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लिखा जावे तो पीछा कायज जल्दी से हमारा उपर लिखो। सो हम बांचते कागज जल्दी से रतलाम कू पावते हैं ।
सो पीछे हमारे से पेस्तर चर्चा करके पीछे पुस्तक खो तथा खोटी हमारे सामने पंडिता की सभा में आप करणा
और हमारे से चर्चा किया बिगर पुस्तक खोटी छपाई ऐसा पेस्तर तुजारा मुख से कहेना नहि और इस कागद का जवाब पीछा तुरत लिख दीजो भूलसो नहीं।
"संवत 1938 का माह सुद. 6" इस पत्र पर से स्पष्ट होता है कि "मुनि सौभाग्य विजय जी उनकी पुस्तक में कौन कौन सी भूलें हैं। उन्हें शास्त्रीय पाठ संहिता मांगा है । अगर आपका पत्र पाने से मैं स्वयमेव आमने सामने चर्चा करुंगा। पंडितों के समक्ष विचारणा के पश्चात ही प्रकट होगा कि पुस्तक सच्ची है या खोटो" आदि
परन्तु इ तहास के पृष्ठों को पलटने से यों प्रतीत होता है कि पूज्य श्री ने इस पत्र के मिलते ही तत्काल उस पुस्तक की एक एक शास्त्र पाठ के अर्थघटन की त्रुटि तथा उसको सामने का शास्त्र पाठ लिखकर लगभग सारी पुस्तक की अप्रामाणिकता सिद्ध हो ऐसा ब्यौरेवार मोटा पत्र लिखकर भिजवाया। माह सु. दसम के लगभग यह लिखे गये पत्र के जवाब की राह 10-15दिनदेखी पर उत्तर नहीं मिला कि मुनि सौभाग्य विजय जी म. के रूबरू पाने का कोई भी संकेत ही
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