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मालवा व मेवाड़ क्षेत्र में मूर्तिपूजा के बढते विरोध को देख इनका उपयुक्त चयन किया। चरित्रनायक श्री अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु बढते रहे, बढते रहे । इस क्षेत्र में इस तरह से भ्रमण किया कि बारह वर्ष तक निरन्तर भ्रमण करते रहे।
एक तथ्य स्पष्टतया प्रकट होता है कि श्री जवेर सागर जी महाराज में शाखा एवं गच्छवाद नही था । महाराज श्री के गुरु गौतम सागर जी थे। लेकिन दीक्षा के तीन वर्ष पश्चात ही गुर्वाज्ञा आगम अभ्यास हेतू प्रोढ़ प्रतिभाशाली पू. मूलचन्द जी (मुक्तिविजय जी) एवं वृद्धिचन्द जी महाराज के पास रहकर इन दोनो की पूर्ण कृपा से श्री जैन सिद्धान्तादि अनेक शास्त्रों का गहन अभ्यास किया । इस हेतु महाराज श्री उसी सींघाड़े के भी कहलाते थे इस चरित्र में चरित्रनायक श्री का मूलचन्द जी महाराज के प्रति अपार विनय भाव परिलक्षित होता हैं। प्रन्यास प्रवर श्री सत्य विजय जी गणी ने गुरु आज्ञा ले कर केवल न यतियों की शिथिलता का क्रिया उद्धार किया। अपितु उन्हे उग्र विहारी बनाया । फिर तपागच्छ के महत्व की विजय, सागर, विमल एवं चन्द्र शाखा जो चली आ रही थी उसमें का प्रादुर्भाव हुवा। जवेर सागर जी महाराज मागर शाखा के एवं मूलचन्द जी विजय शाखा के थे। यह महाराज श्री का समभाव दर्शाता है।
इतना ही नही जहाँ तक उदयपुर का प्रश्न है, यहां की स्थिति एक विशिष्ट रूप लिऐ हुवे हैं । यहां की मान्यता वास्तविकता के आधार पर रही है और आज भी यथावत कायम है। श्रावक के लिए