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वैसाख वि [2 के मंगल दिवस उदयपुर रघारे । श्री संघ में पूज्य श्री के चातुर्मास अब यही होगा, क्या प्राग्रह कर करायेगे ही यो धारणा करके प्रवेक्ष महोत्सव धूमधाम से किया। पूज्य श्री ने व्याख्यान में धर्म स्थानों की व्यवस्था की पवित्रता कार्यवाहकों की जवाबदारी आदि पर प्रकाश प्रसारित करने के साथ साथ दोनों पक्षों को बराबर सुनकर वास्तव में अहं भाव से उत्पन्न विकृत बातों का निराकरण करके दोनों का मन संपुष्ट किया।
पूज्य श्री ने परिस्थिति का अभ्यास करने लगा कि बेसमझ तथा व्यवस्था कोशल के अभाव में कितनी ही अक्षम्य क्षतियाँ होने लगी है । जिससे समस्त बहियों को स्वाताबार खोजकर समस्त सूचनामों को एकत्रित करके व्यवस्थापकों का ध्यान खींचक र यथायोग्य सुधार कराया। इस सारी प्रवृति में जेठ विद पचमी हो गयो । जेट विद 10 का माद्रा नक्षत्र था, बरसात को तडोसार तैयारी हा गयी थी। अत: अनिच्छापूर्वक तथा श्री संघ के प्रति प्राग्रह से तथा मृगसिर विद के चातुर्मास की गभित हाँ भर लेने से वचन बद्वता के कारण वि. सं. 1943 का चौमासा पूज्य श्री को उदयपुर करना पड़ा।
पूज्य श्री ने व्याख्यान में देव द्रव्यादि की अव्यवस्था दुर करने के शुभ माशय से श्रावकों के कर्तव्य के अधिकार की