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ध्येय की पूर्ति हेतु था।
मूर्तिपूजा के विरोध को शान्त करना तत्कालीन मुनि-जन का एक महत्वपूर्ण कार्य रहा है । इस चरित्र में, बुटेरायजी, मुलचंद जी, वृद्धिचन्द जी, आत्माराम जी महाराज के नाम आते है। उपरोक्त सभी सन्त स्थानकवासी सम्प्रदाय से आये हुवे थे। मूर्तिपूजक दीक्षा के बाद भी ये सन्त अपने पूर्व के नाम से ही सम्बोधित किये जाते रहे।
बुटेराय जी का नाम बुद्धि विजय जी, बुटेराय जी के शिष्य गच्छाधिपति मूलचन्द जी का नाम मुक्तिविजय जी, आत्माराम जी का नाम आनन्द विजय जी (फिर विजयानन्द सूरी) था । मूर्ति-पूजा हेतु इन स्थानकवासी सम्प्रदाय से निकले हुए साधुओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इसके पश्चात भी कई दिग्गज साधु सन्त इस सम्प्रदाय से आये है, जिन्होने मूर्ति-पूजा की ओर अथक प्रयत्न किया हैं। मुख्यतया विजय कमल सूरिजी के शिष्य चरित्र विजय जी (पूर्वनाम धर्मसिंह) ललित विजय जी के शिष्य वासन्तामल जी, बुद्धि सागर जी के शिष्य अजित सागर सूरि (पूर्वनाम अमिर्षि), विजयसूरि जी के शिष्य रत्लविजय जी (पूर्वनाम रलचन्द जी,) इन्ही रत्लविजय जी के शिष्य ज्ञानसुन्दर जी (पूर्वनाम घेवरचन्द जी, घेवर मुनि) ज्ञान सुन्दर जी के सहयोग से दीक्षित गुण सुन्दर जी (पूर्वनाम-गम्भीर मल जी), के नाम उल्लेखनिय है ?
गच्छाधिपति श्री मूलचन्द जी महाराज ने प्रारंभ में ही जवेर सागर जी के गुणों को जान उन्हें इस ओर बढ़ने की प्रेरणा दी।