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अतः पूज्य श्री ने उस जाति के अगुवाओं तथा समझदार श्रावकों को बुलाकर कहा कि भले ही आप मंदिर को नहीं माने परन्तु यह धर्म स्थान है यह सत्य तो स्वीकारते हो ! तुम्हारी जाति भाईयों के द्वारा निर्मित मंदिर धर्म की रीतिमर्यादाओं का भी ध्यान करते हो । यह कोई संसारी गृहस्थी का मकान तो नहीं है । तुम यहां प्रवाज, कपड़ा सुखाते हो, सोते-बैठते हो, यह सब क्या दोषरूप नहीं है ? इसके प्राशय को समझकर योग्य दृष्टान्तों से अगुवाओं के हृदय-मानस को प्रभावित कर देरासर की वह श्राशातना कराई । उज्जैन में श्री छोगमल जी, घासीलाल जी आदि स्थानकवासी अग्र-' गण्य वयोवृद्ध साधु उस समय थे, जो शास्त्र पाठों को सम्पूर्ण रूप से कंठाग्र करके विविध दृष्टान्तों के माध्यम से मुग्ध जनता को जिन शासन की चालु परम्परा से दूर बिठाने का काम करते थे ।
पूज्य श्री ने व्याख्यान में आर्द्रकुमार, द्रोपदी, शयंभव भट्ट की दीक्षा आदि प्रसंगों को उभार कर मूर्तिपूजा की प्रामाणिकता सम्बन्धी वातावरण में उहापोह जागृत कर दी। जिससे स्थानकवासी साधुगण ने सूत्रों के पाठ सम्मुख रखकर कहा कि मूर्ति पूजा तो अविरति कर्तव्य है | श्रावकों का कर्तव्य कहां है ? यों कहकर मूर्तिपूजा की प्रामाणिकता की स्पर्धा जो स्वीकारने में आई यह कर्तव्य किसका है ? श्रावकों का कर्तव्य कहां है । इस प्रश्न की तरफ पूज्य श्री मे.
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