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बाहरा श्रात्रमण जितना नुकसान न करे उससे ज्यादा घर का जान भेद धक्का पहुंचा सकता है । अभी इधर और कोई शास्त्रीय बातों से मुठभेड कर सके ऐसे कोई साधू महाराज है नहीं आपको ही यहां बिराजना पड़ेगा ' आदि
पूज्य श्री ने स्थानक मार्गियों की तरफ से होने वाली शासन की अपसाजना के निवारण को पवित्र कर्तव्य समझकर पू. श्री मूलचन्द जी म. को शासन -- रक्षा हेतु प्राज्ञा को ध्यान में रखी । वि. सं. 1938 का चातुर्मास उदयपुर में करने के लिए क्षेत्र के आधार पर वर्तमान योग के शास्त्रीय शब्दों से वतीत करने को फर्माया । जेठमहिने में मारवाड़ तथा कच्छ में से दो बड़े घुरघर विद्ववान आयु 60 से 70 वर्ष दीक्षा पर्याय 40 से 50 वर्ष के पूर्ण किये विनती करके उदयपुर चातुर्मास के लिए बुला लाये ।
उन्होने आते ही अपने व्याख्यानों में " मूर्तिपूजा चैत्य-वासियों के मस्तिष्क की उपज है", हिंसा में प्रभु महावीर ने
ऊपर से पू. गच्छाधिपति श्री पूज्य श्री पर कितना सहत्व भरा भाव रखता है । उसको समझाता है । अपने श्राज्ञावती कौन कौन साधू कहां कहां है " इत्यादि ब्योरा भी प्राणप्रिय शिष्य के रूप में पूज्य श्री को जतलाया है । अन्य भी कितनी ही महत्व की सूचनाएं पू' गच्छाधिपति ने जता कर पूज्य श्री पर स्वयम् का हृदय कितना प्रेम पूर्ण है इसे प्रकट किया ।
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