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के अपने साधुओं की बाहचर्या जो कि शास्त्रीय वचनों के प्रति-योग के परिणाम स्वरूप शास्त्र की दृष्टि मैं स्वच्छंद भाव वाली कही जाय उसको आगे करके जिन शासन की परंपरा वाले सच्चे भ्रमरणों के सम्पर्क के अभाव मैं शिथिलाचारी यतियों के विकृत आचार को सामने करके शास्त्रीय परम्परा को धूमिल करने के कुचक्र की गतिशीलता देखी । थोड़ े में पू. श्री झवेर सागर जो म. खूब ही गम्भीर प्रतीत होती परिस्थिति का अध्ययन कर किस महत्वपूर्ण केन्द्र पर हथोड़ा मारें जिससे बिगड़े हुए इन्जिन को चालू करने कि कुशलता एवं सूझ-बूझ वाले कारीगर की तरह शास्त्रों के सम्बन्ध में मौलिक चिन्तन तथा गीतार्थपन के मधुर मिश्रण की तैयारी करने लगे ।
अन्ततः जे. सु. 14 के व्याख्यान में तत्व दुष्टि तथा जिन शासन की मार्मिकता के विवेचन के संदर्भ में आचार शुद्धि में काल-बल से आती न्यूनता, तत्व दृष्टि की निर्मलता से क्षम्य बन सकती है ।
परन्तु चाहे जितने उत्कृष्ट आचारों का पालन करने पर भी तत्वज्ञ महापुरूषों की परम्परा की विनय-श्रद्धा तथा तत्व दृष्टि की विषमता से जिन शासन के मौलिक विवरणों के सम्बन्ध में अपलाप जोवन को विषमतर कर्मों के बंधन में फसाने वाला बनता है । इस बात को खूब ही तर्कबद्ध तरीके से शास्त्रीय दृष्टान्तों से छानबीन युक्त प्रचारित किया । ज्ये, वि. 5. तक के व्याख्यानों में प्रचार शुद्धि जिन
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