगलक्रिया तथा स्वप्न उतारने आदि के चढ़ावे से देव द्रव्य-ज्ञान द्रव्य में खूब ही वृद्धि हुई । पर्वाधिराज की आराधना उमंग भर कर हुई बाद में पूज्य श्री भा.सु. 8 के व्याख्यान में चैत्य परिपाटी के रहस्य को समझा कर भा. सु. 11 से उदयपुर के समस्त जिनालयों की प्रातः 7 बजे से 9 बजे तक दर्शन यात्रा प्रारम्भ कराई। आसोज सु. 3 के अन्तिम दिन आयड़ के महाराज संप्रति कालीन प्राचीन पांच जिनालयों की यात्रा प्रसंग में पूज्य श्री ने सकल श्री संघ के सामने श्रुतज्ञान की आराधना पालन करने के लिए ज्ञानाचार के आठ भेदों में से एक भेद उप प्रधान तप नामें आचार के पालने के लिए खूब ही पूरी गर्मिता बतलाई। श्रावक जीवन की नींव उपधानतप है तथा वर्तमान काल की अपेक्षा उपधान तप श्रावक जीवन का महान उच्चकोटी का तप है। २०४ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "उपधान के बिना महामंत्र की गणना भी नहीं सूझती" को शास्त्रीय बात अनेक उदाहरणों, दृष्टान्तों को समझाकर सकल श्री संघ को प्रोत्साहित करके उपधान तप कराने का मंगल निर्णय कराया । उदयपुर के वृद्धजनों के कहने पर उनकी याद में अब तक उपधान तप नहीं हुआ ऐसे प्रमाण पर धर्म प्रेमी जनता में खूब जागृति आयी। परिणाम में सेठ गिरधर जी कान जी चपलौत ने उपधान तप कराने का लाभ लेने की बात श्री संघ के सामने प्रस्तुत की। उपधान कराने वाले गिरधर सेठ में इतना अधिक उत्साह था कि पूरा खर्च वे करने, भक्ति का लाभ अधिक मिले, ऐसी पेशकश श्री संघ के सामने की परन्तु श्री संघ ने कहा कि हमारे यहां ऐसा परम उपधान होता है तो हम सबको लाभ मिले यही इच्छनीय है। यों थोड़ी देर खूब धर्म प्रेम की रस्साकशी जमी। इस प्रसंग में पूज्य श्री ने समझाकर कहा कि- “महानुभावों ! तपस्या करने वालों को भक्ति का "लावा" वास्तव में दुर्लभ है । गिरधर सेठ को उमंग हुआ है तो लाभ लेने दो। पाप श्री संघ के भाइयों वैया वच्च-व्यवस्था-भक्ति आदि से लाभान्वित होना।" श्री संघ के भाइयों ने कहा कि"बापजी ! श्रावक-जीवन में ऐसा दुर्लभ उपधान तप की आराधना आप जसे आगम-प्रज्ञ महापुरुष की निश्रा में फिर २०५ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने कब अवसर प्रावे ? इसलिए गिरधर सेठ को उपधान तप करने की स्वीकृति देने के बदले वह लाभ हम श्री संघ को ही मिले तो उत्तम ।" थोड़ी देर तक बात बहुत चर्चित हुई- अाखिर कार पूज्य श्री ने निराकरण किया कि- "यों करो! गिरधर सेठ भले ही उपधान करावे । उपधान के सम्बन्ध में प्राथमिक रूप में तथा परचूनी खर्च बहुत होता है सो सम्पूर्ण लाभ उन्हें दो तथा श्री संघ की तरफ से एकासणा, प्रांबील की टोलियां लिखी जावे । इस प्रकार दोनों को लाभ मिले। गिरधर सेठ ने दीन निवेदन पूर्वक कहा कि- "बापजी ! टोलियां संघ लिखावे तब तो सब लिख लिया जाय फिर मुझे क्या लाभ ?" अन्ततः हां, ना करते गिरधर सेठ के "उतर पारणा" तथा पहली-अन्तिम टोली बाकी की टोली श्री संघ लिखा लेवे । बचा हुआ सारा लाभ गिरधर सेठ को।" ऐसा हम सुनकर सबने हर्षयुक्त गगन भेदी शासन देव की जय के नाद से वातावरण गूजा दिया। बाद में श्री संघ ने पूज्य श्री से उपधान तप के लिये मुहूर्त की इच्छा दर्शायी जिसको सकल श्रीसंघ ने प्रभु महावीर स्वामी के गगन भेदी जयघोष के साथ स्वागत कर लिया। चौग न देहरासर के सामने विशाल बरामदे में भव्य मंडप बांधकर उपधान वालों की भक्ति के लिये भी सम्पूर्ण २०६ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्थित तैयारी करने के उपरान्त वाले भाई-बहिनों के रहने के लिये अलग-अलग व्यवस्थित सुविधा इत्यादि काम काज श्री संघ के सहयोग से गिरधर सेठ ने शीघ्रता से करवाना प्रारम्भ कर दिया। आश्विन सु. 7 से श्री नवपद जी की चौगान के देहरे भव्य श्री सिद्ध चक्र जी का यंत्र पधराकर ठाठ से आराधना प्रारम्भ हुई। पूज्य श्री सकल श्री संघ के साथ शहर के उपाश्रय से चौगान के देहरासर के पास के मकान में उपधान के लिए शुभ मुहूर्त रूप में पधारे । श्री उपधान मंडप में श्री नवपद जी की अोली के व्याख्यान प्रारम्भ हुए । सामुदायिक श्री नवपद जी की आराधना, सामूहिक प्रांबील आदि सम्पूर्ण कार्यक्रम भव्य रूप से संयोजित हुआ। आसोज सु 10 के मंगल दिन प्रातः 8.37 मिनिट के मंगल मुहूर्त में श्री उपधान तप की क्रिया पौने चार सौ भाई बहिनों ने उमंग से प्रारम्भ की। अनेक वर्षों में पहली बार श्री उपधान तप की आराधना होकर करने वाले-कराने वाले सब में भारी उमंग थी। अन्य मुहूर्त में 130 आराधकों ने प्रवेश किया। कुल 505 आराधक श्रुतज्ञान के विनयरूप श्री उपधान तप में संयुक्त हुए जिसमें 42 पुरुष बाकी 463 स्त्रियां थी। कार्तिक सुदि पूर्णिमा के दिन उपधान वालों को साधुजीवन की प्रमाले मिले इस उद्देश्य से संयमी जीवन २०७ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्या के प्रतीक रूप प्रत्येक उपधान वालों ने बड़ भाग में अपनी उपधि खुद ने उठाई सिसारमा गांव में पूज्य श्री के साथ विहार का रसास्वादन लिया । सिसारमा गांव जाकर श्री सिद्धगिरी के पट की यात्रा की। श्री सिद्धाचल महातीर्थ की आराधनार्थ चैत्य वंदन का उस्सग इत्यादि करके ठेठ दो बजे मंद शक्ति वालों ने नीवि की । शेष अनेकों ने पूज्य श्री की देशना से भावित होकर छट्ठ की तपस्या की । दूसरे दिन साधु की तरह अपनी उपधि उठाकर वापिस चौगान के देहरे आकर सम्पूर्ण विधि की । पूज्य श्री ने साठ पोरसी को पच्चव पालने की छूट दी फिर भी छट्ठ के सब तपस्वियों ने पुनिमढ़ नीवी उमंग युक्त की । ऐसी उपधान के आराधकों की विशिष्ट आराधना की जागृति पूज्य श्री के व्याख्यान के बल पर संयोजित हुई । उस प्रसंग में सकल श्री संघ ने उदार मन से लाभ लेने के लिए उमंग पूर्वक तैयारी करनी प्रारम्भ की। पूज्य श्री ने उपधान वालों को समझाया कि - " अब विरति - जीवन के दिन थोड़े गिनती के हैं, दुनिया की दृष्टि से तुम अब मुक्त होने को हो । परन्तु वास्तव में मोहमाया के बंधन से अभी छूटे हो, पर वापिस बंधन में आने को हो । यदि शक्य हो तो देश विरति में से सर्व-विरति के उच्च वर्ग में नाम लिखवाना । प्रसरी रहे तो- “ भागता भूत की चोटली २०८ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकड़ ली" की तरह अविरति के फिसलन भरे मार्ग पर पुनः जाना पड़े तो भी पूरा का पूरा विषय कषाय के कीचड़ में फंस जाय इसलिये त्याग-तप- व्रत- नियमों के पच्चकखाण करना तथा आराधना भी तब ही सफल होगी" यह बात भी पूज्य श्री ने समझाई | इससे दो लड़कियों तथा तीन विधवा बहिनों को सर्वविरति जीवन लेने की उमंग जागृत हुई । घर वालों को किसी प्रकार समझाकर माल के मुहूर्त में ही दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प प्रकट किया । सकल श्री संघ में खूब धर्मोल्लास फैल गया । का. वि. 10 से समस्त श्री संघ की तरफ से भव्य अष्टान्हिका महोत्सव चौगान के देहरा प्रारम्भ हुआ । माघ सु. 2 को भव्य रथयात्रा निकली जिसमें उपधान के तपस्वियों ने उत्तम प्रकार के वस्त्राभूषण पहन कर हाथी, घोड़ा गाड़ी, बग्गी, श्रंगारित इत्यादि में बैठे । इस रथयात्रा में सात हाथी, प्रभु जी का भव्य चांदी का रथ, चांदी की पालकी, डंका, कांतल इत्यादि के उपरान्त अगणित कितने ही श्रंगार कराये गये घोड़ा, घोड़ा गाड़ी, बग्गियों आदि से शासन शोभा बहुत बढ़ गई । माघ सु. के प्रातः काल 9-23 के शुभ मुहूर्त में उपधान तप मालारोपण की क्रिया प्रारम्भ हुई । 10 - 37 मिनिट पर पहली माला रु. 22,111 / - सेठ गणेशलाल मुथा के घर में से पहन कर 3 २०६ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त पूरा कर पांच दीक्षार्थी बहिनों की दीक्षा-विधि ठाठ से की। ग्यारह बजे दीक्षार्थी वेष बदलने गये उस समय माला परिधान प्रारम्भ हुआ। ___ माला के चढ़ावे 125 तक ठीक हुए। 125 वीं माला 1121/- में पहनाई। बाद में समय की कमी से 1001/-, 751/-, 501/-, 302/-, 251/-, 2017, 1251, अन्य मालायें 101 के नकरा से पहनाने में आयो। बाद में सब माला वालों के साथ श्री संघ को लेकर पूज्य श्री चौगान से शहर में शीतलनाथ जी के मंदिर के देहरे दर्शन हेतु पधारे । चैत्य वंदन करके गौड़ी जी के उपासरे आकर मांगलिक सुना कर श्री उपधान-तप की भव्य आराधना की समाप्ति की। श्री संघ तरफ से इस प्रसंग में आठों दिन साधार्मिक-वात्सल्य हुआ । समस्त उदयपुर में सबके चूल्हें अभयदान में रहे । इस अवधि में पू. गच्छाधिपति श्री की तबीयत खराब होने के समाचार यदाकदा शिथिलता के प्राते रहने से तथा बारह से चौदह वर्ष की लम्बी अवधि हो जाने से पूज्य गच्छाधिपति के दर्शन-वंदन की उत्कृष्ट भावना होने से विहार के लिये पूज्य श्री पूर्ण तथा पक्की तैयारी में जुट गये । श्रीसंघ के अग्रगण्यों को खबर पड़ी कि पूज्य श्री अब गुजरात तरफ पधारने हैं । इसलिये वे बारंबार दोपहर, रात्रि में तथा व्याख्यान में जोरदार विनती करने लगे कि २१० Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "साहब ! हम निराधार हो जावेंगे । आप हमें छोड़कर गुजरात के साधुओं से भरपूर हरे-भरे प्रदेश में पधार जाओगे तो संवेगी साधु के विहार से वंचित हमारे इस क्षेत्र की क्या दशा होगी?" उदयपुर शहर के छोटे-बड़े एक एक भाई बहिन भी कल्पांत करने लगे तथा पूज्य श्री को इस प्रदेश में विचरण कर बारंबार उदयपुर को चातुर्मास का लाभ देने हेतु भावपूर्वक आग्रह करते रहें ! इस प्रकार उपधान कार्य के बाद मौन एकादशी तक श्री संघ के प्राग्रह से पूज्य श्री की स्थिरता हो सकी। इस समय "भोयणी" तीर्थ नया प्रकट हुआ उसकी महिमा बहुत फैल गयी थी। नया जिनालय तैयार होने लगा । उसकी प्रतिष्ठा का प्रसंग महीने दर महीने सुना जा रहा था। इससे पूज्य श्री "भोयणी" प्रतिष्ठा के हिसाब से उदयपुर से जल्दी विहार के निर्णय की भूमिका दृढ़ बना रहे थे । परन्तु उदयपुर श्री संघ का धर्म-भावना का आग्रह देख कर छोटे-बड़े सबकी उत्सुकता देखकर उलझन में पड़ गये। जो कि बारंबार उपराउपरी चातुर्मास के अधिक परिचय के कारण जब भी विहार हो तब ऐसा वातावरण होना स्वाभाविक है । परन्तु पूज्य श्री जो "भोयणी"-प्रतिष्ठा पर भोणी चमत्कारों की बात को सुनकर जाने की इच्छा थी। उसमें भावी योग से विघ्न खड़ा हो गया जो कि निम्ना २११ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुसार पत्र से स्पष्ट होता है :- मुनि श्री भवेर सागर जी, उदयपुर ( यह प्राय: पता लगता है ) श्री अहमदाबाद से लि. मुनि मूलचन्द जी, सुखशाता पढ़ें । श्री उदयपुर मुनि झवेर सागर जी ! तुम्हारा पत्र मृगशिर विद 2 का पहले मिला है । जेठा सूरचंद जी की चिट्ठी के साथ उसका उत्तर लिख नहीं सका । उसका कारण जेठा सूरचंद सारगंद तरफ गये हैं । उनके लौटने की राह देखने से नहीं लिखा जा सका । परन्तु अभी तक वे प्राये नहीं है । इससे यह शिथिलता है । आपने "भोयणी की प्रतिष्ठा ऊपर" आने के सम्बन्ध में लिखा वह जाना । परन्तु X Xx प्रतिष्ठा ऊपर हमारी राय में ठीक नहीं आता । कारण निम्नानुसार है- एक तो इस प्रतिष्ठा का कामकाज विद्याशाला वाला तथा स्वैच्छाचारी गण है ( हस्तक) जो अनुभवी नहीं है । जेठा सूरचंद ने ऐसे व्यक्तियों के प्रसंग में अभी तक जाने का विचार दीखता नहीं । आत्माराम जी भी इस प्रतिष्ठा पर "भोयणी' की दिशा में आने को नहीं है ऐसा सुना है । प्रतिष्ठा कराने वाले विधिवाला पेथापुर वाला या बड़ोदरा वाले आने का सुना है । इस रीत भाँत को देखते हमारी दृष्टि में ठीक प्राता नहीं । गोकुल जी का धर्म लाभ तुम्हारी तरफ कहां है । उन्होंने अपनी वंदना लिखवाई है । यहां सर्वे साधु-साध्वियाँ सुख -शाता में हैं। संवत 1943 का २१२ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगशिर विद 13 गुरूवार-लि. सेवक गोकुल जी की वदना पढ़ना तथा मगन लाल पूजावत को प्रणाम कहना। कहना कि तुम्हारा पत्र पहुँच गया है । इस प्रकार कहना। इस पत्र में मुख्य रूप में "भोयणी' प्रतिष्ठा के किये पू. गच्छाधिपति मूलचंद जी म. की अरुचि दिखाने वाली बातें है। उन्हें पढ कर पूज्य श्री ने खास भोयगी के सम्बन्ध में सुने चमत्कारों से खिंचकर भोयणी जाने की जो मन में उत्सुकता थो जिस बहाने मेवाड़ प्रदेश से बाहर निकलने की तथा पू. गच्छाधिपति श्री के दर्शन वंदन का लाभ मिले ऐसा था। फिर भी प्राज्ञाकोनता ही स वू जीवन की सच्ची होने से पू. गच्छाधिपति श्री की प्राज्ञा भोयणी प्रतिष्ठा के लिये दर्शाई गयो । अरुचि प्रकट करने वाले कारणों से युक्त होकर निषेधात्मक जान कर अपने मानसिक आवेग को शान्त कर गुजरात तरफ के विहार विचार को अलग हटा सके । इसमें “एक पंथ दो काज" की नीति भी पूज्य श्री ने वापरी हो ऐसा लगता है । उदयपुर के श्री संघ के दैन्य याचनामरे अत्यन्त प्राग्रह के वश होकर एक चातुर्मास हो जाय तो चातुर्मास के बाद गुजरात की तरफ जाने की उत्तम शक्यता रहेगी और यह भी कह सकायमा कि “तुम्हारे प्राग्रह को मान देकर अनिच्छा से भी चातुर्मास और किया “आदि अत: पूज्य श्री ने गच्छाधिपति श्री ने विद 13 के पत्र से २१३ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोयणी प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में पू. गच्छाधिपति श्री की अनिच्छा जानकर उदयपुर श्री संघ को प्रसन्न करने वाला प्रयत्न किया कि- "चलो ! तुम सब लोगों का खूब आग्रह है तो गुजरात तरफ नहीं जाऊँ। बाद में धनजी संघवी के मन में हुआ कि- पूज्य श्री राणकपुर तरफ पधारते हैं तो छरी पालते संघ की मेरो भावना भी पुरी हो जायगी" यो विचार कर पूज्य श्री को विनती की कि- " साहेब ! मुझे छरी पालना करते संघ निकलने का भावना आप जब भीलवाड़ा से केशरियाजी संघ लेकर यहां पधारे तब से ही प्रकटी है । आपकी निश्रा में वह संघ निकाल कर जीवन को धन्य बनावूऐसा वासक्षेप डालिये तथा शुभ मुहूर्त दिखाने की कृपा कीजिये ।” धनजी संघवी संघ के अग्रगण्यों को लेकर पो. सु. 7 को पूज्य श्री के पास संघ निकालने की भावना को साकार करने हेतु संघ प्रयाण का मुहूर्त पूछने आये। पूज्य श्री शुभ स्वरोदय परखकर धनजी सेठ के नाम से बराबर खोजकर माघ सु. 5 का मुहूर्त दोपहर 3-37 प्रयाण-मुहूर्त तथा माघ सु. 13 को माल का मुहूर्त दिया। मनजी सिंघवी की धर्मभावना तथा आग्रह को देखते हुए पूज्य श्री की निश्रा में श्री संघ देवाली, गोगूदाँ, राणकपुर, घाणेराव, सादड़ी होता मुछाला महावीर जी पहुंचा। वहाँ चैत्रो अोलोकी भव्य आराधना Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री की निश्रा में सम्पन्न की । इसी चैत्री प्रोली दरम्यान उदयपुर श्री संघ तथा चौगान के देहरासरों के व्यवस्थापकों का पत्र प्राया जिसमें परस्पर मतभेद के कारण से वर्ग-विद्रोह पड़ गया तथा वैमनस्य की बात प्रकट हो गयी । तथा दोनों पक्ष पूज्य श्री को अवश्यमेव उदयपुर पधार कर वैमनस्य दूर करने की विनती की । चैत्र विद तीज के दिन दोनों पक्ष के अग्रगण्य पूज्य श्री के उदयपुर पधार कर धर्मस्थानों की व्यवस्था में पड़ी उलझन के सुलझाने के लिए पधारने की प्रग्रहभरी विनती की । इसलिए उदयपुर की धार्मिक-सम्पत्तियों को व्यवस्था तंत्र में उत्पन्न खींचतान के परिणाम से धर्मस्थान में अव्यवस्था न हो। और भी उदयपुर श्रीसंघ के तथा सामने के पक्ष में चौगान के कार्यकारियों द्वारा खास आग्रह तथा चौगान के देहरासर की स्थापना सागर - शाखीय मुनिवरों के हाथ से होने से उसकी अव्यवस्था निवारण करने की स्वयम् की जवाबदारी आदि के कारणों को विचार कर इच्छा नहीं होने पर भी परिस्थितिवश पूज्य श्री ने उदयपुर तरफ विहार का विचार रखा । चैत्र विद 10 के दिन घाणेराव से कुमलमेर, रोछेड़ आमेंट होकर राजनगर दयालशाह के किले, अदबुद जी होकर २१५ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैसाख वि [2 के मंगल दिवस उदयपुर रघारे । श्री संघ में पूज्य श्री के चातुर्मास अब यही होगा, क्या प्राग्रह कर करायेगे ही यो धारणा करके प्रवेक्ष महोत्सव धूमधाम से किया। पूज्य श्री ने व्याख्यान में धर्म स्थानों की व्यवस्था की पवित्रता कार्यवाहकों की जवाबदारी आदि पर प्रकाश प्रसारित करने के साथ साथ दोनों पक्षों को बराबर सुनकर वास्तव में अहं भाव से उत्पन्न विकृत बातों का निराकरण करके दोनों का मन संपुष्ट किया। पूज्य श्री ने परिस्थिति का अभ्यास करने लगा कि बेसमझ तथा व्यवस्था कोशल के अभाव में कितनी ही अक्षम्य क्षतियाँ होने लगी है । जिससे समस्त बहियों को स्वाताबार खोजकर समस्त सूचनामों को एकत्रित करके व्यवस्थापकों का ध्यान खींचक र यथायोग्य सुधार कराया। इस सारी प्रवृति में जेठ विद पचमी हो गयो । जेट विद 10 का माद्रा नक्षत्र था, बरसात को तडोसार तैयारी हा गयी थी। अत: अनिच्छापूर्वक तथा श्री संघ के प्रति प्राग्रह से तथा मृगसिर विद के चातुर्मास की गभित हाँ भर लेने से वचन बद्वता के कारण वि. सं. 1943 का चौमासा पूज्य श्री को उदयपुर करना पड़ा। पूज्य श्री ने व्याख्यान में देव द्रव्यादि की अव्यवस्था दुर करने के शुभ माशय से श्रावकों के कर्तव्य के अधिकार की Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात अधिक स्पष्ट रीति से समझाकर श्री श्राद्ध-दिन कृत्य सूत्र तथा भावनाधिकार से सुदर्शन चरित्र प्रारंभ किया । श्रावकों के दैनिक कर्तव्यों का अधिक स्पष्ट ध्यान रहे इस प्रकार की निस्तारण सहित पूज्य श्री ने व्याख्यान में प्रचार करना प्रारंभ किया जिससे श्रावक जीवन में उपयोगी प्रधानता श्रोताओं के मानस में घुसने लगी। परिणामस्वरुप अंधेरे में चुल्हा जलाना, बिना छाने पानी, जीव यत्न का अभाव, हरे फुल तथा त्रसजीवों की होती अ-जयणा बासी, विदल, रात्रिभोजन, कदमूल आदि अभक्ष्य पदार्थ आदि श्रावक जीवन को अशोभनीय अनेक वस्तु विषय पूज्य श्री की प्रेरणा से श्रावकों के घर से दूर होने लगी। श्रा सु. 5 से 10 तक पंचरंगीतप प्रारंभ हुआ जिसमें उपवास वाले पच्चीस, चार उपवास वाले पचास, तीन उपवास वाले सौ, दो उपवास वाले दो सौ तथा एक उपवास वाले चारों कुल मिलाकर 775 अाराधकों ने चार गतिका नाश करके पंचमी गति मोक्ष प्राप्त करने के लिए विशिष्ट आराधना "काउसग्ग", "मासखमण", साविया तथा नवकार वाली के साथ भावोल्लास पूर्वक की। आश्विन सुद तृतीया को चौगान के देहरासर शहर यात्रा का कार्यक्रम पूरा हुआ उस दिन व्याख्यान में आश्विन सु.6 से प्रारम्भ होती । शाश्वत श्री नवपद जी की अोली की सामुदा २१७ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ for प्राराधना में संयुक्त होने की सबको प्रेरणा की। श्री सहस्त्रणा पार्श्वनाथ प्रभु के जिनालय में सामुहिक स्नात्र यदि विधि में उमंग पूर्वक लाभ लेने को श्री सघ ने भी घोषणा की। 70 से 80 नये ओलीवाले वैसे ही 125 से 150 पुराने ओलावाले मिलकर 225 प्रारावक श्री नवपद जो को प्रोली की भव्य आराधना पूज्य श्री की प्रेरणा से संयुक्त हुए । 1 व्याख्यान में छटादार शैली से पूज्य श्री ने श्री पाल चरित्र के प्रसंगों के रहस्यों को समझाकर प्राराधकों को उदात प्रेरणा प्रदान की । आराधकों में से एक श्री जड़ावचंद जी की सुपत्नी सुगनबाई ने भावोल्लास होने से तीन छोड़ का उजमणा भव्य शान्त स्नात्र महोत्सव के साथ करने की भावना जागी । तदनुसार तात्कालिक शीघ्रता से तैयारी कराकर आसोज सुद 15 से उजमणे का प्रारंभ करके ग्रासोज विद 7 का शान्ति स्नात्र रखकर सु. 15 से अट्ठाइ उत्सव शुरु करने की पूज्य श्री से अनुमति प्राप्त की । उजमणे की स्थापना गोड़ी जी महाराज के देहरासर के पास उपाश्रय में हुई । अट्ठाई उत्सव श्री सहस्त्रकरणापार्श्वनाथ प्रभु के जिनालय में रखा | भव्य अंगरचना आदि के साथ विविध पूजाओं के कार्यक्रम के साथ श्री वीतराग प्रभु की भक्ति का भव्य कार्यक्रम शुरु हुआ । उसके बाद पूज्य श्री ने लौकिक पूर्व के रूप में दीवाली की पारिता को टालने के २१८ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए प्रभु महावीर परमात्मा के निर्वाण-कल्याणक साथ उसका आदर्श सम्बन्ध शास्त्र धार पर समझाकर लोकातर पीत से प्रकाश पर्व के रूप में दोपावली का महत्व समझाकर अज्ञान के अंधकार उसोचने में समर्थ प्रभु शासन की सफल पाराधना रूप दीपोत्सव की आराधना का परम अर्थ समझाया। तदनुसार पुरुषात्मा यों को षष्ठी तपस्या दो दिन के पौषध तथा रात्रि गणना दत वंदन आदि विधि के साथ दीपावली की लोकोतर आराधना उदयपुर में प्रथमवार की। नूतन वर्ष के मंगल प्रभात में प्राद्य-गणधर श्री गौतम स्वामी जी म. के केवल ज्ञान को दृष्टी में रखकर मोहक क्षयोपशम के लिये सब का सावध होने का जताकर नूतन वर्ष में सबसे पहले पानेवालो ज्ञान पंचमी की आराधना के लिये योग्य तैयारी करने का जताया । इस प्रकार ने 1943 का चातुर्मास खूब ही धर्मोल्लास के मध्य पूरा होने को तैयारी में था। तब का. सु. 10 के रोज अहमदाबाद से कोकीभट्ट की पोल में रहते सेठ दीपचंद देवचंद का विनती भरा पत्र पाया कि - "पूज्य श्री गच्छाधिपति की निश्रा में तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय गिरिराज की मंगल यात्रा चतुर्विध श्री संघ के साथ छ"री पालते हुए करने-कराने की देव-गुरुकृपा से भाव जगा है । जिसका मुहूर्त अब दिखाएंगा। परन्तु पू. गच्छाधिपति की शारीरिक अस्वस्थता बराबर जैसी २१६ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है, इससे जल्दी से जल्दो अवसर पर संघ निकालने की. भावना है। आपको आग्रहभरी नम्र विनति है कि उधर अापको बहुत वर्ष हो गये हैं । पू. गच्छाधिपति के पास उत्तराधिकारी को लेने के लिए आप जैसों को यहां खास आवश्यकता है, साथ ही मेरी भावना है कि आप अवश्यमेव संघ में पधारों। इस रीति से उपस्थित पालीताणा-संघ में जानेकी बात को आगे करके पू. गच्छाधिपति श्री की वंदना के लिये अत्यंत उत्सुक पत्र पढ़कर संघ में सुनाया एवं का. वि. 2 प्रातः केशरियाजी होकर गुजरात अहमदाबाद तरफ विहार की भावना प्रकट की। श्री संघ के छोटे-मोटे सब ने एकाएक आघात अनुभव किया। परिणामतः सबकी खूब उमंग-प्रभिलाषा से पूज्य श्री अधिक धर्मलाभ देने के लिए स्थिरता का खूब आग्रह किया परन्तु अन्ततः कर्तव्य-निष्ठ की धुरी पर पूज्य श्री ने मौनभाव से सबके धर्मप्रेमी को झेलते रहे । समयोचित-आश्वासन देकर पूज्य श्री ने समझाया। सबने भारी हृदय से विदा ली। धूमधाम से का सु. 15 का चातुर्मास परिवर्तन करके सोसारमा गांव में श्री सिद्धगिरी का पट बाँधकर महातीर्थाधिराज श्री की आराधना सकल श्री संघ के साथ पूज्य श्री ने की। पूज्य श्री ने का. वि 1 को योग्य तैयारी करके अन्तिम २२० Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान में धर्म की आराधना करने की भलामण दी । का. वि. 3 को मंगल प्रभात में गुजरात की तरफ जाने के इरादे से केशरियाजी तरफ विहार की घोषणा की । समस्त संघ खुब ही नाराज हुआ । पूज्य श्री से खूब ग्रजीजी याचना करके थोडे दिन और रुकने का खूब आग्रह किया, परन्तु पू. गच्छाधिपति की तबियत के कारण इसी प्रकार पू. गच्छाधिपति की निश्रा में कीकीभट्ट की पोलवाले सेठ दीपचंद - देवचंद की तरफ से माघ सु. 3 के मंगल प्रभात में श्री सिद्धगिरिपालीताणा का छ" रीपालन करते सघ निकलते होने के पूर्व ही वहां पहुंच जाने के ध्येय से श्री संघ के वश मेंन हीं हुए । अन्ततः थोड़े में पूज्य श्री ने जतलाया कि महानुभावों ! कारणवश - संयोगवश एक साथ दस चातुर्मास यहां करने पड़े, इतना अधिक आप सब का गाढ़ परिचय हुआ तो भी आप लोगों की हमारी तरफ अरुचि नहीं हुई है जो आपकी उत्कट धर्म निष्ठा बतलाता है परन्तु अब " आप कहते रहो और मेहमान चले जावे इसमें ही मेहमान की शोभा है "न्याय प्रमाण से गुणानुराग से भरे प्राप सब को धर्म स्नेह भरे इन्कार के बीच में हम साधुत्रों को विहार कराने में आपकी और हमारी शोभा है । क्योंकि कहा है कि ना करने के साथ साधु को विदा कराना या होना २२१ " Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों पक्षों में हानि है "। " श्राप सब समझू - दीर्घदर्शी हो । मुझे पू. गच्छाधिपति श्री को वंदन किये सोलह वर्ष बीत गये हैं, अब पू. गच्छाधिपति श्री की तबियत शिथिल हो गयी है अतः अधिक आग्रह नहीं करो तो उत्तम" इस रीति से हार्दिक श्राश्वासन देकर श्री संघ के मन को संपादित किया। का. वि. 3 प्रात: छोटे मोटे धर्मानुरागी सबसे भावभीनी विदा लेकर पूज्य श्री ने विहार किया। उदयपोल दरवाजे पर मांगलिक सुनाया । अश्रुपूरित नेत्रों से सब ने पूज्य श्री को शतापूर्वक विचरने का कहकर भारी हृदय से पीछे फिरे । पू. श्री का. वि. 9 के मंगल दिन केशरियाजी पधारे । विहार में उदयपुर के सैंकड़ों भाविक थे । महावीर की दीक्षा - कल्याणक तिथि का ख्याल रखकर पूजा-रथ यात्रा - महोत्सव करने की श्री संघ को प्रेरणा प्रदान की । का. वि. 11 प्रातः बीछीवाड़ा होकर शामलाजी विद अमावस्या पधारे वहां से माघ सु. 1 प्रातः टीटोई तीर्थ में मुही पार्श्वनाथ प्रभु के दर्शन वंदन किये। श्री संघ ने मौन एकादशी के लिए रुकने का बहुत आग्रह किया परन्तु पू. गच्छाधिपति श्री के दर्शन वंदन की उत्सुकता से रुके नही । मोड़ा, बाड़, घड़िया, लालपुर होकर पूज्य श्री माघ सु 10 के शुभ दिन कपड़वंज पधारे । श्री संघ को खबर मिली बिना ऋतु के आम फलने की २२२ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह कि, अचानक खजाना मिलने की तरह खुब आनंदित पूज्य श्री को निश्रा में मौन एकादशी की भव्याराधना विधिपूर्वक की। पूज्य श्री ने मगन भाई भगत को तथा पू. चरित्रनायक श्री को पास बिठाकर संयम धर्म की महत्ता, उसकी प्राप्ति के लिये भव्य पुरुषार्थ तथा तत्सम्बन्धी व्यवस्थित योजना के लिए विचारणा करके उनको संयम के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा प्रदान की। बाद में माघ वि. 1 प्रातः पूज्य श्री प्रातर सूब दहेगाम होकर माघ वि. 7 के दिन नरोड़ा पधारे । अहमदाबाद समाचार पहूँचने से पू. गच्छाधिपति श्री द्धारा योग्य का सन्मान योग्य रोति से करने के उद्देश्य से खुद के आठ दस साधुओं को लेने के लिए भेजा । पूज्य श्री ने भी खूब ही उल्लास से नरोड़ा श्री गोड़ी पार्श्वनाथ जी की यात्रा करके विद 8 के मंगल दिन शुभ चोघड़िये में पूज्य गच्छाधिपति श्री के पास उजमभूषा की धर्मशाला में पधारे। पूज्य गच्छाधिपति श्री को खूब भावोल्लास पूर्वक वंदना की। पू. गच्छाधिपति श्री ने भी पूज्य श्री का हृदय उत्साह से स्वागत किया। रतलाम, इन्दोर, महीदपुर तथा उदयपुर में की गयो विशिष्ट शासन-प्रभावना के सम्बन्ध में धन्यवाद देकर उदयपुर जैन श्री संघ के धार्मिक जीर्णोद्धार के विषय में खूब अभिनन्दन किया। यथावसर पू. गच्छाधिपति की रतलाम, इन्दोर तथा उदयपुर के चातुर्मास के बीच में हुई २२३ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध शासन प्रभावना युक्त समाचारों, सनातनियों, आर्य समाजियों, स्थानकवासियों, तेरापंथी तथा तीन थुई वाले के साथ सम्पन्न चर्चा विवाद के विवरणों को प्राप्त कर खुब आनन्दित हुए। खास करके महीदपुर चातुर्मास में आगम वाचन करके पैतीस पागमों को वांचने को बात जानकर अधिक आनन्दित हुई। समग्ररूप में जिस विशिष्ट प्राशय से पू.गच्छाधिपति श्री ने पूज्य श्री को मेवाड़ मालवा तरफ विचरने को भेजा वह आशय अपेक्षा से भी अधिक सफल होने से पूज्य श्री ने भगवती सूत्र के योगदान द्धारा पन्यासपदवी प्रदान करने की पूज्य गच्छाधिपति श्री ने भावना व्यक्त की । परन्तु पू. झवेर सागर जी म. श्री ने बताया कि " मुनिपद की अनुगुण आचरण तथा साधु के सत्ताईस गुणों को ठीक तरह से प्राप्त करने की पूरी तैयारी न होकर "खरपाखर भान न वेहे" अर्थात गधा हाथी के बख्तर को न उठा सके । अगर "खर पर अंबाड़ी न सोहे" इस सूक्तियों के आधार पर समस्त आगमों का अनुयोग कर सकने की वास्तविक योग्यता के प्रतीकरूप "अनुयोगाचार्य" पदवी से सम्बोधित पंडित पद के छोटे स्वरूप (पन्यासपद) के लिए मेरी पात्रता नहीं है।" जिससे मेरे में वैसी पात्रता नहीं होने पर भी उत्सृष्टापवाट २२४ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के रूप में समस्त श्रागमों को बाँचने का काम चलाउ अधिकार भी जो मुझे प्रदान किया है वह भी आपकी महाकृपा है । उसके लायक में बनुं यह मेरी अंतर की अभिलाषा "" है । " आपकी कृपा से मिले आगम वांचन कच्चा परवाना ( लाइसेन्स) प्राप्त कर सकूं ऐसी आप कृपा करों । बाकि पन्यासपद जैसा पक्का परवाना (लाइसेन्स) के लिए मेरे में योग्यता अथवा तैयारी नहीं दीखती है । "" आपके चरणों के प्रताप से श्री महानिशीथ सूत्र तक योग की आराधना हुई तो हुई परन्तु अब तो पिछले 6-7 वर्षो से प्रांतों की खोटो गर्मी तथा उग्र कब्जियात के कारण आंबील अथवा छः माह के बड़े योग को वहन कर सकने की मेरी शारीरिक तैयारी नही लगती है । " ऐसा होने पर भी आप श्री के मंगल- पुनीत आशीष भरे वासक्षेप के बल पर " 'योग वहन के लिये शारीरिक अनुकूलता बढ़ जायगी ऐसा मुझे भरोसा है । परन्तु वास्तविकता मे पदवी के भार को उठाने की निर्वाह की तथा शासनानुकूल रीति से पदवी को सफल करने की पात्रता मुझ में नहीं है । ܕܙ अभी तो मेरे साधुता के मूल पद- समाचरण, सितरीकारण सितरी में अनेक दोष लगते हैं शारीरिकादि कारणों से बहुत दोष लगाने पड़ते है । " अतः ग्रापके चरणों में मस्तक रखकर मेरी नम्रता विनम्र प्रार्थना है कि इस सेवक को २२५ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप अन्य किसी भी काम की आज्ञा करो परन्तु मेरी प्रात्मिक विकास की रीति के प्रतिकूल पदवी के लिये आज के बाद कभी भी सूचना कृपा करके नहीं कीजियेगा।" आदि बोल कर अपने अंतर की भूलों-दोषो तथा क्षतियों के लिए गच्छाधिपति श्री के चरणों मे सिर रखकर पूज्य श्री जोरजोर से रो पड़े। पूज्य श्री ने आश्वासन दिया कि- "भाई । तू समझदार है। और ऐसे ढोले मन का क्या होता है ? उस सम्बन्ध में सजगता यही वास्तव में आध्यात्मिक रीति से विशिष्ट योग्यता का लक्षण है।" इस प्रकार तो तू वास्तविक पदवी का पात्र है । और भी रतलाम, इन्दौर, उदयपुर में जो प्रतिपक्षी वादीगण के सामने जूझकर शासन का डंका बजाया है, शासन की विजय-पताका जो तूने भव्य रूप में फहराई है। उसे देखते तू आर्चार्य पदवी के भी लायक हैं । ऐसा होने पर भी वर्तमान-संयोगों को देखते तू “पन्यासपद के लिये भगवती जी के योगवहन करने तैयार हो । ऐसो मेरी अन्दर की इच्छा है, फिर भी तेरे अंतर उदात आध्यात्मिक विचारसर्राण देखकर तुझ पर आज्ञा अभियोग करने का मन नहीं है। तेरी अन्तर आत्मा अप्रसन्न हो ऐसा मुझे करने की भावना नहीं हैं। ___तू अन्तर से शासन समुदाय की रोति से तैयारी हो २२६ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "2 1 तब ही पदवी देने प्रदान करने की मेरी भावना है । बाकी तनिक भी दबाव नहीं करना । तेरो बात भी पूरी निकाल देने जैसी नहीं हैं । इत्यादि पूज्य श्री खूब ही गंभीर बन गये । पू. गच्छाविपति श्री ने भी 'अधिक खींचने में सार नहीं समझकर उस समय उस बात को टाल रखा । थोड़े दिनों के बाद पू. गच्छाधिपति श्री ने फिर से बात तनिक छेड़ी, परन्तु पूज्य श्री फिर से गच्छाधिपति श्री के चरणों में सिर रखकर फूट फूट कर रो पड़े तथा गद्गद् स्वर में बोले कि मुझ नालायक को आप क्यों ऊँचा बिठाते हों ! तनिक दया करो तो ठीक । 44 , ܕܙ पू. गच्छाधिपति श्री ने बाद में इस बात को पूरी तरह बन्द कर दिया । थोड़े समय बाद दोपहर के समय कीकाभट्ठ को पोलवाले सेठ दोपचंद देवचंद आदि चार पांच श्रावक पू. गच्छाधिपति के पास आये, वंदना की घोर उन्होने विनती की कि "साहेब, अब महरबानी करके श्री शत्रु जय के संघ का मुहूर्त निकाल दो तो ठोक । पूज्य गच्छाधिपति श्री ने अपने मुख्य शिष्य श्री कल्याणविजयजी तथा पू. श्री नेमविजय जी को तथा पूज्य श्री को बुलाकर बात की । पूज्य श्री नेमविजय जी महाराज ने माघ विद. 11 शनिवार का श्रेष्ठ मुहूर्त निकाला। "" २२७ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. गच्छाधिपति श्री ने बात की। पू. गच्छाधिपति ने भी संघ निकालने वाले व्यक्ति के . चन्द्रबल तथा चन्द्र की दशा इत्यादि देखकर कीकीभट्ठ की पोलवाले श्रावकों को शत्रुजय तीर्थ की यात्रा के लिये छ"री पालना रंघ का माघ वि 11 शनिवार का. श्रेष्ठ मुहूर्त जताया। श्रावक भी खूब प्रसन्न होकर ज्ञान पूजा करके वासक्षेप डलवाकर मांगलिक सुनकर शासन देव के जयनाद के साथ संघ प्रयाण की तैयारी का मंगल संकल्प कर खड़े हो मये। पू. गच्छाधिपति श्री को कोई अज्ञात संकेत से अब जाने यहीं फिर से नहीं आना हो उस प्रकार सब काम झटपट निपटाकर वृद्ध साधुनों को तथा श्रावकों को भी अन्तिम प्रथम पूरा कर सबको मिलकर सुन्दर हितशिक्षा बारंबार फरमाने लगे। पूज्य श्री ने पूज्य गच्छाधिपति की ऐसी पद्धति से तनिक मन में लगा कि "साहेब । क्यों ऐसा करते हैं, परन्तु "बड़े जो करते है समझकर करते है " की नीति के आधार पर पूज्य श्री ने तथा समुदाय के अन्य बड़े मुनियों ने भी कुछ गंभीर उद्देश्य की कल्पना करके मन शात रखा। माघ वि. अष्टमी व्याख्यान के लिये आग्रह करके सेठ श्री दीपचंद देवचंद भाई ने श्री गच्छाधिपति श्री की सकल २२८ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु समुदाय के साथ धूमधाम से सामैया के साथ पोल में पधरावणी की। ठेठ स्वामी नारायण मंदिर के सामने से कोकाभट्ट की पोल तक राजमार्ग को भव्य रूप से सजाया अपनी (कीका भाई) पोल के उपाश्रय में व्याख्यान रखा । पोल के देहरासर में दर्शन करके उपाश्रय में आकर गच्छाधिपति ने मंगलाचरण किया। तीर्थ यात्रा तथा छ"री पालन करते संघ के विषय में पूज्य श्री को व्याख्यान के लिये आज्ञा की। पूज्य श्री ने भी शास्त्रीय शैली से तीर्थो तथा उनकी यात्रा की महत्ता छ"री पालन युक्त संघ यात्रा का महत्व तथा उस सम्बन्ध में उचित कर्तव्यों पर सवा घंटे प्रकाश बिछाया । अन्त में गच्छाधिपति ने भी दो शब्द कह कर संघवी के भाव को परिपुष्ट किया। पोल के संघवी तरफ से दीपचंद सेठ ने संघ के प्रमुख व्यक्यिों सेठ ने पहरामणी करके संघपति का तिलक किया । पू. गच्छाधिपति ने भी संघ यात्रा तथा संघपति शब्द के रहस्य बताते हुए फरमाया कि "संघ की अपने प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य करके बकलसाभ करने की जवाबदारी समझे तथा संघ में आनेवाले सभी प्रभुशासन के मार्मिकभावों को ध्यान में रखकर सहनशीलता, समता, सतोष आदि गुणों को संयोग आदि धार्मिक उपदेश देकर सबको कर्तव्यनिष्ठ बनने हेतु जागृत किया । २२६ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ विद 11 शनिवार अपने देहरे ठाठ से सामुहिक स्नात्र पढ़ाकर शान्तिकलश करके गच्छाधिपति के पास वासक्षेप डलवाकर शुभशकुन जुड़ा कर दूसरे चौघड़िये चढ़ते सुर्य मंगल वाजित्रों के स्वरों के साथ सिद्धाचल जो की दिशा में चातुर्विध श्री संघ ने प्रयाण किया। प्रथम मुकाम छोटा जमालपुर को रखकर संघ की सारी योजना को व्यवस्थित करने एकत्रित हुए । बारेज,खेड़ा घोलका होकर उनेलिया का तीर उतर कर धंधूका में फाल्गुन चौमासा किया। संघ चार दिन धंधूका में रहा । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरि म. को जन्म भूमि की भावभरी स्पर्शना करके फा. वि. चौथ को संघ वल्लभीपुर (वला) पहुंचा। इस समय पालीताणा विराजमान पू. गच्छाधिपति श्री के शिष्य श्री कमलविजय म. अहमदाबाद में छ ‘री पालन करते संघ के साथ स्वयं को तारने वाले गुरुदेव श्री को पू. गच्छाधिपति श्री पधारने का जानकर अपूर्व गुरुभक्ति तथा वितीत भाव से पू. गच्छाधिपति श्री को लेने ठेठ वल्लभीपुर तक ( पालीनीतणा से 24 मोल) सामने आये । पूज्य गच्छाघिपति श्री अपने वित शिष्य की उदात्त मनोवृति देखकर खूब प्रसन्न हुए। ___ इस चातुर्मास में पू. गच्छाधिपति की तबियत यदाकदा २३० Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध रोगों से घिर गई थी। जिसमें चौमासी-चौदस के बाद मलेरिया ज्वर तथा उसके कारण अशक्ति शरीर को अधिक क्षीण बना रही थी। फिर भी पू. गच्छाधिपति यदाकदा तलहटी गिरिराज को स्पर्शना, दोपहर धर्मवाचन तथा अन्य शासनानुसारी विविध प्रवृतियों को यथाशक्ति चालु रखते । चौमासे के बीच में पू. साधु-साध्वियों को पू. गच्छाधिपतिहित शिक्षायुक्त योग्य संकेत करते कि "महानुभावों! इस संयमी जीवन में त्याग तप की महत्ता हैं । त्याग तप के बिना संयम कागज के फूल की तरह निस्सार बन जाती है।" "धर्मप्रेमो लोगों की तरफ से मिलने वाले आदर-सत्कार या वस्त्र, पात्र, आहार आदि अनुकूल सामग्री, त्याग-तप संयम के बल पर जो मिलते थे उसके विश्वास के प्रति हमें पूर्ण वफादार रहना चाहिए अन्यथा"धर्मदा री रोटियां, जॉका लाँबा लाँबा दाँत "धर्मकरणी करे तो ऊबरे, नहीं तो खेंची-खेंची काढे पाँत ।" राजस्थानी कहावत के अनुसार जसे अपने यथाशक्ति वीर्योल्लास युक्त होते हुए भी वीर्य सिपाये बिना प्रभु शासन के प्रति सच्चे वफादार आराधक नहीं बने तो अपनी प्रांतों को खींचकर निकाल ले ऐसा यह हराम का माल पचने मे भारी पड़ेगा। "अतः हे पुण्यवानों! खूब सावधान रहना। उस पर फिर यह तीर्थ भूमि। यहीं तो अपनी मोहवासना, २३१ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगवासना तथा शरीरवासना को काबू में रखना परमावश्यक "तरण-तारण हार परम पवित्र तीर्थाधिराज की शीतल छाया में अपनी वृतियों का उर्वीकरण प्रभुशासन के प्रति वफादारी के बल पर करना आवश्यक है।" फिर प्रभुशासन के आराधक-भाग्यवानों ने श्री प्राध्यात्म कल्पद्रुम के तेरहवें प्रकाशन के 8, 12, 16 तथा 19 मे श्लोक के भावार्थ में खूब ही गंभीर रूप से ध्यान में लेकर जीवन में बारंबार जीवन में उत्पन्न होते विषय-रागादि से उत्पन्न निर्बलता को झाडंभूड डालना आवश्यक है आदि" इस प्रकार की पूज्य श्री को वेधक-मार्मिक गंभीर अर्थयुक्त उपदेशक सूचना तथा प्रेरणा के बल पर पू. गच्छाधिपति श्री की निश्रा में साधु-भगवंतों में तान तथा साध्वियों के महाराजों में चार श्रावक-श्राविकों में 12 " मास क्षमण'। अठाइस सोलह उपवास" अठारह “ ग्यारह उपवास, पैंसठ अठुई तथा चत्तारो अठ्ठ की तपस्यावाले पुण्यात्माओं ने आराधन करके सफलरूपेण पर्वाधिराज की आराधना करके जीवन धन्य बनाया । पू. गच्छाधिपति श्री ने परिपक्व आयु होते हुए भी पर्वाधिराज में अट्ठाइ धारणकर तथा कल्पधर का उपवास करके अन्तिम अठ्ठम किया। २३२ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य गच्छधिपति श्री ने पर्युषण के पश्चात् शारीरिक अशक्ति के कारण थोडे दिन तलहटी जाने का निरस्त रखा। परन्तु एक समय भादवा विद में बहिभुमि से आते अज्ञात या अन्य किसी कारण से बाये पांव के पीछे भाग में सोजिस जैसा हो गया वेदना खूब होने लगी। परिणामतः बहिभुमि जाने का भी बन्द हो गया। दीपचन्द सेठ ने योग्य, अनुभवी, कुल वैद्यों को बुलाकर काफी योग्य उपचार किये परन्तु पाराम नहीं हुआ। पू श्री झवेर सागर जी म. पू. श्री नेमविजय जी म. तथा पू. श्री कुशल विजय जी म. पू. गच्छाधिपति श्री की सेवा में खड़े पाँव रहने लगे। ____ अधूरे में पूरा'' आश्विन सु. 12 पू. गच्छाधिपति श्री को ज्वर प्रारंभ हो गया जिसके प्रारंभिक उपचार करने पर भी हड्डियां गला दे ऐसा बुखार ने गहरा प्रभाव धारण किया। परिणामस्वरुप खुराक घट गयो, अशक्ति का प्रमाण बढ़ गया। साधुनों तथा श्रावकों को चिंतातुरता होने लगी। पू. गच्छाधिपति श्री “स्व-शता सहने हिगुणों महान् ” इस वाक्य को बीजमंत्र बनाकर सबको कहते कि : भाई ! पेढ़ी .. चालु हो तब जब लेनदार अपना लेना पूरा करने आते हैं । इस मौके पर साहूकार को तो मुह चमकोडे बिना भी चुका देने की आवश्यकता है।" आदि कहकर सबको दवा आदि उपचार के लिये इन्कार कर देने पर भी २३३ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भकति प्रदान साधुओं तथा विवेकी श्रावकों के धर्म-प्रेमी भरे आग्रह के वश होकर निरवद्य उपचारों को अपनाते । भावीवश पाँव की वेदना, ज्वर का भराव के उपरांत छाती के बाँये पक्ष में दर्द उत्पन्न हुआ जिससे पू. गच्छाधिपति श्री को बोलने में भी तकलीफ अनुभव होने लगी। सबको गाढ़ी चिन्ता हुई । भावनगर के श्री संघ में खबर पहुंची वहां विराजमान पू. श्री वृद्धिचन्द्र जी बहुत चितित होकर उत्तम कुशल वैद्यों को लेकर श्री संघ के अग्रगण्यों को भेजा एवं भावनगर पधारने को खुब प्रार्थना की पू. श्री झवेर सागर जी म. आदि 10 ठाणां तथा साध्वी जी 30 से 40 ठाणा तथा 100 से 125 श्रावक, 50 से 60 श्राविकायें चतुविध श्री संघ के साथ पू. गच्छाधिपति श्री का. व. 4 दोपहर भावनगर गांव में पधारे । का. वि 5 भावनगर श्री संघ ने धूमधाम से भव्य स्वागतपूर्वक नगर प्रवेश कराया। पू. श्री वृद्धिचन्द्र जी म. आनन्द भरे तरीके से पू. गच्छाधिपति की बाहय अभ्यातर परिचर्या में खडे पाँव रहने लगे। माघ सु. 4 से 7 तक खूब गंभीर स्थिति रही। श्वासप्रश्वास की प्रक्रिया अनियमित हो गयी श्री नमस्कार महामंत्र सुनाना प्रारंभ हो गया। परन्तु श्री संघ के पुण्योदय से पुनः माघ सु. 8 से बढता पनी लौटता हो गया। मौन एकादशी की आराधना स्वस्थरुप में की। मौन एकादशी देव वंदन २३४ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया । डेढ सो माला के गिनने में 40 माला भी गिनी | माघ सु. पूरिंगमा को समस्त श्री संघ को दो शब्द कहकर सबको खुश किया, सबको यों लगा कि अब पूज्य श्री स्वस्थ हो जायेगे । परन्तु भावी की गति अलग होती है । मृगशिर विद 2 रात्रि प्रतिक्रमण के पश्चार ज्वर बहुत बढ़ गया । विद 4 के रात्रि 10 बजे तक बुखार का जोर बहुत रहा ठंडे पानी के पोते रख कर राहत के प्रयत्न किये । परन्तु बुखार काबू में नहीं आया मृगशिर विद 5 प्रातः बुखार तनिक नरम हुआ परन्तु छाती में पाँव में दर्द बढ़ता गया पू. गच्छाधिपति श्री को चाहे जैसे आभास हो गया कि " अब यह शरीर अवश्य छूटेगा ही । अतः मृगशिर विद 5 प्रातः अपने समस्त साधुत्रों को पास बुलाकर धीमे टूटते शब्दो में प्रभुशासन की वफादारी, आगमिक अभ्यास की महत्ता तथा संयम पालन की सावधानी आदि थोडे में समझाया । माघ विद 6 के सूर्योदय के पश्चात पू. गच्छाधिपति श्री का बुखार घट गया, पॉव और छाती में दर्द ने भी सोम्य रूप लिया परन्तु श्वास क्रिया अव्यस्थित होने लगी । समस्त श्री संघ ने ऊंचे स्वर से नमस्कार महामंत्र का घोष प्रारंभ किया । सम्पूर्ण श्री संघ ने पुण्यदान रूप तप स्वाध्याय यात्रा आदि अंकित कराने लगे । साढ़े बारह बजे खूब ही श्वास बढ़ गया । चतरि मंगलसूत्र 5 झवेर सागर जो म. श्री ने कान में २३५ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनाया पू. श्री वृद्धिचन्द्र जी म. श्री ने पाँच महामंत्र के अतिरिक्त करेमि भते ( छोटे रुप में ) सुनाया । सवा दो बजे पू. गच्छाधिपति श्री ने प्रांखें खोली, सबको हाथ क्षमत क्षमापना किया। सबको विनय पूर्वक खामण किया। तीन के टंकोर के साथ पू. गच्छाधिपति श्री ने वृद्धिचंद जी म. को पास बुलाकर धीमे टूटते शब्दों में बोले कि भाई वृद्धिचंद जी । अब तो हम चले सबको सम्हालना । बस " णमो अरिहंताणं"! ! कह कर प्रांखें मींच ली। थोड़ी देर शारीरिक प्रक्रिया अस्तव्यस्त हुई, श्वास धीरे-धीरे बैठने लगा । आखिर में सवा तीन बजकर पांच मिनिट पर फटाक करके अखें खुल गयीं । " उड़ गया पंछी पड़ा रहा माला " जैसी दशा हो गयी । पू. गच्छाधिपति श्री ज्ञान-ध्यान पूत संयम काया को आयु पूर्ण होने से थोड़ी विशिष्ट गति में संचार कर गये । पू. गच्छाधिपति श्री के शिष्य वृंद में भयानक वज्रपात हुआ, समस्त श्री संघ दिड़ मूढ हो गया । परन्तु अन्ततः संसार की गति का विचार करके सब अपनेअपने कर्तव्य मार्ग में संचरण के लिये तैयार हुए। पू गच्छाधिपति की काया को महापरिष्ठापतिका के कायोत्सर्ग द्वारा पू. श्री वृद्धिचंद जी म. तथा श्रमण संघ में वासक्षेप करके श्री संघ को सौंपकर अपने स्थान परगये । भावनगर श्रीसंघ में भी पालीताणा, अहमदाबाद बंबई, २३६ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरत, उदयपुर, रतलाम, इन्दौर आदि स्थलों पर तार से खबर दी। तात्कालिक बाजारों को बंद रखवाया। देवविमान जैसी भव्य जरी वाले वस्त्रों से शोभित पालकी बनाकर पू. ' गच्छाधिपति के शरीर को स्नान कराकर, सुन्दर वस्त्रों को पहनाकर "जय जय नंदा जय जय भद्दा" के मंगल घोषों से दिशात्रों को गुजायमान करते खुले हाथों से गरीबों को दान आदि देने के साथ भव्य श्मशान यात्रा निकाली । आज कल जहां दादा साहेब की जगह है वहां आकर पवित्र शुद्ध भूमि पर चंदन के उत्तम काष्ट से चिता बनाकर पू. गच्छाधिपति की काया को पधराकर विधिपूर्वक अग्निसंस्कार किया। उसी स्थान पर श्री संघ की तरफ से देव कुलिका का निर्माण श्री संघ ने किया। - इस रीति से पू. श्री झवेरसागर जी म. ठेठ उदयपुर से पूज्य श्री के लम्बी अवधि के वियोग को टालने तथा वैसे ही पूज्य श्री की निश्रा में अधिक लाभ लेने के लिये उमंग भर कर आये, परन्तु भावी-वियोग से पूज्य श्री का चिर-विरह ही प्राप्त हुआ। इस बाबत "अ-कला हि कर्मणां गति!" के अनुसार पूज्य श्री ने मन मनाकर पू. गच्छाधिपति के कालधर्म के निमित्त श्री संघ तरफ से अष्टान्हिका महोत्सव आदि पूरा होने पर भावनगर के क्षेत्र में पूज्य श्री को स्मृति बारंबार आती रहने से माघ सु. विहार करके घोघा, तलाजा, २३७ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहा मादि तीर्थों में विचरण करके छ: गांवों की प्रदक्षिणा करके फा. सु. 13 को गिरिराज श्री सिद्धाचल महातीर्थ को भेंट करने पधारे। - सेठ श्री नरसी माथानी की धर्मशाला में मुकाम था। वहां लीम्बड़ी, बोटाद, बढ़वाण आदि गांवों के संघों के प्रमुख व्यक्ति चातुर्मास के लिये विनती करने आये । योग्य लाभालाभ का विचार करके पूज्य श्री ने पू. श्री वृद्धिचंद जी म. की सम्मति लेकर चौमासा का निर्णय किया तथा चैत्र विद 3 के रोज बोटाद की तरफ विहार किया । चैत्र विद 13 के मंगल दिन बोटाद में प्रवेश किया। अक्षय तृतीया के मंगल दिन वर्षीतप के महत्व तथा दानधर्म के श्रेयस्कारिता, जिसमें रखने आवश्यक पात्रापात्र विचार कर पूज्य श्री ने उत्तम प्रकाश डाला। सौराष्ट्र में स्थान स्थान पर बढ़ रहे ढढुक पंथियों के परिचय को नाथ ने (वश में करने) के लिये पूज्य श्री ने जिन शासन की आज्ञा-मर्यादानुसार संयम तथा पंच महाव्रतों का पालन करनेवाले संयमो मुनिवरों को दिया जानेवाला "प्रासुक-ऐषजीय" दान को सर्वोच्च बताकर गृहस्थ के अ-भंगद्धार रूप मैं चाहे जिस आँगन से वापिस नहीं लाये इस नीति से भले ही अन्य संप्रदाय वाला ले जाय, परन्तु अन्तर के भावोल्लास तथा प्रबल गुणानुराग पूर्वक दिये गये सुपात्र-दान की २३८ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टता का ध्यान रखने पर खूब रसयुक्त, व्यवस्थित, तर्कबद्ध रीति से विचार प्रकट किये । 1 परिणामस्वरुप बाह्रय श्राचार तथा तामटप्पा वाले अल्प तोता रटंत ज्ञान के आधार पर मुग्ध जनता के हृदय मे आदर पात्र बन रहे दुकपंथियों को भक्तिपूर्वक सामने अशास्त्रीय पद्धति पांव बुलाकर आदरपूर्वक वोहरावने की को हटाने के सम्बन्ध में पूज्य श्री ने बेधड़क प्रकाश प्रसारित किया । वै. सु. 8 के व्याख्यान में दो दिन बाद आ रहे प्रभुमहावीर परमात्मा के केवल ज्ञान दिवस तथा शासन स्थापना के दिन की सापेक्ष रीति से महत्ता समझाकर श्री वीतराग़परमात्मा के शापन के प्रति वफादारी के महत्व को समझाया । प्रभुशासन की श्रद्धा के पांव को ढीला करने वाले तत्व उत्सूत्रषियों के परिचय आदि के सम्बन्ध में धर्मप्रेमी जनता को सावधान करके तत्व दृष्टि प्रस्फुटित करने सु-साधुओं के चरणों में बैठकर तत्वज्ञान के अभ्यास के साथ धर्मक्रियाओं के व्यवस्थित प्राचरण पर बहुत अधिक भार रखा । वैसाख सु. 14 के व्याख्यान में श्री वर्धमान तप श्रायंबील खाते का महत्व समझाकर " आंबील की तपस्या द्रव्य-भाव से मंगलरूप में श्री संघ को कल्याणकारी है " यह बात जमाकर सेठ पुरुषोतम दास ठाकरशी शाह की उदारता भरे 11001 / के दान से उपाय के पास के मकान को 1500/- में खरीद कर २३६ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो श्राविकाओं तथा एक नौकर द्वारा श्री संघ के अग्रगण्यों को बील का खाता प्रारंभ करने को प्रेरणा की । परिणामस्वरुप वै. वि. 6 को श्री गिरिराज के मूलनायक प्रभुना मंगलकारी प्रतिष्ठा दिवस से आंबील का शुरुआत कराया । पूज्य श्री का जोरदार मार्मिक उपदेश के आधार पर पहले ही दिन 277 आबेल हुए । सेठ श्री परमानंद भाई तरफ से प्रत्येक को श्रीफल रूपयों से बहुमान हुआ । इस रीति से पूज्य श्री के आगमन से श्री संघ में सफल विघ्नहर आंबील की तपस्या स्थाई रूप से हो वैसा शुभ प्रायोजन प्रस्ताव हुआ । जेठसुद में संघ के अग्रगण्यों श्री जादव जी भाई को अपनी अवस्था में स्वयं के अनुमोदन का पूरा करना लाभ मिलता रहे ऐसी समझाइश पूज्य श्री के व्याख्यान से होने से आत्मश्रेयार्थ अठ्ठाइ उत्सव करने की भावना हुई । पूज्य श्री की प्रेरणा के अनुसार प्रातःकाल श्रावक जीवन के प्रत्युतम कर्तव्यरूप श्री वीतराग परमात्मा की भक्ति के रहस्य को समझाने वाले आदर्श व्याख्यान, दोपहर विविध बड़ी पूजायें, सन्ध्या काल स्त्रियों का संगीत गाने का, इन सब प्रसंगों पर प्रभावना आदि से धर्मोल्लास का वातावरण उत्तम संजोया । जेठ विद 13 से आर्द्रा बैठने से पूज्य श्री ने श्रावकपन के उत्तम संस्कारों को जीवन में उतारने के लिये भक्ष्याभक्ष विचार की बात जयरणा प्रमार्जन की बात चातु २४० Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास में पूजणी, झीनी सावरणी आदि के उपभाग की बात त्यंग्य शैली में प्रारंभ की परिणामस्वरुप संघ में उत्तम जागृति पाई। आषाढ़ सुद मे 5-6 तथा 8 तीन दिन नीवी प्राबिल, उपवास से "णमो जिणार्ण जिअभयाणं" को प्रतिदिन 41. 42-42 माला गिनवाकर तीन दिन में 12500/ जाप कराये जिसके परिणामस्वरुप पूण्यात्मा संसारिक उपाधि के त्रास को भूल जाय तथा परमात्मा को शरणगति प्राप्त कर सके । पूज्य श्री के साथ इस समय तीन ठाणा थे । उनमें से पूज्यश्री जीतविजय म. ने प्राषाढ़ सु.7 से चातुर्मासी अठ्ठाई की तपस्या स्वीकार की । बोटाद में पूज्य श्री के साथ तीन ठाणां होने के सम्बन्ध में प्राचीन पत्र संग्रह में से पुराना एक पत्र निम्नानुसार मिल पाया है :- "पत्र नं. 48" स्थान श्री बोटाद-तत्र विराजमान महाराज श्री झवेर सांगर जी योग्यमुकाम बढवाण केम्प से लि. मूनि लब्धि विजयजी तथा कमल विजय जी आदि की वंदना अवधारियेगा जी। यहां देवगुरु अनुकम्पा से सुख-शाता है। यहां अन्य भावसार रवजी को दीक्षा आषाढ़ सुद 6 वार गरूवार के दिन ग्यारह बजे प्रारभ करके तथा सवा बारह बजे दीक्षा दी है जो सहज आपको जानकारी के लिये लिखा है। यह आराधना चौविहार उपवास से कराई । ऐसी सुन्दर पाराधना पहलीबार देखने में आयी जिससे लोगों में खूब भावोल्लास हुअा। श्रा. वि. चौथ को पन्द्रह के घर के दिन सबकी विषय-काषाय की वासनात्रों की विषमता समझ कर पर्वाधिराज के स्वागत-सन्मान के लिये अंतर-शुद्धि २४१ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मलता आदि के सम्बन्ध में वेधक प्रकाश बिछाकर पुण्यात्माओं को सजग किया । 1 पूज्य श्री की जोरदार धर्मदेशना से पर्वाधिराज हेतु 7 मास खमरण, 3 इक्कीस उपवास, 21 सोलह उपवास, तथा 17 इग्यारह उपवास वाले पुण्यात्मा हुए। श्रा. वि. 12 से पर्वाधिराज की सकल आराधना के लिए लोग उत्साह भरे जुट गये । 65 स्त्री पुरुष चौसठ प्रहरी पोषघ में संयुक्त हुए जिसमें छोटे-छोटे 7/8 बालक तथा 10/15 बालिकायें 64 प्रहरी पोषध में जुड़े । श्रट्ठाई घर के दिन ही 55 स्त्री-पुरुषों अट्ठाई के पच्चखाण लिए । पूज्य श्री की सुन्दर धर्म प्रेरणा से श्री संघ में अनोखा धर्मोल्लास के मध्य में पर्युषण पर्व की सुन्दर आराधना होने लगी । क और भी पूज्य श्री के साथ यदाकदा पूज्य चरित्रनायक श्री के पिता श्री तथा पू. चरित्रनायक श्री के साथ चलते पत्र-व्यवहार के आधार पर पूज्य श्री की तरफ से मिलती उत्कृष्ट धर्मप्रेरणा के फलस्वरूप पू. चरित्रनायक श्री अंतर के भावोल्लास तथा पिता श्री की प्रांतरिक सम्मति भरे सहयोग से कपड़वंज से दुकान के काम के लिए अहमदाबाद जाने का कुटम्बियों को कहकर अहमदाबाद से सीधे श्रा. वि. 8 के लगभग चरित्रनायक श्री बोटाद पूज्य श्री की निश्रा में पर्वाधिराज की चौसठप्रहरी पोषघ के साथ प्राराधना के लिए आ पहुँचे । वृद्ध-पुरुषों के कथनानुसार अभूतपूर्व हुई प्राराधना तथा विविध तपस्याओं के अनुमोदनार्थ धर्मोत्साही श्री संघ के अग्रगयों ने भा. सु. 6 को रथ यात्रा तथा भा. सु. 10 से ६४२ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रष्टा हिनिका महोत्सव का कार्यक्रम जाहिर किया । भा. सु 6 दोपहर एक बजे भव्य रथ यात्रा निकली जिसमें चांदी के तीन रथ, दो गजराज, विविध वाद्य यंत्र तथा श्रृंगारित 30/40 तपस्वियों की गाड़ियां थी । सम्पूर्ण बोटाद शहर में जैन शासन के त्याग धर्म की प्रपूर्व बोलबाला हो रही थी । भा. सु. 8 के व्याख्यान के पश्चात श्री संघ की तरफ से साध्वीजी तथा श्राविकाओंों के वर्ग ने सामूहिक खामणा किया । पूज्य श्री ने दुबली अष्टमी के रूप में गिने जाने वाले आज के दिन को काषायों तथा वासनाओं कितनी हलकी पड़ी ? इस सम्बन्ध में जांच पड़ताल करने पर भार डालकर प्रदर्श क्षमापना का महत्व समझाया । . भा. सु. 10 को भव्य महोत्सव प्रारम्भ हुआ । बड़नगर (गुजरात) से धर्मं प्रेमी भोजकों को बुलाकर प्रभुभक्ति में जमे तथा अपूर्व भावोल्लास हो ऐसी व्यवस्था पूज्य श्री की प्रेरणा से हुई थी । ऐसे परम शासन प्रभावक पू. श्री झवेर सागर जी महाराज की विशिष्ट प्राराधना हुई जिसकी अनुमोदना के निमित्त भा सु. 10 से भा. व. 4 को भव्य अष्टान्हिका महोत्सव भावोल्लास पूर्वक किया । बाद में भाद्र वि में विद 13-14 श्री शत्रु जय गिरी प्राराधना के ठुम ठाठ से कराये । सेठ गोपाल जी जेसिंह जी भाई ने पारणा का लाभ लेकर श्री फल रुपया से तपस्वियों का बहुत मान किया | 1 पश्चात् पूज्य श्री की प्रेरणा से शाश्वती श्री नवपद जी की लो आराधना 200 प्राराधकों ने की । उसके पारणा चिमन लाल छोटालाल शाह की तरफ से ठाठ से हुए । बाद २४३ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पूज्य श्री की प्रेरणा से बोटाद श्री संघ में प्रभुभक्ति के अपूर्व धर्म- रंग के फलस्वरुप जिनालयों में पुजारी को पूरी मुक्ति देकर देहरासर में कचरा निकालना, बर्तन उजले करने, अग पूँछने, साफ करने आदि सामान्य काम से लेकर एक एक प्रभुजी की अष्टाप्रकारी पूजा स्वरुप निज द्रव्य से करने का कार्यकम असोज विद 3 से 10 तक चला । परिणामस्वरुप लोगों में खूब ही प्रभु भक्ति की इच्छा सक्रिय बनी । इस प्रकार उमंग भरे विविध धर्म कार्यो से बोटाद का चातुर्मास प्रकाशमान रहा । चातुर्मास समाप्ति पर वढवाण की आग्रहभरी विनती होने से जोरावर नगरवढवाण की तरफ विहार किया। उसके बाद ग्रहमदाबाद जाने की भावना थी परन्तु लीम्बड़ी महाराज की तरफ से पांजरापोल का महत्व का काम में संघर्ष पड़ जाने से उसके निराकरण के लिये लीम्बड़ी जैन संघ ने पूज्य श्री की आग्रह भरी विनती करके धूमधाम से लीम्बड़ी प्रवेश कराया । लीम्बड़ी में ही पांजरापोल की व्यवस्था तथा अन्य धर्मस्थानों की व्यवस्था के कारण वि. स. 1946 के तथा 1947 के चौमासे करने पड़े । वि स 1948 माघ सु. 11 मौन एकादशी को पू. श्री झवेर सागर जी महाराज नश्वर देह का त्याग कर स्वर्ग के मार्ग पर सचरिन हुए । ॥ इति समाप्त ॥ २४४ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ उदयपुर शहर में हुवे पिछले ६९वर्ष कीचातुर्मास की नामावली संवत ___ मुनि श्री का नाम 1972 पूज्य विजय धर्म सुरिश्वर जी 1973 , प. मणी विजय जी 1974 , मोहन विजय जी 1975 , प. सोहन विजय जी 1976 , मोहन विजय जी 1977 , नेमि सुरिश्वर जी 1978 , मोहन विजय जी , गुलाब विजय जी 1980 , मोहन विजय जी 1981 , कृपा चन्द्र सुरिश्वर जी 1979 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1982 , मोहन विजय जी 1983 , मोहन विजय जी 1984 , सागरा नन्द सुरिजो 1985 मोहन विजय जी 1986 , मोहन विजय जी 1987 ,, अमृत विजय जी. 1988 ,, लावण्य विजय जी 1989 ,, मोहन विजय जी 1990 , मोहन विजय जी 1991 ,, मोहन विजय जो 1992 , विध्या विजय जी 1993 ,, सुबोध सागर जी 1994 , स्वरुप विजय जी 1995 , आ. श्री निति सुरो जी 1996 , आ. श्री लक्षमण सुरी जी 1997 ,, आ. श्री उमगं सुरी जी 1998 , प्रा. श्री गंभीर सुरीश्वर जी 1999 , मु. श्री सुमति विजय जी 2000 , मु. श्री सिंह विमल जी एवं रुप विजय जी मा. , उपाध्याय श्री भूवन विजय जी 2002 , मु. श्री धरम सागर जी 2001 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2003 2004 2005 2006 2007 2008 2009 2010 2011 2012 , प. श्री संपत विजय जी एवं चरण विजय जी , प. श्री मगंल विजय जी एवं धरम सागर जी , मु. श्री शान्ति सागर जी , मु. जीतेन्द्र विजय जी ,, आ. श्री हिमाचल सुरीश्वर जी , पु. आ. श्री भूवन सुरीश्वर जी , पु. मु. श्री पुर्णानन्द विजय जी , पु. मु श्री कान्ती सागर जी ., ,, श्री हर्ष विजय जी ,, ,, श्री उमेद विजय जी , उ. श्री सुखसागर जी , मु. श्री दोलत सागर जी , आ. श्री हिमाचल सुरीश्वर जो , ग. श्री धरम सागर जी ., प्रा. श्री राम सुरी जी डेहलावाला ,, साध्वी जी श्री उत्तम श्रीजो विमला श्री जी , मु. श्री कान्ती सागर जी . साध्वी जी श्री उत्तम श्री जी ,, मु. श्री जीनप्रभव विजय जो , ग. श्री दोलत सागर जी 2013 2014 2015 2016 2017 2018 2019 2020 2021 2022 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2023 , आ. श्री हिमाचल सुरीश्वर जी एवं उपाध्याय घरम सागर जी 2024 , मु. श्री वल्लभदत्त विजय जी 2025 , ,, श्री प्रबोध चन्द्र सागर जी 2026 ,, श्री भद्रगुप्त विजय जी . 2027 ,, प. श्री हर्ष विजय जी महाराज 2028 , मु. श्री महायश सागर जी 2029 , आ. श्री सुशील सुरीश्वर जी 2030 , प्रा. श्री सुशील सुरीश्वर जी 2031 , मु. श्री जीनप्रभव विजय जी 2032 ,, श्री निरूपम सागर जी 2033 , आ. श्री भूवन सुरीश्वर जी 2034 ,, गणो श्री भुवन रत्न विजय जी 2035 , आ.श्री विजय जयदेव सुरी जी 2036 , साध्व जी श्री चन्द्रकला श्री जी 2037 , मु.श्री नित्यवर्धन सागर जी 2038 , आ. श्री विजयदेव सुरो जी आचार्य हैमचन्द्र सुरी जी . 2039 , आ. श्री भूवन सुरीश्वर जी 2040 , गणीवर्य श्री अशोक सागर जी 2041 , पु. प्रा. श्री जिन कान्ती सागर सुरीश्वरजी Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पुस्तक के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग प्रदान करने वाले महानुभावों की शुभ नामावली १. श्रीमान प्रभुलाल जी भरत कुमार जी सा० दोसी २. कन्हैयालाल जी रतनलाल जी सा० जंन ३. दिवानसिंह जी संपतकुमार जी सा० बापना जसवन्तलालजी अर्जुनलालजी सा० मेहता कालूलाल जी रतनलाल जी सा० जैन मांगीलाल जी अम्बालाल जी सा० सुराणा दौलतसिंहजी मोहनलालजी सा० गांधी तेजसिंहजी अम्बालालजो सा० दोशी लक्ष्मीलालजी गोपाललालजी सा०करणपुरिया शोभालालजी गोकलचंदजी सा० राजनगरवाला रोशनलालजी गोकलचंदजी सा. राजनगरवाला अम्बालालजी दौलतसिंहजी सा० चेलावत ५. ६. ७. ८. ε. १०. ११. १२. 91 " "1 " " " "" " " " *** "" Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. १८. खिमलालजी मेघराजजी सा० सिरोहिया , प्राणलालजी बालचन्वषी सा० कोठारी ,. भगवतसिंहजी शोभालालजी सा० मेहता सुन्दरलालजी ख्यालीलालजी सा० दलाल माणकलालजी चन्दरसिंहजी सा० मेहता , भंवरलालजो अम्बालालजी सा० छाजेड़ गणेशलालजी भैरूलालजी सा० तलेसरा मिठालालजी खेमराजजी सा० सायरावाला जोरावरमलजी शेषमलजी सा० पारोवाला रामसिंहजी सा० चपलोत कंचन बाई जी पुजांवत कंचन बाई जी सिरोही वाला रूपलाल जी सा० कोठारी जसवन्तसिंह जी सा० बापना भैरूलाल जी सा० छाजेड़ , हरक चन्द जी सा० बड़ाला २८. ** Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaunusbb पलाना जन मन्दिर उदयपुर-मेवाड़ SDASTAKE VO EECeo, BANGA (HAMIRMITTER GGNS BOMMIVAROVAVANOM STICHTIES VMVEEVEMEVIMOMS