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मृगशिर विद 13 गुरूवार-लि. सेवक गोकुल जी की वदना पढ़ना तथा मगन लाल पूजावत को प्रणाम कहना। कहना कि तुम्हारा पत्र पहुँच गया है । इस प्रकार कहना।
इस पत्र में मुख्य रूप में "भोयणी' प्रतिष्ठा के किये पू. गच्छाधिपति मूलचंद जी म. की अरुचि दिखाने वाली बातें है। उन्हें पढ कर पूज्य श्री ने खास भोयगी के सम्बन्ध में सुने चमत्कारों से खिंचकर भोयणी जाने की जो मन में उत्सुकता थो जिस बहाने मेवाड़ प्रदेश से बाहर निकलने की तथा पू. गच्छाधिपति श्री के दर्शन वंदन का लाभ मिले ऐसा था। फिर भी प्राज्ञाकोनता ही स वू जीवन की सच्ची होने से पू. गच्छाधिपति श्री की प्राज्ञा भोयणी प्रतिष्ठा के लिये दर्शाई गयो । अरुचि प्रकट करने वाले कारणों से युक्त होकर निषेधात्मक जान कर अपने मानसिक आवेग को शान्त कर गुजरात तरफ के विहार विचार को अलग हटा सके ।
इसमें “एक पंथ दो काज" की नीति भी पूज्य श्री ने वापरी हो ऐसा लगता है । उदयपुर के श्री संघ के दैन्य याचनामरे अत्यन्त प्राग्रह के वश होकर एक चातुर्मास हो जाय तो चातुर्मास के बाद गुजरात की तरफ जाने की उत्तम शक्यता रहेगी और यह भी कह सकायमा कि “तुम्हारे प्राग्रह को मान देकर अनिच्छा से भी चातुर्मास और किया “आदि अत: पूज्य श्री ने गच्छाधिपति श्री ने विद 13 के पत्र से
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