SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप अन्य किसी भी काम की आज्ञा करो परन्तु मेरी प्रात्मिक विकास की रीति के प्रतिकूल पदवी के लिये आज के बाद कभी भी सूचना कृपा करके नहीं कीजियेगा।" आदि बोल कर अपने अंतर की भूलों-दोषो तथा क्षतियों के लिए गच्छाधिपति श्री के चरणों मे सिर रखकर पूज्य श्री जोरजोर से रो पड़े। पूज्य श्री ने आश्वासन दिया कि- "भाई । तू समझदार है। और ऐसे ढोले मन का क्या होता है ? उस सम्बन्ध में सजगता यही वास्तव में आध्यात्मिक रीति से विशिष्ट योग्यता का लक्षण है।" इस प्रकार तो तू वास्तविक पदवी का पात्र है । और भी रतलाम, इन्दौर, उदयपुर में जो प्रतिपक्षी वादीगण के सामने जूझकर शासन का डंका बजाया है, शासन की विजय-पताका जो तूने भव्य रूप में फहराई है। उसे देखते तू आर्चार्य पदवी के भी लायक हैं । ऐसा होने पर भी वर्तमान-संयोगों को देखते तू “पन्यासपद के लिये भगवती जी के योगवहन करने तैयार हो । ऐसो मेरी अन्दर की इच्छा है, फिर भी तेरे अंतर उदात आध्यात्मिक विचारसर्राण देखकर तुझ पर आज्ञा अभियोग करने का मन नहीं है। तेरी अन्तर आत्मा अप्रसन्न हो ऐसा मुझे करने की भावना नहीं हैं। ___तू अन्तर से शासन समुदाय की रोति से तैयारी हो २२६
SR No.006199
Book TitleSagar Ke Javaharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaysagar
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy