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को क्रमसर प्रस्तुत होते ही स्वामीजी ढीले पड़ गये तथा वेदस्मृति के प्रमाण एक के बाद एक जहाँ प्रस्तुत होने लगे कि स्वामी जी घबरा गये तथा बोल उठे कि-"भाई मानना हो तो मानों। ये सब झंझट में हम पड़ना नहीं चाहते । वेदस्मृति के पाठ ले आये किन्तु इनका अर्थ ऐसा नहीं होता है"
आदि । थोड़ी देर बाद सन्यासी फिर बोल कि-"छोड़ो जी इस झंझट बाजी को! हम तो हमारे स्वामी जी दयानन्द महर्षि ने जो समझाया है। वह आपको कह रहे हैं । सुनना हो तो सुनो । मानना हो तो मानों। बाकी यह सब बतंगड़ बाजी हमें पसंद नहीं।"
उदयपुर के आर्य समाजियों ने यह बात नहीं कही किजैन विद्वान हमारे यहां पहले भी आ चुके हैं। आर्य समाज के अभिमत का प्रामाणिक खंडन कर चुके हैं। तथा शायद आपको उन जैन साधुओं के साथ वाद-विवाद करना पड़ेगा।" यह बात पूर्व में सूचित नहीं की।
इससे स्वामी जी चिढ़ उठे कि- "क्या बतंगड़ है यह सब । हमारी बात सुनकर ठोक लगे तो स्वीकार करो। बाकी जबरदस्ती हम किसी के गले में घोलकर उतारने तो नहीं पाये हैं" आदि कह कर स्वामी जी ने तो बात को ही मूल से काट डाला। अब शास्त्रार्थ के लिये पूज्य श्री के द्वारा कहाई गयी बात करने की रही ही नहीं। अतः जैन श्री संघ के
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