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यहां पधारने का बहुत आग्रह किया । अतः उन सबही क्षेत्रों, में फिरकर माघ सु. 5 लगभग बड़नगर पधारे। वहां तेरापंथी साधुत्रों ने दान-दया को विकृत व्याख्या प्रसारित कर वाता वरण को प्रान्दोलित करने का प्रयत्न किया परन्तु पूज्य श्री ने धैर्यपूर्वक शास्त्रीयपाठ तथा बुद्धिगम्य तर्कों के आधार पर " द्रव्य-दया अनुकम्पा दान भी शास्त्रीय है तथा गृहस्थी का उत्तम कर्तव्य है ।" यों सिद्ध किया ।
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वहां से गौतमपुरा, देपालपुरा, हाटोद इत्यादि गांवों में शासन - प्रभावना पूर्वक विचरते रहे। इस अवधि में इन्दौर में त्रिस्तुतिक आचार्य श्री विजय राजेन्द्र सूरि म. ने व्याख्यान प्रसंग में अविरतिदेवों की वंदना विरति या श्रावत केसे कर सकते है ? यह बात जरा विस्तारपूर्वक तथा छानबीन युक्त चर्चा की । इन्दौर के श्री संघ बिना प्रसंग ऐसी विवादास्पद बातों को छेड़कर वातावरण दुषित क्यों किया जाय ? यों कहकर श्रावकों के द्वारा पू. आचार्यदेव को खामोशी रखने को कहा परन्तु भावोयोग से रतलाम में पूर्णतः सुविधा नहीं होगी तथा यहां उत्तर देने वाला कौन है यो धारणा करके तनिक अधिक विवेचन के साथ उन्होंने वह प्रश्न छेड़ना प्रारम्भ किया ।
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इससे इन्दौर के समझदार विवेकी अग्रगण्यों ने पू. श्री भवेर सागर जी म. को आग्रह भरी विनती कर शीघ्र ही
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