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पांचोट, धीणोज, चारणस्मा, बडावली, गांभू, मोढेरा, शबलपुर होकर बाद में शंखेश्वर महातीर्थ को स्पर्शना करके पाटण में वि.सं. 1927 का चातुर्मास स्वतंत्र रूप में सर्वप्रथम किया। चार्तुमास की अवधि में विशेषावश्यक भाष्य का वाचन आगमिक पदार्थों की सूक्ष्म विवेचना सहित किया जो अनेक पुण्यात्माओं को प्रेरक हुआ । चातुर्मास में विविध तपस्याएँ तथा अष्टान्हिका महोत्सव हुए।
उरण-थराना के वासी श्रद्धासंपन्न श्री पूनमचंद भाई चातुर्मास के मध्य में पूज्य श्री की देशना से आकर्षित होकर व्यवसाय आदि से बंध कर पर्युषण से लगाकर ठेठ का. सू. 15 तक पूज्य श्री को निश्रा में देश विरक्तिभाव से रहकर ससार छोड़ प्रभुशासन की भागवतो दीक्षा स्वीकारने को तैयारी करते रहे।
पूज्य श्री ने शास्त्रीय रीति से जांच कर कल्याण का के ध्येय जीवन में टिकाना कितना कठिन है? उसे समझाकर प्रभुशासन के संयम की तुलना मोम के दांतों से लोहे के चने चबाने के समान बताकर योग्य पात्रता की परख करके का वि. 5 के दिन उसके कुटुम्बीजनों तथा श्री संघ के उत्साह पूर्वक धूमधाम से दीक्षा देकर श्री रत्नसागर जी म. नाम प्रदान कर स्वयं के प्रथम शिष्य के रूप में उन्हें स्थापित किया। इसके पूर्व दीक्षार्थी तो अनेकों आये लेकिन उन