________________
उदयपुर श्री संघ ने प्रकाशित की) में निम्नानुसार अक्ति
पू. आचार्य श्री राजेन्द्र सूरि जी के पास जाकर उन्होंने जतलाया कि "गुजरात से भागत श्री झवेर सागर जी ने श्रापके वचनों को शास्त प्रमाण सहित खंडित करना प्रारम्भ किया है और वे शास्त्रार्थ के लिये भी तैयार हैं । प्राप नहीं जायें तो संघ में भेद पड़ जायगा ।"
इस बात को सुनकर वे लोग इन्दौर पुनः आये तथा शास्त्रार्थ की व्यवस्था हुई । मध्यस्थ का आमंत्रण कर शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । थोड़ी देर में ही पू आ. राजेन्द्र सूरि जी म. तथा पूज्य झवेर सागर जी महाराज द्वारा दर्शाये गये आगमक प्रमाणों के सम्मुख उन्होंने मौन धारण किया । "
चरित्रनायक श्री पू. आगमोद्वारक आचार्य देव जी द्वारा विरचित विशांतिविंशिका की स्त्रोपज्ञ टीका के प्रसंग में प्रथम अधिकार विशिका 3000 श्लोक प्रमाण टीका की समाप्ति पर अपने सक्षिप्त जीवन वृत को दर्शानेवाली प्रशस्ति में इस बात का गर्भित समर्थन किया है । वे श्लोक इस प्रकार है:
७८
तत्राभवन् मुनिवरा जयवीरसिन्धु
सज्ञाः सुवादकुशलाः गणिनः प्रसिद्धाः वादे महेन्द्रपुरि त्रिस्तुतिका दयान नन्दारकाश्य रुद्रपुर्नगरे निरस्ता !!"
"