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चार पांच व्यक्तियों को लेकर भीण्डर के यति जी से सम्पर्क साधकर कानोड़ में सर्वसाधारण में व्याख्यान देने से संवेगी साधुओं की विद्वता तथा चरित्र शुद्धि का वातावरण खड़ा करके विपक्षियों, स्थानकवासियों तेरापंथियों को भी आकर्षित किया।
व्याख्यान में तात्विक तथ्यों की सूक्ष्मताभरी विचारणा से स्थानकवासी, तेरापंथी भो हिंसा के प्रश्न पर तात्विक रीति से चर्चा विचारणा करके सत्य प्रकाश को प्राप्त कर सके । परिणामस्वरुप पूज्य श्री के आदेश वाक्यता फलने लगी जिससे देरासर सम्बन्धी सामाजिक प्रसंगों के लागा इत्यादि देने को चली आ रही प्रथा को चालू रखने का सयानापन विपक्षियों में भी स्वतः उपज गया।
इस प्रकार पूज्य श्री ने अपनी प्रौढ़ प्रतिभा तथा तात्विक देशना के लिए मेवाड़ जैसे संवेगी साधुओं के सम्पर्क मुक्त क्षेत्र में भी अडक तरीके से तत्व भूमि संपादन के रूप में जिन शासन का विजय डंका बजाया । कानोड़ श्री संघ के
आग्रह से चैत्री प्रौली की आराधना बड़े ठाठ से की। बाद में आसपास विचरण कर चातुर्मास के लिए अधिक लाभ की संभावना से उदयपुर में सं. 1935 का चातुर्मास किया। चातुर्मास में श्री धर्म रत्न प्रकरण तथा पडव चरित्र का वाचन हुआ इसमें पर्वाधिराज के मा। घर के दिन
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