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नजदीक आने से लाभालाभ सोचकर सं. 1936का चातुर्माश, श्री संघ के दूसरे अनेक धर्म-कार्यों की सुव्यवस्था के लिए श्री संघ के आग्रह से किया। पूज्यश्री के वेदस्मृति गीता-महाभारत के उदाहरण देकर जैनों के तीर्थंकरों वेद की ऋचा-मन्त्रों से भरे हुए है और ईश्वर को मान्ता के लिए छालो पानी हुई धारणाएं कितनी भ्रामक तथा खोखली है। सबके सामने उसकी चर्चा शुरू कर दी। श्री दयानंदजी ने मूर्तिपूजा पर से खिसक पायें । विश्वास के आधार पर कैसे अप्रमाणिक तर्को का सहारा लेकर यथावेदों को ऋचाओं अर्थों को तोड़मरोड़ अपनी बात एकांगी रूप से प्रचारित किया है। इसकी भी खूब छानबीन की।
सनातनी व्यक्ति पूज्य श्री के इस विवेचन से आकर्षित हो कर आर्य समाज तो वैदिकपरंपरागों के कट्टर विरोध करते है । अनादिकाल से चली आ रही मूर्तिपूजा पर बहुत बड़ा कुठाराघात किया है। अपनी मान्यताओं के जैन साधुओं द्वारा जबरदस्त सहारा मिलने की बात जानकर सनातनी विद्वानों, अग्रगण्यों गृहस्थों ने पूज्य श्री को खूब प्रेम अादर से याद किया तथा "दुश्मनों का दुश्मन वह अपना मित्र" इस सूक्ति के आधार पर सम्पूर्ण उदयपुर शहर में सनातनियों के प्रबल सहकार से पूज्य श्री ने आर्य समाज की मान्यताओं कों सचोट दलीलों से खंडन करना प्रारम्भ किया उसकी अत्यधिक