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________________ ऐसे महाप्रभावशाली पू. श्री मूलचन्द जी म. की पावननिश्रा में पूज्य श्री में विनोतता गंभीरता, समयसूचकता तथा प्रांतरिक नम्रता थी । पू. श्री दयाविमल जी म. इसी प्रकार पू. मूलचंद जी म. को मन ऐसा संपादन किया हुआ कि सब साधुओं से बढ़कर पूज्य श्री का स्थान द्रव्य भाव से पू. मणिविजय जी म. तथा पू. श्री मूलचंद जी म. के पास था। पूज्य श्री मूलचंदजी म. ने इस पात्रता की सावधानी रखी कि शासन तथा आगमनों के निगुढ-तत्वों को पूज्य श्री एकांत में बिठाकर खूब प्रेमयुक्त पद्धति में मिला पाये थे। परिणामतः पूज्य श्री ने भी आपने अहम् का सर्वस्व समपर्ण तरीके पू. श्री मूलचंद जी म. के चरणों में अर्पित कर दिया था। इससे बाल-गोपाल जनता में यों कहा जाने लगा कि पू. श्री झवेर सागर जी म. पर पू. श्री मूलचन्द्र जी म. के चारों हाथ सिर पर हैं और लोग भी पु. श्री झवेर सागर जी म. को पू. श्री मूलचंद जी म. के ही शिष्य के रूप में पहचानने लगे। ऐसा था पूज्य श्री का निष्ठाभक्ति भरा समर्पण ! ! ! इस प्रकार पूर्ण अर्पित भावना तथा विनीतता भरा सहज नम्रता के सुमेल से पूज्य श्री ने छः-सात वर्ष के अल्प समयावधि में लगभग समस्त प्रागमधारी, आगमिक पदार्थों . २०
SR No.006199
Book TitleSagar Ke Javaharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaysagar
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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