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तेरापथी श्रावक अपने संतों को लेकर आने का कह गये । अपने व्याख्यान में दान-दया के विरोध की बात छेड़ी नहीं । अलबता पहले जैसे गुस्से से उनकी (व्याख्यानों) प्रकट नहीं होते थे।
पूज्य श्री भी मौके मौके शास्त्र पाठों का उल्लेख करके तेरापंथी मान्यता को चिकुटि भरते । पूज्य श्री इस प्रसंग को लेकर दूसरे चातुर्मास के लिए जाना उचित नहीं लगा। अन्य कारण यह भी था कि पूज्य श्री के साथ के मुनि श्री रत्न सागर जी म. की सं. 1932 के इन्दौर के चातुर्मास से तबियत नरम हो गयी थी तथा वि. सं. 1934 के उदयपुर में ही आसोज विद सातम को समाधिपूर्वक कालकर गये ।
दूसरे शिष्य श्री केसर सागर जी म. को मालवामेवाड़ प्रदेश की आहार-चर्चा माफिक नहीं आने से 'सग्रहणी' का योग सं. 1935 के चातुर्मास से लागू हो गया अतः पूज्य श्री ने * पू. श्री मूलचंद जी म. को परिस्थिति जतलादी अतः पू. गच्छाधिपति ने मुनि श्री जयविजय जी म. तथा मुनि श्री देव विजय जो म. को सं. 1938 के फाल्गुन महिने अहमदाबाद से विहार कराया। वे चैत्रो अोली के लिए कपड़वंज रोकाये हुए थे। वे पूज्य श्री के पास मालवे में आते थे।
*(1) पूज्य श्री मालवा मेवाड़ में दूर तक विचरण करते