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गच्छाधिपति के मीठे कोमल आश्वासन से मालवा के धुरन्धर श्रावक उत्साही बने। दूसरे दिन तीन बजे के बाद आने का कह कर विदा हुए। पू. गच्छाधिपति ने मायंकाल प्रतिक्ररण के पश्चात समस्त साधुनों को एकत्रित कर बात प्रस्तुत की
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महानुभावों ! स्वकल्याण की भूमिका के साथसाथ परकल्याण का कर्तव्य भी गुंधा हुआ है । मालवा जैसे प्रदेश में संवेगी साधुयों के परिचय घटने से ढूँढिया, तेरापंथी, तोन थुई वाले, खरतर गच्छवाला आदि शासन बाह्य लोग अपना पैर जमा रहे हैं । उस तरफ विचरण करने जैसा है । है किसी की ईच्छा ? उस तरफ जाने की ! "
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सब साधू एक आवाज में बोले कि " साहेब ! हमारे तो आपकी आज्ञा प्रमाण है । आपको जैसा ठीक लगे वैसी श्राज्ञा को कार्यरूप में करने के लिए यथाशक्ति हम सब तैयार है । पू. गच्छाधिपति ने संतुष्ट स्वर में कहा-" वाह ! वाह ! धन्य है तुम्हारी निष्ठा को ! ठीक है । अभी तो आप सब जाओ । मैं विचार कर कहूंगा ।" कुछ समय रूककर स्वयं समुदाय के काम-काज को बराबर सम्भालने वाले पू. मुनि श्री मंगल विजय जी म पू. श्री चन्दन विजय जी महाराज तथा पू. भी नेम विजय जी म. पू. गच्छाधिपति ने कहा कि " मालवा के संघ की बात का मैं क्या जवाब दूँ ? वे लोग कल दोपहर आयेंगे ।"
को बुलाया
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