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भी अधिक पवित्र भूमि जैन श्री संघ कब्जे में मालिकाना हक को हो इसमें शंका क्या ? परन्तु अपने श्री संघ के अग्रगण्यों से शान्तिदास झवेरी ने मुगल सम्राट जहांगीर पास से पालीताणा का परवाना प्राप्त करने के पश्चात् व्यवस्थित रीति से यात्रार्थी यात्रा कर सकते हैं। इस आशय से काल चक्र के विषम परिवर्तन से "बाड़ खेत को खाये” इस प्रकार अपने यात्रार्थियों की सुरक्षा हेतु गरियाघर से गुहिलवंश के काठियों को चौकीदार रूप में लाये जो कालान्तर में आज मालिक होने को तैयार हो गये हैं।
ई. स. 1650 वि. सं. 1706 में गुहिल काठियों को चौकोदार की तरह लाये तथा उनके साथ निम्नानुसार सर्वप्रथम करार हुआ कि- "गिरिराज का जतन कराना, यात्रार्थियों के जानमाल की रक्षा करनी जिसके बदले में श्री संघ तरफ से तुमको कोई रोकड़ रुपया नहीं मिलेगा। परन्तु जो महत्व के महोत्सव के प्रसंग में अथवा ऐसे ही व्यावहारिक प्रसंग में “सुखड़ी" (अनाज) कपड़े तथा अमुक रोकड़ पैसा (जामी) देना।"
इस इकरार माफिक गुहिलवंश के काठी व्यवस्थित रूप से काम करते थे, परन्तु समस्त भारतवर्ष के जैन श्री संघ का माना हुआ सर्वोत्तम तीर्थाधिराज रूप श्री सिद्धागिरि महातीर्थ होकर प्रतिवर्ष सैकड़ों छरी पालन करते श्री संघ तथा
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