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________________ भोगवासना तथा शरीरवासना को काबू में रखना परमावश्यक "तरण-तारण हार परम पवित्र तीर्थाधिराज की शीतल छाया में अपनी वृतियों का उर्वीकरण प्रभुशासन के प्रति वफादारी के बल पर करना आवश्यक है।" फिर प्रभुशासन के आराधक-भाग्यवानों ने श्री प्राध्यात्म कल्पद्रुम के तेरहवें प्रकाशन के 8, 12, 16 तथा 19 मे श्लोक के भावार्थ में खूब ही गंभीर रूप से ध्यान में लेकर जीवन में बारंबार जीवन में उत्पन्न होते विषय-रागादि से उत्पन्न निर्बलता को झाडंभूड डालना आवश्यक है आदि" इस प्रकार की पूज्य श्री को वेधक-मार्मिक गंभीर अर्थयुक्त उपदेशक सूचना तथा प्रेरणा के बल पर पू. गच्छाधिपति श्री की निश्रा में साधु-भगवंतों में तान तथा साध्वियों के महाराजों में चार श्रावक-श्राविकों में 12 " मास क्षमण'। अठाइस सोलह उपवास" अठारह “ ग्यारह उपवास, पैंसठ अठुई तथा चत्तारो अठ्ठ की तपस्यावाले पुण्यात्माओं ने आराधन करके सफलरूपेण पर्वाधिराज की आराधना करके जीवन धन्य बनाया । पू. गच्छाधिपति श्री ने परिपक्व आयु होते हुए भी पर्वाधिराज में अट्ठाइ धारणकर तथा कल्पधर का उपवास करके अन्तिम अठ्ठम किया। २३२
SR No.006199
Book TitleSagar Ke Javaharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaysagar
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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