SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ I समस्त मूर्तिपूजक साधु साध्वियां समान हैं । गच्छवाद एवं सिंघाडेवाद की तथाकथित भिन्नता श्रावको के वंशों एवं गौत्रों की भाँति है । विवाद का कोई प्रश्न ही नही है । इसी आधार पर उदयपुर की धरती पर तथाकथित भिन्नता टिकी नहीं रह सकी है । पूज्य श्री के समय उदयपुर की आबादी करीब 25000 से अधिक नही थी, जिसमें समस्त जैन समाज की आबादी का अन्दाज 5000 तक लगाया जा सकता हैं । दिगम्बर समाज की आबादी भी उदयपुर में बहुत पहले से थी । स्थानकवासी सम्प्रदाय का उद्भव हुवे उस समय करीब 235 साल एवं तेराथी सम्प्रदाय के उद्भव को 125 साल हो चुके थे इन सम्प्रदायों का फैलाव भी उदयपुर में हो चुका था । स्थानकवासी एवं तेरहपंथीं दोनों सम्प्रदाय मुर्तिपूजक सम्प्रदाय से हीं निकले थे । ऐसी अवस्था में उस समय मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की आबादी अनुमानत: 2000 थी। इतनी कम आबादी के क्षेत्र में वि. सं. 1942 में हुई 21 मासखमण, एवं करीब 200 अठाई की तपस्या एव उसी साल में हुवे उपध्यान में 505 श्रावक श्राविकाओं द्वारा भागलेना इसबात का सूचक है कि मुर्तिपूजक सम्प्रदाय पूरा का पूरा एक जूट था । गच्छवाद एवं सिंघाड़ावाद जैसी कोई भिन्नता उदयपुर में नहीं थी । हम इस एकाग्रता का श्रेय पूज्य जवेर सागर जी महाराज सा. को देवें तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी । मेरा इस विवरण से अभिप्राय वर्तमान में फैली अलगाववादी मान्यताओं के कारण विवशतावश है । मूर्तिपूजक सम्प्रदाय विभिन्न के गच्छों को एक तरफ रखते हुए केवल तपागच्छ की वर्तमान स्थिति को ही देखा जाय तो सहज विदित होगा कि यह गच्छ कितने
SR No.006199
Book TitleSagar Ke Javaharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaysagar
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy