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________________ पक्व आयु में उत्साह चढ़े तथा उल्लासपूर्वक धूमधाम से दीक्षा स्वीकार की तथा मुनि केसर सागर जी नाम रख कर पूज्य श्री ने उन्हें अपना दूसरा शिष्य बनाया। इसके बाद बरवाला-धंधूका, कोठ-बावला होकर पुनः पू गच्छाधिपति की निश्रा में आकर योगवहन कराकर नवदीक्षित को बड़ी दीक्षा दी। एक समय उजम बाई * की धर्मशाला में पू. गच्छाधिपति के पास सिद्धगिरि महातीर्थ की छः मील की यात्रा करके मालवा प्रदेश रतलाम उज्जैन, इन्दौर के अग्रगण्य श्रावकों के वृहदयूथ में वंदना के लिए आये तथा सूखशाता पूछकर नियमानुसार भावार्थ की की विनती की : के नगर सेठ हेमाभाई की बहिन श्री उजम वाई ने वि. सं. 1982 के नव वर्ष में पू. श्री मूलचन्द जी भव की देशना से प्रभावित होकर अपने निवास के घर-हवेली सारी संघ के धर्मध्यान करने धार्मिक स्थान उपाश्रय के रूप में श्री संघ को अर्पण करने की घोषणा की । इस मंगल भावना के पूर्ति स्वरूप पू. श्री . मूलचन्द जी म. का नववर्ष के मांगलिक तथा श्री गौतम स्वामी जी रास सुनाने के सपरिवार प्राग्रहभरी विनती करके स्वयं के धार आंगन में समस्त श्री संघ को आमंत्रित किया तथा स्वर्ग मोहरों से प्रभावना की । आज भी इस धर्म-स्थान रतनपोल में वाधरणपोल में
SR No.006199
Book TitleSagar Ke Javaharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaysagar
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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