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________________ व्याख्यान में धर्म की आराधना करने की भलामण दी । का. वि. 3 को मंगल प्रभात में गुजरात की तरफ जाने के इरादे से केशरियाजी तरफ विहार की घोषणा की । समस्त संघ खुब ही नाराज हुआ । पूज्य श्री से खूब ग्रजीजी याचना करके थोडे दिन और रुकने का खूब आग्रह किया, परन्तु पू. गच्छाधिपति की तबियत के कारण इसी प्रकार पू. गच्छाधिपति की निश्रा में कीकीभट्ट की पोलवाले सेठ दीपचंद - देवचंद की तरफ से माघ सु. 3 के मंगल प्रभात में श्री सिद्धगिरिपालीताणा का छ" रीपालन करते सघ निकलते होने के पूर्व ही वहां पहुंच जाने के ध्येय से श्री संघ के वश मेंन हीं हुए । अन्ततः थोड़े में पूज्य श्री ने जतलाया कि महानुभावों ! कारणवश - संयोगवश एक साथ दस चातुर्मास यहां करने पड़े, इतना अधिक आप सब का गाढ़ परिचय हुआ तो भी आप लोगों की हमारी तरफ अरुचि नहीं हुई है जो आपकी उत्कट धर्म निष्ठा बतलाता है परन्तु अब " आप कहते रहो और मेहमान चले जावे इसमें ही मेहमान की शोभा है "न्याय प्रमाण से गुणानुराग से भरे प्राप सब को धर्म स्नेह भरे इन्कार के बीच में हम साधुत्रों को विहार कराने में आपकी और हमारी शोभा है । क्योंकि कहा है कि ना करने के साथ साधु को विदा कराना या होना २२१ "
SR No.006199
Book TitleSagar Ke Javaharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaysagar
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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