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पूज्य श्री भी कपड़वंज - श्री संघ की दिशा में अज्ञात रूप में परन्तु अन्तर्मन से प्राकर्षित बने रहे । जब भी अवसर मिला तब ही पू. गच्छाधिपति की आज्ञा से आस-पास के प्रदेशों में किसी धर्म कार्य के प्रसंग में विहरने में मेल बैठ जाय तो कपड़वंज की स्पर्शना अवश्यम्भावी करते !
यो प्रकृति से विनाश के गति से चलते कालचक्र के कितने ही दाते पूज्य श्री के कपड़वंज के अधिक पक्षपाति तथा मगनभाई के अन्तर के आकर्षण से गतिशील बने रहे । यों पूज्य श्री बि. सं. 1926 के वर्ष तक पू श्री गच्छाधिपति की निश्रा में रहकर गुरुकुलवास, विनय - समर्पण आदि के बल से प्राप्त अद्भुत गुरुकृपा से सचोट प्रागमिक परम्परा के मौलिक तत्वों को आत्मसात किया ।
पश्चात् पू. गच्छाधिपति की आज्ञा से जन्मभुमि महसारणा पधारे, उनकी जोड़ विद्वता, आलौकिक प्रतिभा तथा सचोट आगमिक व्याख्यानों से प्रभावित होकर कुटुम्बीजनों के अतिरिक्त श्री संघ भी अपने गांव के एक रत्न को शासन के चरणों में समर्पित होकर अद्वितीय शासन को गौरव सुनिश्चिन करता आभूषण बना हुआ जानकर गौरवानवित हुआ ।
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