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विविध रोगों से घिर गई थी। जिसमें चौमासी-चौदस के बाद मलेरिया ज्वर तथा उसके कारण अशक्ति शरीर को अधिक क्षीण बना रही थी। फिर भी पू. गच्छाधिपति यदाकदा तलहटी गिरिराज को स्पर्शना, दोपहर धर्मवाचन तथा अन्य शासनानुसारी विविध प्रवृतियों को यथाशक्ति चालु रखते । चौमासे के बीच में पू. साधु-साध्वियों को पू. गच्छाधिपतिहित शिक्षायुक्त योग्य संकेत करते कि
"महानुभावों! इस संयमी जीवन में त्याग तप की महत्ता हैं । त्याग तप के बिना संयम कागज के फूल की तरह निस्सार बन जाती है।" "धर्मप्रेमो लोगों की तरफ से मिलने वाले आदर-सत्कार या वस्त्र, पात्र, आहार आदि अनुकूल सामग्री, त्याग-तप संयम के बल पर जो मिलते थे उसके विश्वास के प्रति हमें पूर्ण वफादार रहना चाहिए अन्यथा"धर्मदा री रोटियां, जॉका लाँबा लाँबा दाँत "धर्मकरणी करे तो ऊबरे, नहीं तो खेंची-खेंची काढे पाँत ।" राजस्थानी कहावत के अनुसार जसे अपने यथाशक्ति वीर्योल्लास युक्त होते हुए भी वीर्य सिपाये बिना प्रभु शासन के प्रति सच्चे वफादार आराधक नहीं बने तो अपनी प्रांतों को खींचकर निकाल ले ऐसा यह हराम का माल पचने मे भारी पड़ेगा। "अतः हे पुण्यवानों! खूब सावधान रहना। उस पर फिर यह तीर्थ भूमि। यहीं तो अपनी मोहवासना,
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