SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रभु-भक्ति के लिए नये रुमाल चंदोवा आदि पूज्य श्री ने बनवाये । सं.1938 के चातुर्मास के दरमियान पूज्य श्री को कफ की व्याधि तथा शीतज्वर बारबार प्रासोज महिने से खुब ही हैरान करने लगा । कार्तिक पूर्णिमा को चातुर्मास परिवर्तन कर का. वि.7 पूज्य श्री ने भीलवाड़ा तरफ विहार करने की तैयारी की । वहां सुगन बाई से चेती की दोक्षा ग्रहण करने की भावना होने से साध्वी जी प्रशम श्री जी म. के समुदाय की रत्न प्रभा श्री जी को साथ लेकर कार्तिक वि. 5 को व्याख्यान के बाद मिले तथा अपने मन को भावना व्यक्त की । उत्तम मुहुर्त में प्राप श्री के शुभ हस्त से मुझे संयम स्वीकारना है ऐसी विनती की। - पूज्य श्री ने संघ के अग्रगण्यों को बुलाकर दीक्षार्थी बहिन के कुटुम्ब इत्यादि जांच कर धर्म शासन की शोभा बढ़े इस रीति से श्री संघ को दीक्षा महोत्सव करने की प्ररणा दी। कातिक वि. 10 के दिन एक बार फिर दीक्षा के मुहुर्त के लिए आई सुगन बाई को पूज्य श्री ने बताया कि "जीवन को प्रभुशासन की मर्यादा में स्थिर करना जरुरी है, बिना उसके संयम कभी सफल नहीं होता । वैराग्य वृति को समझदारी के साथ पहचानने की चेष्टा करो। अनित्य भावनाअशरण भावना का निश्चित चिन्तन, संयम-धर्म को परिपुष्टि के लिए आवश्यक है, उमियों के तूफान में संक्षुब्ध न हो। १३७
SR No.006199
Book TitleSagar Ke Javaharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaysagar
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy