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कहना चाहते हैं। विनय पूर्वक आसन बिछाकर वंदना करके बैठे कि पू. गच्छाधिपति ने सम्पूर्ण बात कही "मालवा में प्रभुशासन की छाया धूमिल पड़ गई है। इसके लिए कुछ करना आवश्यक है।
__पूज्य श्री ने कहा कि फरमाइये, “आपकी प्राज्ञा शिरोधार्य है।" . पूज्य गच्छाधिपति ने कहा कि, “उस मालवा के प्रदेशों में . मयच्चतुर, शास्त्रनिपुण तथा शुद्ध संयमी साधु को भेजने का विचार विनिमय किया, मेरे साथ के साधुओं में अधिकांश वयोवृद्ध ज्यादा है । इतना दूर उन्हें वहां भेजना ठीक नहीं है । फिर उनका मन परिपक्व आयु के कारण मेरे पास ही रहने को आकृष्ट होता है अतः यदि तेरे मस्तक पर ही कलश का अभिषेक हो तो कैसा?
__ पू. श्री बोले कि श्रीमन् ! मुझे आपकी आज्ञा "निहत्ति" है परन्तु ये दो वर्ष अलग रहकर चातुर्मास कर आया, जो अमृत के घूट प्रापकी निश्रा में प्राप्त किये उनके नहीं मिलने से मेरी तो दृढ़-इच्छा आपके चरणों में रहने की है। फिर भी आपकी आज्ञा मेरे लिए प्रमाण है । पू. गच्छाधिपति ने कहा कि "भायला ! तेरा विनय अद्भुत है । वास्तव में तेरी पात्रता मेरे शिष्य जिसे नहीं ले सके । उससे भी अधिक मेरे पास से तुझे अधिक प्रदान किया है। शासन