SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसे मध्यस्थ-व्यक्ति के अभाव में फालतू दिखावा करने से क्या फायदा?" आदि कहकर वितन्डावादी वातावरण को वश में रखा। एक बार श्रावकों के आग्रह से आचार्य श्री तथा पूज्य श्री दोनों एकत्र भी हुए, शास्त्र पाठों की समीक्षा भी हुई। बहुत लम्बो चर्चा के अत में "सत्यत्य तत्व निहितं गुहाया" "सत्वं तु केवलीनो बिदन्ति" "प्रागमवादे हो। गुरूगम को नहीं । अतिदुर्गमनयमवाद" प्रादि सूक्तियों को परिभावना में शांति से दोनों अपने अपने स्थान पर गये। * * यहां से सुनी गई किवंदतियों के आधार पर यों जानने मिलता है कि पू आचार्य श्री विजय राजेन्द्र सुरि म. जो उपाश्रय में थे तथा व्याख्यान में देवों का वेदन न हो इस सम्बन्ध में विचार कर रहे थे । तब पूज्य श्री के पास के ही कमरे में बैठकर उनके मुख्य बिन्दुओं को अकित कर लेते थे। कुछ समय बाद पू. आचार्य श्री विहार कर गये । प्रतः पू. श्री झवेर सागर जी म. व्याख्यान में त्रिस्तुतिक आचार्य भगवंत के तर्को का जोरदार खडन करने लगे । शास्त्रीय प्रमाण ढेर सारे देकर त्रिस्तुतिक मत का सूक्ष्म परीक्षा करने लगे। जिससे विस्तुतिक श्रावक खलबला उठे । वे लोग पू आ. श्री विजय राजेन्द्र सूरि म. के पास गये। यह बात विक्रम सं. 1942 में छपी एक हिन्दी पुस्तिका (भाषा मुजराती टाईप हिन्दी डेमी 16 पेजी साइज की पीले रंग की ७७
SR No.006199
Book TitleSagar Ke Javaharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaysagar
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy