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क्षुब्ध हुए । परन्तु अन्त में सन्यासी महाराज को कहा कि " प्राप यदि ठीक ढंग से बात करें तो अच्छा । ऐसे उत्तेजक श्रावेश प्रधान शब्दों से क्या फायदा ? श्राप कोई दलीलें बताओ तो उनको और आपकों जाहिर में रूबरन बिठाकर सत्य तत्व का निर्णय करवादें । सन्यासी बोले कि, 'तो मैं क्या घबड़ाता थोड़े ही हूं । बुला प्रोंगे उनको । मैं जाहिर में उनकी सारी पोल खोल दूंगा, सनातनी लोग विचार में पड़ेये सन्यासी जी उग्रता भरी बात करते हैं । इसमें चर्चा-वितं
वाद का कोई अर्थ नहीं है । अन्ततः मध्यस्थ भाव वाले उन सनातनियों ने सन्यासी महात्मा को धर्म की बातों कों तनिक शान्ति विवेक से प्रस्तुत करने को कह कर अपने अपने स्थान पर गये ।
कुछ दिनों बाद पुन: सन्यासी महात्मान "जैनी नास्तिक हैं "जैनों का स्यादवाद कुतर्कवाद है, जैनों के सिद्धान्त बिना ढंगघडे के हैं" इस मतलब के उच्चारण किये । परिणामत: पूज्य श्री ने जैन मुखिया श्रावकों ने वेद पुराण तथा उपनिषदों के लिखित प्रमाणों को देकर सनातनियों की मान्यता कैसी भ्रामक है उसे दर्शाने के साथ-साथ जैन धर्म तथा उसके स्यादवाद की गंभीरता का मार्मिक तर्कों के साथ सन्यासी महात्मा को लिखकर भेजा और उसका उत्तर माँगा । आवश्यकता हो तो सर्व साधारण में इस सम्बन्ध में इस शास्त्रार्थ की तैयारी दिखावे ।
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