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महाकवि स्वयम्भूदेव विरचित पउमचरिड
[भाग १]
मूल-सम्पादक ग. एच. सी. भायाणी
एम. ए., पी-एच. डी,
अनुवाद डॉ.देवेन्द्रकुमार जैन
एम,ए, पीएप, मो.
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
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मूर्तिदेषी ग्रन्थमाला अपभ्रंश ग्रन्थांक : १
पहला संस्करण : १६५७ चौथा संस्करण १६८६
भारतीय ज्ञानपीठ
पउमचरिउ, भाग - १ (अप काव्य )
मूल : स्वयंभूदेव
मूल सम्पादक : डॉ. एच. सी. भायाणी अनुवादक: डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन
मूल्य : २५/
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ,
१८, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली- ११०००३
मुद्रक
शकुन प्रिंटर्स
पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली- ११००२२
PAUMA-CHARIU (PART-I) of Svayambhudeva
Text edited by Dr. H. C. Bhayani and translated by Dr. Devendra Kumar Jain. Published by Bharatiya Inanpith, 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi110003. Printed at Shakun Printers, Naveen Shahdara, Delhi-110032
Fourth Edition: 1989
Price: Rs. 25/
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प्रकाशकीय
भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य और इतिहास का समुचित मूल्यांकन तभी सम्भव है जब संस्कृत के साथ ही प्राकृत, पालि और अपभ्रंश के चिरा गत सुविशाल अमर वाङ्मय का भी पारायण और मनन हो। साथ ही, यह श्री आवश्यक है कि ज्ञान-विज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसंधान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण होता रहे। भारतीय ज्ञानपीठ का उद्देश्य भी यही है ।
इस उद्देश्य की आंशिक पूति ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के अन्तर्गत संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, हिन्दी और अंग्रेजी में, विविध विधाओं में अब तक प्रकाशित १५० से अधिक ग्रन्थों से हुई है । वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पादन, अनुवाद, समीक्षा, समालोचनात्मक प्रस्तावना, सम्पूरक परिशिष्ट आकर्षक प्रस्तुति और शुद्ध मुद्रण इन प्रत्यों की विशेषता है । विद्वज्जगत् और जन साधारण में इनका अच्छा स्वागत हुआ है । यही कारण है कि इस ग्रन्थमाला में अनेक ग्रन्थों के अब तक कई-कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
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अपभ्रंश मध्यकाल में एक अत्यन्त सक्षम एवं समस्त भाषा रही है । उस काल की यह जनभाषा भी रही और साहित्यिक भाषा भी । उस समय इसके माध्यम से न केवल चरितकाव्य, अपितु भारतीय वाङ्मय की प्रायः सभी विधाओं में प्रचुर मात्रा में लेखन हुआ है । आधुनिक भारतीय भाषाओं - हिन्दी, गुजराती, मराठी, पंजाबी, असमी, बांग्ला आदि की इसे
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यदि जननी कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इसके अध्ययन- मनद के बिना हिन्दी, गुजराती आदि आज की इन भाषाओं का विकाराक्रम भलीभांति नहीं समझा जा सकता है। हम क्षेत्र में शोध-खोज कर रहे विद्वानों का कहना है कि उत्तर भारत के प्रायः सभी राज्यों में, राजकीय एवं सार्वजनिक ग्रन्थागारों में, अवश्या की कई-कई सौ हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ जगत्जगह सुरक्षित हैं जिन्हें प्रकाश में लाया जाना आवश्यक है। सौभाग्य की बात है कि इधर पिछले वर्षों से विद्वानों का ध्यान इस ओर गया है। उनके मनों के फलस्वम् अपभ्रंग की कई महत्त्वपूर्ण कृतियां प्रकाश में भी आई हैं। भारतीय ज्ञानपीठ का भी इस क्षेत्र में अपना विशेष योगदान रहा है। मुर्तिदेवी ग्रन्थमाला के अन्तर्गत ज्ञानपीठ अब तक अपभ्रंश की
५५ कृतियां विभिन्न विद्वानों के महयोग से सम्पादित रूप में हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित कर चुका है। प्रस्तुत कृति 'पउमघरिउ' उनमें से एक है।
मर्यादापुरुषोत्तम राम के चरित्र से सम्बद्ध पउमचरित्र के गुल-पाठ के सम्पादक हैं डॉ एच. सी. भावाणी, जिन्हें इस ग्रन्थ को प्रकाश में लाने का श्रेय तो है ही, साथ ही अपभ्रंश की व्यापक सेवा का भी श्रेय प्राप्त है। पांच 'भागों में निबद्ध इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादक रहे हैं डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन I उन्होंने इस भाग के संस्करण का संशोधन भी स्वयं कर दिया था। फिर भी विद्वानों के सुझाव सादर आमंत्रित हैं।
भारतीय ज्ञान के पथ-प्रदर्शक ऐसे शुभ कार्यों में, आणालीत धनराथि अपेक्षित होने पर भी, सदा ही तत्परता दिखाते रहे हैं। उनकी तत्परता को रूप में करते है हमारे सभी सहकर्मी । इन सबका आभार मानना अपना ही आभार मानना जैसा होगा ।
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श्रुतपंचमी,
८ जून १६६६
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गोकुल प्रसाद न उपनिदेशक भारतीय ज्ञानपीठ
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प्राथमिक वक्तव्य
महाकवि स्वयम्भू और उनकी दो 'विशाल अपभ्रंश रचनाओंपतमचरित और हरिवंश-पुराणके सम्बन्धमें बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इनका सर्वप्रथम परिचय-"Svayambhu and his two poems is Apabhransa" by H. L. Jain ( Nagpur University Prernal. uml. !. !935 द्वारा प्रकाशित हुया ! कबिके एक छन्दअन्यका मम्वेषण कर उसका उपलम्य भाग डॉ. एच. डी. वेलणकरने सम्पादित कर प्रकाशित कराया (वं. रा. ए. सो. जर्नल १९३५ और १९३६) । तत्पश्चात् सन् १९४० में प्रो. मधुसूदन मोदीका 'चतुर्मुख स्वयंभू अने त्रिभुवन स्वयंभू' शीर्षक लेख भारतीय विद्या अंक २-३ में प्रकाशित हुआ जिसमें लेखकने कविके नामके सम्बन्धमें बड़ी भ्रान्ति को है 1 सन् १९४२ में पं. नायूराम प्रेमीका 'महाकवि स्वयम्भू और त्रिभुवन स्वयम्भू' लेख उनको 'जैन साहित्य और इतिहास' नामक पुस्तकके अन्तर्गत प्रकट हुआ। तत्पश्चात् सन् १९४५ में पं. राहुल सांकृत्यायनका "हिन्दी काव्यधारा' ग्रन्थ प्रकाशित हुआ जिसमें कविको रचनाके काग्यात्मक अवतरण भी उद्धृत हुए । भारतीय विद्या-भवन, बम्बईसे हॉ, एच. सी. भायाणी द्वारा सम्पादित होकर कविका 'पउमचरिज प्रकाशित होना प्रारम्भ हो गया है और अबतक उसके दो भाग निकल चुके है । अतएव प्रस्तुत रचना-सम्बन्धी विशेष जानकारीके लिए यह सब साहित्य देखने योग्य है। कविका दूसरा महाकाव्य 'हरिवंशपुराण' अभी सम्पादन-प्रकाशनको बाट जोह रहा है।
प्रस्तुत प्रकाशनमें डॉ, देवेन्द्रकुमारने डॉ. भायाणी द्वारा सम्पादित पाठको लेकर उसका हिन्दी अनुवाद दिया है। इस विषयमें अनुवादकने
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पउमचरिउ
अपने वक्तव्यमें कुछ आवश्यक बातें भी कह दी है। उन्होंने जो परिश्रम किया है वह स्तुत्य है । तथापि, जैसा उन्होंने निवेदन किया है
"इतने बड़े कविके काव्यका पहली बारमें सर्वांग-सुन्दर और शुद्ध अनुवाद हो जाना सम्भव नहीं ।" अतएव स्वाभाविक है कि विद्वान् पाठकों को इसमें अनेक दूषण दिखाई दें। इन्हें वे क्षमा करेंगे और अनुवादक व प्रकाशकको उनकी सूचना देनेकी कृपा करेंगे |
डॉ. देवेन्द्रकुमारजी तथा भारतीय ज्ञानपीठके प्रयाससे अपभ्रंश भाषाके आदि महाकविकी यह विशाल मा हिन्दी रही हैं, इसके लिए वे दोनों ही हमारे धन्यवाद के पात्र हैं ।
उपस्थित हो
१७-२-५८ ]
हीरालाल जैन आ. मे. उपाध्ये
प्रधान सम्पादक
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दूसरे संस्करणकी भूमिका
आदरणीय भाई लक्ष्मीचन्द्रजीका आग्रह है कि मैं पउमचरिउ भाग-१ के दूसरे संस्करणकी एक पृष्ठीय भूमिका शीघ्र भेज दूं। पहले संस्करणको भूमिकामें मैंने लिखा था कि इतने बड़े कविके काव्यका पहली बार में सर्वांग सुन्दर अनुवाद हो जाना सम्भव नहीं । अनुवादका मर्य, शब्दाः मर्थ कर देना नहीं, बल्कि कश्केि भाव-चेतना, चिन्तन-प्रक्रिया और अभिव्यक्तिको भंगिमासे साक्षात्कार करता है। अतः जन दुबारा अपने अनुबादको देखनेका प्रस्ताव भारतीय ज्ञानपीउने रखा तो मुझे अपना उक्त कथन याद आ गया और मैंने पुननिरीक्षणके बजाय उसको पुनर्रचना कर डाली । मैं अनुभव करता हूँ कि ऐसा करके जहाँ मैंने पहले अनुवादकी कमियां दूर कों, वहीं महाकवि स्वयम्भूके प्रति ईमानदारी भी बरती।
इस समय अपभ्रंश साहित्यके अध्ययन में आत्म-विज्ञापनका बाजार गरम है। लोगोंकी ढपली अपना राग घजाने और उसे दूसरोंके गले सतारने में इसलिए सफल है कि एक तो आम पाठक आलोच्य साहित्यसे वैसे ही दूर है, और थूसरे अपभ्रंश साहित्यके अध्ययनका दृष्टिकोण, आजसे चालीस साल पहलेके दृष्टिकोण जैसा ही है, बल्कि और विकृत ही हुआ है । आज भी कुछ पण्डित उसे भाभीरोंकी भाषा मानते हैं, जबकि आभीर जातिका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रहा, और रहा भी हो तो आटेमें नमकके बराबर । याद रखने की बात है कि यह नमक भी स्वदेशी था । परन्तु कुछ हिन्दी पण्डित आज भी नमकको ही विदेशी नहीं मानते, बल्कि आटेको भी विदेशी मानते हैं। इधर तुलनात्मक अध्ययन के नामपर हिन्दी प्रेमाख्यानोंकी शैली अपभ्रंश परितकाव्यों में खोजी जा रही है।
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पउमचरित
आश्नर्य तो यह है कि इस प्रकार की मान्यताएँ उच्चशोधके नामपर विश्वविद्यालयोंसे उपाधियां लेकर स्थापित हो रही हैं। मैं समझता है इसका विरोध करने की हिम्मत सरस्वती में भी नहीं है, क्योंकि आखिर यह भी उनकी गिररात में है, "इण्टरव्यू' सरस्वतो नहीं, ये लोग लेते हैं। इसका प्रारम्भिक इलाज यही है कि मूलकाव्यों का प्रामाणिक अनुवाद सुलभ कर दिया जाये । और यह काम भारतीय ज्ञानपीठ जिस निष्ठासे कर रहा है उसकी सराहना की जानी चाहिए ।
इस अवसरपर मैं स्व. डॉ. गरालाल और स्व, डॉ. गुलाबचन्द्र चौघरा का पुण्यस्मरण करता है। श्री चौधरीने न साहित्य के लिए नुन कुछ किया, और वह बहुत कुछ करने की स्थितिमें थे। परन्तु अपानक चल बसे । दुस्ख यह देखकर होता है कि जैन समाज, महावीरके २५००वें निर्वाण महोत्सव वर्ष में 'पुरस्कारों की वर्षा कर रहा है, लेकिन स्व. चौधरीको ओर किसीका ध्यान नहीं ! अभी भी समय है और इस सम्बन्ध कुछ स्थायी रूपसे किया जा सकता है । पजमचरिउके अनुवादकी मूल प्रेरणा मुझे आदरणीय पण्डित फूलवन्द्रजीने दी थी, और पूरा करनेमें आदरणीय लक्ष्मीचन्द्रीने सहयोग दिया-दोनोंके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, साथ ही सम्पादक मण्डल के प्रति भी।
११४ उघानगर. इन्दौर-२ फरवर ११५
--देवेन्द्रकुमार जैन
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प्रास्ताविक
पजमचरिउके रचयिता कवि स्वयम्भ, अपभ्रंश भाषाक ही नहीं वरन् भारतीय भाषाओं के गिने-चुने कवियों में से एक हैं। आदिकविके बाद 'रामकथाकालय' के वह समर्थ और प्रभावशाली कवि है, पद्यपि उनके पूर्व विमलसूरि और आचार्य रविपेण, अपने काव्य 'पञमचरिम' और पनवरित लिख चुके थे। परन्तु स्वयम्भूको पद्धड्यिा बन्धवाली कड़वक झाली, इतनी प्रभावक और लोकप्रिय हुई कि उनके सात-आठ सौ साल बाद हिन्दी कवि तुलसीदासने लगभग उसी शैलीमें अपना महाकाव्य लिखा । भाग में फूलचर जीनी पैग्णाले *चे प्रस्तुत अनुवाद प्रारम्भ किया था और उन्हींके सुनावपर भारतीय ज्ञानपीठने इसे प्रकाशित करना स्वीकार किया। जुलाई १९५३ में जब मैंने यह कार्य प्रारम्भ किया उस समम मैं अल्मोड़ेमें था। अनुवादका मूलाधार डॉ. एच. सी भायाणी द्वारा सम्पादित 'पउमचरित' है । स्वयम्भूकी सोजका श्रेय क्रमशः स्व, डॉ. पी. डी. गृणे, मुनि जिनविजय, स्त्र. नाथूरामजी प्रेमी, स्व. डॉ. हीरालालजी जैन आदि विवानोंको है। हिन्दी जगत् को स्वयंभूके परिचयका श्रेय स्व. राहुल सांकृत्यायनको है। परन्तु उसका सुसम्पादित संस्करण सुलभ करानेका श्रेय श्री डॉ. एच. सी. भायाणीको है। जो काम पुष्पदम्तके महापुराणको प्रकाश लाने के लिए डॉ. पी. एल. वैद्यने किया, वही काम पचमचरिउको प्रकाशमें लाने के लिए डॉ. भायाणीने । संस्कृत काव्योंके अनुवादको तुलनामें अपभ्रंश काव्योंका अनुवाद कितना कठिन और समयसाध्य है. यह वही जान सकता है कि जिसे इसका अनुभव है। उसमें ध्याकरण और शब्दोंकी बनावट ही नहीं, प्रत्पुत वाक्योंके लहजेको भी सिझना पड़ता है, कहाँ कवि की अभिव्यनि शास्त्रीय है और कहाँ
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एउमचरित
लोकमूलक ?- इसका सही-सही विचार किये बिना-आगे चलना कठिन ही नहीं असम्भव है। वैसे छविने स्वयं अपने प्रस्तावनाबाले रुपको कहा है कि इसमें कहीं-कहीं दुष्कर शब्दरूपी चट्टानें हैं 1 चट्टानें नदीकी धाराओं में दिख जाती है और वे उसे काटकर निकल जाती हैं, परन्तु स्वयम्भूके सघन दुष्कर शब्दरूपी शिलातलोकी कठिनाई यह है कि अर्थ की धाराएं उन्हीं में समाहित हैं । उसका भेदन किये बिना अर्थ तक पहुँचना कठिन है । स्वयम्भूजैसे क्लासिक झविके अनुवादके लिए जो समक्ष, अभ्यास और अनुभन्न आज मुझे प्राप्त है, वह आजसे बीस साल पहले नहीं था। दूसरे स्वयम्भू-जैसे जीवनसिंह कवियोंकी रचनाओंका निर्दोष और सम्पूर्ण अनुबाद एक बारमें सम्भव नहीं। इधर बहुत-से अपभ्रंश काश्य प्रकाशित हुए हैं, और उसके विविध अंगोंपर शोध प्रबन्ध भी देखने में माये हैं, जो इस बातके प्रमाण हैं कि हिन्दी जगत् अपभ्रंश-भाषा और साहित्यके प्रति आकृष्ट हो रहा है, यद्यपि अपभ्रंशमें शोधके निर्देशक सिद्धान्त दिशाएँ अभी भी अनिश्चित हैं। इसका एक कारण अपभ्रंशके प्रमुख काव्योंगा हिन्दी में प्रामाणिक अनुवाद न होना है। स्व, डॉ, हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित अपभ्रंश कान्य इसके अपवाद है। उन्होंने मूलपाठक समानान्तर हिन्दो अनुवाद भी दिया है । भारतीय ज्ञानपीठ इस दिशामें विशेष प्रयत्नशील है; उमाका सह परिणाम है कि 'पउमचरित' हिन्दी जगत में लोकप्रिय हो सका। भारतके विभिन्न विश्वविद्यालयों में 'उसके अंश पाध्यक्रम में निर्धारित होनेसे उसकी बिक्री बढ़ी है। 'पउमचरिउ'के प्रथम काण्डको दुवारा छापनेकी सम्भावनाको देखते हुए बा. भाई लखमीचन्दनी ने मुझे लिखा कि "मैं सारे अनुवादको अच्छी तरह देख लें जिससे उसमें अशुद्धियां न रह जायें।" इस दृष्टि से जब मैंने अनुवादको देखा तो लगा कि पुराने अनुवादमें सुधार करने के बजाय उसकी पुनर्रचना ही ठीक है। ऐसा करने में ही कनिके साथ न्याय हो सकता है । मैं अब अपभ्रंश काव्यके प्रेमी पाठकोंके लिए यह विश्वास दिला सकता हूँ कि प्रस्तुत अनुवादको शुद्ध और प्रामाणिक बनाने में मैंने कोई कसर नहीं उठा रखी। फिर भी अपभ्रंश काव्यके मूल्यांकनमें
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प्रास्ताविक
दिलचस्पी रखनेवाले विद्वानोंसे निवेदन है कि यदि उनके ध्यान में गलतियाँ आयें तो वे निःसंकोच मझे मुचित करनेका कष्ट स्रें जिस भविष्य में उनका साभार परिमार्जन किया जा सके । मैं भाई लखमीचन्द्रजीके प्रति हमेशाकी लरह अपना आभार व्यक्त करता हूँ। यह घाई तीर्थकर महावीरको २५००कों और हिन्दी सन्त कवि तुलसीके 'रामचरितमानस' की ४००वीं वर्षगांठ है, अतः भूमिकाके रूपमें अनुवादके साथ 'पउमचरिउ और रामचरितमानस' का कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओंपर मैंने तुलनात्मक परिचय भी दे दिया है जिससे पाठक यह जान सकें कि दो विभिन्न दार्शनिक भूमिकाओं और समयोंमें लिखे गये उक्त रामकाव्योंमें 'भारतीय जनमानस' किन रूपोंमें प्रतिबिम्बित हुआ है ।
११४ उघारगर गोर-२
- देवेन्द्र कुमार जैन
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'पउमचरिउ' और 'रामचरितमानस'
स्वयम्भू और उनकी रामकथा
स्वयम्भूने आचार्य रविषेण ( ६. ६७४ ) का उल्लेख किया है, और पुष्पदन्तने ( ई. ९५९ ) स्वयम्भू का । अतः स्वयम्भूका समय इन दोनोंके बीच आठवीं और नौवीं सदियोंके मध्य सिद्ध होता है । कर्णाटक और महाराष्ट्र में उस समय घनिष्ठ सम्पर्क था, अतः अधिकतर सम्भावना यहाँ है कि स्वयम्भू महाराष्ट्रसे आकर यहाँ बसे । कुछ विद्वान् स्वयम्भूको कौनसे प्रव्रजित इस आधारपर मानते हैं कि प्रसिद्ध राष्ट्रकूट राजा भुवने कौजपर आक्रमण किया था और उसीके अमात्य रवडा धनंजय के साथ स्वयम्भू उत्तर से दक्षिण आये। परन्तु यह बहुत दूरकी कल्पना है जिसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं । स्वयम्भूकी भाताका नाम पानी और पिताका मारुतदेव था । कविको दो पत्नियाँ थीं-आदित्याम्मा और अमृतम्मा । एक अपुष्ट आधारपर उनकी तीसरी पत्नी भी बतायो जाती हूँ। एक धारणा यह भी है कि स्वयम्भूने अपनी तीनों रचनाएं अधूरी छोड़ों जिन्हें उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयम्भूनं पूरा किया। परन्तु यह धारणा ठीक प्रतीत नहीं होती। क्योंकि यह विश्वास करना कठिन है कि स्वयम्भू जैसा महाकवि सभी रचनाओं को अधूरा छोड़ेगा । एकाध रचना के विषय में तो यह सच हो सकता है, परन्तु सभी रचनाओंके सम्बन्धमें नहीं । पउमचरिउके अलावा उनकी दो रचनाएँ और हूँ-रणेमि चरिउ' और 'स्वयम्भूच्छन्द' |
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स्वयम्भूके अनुसार रामकथा तीर्थंकर महावीरके समवशरणसे प्रारम्भ होती है। राजा श्रेणिक पूछता है और गौतम गणधर उसे बजति हूँ । उनके अनुसार, भारतमें दो वंश थे एक इश्वाकुवंश ( मानव वंश ) और
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'पउमचरिउ' और 'रामचरितमानस'
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दूसरा विद्याधर वंश | आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ इसी परम्परामें राजा हुए । उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीको लम्बी परम्परा सगर चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। वह विद्याधर राजा सहस्राक्ष की कन्या तिलककेशी से विवाह कर लेता है । सहस्राक्ष अपने पिता के बैरका बदला लेने के लिए, विद्याधर राजा मेघवाहनको मार डालता है। उसका पुत्र तोयदवाहन अपनी जान बचाकर तीर्थकर अजितनाथ के समवशरण में शरण लेता है । वहाँ सगर के भाई भीम सुभम दवाहनकी राक्षसंविद्या तथा लंका और पाताल का प्रदान करता है । यहींसे राक्षसवंशकी परम्परा चलती है जिसमें आगे चलकर रावणका जन्म होता है । इसी प्रकार इक्ष्वाकु कुलमें राम हुए ।
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तोयदवाहनकी पांचवीं पीढ़ी में कीर्तिषवल हुआ । उसने अपने साने श्रीकण्ठको वानरद्वीप भेंट दिया जिससे वानरवंशका विकास हुआ । 'वानर' श्रीकण्ठके कुलचिह्न थे । राक्षसवंश और वानरवंशमें कई पीढ़ियों तक मैत्री रहने के बाद श्रीमाला के स्वयंवरको लेकर दोनोंमें विरोध उत्पन्न हो जाता है। राक्षस वंशको इसमें मुंहको खानी पड़ती है । जिस समय रावणका जन्म हुआ उस समय राक्षस कुलकी दशा बहुत ही दमनीय थी ।
रावण के पिताका नाम रस्नाश्रव था और मौका कैकशी । एक दिन खेल-खेलमें भण्डारमें जाकर वह राक्षसवंशके आदिपुरुष तोयदवाहनका नवग्रह हार उठा लेता है, उसमें विजड़ित नवग्रहोंमें रावणके दस चेहरे दिखाई दिये, इससे उसका नाम दशानन पड़ गया। रावण दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा। उसने विद्याधरोंसे बदला लिया । पूर्वजोंकी खोयी जमीन छीनी । विद्याधर राजा इन्द्रको परास्त कर अपने मौसेरे भाई श्रावणपुष्पक विमान छीन लिया। उसकी बहन चन्द्रनखाका खरदूषण अपहरण कर लेता है। वह बदला लेना चाहता है, परन्तु मन्दोदरी उसे मना कर देती है। बालीकी शक्तिको प्रशंसा सुनकर रावण उसे अपने अधीन करना चाहता है । परन्तु बाली इसके लिए तैयार नहीं है । रावण
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पउमचरित
उसपर आक्रमण करता है परन्तु हार जाता है। बाली दीक्षा ग्रहण कर लेता है।
नारद मुनिसे यह जानकर कि दशरथ और जनकको सन्तानोंके हाथ रावणको मृत्यु होगी, विभीषण दोनों को मारने का षड्यन्त्र रचता है । वे दोनों भाग निकलते हैं । दशरथ कौतुकमंगल नगरके स्वयंवर में भाग लेते हैं । ककेयी उन्हें वरमाला पहना देती है। इसपर दूसरे राजा दशरथपर आक्रमण करते हैं, कैकेयी युद्ध में उनकी रक्षा करती है, दशरथ उन्हें वरदान देते हैं । दारयक ४ पुत्र होते हैं, कोदाल्यासे रामचम्ट, ककेयीस भरत, सुमियासे लक्ष्मण और सुप्रभासे शत्रुध्न । जनवाके एक कन्या सीता और एक पुत्र भामण्डल उत्पन्न होता है । परन्तु इसे पूर्वजन्मके बैरसे एक विद्याधर राजा उड़ाकर ले जाता है। जनकके राज्यपर कुछ बर्षर म्लेच्छ राजा आक्रमण करते हैं। सहायता मांगनेपर दशरथ राम और लक्ष्मणको भेजने है । वे जनकको रक्षा करते हैं। स्वयंवरमें वच्चावर्त और समुद्रावर्त धनुष चहा देनेपर सीता रामको वरमाला पहना देती है । दशरथ अयोध्यासे बारात लेकर आते हैं। शशिवर्धन राजाकी १८ कन्याओंकी शादी रामके दुसरे भाइयों हो जाती है। बुढ़ापेके कारण दशरथ रामको राजगद्दी दना चाहते हैं । परन्तु बाँकेली अपने घर मांग लेती है जिनके अनुसार राम को वनवास और भरतको राजगद्दी मिलती है। उस समय भरत अयोध्या में ही था। राम वनवासके लिए कूच करते है। स्वयम्भूके अनुसार वास्तविक राघव-चरित यहींस प्रारम्भ होता है। गम्भीरा नदी पार करने के बाद राम जब एक लतागृहमें थे, तब भरत उन्हें अयोध्या वापस चलने के लिए कहता है। राम अपने हायसे दुबारा उसके सिरपर राजपट्ट बांध देते हैं । भरत जिनन्दिरमें जाकर प्रतिज्ञा करता है कि रामके लौटते ही वह राज्य उन्हें सौंप देगा। चित्रकूट से चलकर राम वंशस्थल नामक स्थानपर पहुंचते हैं, जहां सूर्यद्वारा खड्ग सिद्ध करते हुए शम्बुकका धोखेसे सिर काट देते हैं। उसकी माँ चन्द्रनखा अपने पुत्रको मरा देखकर हत्यारेका पता लगाती है । राम-लक्षमणको
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'पउमचरिउ' और 'रामचरितमानस' देखकर उसका आक्रोश प्रेममें बदल जाता है । वह उनसे अनुचित प्रस्ताव करती है । लक्ष्मण उसे अपमानित कर भगा देते हैं । राम-रावणके संघर्षको भूमिका यहीसे प्रारम्भ होती है। खरदूषणके हारनेपर चन्दनना रावणके पास जाकर अपनो गुहार सुनाती है। वह अवलोकिनी विद्याकी सहायतासे सीताका अपहरण कर लेता है। मार्गमें जटायु और भामण्डलका अनूचर विद्याधर इसका विरोध करता है । परन्तु उसकी नहों चलती। लंका पहुँचकर सीता नगर में प्रवेश करनेसे मना कर देती है. रावण लसे नन्दनवन में ठहरा देता है। रावण सोताको फुसलाता है। परन्तु व्यर्थ । रावणकी कामजन्य दयनीय स्थिति देखकर मन्त्रिपरिषद्को बैठक होती है।
तीसरे सुन्दर काण्डमें राम सुग्रोवकी पत्नीका उद्धार कपट सुग्रीव { सहस्रगति ) से इस शर्तपर करते हैं कि वह उनकी सीताकी खोजखबरमें योग देगा। पहले तो सुग्रीव चुप रहता है, परन्तु बादमें लक्ष्मणके हरसे वह चार सामन्त सीताको खोजके लिए भेजता है। सीवाफा पता लगनेपर हनुमान् सन्देश लेकर जाता है । सीताको प्रतिज्ञा थी कि वह पतिकी खबर मिलनेपर ही आहार ग्रहण करेंगी। हनुमानसे समाचार पाकर वह आहार ग्रहण करती है। समसोतेके सब प्रस्तावन्वार्ताएं असफल होनेपर युद्ध छिड़ता है, और रावण लक्ष्मणके हाथों मारा जाता है। रावणका दाहसंस्कार करनेके राद राम अयोध्या वापस आते हैं और सामन्तोंमें भूमिका वितरण कर देते हैं। कुछ समप राज्य करने के बाद, (कविक अनुमार ) रामका मन सोतासे विरक्त हो उठता है, अनुरक्तिके समय रामने सीताके लिए क्या-क्या नहीं किया, विरक्ति होने पर रामको वही सीता काटने दौड़ती है। वह उसका परित्याग कर देते हैं, सीताको वनमें से उसका मामा वनजंघ ले जाता है, जहां वह 'लवण' और 'कुश' दो पुत्रोंको जन्म देती है। बड़े होनेपर उनका रामसे द्वन्द होता है । बादमें रहस्य खुलनेपर राम उन्हें गले लगा लेते हैं । अग्नि परीक्षाके बाद सीता दीक्षा ग्रहण कर लेती हैं। कुछ दिन बाद लक्ष्मणको मृत्यु होती है, राम
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उमरि
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उसक शवको कन्दार लादकर कहती हैं । अन्तमें आत्मबोध होनेपर दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । तपकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
तुलसी और मानस
तुलसीदास १६वीं सदी में हुए । इनका बचपन उपेक्षा, कठिनाई और संकट में बीता । पिताका नाम आत्माराम दुबे या और माताका हुलसी । इन्होंने राजापुर, काशी और अयोध्या में नित्रास किया। उन्हें रामकथा सूकर क्षेत्रमें सुनने को मिली 1 तुलसीका प्रामाणिक इतिवृत्त न मिलनेपर उनके विषय में तरह-तरहको किंवदन्तियाँ हैं, जिनका यहाँ उल्लेख अनावश्यक है। कहते हैं कि एक बार रासुराल पहुँचनेपर इनकी पत्नी रत्नावली इन्हें झिड़क देतो है जिससे कविको आत्मबोध होता है और वह राममन्ति में लग जाता हूँ। उनका मन रामके लोककल्याणकारी चरितमें रभ गया, उन्होंने निश्चय कर लिया कि में रामके चरित्र की लोकमानस में प्रतिष्ठा करूंगा। तुलसीके अनुसार रामकथा की परम्परा अगस्त मुनिसे प्रारम्भ होती है । वह यह कथा शिवको सुनाते हैं, शिव पार्वतीको, और याद में काकभुशुण्डीको । उनसे यह कथा याशवल्क्यको मिलती है और उनसे भारद्वाजको कवि इसके अलावा उन स्त्रोतों का उल्लेख करता है जिन्होंने उसके कथाकाव्यको पुष्ट बनाया। मुख्यरूपसे वह आदिकवि और हनुमान्का उल्लेख करता है, क्योंकि एक रामकथाका कवि है और दूसरा रामभक्तिका प्रतीक | तुलसीके लिए दोनों अपरिहार्य है । कवि सन्त समाजको चलताफिरला तीर्थराज कहता है जिनमें रामभक्तिरूपी गंगा, ब्रह्मविद्याकी सरस्वती और जीवन की विधि निषेधमयी प्रवृत्तियों की यमुनाका संगम
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. दूसरे शब्दोंमें, "ब्रह्मविद्याको आधार मानकर प्रवृत्तिनिवृत्तिका विचार रनेवाला सच्वा रामभक्त ही वास्तविक सीर्थराज है ।" रामचरित मानस - बुनावट समझने के लिए यह एक महत्वपूर्ण संकेत है । कविने प्राकृतजन प्राकृत कवियों का उल्लेख किया है । परन्तु यहाँ उनका प्राकृत से श्लोकिकजन या कविस है, न कि प्राकृतभाषा के कवि जैसा कि
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'पउमचरिउ' और 'रामचरितमानस'
कुछ लोग समझते हैं | अपने मानमरूपकमें वह स्पष्ट करते हैं— कवि मानव की मूल समस्या यह है कि प्रभुके साक्षात् हृदय में विद्यमान होते हुए भी मनुष्य दीन-दुखी क्यों है ? पुराणोंके समुद्रसे वाष्पोंके रूपमें जो विचाररूपी जलसाघुरूपी मे रूपमें जमा हो गया था, वही बरसकर जनमानस में स्थिर होकर पुराना हो गया। ऋत्रिकी बुद्धि उसमें अवगाहन करती है, हृदय आनम्द से जल्लसित हो उठता है और वही काव्यरूपी सरिता के रूप में प्रवाहित हो उठता है, लोकमत और वैश्मत के दोनों तटों को छूती हुई उसकी यह रामकात्र्वरूपी सरिता बहकर अन्तमें रामयज्ञ महासमुद्र में जा मिलती है । और इस प्रकार कविको काव्ययात्रा उसके लिए तीर्थयात्रा है। पहले काण्डमें परम्परा और प्रांतोंके उल्लेख के बाद, रामजन्म के उद्देश्यों पर प्रकाश डालता है। फिर रामभकिके सैद्धान्तिक प्रतिपादनक बाद उल्लेख है कि दशरथ के चार पुत्र हुए। विश्वामित्र अनुरोधपर दशर राम-लक्ष्मणको यज्ञकी रक्षा के लिए भेज देते हैं, वहां राम धनुषयज्ञ में भाग लेते हैं, और सीतासे उनका विवाह होता है । रामको राजगद्दी देनेपर कैकेयी अपने वर माँग लेती है, फलस्वरूप रामको १४ वर्षोंका बनवास मिलता है। भरत ननिहाल से लौटता है और अयोध्या में सन्नाटा देखकर हैरान हो उठता है । बादमें असली बाल मालूम होनेपर वह रामको मनाने जाता हूँ । अन्त में रामकी चरणपादुकाएँ लेकर वह राजकाज करने लगता है । जयन्त के प्रसंगके बाद राम विविध सुनियोंसे भेंट करते हुए आगे बढ़ते हैं। रावण की बहन सूर्पणखा राम-लक्ष्मणमे अनुचित प्रस्ताव रखती है । लक्ष्मण उसके नाक-कान काट लेते हैं। इस घटना से उनके विरोधको सम्भावना बढ़ जाती है। राम सीताका अग्निप्रवेश करा देते हैं, वहाँ केवल छाया सोता रह जाती है। स्वयंमृग के छनसे रावण छाया सोलाका अपहरण करता है। इससे राम दुखी होते हैं । शवरी उन्हें सुग्रीव से मिलने की सलाह देती है। राम बालीका वधकर सुग्रीवको पत्नी तारा उसे दिलवाते है । सुग्रीव के कहने पर हनुमान् सीताका पता लगाते हैं। हनुमान् सीतां भेंट कर वापस आता है । मन्दोदरी रावणको समझाती है। विभोपण अपमानित
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पचमचरिउ
होकर रामसे मिल जाता है । अन्त में रावण मुद्धमें मारा जाता है और राम विभीषणको राज्य सौंपकर अयोध्याके लिए कूष करते हैं । राज्याभिषेकके बाद तुलसोका कवि रामराज्यकी प्रशंसा करता है। भक्ति और ज्ञान के विश्लेषणके बाद कवि पूर्वजन्मोंका उल्लेख करता है । अन्त में काकभुशुण्डी गरुड़के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते है कि संसारका सबसे बड़ा दुख गरीबी है और सबसे बड़ा धर्म अहिंसा है। दुसरोंकी निन्दा करना सबसे बड़ा पाप है। सन्त वह है जो दूमरों के लिए दुख उठाये और असन्त वह जो दूसरोंको दुख देने के लिए स्वयं दुख उठाये । इस फल कथनके बाद रामचरित मानस समाप्त होता है ।
कथानक
पउमचरिउ और रामचरित मानसके कथानकोंकी तुलनासे यह बात सामने आती है कि एकमें कुल पांच काण्ड है और दूसरमे ७ काण्ड । ! 'मानस'को मूलकथाका विभाजन आदिरामायणके अनुसार सात सोपानों
में है । 'चरिउ' में सात काण्डकी कथाको पाँच मागों में विभक्त किया गया है । 'चरित' का विद्यापर काण्ड 'मानस' के बालकाण्डको कषाको समेट लेता है, दोनों में अपनी-अपनी पौराणिक रूढ़ियों और काव्य सम्बन्धी मान्यताओं के निर्वाह के साथ, पृष्ठभूमि और परम्पराका उल्लेख है । थोड़े-से परिवर्तनके साथ अयोध्या काण्ड और सुन्दर काण्ड भी दोनों में लगभग समान है, लेकिन 'चरिस' में अरण्य और किष्किन्धा काण्ड अलगसे नहीं है, इनकी घटनाएं उसके अयोध्या काण्ड और सुन्दर काण्डमें आ जाती है । मानसके अरण्यकाण्डकी घटनाएं ( चन्द्रनलाके अपमानसे लेकर जटायु-युद्ध तक ) चरिउके अयोध्या काण्डमें हैं। सथा किष्किन्धा काण्डको घटनाएँ ( राम-सुग्रीव मिलन, सीताकी खोज इत्यादि ) चरिउके सुन्दर काण्डमें हैं। वस्तुतः देखा जाये तो किष्किन्धा काण्ड और अरण्य काण्डकी घटनाएं एक दूसरेसे जुड़ी हुई हैं, और उन्हें एक काण्डमें रखा जा सकता है । स्वयम्भूने दोनोंका एकीकरण न करते हुए एकको उसके पूर्व के काण्डमें जोड़ दिया है
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'पउमचरिउ' और 'रामचरितमानस'
और दूसरे को उसके बाद इस प्रकार दो काण्डोंको संख्या कम हो गयी लेकिन राम के प्रवृत्तिमूलक और उद्यमशील चरित्रको दोनों प्रधानता देते हैं। रामायणका अर्थ हैं, रामका अयन अर्थात् चेष्टा या व्यापार । त्रिभुवन स्वयम्भू भी अपने पिताकी तरह रामकथाको पवित्र मानता है । तुलसीदास तो आदि अन्त तक उसे 'कलिमल समनी' कहते रहे हैं । त्रिभुवन स्वयम्भूका कहना है कि जो इसे पढ़ता और सुनता है उसको आयु और पुण्य में वृद्धि होती है । त्रिभुवन स्वयम्भू लिखता है - "इस रामकथारूपो कन्या के सात सर्गबाले सात अंग है, वह चाहता है कि तीन रनों को धारण करनेवाली उसके बाश्रयदाता 'विन्दह' का मनरूपी पुत्र इस कन्याका वरण करे ।" हो सकता है बिन्दइका चंचल मन दूसरी कथा - कन्याओं को देखकर लुभा रहा हो और कविने उसका वित्त आकर्षित करने के लिए नयी कथा- कश्याकी रचना की हो। अपनी कमा-कन्या के सात अंग बताकर त्रिभुवनने यह तो संकेत कर ही दिया कि उन्हें उसके सात फाण्डों को जानकारी थी ।
वनमार्ग
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'मानस' में रामको वनयात्राका मार्ग आदिरामायण के अनुसार है। श्रृंगबेरपुर से प्रयाग, यमुना पार कर चित्रकूट । बहाँसे दण्डकारण्य । ऋष्यमूक पर्वत और पम्पा सरोवर माल्यवान् पर्वतपर सीता के वियोग में वर्षाऋतु काटना। रामकी सेनाका सुचेल पर्वतपर जमाव, समुद्रपर सेतु बांधकर लंका में प्रवेश | इसके विपरीत स्वयम्भूके रामको वनयात्राका मार्ग हैअयोध्या से चलकर गम्भीर नदी पार करना । वहाँ दक्षिणकी ओर राम प्रस्थान करते हैं, बीच में बाकर भरत रामसे मिलते हैं, कवि उस स्थान का नाम नहीं बताता । वह एक सरोवरका लतागृह था । यहाँ तापस वन, धानुष्क वन और भील बस्ती होते हुए वे चित्रकूट पहुँचते हैं, फिर दशपुर नगर में प्रवेश करते हैं। नलकूवर नगरसे विन्ध्यगिरिकी ओर मुड़ते हैं, नर्मदा और वासी पार कर कई नगरोंमें से होकर दण्डक वनसे कच
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पउमचरित नदी पार कर वंशस्थल में प्रवेश करते हैं । 'मानस' और 'आदिरामायण' में चित्रकूटसे लेकर दण्डकवन तक के मार्ग का उल्लेख नहीं है। चरिउमें अयोध्यासे निकलकर राम सीधे गम्भीर नदी पार करते हैं, स्वयम्भूका गंगा जैसी नदी पार करनेका उल्लेख न करना सचमुच विचारणीय है। लेकिन लक्ष्मण को शक्ति लगनेपर हनुमान् जब उत्तर भारतकी उड़ान मारते हैं, तो उसमें ममुद्र-मलयपर्वत -- कावंगे, तुंगभद्रा, गोदावरी, महानदी, विन्ध्याचल, नर्मदा, उज्जैन, पारियात्र, मालव जनपद, यमुना, गंगा और अयोध्याका उल्लेख है। इसमें गम्भीरका उल्लेख नहीं है। दोनों परम्पराओंके भौगोलिक मार्गों की खासे उस सामान्य मार्गका पता लगाया जा सकता है जिससे रामने वस्तुतः यात्रा की थी। क्योंकि पौराणिक अतिरंजनाएं भौगोलिक मार्गकी वास्तविकताको नहीं झुठला सकती।
अबान्तर प्रसंग
आदिकवि और स्वयम्भूको रामकथाकी तुलनासे दूसरा तथ्य यह उभरकर आता है कि मूलकथा में दोनों में अवान्तर प्रसंग जुड़त गये है। 'चरित' में ऐसे अवान्तर प्रसंग हैं : विभिन्न वंशोंकी उत्पत्ति, भरत बाहुबलि-आध्यान, भामण्डल आख्यान, मद्रभूति और बालिखिल्य, यश्र कर्ण और सिंहादर, राजा अनन्सयोर्य, पवनंजय आरपान, महणावका कपिल मुनि, यक्षनगरी, कुलभूषण और देश-भूपण मुनियोंका आख्यान । मानसमें ऐसे
आख्यान हैं—शिवपार्वतो आत्यान, कंकयदेाके प्रतापभानु की पूर्वजन्मकी कथा, नियादराज गुह, केवट, भरद्वाज, वाल्मीकि, अगस्त्य और सुतीक्ष्ण ऋषियोंसे भेंट। अहल्याका उद्धार, जयन्त प्रसंग और शबरी आख्यान ।
उक्त अवान्तर प्रसंगोंका उद्देश्य मुख्य कथाको अग्रसर या गतिशील बनाना उतना नहीं है कि जितना अपने मतको प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति देना। जहाँ तक दोनों काव्यों समान रूपसे उपलब्ध चरित्रों का प्रश्न है उनके चरित्रकी मूलभूत विशेषताएं कि सीमा तक सुरक्षित हैं, शेष परिवर्तन अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुमार है, विस्तार भयसे यहाँ उनका उल्लेख
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'पउमचरित' और 'रामचरितमानस'
महीं किया जा रहा है । विशिष्ट पात्रों के चरित्रको चर्चा भी नहीं की जा रही है क्योंकि वह तुलनात्मक अध्ययनमें सहायक नहीं है । दार्शनिक विचार
स्वयम्भू और तुलसी दोनों स्पष्टतापूर्वक और आग्रहके साथ अपने दार्शनिक विचार प्रकट करते हैं. जैनदर्शनके अनुसार सष्टिको व्याख्या करत हए वह कहते हैं कि संसार जड़ और चेतनका अनादि-निघन मिश्रण है। मिश्रणकी इस रासायनिक प्रक्रियाका विश्लेषण नितान्त कठिन है । तात्त्विक दृष्टि से चेतन आनन्दस्वरूप है, परन्तु जहकमने उसपर आवरण डाल रखा है इसलिए जीव दुग्णी है, आरमाएं अनेक है, प्रत्येक आत्मा स्वयं के लिए उत्तरदायी है। इस प्रकार स्वयम्भ द्रुतवादी और बहुआत्मवादी हैं । राग चेतनासे मुक्ति पानेके लिए यह विवेक विकसित करना जरूरी है कि जड़से चेतन अलग है, इस विधेकको गीतराग-विज्ञान कहते है। चित्तकी शुद्धि के लिए राग घेतमासे विरति होना जरूरी है। परन्तु इसके साथ और इसीकी सिद्धिके लिए स्वयम्भने तीर्थंकरोंकी विभिन्न स्तुतियां और प्रार्थनाएं लिखी है, श्रद्धाके अतिरेकमें वह तीर्थकरों को भगवान् त्रिलोक पितामह, त्रिलोक शोभालक्ष्मीका आलिंगन करनेवाला, याहसिक कि मां-बाप मान लेते हैं। तुलसीका दार्शनिक.मत सूर्य की तरह स्पष्ट है, क्योंकि उनकी काम्य चेतनाको मूल प्रेरणा ही भक्ति चेतना है । भगवत्प्राप्ति के बजाय भक्ति ही तुलसीका साध्य है।
"सगुणोपासक मोक्ष न लेही
तिन्ह कहे रामभक्ति निज देहीं ।" भक्सिको अनुभूतिकी निरन्तरता भी उसका एक गुण है :
"रामचरित जे सुनत्र अपाही
__ रस विसेस लिन जाना नाही" स्वयम्भूके वीतराग विज्ञानके लिए विरक्ति आवश्यक है और जिनभात, विरक्ति में सहायक है । तुलसीके लिए भक्ति मुख्य है, विरक्ति उसमें सहायक है। अर्थात् एकके लिए भक्ति विरक्तिका एक साधन है जबकि
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पउमचरित
दुसरेके लिए विरक्ति भक्तिका । एक बात और, तुलसी के राम समस्त लीलाएं करते हुए भी, व्यक्तिगत रूपसे उनमें तटस्थ हैं, जबकि स्वयम्भूके राम जीवनकी प्रवृत्ति योंमें सक्रिय भाग लेते हुए भी उनमें आसक्त है, वह इस आसक्तिको नहीं छिपाते । लेकिन जीवन के अन्तिम क्षणोंमें विरक्तिको अपना लेते हैं । वस्तुतः इसमें दो भिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणोंको दो भिन्न परिणतियाँ है जो जीवनकी पूर्णता और सार्थकाताके लिए प्रवृत्ति और निर्वृत्तिका समुचित समन्वय आवश्यक मानती हैं।
चरितकाव्य-घटनाकाव्य-महाकाव्य
काव्य-प्रबन्ध कायके मुख्य दो भेद हैं-चरितकाव्य और घटनाकाक्य । घटनाकाव्यमें यद्यपि घटना मुख्य होती है, परन्तु उसमें वर्णनात्मकता अधिक रहती है। इसलिए कुछ पण्डित घटनाकाव्यको
नात्मक मानन में हैं। या पारत कायम भी होते है। परन्तु उसमें किसी पौराणिक या लौकिक व्यक्तिके परितका एक क्रममें वर्णन होता है। जहां तक अपनशमें उपलब्ध परितकाव्योंका मम्बन्ध है, वे अधिकतर पौराणिक या धार्मिक व्यक्तियोंके जोवनवृत्तको आधार लेकर चलते हैं। चरितका व्यके दो भेद किये जा सकते हैं। धार्मिक चरित. काव्य और रोमांचक चरित काव्य । परन्तु यह विभाजन भी अधिक ठोस नहीं है । क्योंकि चरितकाव्यमें भी रोमांचकता रहती है, यीक इसी प्रकार रोमांचककाव्यों में धार्मिकताका पुट रहता है। शृंगार और शौर्य की प्रवृत्ति दोनों में रहती है। कुछ हिन्दी आलोचक, 'चरितकाव्य' को परित काव्य
और घटनाकाव्यको महाकाव्य मानते हैं। 'रामचरितमानस' और 'पद्मावत' को महाकाब्य सिद्ध करने के लिए, उन्हें घटनाकान्य मानते हैं, अधकि वे विशुद्ध चरितकाव्य है । मान सके चरितकाव्य होने में सन्देह नहीं, परन्तु पद्मावत भी चरितकाव्यको कोटिमें धाता है । पद्मावतमें मुख्य-रू. पर्स रसन मनका वह चरित बणित है जा पद्मावती के पानसे सम्बद्ध है। मेरे विचारमें चरितकाम्य भी घटनाकाव्य हो सकता है। महाकाव्मके
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'पउमचरित' और 'रामचरितमानस
રી
लिए यह जरूरी नहीं है कि वह घटनाकाम्य हो ही । 'घटना' महाकाव्यकी कसौटी नहीं, उसके लिए महत्तत्त्वका ममावेश और उदार दृष्टिकोणकी आवश्यकता है। यदि 'मानस' 'परिउ' और 'पद्मावत' में महतत्व मोर व्यापक उदारता है, तो वे चरितकाव्य होकर भी महाकाव्य है इसके लिए उन्हें घटनाकाव्य सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं | क्योंकि परितकाव्य मी महाकाश्य हो मकते हैं। इसमें सन्नेह नहीं कि अपभ्रंश चरितकाव्यों का विकास संस्कृत पुरण काव्यों से हुआ। यह बात मंस्कृतम रविषेणके 'पन चरित' और 'स्त्रयम्भ' के 'पउमचरिउ' के तुलनात्मक अध्ययनसे स्वतः स्पष्ट हो जाती है । इधर अपभ्रंशके कुछ युबातृक अध्येता अपभ्रंश कान्यके दो भेद करने के पक्ष में हैं-12) चरितवाच्य और ( २) कथाकाव्य । परन्तु अपभ्रंश व्यके स्वरूप और शिल्पको देखते हा रडू विभाजन ठीक महों । एक ही कवि अपने वाव्यको चरिस भी कहता है और कथाकाव्य भो। यह कहना भी गलत है कि वरितकाव्यों का नायक पार्मिक व्यक्ति होता है जबकि लौकिक कथाकाव्योंका लौकिक पुरुष । उदाहरण के लिए धनपालका 'भविसयत्तकहा' को 'भविसयत चरिउ' भी कहा जा सकता है। उसका नायक भत्रिसयत्त 'सामान्य लौकिक' व्यक्ति नहीं है, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं, लौकिक और अलोकिक व्यक्तियोंका चरित चित्रण करना अपभ्रंश चरित-कवियोंका उद्देश्य भी नही है । दूसरा उदाहरण है "सिरिवालचरिउ'का । कहीं-कहीं उसका नाम 'सिरिवालकहा' मी मिलता है। अपभ्रंशकाव्य, वस्तुतः विशिष्ट प्रबन्धकाव्य हैं, जिन्हें मासानीसे चरितकाव्य या कथाकाव्य कहा जा सकता है, केवल 'चरिउ' या 'कया' नाम के आधार पर उनमें भेद करना गलत है 1 स्वयम्भू और पुष्पयन्त दोनों अपभ्रंशसे सिद्ध कवि है और उन्होंने अपनी कथाको अलंकृत कथा कहा है । यह अलंकृत कथा वही है जो उनके चरितकाव्यों में प्रयुक्त है, रामायणको चेष्टा या प्रयत्न ही रामायण है, आगे चलकर यही अमन सा चेष्टा पौराणिक व्यक्तियों के साथ जुड़कर 'चरिइन जाती है। यह जरूरी है कि उक्त चेष्टा लौकिक ही हो, वह धार्मिक भी
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पउमचरिउ
हो सकती है, जैसे पाहिलका 'पउमसिरी चरिउ' । कहनेका अभिप्राय यह कि अपभ्रंश कवियोंके वे चरितकाव्य और कथाकाव्योंमें विशेष अन्तर नहीं किया । ये कवि कभी अपने काव्यको आस्थानककाव्य भी कहते है, अभिप्राय वही है । जहाँ तक 'प्रेमतत्त्व' की प्रचुरताका सम्बन्ध है, यह चरितकायोंमें भरपूर है, परन्तु वे विशुद्ध प्रेमकाव्य नहीं है। कुछ विश्वविद्यालयोंके हिन्दी विभागोंके अन्तर्गत अपभ्रंश चरितकाव्यों का प्रभाव हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्योंपर खोजा गया है जो सचमुच विचारणीय है, क्योंकि प्रेमकाव्य और प्रेमाख्यानक काव्यों में मौलिक अन्तर है । प्रेमकाव्य एक प्रकारसे श्रृंगार काव्य हूँ जबकि प्रेमाख्यानक काव्य ऐसा लौकिक प्रेमाख्यान है जिसके द्वारा कवि लौकिक प्रेमके द्वारा अलोकिक प्रेमका वर्णन करता है । हिन्दी सूफी कवियोंमें रूढ़ प्रेमाख्यानक कायोंपर अपभ्रं चरितकाव्यों का प्रभाव खोजना बहुत बड़ी ऐतिहासिक भूल है ? लेकिन हिन्दी में अपभ्रंश सम्बन्धी खोज, अधिकतर इसी प्रकार की ऐतिहासिक भूलोंकी निष्पति है, जिसपर गम्भीरता से ध्यान देनेकी आवश्यकता है । युगीन परिस्थितियाँ
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स्वयम्भूका समय स्वदेशी सामन्तवाद की स्थापनाका समय है, ७११ ईसवी में मुहम्मद बिन कासिमका सिन्धपर सफल आक्रमण हो चुका था, और उनके ढाई साल बाद लगभग मुहम्मद गोरी की अन्तिम जीतके साथ गंगाघाटीसे हिन्दू सत्ता समाप्त हो चुकी थी। लेकिन पूरे अपभ्रंश साहित्य में इन महत्वपूर्ण घटनाओंका आभास तक नहीं है। समाज और धर्मके केन्द्र में राज्य था । शक्ति और सत्ता पुण्यका फल था । सामाजिक विषमताओं परिणतिकी व्याख्या पुण्यपादके द्वारा की जाती थी । 'कन्या' का स्थान समाज में निम्न माना जाता था । वह दूसरेके घरकी शोभा बढ़ानेवाली थी। स्वयम्भूके राम भी आदर्श है-"जो भी राजा हुआ हैं या होगा, उसे दुनियाके प्रति कठोर नहीं होना चाहिए, न्याय से प्रजाका पालन करते हुए यह देवताओं, ब्राह्मणों और श्रमणों को स्वयम्भूके समय विन्ध्याटवी में भीलोंको मजबूत
पीड़ा न दे ।" स्वयंवरको
स्तियाँ थीं।
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'पटमचरित' और 'रामचरितमानस'
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प्रथा थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि उस समय चीजों में मिलावट होती श्री । गुलसीले सात-आठ सौ साल पहले, स्वयम्भूने लिखा था कि कलियुगमें धर्म क्षीण हो जाता है, इससे स्पष्ट है कि कलियुगकी धारणा संसारके प्रति भारत वामियों के निराशावादी दृष्टिकोणका परिणाम है, उसका विदेशी आक्रान्ताओंसे कोई सम्बन्ध नहीं। __जहाँ तक 'मानस' में समकालीन 'सांस्कृतिक चित्र' के अंकनका प्रश्न है, वह स्पष्ट रूपस उभरकर नहीं आता। परन्तु ध्यानसे देखने पर लगता है कि समूचा रामचरितमानस युगके यथार्थकी हो प्रतिक्रिया है। उनके अनुमार वंद विरोधी ही निशाचर नहीं हैं, परन्तु जो दूसरेकै धन और पर डाका डालते हैं, आड़ी है. माँ बापली सेवा नहीं करते, वे भी निशाचर है । इस परिभाषाके अनुसार नैतिक आचरणसे भ्रष्ट प्रत्येक व्यक्ति निशाचर है। तुलसी के समय आध्यात्मिक शोषण की प्रवृत्ति सबसे अधिक प्रबल श्री । कवि कहता है कि लोग अध्यात्मवाद और अद्वैतवादकी चर्चा करते हैं, परन्तु दो कौड़ीपर बूसरों की जान लेने पर उतारू हो जाते है । तपस्वी पैसेवाले है, और गृहस्प दरिद्र है । इसका अर्थ यह नहीं है कि सुलसीदास समाजवादी और प्रगतिशील थे। वस्तुत: समाजमें नैतिक क्रान्ति चाहते थे, रामके चरितका गान उनके इसी उद्देश्यकी पूर्तिका साहित्यिक प्रयास था। इनमें सन्देह नहीं कि दोनों कवि अपने युगके नतिफ पतनस अत्यन्त दुखी थे। परन्तु एक जिनक्ति द्वारा समाज और व्यक्तिमें नैतिक क्रान्ति लाना चाहता है जबकि दूसरा, रामभक्ति द्वारा । दोनों कवि समक्रयाके मूलस्वरूपको स्वीकार करके चलते है ? कथाके गनिमें चरित्र-निषण और नैतिक मूल्योंको महस्व दोनोन दिया है। स्वयम्भू सीताके निमिनका उल्लेख ती करते है, परन्तु सीताके स्वाभिमानको आंच नहीं आने देते। 'मानस' की सीताके निर्वासनका विपय स्वयं तुलसीदाम पी जाते हैं। कुल मिलाकर दोनों कवियों का उद्देश्य एक आवारमूलक आस्तिक चेतनाको प्रतिक्षा करना रहा है ।
-देवेन्द्रकुमार जैन
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अनुक्रम
पहली सन्धि
४-२४ ऋषभ जिनकी वन्दना, मुनिजनकी वन्दना, आचार्य-वन्दना, चौबीस तीर्थंकरोंकी बन्दना, रामकथा-नदी का रूपक, कपाकी परम्परा, कविका संकल्प और आत्मलघुता, सज्जन-दुर्जन वर्णन, मगध देशका वर्णन, राजा श्रेणिकका वर्णन, विपुलाचलपर महावीरके समवशरणका आगमन, राजा श्रेणिकका सदलबल समवशरण के लिए प्रस्थान, अंगिक द्वारा महावीरको बन्दना, रामकथा के सम्बन्धमें श्रेणिकका प्रश्न, मौतम द्वारा तीन लोक और कुलघरोंका वर्णन, देवांगनाओंका मझदेवीकी सेवा के लिए आगमन, सोलह सपनों का उल्लेख, ऋषभ जिनका जन्म ।
दूसरी सन्धि
२६-४४
इन्द्र द्वारा नवजात जिनके अभिषेकके लिए प्रस्थान, कालाओंके प्रदर्शन के साथ जिनका अभिषेक, इन्द्रका भगवान्को अलंकार पहनाना, इन्द्र द्वारा जिनकी स्तुति, जिनका लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा, कर्मभूमिका आरम्भ, ऋषभको गृहस्थी में मग्न देखकर इन्द्रकी घिन्ता, नीलांजनाका अभिनय और मृत्यु, जिनका विरक्त होना, लौकान्तिक देवोंका आना और जिनकी दीक्षा, जिनकी तपस्याका वर्णन, दूसरे साधनोंका पतन और साकासबाणी, कच्छ-महाफच्छका जिनके पास आना, धरणेन्द्रका
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अनुक्रम
आकर उन्हें समझाना और भूमि देकर दिदा करना, जिनको आहारयात्रा और जनता द्वारा उपहार दिया जाना, कौर राणीवर्णं ।
श्रेयांसा
तीसरी सन्धि
जिनका पुरिमतालपुर में प्रवेश, उद्यानका वर्णन, शुक्लध्यान और केवलज्ञानकी उत्पत्ति, प्रातिहायका उल्लेख समवशरणकी रचना, इन्द्रका आगमन, देवनिकायोंका उल्लेख ऐरावतका वर्णन, इन्द्र के वैभवका वर्णन, देवोंका यान छोड़कर समवशरण में प्रवेश, इन्द्र द्वारा जिनकी स्तुति, राजा पभसेनका समयशरण में आना, सामूहिक दीक्षा और दिव्यध्वनि सात तत्वोंका निकरण, जिनका विहार और भरतकी विजययात्रा ।
+
"
,
भरतका जिनसे पाहुबलिको सिद्धिन मिलने का भरत द्वारा क्षमा-याचना और बाहुबलिको उपत्ति ।
.
४४-६०
चौथी सन्धि
६०-७६
1
भरतके चक्रका अयोध्या में प्रवेश, मन्त्रियों द्वारा इसके कारणका निवेदन दूतका बाहुबलिये निवेदन उत्तेजनापूर्ण विवाद, लौटकर दूतों द्वारा प्रतिवेदन, भरत द्वारा युद्धकी घोषणा, argefast सैनिक तैयारी, मन्त्रियों द्वारा बीचबचाव और द्वन्द्व युद्धका प्रस्ताव, दृष्टियुद्ध में भरतकी हार, जलयुद्ध और उसमें भरत की हार, मल्लयुद्ध में भरतका हारना, भरतका बाहुबलियर चक्र फेंकना, चक्रका बाहुबलिके वशमें या जाना, कुमारका निर्वेद कुमार द्वारा दीक्षा ग्रहण, उनकी साधनाका वर्णन,
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भरतका कैलासपर ऋषभजिनकी वन्दना के
लिए जाना,
कारण पूछता, केवलज्ञानको
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पउमचरिउ
पाँचवीं सन्धि
७६-९४
इक्ष्वाकुकुलका उल्लेख, अजित जिनका संक्षिप्त वर्णन, सगर चक्रवर्तीका वर्णन, उसका सहस्राक्षको कन्यासे विवाह, सहस्राक्ष की में वाहनपर चढ़ाई, उसके पुत्र तोयदवाइनका पलायन, उसका अजितनाथके समवशरणमें जाना और दीक्षा लेना, महाराक्षसका लंकानरेश बनना, सगरके पुत्रोंकी कैलासयात्रा और हाई खोदना, धरणेन्द्रके प्रकोपमें उसका भस्म होना, सगरकी बिरक्ति, सगर द्वारा दीक्षाग्रहण, महाराक्षसके पुत्र देवराक्षसका जलविहार, श्रमणसंघका आना और उसका धन्दना के लिए जाना, महाराक्षसकी राक्षससेना, देवराक्षसका गद्दी पर बैठना ।
छठी सन्धि
९४-११४
"
उत्तराधिकारियोंकी लम्बी सूची अन्तिम राजा कीर्ति बलका होगा, उसके साले श्रीकण्ठका अपना सेनाका आक्रमण, कमलाका बीचबचाव और सन्धि, श्रीकण्ठका वानरद्वीपमँ रहने का निश्चय, वानरद्वीपमें प्रवेश, बानरद्वीपका वर्णन, वयकंण्ठकी उत्पत्ति, श्रीकण्ठको विरक्ति और जिनदीक्षा, नवमी पीढ़ीमें राजा अमरप्रभका होना, उसका वानरोंपर प्रकोप, मन्त्रियोंके समझानेपर कुलध्वजामें वानरोंका अंकन सडिकेश द्वारा चानरका वध, वानरका उदधिकुमार देव बनना और बदला लेना, सबका जिनमुनिके पास जाना, धर्म-अधर्म वर्णन ओर पूर्व-भव कथन, तडित्केशकी जिनदीक्षा |
सातबी सन्धि
११४-१२८
कुमार किष्किन्ध और अन्धकका स्वयंवरमें जाना, आदित्यनगरको श्रीमालाका स्वयंवर में आना, किष्किन्धका वरण,
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अनुक्रम
विद्याधरोंका बानरवंशियोंपर आक्रमण, अन्धक द्वारा विजयसिंहको हत्या, उसका वधूसहित नगर में प्रवेश और विद्याधरोंका आक्रमण, तुमुलयुद्ध, अन्धककी मुच्र्छा और भाईका विलाप पाताललंका में प्रवेश, बानरोंका पतन, किष्किन्धाका मधुपर्वतपर अपने नामसे नगर बसाना, मधुपर्वतका वर्णन, सुकेश के पुत्रोंकी किष्किन्ध नगर जाने को तैयारी, मालिकी लंका वापस लेनेको प्रतिज्ञा, लंकापर अभियान, युद्ध में मालिकी विजय ।
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आठवी सन्धि
१३०-१४२
मालिका राज्य विस्तार, इन्द्र विद्याधरकी बढ़ती, दोनोंमें संघर्ष, दौत्य सम्बन्धका असफल प्रस्ताव युद्धका सूत्रपात, विद्यायुद्ध और मालिका पान, चन्द्र द्वारा मालिकी सेनाका पीछा करना, इन्द्रका रथनपुर नगर में प्रवेश, राज्यविस्तार |
नौषी सन्धि
१४२ - १५८
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मालिके पुत्र रत्नाश्रत्रका कंकशी से विवाह, स्वप्नदर्शन और उसका फल, रात्रणका जन्म रावणका नोमुखयाला हार पहनना, मका वैवण के वैरकी याद कराना रावणकी प्रतिज्ञा और विद्या सिद्ध करना, यक्षका उपद्रव, माया प्रदर्शन, विद्याकी प्राप्ति और घर लौटना ।
दसवीं सन्धि
१५८-१७०
रावण द्वारा चन्द्रहास खड्गको सिद्धि, सुमेरु पकी वन्दना, मारी और मन्दोदरी का आगमन, रात्रणका लौटना, मन्दोदरीका रूप चित्रण, विवाहका प्रस्ताव और विवाह, रावण द्वारा गन्धकुमारियों का उद्धार, उनसे विवाह, दूसरे भाइयोंके विवाह,
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एनरिउ
कुम्भका उपद्रव करना और वैश्रवणके दूतका आना, इतका अपमान और अभियान, वैअत्रय और रावण में भिड़न्त मायाका प्रदर्शन, लंकापर रावण की विजय |
ग्यारहवीं सन्धि
१७२-१
रावणकी पुष्पकविमानसे यात्रा जिन-मन्दिरोंका दूरसे वर्णन, हरिषेणका आख्यान, सम्मेद शिखरको यात्रा, त्रिजगभूषण को वश में करना, रावणकी हस्ति-क्रीड़ा, भट द्वारा यमयातनाका वर्णन, यमकी नगरीपर आक्रमण, यमपुरीका वर्णन ओर बन्दियोंकी मुक्ति, यम और उसके सेनानियां से युद्ध, युद्ध में यमको पराजय, रावणका लंकाको प्रस्थान, आकाशसे समुद्रकी शोभाका वर्णन |
बारहवीं सन्धि
१८८-२०
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मन्त्रिपरिषद्, रावणका परामर्श, राजणका बालिके प्रति रोष चन्द्रनखाका अपहरण, रावणका आक्रोश, मन्दोदरी को समझाना, रावणके दूतकी बालिसे वार्ता दूतका रुष्ट होकर लोटना, अभियान, इन्द्र का प्रस्ताव, विद्या-युद्ध, रावणको हार, बालि द्वारा दीक्षा ग्रहण और सुग्रीवका रावणसे वैवाहिक सम्बन्ध, सहस्रगतिको विरहवेदना और उसका प्रतिशोधका संकल्प |
तेरहवीं सन्धि
२०२ - २१
रावणकी बालिके प्रति आशंका, कैलासयात्रा और बालिपर उपसर्ग, कैलासपर इसकी हलचल, धरणेन्द्रका उपसर्गको टालना, इसकी प्रतिक्रिया और अन्तःपुर द्वारा क्षमा-प्रार्थना रावण द्वारा बालिकी स्तुति, जिनमन्दिरोंकी बन्दना, रावणका प्रस्थान, लरदूषण द्वारा उसका स्वागत, निशाका वर्णन |
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भनुकम
चौदहवीं सन्धि
२१८-२३२ प्रभातका वर्णन, वसन्तका वर्णन, रवा नदीका वर्णन, रावण और सहसकिरणको रेवामें जलक्रोडा, जलक्रीडाका वर्णन, रावण द्वारा जिनराजा, पूजामें विघ्न, रेवाके प्रवाहका वर्णन, रावणका प्रकोप, जलयन्त्रोंका श्लिष्ट वर्णन, युद्धको तयारी ।
पन्दवी सन्धि
युद्धका वर्णन, देवताओं की आलोचना, सहस्रकिरण का पतन, उसके पिता द्वारा क्षमाकी योजना, सहसकिरण की मुक्ति और जिन-दीक्षा, मगधको ओर प्रस्थान, पूर्वो जनपदोंपर विजय, पुनः कलासकी ओर, नलकूबरका यन्त्रोकरण, उपरम्माका रावणसे गुप्तप्रेम, नलकूबर नरेशका पतन, क्षमादान और प्रस्थान ।
सोलहवीं सन्धि
२४८-२६६ इन्द्र के मन्त्रिमण्डल में गुप्त मन्त्रणा, रावणकी दिनचर्याका वर्णन, इन्द्रसे उसको तुलना, सन्धिके प्रस्तावका निश्चय, मन्त्रियों में परामर्श, चित्रांग दूतका प्रस्थान, नारदसे सूचना पाकर रावणकी तत्परता, दूतकी बात-चीत, इन्द्र की शक्ति और प्रभावके उल्लेख के माथ सन्धिका प्रस्ताव, इन्द्र जीत द्वारा सन्धिकी शर्त, युद्धको घुनौती, दूतका इन्द्रसे प्रतिवेदन ।
सत्रहवीं सन्धि
२६६-२८८ युद्धका प्रारम्भ, व्यूहकी रचना, युद्धका वर्णन, इन्द्रका पतन, इन्द्रका बन्दो बनना, सहस्रारके अनुरोधपर इन्द्रकी मुक्ति, रावणको सन्धिकी शर्त ।
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पउमचरिउ
अठारहवीं सन्धि
२८८-३०२
मन्दराचलकी प्रदक्षिणा, अनन्तरथकी केवलज्ञानकी उत्पत्ति, राजपरिज्ञाना
अंजनामे सगाई, कुमारकी कामवेदेना, मित्रको सान्त्वना, दोनोंका आदित्यनगर पहुँचना और कुमारका रुष्ट होना, विवाह और परित्याग, कुमारका युद्धके लिए प्रस्थान, मानसरोवरपर डेरा चीके वियोगसे प्रेमका उनेक चुप-चाप आकर अंजना एकान्त भेंट |
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उन्नीसवीं सन्धि
३०२-३६४
मिलनका प्रतीक चिह्न देकर कुमारका प्रस्थान, मास द्वारा अंजनापर लांछन घर से निष्कासन, पिता घर पहुँचना, पहुँचना, पिताका तिरस्कार, अंजनाका जिल्लाप, मुनिवरसे भेंट, उनकी सान्तवना, सिंहका आना और देव द्वारा उनको रक्षा, हनुमान्का जन्म, प्रतिसूर्यका अंजनाको ले जाना, हनुमानुका गिलापर गिरना, पवनकुमार का युद्ध से लोटना और विशप पनकी उन्मत्त अवस्था, पवनका गुप्त संन्यास, उसकी खोज, उसका पता लगाना, हनुरुद्वीपको प्रस्थान |
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बीसवीं सन्धि
३२४-३३९
हनुमानका यौवन में प्रवेश, हनुमान् और पवनमें विवाद हनुमानका रावण द्वारा स्वागत, वरुण की तैयारी, तुमुलयुद्ध ऋणका पतन, अन्तःपुरकी मुक्ति, वरुण की कन्या रावणका विवाह, हनुमान् आदिका ससम्मान विदा 1
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पउमचरिउ
[ भाग १]
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कराय -सयम्भूएव - किउ पउमचरिउ
णमा -कमल-कोमल-मजहर वर-बल-कन्ति सोहिलं । सहस्न पाम -कमलं ससुरासुर-धन्दियं सिरसा ॥१॥ दीहर-समास-पास सड़-दर्द अध्य- केसघवियं । वुह - मयर - पीयरसं वयम्भुकम्पलं जय ॥२॥ पहिंकड जयकारेंवि परम-मुगि। झुणि जाहँ अणिट्रिय रतिदिणु । ख खशुषि जाहँण विचल
मुणि वयणें जा सिम्त भूमि ॥१॥ जिणु हियऍ न फिटइ एकु णु ॥११॥ मणु। मणु मग्गड़ जाएँ मोक्स-गमणु ॥३॥ गमणु वि ज िम जम्मणु मरणु ॥४॥ सुणिवर जे छग्गा जिणवरहूँ ॥५॥ परु केव कुक्कु जें परिषणों ॥६॥ तिण-समय गाहिं लड्डु णस्य रिणु ॥७॥ भव- रहिय धम्म-संजम - सहिय ॥८॥
मरणु वि कह होइ सुणीवर हूँ । जिणवर में छीम माण परहों । परिवणुमनें मण्डि जेहिं विणु। रिणु केम होइ भव-भग-रदि ।
घसा
जे काय-वाम-सणें जिद्धिरिय जे काम कोह-दुण्णय-सस्थि ।
से एक-मयेण स मं सु ऍण वन्दिम गुरु परमायरिय २९ ॥
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कविराज-स्वयम्भूदेव-कृत
पदाचरित
जो नवकमलोंकी कोमल सुन्दर और अत्यन्त सघन कान्तिकी तरह शोभित है और जो सुर तथा असुरोंके द्वारा वन्दित है, ऐसे ऋषभ भगवान्के चरणकमलोंको शिरसे |नमन करो॥१॥
जिसमें लम्बे-लम्बे समासोंके मृणाल हैं, जिसमें शब्दरूपी दल है, जो अर्थरूपी परागसे परिपूर्ण है, और जिसका बुधजन रूपी भ्रमर रसपान करते हैं, स्वयम्भूका ऐसा काव्यरूपी कमल जयशील हो ||२||
पहले, परममुनिका जय करता हूँ जिन परममुनिक सिद्धान्त-वाणी मुनियोंके मुख में रहती है, और जिनकी ध्वनि रात-दिन निस्सीम रहती है । कभी समाप्त नहीं होती ), जिनके हृदयसे जिनेन्द्र भगवान्' एक क्षणके लिए अलग नहीं होते। एक क्षणके लिए भी जिनका मन विचलित नहीं होता, मन भी ऐसा कि जो मोक्ष गमनकी याचना करता है, गमन भी ऐसा कि जिसमें जन्म और मरण नहीं है । मृत्यु भी मुनिवरोंकी कहाँ होती है, उन मुनिवरोंकी, जो जिनवरकी सेवामें लगे हुए हैं। जिनवर भी वे, जो दूसरोंका मान ले लेते हैं (अर्थात् जिनके सम्मुख किसीका मान नहीं ठहरता), जो परिजनोंके पास भी पर के समान जाते हैं (अतः उनके लिए न तो कोई पर है,
और न स्व ), जो स्वजनोंको अपने में तृणके समान समझते हैं, जिनके पास नरकका ऋण तिनकेके बराबर भी नहीं है। जो संसारके भयसे रहित है, उन्हें भय हो भी कैसे सकता है। वे भयसे रहित और धर्म एवं संयमसे सहित हैं ॥१८॥
घत्ता-जो मन-वचन और कायसे कपट रहित हैं, जो काम और क्रोधके पापसे तर चुके हैं, ऐसे परमाचार्य गुरुओंको स्वयम्भदेव (कवि) एकमनसे बंदना करता है ।।
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पढमो संधि
विहुमणलमाण-खम्भु गुरु पुणु प्रारम्भिय रामकह
परमेट्टि पवेप्पिणु । आरिसु जोपप्पिषु ॥१॥
पणवेपिणु भाइ-महाराहों। संसार-समुत्ताराहों ॥३॥ पणवैपिगु अजिय-जिणेसरहों। दुजय-कन्दप्प-दप-हरहों ॥२॥ पणवेपिणु संमवमामियहाँ। तहलो-सिहर-पुर-गामियहाँ ॥१॥ पणवेस्पिण अहिणादण जिणहों। कम्मट्ट-दुटु-रिउ-णिजिगहों ॥३॥ पपवेवि सुमइ-तिस्थारहों। क्य-प-महादुम्बर-धरहों ॥५॥ पणवेपिणु पदमपइ-जिणहो। सोहिय-भव-फरख-दुक्ख-रिणहों 11६॥ पणवेप्पिणु सुरवर-साराहो। जिष्णवरहों सुपास-भताराहों ॥७॥ पणवेग्पिणु धम्दष्पह-गुरुहीं। भत्रियाया-सडण-कप्पतरुहो ॥८॥ पपवेष्पिणु पुष्यन्त-मुणिहें। सुरभवागुच्छलिय-दिग्व झुणिहें ॥९॥ पणवेपिणु सीयल-पुकमहो। कल्लाण-प्राण-गाणुगमहों ॥१०॥ पणवेप्पिणु सेन साहिवहाँ। भच्चन्त-महन्त-पत्त-सिवहीं ॥११॥ पणधेषिपणु वालुपुज-मुणिहैं। विप्फुरिय-गाण-चूडामणिहें ।।१२।। एणवेप्पिण विमल-महारिसिह। संदरिसिय-परमागम-दिसिह ॥१३॥ पणप्पिशु मालगाराहों। साणन्तहों धम्म-महाराहों ॥१४॥ पणवेपि सन्ति-कुन्थु-भर। तिणि मि तिअण-परमेसर हैं ॥१५॥
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पहली सन्धि
त्रिभुवनके लिए आधार स्तम्भ परमेष्ठी गुरुको नमन कर तथा शाखोंका अवगाहन कर कविके द्वारा रामकथा प्रारम्भ की जाती है।
[१] संसाररूपी समुद्रसे तारनेवाले आदि भट्टारक ऋषभ जिनको प्रणाम करता हूँ। दुर्जेय कामका दर्प हरनेवाले अजित जिनेश्वरको प्रणाम करता हूँ। त्रिलोक शिखरपर स्थित मोक्षपुर जानेवाले सम्भव स्वामीको प्रणाम करता हूँ| आठ कर्मरूपी दुष्ट शत्रुओंको जीतनेवाले अभिनन्दन जिनको नमस्कार करता हूँ। महा कठिन पाँच महात्रतोंको धारण करनेवाले सुमति तीर्थकरको प्रणाम करता हूँ । संसारके लाख-लाख दुःखोंके ऋणका शोधन करनेवाले पमप्रभु जिनको प्रणाम करता हूँ। सुरवरोंमें श्रेष्ठ, आदरणीय सुपार्श्वको प्रणाम करता हूँ । भव्य जनरूपी पक्षियोंके लिए कल्पतरुके समान चन्द्रप्रमु गुरुको प्रणाम करता हूँ। जिनकी ध्वनि स्वर्गलोकतक उछलकर जाती है, ऐसे पुष्पदन्त. मुनिको प्रणाम करता हूँ। कल्याण ध्यान और ज्ञानके उद्गम स्वरूप, अष्ट शीतलनाथको प्रणाम करता हूँ। अत्यन्त महान् मोक्ष प्राप्त करनेवाले श्रेयान्साधिपको प्रणाम करता हूँ। जिनका केवलज्ञानरूपी चूड़ामणि चमक रहा है ऐसे वासुपूज्य मुनिको प्रणाम करता हूँ। परमागमोंका दिशाबोध देनेवाले विमल महाऋषिको प्रणाम करता हूँ। कल्याणके आगार अनन्तनाथ सहित आदरणीय धर्मनाथको प्रणाम करता हूँ। शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथको प्रणाम करता हूँ जो तीनों ही तीनों लोकोंके परमेश्वर हैं।
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पडमचरिठ
पणवेवि महिल-तिस्पकरहों।। प्तइलोक-महारिसि-कुलहरहों ॥१६॥ पणवेप्पिणु मुणिसुश्चय-निगा। देवासुर-किना-परहित एणवेच्पिणु गमि-णेमीसरह। पुणु पास-वीर-तिस्थक्करहँ ॥१८॥
पत्ता इय चउवीस वि परम-मिण एणवेप्पिणु मावें। पुणु मापाणउ पायमि रामायण-कावें ॥३९॥
पदमाण-मुह-कुहर-विणिग्गय । रामकहा-गह एह कमागय ॥३॥ भक्तर-वास-बकोह-मणोहर। सु-अलकार-छन्द-मच्छोहर ।। दीद-समास-पवाहावष्टिय । सक्षम-पायय-पुलिणासतिष ॥॥ देसीमामा-मय-तडजल । कवि दुक्कर-षण-सर-सिहायक na मस्य-वहल-कस्कोडाणिद्विप। भासासम-समतह-परिटिन ॥५॥ एर रामकह-सरि सोहन्ती। गणहर-देवहिं दिट्ट पहन्ती ॥३॥ पर इन्मभू-आयरिएं। पुणु भम्मेण गुणारिएं ॥७॥ पुश पहवें संसाराराएं। कितिहरेण अणुचरवाएं ॥८॥ पुणु रविसेणारिय-पसाएं। बुद्धिएँ भवगाहिय कराएं ॥२॥ पउमिणि-मणि-गम्भ-संभूएँ। मास्यएव-रूप-अणुराएँ ॥१०॥ भइ-तणुएण पईहर-गसें। विवर-णासें पविरलन्दनीं ॥१॥
घसा णिम्मल-पुण्ण-पवित्त-कह- किसणु भावप्पा । जेम समाणिमन्तएँण घिर कित्ति विढप्पह ॥१९
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पामो संधि त्रिलोक महाऋषियोंके कुलको धारण करनेवाले मलि तीर्थकर को प्रणाम करता हूँ। देव और असुर जिनकी प्रदक्षिणा देते हैं ऐसे मुनिसुव्रतको मैं प्रणाम करता हूँ। नमि और नेमि, तथा पार्थ और महावीर तीथंकरोंको मैं प्रणाम करत, हूँ ॥१-१८॥ - धत्ता- इस प्रकार चौबीस परम जिन तीर्थकरोंकी भाषपूर्वक वन्दना कर मैं स्वयंको रामायण कान्यके द्वारा प्रगट करता हूँ ॥१९॥
[२] वर्धमान ( तीर्थ कर महावीर ) के मुखरूपी पर्वतसे निकलकर, यह रामकथारूपी नदी कमसे चली आ रही है, जो अमरोंके विस्तारके जलसमूहसे सुन्दर है, जो सुन्दर अलंकार और छन्दरूपों मास्याको कारण करती है, वो वीर्ष समासोंके प्रवाहसे कुटिल है, जो संस्कृतप्राकृत रूपी किनारोंसे अंकित है, जिसके दोनों वट देशीभाषासे उज्ज्वल हैं, कहीं कहीं कठोर और धन शब्दोंकी चट्टाने है, अर्थोकी प्रचुर तरंगोंसे निस्सीम है, और जो आश्वासकों (सों) रूपी तीर्थोसे प्रतिष्ठित है। शोभित रामकथा रूपी इस नदीको गणधर देवोंने बहते हुए देखा। बादमें आचार्य इन्द्रभूतिने, फिर गुणोंसे विभूषित धर्माचार्य ने। फिर, संसारसे विरक प्रभवाचार्य ने । फिर अनुत्तरषाम्मी कीर्तिधर ने । तदनन्सर आचार्य रविषेणके प्रसादसे कविराजने इसका अपनी बुद्धिसे अवगाहन किया। स्वयम्भू माँ पलिनीके गमसे जन्मा। पिता भारतदेवके रूपके लिए उसके मनमें अत्यन्त अनुराग था। अत्यन्त दुषला, लम्बा शरीर, चिपटी नाक, और दूर-दूर दाँत ॥१-११॥
घता-निर्मल और पुण्यसे पवित्र कथाका कीर्तन किया जाता है, जिसको समाप्त करनेसे स्थिर कीर्ति प्राप्त होती है॥१२॥
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पंजमचरित
बुहयण सयम्भु पर विण्णवह । मह परिपउ अणु णाहिं कुकह ॥१॥ बायरणु कयावि ण जाणियउ। उ वित्ति-सुलु क्वाणियउ ||२|| णउ पश्चाहारहो तत्ति किय । णड संधि उपरि बुद्धि थिय ॥३॥ गाउ णिसुभउ सस वित्तियज । छन्विहर समास-पडसियउ ॥४॥ छकारय दस तयार ण सुय । बोसोवसग्ग पच्चय बढ्य ||५|| ण बलावल धाउ णियाय-गणु। उ लिनु उपाइ धक्कु वयणु ।।६।। ण णिसुणिउ पञ्च-महाय-कन्छ। उ मरहु गेउ लक्षणु वि सत्रु ।।७३ पाउ बुज्मिउ पिकल-परथारु । णउ मम्मह-दण्डि-अलवार १०॥ बसाउ तो वि णड परिहरमि । परि रहाबद्ध कम्बु कामि ||२|| सामण्ण मास छुडु सावदउ। छुद्ध आगम-जुत्ति का वि घडउ ।॥१०॥ शुद्ध होन्तु सुहाखिय-वयणाई। गामिल्ल-भास-परिहरणाई ॥११॥ प्रहु सज्जपा-कोयहाँ किउ विणउ ! अं अबुहु पदरिसिड अषपणड' ||१२|| अइ एम विरूसह को वि खलु । तहों हत्थुरथरिकर लेउ छलु ॥१३॥
घसा
पिसुणे किं नमरियण किं छग-चन्दु महागण
जसु को वि ण हच्चद्द । कम्पन्तु वि मुच्चइ ॥१४॥
[४] अबहथेवि खस्यणु णिश्व प्रेसु। पहिलउ णिरु वाणमि मगहदेसु ॥३॥ जाहिं पक-कलमें कमसिणि शिसण्ण । भलहन्त सरणि थेर व विसण्ण ॥२॥ जाहिं सुय-पन्तिउ सुपरिट्टियाउ। पर वसिरि-मरगय-कण्ठियाउ ।।३।। जहिं उग्छु-पण पवणाहयाई। कम्पन्ति व पोलण-भय-गया ॥४॥ अहिं गन्दणवणई मणोहराई। णच्चन्ति के चल-पल्लव-कराई ॥५॥
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पदमो संधि [३] बुधजनो, यह स्वयम्भू कवि आपलोगोंसे निवेदन करता है कि मेरे समान दूसरा कोई कुकवि नहीं है । कभी भी मैंने व्याकरणको न जाना, न ही वृत्तियों और सूत्रोंकी व्याख्या की। प्रत्याहारों में भी मैंने सन्तोष प्राप्त नहीं किया ! संधियोंके ऊपर मेरी बुद्धि स्थिर नहीं। सात विभक्तियाँ भी नहीं सुनी, और न छह प्रकारको समास-प्रवृत्तियाँ ही । छह कारक और दस लकार नहीं सुने । बीस उपसर्ग और बहुत-से प्रत्यय भी नहीं सुने । बलाबल धातु और निपातगण, लिंग, उगादि वाक्य और वचन भी नहीं सुने । पाँच महाकाव्य नहीं सुने, और न भरतका सब लक्षणोंसे युक्त गेय सुना 1 पिंगल शास्त्र के प्रस्तारको नहीं समझा।
और न दंडी और भामहके अलंकार भी। तो भी मैं अपना व्यवसाय नहीं छोड़ गा, बल्कि रहाबद्ध शैलीमें काव्य रचना करता हूँ | संप्राप्त सामान्य भाषामें कोई आगम युक्तिको गढ़ता हूँ। प्राम्य भाषाके प्रयोगोंसे रहित मेरी भाषा सुभाषित हो । मैंने यह विनय सबन लोगोंसे ही की है और अपना अज्ञान प्रदर्शित किया है। यदि इतनेपर भी कोई दुष्ट रूठता है तो उसके छलको मैं हाथ उठाकर लेता हूँ ॥१-१३|| ___ पत्ता-उस दुष्टको अभ्यर्थनासे भी क्या लाभ, जिसे कोई भी अच्छा नहीं लगता? क्या काँपया हुआ पूर्णिमाका चन्द्रमा महामहणसे बच पाता है । ॥१४॥
[४] समस्त खलजनोंकी उपेक्षाकर, पहले मैं मगध देशका वर्णन करता हूँ। जहाँ कमलिनी पके हुए धान्य में ऐसी स्थित है, जो मानो सूर्यको नहीं पा सकनेके कारण वृद्धाकी तरह उदासीन है ? जहाँ चैठी हुई तोतोंकी पंक्ति ऐसी लगती है मानो बनलक्ष्मीका पन्नोंका कण्ठा हो । जहाँ हवासे हिलते हुए ईखों के खेत ऐसे लगते हैं जैसे पेरे जानेके डरसे काँप रहे हो । जहाँ सुन्दर नन्दन वन, अपने घश्चल पल्लव रूपी हाथ से ऐसे
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पढमाचारद
काहि कादिम-घयण दाहिमाई। णमन्ति ताई णं कइ-मुषा ॥३॥ जहि-महुयर पन्तिउ सुन्दराड । केयइ-केसर-स्य-धूसराउ ॥७॥ जहिं दक्षा-मखन परियन्ति । पुणु पन्थियरस-सलिलई पियन्ति॥८॥
पत्ता साहितं पण रायगिहु धण-कपाय-समिद्धत । णं पिहिविएँ णव-जोचणएँ सिरे सेहरु आइज ॥५॥
चउ-गोडर-घउ-पापारवन्ध । हसइप मुसाहल-वषल दन्तु ॥१॥ पबह र मरुपाय-धप-करण। धरह णिवसन्तउ गएण-मणु ॥२॥ धूलग्ग-मिग्ण देवउक-सिहरू। ण प पारावय-सर-गहिरु ॥२॥ घुम्मदप गएँ हिं मय-भिम्भहदि । इह व तुरनहिं चमकेहिं ॥४॥ हाई प ससिकम्त-जलोहरोहिं । पणवह व हार-मेहल-भरेहिं ॥५।। पाखला व पेडर-णियहएहि । विस्फुरद व कुशक-जयकएहिं ॥५॥ किलिकिका व सध्वजणुच्छवेण । गम व मुख-मेगी-स्वेण | गायइ बालाषिणि-मुच्छणेहि। पुरषद व घण्ण-ध- हिं ॥८॥
घत्ता पिवडिय-पणे हि फोफ्फ हिं त्रुह-सुग्णासों। अण-चलणग्ग-विमरिऍण महि रङ्गिय में ॥१॥
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पडमो संधि लगते हैं मानो नाच रहे हों। जहाँ खुले हुए मुखोंके दादिम ऐसे लगते हैं जैसे वानरोंके मुख हो । जहाँ केतकीके पराग-रजसे धूसरित मधुकरोंकी पंक्तियाँ सुन्दर जान पड़ती हैं। जहाँ द्राक्षाओंके मण्डप झरते रहते हैं, पथिक जिनसे रसरूपी जलका पान करते हैं॥१-८ ___ घता-उसमें धन और सोनेसे समृद्ध राजगृह नामका नगर है, जो ऐसा लगता है जैसे नवयौवना पृथ्वीके शिरपर चूड़ामणि बाँध दिया गया हो ॥९॥
[५] चार गोपुर और चार परकोटोंसे युक्त तथा मोतियोंके सफेद दांतोंवाला वह नगर ऐसा जान पड़ता है जैसे हंस रहा हो । हवामें पढ़ती हुई बजारूपी हथेलियोस ऐसा लगता है जैसे नाच रहा है, गिरते हुए आकाशमार्गको जैसे धारण कर रहा हो ? जिनके शिखरोंमें त्रिशल लगे हुए हैं, ऐसे मन्दिरों तथा कबूतरोंके शब्दोंसे गम्भीर जो ऐसा लगवा है जैसे कल-कल कर रहा हो। मदविहल हाथियोंसे ऐसा लगता है जैसे घूम रहा हो, चंचल घोड़ोंसे ऐसा लगता है जैसे उड़ रहा हो, चन्द्रकान्त मणिको जलधाराओंसे ऐसा लगता है जैसे नहा रहा हो, हार और मेखलाओंसे परिपूर्ण ऐसा लगता है जैसे प्रणाम कर रहा हो, नूपुरकी श्रृंखलाओंसे ऐसा लगता है जैसे स्खलित हो रहा हो, कुंडलोंके जोड़ोंसे ऐसा लगता है जैसे चमक रहा हो । सार्वजनिक उत्सवोंसे ऐसा लगता है कि जैसे किलकारियाँ भर रहा हो, मृदंग और भेरीके शब्दोंसे ऐसा लगता है जैसे गर्जन कर रहा हो, पाल यीणाओंकी मूर्च्छनाओंसे ऐसा लगता है जैसे गा रहा है, धान्य और धनसे ऐसा लगता है जैसे 'नगर प्रमुख' हो॥१-दा
घत्ता-गिरे हुए पानके पत्तों, सुपाड़ियों तथा लोगोंके पैरोंके अग्रभागसे कुषले गये चूनेके समूहसे उसकी धरती लाल
+b
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पडमचरित
[१] तहिं सेणिड णाम णय-णिवासु। उवमिज्जह परवइ कवणु तासु ॥१॥ किं तिणयणु णं विसम-चक्छु । किं ससहरु ण प एक-पक्खु ॥२१॥ कि दिणयह णं णं दहण-सीलु। कि हरिणं कम-मुश्रण-लील ॥३॥ कि कुमार गं गं णिच-मसु । के गिरि ण णं ववसाय-चसु ॥॥ किं सायर ण णं खार-णीरु। किं वम्भहु णं णं हय-सरीरु ॥५॥ किं कणिवइ णं ण कूर-भाउ । कि मारउ णं णं चल सहाउ ॥६॥ किं महुमहु णं पं कुद्धिल-वक्कु । किं सुरवह गंण सहस-भक्खु ॥७॥ अणुहरह पुणु वि जइ सोज्ज तासु। चामधु व दाहिण-भद्ध जासु ॥८॥
पत्ता ताव सुरासुर-वाहणे हिं गयणङ्गण छाइड। वीर-जिणिन्दही समसरणु विउलहरि पराइज ॥१||
[ ] परमेसरु परिछम-जिणवरिन्दु। चरण चालिय महिहरिन्नु ॥१॥ णाणुज्जलु घउ-कहलाण-पिण्ड । घउ-कम्म-दहणु कलि-काष्ठ-दण्ड ॥२॥ चउतीसातिसय-विसुन्-गत्तु । भुवण तय-वल्लहु धवल-छत्तु ॥३॥ पापणारहकमलायस-पाउ । अल्ला-फुल्ल मण्डव-सहाउ' ।। ४३ चउसटि-चामरुद्धअमाणु। चउ-सुरणिकाय-संधुश्वमाणु ॥५॥ थिउ विउल-महीहरें बद्धमाणु। समसरणु वि जसु जोयण-पमाशु ।।।
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पवमो संधि
रंगसे रंग गयी |२||
[६] उसमें नीतिका आश्रयभूत राजा श्रेणिक शोमित है। कौन-सा राजा है कि जिसकी उससे तुलना की जाये। क्या त्रिनयन ( शिव ) की ? नहीं मई, मह शिकार हैं। चन्द्रमा की ? नहीं नहीं, उसका एक पक्ष है । क्या दिनकर की ? नहीं नहीं, वह दहनशील है। क्या सिंहकी ? नहीं नहीं, वह क्रम ( परम्परा) को तोड़ कर चलता है। क्या हाथी को ? नहीं नहीं, वह हमेशा मत्त रहता है। क्या पहाडकी ? नहीं नहीं, वह व्यवसायसे शून्य है ? क्या समुद्र की ? नहीं नहीं, यह खारेपानीवाला है। क्या कामदेव की ? नहीं नहीं, उसका शरीर जल चुका है। क्या नागराज की? नहीं नहीं, वह कर-स्वभाववाला है। क्या कृष्णकी? नहीं नहीं, उनके वचन कुटिल हैं । क्या इन्द्र की ? नहीं नहीं, उसकी हजार आँखे हैं। उससे वही समानता कर सकता है जिसका आधा दाहिना भाग, उसके बायें आधे भागके समान हो ॥१-८॥
धत्ताइतने में आकाशरूपी आँगन, सुर और असुरों के वाहनोंसे छा गया। तीर्थकर जिनेन्द्र महावीरफा समवशरण विपुलगिरि ( विपुलाचल) पर पहुँचा ।।
[७] जिन्होंने अपने पैरके अग्रभागसे पर्वतराज सुमेरुको चलित कर दिया, जो बामसे उबल और चार कल्याणोंसे युक्त हैं, जिन्होंने 'घार घातिया कोका नाश कर दिया है, जो कलिकाल के दण्ड स्वरूप हैं, जिनका शरीर चौतीस अतिशयोंसे विशद्ध है, जो तीनों भुवनोंके लिए प्रिय हैं, जिनके ऊपर धवल छन्त्र है, जिनका पैर पन्द्रह कमलोंके विस्तारपर स्थित रहता है, और चारों निकायोंके देवोंक द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, ऐसे परमेश्वर अन्तिम तीर्थकर बर्द्धमान विपुलाचलपर ठहर गये । उनका समवशरण एक योजन प्रमाण था। उसमें तीन
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पदमचारव
पाबार विग्णि घड गोडरा। बारह गण वारह मन्दिराई ।। गम्मिय पर मानव-धम्म जाम। घरमा केण वि गरेंग शाम ten
बलम संशामहि
घचा विधि सेमिना सारा । माहि लो जग-गुरू भाभो ॥५॥
जण-बममई कण्णुप्पलिकरेवि। सिंहासण-सिहरहाँ भोयरेवि ॥१॥ गड़ पयाँ सच रोमम्चिया। पुणु महिपलें णाविउ उत्तम ।। देवाविय लहु भागन्द-मेरि। यरहरिप वसुन्धरि जग-जणेरि १३ स-कल स-पुसु स-पिण्डवासु स-परियण स-साहणु सहासु ॥ गाउ वन्दम-इसिएँ जिणवरासु प्रासपणीहून महोहरासु ॥५॥ समसरण दिङ्ग हरिसिर-मणेण । परिवेबिउ वारहबिह-गणेण ॥६॥ पछिलए कोट्टएँ रिसि-संधु दिव। बीचएँ कप्पङ्गण-अणु गिविलु ॥ तयएँ अजिय-गणु साणुराउ। बजथएँ जोइस-वर-भराउ ॥४॥ पसमें विसरिज सुवासिणोउ। छट्टएं पुणु-भवण-णिवासिणीउ ॥ सप्तम भाव गिग्वाण साव। भट्ट में विन्तर संसुद्ध-भाव 11101 पत्रमएँ जोड्स मिउत्तमा। दहमर कप्पामर पुलाइयङ्ग ।११॥ एमारहमए गरवर णिबिट्ट। वारहमए तिरिय मत दिट्व ।।१२।
घत्ता दि भगारट वीर-जिणु सिंहासण-संठिठ। विरम-मत्व सुइ-णिसएँ भ मोक्खु परिट्रिट II
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पामो संधि परकोटे और गोपुर थे । उसमें बारह गण और बारह ही कोठे
। जैसे ही चार मानस्तम्भ बनकर तैयार हुए वैसे ही किसी बाबमीने शीघ्र ही ॥१-८॥
पत्ता-चरणोंमें प्रणाम कर, राजा श्रेणिकसे निवेदन किया-"तुम जिसका ध्यान और स्मरण करते हो, वह जगत् गुरु आये हैं ॥९॥
[८] जनके वचनोंको अपने कानोंका कमल बनाकर (सुनकर या अलंकार बनाकर ) राजा सिंहासनसे उतर पड़ा। पुलकित अंग होकर और सात पैर आगे जाकर, उसने धरतीपर अपना शिर नवाया। फिर उसने आनन्द की मेरी बजवा दी, जगको उत्पन्न करनेवाली धरती उससे हिल गयी। राजा अपने परिगार, पुत्र, अन्तःपुर, परिजन और सेनाके साथ सहर्ष जिनवरकी बन्दना भक्तिके लिए गया। वह महीधरके निकट पहुँचा । उसने हर्षित मन होकर बारह प्रकारके गणोंसे घिरा हुआ समवशरण देखा। पहले कोठेमें उसने ऋषिसंघको देखा। दूसरेमें कल्पवासी देवोंकी देवांगनाएँ बैठी हुई थीं, तीसरेमें अनुरागपूर्वक आर्यिकाएँ थीं, चौथेमें ज्योतिष देवोंकी देवांगनाएँ थीं, पाँचमें 'शुभ बोलनेवाली' व्यन्तर देवोंकी देवांगनाएँ थीं,
छठेमें भवनवासी देवांगनाएँ थीं, सातमें समस्त भवनवासी i देव और आठवेमें श्रद्धाभाववाले व्यन्तरवासी देव ये । नौवमें
अपना शिर झुकाये हुए ज्योतिष देव जैठे थे। और इसमें पुलकितांग कल्पवासी देव थे । ग्यारहवे में श्रेष्ठ नर बैठे थे और बारहवेमें नमन करती हुई स्त्रियाँ ? ॥१-१२|| ___घत्ता-सिंहासनपर विराजमान आदरणीय वीर जिन ऐसे दिखाई दिये जैसे त्रिभुवनके मस्तकपर स्थित शिवपुरमें मोक्ष ही परिस्थित हो ॥१३॥
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एटमचरिड
[ 3 ]
सिर- सिहरे चडाविय करयरुग्गु । मगहा हिउ पुणु बन्द करमु ॥ १ ॥
शिवनागरिग्दसेि ॥ ५ ॥ अट्टविह-परम-गुण- रिद्धि-पन्त ॥ ३॥
बम्म निम्मण पणटु-मेह ॥३७॥ वीस सुरिन्द- क्रियाहिसेय ॥ ५ ॥ सुर-मद-कोडि-मणि- विट्ठ- पाच ॥ ६ ॥ अक्खन अणत हचक -सहाव' ॥७॥ कुणु पुछि गोशमलामि तेण ॥८॥
१५
'जय
लव जय विवण-सामिय-तिविह उस
जय केवळ पाणुमण्ण देह | जय जाइ जरा मरणारि-य । जय परम परम्पर बीयराय 1 जब सब जीव - कारुण्ण माख । पपिणु जिणु तमाय-ममेण ।
'परमेसर पर सासणें हिं कहें जिण सासणें कम थिय
घसा
जगे कोएँ हिँ टक्करिषतहिं । जर कुम्में वरिष धरणि-वीड । अह राम तिहुअणु उबरें माह | to वि खरदूषण - समरें देव । किह लियम-कारण कविवरेण । किह वाणर गिरिवर उम्बदन्ति ।
सुबह विवरी ।
कद राहव - फेरी ॥ ९॥
[20]
उप्पाउ
संतिज मन्तएहिं ॥ १ ॥
तो कुम्सु पढन्तर क्रेण गोहु ॥ २ ॥ तो राजणु काहँ तिय लेषि जाइ ॥३८ पहु शुझइ सुझाइ भिच्छु कँव ॥४॥ वाइज वालि सहोयरेण ॥५॥ धन्धेवि मयरहरु समुत्तरन्ति ॥ ६ ॥
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पढमो संधि
[९] मगधराज अपने दोनों हाथ सिररूपी शिखरपर घढ़ाकर ( सिरके ऊपर रखकर ) फिर बन्दना करने लगा,"नाग, नरेन्द्र और सुरेन्द्रने जिनकी सेवा की है, ऐसे सब देवोंके अधिदेव नाथ, आपकी जय हो। आठ प्रकारके परम गुण और ऋद्धिको प्राप्त करनेवाले, तथा जो त्रिभुवनके स्वामी हैं और जिनके पास तीन प्रकारके छत्र हैं, ऐसे आपकी जय हो । कामको नष्ट करनेवाले नष्ट नेह, जिनका शरीर केवलज्ञानसे परिपूर्ण है, ऐसे आपकी जय हो । बत्तीस प्रकारके सुरेन्द्रोंने जिनका अभिषेक किया है, जन्म-जरा और मरणरूपी शत्रुओंका जिन्होंने अन्त कर दिया है, ऐसे आपकी जय हो । देवताओंके मुकुटोंके करोड़ों मणियोंसे जिनके चरण घर्षित हैं, ऐसे परमश्रेष्ठ वीतराग आपकी जय हो । आकाशकी तरह स्वभाव. वाले, अक्षय, अनन्त, तथा सब जीवोंके प्रति करुणाभाव रखनेवाले आपकी जय हो।" इस प्रकार तल्लीन मन होकर तथा जिन भगवानको प्रणाम कर, राजा श्रेणिकने गौतमगणधरसे पूछा ।।१-८॥ ___घत्ता हे परमेश्वर, दूसरे मतोंमें रामकी कथा उलटी सुनी जाती है, जिनशासनमें वह किस प्रकार है, बताइए ? ॥५॥
[१०] दुनियामें चमत्कारवादी और भ्रान्त लोगोंने भ्रान्ति उत्पन्न कर रखी है । यदि धरतीकी पीठ कछुएने उठा रक्खी है तो तिरते हुए कछुएको फोन उठाये है ? यदि रामके पेटमें त्रिभुवन समा जाता है तो रावण उनकी पत्नीका अपहरण कर कहाँ जाता है ? और भी हे देव, खर-दूषणके युद्ध में यदि स्वामी युद्ध करता है, तो उससे अनुचर कैसे शुद्ध होता है ? सगे भाई सुनोचने स्त्रीके लिए अपने भाई बालीको किस प्रकार मारा ? क्या वानर पहाड़ उठा सकते हैं, समुद्रको बाँधकर पार कर सकते हैं ? क्या रावण दसमुख और बीस हाथोंवाला था?
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पउमचरित
किह रावण दह-मुहु धींस-हत्थु । अमरहिव-भुव-वन्धण-समरधु ॥७ वरिसद्ध सुअइ किह कुम्भयण्णु । महिलाकारिहि मि ण धाइ अण्णु।
पत्ता
जे परिससिउ दहवयणु सो मन्दोपरि जणणि-सम
पर-णारीहि समणु । किह लेड विहीसणु' ||९॥
[11] तं णिसुण वि वुश्चद गणहरेण। सु सेणिय किं वहु-विस्थरेग 11१1 पहिल.उ आयासु अणन्तु साउ। गिरवक्तु णिरक्षण पळय-भाउ ||| तहलोक परिहिउ मसँ तासु। चउदह रज्जुय आयामु जासु ॥३॥ तेत्थु वि झलार-मज्माणुमाणु । धिर तिरित्र-लोळ रज्जय-पमाणु ।।' तहि जम्बूदाज महा-पहाणु। विवरण लक्खु जोयण-पमाणु ॥५॥ चाउ-खेत्त-चरह-मार-णियामु। कविह-कुलपव्यय-पद-पयासु ।। तासु वि अम्मन्तर कणय-संलु । णवणवइ-उवा सहक मूल ॥७॥ तही दाक्षिण-भाग भरहु थक्कु । छापण्डालतिर एक-चक्कु ||६||
घत्ता तहि ओपपिणि-काले गएँ कप्पयरुच्छण्णा । वउदह-रयणविसस जिह कुलयर-उप्पण्णा ॥१॥
[१२] पहिला पतु पडिसुइ सुयवन्तउ । वीयउ सम्मई सम्मइवन्तउ ॥१॥ साउ खेमकर समझा। चउथउ समन्धरु रण दुद्धरु ।।२।। पडमु सीमङ्करु दोहर-करु । छट्टर सीमन्धर धरणीधरू ॥३॥ सप्तमु चारु-चक्नु चक्लुम्भउ। तासु काल उप्पवह विम्मउ ।।४।। सहसा चन्द-दिवायरन्दसणें। सयल वि अणु आसकिउ णिय-मणे । 'अहाँ परमेसर कुलयर-सारा। कोउहल्लु महु पर भवारा ॥
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पढमो संधि
१५
क्या यह इन्द्र के हाथोंको बाँधने में समर्थ था? क्या कुम्भकर्ण आधे वर्ष सोता था, और करोड़ भैसोंका भी अन्न उसे पूरा
नहीं होता था ? ॥२-८|| म. घत्ता-जिसने रावमको समाह करवाया, परखियों के । प्रति जिसका मन अच्छा था, वह विभीषण माँ के समान मन्दोदरीको किस प्रकार पत्नीके रूपमें ग्रहण करता है ? ||९|| ,
[११] यह सुनकर गणधर बोले, “बहुत विस्तारसे क्या, हे श्रेणिक सुनो, पहला समूचा अनन्त अलोकाकाश हैं जो निरपेक्ष निराकार और शून्य है, उसके मध्यमें त्रिलोक स्थित है, जिसका आयाम चौदह राजू प्रमाण है ? उसमें भी डमरूके मध्य आकारके समान और एक राजू प्रमाण तिर्यक् लोक है। उसमें, एकलाख योजन विस्तारवाला महा प्रमुख जम्बूद्वीप है। जिसमें चार क्षेत्र और चौदह नदियाँ हैं। जो छह प्रकारके कुलपर्वतोंके तटोसे प्रकाशित हैं। उसके भी भीतर सुमेरु पर्वत है, जो एक हजार योजन गहरा, और निन्यानवे हजार योजन ऊँचा है। उसके दक्षिणभागमें भरत क्षेत्र स्थित है, छह खण्डोंसे विभूषित उसका एक चक्रवर्ती राजा है ।।१-८॥
घसा-उसमें अवसर्पिणी कालके बीतनेपर, कल्पतरू उच्छिन्न हो गये और चौदह विशेष रत्नोंके समान चौदह कुलकर उत्पन्न हुए ||९||
[१२] पाला श्रुतिवन्त प्रतिश्रुत राजा, दूसरा सन्मत्तिवान् सम्मति, तीसरा कल्याण करनेवाला क्षेमकर, चौथा रणमें दुर्धर क्षेमन्धर, पाँचवाँ विशालबाहु सीमंकर, छठा धरणीधर सीमन्धर, सातवाँ चारुनयन चक्षुष्मान् । उसके समयमें एक विस्मयकी बात हुई। सहसा सूर्य और चन्द्रमाके दिखनेसे सभी लोग अपने मनमें आशंकित हो उठे, ( उन्होंने कहा )," कुलकर श्रेष्ठ परमेश्वर भट्टारक ! हमें कुतूहल हो रहा है।"
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पड़मचरित
तं णिसुणेवि णराहिउ घोस। पुष्व-विदेहे तिलोभाग्यन्द ।
-
कम्म-भूमि लइ एहि होसइ ।।७।। कहिउ आसि महु परम-जिणिन्दै ।। पत्ता तारायण-पुष्फहीं। अवप्पिणि-राखाहों ॥५॥
णव-समारण-पल्लवहीं भावई बन्द-सूर-फलई
[१३] पुणु जाउ जसुम्मउ अतुल-थामु । पुणु विमलवाहणुच्छलिय-णाम् ॥ १॥ पुणु साहिचन्दु चन्दाहि जाउ। महाड पसेणइ जाहिराउ || तहों पाहिहें पच्छिम-कुलयरासु। मरूपति सई व पुरन्दरासु ॥३॥ चन्दह) रोहिणि व मणोहिराम । कन्दप्पहो रह व पसण्ण-णाम ||| सा गिरलंकार जि चारुमत्त । आहरण-रिद्धि पर मार-मैच ||५|| तह गिय-लायण्णु जे दिण्ण-सोहु । मलु केवल पर कुकुम-रसोडु ॥ ६॥ पालेय फुलिङ्गावकि जें चारु। पर गयउ मोत्तिय-झारु भारु || ॥ लोयण जि सहावे दफ-विसाल। आडम्बरु पर कन्दोष्ट-माल ||८॥
घन्ता कमलासाएँ ममन्तऍण श्रलि-बल एं मन्दं । मुहकीपर कम-जुगल किंतर-सः ॥९॥
सो एत्धतिर भाणव-वेस। आइड देविड इन्दापसें ।।१। ससि-वयणिर कन्दो-दलछि। कित्ति-बुद्धि-सिरि-हिरि-दिहि-हरिछा सपरिवारउ दुकर नेत्तहँ। सा मरुवि भडारी जेसह ॥३|| का वि विणोउ कि पि उप्पाय। पदइ पागअन गायह वायह ।।४।।
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पहमो संधि
यह सुनकर राजाने घोषणा की कि लो अब कर्मभूमि आरम्भ होगी। पूर्व विदेहमें त्रिलोकके लिए आनन्द स्वरूप परम जिनेन्द्रने यह बात मुझसे कही थी॥१-८॥
प्रना-जिसके नबसन्ध्या अरुण पत्ते हैं, और तारागण पुष्प हैं, ऐसे इस अवसर्पिणी कालरूपी वृक्षके ये सूर्य और चन्द्र, फल हैं ? ||५||
[१३] फिर अतुल शक्तिवाले यशस्वी हुए। फिर प्रसिद्ध नाम विमलवाहन, फिर अभिचन्द्र और चन्द्राभ हुए। तदनन्तर मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराज हुए। उन अन्तिम कुलकर नाभिराजकी मरुदेवी वैसी ही पली थी, जिस प्रकार इन्द्रकी इन्द्राणी। वह चन्द्रमाकी रोहिणीकी तरह सुन्दर और कामदेवकी रतिकी भाँति प्रसत्रनाम थी। वह बिना अलंकारोंके ही सुन्दर शरीर थी, आभरणोंका वैभव उसके लिए केवल भारस्वरूप था, उसका अपना लावण्य था जो उसे इतनी शोभा देता था कि केशरका.रम लेप ( रसोह रसोघ>रसका समूह ) केवल मैल था। प्रस्वेद ( पसीना ) की चमकदार बंदोकी पंक्तिसे वह इतनी सुन्दर थी कि भारी मुक्ताहार उसके लिए केवल भार स्वरूप था। उसके लोचन स्वाभाविक रूपसे विशालदलयाले धे, कमलांकी माला, उसके लिए केवल आडम्बर थी ११-८।।
पत्ता-कमलोंकी आझासे धीरे-धीरे चक्कर काट रहे भ्रमरसमूहसे उसके दोनों पैर रुनझुन करते थे, नूपुरोंकी ध्वनि उसके लिए किस काम की ? |२||
[१४] कुछ दिनों बाद इन्द्र के आदेशसे देवियाँ मानव रूप धारण कर आयीं । चन्द्रमुखी और नीलकमल के. दलकी भाँति आँखोवाली वे थी कीति, बुद्धि, श्री, हो, धृति और लक्ष्मी । सपरिचार वे वहाँ पहुची जहाँ वह आदरणीय मरुदेवी थी। कोई. एक विनोद करती है, कोई पढ़ती है, कोई नाचती हैं, कोई
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२२
पदमचरित
का वि घेन तम्बोलु स-हस्य । सम्वाहरणु का वि सहुँ वरथे ॥५॥ पाठई का वि चमरु कम धोवह। का वि समुज्जलु दप्पणु ढोवह ॥६॥ उपरणय-खम्ग का वि परिरक्खद। का नि कि पि अखाणउ अफ्षद ।। का वि जक्षकदमेण पसाहह। का वि सरीरु साहें संवाहा ।
धत्ता नर- पमुनिया सुनिमि दिदी सीस पास पहु-पङ्गणाप बसुहार वरिट्ठी ॥२॥
दीसइ मयगल मय-गिल्ल-गण्ड। दीसइ वसहुक्षय-कमल-सण्डु ॥१॥ दीसइ पच मुहु पईहरच्छि। दीसह णव-कमलारून लच्छि ॥२॥ दीसह गन्धुक्कड-कुसुम दामु । दीसइ छण-यन्दु मोहिरामु ॥३॥ दीसइ दिपायरु कर-पजलस्तु । दीसह सम-जुयल परिम्भमन्तु ॥४॥ दीसइ जल-माल-कलसु वष्णु । दोसई कमलायर कमल-अपणु ।।५।। दोसाइ जलणिहि गजिय-जलोहु । दीसह सिंहासणु दिण्ण-सोहु ॥६।। दीसइ विमाणु घपदाक्लि-मुहलु। दोसइ णागालउ सन्नु धवल ||७|| दोसइ मणि-णियरु परिप्फुरन्तु । दीसह धमन्वउ धगधगन्तु 11८॥
पत्ता इय सुविणावलि सुन्दरिए मरुदेविए दीसह । गम्पिणु णाहि-णराहिवहाँ सुविहाणएँ सीसइ ॥९॥
तेण वि विहसे विणु एम कुत्तु । 'तउ होसइ तिहुअण-तिला पुत्तु " असु मेरु-महागिरि-हवणघी। पह-मण्डड महिहर-खम्भ-मील्ड ॥२॥ जसु मङ्गल कलस महा-समुर। मजणय काले बत्तीस इन्द' ॥३॥ तहो दिवसही लगनेंवि अक्षु वरिसु । गिब्याण परिसिय रयण-बरिसु॥४
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मी संधि
२५
गाती है, कोई बजाती है, कोई अपने हाथसे पान देती हैं, और कोई अपने हाथसे समस्त आभूषण । कोई चामर बुलाती है, कोई पैर धोती है, कोई उज्ज्वल दर्पण लाती है, कोई तलवार उठाये हुए रक्षा करती है, कोई कुछेक आख्यान कहती है; कोई सुगन्धित लेपसे प्रसाधन करती है, कोई उसके शरीरकी मालिश करती हैं ।। १-८||
पत्ता - उत्तम पलंग में सोते हुए (एक रात) उसने स्वप्नावलि देखी ! तीस पक्षोंतक (पन्द्रह माह) रत्नवृष्टि होती रही ! ||२९||
[ १५ ] वह देखती है— मदसे गीले गढस्थलबाला मत्तगज; देखती है— वृषभ, जिसने कमल समूह उखाड़ रखा है; देखती है--बड़ी बड़ी आँखोंवाला सिंह; देखती है- नवकमलों पर बैठी हुई लक्ष्मी देखती है- उत्कट गन्धवाली पुष्पमाला; देखती है मनोहर पूर्णचन्द्र देखती है-किरणोंसे प्रचण्ड दिनकर, देखती है-- घूमता हुआ मीनों का जोड़ा, देखती हैं, जलसे भरा हुआ मंगल कलश, देखती है— कमलोंसे आच्छन्न सरोवर, देखती है— जलनिधि जिसका जलसमूह गरज रहा है। देखती हैशोभादायक सिंहासन । देखती है-वष्टियोंसे मुखरित विमान, देखती है -- अत्यन्त धवल नागालय । देखती है - चमकता हुआ मणिसमूह, देखती है - जलती हुई आग ॥१-८॥
घत्ता - यह स्वप्नावलि सुन्दरी मरुदेवीने देखी, और सवेरे जाकर उसने नाभिराजा से कहा || ९ ||
[ १६ ] उसने भी हँसते हुए इस प्रकार कहा, 'तुम्हारे त्रिभुवन-विभूषण पुत्र होगा, जिसका स्नानपीठ मेरु महापर्वत होगा, पर्वतोंके खम्भोंपर अवलम्बित, आकाशरूपी मण्डप होगा, महासमुद्र जिसके मंगलकलश होंगे । और अभिषेकके समय बत्तीस प्रकारके इन्द्र आयेंगे। उस दिनसे लेकर आधे बरसतक देवोंने रत्नवृष्टि की। शीघ्र नाभिराजाके घर में ज्ञानदेह
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२४
पउमचरित
लहु णाहि-गरिन्दाहों तणय गेहु । अब भडारउ णाण-दंष्ट्र ॥५॥ घिउ गमनिमन्तरें जिणरिन्दु । णव-गलिणि पत्ते णं सलिल-विन्दु।। ६ वसुहार परिसिय पुणु वि ताम । अण्णु वि अट्ठारह पक्रय जाम 1|| जिण-सूरु समुदिउ तेय-पिण्ड। वोहन्तु मन्त्र-जण-कमल-पण्डु ॥८॥
धत्ता मोहन्धार-विणासयरु केवल-किरणायरु । उहा भवारउ रिसह-जिणु नभु वा दिया पर. ५
इन एस्थ पड़मचरिए 'जिण जम्मुप्पत्ति' इम
धणअयामिय-सयम्भुएव-कए । पदम चिय सादियं पर्व ।। १ ।।
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पनमो संधि
आदरणीय ऋषभजिन अवतरित हुए। वह गर्भके भीतर ऐसे स्थित हो गये, जैसे नव कमलिनीके पत्तेपर जलकी बूंद हो। फिर भी, जवना आहारह पक्ष नहीं हुए रजनन रत्नों की वर्ग होती रही। तेजस्वी शरीर जिनरूपी सूर्य, भव्यजन रूपी कमलसमूहको योधित करता हुआ उदित हो गया ।।१-८॥
पत्ता- आदरणीय ऋषभजिन उत्पन्न हुए जो मोहान्धकारका नाश करनेवाले, केवलज्ञानकी किरणोंके समूह स्वयं विश्वके लिए दिवाकर थे॥५॥
इस प्रकार यहाँ धनंजय के आश्रिप्त स्वयम्भूदेव द्वारा रचित, 'जिन जन्म-उत्पत्ति' नामक
पहला पर्व पूरा हुभा ॥१॥
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जग-गुरु पुष्पवितु सहसा वि सुरेहिं
विईओ संधि
पण तिहुअण परमे परे । भावण-मन्रणेहिं स प जिय । विस्तर- मव हिं पडह-सहासइँ जोइस मवन्त दि अहिट्टिय । कप्पामर भवणहि जय घण्ट आसण-कम्पु जाउ अमरिन्दहौं । चडि तुरन्तु सकु अइसन मेरु-सिह रिस ष्णिह-कुम्भ-स्थलै ।
।
।
सुरवइ दस-सय-स्तु विहसिय- कोमल-कमलु
अमर राज संचलित जावें हि । पट्टणु चड-गोउर-संपुष्णउ । दीहिय-मद- विहार-देवले हि । कच्छाराम - सीम-उज्जाणें हि । लड्डु सक्केच यरिकिय जखें । पी-ओराष्ट्र समि-सोमए ।
लोकड़ों मङ्गलगारउ । मेरुहि महिसिसु भडार ॥ १ ॥
[9]
अट्टोत्तर- पास- लक्षण - घरें ॥१॥ णं णव पासे णव घण गजिय ॥२॥ दस- दिखित्रह - णिगव-निरघोस ॥ ३ भीसण- सहणिणाय समुट्ठिय ॥४॥ सई जि गरुन टकार-विसङ्घउ ||५|| जानें वि जम्मुप्पति जिपिन्दह ॥ ६ ॥ कण्ण- चमर- उड्डाचिय-छप ॥७॥ मय-सर-सोत्तसित नाण्ड स्थल ॥८॥
बत्ता
रेहद्द आरूढ गयवरें । कमलायरु पाइँ महोहरें ॥ ९ ॥
[2]
किउ कञ्चणम सावें हिं ॥१॥ पायारह रिवण्णउ ॥२॥ सर-परिणितलाएं हि चिडले हिं ॥ ३ कण- तोरणेहिं अपसा हि ॥१४ ॥ परियमिति चार सह
॥५॥
इन्द - महारषि
पउलोम
aur
॥६॥
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दूसरी सन्धि
।
विश्वगुरु पुण्यपवित्र त्रिभुवनका कल्याण करनेवाले भट्टारक ऋषभको देवता लोग शीघ्र मेरु पर्वतपर ले गये और वहाँ उनका अभिषेक किया।
[१] एक हजार आठ लक्षणोंसे युक्त, त्रिभुवनके परमेश्वर ऋषभके जन्म पर भवनवासी देवकिशन संख में उठे, मानो नव वर्षाऋतुमें नवघन गरज उठे हों, व्यन्तर देवोंके भवनों में हजारों भेरियाँ बज उठीं, जिनका निर्दोष दसों दिशापथोंमें गूंज रहा था । ज्योतिष देवोंके भवनोंमें भीपण सिंहनाद होने लगा, कल्पवासी देवोंके भवनों में भीषण ध्वनिसे युक्त सौ जयनण्ट बजने लगे। इन्द्रका आसन काँपने लगा। जिनेन्द्रका जन्म जानकर इन्द्र शीघ्र ही ऐरावत महागजपर सवार हुआ, जो अपने कानरूपी चमरोंसे भ्रमरोंको उड़ा रहा था। मेरु पर्वतके शिखरके समान है कुंभस्थल जिसका तथा जो मदजलकी धाराओंसे सिक्त है ।।१-८॥
पत्ता-ऐसे महागजपर आरूढ़ा, सहस्रनयन इन्द्र इस प्रकार शोभित था, जैसे महीधरपर, हंसते हुए कोमल कमलोसे युक्त कमलाकर हो ॥२६॥
[२] जैसे ही इन्द्रराज चला वैसे ही कुबेरने स्वर्णमय नगरकी रचना की, जो चार गोपुरोंसे सम्पूर्ण और सात परकोटोंसे सुन्दर था । यक्षने बड़े-बड़े मठ, विहार और देवकुलों, सरोवर, पुष्करिणियों, बड़े तालाबों और गृहवाटिकाओं, सीमा-उद्यानों और अगणित स्वर्णतोरणोंसे युक्त साकेत नगरकी रचना कर दी। इन्द्रने तीन बार उसकी प्रदक्षिणा की। जिसके
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२८
सन्न जगहों उनसोवणि देषिणु । डि तिहुअण-परमेवरु तेराहेँ ।
शत्ति सुरेहिं विमुक्क मत्तिए अच्वण-जो गु
पउमचरिउ
बाल-कमल-दल-कोमल - वाह । सुरवरुवा दिवायरु ।
महिं जोयण-यहि तहिति । उप्पर दस जोयहिं दिवाह । पुणु चऊहिं णक्खहं पति । असुर-मन्ति सिहि निसिं असहाय कमै पिए । पण्डु-सिलोवरि सुवर-सारख |
णावद्द सिंण एसि 'उनिहुण णाहु
हवणारम्म भरि अफ लिय । परिय धवल सङ्घ क्रिउ कल केहि मि आदत्तई गेयाइ सि । केहि भि वाइस वज्जु मणहरु | केहि मि उम्बेलि भरहुराउ |
अग्ग माया जाल थवे विणु ॥ ७ ॥ सपरिवार जेरा ॥८॥
धत्ता
चरणोवरि दिहि विमाला
गाइ गोसुल माला ॥१॥
[ ३ ]
अ चडाचित्रिण-णा इउ ॥ १ ॥ संचालित से रु-महहरु ॥२॥ पण तारायण पन्ति ॥३॥
अहं जड़ समहरु ॥ ४॥ ह-मण्डलु वि चकर्हि तर्हिति ॥५॥॥ । तिहि अङ्गारउ तिहि जि सचिन ॥६ अष्णु त्रि जोषण-पिणु ॥ ७ ॥ लहु सिंहाणे विउ भारत ॥ ८ ॥
चत्ता
मन्द दरिया कीयहीँ । कि होइ पण होइ य जीयहाँ ॥९॥
[ ४ ]
॥२॥
पहाडमर-किङ्कर-कर-वादिय ॥३॥ । केहि मि बोसिड चउत्रिहु म सराय-पयगय-तालगाई मि ॥ ३ ॥ बारह- तालउ सोलह अवरु ॥४॥ पत्र-रस- अनुभाव संजुत ॥५॥
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बिईको संधि
पीन है, और जो चन्द्रमाकी तरह कोमल हैं, ऐसी इन्द्रकी महादेवी इन्द्राणी सबलोगोंको मोहित कर तथा माँ के आगे मायावी बालक रखकर तीन लोकोंके परमेश्वर जिनको वहाँ ले गयी, जहाँ इन्द्र अपने परिवार के साथ था ॥१-८॥
२९
पत्ता - देवोंने शीघ्र ही, भगवान्के श्रीचरणोंपर अपनी विशाल दृष्टि भक्ति से इस प्रकार फेंकी, जैसे पूजाके योग्य नील कमलोंकी माला ही हो ||२||
[३] बाल कमलके दलोंके समान कोमल बौद्दोंवाले, त्रिभुवननाथको इन्द्रने गोदमें ले लिया, और अरुण बाल दिवाकरके सामने उन्हें यह सुमेरु महीधरकी ओर ले चला । बहाँसे सात सौ छियानवे योजन दूर तारागणों की पंक्ति थी, उसके ऊपर दस योजनकी दूरीपर सूर्य, फिर अस्सी लाख योजन की दूरीपर चन्द्रमा, फिर चार योजनकी दूरी पर नक्षत्रोंकी पंक्ति थी । वहाँसे चार योजन दूरपर बुभ्रमण्डल, फिर वहाँसे क्रमशः बृहस्पति शुक्र मंगल और शनि ग्रह हैं । वहाँसे अट्ठानवें हजार योजन चलकर तथा एक सौ योजन और चलकर सुरवरोंमें श्रेष्ठ परम आदरणीय ऋषभ जिनको पाण्डुकशिलाके ऊपर सिंहासनपर स्थापित कर दिया गया ॥ १-८||
घत्ता - मन्दराचल पर्वत ( उन्हें ) अपने सिरपर लेकर मानो लोगोंको बता रहा था कि देख लो यह त्रिभुवननाथ हैं या नहीं ||१९||
[ ४ ] अभिषेक के शुरू होनेकी भेरी बजा दी गयी । देवोंके अनुचरोंके हाथोंसे ताडित पटह भी बजने लगे । सफेद शंख फँक दिये गये । कोलाहल होने लगा। किसीने चार प्रकारके मंगेलकी घोषणा की। किसीने स्वर पद और ताल से युक्त गान प्रारम्भ कर दिया। किसीने सुन्दर वाद्य बजाया जो बारह ताल और सोलह अक्षरोंसे युक्त था। किसीने भरत नाट्य
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पउमपरिक
केहि मि उकिमयाई धप-चिन्धई। केहि मि गुरु-थोनई पास्तइँ ॥६॥ केहि मि छायउ माल-मालउ। परिमल-वहालउ भसल-मालउ |st केहि मि चेणु केहि वर-वीणउ। केहि मि तिसरियाउ सर-लीगउ ॥८॥
पत्ता ज परियाणि जेहिं तं तेहि सध्बु विपणासिउ । तिहुअण-सामि भणेवि णिय-णिय-चिण्णाणु पयासिउ ॥९॥
पहिलउ कलसु लइउ अमरिन्दें। वीयउ हुअवहेण साणन्दै ॥१॥ तइयउ सरह सेण जमराएं। घजथउ णेस्यि-देवें आए ॥२॥ पशमु वरुणं समरें समरथे । छटल मारुपण सरे हत्थं ॥३॥ सरामउ वि कुवेर अहिहाणे । अट्टमु कलमु लाइउ ईसाण ॥४॥ णवमउ संमाविन घरणिन्दें। दममा कलसु लज्जइ चन्दै ॥ ॥ अण्ण कलस उच्चाइय अण्णे हि। लव-कोटि-अक्खाहगि-नागणे हि ॥५॥ सुरवर-वेलिल अछिपण रएपिणु। चत्तारि वि समुद्द लखेप्पिणु ॥७॥ खार-महण्याचे खोरु मरेप्पिणु । अण्णही अण्णु समप्पइ लेपिणु ॥८॥
घत्ता हाविउ एम सुरेहि -मङ्गल-कलस हिं जिगबरु । णं णव-पाउस-काले मह हिँ अहिसित्तु महीहरु ॥५॥
[६] मङ्गल-कलसें हिं सुरवर-सार । जय-जय-स महविउ भढारत It सो प्रस्धन्तरें य-पडिवो। मेहें वि बज-सूइ सहसा ॥२॥ कृष्ण-जुअलु जग णाहहों विज्झइ | कुण्डल-अलु अत्ति आइज्सह ॥३॥ सेहरु सोसे हारु वच्छत्थले। करें कङ्कणु कदिसुत्तउ कड़ियलें ॥४॥ तिहुमण-तिळयहाँ तिलउ थवन्ते । मणे भासविउ दससयणेतें ॥५॥
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वईको गति प्रारम्भ किया जो नौ रसों और आठ भावोंसे युक्त था। फिसीने ध्वज-पताकाएँ उठा ली । किसीने बड़े-बड़े स्तोत्र प्रारम्भ कर दिये । किसीने मालतीकी माला ले ली जो परागसे परिपूर्ण और भ्रमरोंसे मुखरित थी। किसीने वेणु, किसीने वर वीणा ले ली। कोई वीणाके स्वरमें लीन हो गया ॥८॥
घत्ता-उस अवसर पर जिसे जो ज्ञात था, उसने उसका सम्पूर्ण प्रदर्शन किया। उन्हें त्रिभुवनका स्वामी समझकर सम ने अपना-अपना विज्ञान प्रकट किया ।।९।।
[५] पहला कलश देवेन्द्र ने लिया, दूसरा सानन्द अग्नि ने। तीसरा हर्षपूर्वक यमराज ने, चौथा नैऋत्य देव ने । पाँचा समर में समर्थ वरुण ने, छठा स्वयं पवनने अपने हाथ में लिया। सातवाँ कुबेरने बड़े स्वाभिमानसे लिया। ईशानने आठयों कलश लिया। नौवाँ धरणेन्द्र ने लिया, दसवाँ कलश 'चन्द्रने लिया । दूसरे-दूसरे कलश दूसरे-दूसरे देवोंने उठा लिये जिनकी संख्या एक लाख करोड़ अक्षौहिणीमें है। सुरवरोंकी लगातार कतार बनाकर, चारों समुद्रोंको लौंधकर, झीरमहासागरका क्षीर भरकर, तथा एकसे दूसरे को देते हुए ||१-८॥
घत्ता-देवोंने बहुत मंगल कलशों से जिनवरका अभिषेक किया, मानो नववर्षाकालमें मेघोंने महीधर का ही अभिषेक किया हो ||२||
[६] सुरवर श्रेष्ठ परम आदरणीय ऋषभ जिनका जय जय शब्दोंके साथ, मंगल-कलझोसे अभिषेक किया गया। इसके अनन्तर, शत्रुका नाश करनेवाला इन्द्र वनसूची लेकर जगन्नाथके दोनों कान छेद देता है और शीघ्र ही कुण्डल युगल उन्हें पहना देता है। सिरपर चूड़ामणि, वक्षस्थलपर हार, हाथमें कंगन, और कटितलमें कटिसूत्र। त्रिभुवन तिलक को तिलक लगाते हुए सहस्रनयनके मनमें आशंका हो गयी। फिर
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पउमचरित
पुणु पादत्त जिणिन्दहाँ वन्दण । जय तिहुअण-गुरु णपणाणन्दण ॥६॥ जय देवाहिदेव परमम्पय । जय सियसिन्द-विन्द-चन्दिय-पय ॥७ जय मह-मणि-किरणोह-पसारण। तरुण-तरणि-कर-णियर-णिवारण ॥८॥ अय गमिएहि णमिय पणविज्ञहि । अरुहु वुसु पुणु कहाँ चमिजहि ॥१॥
धत्ता जग-गुरु पुण्ण-पवित्तु मिहुअणही मणोरह-गारा। अवे म अम्हहुँ देज जिण गुण-सम्पत्ति भडारा ॥१०॥
[-] पाय-णरामर-णयणाणन्दहों। वन्दण-हत्ति करन्तो इन्नहीं ॥१॥ रूवालोयण रूवासत्त। सिति ण जन्ति पुरन्दर-णेत्तई ॥२॥ जहि शिवडियइँ तहि जे पनुराई । दुन्चल-डोरई प व खुत्तई ॥३॥ वामकरणहउ गिदार वि । वालही तेत्थु अमिउ संचार वि ।१॥ पुणु वि पायउ मयण-विवार । गम्पि अउज्मा पवित्र महारउ ||५|| सूरे मरु-गिरि व परिजिन। पुणु दस-सब कर करें चि पच्चिउ ।। सालङ्कार स-दोरु स-जेठा। सच्छरु सपरिवारन्तर ॥1॥ जणणिए जंजिदिनु अहिसित्तउ । रिसह मणे त्रि पुणु रिसहुजं वुत्तउ ।।८
पत्ता काले गलत णा पिय-देई-रिद्धि परियनु । विवारजन्तु +ईडि वायरणु गन्थु जिह वढ्इ ॥९||
[4] श्रमर-कमारे हि सहुँ कालन्तहीं। पुन्वहुँ पीस लक्ष लन्तहीं ।।१।। एक-दिवस मय पर कूवार। देवदेव मुभ भुक्खा-मारे ॥२॥ जाई पसाएं भगद भण्णा । ते कप्पयह सच्च उफागा ||३||
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विहमो संधि उसने जिनेन्द्रकी वन्दना प्रारम्भ की, "त्रिभुवनगुरु और नेत्रोंको आनन्द देनेवाले आपकी जय हो, सूर्यकी तरह किरणसमूहको प्रसारण करनेवाले, और तरुण सूर्यको किरणों के प्रसारको रोकनेवाले आपकी जय हो, नमि-विनमिफे द्वारा नमित आपकी जय हो ॥१-९!| __पत्ता-“विश्वगुरू पुण्यसे पवित्र त्रिभुवनके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले, हे आदरणीय जिन, जन्म-जन्म में हमें गुण सम्पति दें" ||१०||
[७] "नाग, नर और अमरोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले तथा जिनकी वन्दना भक्ति करते हुए इन्द्र के रूपमें आसक्त नेत्र तृप्तिको प्राप्त नहीं हुए 1 वे जहाँ भी गिरते वहीं गड़कर इस प्रकार रह जाते जैसे कीचड़ में फंसे हुए दुर्षल ढोर (पशु) हो। इन्द्रने, बालक जिनके बायें हाथ के अँगू टेको चीरकर, उसमें अमृतका संचार कर दिया, और उसने जाफर, कामका नाश करनेवाले आदरणीय जिनको वापस अयोध्या में रख दिया। जैसे सूर्य, सुमेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करता है, उसी प्रकार जिनकी इन्द्रने प्रदक्षिणा की और एक हजार हाथ बनाकर नाचा, अपने अलंकार, दोर, नूपुर स्वर-परिवार और अन्तःपुरके साथ | जब माँने उन्हें अभिषिक्त देखा तो उन्हें ऋषभ समझकर उनका नाम ऋषम रख दिया । १-८॥
पत्ता-समय बीतनेपर स्वामीकी देह-ऋद्धि उसी प्रकार बढ़ने लगी जिस प्रकार कवियोंके द्वारा व्याख्या होने पर व्याकरणका मन्थ फैलता जाता है ।।२।।
[4] अमरकुमारोंके साथ क्रीड़ा करते हुए उनका बीस लाख पूर्व समय बीत गया । एक दिन प्रजा करुण स्वरमें पुकार उठी- "देव देव, हम भूखकी मारसे मरे जा रहे हैं। जिनके प्रसादसे हम अपनेको धन्य समझ रहे थे, वे सारे कल्पवृक्ष
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पउमचरित एवहिं को उचाउ जीवेवएँ। भोयणे खाणे पाणे परिहेवएँ ॥४॥ तं णिसुवि वयाण जग-सारउ । सयल-कल उ दाखवइ भडारउ ॥५॥ अण्णाहुँ अति मवि किमि वाणिजउ । अगहुँ विविह-पयारउ विजउ ॥३॥ काहि दिणे हिं परिणविउ देविउ । णन्द-सुणन्दाइड सिय-प्लेयिउ ॥७॥ सड पुत्तहुँ उप्पागु पहाणहँ । भरह-बाहुबलि-अणुहरमाणहूँ ॥४॥
घता पुच्चर लक्रस तिसटि गय रज्जु करन्तहाँ जान हि । चिन्तामण उपण सुरवह-महरायहाँ ताव हि ॥११॥
तिअण-जग-मण-णयण-पियारउ । मोयासत्तड णिऍवि भडारड ॥१३ मण चिन्ताविउ दससयलोयण। करमि कि पि बइरायहीं कारणु ॥२॥ जेण करइ सुहि-यत्त-हियत्तणु। जेण पवनइ विस्थ-पवत्तणु ॥३॥ जेण संलु उ णियमु ण णासइ । जेण अहिंसा-धम्मु पयासह ॥४॥ एम श्यिप विछाग-चन्दापण । पुषगाउस कोकिय गालाग ॥५॥ तिहुसण-गुरहे शाहि ओलग्गएँ। णहारम्भु पदस्सिहि अग्गएँ ॥६॥ तं आग लहें वि गय तेसह। थिउ अस्थाणे महारउ जेत्तहँ ॥७॥ पाउजिहि परजिउ तकखणे 1 गेउ वज्जु जं बुत्ता लक्षण ॥६॥
घत्ता र पइह सुरन्ति कर-दिट्टि-भाव-रस-रञ्जिय । विकभम भाव-विलास दरिसन्ति पाप विसजिए ॥५॥
जणीलक्षण पाणे दि मुकी। 'विधिगत्यु संसार असारद ।
[.]
जाय जिणहो ता सङ्क गुरुको 111 अण्णहाँ अण्णु होइ कम्मारड ॥२॥
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विईओ संधि
नष्ट हो गये । इस समय जीने, भोजन, खान, पान और पहिरनेका उपाय क्या है ?" यह वचन सुनकर, जग-श्रेष्ठ उन्हें सब विद्याओंकी शिक्षा देते हैं। दूसरोंके लिए असि, मसि, कृषि और वाणिज्य । और दूसरों के लिए विविध प्रकार की दूसरी दूसरी विद्याएँ ? कई दिनों के बाद, उन्होंने नन्दा सुनन्दा नामक श्रीसे सेवित दो देवियों से विवाह किया। उनके, भरत और बाहुबलि के सराधान सुदुर:
घत्ता-जब राज्य करते हुए उनका प्रेसठ लाख पूर्व बीत गया, तो इन्द्रमहाराजके मनमें चिन्ता उत्पन्न हुई ॥९॥
[९] "त्रिभुवनके जन मन और नेत्रोंके लिए प्रिय आदरणीय जिनको भोगोंमें आसक्त देखकर इन्द्र अपने मनमें सोचने लगा कि मैं वैराग्यका कुछ तो भी कारण खोजता हूँ जिससे यह पण्डितों और सात्त्विक लोगोंका भनचीता करें, जिससे तीर्थका प्रवर्तन प्रवर्तित हो, जिससे शील, प्रत और नियम का नाश न हो, जिससे अहिंसाधर्मका प्रकाश हो ।" यह विचार कर इन्द्रने पुण्यायुवाली चन्द्रमुखी नीलांजनाको बुलाया और कहा, "त्रिभुवन स्वामीकी सेरामें जाओ, उनके सामने नाट्यारम्भका प्रदर्शन करो।" यह आदेश पाकर, वह वहाँ गयी जहाँ आदरणीय अपने आस्थानमें बंटे हुए थे, प्रयोगकर्ताओंने तत्काल, जैसा कि लक्षणशास्त्र में कहा गया है, गेय और बाथ प्रारम्भ कर दिया ।।१-८॥
पत्ता-कर, दृष्टि, भाव और रससे रंजित नीलांजनाने तुरन्त रंगशालामें प्रवेश किया और विभ्रम भाव तथा विलास दिखाते-दिखाते उसने अपने प्राण छोड़ दिये" ॥२||
[१०] नीलांजनाको प्राणोंसे मुक्त देखकर जिनको बहुत बड़ी शंका हो गयी। ( वह सोचने लगे) असार संसारको धिक्कार है। इसमें एक के लिए दूसरा फर्मरत होता है ?
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पठमचरित
अपहरे अण्णु काइ भिश्चत्तणु। तं जि इड पहरायहीं कारणु ॥३॥ लोयन्तियांह ताम पदिवोहिंउ । 'चारु देव ज सई उम्मोहिउ ||४|| उहिहि गव-णव-कोडाकोदिउ । ण? उ धम्मु सत्थु परिवाहिट || II गई दंगण-गाण्य-वरितहूँ। दाण-शाण-संजम-सम्मत्त. ॥६॥ ।। प३ महषय पञ्चागुब्धय । तिणि गुणवय घउ सिकासावय ॥७॥ णियम-सील-उपवाम-सहासइँ । पइँ होन्तेण हवन्तु असेसई ' ॥॥
घत्ता
ताम विमाणास्ट चड-दिसु च देव-गिकाया। 'पई विशु सुग्ण मोक्नु' णं जिण-हक्कास आया ॥५॥
[११] सिविया-जाण सुरवर-सार। जय-जय-सई चविउ भडारउ ॥१॥ देवे हि खन्धु देवि उस्बाइड। णिविमें तं सिद्धथु पराइट ॥२॥ सहि उबवणे श्रोवन्नरु थाप वि। भरतहों राय-लरिछ करें लाएं वि ॥३॥ 'मह परम-सिवाण' मणन्ते। किउ पयागें जिसवणु सुरन्त ॥१॥ मुहिउ पत्र भरेपिणु लइयउ। चामीवर पडलावर थनियउ ||५|| गण्हें वि जण-मग-गप्रणायन्दें। बिना ग्वीर-समुः सुरिन्दै ॥६॥ तण समागु सनेहें लइया । राय चउ सहास पवइया ||७|| परिमिउ ममि जिह गह-संघाई। गद्ध वसु थिर काओसाएं ॥८॥
पत्ता
पवणुङ्ख्यउ बाट सिहिहें वलन्तहाँ णाई
रिसहही रेहन्ति विसालउ । धूमाउल-जाला-मालक ||५||
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विईमो संधि एककी चाकरी दूसरा करता है।" यह बात उसके लिए वैराग्य का कारण हो गयी । तभी लौकान्तिक देवोंने आकर परमजिनको प्रतियोधित किया, "हे देव, बहुत सुन्दर जो आप स्वयं मोहसे विरक्त हो गये। निन्यानव कोड़ा-कोड़ी सागर पर्यन्त समयसे धर्मशास्त्र और परम्परा नष्ट हो चुकी हैं, दर्शन, ज्ञान और चारित्र नष्ट हो गये हैं, दान-ध्यान-संयम और सम्यक्त्व ना हो गया है, पाँच महानत, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और शिक्षाश्रत नष्ट हो चुके हैं, नियम, शील और सहस्रों उपवास नष्ट हो मुझे, अन अप होने से शव होंगे | --!!
घचा-इतनेमें चारों निकायोंके देव विमानों में आरूढ़ होकर आ गये, मानो जिन भगवान के लिए यह बुलावा आया हो कि आपके बिना मोक्ष सूना है ।।२।।
[११] तब सुरश्रेष्ठ आदरणीय जिन जय-जय शब्दके साथ शिषिका यानमें चढ़े । देवोंने कन्धा देकर उसे उठा लिया और पलभरमें वे सिद्धार्थ उपवन में पहुँच गये । उस उपवनके थोड़ी दूर स्थित होकर, भरत के हाथमें राज्यलक्ष्मी देकर, परमसिद्धोंको नमस्कार करते हुए 'प्रयाग' (उपवन) में उन्होंने तुरत संन्यास ग्रहण कर लिया। पाँच मुट्टियों में भरकर, बाल ले लिये और स्वर्णपटलके ऊपर रख दिये। जनोंके मन और . नेत्रोंको आनन्द देनेवाले सुरेन्द्र ने उन्हें लेकर क्षीरसमुद्र में डाल दिया । स्नेहसे प्रेरित होकर चार हजार राजाओंने भी उनके साथ प्रत्रज्या ग्रहण कर ली। जिस प्रकार चन्द्रमा ग्रहसमूहसे घिरा रहता है, उसी प्रकार नवदीक्षित राजाओंसे घिरे हुए परमजिन आधे वर्ष तक कायोत्सगमें स्थित रहे ॥१-८॥
पत्ता-ऋषभ जिनकी हवामें उड़ती हुई विशाल जटाएँ ऐसी लगती थीं मानो जलती हुई आगकी धूमाकुल ज्वालमाला हो ॥२॥
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पउमचरित
[१२] मिणु अविउलु अविश्वल वोसथउ । थिउ सम्मासु पलम्विय-हाथठ ॥ ११ जे णिव तेण समज पत्रक्ष्या। ते दारुण-दुबाएं लक्ष्या ॥२।। सोडण्हें हि तिस-भुक्ख हि खामिय । जिम्मण-णिहालस हि विणामिय ।।३।। चालय कण्डुयणई अलहन्ता । अहि-विच्छिथ-परिवेटिजन्ता ।।४।। घोर-बौर-तवचरणे हि मगगा। में वि रसिपिएलमा int केण वि महियले तिर अप्पड। 'हो हो केण दिनु परमप्पा ॥३॥ पाण जन्ति जइ गण णिोएं। तो किर ण का परलोएं ॥७॥ को वि फलई ताडपिणु भक्खइ । 'जाहुँ' मणेचि को वि काणेक्खाह 140
घत्ता को वि णित्रारइ कि वि आमेलधि चलाण शिणिन्दहो। 'कल्ला देसहुँ काइँ पच्चुत्तर मरह-रिन्दाहों ॥५॥
१३] ताहि तेहएँ पांडवन भवसरें। दयी याणि समुट्ठिए अम्बरें ॥१॥ अहाँ अहाँ कूट-कवष्ठ-जिगन्धहो। कापुरिसहाँ अणाय-परमस्थहों ॥३॥ एण महारिसि.लिङ्ग-पाहणं । जाइ-जरा-मरण-तक-डहणे ॥३॥ फलई म तोडहों जलु मा डोहहों। णं ती णीसात्तणु छपवहाँ ॥ संणिसुणे वि तिस-भुषवादपणे हि । उधूलि उ अप्पाणउ अण्णे हि ॥ मण्णेहिं अपय समय उयाश्य । नहि अवसरे गमि-
विम पराय ॥ कच्छ महाकाहिव-णन्दण । वर-करनाल-हत्य णीसन्दण ||| वेणि वि घिहि चकणे हि शिव पिणु । थिय पास हि जिणु जयकारेप्पिणु ।।
घत्ता
चिन्तिड पमि-विणमीहि 'युत्तउ बिण दोल्लइ णाहो। एउ | जाणहुँ भासि किउ अम्हहिं को भवराहो ॥२॥
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विईओ संधि
[१२] जिन भगवान् , छह माह तक हाथ लम्बे किये हुए अविकल, अविचल और विश्वस्त रहे। लेकिन जो राजा उनके साथ प्रबजित हुए थे, वे दारुण दुर्वानमें जा फंसे । शीत, उष्ण, भूख और प्याससे शीर्ण हो गये, जंभाई, नींद और आलस्यसे वे हार मान बैठे । चलना और खुजलाना न पा सकनेके कारण, सौंप और चिच्छुओंने उन्हें घेर लिया । वे धीर-धीर तपश्चरणसे मग्न हो गये । भ्रष्ट होकर पानी पीने लग गये | कोई महीतलपर पड़ गया । ( कोई कहने लगा), हो हो, परमपद किसने देखा, यदि इस तपमें प्राण जाते हैं तो फिर उस परमलोकसे लया? कोई. फल तोड़कर खाता है, कोई ‘में जाता हूँ कहकर तिरछी नजरसे देखता है॥१-८॥
वत्ता--कोई जिनेन्द्र के चरणोंको छोड़कर जानेके लिए थोड़ा-सा मना करता है यह कहकर कि कल हम भरत नरेन्द्रको क्या जवाब देंगे? ||२||
[१३ ] उस अवसरपर आकाशसे देव-वाणी हुई, "अरे कूट, कपटी, निम्रन्थ कापुरूप, परमार्थको नहीं जाननेवालो, तुम जन्म-जरा और मृत्यु तीनोंको जलानेवाले महाऋपियोंके इस वेषको धारण कर, फल मत तोड़ो, पानी मत पिओ। नहीं तो दिगम्बरत्व छोड़ दो !” यह सुनकर, प्यास और भूखसे पीड़ित कुछ दूसरे साधुओंने अपने ऊपर धूल डाल ली, दूसरोंने दूसरे भत खड़े कर लिये। इसी अवसरपर नमि और विनमि वहाँ पहुँचे कच्छप और महाकच्छपके बेटे । बिना रथके हाधोंमें तलवार लिये हुए। दोनों ही, जयकार पूर्वक, दोनों चरणों में प्रणाम कर जिनवरके पास बैठ गये । ॥१-८॥ ___घत्ता-नमि और विनमि अपने मनमें सोचने लगे कि बोलनेपर भी स्वामी जिन नहीं बोलते, हम नहीं जानते कि हमने कौन-सा अपराध किया है. ॥२॥
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पउमचरित
[ ४] जह वि ण कि पि देहि सुर सारा । तो वरि पक्कसि वोल्छि मडारा ॥१॥ अपगहुँ देसु विहनवि दिण्ण। अम्हहुँ कि पहु मिदाग्विण्णउ' ||२|| अण्णहुँ दिण्ण तुरङ्गम गयवर। अम्हहुँ का किग्राउ परमेसर ॥३॥ अपनहुँ निगम-वेसग हद मागमेण निस' । एम जाम गरहन्ति जिणिन्दहौँ। भासणु चलिउ ताम धरणिन्द्रहों ।।५ अवहि पर अवि अपरिवारउ । भाउ खणखें जेल्धु महारउ || ६|| लक्विड विहि मि मझें परमेसह । सखि सुरन्तराल पं मन्दरु ||७| नुरिट ति-धारउ भामरि देफ्णुि । जिगर-वन्दणहत्ति करपिशु ॥४॥
पुछिय धरणिधरण थिय कजें करणेण
घत्ता 'चिणि वि उपप्याविय-मरथा ! उपवय-करवाल-विस्था ॥२॥
[१५] तं णिसुणेवि दिण्णु पच्छुत्तर । पेसिय वे घिसि सन्तर ।।१ दूरवाणु जाम त पावहुँ । जाम वलेवि पढ़ीवा आवडें ॥२॥ ताम पिहिमि गिय-पुत्तहँ देप्पिणु । अम्महं घिउ अवहेरि करप्पिणु ।।३।। तं णिसुण व विहसिय-मुह-वन्द । दिण्णा विजय के भरणिन्दै ३३!। 'गिरि-वेयवहाँ होहु पहाण्या । उत्तरदाहिण-सेजिङ हि राणा' ।।५।। सं णिसुण चि मि-विगभिहि बुखाइ । पण दिणी पिहिवि न रुचाइ ।।६।। जइ गिरगन्धु देइ सइँ हत्थें । तो अम्हे वि लेहुँ परमार्थे ।।७।। ते णिसुणेवि चे वि अवलोवि घिउ ऊग्गर सो मुणिवरु होवि ॥८॥
हत्थु थलिउ तेण उत्तर-लेदिहि' एक्कु
यत्ता गय वे विलापिणु विजउ । थिङ दाहिण-सेदिहि विजउ ।।२।।
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विईओ संधि 1 [१४] सुर श्रेष्ठ है, यदि कुतर नहीं दे. तो भी आदरणीय एक बार बोल तो लें, दूसरोंको तो देश विभक्त करके दे दिया,
स्वामी, हमारे प्रति आप अनुदार क्यों हैं ? दूसरोंको आपने रंगम और गजवर दिये हैं, हे परमेश्वर हमने क्या किया है ? सरोंको आपने उत्तम वेश दिये हैं, परन्तु हमसे बात करने में मी सन्देह है ? इस प्रकार वे जप जिनवरकी निन्दा कर रहे थे कि तभी धरणेन्द्रका आसन कम्पायमान हुआ, अवधिज्ञानसे सब जानकर, परिवारके साथ आधे पलमें वहाँ आया, जहाँ आदरणीय परमजिन थे। दोनों ( नमि और विनमि ) के बीच, परमेश्वरको धरणेन्द्र ने इस प्रकार देखा, जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमाके बीच में मन्दराचल हो। तुरन्त तीन प्रदक्षिणा देकर, जिनवरकी वन्दना भक्ति कर ||१-८||
पत्ता-धरणेन्द्रने पूछा, "तुमलोग अपने दोनों हाथ ऊपरफर, हाथ में तलवार लेकर, किसलिए यहाँ बैठे हो" |||
[१५] यह सुनकर उन्होंने उत्तर दिया, "हम दोनोंको देशान्तर भेजा गया था। लेकिन जबतक हम वहाँ पहुँचे और वापस आयें, तबतक अपने पुत्रोंको धरती देकर, यह हमारी उपेक्षा कर यहाँ स्थित हैं।" यह सुनकर, हँसते हुए (इस रहा है, मुखचन्द्र जिसका ऐसे) धरणेन्द्रने उन्हें दो विद्याएँ दी, और कहा, तुम दोनों विजयाध पर्वतकी उत्तर-दक्षिण श्रेणियों के प्रमुख राजा बन जाओ ।' यह सुनकर नमि-विनमि बोले, "दूसरोंके द्वारा दी गयी पृथ्वी हमें नहीं चाहिए, यदि वास्तवमें परम जिन (निर्गन्थ ) अपने हाथसे दें तो हम ले लें।' यह सुनकर और उन दोनोंकी ओर देखकर धरणेन्द्र, उनके सामने मुनिवरका रूप धारण कर बैठ गया ॥१-८॥
चत्वा-उसने हाथ ऊँचा कर दिया ('हाँ' कर दी) वे दोनों भी विद्या लेकर चल दिये। एक उत्तर श्रेणी और दूसरा दक्षिण
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४२
णिग्गउ 'याहू' भणन्तु भभिड ति-भ्रामरि दिन्तु
स
।
of अवसरे उच्चाइय- वाहहों । बहु-लायण्णवपण संपण्णउ । सेलिङ को षि को वि हय चञ्चक को विषण्ण रुपय थाल हूँ । को विहाहरण होय । सम्ब धूलि समहूँ मण्णन्तड । जहि सेयं दंसणु पाहिउ । 'अज्जु पट्टु अणङ्ग- विचारत । इक्खु - रसही भरियअलि जं जे । ताम उद्दिसु लोएं छाउ ।
[१६]
वन्दे वि पइसारियउ निहेलणु । अष्णु वि गोमएण संभजणु । पुप्फहूँ अक्खयाउ वति दीवा । कर- पक्लाणु देवि कुमारें । अहिणव- इक्रसहों भरियञ्जलि | साहुकारु देवदुन्दुहि सरु । कण-रण कोडिङ वारह अवयदाणु मर्णे व सेयंसही ।
महि-विहरतों सिहुअण- जाहहीं ॥१ आग को वि पसा वि कण्णउ || २ || रयण को विकी वि वर मयगल ॥ ३ ॥ को विघण घण्णहूँ असरालहूँ ॥१॥ ता हूँ मंडार उ अवलोय ॥५॥ पट्टणु हरिणयरु संपत्त ॥ ६ ॥ छुद्ध छुड णिय परिवारहों साहिउ ॥७ महूँ पाराविउ रिस भडारट ||८|| ET वसुहार परिसिथ तं जे ||१|| सच्चउ जे जिणु बारें पराउ || १०||
धत्ता
[१७]
सकलसु स पुत्तु स परियणु । मन्दरहों जे तारायणु || १३ ||
किड चकणारविन्द पक्खालणु ॥१॥ दिष्ण जलेण धार पुणु चन्दणु ॥ १ ॥ धूव वास जल-वास पडी ||३ ॥ सहर सर्पिणण मिङ्गारें ॥४॥ ताव सुरेहि मुक्कु कुसुमाञ्जलि ||५|| गन्ध-वाउ वसुवरि निरन्तरू ॥ ६ ॥ पडिय लक्ख वसीसद्वारह ॥७॥ अक्वराय गाउ कि दिवसहों ॥८
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लिईभी संधि
श्रेणीमें स्थित हो गया ॥२॥
[१६] उस अवसर पर, अपने हाथ ऊँचे किये हुए त्रिभुवननाथ ऋषभ जिन, धरती पर विहार करने लगे। कोई उनके पास, सौन्दर्य और रंगसे युक्त अपनी कन्याको सजाकर लाता है । कोई वस्त्र, कोई चंचल अश्व, कोई रत्न, और कोई मद विहल गज | कोई चाँदी की थालियाँ और स्वर्ण । कोई बहुत-सा धन धान्य । कोई अमूल्य आवरण होकर लाता है। परन्तु परम आदरणीय उनकी ओर देखते तक नहीं। सबको धूलिके समान मानते हुए वह हस्तिनापुर नगर में पहुंचे। वहाँ विमोहने स्वप्न देखा (स्मृतिमें देखा) "उसने अपने परिवारसे कहा है कि आज कामदेवका नाश करनेवाले आये हैं और मैंने उन्हें पारणा (आहार) करायी है । मैंने इक्षु-रसकी जितनी अंजली भरी घरमें उतनी ही रत्नवृष्टि हुई। इतने में चारों दिशाओमें लोग छा गये, सचमुच जिनभगवान उसके द्वार आ चुके थे ।।१...१०॥
घत्ता---'ठहरिये' कहता हुआ वह निकला, और अपनी खी पुत्र और परिजनोंके साथ उसने तीन प्रदक्षिणा दी, जैसे तारागण मन्दराचलको देते हैं ।।१।।
[१७] वन्दनाकर, वह उन्हें घरके भीतर ले आया । उनके चरण कमलोंका प्रक्षालन किया । और दूध दहीसे उन्हें धोया, जलकी धारा दी और चन्दन लगाया । पुष्प अक्षत नैवेद्य दीप
और फिर धूप जल चढ़ाया। श्रेयांस कुमारने हाथोंका प्रक्षालन कराकर, चन्द्रमाके समान भंगारसे ताजे गन्नेके रससे उनकी अंजलि भरी ही थी कि देवाने पुष्पांजलि की वर्षा की। साधुकार, और देव-दुन्दुभियोंका स्वर गूंज उठा, सुगन्धित हवा चलने लगी, रत्नोंकी वर्षा होती रही, बारह करोड़ बत्तीस लाख अठारह रत्न बरसे ! श्रेयांसके दानको अक्षयदान मानकर
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१५
गया
घना जिमिउ भडारउ जं जे सेयंस अप्पड भाव वि। वन्दिउ रिसह-जिपिन्दु सिरे सई भुव-जुबल चावं बि ९॥
इय एत्थ प उ म च रिए 'जिणवर-णिक्रसमण' इमं
धणयासिय-सय म्भु एच-कए। वीयं चिय साहियं पम्वं ।।
[३. तईओ संधि]
तिहुण्य-गुरु तं गयउरु मेल्लें वि स्त्रीण-कसाइउ । गय-सम्सउ विहरन्तउ पुरिमतालु संपराइड ॥
[ ] दीहर-कालचक्क हऍण परिस-सहासे पुण्णऍण ।
सयडामुह-उजाण-वशु दु भडार रिमह-जिणु ॥३॥ सम्मं महा जं च पुण्णाय-गाएहि । कुसुमिय-लया-वेल्लि-पल्लव-णिहाएहि २ कापूर-ककोळ-एला-लवङ्गेहि । मह-माहची-माहुलिङ्गी-विहङ्गेहि ॥३॥ मरियाड-जी-कुंकुम-कुडक्रेहि । णध-तिलम-वउलेहि चम्पय-पियशहि ॥ णारा-गग्मोह-आसत्य-रुकवेहि । वैकेलि पउमक्स-रक्ख-दखेहि ।।५।। खजूरि-जम्बिरि-वण-फणिस-लिम्वेहि । हरियाल-उएहिबह-पुसजीबेहि॥॥ सत्तष्ठयामस्थि-दहिवपण-गन्दीहि । मन्दार-कुन्दिन्दु-सिन्दूर-सिन्दीहि।।।। बर-पाडल्ली-पोफळी-णालिकरीहिं । करमन्दि-कथारि-करिमर-करीरेहिं ॥८॥
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विईभी संधि उस दिनका नाम अक्षय तृतीया पड़ गया।
पत्ता-परम आदरणीय ऋषभ जिनने वह सब खाया, जो राजा श्रेयांसने भावपूर्वक दिया । उसने अपने दोनों हाथ सिर पर रखकर ऋपभ जिनेन्द्रकी वन्दना की ! ||२|| इस प्रकार यहाँ धनंजयके आश्रित स्वयंभूवेव द्वारा विरचित 'जिनवर निष्क्रमण' नामक दुसरा पर्व समाप्त हुआ।
तीसरी सन्धि
जिनकी कपाय क्षीण हो चुकी है. ऐसे परमशान्त परमगुरु उस हस्तिनापुर नगरको छोड़कर, विहार करते हुए पुरिमताल ( उद्यान ) पहुँचे।
[१] लम्बे समय चक्र के एक हजार वर्ष बीत जाने पर आदरणीय ऋपजिन झाकटामुख उद्यान-बन में पहुँचे जो महान् उन्धान, खिली हुई लताओं पल्लधों और बेलों के समूह से युक्त था। पुन्नाग, नाग वृक्षों तथा कपूर, कंकोल, एला, लथंग, मधुमाधवी, मातुरिंगी, बिडंग, मरियल्ल, जीर, उच्छ, कुंकुम, कुडंग, नवनिलक, पद्माक्ष, रुद्राक्ष, द्वाश्मा, खजूर, जंबीरी, घन, पनस, निम्ब, हड़ताल, ढोक, बहुपुत्रजीविका, सप्तच्छद, अगस्त, दुधिवर्ण, नंदी, मंदार, कुन्द, इंदु, सिन्दूर, सिन्दी,
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पउमचरिउ
कणियारिकणवीर-मादूर-वरलेहिं । सिरिखण्ड - सिरिलामली-साल-सरलेहिं९ हिम्ताल-ताले हि वाली तमाहेहिं । जम्बू-वरम्वेहिं कमण कयम्वेहिं ||१०|| सुव-देवदारुहिं रिद्धेहिं चारेहिं । कोसम्म सञ्येहिं कोरण्ट कोअंहिं ॥ ६१॥ अवश्य-जूहिहिं जासवण मलोहिं कंपऍ जाएहि अवरहि मि जाहिं ॥ १२
४६
घत्ता
तहि दिउ सुमपि वड पायउ थिस्-थोरड । सुद्द जरि मे ॥१३॥
वणवण
[२]
तहि श्रावि परमेसरेंण विलय से संचूरिड
एक सुख क्षाणग्गि पलितहों । तियगारह ति-सल फेडतहों । पश्चिन्दिय दणु-दप्पु हरन्तहाँ । सच महाभय परिसंसन्तहो।
वि यम्मचेरु रक्खन्त हों । सुइ एबारहंग जाणत हो । रविचारितु चरन्तहों । पणार पमाय वजन्त हों । उत्तरह संजम पालम्हों ।
आइ पुराण - महेसरेंण । सुकाणु आऊरियउ ॥ १॥ दो-गुण-धरही दुविइ-तव-तसों ॥२॥ उहि कमिन्धई डहन्तों ॥३॥ छन्चिद्द-रस-परिचाव करतहों ॥१४॥ ॥ अट्ट दुध मय णिण्णासम्बद्द ॥५॥ दसविहु परम धरमु पालन्तों ॥ ६ ॥ बारह अणुख चिन्तन्तहों ॥ ७ ॥ चउदसविह गुणथाणु चन्तों ॥ ८ ॥ stefan कलाय मुचन्ताहों ॥२॥ अट्ठारह षि दोस णासह ॥१०॥
धत्ता
सुह-झाणहो गय- भाणद्दों अइपसण्ण-मुहयन्दहों । धवलुजल सं केवलु णाशुप्पण्णु जिणिन्दहों ॥ ११ ॥
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तईओ संधि वर, पाटली, पोपली, नारिकेल, करमंदी, कंबारी, करिमर, करीर, कनेर, कर्णवीर, मादूर, तरल , श्रीखण्ड, श्रीसामली, साल, सरल, हिन्नाल , ताल, ताली, तमाल, जम्बू, आम्र, कंचन, कदम्ब, भले, देवदारु, रिह, चार, कौझम्ब, सद्य, कोरण्ट, कोंज, अच्चझ्य, जुही, जासवण, मल्ली, केतकी और जातको वृक्षांसे रमणीय था ।।१-१२।। __घता--वहाँ, स्थिर और स्थल सुन्दर
ब ना दिखाई दिया, मानो, सुख देनेशली वनरूपी वनिताके ऊपर मुकुट रख दिया गया हो" ||१३||
[२] आदिपुगणके महेश्वर परमेश्वरने उस स्थानमें स्थिन होकर विपग्ररूपी सेना नए की और अपना शुक्ल ध्यान
ग किया। एक शुक्ल ध्यानकी अग्नि प्रचलित करते हुए, दो गणम्यान और दो प्रकारका तप धारण करते हुए, स्त्रीत्वका बन्ध कराने वाली नीन झल्यों का नाश करते हुए, चार यातिया कर्भीक इंधनको जलाते हुए. पंचेन्द्रिय रूपी दानवका दर्प हरते हुए, वाम प्रकार के रसका परित्याग करते हुए, मात महा'पदोंको परिशप करते हुए, आठ दुष्ट मादीका नादा करते हुए, नी कारक ब्रह्मचर्य की रक्षा करते हुए, इस प्रकार के परम धर्म का पालन करते हुए, ग्यारह अंगोंके शास्त्रको जानते हुए, वाराह अनुप्रक्षाका चिन्तन करते हुए, तेरह प्रकारके चारित्रका आचरण करते हुए, चौदह प्रकारके गुणस्थानों पर चढ़ते हुप, पन्द्रह प्रमाणों का वर्णन करते हुए, सोलह कपायोंको छोड़ते हुए, सत्रह प्रकार के संयमका पालन करते हुए और अठारह प्रकारके दोषोंका नाश करते हुए; ॥१-१॥
घत्ता-शुमध्यान, गतमान और अत्यन्त प्रसन्न मखचन्द्र ऋषम जिनको धवल उज्ज्वल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ॥११|
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ፀረ
पउमचरिउ
[2]
साहिय-जिय-सहाव-चरित्र थिउ जिणु णिक्षुय - कम्मर पुण्य-पवितु पाव-निण्णासणु । किसलय - कुसुम - रिद्धि-संपण्णउ | दिणयर-कोटि-पपात्र समुज्जलु । अत्त ओणामिय- मस्था | अणेसह तिहुअणु धवलन्तर । अण्णत्तहँ सुर-दुन्दुहि दिव्व मास अत्तई भासइ ।
।
भट्ट षि पारि उप्पण्णा ।
इय-न्धि जसु सिद्धइ यह चक्कड़ों तलोकहों
चवीसहस्य परियरिज । णं ससहरु णिज्वलहर ॥१॥ अष्णुप्पण्णु धवलु सिंहास || १ || अपोत असोज उप्पण्णउ ॥ ३ ॥ अपसण्णु भामण्डलु ॥४॥ arre far aमर- विहत्था ॥५॥ भिण्ड धवल-छत्त-त ॥१६॥ णं पक्खुणे महोहि राज्जइ ॥७॥ अण्णेत्तहँ कम्मरठ-पणास ॥८॥ कुसुम-वासु अस वास ॥९॥ णं थिय पुण्ण-पुक्ष आण्णा ||१०||
धत्ता
बारह - जोयण पोठिम चsदिसु चउरुजाण वणु तिविहु कमय- पायारु प्रभाविउ | मानव श्रम्म चयारि परिट्टिय ।
गोर हेम परियरिथ हूँ । दह धय पउम मोर-पाणण । अणु विवस्थ चक्क छत्त-द्वय । एकेकऍ भए अहिणव छाय हुँ ।
पर - समाणु जसु अपर । सो ज देव परमप्पड ॥ ११ ॥
[ * ]
मणहरु सब्बु सुवण्णमज । सुर-निम्मंत्रित सभोसरणु ||9|| धारह कोटा सोलह वाषि || २ || कण- तोरण- णिवह समुट्टिय ॥ ६ ॥ पत्र न थूह तर्हि चित्थरियई ॥ ४ ॥
गड मशल वसह वर-वारण फरहत अहन्त समुण्णय || ६ || सउ अट्टोलरु वित्त-पदाय हुँ ॥ ० ॥
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ओ संधि
४९
[ ३ ] जिन्होंने अपना स्वभाव और चारित्र सिद्ध कर लिया है, जो नौतीस अतिशयोंसे युक्त हैं, और जिन्होंने कर्मरूपी रजको धो दिया है, ऐसे परम जिन स्थित हो गये, मानो मेघरहित चन्द्रमा ही हो। और भी उन्हें पुण्य पवित्र और पापोंका नाश करनेवाला धवल सिंहासन उत्पन्न हुआ। दूसरे स्थानपर किसलय और कुसुमोंको ऋद्धिसे परिपूर्ण अशोक वृक्ष उत्पन्न हुआ, एक दूसरी ओर, करोड़ों सूर्योके प्रतापसे समुज्ज्वल भामण्डल प्रसन्न हुआ। दूसरी ओर, अपना माथा झुकाये और हाथ में चमर लिये हुए चामरेन्द्र देष खड़े थे । एक ओर, तीनों लोकोंको धवल करते हुए दण्डयुक्त तीन छत्र उत्पन्न हुए, एक ओर देवदुन्दुभि बज रही थी, मानो पूर्णिमाके दिन समुद्र गर्जन कर रहा हो, एक ओर दिव्यध्वनि खिर रही थी, दूसरी ओर कर्मरज ध्वस्त हो रही थी, एक ओर पुष्प वृष्टि सुवासित हो रही थी तो दूसरी ओर उन्हें आठ प्रातिहार्य उत्पन्न हुए, मानो पुण्यका समूह हो आकर उपस्थित हो गया हो ॥१-१०॥
पत्ता - ये चिह्न जिसको सिद्ध हो जाते हैं और जो परको अपने समान समझता है, प्रहमण्डल और त्रिभुवनमें वही परमात्मा देव है ॥११॥
I
[ ४ ] बारह योजनकी समस्त धरती सुन्दर और स्वर्णमय थी । देवों द्वारा निर्मित समवसरण था, जिसमें चार विशाओंमैं चार उद्यान- वन थे | तीन स्वर्ण-परकोटे थे। बारह कोठे और सोलह चावड़ियाँ चार मानस्तम्भ स्थित थे । स्वर्णतोरणा समूह था । स्वर्णजड़ित चार गोपुर थे । उनमें नौ-नौ धूनियाँ लगी हुई थीं। इस ध्वज थे जिनमें कमल, मयूर, पंचानन, गरुड़, हंस, वृषभ, ऐरावत, दुकूल, चक्र और छत्र अंकित थे। प्रत्येक ध्वजमें अभिनव कान्तिबाली एक सौ आठ चित्र
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में समपरण परिडि जानहिं । चलियई आसणाई अहमिन्दई ।
जिगसंपर
'कि अच्छ
तं विवि परामहि मणि-रण-प्यह रक्षियहूँ
श्रागच्छहु
पउमचरिउ
केहि मिम महिस किस कुंजर केहि सिकरवराह तुरङ्गम । केहि सिसम सारङ्ग पवङ्गम । हिम सिंध गय गण्डा । केहि मि सुधार मच्छोहर । दुम पवार वर भवण - णिवासिय । बहुविह कप्पामर कोकन्तउ । विग्भम- हाव-भाव - संस्पोटिहिं ।
धाइय पर
ताब गलिय-दाणोश्रज जिग वन्दण- गवणंमणज
जोयणख पमाणु परिडिङ । उप्पर पेक्खणाएँ पारद हैं । उभय भय धूवन्तहूँ
हूँ ।
अमर राज संचलित वावहिं ॥२८॥ विसहरमा
रे
धत्ता
सुरवर सुरवर-विन्दहुँ । बन्दहुँ' ॥ १० ॥
जाडु भार
छत्ता
विलु क्रिय- कल्यलु चठ विह-देव निकायहाँ ।
कट्टिय-धर
[ ५ ]
कद्वय मउड कुण्डल घरे हि । नियणिय जाग मज्जियइँ ॥३॥ । केहि मितरिच्छ मिंग सम्वर ॥ १ केहि मिस मऊर विक्रम ॥३॥ केहि मिरहचर णरवर जङ्गम ||४|| केहि मि गरुड कोच कारण्डा ॥ ५ ॥ एम पराइच सय त्रि सुरवर ॥ ६ ॥ विस्तर अरु पक्ष जोईरिय || ॥ ईस्राणि त्रि आउ तुरन्त ॥ ८ ॥ परिमित सर को डिहि ॥९॥
सुरवर-वल्लहरा यहाँ ॥ १० ॥
[ ६ ]
||५||
कण्ण-अमर हय-महुयरउ | परिवडि अइरावण्ड ॥१॥
वीषज मरु णाएँ समुट्टिङ ॥२॥ चामीयर तोरण निवन्द्र ॥३॥ किहूँ बगइँ फल-फुल्ल समिद्धई ॥४॥
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तईओ संधि
। पताकाएँ थीं। जैसे ही यह समवसरण बनकर तैयार हुआ वैसे
ही अमरराजने कूच किया । अहमिन्द्रों, नागेन्द्र, नरेन्द्र और देवेन्द्रोंके आसन चलायमान हो गये ।।१-५॥
घसा-इन्द्र देवोंको जिनवरकी सम्पदा बताता हुआ । कहता है कि "बैठे क्या हो, आओ, आदरणीय जिनवर की अन्दनाके लिए चलें" ॥१०॥
[५] कटक, मुकुट और कुण्डल धारण करनेवाले प्रमुख देवोंने जब यह सुना तो चे मणियों और रलोकी प्रभासे रंजित अपने-अपने यान सजाने लगे। कोई मेष, महिप, वृषभ और हाथीपर | कोई तक्षक, रीछ, मृग और शम्बरपर । कोई करभ, पराह और अश्वपर । कोई हंस, मयूर और पक्षीपर | कोई शशक, श्रेष्ठ हिरण और पानरपर । कोई रथवर, नरवरोंपर । कोई बाध,गज और गडेपर । कोई गरुड़, क्रौंच और कारण्डबपर । कोई शुंशुमार और मत्स्यपर। इस प्रकार सभी सुरवर यहाँ पहुँचे। दस प्रकारके भवनवासी देव, आठ प्रकार के व्यन्तर, पाँच प्रकारके ज्योतिषी देव । अनेक प्रकारके कल्पवासी देव बुला लिये गये, ईशानेन्द्र भी तत्काल आ गया, विभ्रम हावभावसे क्षोभ उत्पन्न करनेवाली चौबीस करोड़ अप्सराओंसे घिरा हुआ ॥१-९।।
पत्ताचार निकायोंकी कोलाहल करती हुई सेनाको देखकर, इन्द्रराजके दण्ड धारण करनेवाले आदमी दौड़े ॥२०॥
[६] इतनेमें, जिससे मदजलका निझर बह रहा है, जो कानसे भ्रमरोंको उड़ा रहा है और जिसका मन जिनभगवान् की वन्दनाके लिए व्याकुल था, ऐसा ऐरावत महागज आगे बढ़ा । वह एक लाख योजन प्रमाण था, जैसे दूसरा मन्दराचल ही परिस्थित हो, ऊपर प्रदर्शन प्रारम्भ हो गये। स्वर्ण निर्मित तोरण बाँध दिये गये । ध्वज उतार दिये गये, चिह्न हिलने लगे।
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पउमरित
पीकारिणड गय पङ्गय मरवर। दीहिन पावि तलाय लयाहर ॥५॥ तहि अदरता गल्तान में सरका ': सुमन ॥६॥ विशिजन्नु चमर-परिवादि। सत्ताध सहि अच्छरकाहिहि ॥७॥ चडिट पुरन्दा म परिस। जय-मङ्गल-दुन्दुहि-गिाघो में ॥८॥ वन्दिण-पम्फा वहि परन्नहि। कटिबाल हि द्वाजण दिन्महि ॥९॥ इन्हा शिवद्धि अनलाभि । के त्रिविमूरिन विमुटा होवि ||१०||
घना
‘मल धरणई ज दुला
तव-मरणई जाण-बल
दिवु भरह करेसहुँ । इन्दत्त पावेमहुँ ॥११॥
ताम सुरासुर-वाहणई फलदं व सग्ग-दुमही तणई ।
मिणवर-पुष्य-वासदय हेहामुहई समागय ई ॥१॥ अवरो पर चूरन महाश्य । गिरि-मागुमोनरसिंहरु पराइय ॥२|| णिय-कर खरि भणइ पुग्न्दरु। उच्चायण-आन्हणु असुन्दा ॥३॥ जाई बिउवण-पति हुय है। रिउ ता आमलहु अई ॥४।। थिय देवासुर इन्दागमें। सम्न पडीया तण जि वेसें ॥५॥ जाणा-जाग-विमाण हि तेत्तहै। इन सभीसरगें जिगु जेत्तहें ।।६।। सयस वि तूरोणाविय-नस्श्रा। सयल चि कर-म उल अलि हत्या ।। सयल वि जयजयकार करता। सपल कि धोत्तनसयाई पदन्ता ८॥ सयल दि अप्पाणउ रिसन्ता। णामु गोतु णिय-णिराउ कहन्ता ॥९॥
सहि घेल गयणगाण
सुर-मेला तारायण
घना
तेय-पिण्ड जिणु छन् । छण-मयलम्छणु णज्जह ॥१०॥
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भसंधि
वन, फल-फूलोंसे समृद्ध थे। उसमें पुष्करणियाँ, नत्र पंकज, सरोवर, जलाशय, बावड़ी, तालाब और लतागृह थे। अपनी लम्बी सूँड़से जलकण फेंकता हुआ ऐरावत गरजने लगा । जिसे, सत्ताईस करोड़ अप्सराएँ कतारमें खड़े होकर चमरोंसे हवा कर रहीं थीं, ऐसा इन्द्र नगमें प्रसन होकर, जय और दुन्दुभिके निर्घोषके साथ हाथीपर बड़ा | चन्दीजन और वामन स्तुतिपाठ पढ़ रहे थे। दण्डधारी जन प्रणाम कर रहे थे । इन्द्रकी उस ऋद्धिको देखकर कितने ही लोग विमुख हो दुःख मनाने लगे ॥१- १०।।
धत्ता - मलको हरनेवाला तपश्चरण करके किस दिन हम मरेंगे, और दुर्लभ जनप्रिय इन्द्रत्व प्राप्त करेंगे || ११||
[७] इतने में, सुरों और असुरोंके विमान नीचे आ गये, मानो वे स्वर्गरूपी वृक्षके फल थे, जो जिनवर के पुण्यकी हवा से आहत होकर नीचे आ गये। महनीय वे एक दूसरेको धक्का देते हुए मानुषोत्तर पर्वत के शिखरपर जा पहुँचे । तब अपना हाथ उठाकर इन्द्र कहता है, “ऊँचे आसनपर बैठना ठीक नहीं, जिन्हें विक्रियाशक्तिसे जो-जो रूप प्राप्त हैं उन्हें तुरन्त छोड़ दो।" इन्दके आदेश से, जो देव पहले जिस रूपमें थे वे वापस उसी रूपमें स्थित हो गये । वे नाना विमानों और यानोंसे वहाँ पहुँचे जहाँ समवसरणमें परम जिन थे। सबने दूर से ही उन्हें माथा झुकाकर प्रणाम किया, सबके हाथों की अंजलियाँ बँधी हुई थीं। सभी जयजयकार कर रहे थे। सभी सैकड़ों स्तोत्र पढ़ रहे थे। सभी अपना परिचय दे रहे थे, अपना नाम गोत्र और निकाय बताते हुए ॥१-२॥
घत्ता — देवताओंके उस जमघटके अवसरपर तेजपिण्ड जिन ऐसे शोभित थे, जैसे आकाशके प्रांगण में तारागणों के बीच पूर्णचन्द्र हो | ॥१०॥
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पउमचरित
[-] सुर-करि-वन्युत्तिणऍण बहु-रोमअभिण्णऍण ।
सपरिवार सुन्दरेण थुइ भाउत्त पुरन्दरेण ॥१॥ 'जय अजरामर-पुर-परमेस्सर । जय जिण आइ पुराण महेसर ।।२।। जय दय-रम-रयण-रअगायर। जय अण्णाण-तमोह-दिपायर ॥३॥ जय ससि मम्व-कृमुग-पडिवोहण | जय कल्लाण-णाण-गुण-रोहण ॥४॥ जय सुरु तइलोकपियामह । जय-संसार महाडइ-ठुयवह ॥ ॥ जय वम्मा-णिम्महण महाउस । जय कलि-कोह-हुआसण पाउस ||३|| जय ऋसाय वण-पलयसमीरण । जय माणहरि-पुरन्दरपहरण । जय इन्दिय-गयतले पञ्चाग ।। जय तिहुण-सिरि-गमालिशग ॥८॥ जाय कम्मारि-मार-माग। जय णिल जिरवेक्ष पिराण ||१
पत्ता तुह सामागु दुह-पासणु एवहिं उण्णइ चडियउ । में होन्ग पहवन्तण जगु संसार ण पडियड ॥१०॥
[२] . तं बलु तं देवागमणु सो जिणवर तं लभसरणु।
पेक्वंदि उपवणे अवयरिङ जाउ महन्तउ अछरित ॥१॥ पटणे पुरिमसालें जो राणउ। रिसहसेणु णामेण पहाणउ ॥१॥ सो देवागमु पिएँ वि पहासिउ। 'को सयदामह-वणे भावासिउ ॥३॥ कासु एउ एचड्डु पहुत्तणु । ओण विमाणहि पवह यहाणु' ॥३ तं णिसुणेवि कण अफालिउ । एम हेच महँ सन्चु णिहालिउ ।।५॥ भरहेसरहों वप्पु जो सुम्बइ। माहि-वलहु मणेवि जो थुम्चह ॥३॥ फेवल-गाणु तासु उप्पषण । भट्ट महागुणहिट-संपण्णा' ॥७॥ से णिसुणेवि मर मे लिया। स-वलु स-पन्धुवा संघल्लिड 11॥ सं समसरणु पइट्ट तुरम्मउ । "जय देवानिदेव' पमणन्त ॥५॥
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सईलो संधि
[८] रोमांचसे अत्यन्त पुलकित शरीर इन्द्र ऐरावतके कन्धेसे उतर पड़ा और उसने अपने परिवारके साथ स्तुति प्रारम्भ की "हे, अजर-अमर लोकके स्वामी, आपकी जय हो, आदिपुराणके परमेश्वर जिन, आपकी जय हो । दयारूपी रत्नके लिए रत्नाकरके समान, आपकी जय हो । अज्ञानतमके समूहके लिए दियाकरके समान, आपकी जय हो, भन्यजनरूपी कुमुदोंको प्रतियोधित करनेवाले आपकी जय हो, फल्याण गुणस्थान और शानपर आरोहण करनेवाले आपकी जय हो, हे बृहस्पति, त्रिलोकपितामह, आपकी जय हो, संसाररूपी अटवी के लिए दावानलकी तरह आपको जय हो, कामदेवका भयान करनेवाले महायु, आपकी जय हो, कलिकी क्रोधरूपी ज्याला शान्त करने के लिए पावसकी तरह, आपकी जय हो, कषायरूपी मेघोंके लिए प्रलयपचनकी तरह, आपकी जय हो, मानरूपी पर्वतके लिए इन्द्रयरके समान, आपकी जय हो, इन्द्रियरूपी गजसमूहके लिए सिंह के समान, आपकी जय हो, त्रिभुवनशोभारूपी रामाका आलिंगन करनेवाले, आपकी जय हो, कर्मरूपी शत्रुओंका अहंकार चूर-चूर करनेवाले आपकी जय हो, निष्फल अपेक्षाहीन और निरंजन, आपकी जय हो । १-२|| __ पत्ता-तुम्हारा शासन दुःखका नाश करनेवाला है, इस समय यह उन्नतिके शिखरपर है, इसके प्रभावशील होनेपर जग भवचकमें नहीं पड़ेगा ॥१०॥
[९] वह सेवा, यह देवागमन, वह जिनवर, वह समवसरण, (इन सबको ) उपवनमें अवतरित होते हुए देखकर, महान आश्चर्य हुआ, ऋषभसेन नामक राजाको, जो पुरिम. ताल पुरका प्रधान राणा था । उस देवागमको देखकर उसने कहा, "शकटामुख, उद्यान में कौन ठहरा है ? इतना बड़ा प्रभुत्व किसका है, कि जिससे विमानोंके कारण आकाश मुक गया
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परमचरित
घत्ता ताएं संश पसन्तोग सुरह मि पिम्ममु लाइउ । 'ए वेसण सदसण किं मयरदउ भाइड' ||१०||
[१०] पंक्सवि ते देवागमणु सो अिणु तं जि समोसरणु ।
भव-भय-सएँ हि समलइड रिसहमेणु पहु पन्चहउ ॥१॥ मेय समाणु परम गम्भसर । दिक्खई ठिय चउरामी णरवर ॥२॥ चउ-कलाण-विहुइ-मणाहहाँ।। गणहर ते जि हुन जग-णाहहों ॥३॥ अवर वि जे जे भाव लइया । परासी महाम पन्वया ॥४॥ एयारह-गुणठाय-पमिदहुँ । तिणि लबरल साश्यहुँ पसिद्धहुँ ॥५॥ अजिय-गगहों मङ्गु के बुजिनम। देव वि दुझिय-कम्म-मलुजिय ॥६|| थिय चडपात परम-ििणन्दहा। णं सारा-गह पुषिणाम-चन्दही ॥७॥ वहर परिसेसवि थिय वणयर। महिम तुरङ्गम केसरि कुमार ॥ ८ ॥
घत्ता अहि गजल वि श्रिय सयल वि एकहि उवसम-मायण । किय-सेवहाँ पुरपवहाँ केवल-णाग-पहावेण ॥९॥
ताम विणिग्गय दिव्य झुणि कहइ तिलोअहाँ परम-मुगि ।
वन्ध-विमोक्य-काल बलइँ धम्माहम्म-महाफलाई ॥१॥ पुग्गल-जीवाजीच-पउत्तिव । आसव-संवर-णिज्जर-गुत्तिउ १२॥ संजम-णियम-लेस-वय-दाणा ।। तव-सीलीववास-गुगठाणई ॥३॥ सम्मईसण-गण-परिसई । सग्ग-मोक्रस-संसार-णिमिसा ॥४॥
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नईओ संधि
है।" यह सुनकर विभीने कहा, "हे देव, मैंने सब कुछ देख लिया है, जो भरतेश्वरके पिता सुने जाते हैं, और जिनकी महीवल्लभ कहकर स्तुति की जाती है, उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह आठ महान् गुणों और ऋद्धियोंसे सम्पूर्ण हैं।" यह सुनकर, और अभिमानसे मुक्त होकर राजा ऋपभसेन सेना और बन्धुवर्ग के साथ चला । वह शीघ्र उस समवसरण में, देवाधिदेवकी जय बोलता हुआ पहुँच गया ॥१-९॥
घत्ता-तेजके साथ प्रवेश करते हुए उस राजाने देवोंको भी विभ्रममें डाल दिया, कि इस बेशमें कामदेव किस संकल्पसे यहाँ आया है ? ॥2014
[१०] वह देवागमन, वह जिन और वह समवसरण देखकर संसारके सैकड़ों भन्योंसे आकुल ऋपभसेन राजाने संन्यास ग्रहण कर लिया। उसके साथ, अत्यन्त गर्वीले चौरासी राजाओंने दीक्षा ले ली, जो चार कल्याणोंकी विभूतिसे युक्त जगके स्वामी परम जिनके गणधर बने | और भी अपने अपने भात्रके अनुसार चौरासी हजार नरवर प्रजित हुए, जो ग्यारह गुणस्थानों से समृद्ध श्रे, तीन लाख प्रसिद्ध श्रावक, आर्यिकागणकी संख्या कौन जान सकता है, पापकर्मके मलसे रहित देवता भी, परम जिनेन्द्र के चारों ओर इस प्रकार स्थित थे, जैसे पूर्णचन्द्र के आसपास तारा और नक्षत्र हो । वनचर भी अपना बैर भूलकर स्थित श्रे, महिप, तुरंग, सिंह और गज ॥१-८॥ ___घत्ता-साँप और नेवला सभी उपशम भाव धारण कर एक जगह स्थित हो गये, कृतसेव पुरदेव ऋपभ जिनके केवलज्ञानके प्रभावसे ।।२।।
[११] इतने में दिव्यध्वनि निकलनी शुरू हुई। त्रिलोकके महामुनि कहते हैं, "बन्धन-मोक्ष, काल-बल, धर्म-अधर्मका
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५८
गत पथ समाय जाणहूँ । सायर-पल- पुष्चकोडीयउ । कालहुँ खेत्त-भाव-परदन् । शरथ तिर मणुअत सुरत । तिरथयन्तणाएँ इन्दप्तहुँ ।
पउमचरिउ
धम्मक्राणु सयल सुणे वि
मद्य भव-मय-सय-गय-मण क्रेण विपचाग्यय लक्ष्या । केहि मि गुणवयाइँ अणुसस्थिहूँ । मटणाणत्थमियाँ अबरेष्टहिं । जो जं सग्गड़ तं तहाँ देइ । अमर वि गय सम्मत्त एप्पिणु । जिण-धवलद्दों वि बबलु सिंहासनु उभय सेय छत्त सिय-वासरु ।
।
दय-वरमदु
विहुअण-पहु वहाँ चाणहों उज्जाणहीँ
तिनुअणें सबले गविद्रुड |
किं बहुर्वेण आलावेण उ एक्कु वि तिल-मेसु वि सं जि जिणेण ण दिट्ठउ ॥ ३० ॥
सुर-र-उच्छेहाउ-प्रमाणहूँ ॥ ५॥ लोय विहाय - कम्म पयदीप ||६|| चारह अङ्गहूँ चउटाह !! ७७ कुलयर-डलहर-चकहरत हूँ ||८|| सिद्धलाइ मि कहइ समन्त हूँ ||९||
घन्ता
[*]
चलु जीवित म सुवि। उवसमु जाउ सच्च- जहाँ ॥१॥ लोड करेवि के वि पव्वया ॥२॥ केहि मि सिखावयहँ पथरियाँ ॥ ३ ॥ अण्णे हि किय णिवित्ति अण्णेहि ॥४ हरधु भार खचेड़ ॥ ५ ॥ गिय णिय लिय-वाद्दणहिं चजेपि ॥ पण्णा रस - त्रिसह रासणु ॥१७॥ विश्वमास भामण्डलु मेहरू ॥८॥
घन्टा
केवल-किरण-दिवायरु । गउ तं गङ्गा- सायरु ॥ ९ ॥
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तईओ संधि
महाफल, पुद्गल जीव और अजीवकी प्रवृत्तियाँ, आश्रच संवरनिर्जरा और गुप्तियाँ, संयम-नियम-लेश्या-त्रत-दान-तप-शीलउपवास, गुणस्थान-सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चरित्र, स्वर्ग-मोक्ष और संसारके कारण, नौ प्रशस्त सन् ध्यान, देवों और मनुष्योंकी मृत्यु और आयुका प्रभाव | सागर पल्य पूर्व और कोड़ाकोड़ी। लोकविभाग कर्मप्रकृतियाँ। काल-क्षेत्र-भाय-परद्रव्य | बारह अंग और चौदह पूर्व, नरक, तिथंच, मनुष्यत्व और देवत्व, कुलकर, बलदेव और चक्रवती । तीर्थकरत्व और इन्द्रत्व और सिद्धत्वका यह संक्षेपमें कथन करते हैं ॥१-९॥
पत्ता-बहुत कहनेसे क्या? उन्होंने त्रिभुवनकी खोज कर ली थी, तिल के बराबर भी ऐसा नहीं था कि जिसे जिन भगवान्ने न देखा हो ॥१०॥
[१२] समस्त धर्माख्यान सुनकर और जीवनको मनमें चंचल समझकर, भवभव के सैकड़ों भयोंसे भीतमन सबको उपशमभाव प्राप्त हुआ। किसीने पाँच अणुव्रत लिये, कोई केश लौंच करके प्रत्रजित हो गया, किन्हीने गुणवतोंका अनुसरण किया, किसीने शिक्षाबत लिये, दूसरोंने मौन और अनर्थदण्ड व्रत ग्रहण लिया, दूसरोंने दूसरोंसे निवृत्ति ले ली, जो-जो माँगता, वह उसे वह वह देते। आदरणीय जिनने अपना हाथ नहीं खींचा। देव भी सम्यक्त्व ग्रहण करके चले गये अपनेअपने निकायोंके लिए विमानोंपर आरूढ़ होकर। जिन धवल का सिंहासन भी धवल था । पन्द्रह कमलोपर उनका स्थिर आसन था। सफेद तीन छत्र लगे हुए थे; सफेद चामर, दिव्यध्वनि और भामण्डल ॥१-८॥
घसा-कामका नाश करनेवाले, त्रिभुवनके स्वामी और केवलज्ञान विषाकर परम जिन उस उद्यानसे गंगासागरकी ओर गये ॥२॥
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हिँ अवसरे भरसरहों
पर चक्के हि मि पत्रिय कम मालूर-पवर- पीवर घणा है तहों दह-पचास
I
हुँ ।
चउराली लक्खहूँ गय वराहं । कोढी तिणि वर घेणुवाहुँ । वत्सीस सहासइँ मण्डलाहूँ । पत्र मिडियाहूँ सत्त-मत्त |
जिह बप्पण
तिहू पुसण
माहपण
जुन्
पद्ममचरिउ
[1a]
पसर ण पट्टण चक्क रयणु । जिह बम्बारि मुद्दे काम सधु । जिह वारि-विवर्णे हरिय-गृह ।
सयल-पुहट्ट - परमेसरहों । जान रिद्धि सुर-रिद्धि-सम ॥१॥ कृष्णवज्ञ सहास वरङ्गणाएँ ॥२॥ घरासी ललई सन्दणाहूँ ||३|| अट्ठारह कोडिड हयवराई ॥ ४ ॥ चील सहास राहिबा ॥४॥ कम्मन्त कोटि पत्रहरू हलहुँ ॥ ६ ॥ मेणि एक उत्तम
खण्ड
धत्ता
लड्ड णाणु तं केवलु | स हूँ मु य लेण महल || ||
४. चउथो संधि
सट्टि वरिस खामहिं पुष्ण-जयासहि भरतु उस पसरट् । पत्र- पिलियर-धार कलह- पियार करण पर
||
[ 9 ]
जिह अनुदकमन्तरं सुइ-चणु ॥१॥ जिह गोकर्ण मणि-रण-दर ॥२॥ जिह हुजण जर्णे सण-समूहु ॥ ३ ॥
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पर संधि
[१३] उसी अवसरपर समस्त पृथ्वीके महेश्वर भरतेश्वरको देवोंकी ऋहिके समान ऋद्धि प्राप्त हुई, जिसकी परम्परा शत्रुराजाओं द्वारा भी नमित थी । बेलफल के समान प्रवर और स्थूल स्तनबाली उसकी छियानबे हजार रानियाँ थीं । उनके पाँच हजार पुत्र थे । चौरासी लाख रथ, चौरासी लाख गजघर, अठारह करोड़ अश्वबर, वत्तीस हजार राजा, बत्तीस हजार मण्डल. खतीक लिए एक करोड़ हट, नौ निधियाँ, चौदह रत्न, छह खण्डोंकी एकछत्र धरती ॥१-७। __घत्ता—जिस प्रकार पिताने गौरव के साथ केवलज्ञान प्राप्त किया उसी प्रकार पुत्रने जूझते हुए अपने हाथोंसे धरती प्राप्त की।
चौथी सन्धि
जयकी आशासे पूर्व साठ हजार वर्षकि बाद भरत अयोध्यामें प्रवेश करते हैं। परन्तु नया और पैनी धारवाला कलहप्रिय उसका चक्ररत्न प्रवेश नहीं करता।
[१] चकारत्न नगर में प्रवेश नहीं करता, जिस प्रकार अज्ञानीमें सुकनिकी वाणी, जिस प्रकार ब्रह्मचारीके मुख में कामशास्त्र, जिस प्रकार गोठप्रांगणमें मणि रत्न और वस्त्र, जिस प्रकार वारके खूटेमें गजसमूह, जिस प्रकार दुर्जनोंक बीच सज्जनसमूह, जिस प्रकार कृपणके घर भिक्षुकसमूह, जिस प्रकार शुक्ल पक्ष में कृष्ण पक्षका चन्द्र, जिस प्रकार
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पउमचरिउ
जिह कित्रिण-मिलणं पाहू -बिन्दु । जिह बहुल-पक्
जिह सम्म जिह गुरु
खय-दिवस- चन्तु || र मन्त्रे ॥ ॥ अाण-कण्णं ॥ ६ ॥
।
जिड़ कामिणि जणुमाणु अदम् । जिह महुअरि कुल दुगन्धे रणे जिद परम- सोक्खु संसार-धम्मँ । - विद्यवि तत्पुरिसु जेम !
जिह जोव दया वह पाव- कम्मे ॥ ॥ क्कु ते ॥८॥
पढम
पईसइ उज्
६२
धत्ता
तं दिक्कत विंग्घु करens rरव नेहाविर | 'कहहु मन्ति-सामन्तहीँ जस-जय-मन्तहों किंमहु को वि अदि ॥९॥
सं पिसुर्णेवि मन्तिहिं वुत्तु एम | खण्ड वसुन्धर पत्र णिहाण | वणव सहाय महागराहुँ । अराइम सिद्ध जाई जाई । भर एक्कु ण सिंह साहिमाणु । तिरथङ्करणन्दणु तुह कणिट्टु । पण परमेस्वरम देहु | दुश्वार वरिवोरन्त-कालु |
--
[२]
'जं चिन्तहि तं तं सिद्धु देव ॥ १॥ ग्रह-विदेहि स्वर्णेहिं समाण ॥५॥ बत्तीस सहास देसन्तरा ॥ ३ ॥ को लकर विसक साहूँ ताई ॥४॥ सप-पच-सवाय धणु-प्यमाणु ॥ ५ ॥ अट्टानवहिं माहिं परिट् ॥ ६ ॥ अखलिय-मग्ट्टु जयलच्छिन्नोहु ॥७॥ णामेण बाहुबलि वल-विसालु ॥ ८ ॥
घता
खन्तिऍ धरियउ जड़ सो कह विविह
पट्ट मि देव दलव ९
सोहु जेम पत्रस्वरिय तो स खन्धावारें एक पहारें
तं वयणु सुर्णेवि दट्टाहरेण ।
पटुविय महन्ता तुरिय तासु । जद्द गठ पडिवण्णु कयात्रि एम |
[2]
भरण मरह- परमेसरेण ॥१॥
་
करें केर राहिवासु ||२||
करहु महु मिड जेम' ||
'बुच
ता ते
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चउरथो सधि
निर्धन मनुष्य कामिनी-जन, जिस प्रकार दूरभव्य में सम्यग्दर्शन, जिस प्रकार दुर्गन्धित वनमें मधुकरी-कुल, जिस प्रकार अज्ञानीके कानमें गुरुकी निन्दा, जिस प्रकार संसारधर्ममें परम सुख, जिस प्रकार पापकर्म में उत्तम जीवदया, जिस प्रकार प्रथमा विभक्तिमें तत्पुरुष समास प्रवेश नहीं करती, उसी प्रकार अयोध्यामें चक्ररत्न प्रवेश नहीं करता ।।१-८11 __घत्ता-विघ्न करते हुए उस स्थिर चक्रको देखकर नरपति भरत क्रोधसे भर उठा और बोला, "यश और जयका रहस्य जाननेवाले हे मन्त्रियो, कहो क्या कोई मेरे लिए असिद्ध (अजेय ) चा है ? ॥२॥
[२] यह सुनकर मन्त्रियोंने इस प्रकार कहा, "देव, जो तुम सोचते हो वह तो सिद्ध हो चुका है। छह खण्ड धरती, नौ निधियाँ, चौदह प्रकारके रत्न, निन्यानबे हजार खदानें
और बत्तीस हजार देशान्तर ! और भी जो-जो चीजे सिद्ध हुई हैं, उनको कौन दिखा सकता है ? परन्तु एक स्वाभिमानी सिद्ध नहीं हुआ है, वह है साढ़े पांच सौ धनुष प्रमाण, तीर्थकरका पुत्र, तुम्हारा छोटा भाई, परन्तु अट्ठानबे भाइयों में बड़ा पोदनपुरका राजा, चरम शरीरी, अस्खलितमान और जयलक्ष्मीका घर, दुर्वार वैरियों के लिए अन्तकाल, बलमें विशाल, और नामसे बाहुबलि ॥१-८|| ___घत्ता-सिंहकी तरह संनद्ध, पर शान्ति धारण करनेवाला, वह यदि कभी आ जाये, तो एक ही प्रहारमें सेनासहित, हे देव, तुम्हें चूर चूर कर दे" ||९||
[३] यह सुनकर, भरतके परमेश्वर भरतने ओंठ काटते हुए, शीघ्र उसके पास मन्त्री भेजे कि उससे कहो कि "वह राजाकी आज्ञा माने । यदि किसी प्रकार वह यह स्वीकार नहीं करता तो ऐसा करना जिससे वह हमसे लड़ जाये।" सिखाये
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पसमचरिड
सिक्लविय महम्ता गप तुरन्त । शिवसि पोअणु-पायर पस ||४|| पुग्जेंषि पुष्ठिय 'भागमणु काई। तेहि मि कहिय, वयणा ताई ।।५।। 'को हो को जर; ण मंड' हो कि हवालहदीसह गम्पि तो वि ।।६।। जिछ मायर भट्ठाणबह इयर । जापन्ति करें वि तहाँ तणिय कर ।।५ तिहबई मि मडफरु परिहरवि । जिउ राग्रहों को कर लेवि' ||
घत्ता
तं णिसुणे चि मय-मांस वाहुवलीसें मरहन्दू हिम्मच्छिय । 'एक कर चप्पिको पिहिमि गुरुको अवर कर ण पदिग्छिय ॥९||
पवसन्हें परम-जिणेसरेण । जंकिपि विहज्जेवि दिग्गु तेण ||३|| संप्रम्हहुँ सासणु सुह-णिहाणु। किड चिप्पिड़ पट केण वि सभाणु ।। मो पिहिमिहह. पोयणहों सामि! पाउ रेमिण केमि पासु जामि । पिटेण तेण किर कषणु कन्। किं सासु पसाएँ करमि राज ॥१।। कि तहों वण हर्ड बुणिवारु। किंतहों वरण महु पुरिसयारु ||4| किं तहाँ वोण पाह-शोउ। कि सही वशेण सम्पय-विहोउ ।।६।। जगजिज बाहुबकीसरेण । पोयण-पुरवर-परमेसरेण । संकोवाणक-पजफन्तएहि। णिम्मच्छिड भरह-महन्तएहि ॥
धत्ता 'जइ वि तुम इस मण्डलु बहु-चिन्सिय-फलु आसि समप्पिड अप्पें । गामु सोमु खलु खेतु वि सरिसव-मेतु वि तो वि ण.हि विणु कप्पे' ||२||
तं वयणु सुणेचि पलम्ब-बाहु। चन्दाइनहुँ कुविउ राहु ॥१॥ 'कहो तण रज्ज़ कहाणउ भरहु । जं जाणहु तं भहु मिलवि करहु ।।२।।
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चउरथो संधि
६५ गये मन्त्री तुरन्त गये। और आधे निमिपमें पोदनपुरमें पहुँच गये। आदर करके बाहुबलिने पूछा-"किसलिए आगमन किया।' उन्होंने भी वे वचन सुना दिये, "तुम कौन, और भरत कौन ? दोनों में कोई भेद नहीं हैं तो भी जाकर उससे तुम्हें मिलना चाहिए, जिस प्रकार दूसरे अहानवे भाई हैं, जो उसकी सेवा कर जीते हैं, उसी प्रकार तुम अभिमान छोड़कर राजाकी सेवा अंगीकार कर जिओ" ||१८||
पत्ता-भयभीषण बाहुबलिने यह सुनकर भरतके दूतोंको अपमानित करते हुए कहा, "एक बापकी आज्ञा, और एक उनकी धरती, दूसरी आज्ञा स्वीकार नहीं की जा सकती ? ।।९।।
[४] "प्रवास करते हुए परम जिनेश्वरने जो कुछ भी विभाजन करलो हिगा है, वही हमारा सम्बन्धिान मत हैं। मैंने किसीके साथ, कुछ भी बुरा नहीं किया, मैं उसी धरतीका स्वामी हूँ। न मैं लेता हूँ न देता हूँ और न उसके पास जाता हूँ। उससे भेंट करनेसे कौन काम होगा? क्या मैं उसकी कृपासे राज्य करता हूँ, क्या उसकी ताकतसे मैं दुर्निवार हूँ ? क्या उसकी ताकतसे मेरा पुरुषार्थ है ? क्या उसकी ताकतसे मेरी प्रजा है ? क्या उसकी ताकतसे मैं सम्पत्तिका भोग करता हूँ ?" इस प्रकार जब पोदनपुरनरेश बाहुबलि गरजा, तो भरतके मन्त्रियोंका क्रोध भड़क उठा, उन्होंने उसका तिरस्कार किया ॥१-८॥
घत्ता-"यद्यपि यह भूमिमण्डल तुम्हें पिताके द्वारा दिया गया है, परन्तु इसका एकमात्र फल बहुचिन्ता है, बिना कर दिये, ग्राम, सीमा, खल और क्षेत्र तो क्या ? सरसोंके यराबर धरती भी तुम्हारी नहीं है" [१९॥
[५] यह वचन सुनकर प्रलम्बबाहु बाहुबलि क्रुद्ध हो उठा मानो सूर्य और चन्द्र पर राहु ही कुपित हुआ हो । (वह वोला),
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我要
सो ए वह गब्बु ।
उजागर होसह केम कज्जु ।
4
पउमचरिङ
परियछड़ गाउ द
यावल मल्ल-कण्णिय करालु |
सं सुणेवि महता गय तुरन्त ।
जं जेम चवित्र तं कहिउ तेम ।
ण करड़ कर तुहारी इणि-रजणु लमु
किर वसिकिउ म महिषी सदु ॥३॥ कहाँ पासिङ णीसावष्णु रज्जु ॥४॥ तं पेश ि
सुग्गर- सुण्डि पट्टिस- बिसालु' ॥६॥ जिविस भरहों पासु पन्त ॥ ७॥
'पति- सरिसी विण गण देव ॥4
सिड मार्गे महाड |
घत्ता रिउम-कारो विरण-पितु मण्डे वि जुन सज्जु भिउ दाउ ||९||
[]
णं जरूणु जाल - माळा - सहाउ ॥१॥ सम्झइस रहसु सुहद-सूरु ||२॥ अट्ठारह अक्खोहणिड जाम ॥ ३ ॥ १ । जे सन्दण-वेसें परिभमन्ति ॥ ४ ॥ पउमक्खु सखु पिङ्गल च ॥५॥ पंथिय बहु भाय हिं पुण्ण-मेय ॥ ६ ॥ बारह सप्पासङ्गतणेण ॥७॥ वहुँ जक्ख-सहासे रक्खणे ॥८॥
अट्टीयर गम्भीरतणेण ।
को विवस्थ कषि भोयणहँ देह
I
को वि स्थणहूँ की वि पहरणइँ गेह ॥ ९ ॥
को विहयगय को ओसहिङ भरह । विष्णाणाइरणहुँ को वि हर६ ॥१०॥
तं णिसुनें वित्ति पक्षिन्तु राज देवाविउ लहु सण्णाह-तूरु । आऊरिज बल वडर शाम । परिचिन्तिय पत्र णिहि संचलन्ति महाकाल काल माणव पण्डु । इसपु स्यणु पाव लिहिउ एय । द-जोयणाएँ तुङ्गतणेण |
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चस्थ संधि
'किसका राज्य ? किसका भरत ? जैसा समझो वैसा तुम सब मिलकर मेरा कर लो, वह एक चक्रसे ही यह घमण्ड करता है कि मैंने समूची धरती ( महीपीठ ) अधीन कर ली है। नहीं जानता वह कि इससे क्या काम होगा ? समस्त राज्य, किसके पास रहा ? मैं उसे कल ऐसा कर दूँगा कि जिससे उसका सारा दर्प चूर-चूर हो जायेगा ? वह क्या बाबल्ल मल्ल और कर्णिकसे भयंकर तथा मुद्गर भुसुण्डि और पट्टिदासे विशाल होगा ।" यह सुनकर मन्त्री शीघ्र गये और आधे पलमें भरतके पास पहुँचे। जैसा उसने कहा था वैसा उन्होंने सब बता दिया कि हे देव, वह तुम्हें तिनके भी नहीं ॥१॥ पत्ता - शत्रुओं का नाश करनेवाली बहु तुम्हारी आज्ञा नहीं मानता | महनीय वह मानमें परिपूर्ण है । मेदिनीरमण वह सौतेला भाई बलपूर्वक रणपीठ रचकर युद्धके लिए तैयार बैठा है ॥२९॥
[६] यह सुनकर राजा तुरत आगबबूला हो गया, मानो ज्वालामाला से सहित आग ही हो ? उसने शीघ्र प्रस्थानकी मेरी चजवा दी, और सुभद्रशूर वह शीघ्र बेगसे तैयार होने लगा, इतने में चतुरंग सेना उमड़ पड़ी, तब तक अठारह अक्षौहिणी सेना भी आ गयी । चिन्तन करते हो नवनिधियाँ चलने लगी, जो स्यन्दनके रूपमें परिभ्रमण कर रही थीं। महाकाल, काल, माणवक, पण्ड, पद्माक्ष, शंख, पिंगल, प्रचण्ड, नैसर्प ये नौ रत्न और निधियाँ भी ये ही थीं, मानो पुण्यका रहस्य ही नौ भागों में विभक्त होकर स्थित हो गया हो। ऊँचाई में नौ योजन, लम्बाई-चौड़ाई में बारह योजन, गम्भीरता में आठ । जिसके एक हजार यक्ष रक्षक हैं ? कोई वस्त्र, कोई भोजन देती है, कोई रत्न देती है और कोई महरण ( अस्त्र ) लाती है । कोई अश्व और गज, कोई औषधि लाकर रखती है।
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पडमचरित
पत्ता इम्म-घ-सेणाषद इय-य-गहवाइ छप्स-दण्ड-प्रेमित्तिय । कागःण-मणि-स्थवह थिय खगा-पुरोहिय ते वि घरहद चिम्तिय ||
[-] गड़ माह पयाणड देवि नाम ! हेरिऍहिं कणिहाँ कहिट हाम ॥१॥ 'सहसा पीसह सण्णहें वि देव। दीसह परिवक्नु समुचु जेम' ॥२॥ . तं सुणे वि सरोसु पलम्ब-बाहु। सपासह पोयण-गया-राहु ।।३।। पडु पबह समाहृय दिण्ण सल। धर्म दम इत्त उम्भिय असम ॥४॥ किउ कलयलु कइयह पहरणा। कर-पहर-पयडूइँ वाहणाइ ।।५।। णीसरिउ सत्र सङ्कोहणीउ । एकर सेण्णएं अक्खोहणी ॥६॥ भरहेसर-बाहुबली वि ते वि। भासण्णइँ कुछ िवलद् धे त्रि |
। सवईमुह धय धय पहलै दवि ॥८॥ हर हयहुँ महानाय गयवराहुँ । मह भरहुँ महा-रह रहवराहुँ ।।९।।
घत्ता देवासुर-बल सरिसर वद्धिय-हरिसर कम्न्चुय-कवय-विसष्टई । एकमेक कोकसर रणे हन्त, उभय-व-प्रमिहई ॥१०॥
८] अभिष्टुइँ पढिय-कलयलाई। भरदेसर-पाहुबली-वलाई ।।। वाहिय-ह-बोइय-धारणाई 1 अणवायामेल्लिय-पहरणाई ।।२।। लुभ-जुषण-जोत-खण्डिय-धुराहँ। दारिय-णियम्ब-कप्पिय-उराह् ॥३॥ विष्टिय-भुभ-पाडिय-सिराई। धुय-खन्ध-कवग्ध-पणविराई ।। गण-दम्त-छोह-भिपणुष्माई। उपाइय-पडिपेल्लिय-भाइ ।।५|| पडिहय-विपित्राइम-गयघढाई। मच्छोदिय-मोहिय-धयवरा ॥॥
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चस्यो संधि
कोई विज्ञान और आभरण लाती हैं |1१-१८॥ ___ पत्ता-चर्म, चक्र, सेनापति, हय, गज, गृहपति, छत्र, दण्ड, नैमित्तिक, कागनी, मणि, स्पादि स्त्रग और परोहित मन चौदह रत्नौका भी उसने चिन्तन किया ॥११॥
[७] जैसे ही कूच करके भरत गया, वैसे ही सन्देशबाहकोंने छोटे भाईसे कहा, "हे देव, शीघ्र तैयार होकर निकलिए । प्रतिपक्ष समुद्र की तरह दिखाई दे रहा है।" यह सुनकर पोदनपुरनरेश याहुबलि क्रोधके साथ तैयार होने लगा। पटपटह बजा दिये गये। शंख फूक दिये गये, असंख्य ध्वज दण्ड और छत्र उठा लिये गये, कोलाहल होने लगा, शस्त्र ले लिये गये, सेनाएँ हाथोंसे प्रहार करने लगी, क्षुब्ध कर देनेवाली सात सेनाएँ निकली, एफमें एक अक्षौहिणी सेना थी। भरतेश्वर और बाहुबलि, दोनों ही, निकट पहुँचे, दोनों सेनाएँ भी। आमने-सामने वजपटोंपर ध्वज देकर। घोड़ोंसे घोड़े, महागजोंसे महागज, योद्धासे योद्धा, महारथोंसे महारथ ॥१-९॥ __ घता-बढ़ रहा है हर्ष जिनमें, कंचुक और कवचसे विशिष्ट ऐसी दोनों सेनाएँ, युद्ध में हाँक देती हुई, एक-दूसरे को ललकारती हुईं, देवासुर सेनाओंकी तरह एक-दूसरेसे भिड़ गयीं ॥१०॥
[८] भरतेश्वर और बाहुबलिकी सेनाएँ भिड़ गयीं, कोलाहल होने लगा, रथ हाँक दिये गये। हाथी प्रेरित किये जाने लगे। लगातार अस्त्र छोड़े जाने लगे। जीर्ण जोते (रथोंकी ) कट गयीं, धुरे टुकड़े-टुकड़े हो गये, नितम्ब कद गये, उर टुकड़े-टुकड़े हो गये, भुजाएँ कट गयीं, सिर गिरने लगे, कन्धे काँपने लगे, कबन्ध नाचने लगे। गजवन्तोंके प्रहारसे योद्धा छिम-भिन्न हो गये, भटोंमें धक्का-मुक्की होने लगी। प्रतिप्रहारसे गजघटा धरतीपर गिरने लगी। ध्वजपट गिरने
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पउमचरिड
ससुमूरिय-चूरिय- हबराहूँ। दकषष्ट्रिय-लोहिय-रहयवरा ।।। रुहिरोलइँ सरे हि बिहावियाई। णं वे नि कुसुम्मे हि राधियाई ॥
पत्ता पेक्खें वि वलाई धुलताई महिहिं पढन्तई मन्तिाह भरिय म भण्डहों। किं वहिएण बराएं भव-संत्राएँ दिविजुलु वरि मण्डहीं ॥९॥
पहिलट जुज्झेवउ दिदि-मुझु। जल-जुझ पटीवर मल्ल-सुजल ॥३॥ जो तिणि मि जुम्मा जिणह अज्जु । तहाँ णिहि तहाँ स्यणहूँ तासु रनु॥२। तं णिसुणे वि दुक्खु णिपारियाइँ । साहणइ वे बि श्रोसारिया ॥२॥ लहु दिष्टि-अज्छ पारख तेहिं । जिण-णन्द-सुणन्दा-णम्दहिं ॥४॥ अवलोइड भर पदमु भाइ। कालासे कण-सइलु पाई ॥५ अस्थि-सियायम्भ विहाइ दिदि। णं कुवलय-कमल-पविन्द घिहि ॥६॥ पुण जोहड वाहुबकीसरेण । सरें कुमुय-सपद् गं दिणयरेण ॥७॥ अवरामुह-हंटामुह-मुहाई। णं वर-वहु-धयण-सरोरुहाई ॥८॥
। घत्ता उवरिलियएँ विसालएँ भिडि-करालएँ हैडिम दिहि पजिय । णं गव-नोवणइत्ती चञ्चल-चित्ती कुलबह इजएँ तज्जिय ॥९॥
[१०] जं जिणें वि पा सकिउ दिहि-जुज्झु । पारख त्यण सलिस-सुन्छु ||१|| जलें पाट्ट पिहिमि-पोयाय-परिन्द । णं माणस-सरवरें सुर-नाइन्द ॥२॥ पश्यन्तरें महि-परमेसरेण । श्रादोहे वि सलिलु समच्छरेण ॥६॥ पमा शलक सहोयरासु । णं वेल समुई महिहरासु ॥४॥ छुद्ध वाहुबलिहें बच्छयल पत्त । गिन्मच्छिय असइ च पुणु भियत्त ॥५॥
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संधि
और मुड़ने लगे । महारथ चकनाचूर किये जाने लगे, हयवर चूर होकर लोटने लगे। तीरोंसे छिन्न-भिन्न और रक्तरंजित, दोनों सेनाएँ मानो कुसुम्भीरंग से रंग गयीं ॥१-८||
पत्ता - सेनाओंको नष्ट होते और धरतीपर गिरते हुए देखकर मन्त्रिश्रोंने रोका कि मत लड़ो, बेचारे योद्धाओंके बसे क्या ? अच्छा है यदि दृष्टि-युद्ध करो ||९||
[९] पहले दृष्टियुद्ध किया जायें, फिर जलयुद्ध और मल्लयुद्ध । जो तीनों युद्ध आज जीत लेता है, तो उसकी निधियों, उसके रत्न और उसीका राज्य । यह सुनकर, दोनों सेनाएँ बड़ी कठिनाई से हटायी गयीं। उन्होंने शीघ्र ही दृष्टियुद्ध प्रारम्भ किया, ( जिननन्दा और सुनन्दाके पुत्रोंने )। पहले भरतने अपने भाई को देखा, मानो कैलासने सुमेरु पर्वतको देखा हो । उसकी काली, सफेद और लाल दृष्टि ऐसी लग रही थी मानो कुवलय कमल और अरविन्दोंकी वर्षा हो । उसके बाद बाहुबलिने देखा, मानो सरोवरमें कुमुद-समूहको दिनकरने देखा हो । उनके ऊपर-नीचे मुख ऐसे जान पढ़ते थे मानो उत्तम वधुओंके मुखकमल हों ॥१८॥
घत्ता - भौंहोंसे भयंकर ऊपरकी विशाल दृष्टिसे नीचे की दृष्टि पराजित हो गयी, मानो नवयौवनवाली चंचल चित्त कुलवधू सासके द्वारा डाँट दी गयी हो ॥९॥
५३
[१०] जब भरत दृष्टि-युद्ध न जीत सका, तब क्षणार्ध में जलयुद्ध प्रारम्भ कर दिया गया। पृथ्वीका राजा भरत और पोदनपुरका राजा बाहुबलि दोनों जलमें घुसे, मानो मानस सरोवर में ऐरावत गज घुसे हों। इसी बीच, धरती के स्वामीने ईर्ष्या के साथ पानीको हिलाया और भाई पर धारा छोड़ी, मानो समुद्रको बेला महीधर पर छोड़ी गयी हो। वह धारा शीघ्र ही बाहुबलिके वक्षस्थल पर पहुँची, और असती श्री की
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पडमचरित
परचिय(?) वर तोय सुमार-धवल । णं णहें तारा-पिउरुम्द बहल ॥६॥ पुणु पच्छा पाहुवलीसरण। आमल्लिय सलिल-अमलेगा ॥७॥ उडाइय चल-णिम्मल-ता। णं संचारिम मायास गा ॥८॥
घत्ता मोहटिङ भरहेसर थिउ मुह-कायर गरुअ-रहाल लइया । सुरवात-नियम विर- भागुबगुपचइयउ ॥९॥
जंजिण विण सक्किड सकिल-झुन्छ। पारधु पडीवउ मल्ल-जुन्छ ॥३॥ भावील-विकच्छउ घल-महल। अक्वाडएँ जाइँ पट्ट मल्ल ॥२॥ श्रोवग्गिय पुणु किय पाहु-सद भिडिय सुबन्त-तियन्स सह ॥३॥ बहु-बन्धहि हुकर-कत्तरीहि ।। विग्णाणहि करणहि मामहि ॥४॥ सहुँ भरहें मुहरु करवि वाम् । पुणु पच्छ दरिसिउ णियय-यामु ||५|| 'उच्चाइड उभय-करहि गरिन्तु ।। सकेण व जम्मणे जिण-वरिम् ॥६॥ पत्थन्सर वाहुवलीसरासु । आमेलिट देव हि कुसुम-वासु ७॥ कित कलयत साहणे विजउ घुटू । णरणाहु विलक्षीहूड सस ॥४॥
पत्ता चक्र-स्यणु परिचिन्तड उपरि घत्तिउ घरम-रेहु से पश्चिद । पसरिय-कर-णिउहम् दिणयर-विम्चे णाई मैरु परिमश्रित ॥९॥
[ २ ] जं मुकु चा चक्केसरेण चिन्तित वाहुबलीसरेण ॥ 'किं पहु अकालमि महिहि अजु । णे णं विगाथु परिहरमि रक्षु ।।२।। रमही कारण किज भजुसु । धाएवउ भाएक वणु पुसु ॥३॥
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चतस्यो संधि
तरह अपमानित होकर शीघ्र ही लौट आयी। उसके वक्षस्थल पर जलके तुषार धवल कण ऐसे मालूम हो रहे थे मानो आकाशमें प्रचुर तारा समूह हो! फिर बादमें बाहुबलीश्वरने जलकी धारा छोड़ी, मानो चंचल निर्मल तरंग ही हो, भानो आकाशगंगा ही संचारित कर दी गयी हो ॥१-८)
धत्ता-भरतेश्वर हट गया । भारी लहरले आक्रान्त वह अपना कायरमुख लेकर रह गया, उसी प्रकार जिस प्रकार, कामकी घोडासे व्यथित, विराहकी ज्वालासे भग्न खोटा संन्यासी ॥२॥
[११] जब भरत जलयुद्ध नहीं जीत सका तो उसने शीघ्र ही मल्लयुद्ध प्रारम्भ किया। कसकर लंगोट पहने हुए दोनों ही बलमें महान् थे, अखाड़े में जैसे मल्लोंने प्रवेश किया हो, ताल ठोकते हुए उन्होंने आक्रमण किया, मानो सुबन्त तिकुन्त शब्द आपस में भिड़ गये हो । बाहुबलिने बहुबन्ध, दुक्कुर, कर्तरी, विज्ञान करण और भामरीके द्वारा, भरतके साथ खूब देर तक व्यायाम कर, फिर यादमें अपनी शक्तिका प्रदर्शन किया। दोनों हाथोंसे नरेन्द्रको उठा लिया जैसे इन्द्रने जन्मके समय जिनवरको उठा लिया था। इसके अनन्तर देवोंने बाहुबलीश्वरके ऊपर कुसुम वृष्टि की । सेनामें कोलाहल होने लगा। विजयकी घोषणा कर दी गयी । नरनाथ अत्यन्त व्याकुल हो उठा ॥१-८||
धत्ता-भरतने रत्नका चिन्तन किया और उसे बाहुबलिके ऊपर छोड़ा, घरम शरीरी वह, उससे बच गये, (ऐसा लग रहा था), जैसे अपनी प्रसरित किरण समूहसे युक्त दिनकरने मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा की हो ॥२॥ ___[१२] जब चक्रेश्वरने चक्र छोड़ा, तब बाहुबलीश्वरने सोचा कि मैं प्रभुको आज धरती पर गिरा दूं, नहीं नहीं, मुझे धिक्कार है, मैं राज्य छोड़ देता हूँ। राज्यके लिए अनुचित किया जाता
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७१
पउमचरिउ
किं आएं साइम परम- मोक्लु ।
परिचिन्तेंवि सुइरु मणेश एम । 'मडु तणिय पिहिमि हुँ मुझें माय
जहिँ एटम अचलु भणन्तु सोक्खु ॥ ४ ॥ णु पवित्र गरादि डिम्भु प्रेम ||५|| सोमप्पहु कैर करेद्र राय ' ॥ ३३३
I
सुणिसहल करेंवि जिणु गुरु भणेवि । थिउ प मुट्ठि सिरें कोट देवि ॥ ७ ॥ सुलुगिरि ने सरि ॥८
ओलम्पिक
र
घत्ता
बेहि सु बिसाह वेसको जाहि अहि-विष्टिय वम्मीयदि । खविण मुकु भारत मरण-विवार णं संसारही मोहिं ॥ ९ ॥
["]
एस्थन्तरं केवल गाण-वाहु | तलोक-पियाभह जग-जणैरु | थो हि दिवसेंहिं महेसरो वि । थोक्तुम्गीरिय गुरु-पुर भाइ । वन्देष्पिणु सविह धम्म-पालु | 'बाहुबलि भडारा सुह - णिद्दाणु । तं पिसुर्णेवि परम-जिणेसरेण | 'अवि ईसीसि कसाउ तासु ।
कइलासें परिडि रिसहाहु ॥१॥ समर विस गणुस पारुि ॥२॥ तहाँ बन्दण- हतिऍ भाउ सो वि ॥ ३ ॥ परलीय-मूहको पाइँ ॥४॥ पुणु पुच्छिउ तिहुवण- सामिसालु ॥५॥ के कज्जे अज्जु ण होइ णाणु' ॥ ३ ॥ वारि दिन् मासन्वरेण ॥ ७ ॥ जं खेसे मुहारएँ कि शिवासु ॥ ८ ॥
घन्ता
जड़ मरहों जि समति तोकिं चपि महँ चलणेंहिँ महि-मण्डलु । उसी एम्बइयर तेण ण पावइ केवलु' ||९||
एकसाएं
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रथो संधि
हैं, भाई, बाप और पुत्र को मार दिया जाता है। इससे क्या, मैं मोक्षकी साधना करूँगा ? जहाँ अनन्त और अचल सुख प्राप्त होता है । बहुत देर तक मनमें यह विचार करनेके बाद बाहुबलिने नराधिपको बच्चेकी भाँति रख दिया और कहा, "हे भाई, तुम मेरी धरतीका भी उपभोग करो, हे राजन् ! सोमप्रभ भी आपकी सेवा करेगा।" इस प्रकार उन्हें अच्छी तरह निःशल्य कर, जिनगुरु कहकर, पाँच मुट्ठियोंसे केश लोंच करके वह स्थित हो गये, एक वर्ष तक अवलम्बित कर, सुमेरु पर्वतकी तरह अकस्पित और अविचल ||१८||
घसा - बड़ी-बड़ी लताओं, साँपों, बिलुओं और वामियोंने उन्हें अच्छी तरह घेर लिया, मानो संसार की भीतियोंने ही, कामको नष्ट करनेवाले, परम आदरणीय बाहुबलिको एक क्षणके लिए न छोड़ा हो ||२९||
[१३] इसके अनन्तर केवलज्ञान है बाहु जिनका, ऐसे ऋषभनाथ कैलास पर्वत पर प्रतिष्ठित हुए । त्रिलोकके पितामह और जगत्पिता का, समवशरण, गण और प्रातिहार्य के साथ। थोड़े ही दिनों के बाद, भरतेश्वर भी उनकी वन्दनाभक्ति करने के लिए आया । गुरुके सम्मुख स्तोत्र पढ़ता हुआ ऐसा शोभित हो रहा था, मानो परलोकके मूलमें इहलोक हो। दस प्रकारके धर्मका पालन करनेवाले उनकी बन्दना कर, फिर उसने त्रिभुवन स्वामिश्रेष्ठसे पूछा, "हे आदरणीय, शुभनिधान बाहुबलिको किस कारण आज भी केवलज्ञान नहीं हो रहा है ?" यह सुनकर परमेश्वरने दिव्यभाषामें कहा - "आज भी ईपत् ईर्ष्या कपाय उनके मन में है कि जो उन्होंने तुम्हारी धरती पर निवास कर रखा है ॥१-८॥
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धत्ता - जब मैंने अपनी धरती भरतको समर्पित कर दी, तय मैंने अपने पैरोंसे उसकी धरती क्यों चाप रखी है ? उनमें यह
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पउमचरित
[1 ] सं क्यणु सुणे वि गउ भरहु तेत्थु । बाहुबलि-भारउ अचलु जेरधु ॥ १॥ सन्वङ्गु पडिउ चलणहि तासु। 'सज सणिय पिहिमि हउँ तुम्ह दासुर विण्णवह समावइ एम जाम। चड़ घाइ-कम्म गय खयहाँ ताम ॥३॥ उपपणउ केवल-णाणु विमलु। थिउ दंहु खणई दुख-धवल ॥१॥ पउमासणु भूसणु सेय-चमरु। भा-मण्डलु एकु कम पवरु ॥५॥ प्रस्थक्कर शाट -णिका
-गलित बास धोहि दिवसहि तिहुअण-अणारि । णासिय घाइय-कम्म वि चयारि ॥७॥ भट्टविह-कम्म-वन्धण-विमुक्छु । सिबउ सिखालउ णवर दुक्क ८ ॥
पत्ता रिसड्डु वि गउणिवाणहाँ साणय-याणही भरह पि णिवुह पत्तः । भक्ककित्ति थिङ उजाह दणु दुग्गेज्म रज्जु स ई भु अन्नउ ॥९॥
५. पञ्चमो संधि
अरषद् गोसम-सामि सुणि सेणिय उप्पत्ति
तिहुमण-लद्व-पसंस हुँ । स्वस-वाणर-बसहुँ ॥१॥
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पक्षमो संधि
कषाय है, इसीलिए प्रत्रज्या टेनेके बाद भी वे केवलज्ञान नहीं पा सके ॥९॥
[१४] यह वषन सुनकर भरत वहाँ गया जहाँ आदरणीय बाहुबलि अचल स्थित थे। उनके घरणोंमें साग गिरकर, उन्होंने कहा, "धरती तुम्हारी है, मैं तुम्हारा दास हूँ।" जबतक भरत यह निवेदन करता है और क्षमा माँगता है, तबतक बाहुबलिके चार घातिया कर्म नष्ट हो गये। उन्हें विमल केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। आधे क्षणमें ही उनकी देह दुग्धधरल हो गयी। पद्मासन अलंकार श्वेतचमर एक भामण्डल और प्रवर छन्न उत्पन्न हो गये । सहसा देवसमूह वहाँ आ गया क्योंकि तीर्थकरके पुत्र बाहुबलि केवली हुए थे। थोड़े ही दिनों में त्रिभुवनके शत्रुने चार घातिया कर्मका नाश कर दिया। और इस प्रकार, आठ कर्मोके बन्धनसे विमुक्त होकर सिद्ध हो गये और सिद्धालय में जा पहुँचे ॥१-८॥
घत्ता-ऋषभनाथ भी शाश्वत स्थान निर्वाण चले गये। भरतेश्वरको भी वैराग्य हो गया । दनुके लिए दुझि अयोध्या नगरीमें अर्ककौति प्रतिष्ठित हुआ। यह स्वयं राज्यका भोग करने लगा ॥२॥
पाँचवीं सन्धि गौतम स्वामी कहते हैं, "श्रेणिक, तीनों लोकोंमें प्रशंसा पानेवाले राक्षस एवं वानर वंशकी उत्पत्ति सुनो।"
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पउमचरित
तहि ज भउमहि वहब कालें । उच्छाणे णस्वर-तर-जाले ॥१॥ विमलेकबुकचस उप्पण्ण: । धरणीधरु सुरूव-संपप्पड ॥२॥ तासु पुत्तु पामें तियसअउ । पुणु जियसत्तु रणगणे दुजउ ॥३॥ तामु विजय महयि मणोहर। परिणिय थिर-मालर-पओहर ||४|| साई गम्भं भव-भय-खग्र-गारउ । उप्पजइ सुब अजिय-मडारउ ॥५॥ रिपहु जैम वसुहार-णिमिन्नउ । सिहु जम मेरुहि अहिसित्तउ ॥६॥ रिसटु जेम घिउ चालक्कीलप। रिस? जेम परिणाविउ लीलए ॥७॥ रिसट्ठ जेम रज्जु इ भुन्त। एक-दिवस णदणवशु जन्सें ॥॥
घत्ता
पवणुद्धउ सरु दिट्ठ जाई विलासिणि-कीउ
पफुधिय-सयवत्तउ । उकिमय-करु णचन्तउ |॥२॥
सो जि महासरु तहि ज वगाला। दिह जिणाहिवण तालए ॥॥ मलिय-दल विच्छाय-सरोरुहु । णं दुजण-जणु भोल्लिय-मुहु ॥३॥ तं णिएवि गउ परम-विसायहीं। 'कइ एह जिगह भीयहाँ जायहाँ ॥३॥ जो जीवन्तु दिट्ट पुब्वण्हएँ। सो अङ्गार पुजु भयरहए ॥४॥ जो णरवर-छपरहि पविजह । सो पहु मुउउ अवार णिज्जद ॥५॥ जिह समझाएं एड पङ्कय-वणु। तिह जराय, घाइज जोवणु ॥६॥ जीविउ जमेण सरीरु हुआसे। सत्तई कालें रिद्धि विणासें ॥ult चिन्वह एम भटारड जावे हि कोयम्सियहि विवोहिउ ताहि ॥
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पञ्चमो संधि [१] बहुत समय बीत जानेपर अयोध्यामें राजाओंकी वंशपरम्पराका वृक्ष उच्छिन्न हो गया। तब विमल इक्ष्वाकुवंशमें सौन्दर्यसे सम्पूर्ण धरणीधर नामका राजा हुआ । उसके दो पुत्र हुए, एक नामसे त्रिरथंजय और दूसरा जितशत्रु, जो युद्ध प्रांगण में अजेय थे । उसकी विजया नामकी सुन्दर स्थूल बेलफलके समान स्तनांवाली पत्नी थो । उसके गभसे भवभयका नाश करनेवाले आदरणीय अजित जिन उत्पन्न होंगे। ऋषभनाथी तरह जो रत्नवृष्टि के निमित्त थे। उन्हीं के समान सुमेरु पर्वतपर अभिषिक्त हुए | ऋषभकी भाँति बालक्रीड़ामें स्थित थे, ऋषभके समान ही उन्होंने लीलापूर्वक विवाह किया। ऋषभके समान उन्होंने स्वयं राज्यका उपभोग किया, एक दिन नन्दनवनके लिए जाते हुए ॥८॥
पत्ता-हवासे चंचल एक सरोवर देखा, जिसमें कमल खिले हुए थे, वह ऐसा लग रहा था मानो विलासिनी-लोक ही हाथ ऊँचे किये हुए नाच रहा हो ॥२॥
[२] उसी सरोषरको उसी वनालयमें, जब जिनाधिपने सायंकाल देखा तो उसके कमल कुम्हला चुके थे, उसके दल मुकुलित हो गये थे, जैसे अपना मुख नीचा किये हुए दुर्जनजन ही हों । यह देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ--"लो लो प्रत्येक जन्म लेनेवाले जीवकी यही दशा होगी। पूर्वाहमें जो जीवित दीख पड़ता है, वह अपराष्ट्र में राखका ढेर रह जाता है, जिस नरश्रेष्ठको लाखों लोग प्रणाम करते हैं, वहीं प्रभु मरनेपर स्मशानमें ले जाया जाता है। जिस प्रकार सन्ध्यासे यह कमलवन, उसी प्रकार जरासे यौवन नष्ट होता है । यमसे जीव, आगसे शरीर, समयसे शक्ति, विनाशसे ऋद्धि नाशको प्राप्त होती है । जब आदरणीय अजिस जिन यह सोच ही रहे थे कि लौकान्तिक देवोंने आकर उन्हें प्रतिबोधित किया।॥८॥
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८०
विह-देव-शिकाएं जिणु पम्बइ तुरन्तु
पउमचरिउ
घरता
आएं कलि-मक- रहिच । महिं सहासहि सहित || ९ ||
[ ३ ]
fie ugland goRETI रिसg जेम पारणउ कपि । सुक्क आशु आकरिउ निम्मलु । अट्ट त्रि पाडिहेर समसरणउ | गगहर व लक्खु वर-माहुहुँ । त ि काले जियसन्तु सहायक । जयसायरों पुसु सुमहरु | भरहु जेम सहुँ वहिँ णिहाणहि
NER
घुरुद्वार ॥१॥ चउदह संगच्छर विहरेपणु ॥ २ ॥ पुणु उप्पण्णु णाशु सहों केवलु ॥३॥ जिह रिसइद्दों सिंह देवारामण ॥४॥ कम्मह-मल-सुिम्मण-ब हुहुँ ॥ ५ || तियस अयहाँ पुत्तु जयसाग्रह ||६ ॥ णाम सय सयल-चक्केसरु ॥७॥ स्वर्णेहि चउदह - विहहिं महानहिं ॥८॥
घत्ता
सयक - पिडिमि- परिपालु जीउ व कम्म वरुण
बुट्टुतुरमुख
छायाँ
पसइ सुष्णारण्णु महावइ । दुक्खु दुक्खु हरि दभिउ परिन्दे । ताम महा-सरु दीसह स-कमल । हि कथ मण्डयें उप्पलानि । सुमेल ताड़ों जायें हि । धाय सुलोयणा बलवन्तीं । किर सहुँ सहियहि दुहू सरवह।
एक्क-दिवसें चटुल पिड अवइवि तुर ॥ ५ ॥
[ * ]
गडपणार्सेवि परिछम - भायहीं ॥१॥ जहिं कफि काक हों हियत्र पढ ॥ २ ॥ णं मबरहूड परम जिजिन्हें ॥ ३ ॥ चल -: ह-वीई तरफ़ मनुर जलु || सलिलु पियतुरङ्ग पहाणं यि ॥ ५॥ शिकयस सम्पाइय ताहि ॥ ६ ॥ वहिणि सहायरि दसग्रणेतहीं ॥७॥ दीसह ताम सवय पिहिमीसरु ॥ ८ ॥
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पञ्चमो संधि घत्ता-चार निकायोंके देषोंके आनेपर कलियुगके पापोंसे रहित अजित जिनने तुरन्त दस हजार मनुष्योंके साथ दीक्षा प्रहण कर ली ||
[३] छठा उपवास करनेके अनन्तर आदरणीय अजित ब्रझदत्तके घर पहुंचे। ऋषभनाथ के समान आहार ग्रहण कर और चौदह वर्ष तक विदार कर उन्होंने अपना निर्मल शुक्लध्यान पूरा किया । फिर उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। आठ प्रातिहार्य और समवसरण, तथा जिस प्रकार ऋषभ के लिए देवागमन हुआ था उसी प्रकार इनके लिए भी हुआ। गणधर और कामरूपी मल्लका विनाश करनेवाले बाहुओंसे युक्त नौ लाख साधु (उनके शा । इसी चपसार 'अपसागरका, जो शिंजयका पुत्र और जितशत्रुका भाई था, सगर नामका सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। भरतके समान ही नौ निधियों और चौदह प्रकार के मुख्य रत्नोंसे युक्त था ॥१-८||
घत्ता--एक दिन समस्त धरसीका पालन करनेवाले उसे (सगरको) उनका चंचल घोड़ा उसी प्रकार अपहरण करके ले गया, जिस प्रकार जीवको कर्म ले जाता है ।।९।।
[४] वह दुष्ट घोड़ा, चंचल कान्तिघाले पश्चिम भागमें भाग फर एक सूने जंगलबाली महादवीमें प्रवेश करता है। उस अटवीको देखकर कलिकालफा भी हृदय दहल उठता था। राजाने बड़ी कठिनाईसे घोड़ेको वशमें किया, जैसे जिनेन्द्रने कामदेवको वशमें किया हो। इतने में उसे कमलोंसे युक्त महासरोवर दिखाई देता है, जिसकी तरंगें चंचल थीं, और जल लहरोंसे भंगुर था। वहाँ लतामण्डपमें उतरकर, पानी पीकर और बोडे. को स्नान कराफर जैसे ही वह सन्ध्याकालका थोड़ा-सा समय बिताता है, वैसे ही तिलककेशा वहाँ आती है, बलयान सुलोचन की कन्या और सहस्रनयनकी सगी बहन । वह सहेलियोंके साथ
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पउमचारेट
घत्ता विद्धी काम-सरेहि एकु वि पर ण पयः । शाह संयम्बर-माल दिवि णिवहाँ आवहा ॥॥
केण वि कहिउ गम्पि सहसक्खहीं। 'कोहलु किं एउ ण लक्खहों ॥३॥ एकु अणङ्ग-प्रमाणु जुत्राणउ । उ जागहुँ कि पिहिमिह गण ॥२॥ तं पक्खेंवि सस तुम्हहँ केरी। काम-गहेण हुभ विवरेरी' ॥३॥ तं णिसुणेवि राउ रोमचिउ। अम्मन्तरे आणन्दु पश्चिङ ॥३॥ 'मिसियहि मासि जं धुतर। ऍउ तं समरागमणु णिरुत्तउ' ॥५॥ मणे परिचिन्स नि पाफुल्लाणणु गउ तुरन्तु नहि दससयलोयणु ।।६।। से चउसटि-युरिसमक्खण-धरु । जाणेवि खबरु सयल-चकेसरु ||७|| सिर करयल करेवि जोकारित। दिण्ण कपण पुणु पुरै पइसारित ॥७॥
पत्ता
लीकएँ भवणु पहा विजाहर-परिवेषिउ । तुसे घि दिण्णा तेण उसर-दाहिण-सेविज ॥९॥
तिलकेस कएप्पिणु गउ सपह। पइसरिट अउम्झाउरि-णयह ।।१। सहसक्नु विजणण-वहरु सरैवि । विजाहर-साहणु मेलवेंवि ॥२॥ गड उपरि तासु पुण्णधणहों। जें जीविउ हरिद सुलोचणहो ॥३॥ रहणेडरचकवाल-जयरें। विणिवाइउ पुपणमेहु समरें ॥४॥ जो तोयदवाहणु तासु सुउ । सो रणमुहें का वि कह वि ण मुड ॥५ गउ हंस-विमाणे दृष्ट्व-मणु । जहि अजिय-जिणिन्द-सभोसरणु पर मम्मीस दिषण अमरेसरण । स-बइर-वितन्तु कहिङ णरेंण ॥७॥
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पश्चमी संधि
सरोवरपर पहुँचती है कि इतने में उसे पृथ्वीश्वर सगर दिखाई देता है ॥१-८॥
पत्ता वह कामबाणोंसे आहत हो जाती है और एक भी पग नहीं चल पाती। वह राजाको इस प्रकार देखती है जैसे स्वयंवरमाला ही डाल दी हो ॥९॥
[4] किसीने जाकर सहस्रनयनसे कहा, "क्या आपने यह कुतूहुल नहीं देखा, एक कामदेयके समान युवक है, नहीं मालूम किस देशका राजा है, उसे देखकर तुम्हारी बहन काममहसे पीड़ित हो उठी हैं यह सुनकर सहवनयन बुलाकर हा गया,
और भीतर ही भीतर आनन्दसे नाच उठा, ज्योतिषियोंने जो कहा था, निश्चय ही यह उसी राजा सगरका आगमन है। यह सोचकर उसका चेहरा खिल गया। वह तुरन्त वहाँ गया, जहाँ सगर था। उसे चौंसठ लक्षणोंसे युक्त पूर्ण चक्रवर्ती राजा सगर आनफर सिरपर हाथ ले जाकर, सहस्रनयनने जयकार किया। उसे कन्या देकर नगरमें प्रवेश कराया ॥१-८॥ ___ छत्ता-विद्याधरोंसे घिरे हुए उसने भवनमें लीलापूर्वक प्रवेश किया। सन्तुष्ट होकर उसने उच्चरन्दक्षिण श्रेणी उसे प्रदान की ।।२।।
[६] सगर तिलककेशाको लेकर चला गया। उसने अयोध्या नगरीमें प्रवेश किया। सहस्रनयनने भी अपने पिताके वैरकी याद कर, विद्याधर सेनाको इकट्ठी कर, उस घूणेघनके ऊपर आक्रमण किया, जिसने उसके पिता सुलोचनके प्राणोंका अपहरण किया था। रथनूपुरचक्रयालपुर में युद्ध में पूर्वमेघ मारा गया। उसका पुत्र जो तोयदवाहन था, वह युद्धके बीच किसी प्रकार नहीं मरा । वह सन्तुष्ट मन अपने हंसविमानमें बैठकर वहाँ गया, जहाँ अजित जिनेन्द्रका समवसरण था। इन्द्रने उसे अभय वचन दिया। उसने शत्रुसहित अपना सारा
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पडमचरित रेरित अणुपरछऍ लग्ग तहों। गब पासु पदीषा णिम-भिवहीं ॥६॥
पत्ता जोबदषाणु देव पाण एविणु पढ्छ । जिम सिवाकऐं सिद्धु तिम समसरणे पाइठ्ठल ॥९॥
तं णिसुणेवि पटु शत्ति पकिस्तउ । णं खट-हारु हुभासणे चित्त ॥1॥ 'मह मह जइघि साकहाँ । निवरण मूलाधा गाहा पइसा जइ विसरण सुर-सेवहूँ। दसबिह-भावममासिय-वेवहूँ ॥३॥ पाहसद अरवि सरणु थिर-थागहुँ । म बिहहुँ विन्तर-गिम्मागहुँ ॥४॥ पइसह अाइ थि सरण ज्वारहुँ। जोइस-वेवहुँ पम्च-पमारई ॥५॥ कप्पामगहुँ बह वि अहमिन्दहुँ। वरुण-पवण-वाइसवण-सुरिन्दहुँ । माह तो वि महु तोगदवाहणु' पइज करें वि गड दससमकोयषु ॥७॥ पेक्षेवि माणस्थम्भु जिणिन्दहों। मरकर माणु विगलित गरिन्यहो ॥४॥ सो वि गम्मि समसरण पाइहा। घिणु पणवेप्पिणु पुर जिविस ॥९॥ विशि मि मनन्तराइ प्रबरियई। विदिमिजणण-माइराई परिहस्यई.
घत्ता मीम सुभीमहि ताम अहिणव-गहिय-पसाहणु। पुष्प-भवन्तर गेहें भवपिउ पणवाहणु ॥१॥
पमणा मोमु भीम-भहमाणु। 'तहे माटु अपा-भवन्सर अन्दा ॥१॥ जिहि घिस तिह एवहि मि पियार'! चुम्बिउ पुणु वि पुणु वि सयधार॥२॥ 'ला कामुक-विमाणु भषियारे । लड रक्ससिय विश्व सहुँ हारें ॥३॥ भाणु वि रमणायर-परिपश्चिम। दुप्पइसार मुरेति मि बधिय ॥५॥
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पनमो संधि वृत्तान्त उसे बताया। उसके पीछे जो दुश्मन लगे हुए थे, वे लौटकर अपने राजाके पास गये ||१-दा।
पत्ता-उन्होंने कहा--"देव, तोयदवाहन अपने प्राण लेकर भाग गया, वह समबसरगमें उसी प्रकार चला गया है जिस प्रकार सिद्धालयमें सिद्ध चले जाते हैं" ||२|
[७] यह सुनकर राजा सहस्त्रनयन क्रोधसे जल उठा, मानो आगमें तृणसमूह डाल दिया गया हो। "मर-मर, वह यदि पातालमें भी जाता है जो विषधरभषनके मूल और मेघजालसे युक्त है। यदि वह इन्द्रकी सेवा फरनेवाले दस प्रकारसे भवनवागी देवोमी माग में प्रवेश नगा है, यदि वह स्थिर स्थानवाले व्यन्सर देवॉफी शरणमें जाता है, यदि वह दुर्वार पाँच प्रकारके ज्योतिषदेवोंको शरणमें जाता है, कल्पवासी देव आहमेन्द्र, वरुण, पवन, वैश्रवण और इन्द्रकी झरणमें जाता है, सो भी यह मुझसे मरेगा, यह प्रतिक्षा करके सामनयन यहाँसे कूच करता है। जिनेन्द्रका मानस्तम्भ देखकर, राजाका मान मत्सर गल गया । उसने भी जाकर, समवसरणमें प्रवेश किया, जिनभगवानको प्रणाम कर सामने बैठ गया। वहाँ दोनोंके जन्मान्तर बताये गये, दोनोंसे पिताका और छुड़वाया गया ॥१-१०॥
घता-तब अभिनय प्रसाधनसे युक्त सोयदवाहनका भीम सुभीमने पूर्वजन्मके स्नेहके कारण आलिंगन किया ॥२०॥
[८] भयंकर योद्धाओंका भंजन करनेवाले भीमने कहा, "तुम जन्मान्तर में मेरे पुत्र थे। जिस प्रकार उस समय, उसी प्रकार इस समय भी तुम मुझे प्यारे हो।" उसने उसे बार-बार सौ बार चूमा । विना किसी विचारके यह कामुक विमान लो,
और हार के साथ, यह राक्षसविद्या भी, और समुद्रसे घिरी हुई, जिसमें प्रवेश करना कठिन है, जो देवदाओंकी पहुँचसे
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पउमरित
तीस परम जोयण विस्थिग्णी। सका-यरिं तुज्नु म. दिग्णी ॥५॥ अण्णु वि एक-वार छज्जोयम। लइ पायाळलक घणवाहण' ॥६॥ भीम-महामीमहुँ आपसे । दिण्णु पयाण मण परिमोसें ॥७॥ विमलकित्ति-विमलामल-मम्सिहिं । परिमित भवरहि मि सामन्तेहिं ॥४॥
धत्ता शारिधि पट्ट अविचल रज्जे परिहिउ । रक्खस-सही णाई पहिलउ कन्दु समुदिउ ।।।
[१] पहचँ का बल-सम्पत्तिएँ। पजिय-जिगहों गउ वन्दण-इतिएँ ॥१॥ तं समसरणु पईसह जाउँ हिं। सबरु वितहि जे पराइउ ताहि ॥२॥ इनिस मा दिदिमि-रिसाले। 'फा होसन्ति मधन्तें कालें ॥३॥ तुम्ह अहा वय-गुण-वता का तिश्पयर देव आइकम्ता ॥ से णिसुण मि कन्दप्प-वियारट । मागह-मासएँ कहइ मवारउ ।।५॥ 'मह बेहड केवल-संपणउ । एकु जि रिसह देउ उप्पण्णउ ।।६।। प. जेहन खण्ड-पहाणउ । भरह-णराहिउ एक्कु जि राणा || पई विण दस होसन्ति परेसर। मई विणु वावीस वि सिस्थकर |८|| पाय घसएव णव जि शारायण हर एयारह णन जि दसाणण ॥९॥ अण्णु वि पक्षणसहि पुराणई। जिण-सासणे होसन्ति पहाण,' ॥१०॥
धत्ता सोयदपाहणु साम भावे पुछउ वहन्तउ । दस-उत्तरें सपण भरहु जेम णिक्वन्तउ ।।३३।।
[..] णिय-णम्दणहों णिहय-परिवक्खहाँ । सका-णयरि दिष्ण महरक्खहों ।।१।। बहर्ष काले सासय-थायहों। अजिय भडारड गड णिवागहों ॥२॥ सयरहों सयल पिहिमि भुजाम्यहों। स्यण-गिहाणई परिपालाम्तहाँ ॥३॥
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परमो संधि वंचित है, ऐसी तीस परमयोजन विस्तारवाली लंकानगरी, मैंने तुम्हें दी। हे सोयदवाहन, एक और भी एक द्वार और छह योजनबाली पाताललंका लो।" इस प्रकार भीम और महाभीमके आदेशसे मनमें सन्तुष्ट होकर उसने प्रस्थान किया। विमलकीर्ति और विमलवाहन मन्त्रियों वथा दूसरे सामन्तोंसे घिरे हुए ॥२-८॥ - घत्ता-तोयदवाइनने लंकापुरीमें प्रवेश किया, और अविचल रूपसे राज्य में इस प्रकार प्रतिष्ठित हो गया जैसे राक्षसवंशका पहला अंकुर फूटा हो।
[९] बहुत दिनों बाद सेना और शक्ति से सम्पन्न होकर वह अजितनाथकी वन्दना भक्ति करनेके लिए गया । जैसे ही यह समवसरणमें प्रवेश करता है वैसे ही सगर यहाँ आता है। वह भगवानसे पूछता है, "हे स्वामी, आनेवाले समयमें, आपके समान वय गुणवाले अतिकान्त कितने तीर्थकर होंगे?" यह सुनकर कामका विदारण करनेवाले आदरणीय परम जिन मागध भाषामें कहते हैं, "मेरे समान-केवलज्ञानसे सम्पूर्ण एक ही ऋषभ भट्टारक हुए हैं, तुम्हारे समान छह खण्ड धरती का स्वामी नराधिप भरत, एक ही हुआ है। तुम्हें छोड़कर दस राजा और होंगे, मेरे बिना बाईस तीर्थकर और होंगे। नौ पलदेव और नौ नारायण, ग्यारह शिव, और नौ प्रतिनारायण । और भी उनसठ, पुराणपुरुष जिनशासनमें होंगे ॥१-१०॥
पत्ता-तब तोयदवाहन भावविभोर हो उठा और एक सौ दस लोगोंके साथ भरतकी तरह दीक्षित हो गया ।।१।।
[१०] प्रतिपक्षका नाश करनेवाले अपने पुत्र महारक्षको उसने लंकानगरी दे दी । बहुत समय होनेके बाद आदरणीय अजित जिन शाश्वत स्थान निर्वाण चले गये। रत्नों और निधियोंका परिपालन, और समस्त धरतीका उपभोग करते हुए
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पडमचरित
सठि सहास हुय घर-पुत्तहुँ । सयल-कला-विष्णाण-णिउस? ॥१॥ एक दिवसें जिण-भवण-णियासहौँ । धन्द्रण-हसिएँ गय कहलासह ।।५।। भरह-कियई मणि-कशण-माण ! अबीस मिनरदेनियण शा भणइ भईरहि सुख बियक्रमणु। करहुँ कि पि जिण-भषणहुँ रक्खणु ।।।। कठेवि गा भमाहहुँ पासें हिं। तं जि समस्थिङ भाइ-सहासे हि ।।
घत्ता दण्ड-स्यणु परिचितवि खोणि खणन्तु ममाडिड । पायालइरह प्याई वियव-उरस्थलु फाडिउ ।।९।।
[ ] ताखणे खोड जाउ बहि-सोयहाँ। धरणिन्दही सहास-का-दोयहाँ ॥१॥ भासीविस-दिट्ठिएँ णिवपत्तिय । सयस वि छारहों पुजु पसिष ॥२॥ कह वि कह विण वि दिहिहि पढिया। भीम-मईरहि थे उम्बरिया ॥३॥ दुम्मण दीण-वरण परियता । लहु सोय-णयरि संपत्ता ॥४॥ मन्तिहिं कहिउ 'कहवि सिह मिन्दही । जिह उम्मि ण पार गरिन्दहीं। ताम सहा-मण्ड मण्डिज । भासणु भासणेण पाहिज्जा ।। मेहलु मेहरूण भाक। हारे हार मछु मउगे ॥णा सयर पारिन्दासण-संकासाई। घइसणाहू वाणवह सहासा ॥४॥
घत्ता णावह आउल-चित्त सम्वत्थाणु विहावई । सठि सहास? माझे एकु वि पुतु ण भावह ॥१॥
[१] भीम-भईरहि ताम पझ्छा। णिय-णिय-आसणे गम्पि णिविठ्ठा।।। पुष्ट्रिय पुणु परिपाहिय-रो। 'इयर ण पसरम्ति कि फों ॥२॥ तेहि विणासमाई विष्ाय। तामरसाई व णिश्यगाय।।३।।
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राजा सगरके साठ हजार पुत्र हुए, जो समस्त कलाओं और विज्ञानमें निपुण थे । एक दिन वे कैलासके जिनमन्दिरोंके दर्शन करनेके लिए गये। भरतके द्वारा बनवाये गये मणि और स्वर्ण'मय चौबीस मन्दिरोंकी वन्दना कर अत्यन्त विचक्षण भगीरथ कहता है कि जिनमन्दिरोंकी रक्षाके लिए कुछ करना चाहता हूँ। गंगाको निकालकर मन्दिरोंके चारों ओर घुमा दिया जाये, इसका दूसरे हजारों भाइयोंने समर्थन किया ॥१-८।।
घत्ता-उन्होंने दण्डरलका चिन्तन कर, धरती खोदते हुप घुमा दिया, जैसे उसने पातालगिरिका विकट उरस्थल फाड़ दिया ॥९॥
[११] नागलोकमें उसी समय क्षोभ उत्पन्न हो गया। धरणेन्द्रके हजारों फन डोल उठे। उसने अपनी विषैली दृष्टिसे देखा उससे सब कुछ राखका डोर हो गया। भीम और भगीरथ किसी प्रकार उसकी दृष्टि में नहीं पड़े इसलिए ये दोनों बच गये। दुर्भन दीनमुख वे लोटे और शीघ्र ही साकेत नगर पहुँचे। तब मन्त्रियोंने कहा, "किसी प्रकार ऐसे रहस्यका उद्घाटन करो जिससे राजाके प्राण-पखेरून उड़े।" एक ऐसा समा मण्डप बनाया जाये जिसमें आसनसे आसन सटे हों, और मेखलासे मेखला लगी हो, हारसे हार, तथा मुकुट से मुकुट । सगर राजाके आसनके समान बैठनेके लिए बानबे हजार आसन बनाये जायें ।।१-सा
धत्ता-व्याकुल चित्त राजा सब स्थानको देखता है कि साठ हजार पुत्रों में से एक भी पुत्र नहीं आया है ॥१॥
[१२] इतने में भीम और भगीरथने प्रवेश किया। वे अपनेअपने आसनपर जाकर बैठ गये। तब राज्यका पालन करनेवाले भगीरथने पूछा, "किस कारणसे दूसरे पुत्र नहीं आये ? उनके बिना ये आसन शोभाहीन हैं, और हैं निर्धूत
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पउमचरिउ
संणिसुणेवि वयणु तहाँ मम्तिहिं । जाणाविउ परपण पडनिहिं ॥४॥
'हे वह थिय कुरूहों पईचा । वाहिणि पवाह जिम्बूदा ।
गय दिया कि एन्ति पढीया ॥ ५॥ परियन्ति का ते मुला ॥६॥ सुविणय- बालभाव संचरियहूँ || कह दीसन्ति विणासु ण भावड़ || ८ ||
घण-हिय विज्जु विष्फुरियई । जलम्बु र सुरचाषहूँ ।
घन्ता
भर- वाहुबलि रिस काल भुअ गिठिया ।
कर दीसन्ति पीवा उचाहि एकहि मिलिया ||९||
[१३]
जं द्दिरिसु समास दिष्णज । 'ते जे ते श्ररथाणु ण ढुक्का 1 लासरे हि जं अणुहुन्त । तं णिसुणेचि राउ सुद्धंगउ । मिकाले सामिय-सम्माहि दुक्खु दुक्खुवूरुज्झित्रेयणु । 'किं सोएं कि खन्धावारें ।
तं चषिषद भिण्ण्ड ||१|| फुड मह करउ पेसणु चुका || १ || महरहि-मीमहि कहि सि ॥ ३ ॥ पछि महद्दुमुब्व पणा ||४|| भिवद्दि जेम ण मेरि पायें हिं ॥५॥ उनि सब्बङ्गागय जेवणु ॥ ६॥ वरि पाचज्ज लेमि अवियारे ||७||
आयऍ छच्छिएँ बहु जुज्झात्रिय । पाहुणया इष बहु बोलाघिय ||८||
वत्ता
जो जो को वि जुत्राणु तासु तासु कुलद्धत्ती ।
इणि छेडछ जेम कवर्णे रेंण भूसी ॥१॥
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पामो संधि
शरीर कमलोंके समान ।” राजाके यह पचन सुनकर मन्त्रियोंने प्रच्छन्न उक्तियोंसे बताते हुए कहा, "हे राजन् , अपने कुलके प्रदीप वे, और दिन, जाकर क्या वापस आते हैं ? नदीके जो प्रवाह बह चुके हैं, मूर्ख उनके वापस आनेकी आशा क्यों करते हैं ? मेघोंका घर्षण, त्रिसुतका स्फुरण, स्वप्न और बालभावकी हलचल, जलबुद्बुद, तरंग और इन्द्रधनुष कितनी देर दिखते हैं, क्या इनका विनाश नहीं होता? ॥१-८
घत्ता-भरत बाहुबलि और ऋषभ काल रूपी नाग द्वारा निगल लिये गये। क्या एक साथ मिलकर अब अयोध्या में दिखाई देंगे॥९॥
[१३] मन्त्रियोंने संक्षेपमें जो उदाहरण दिया उससे चक्रवर्तीका सदय विदीर्ण हो गया । वह सोचता है, कि जिस कारणसे वे यहाँ दरबारमें नहीं आ सके उससे स्पष्ट है कि मेरा शासन समाप्त हो चुका है। अवसर मिलने पर, भीम और भगीरथने जो कुछ अनुभव किया था वह सब कह दिया। यह सुनकर राजा मूर्छित हो गया; जैसे पवनसे आहत होकर महावृक्ष धरती पर गिर पड़ा हो । उस अवसर पर उसके प्राणोंने, स्वामीके द्वारा सम्मानित अनुचरोंकी भाँति, उसे नहीं छोड़ा। बड़ी कठिनाईसे उसकी वेदना दूर हुई। पूरे शरीरमें चेतना आनेपर बह ठा। (वह सोचने लगा) शोक और सेनासे क्या ? मैं अधिकार भावसे प्रत्रज्या लेता हूँ ? इस लक्ष्मीने बहुतोंको लड़वाया है, और पाहुणय ( काल या अतिथि) की तरह यह बहुतोंके पास गयी है ! ॥१-८॥
पत्ता-जो-जो कोई युवक है, उसी उसी की यह कुलपुत्री है, यह धरती वेश्याकी तरह, किस-किसके द्वारा नहीं भोगी गयी ॥९॥
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पउमपरिव
[१४] पभणिउ मीम 'होहि दिए रज्महौँ । हउँ पुणु जामि यामि णिय-कहाँ 13 तेण वि वुत्तु 'प्याहिं वर मामि । छेनछह पर जि कहिय गउ भुमि ॥२ चत्तु मीमु मइरहि हकारिउ । दिपण पिहिमि वासणे वइसारिक ।।३।। आप्पुणु भाडु जम णिकयन्तउ। मत कति पुन पिस्नुा पनर ॥४॥ सा एसह विणिय-पडिबक्सहौं । रज़ करन्तहों तहाँ महरपणही ।। ॥ देवरक्खु उप्पण्णउ गन्दणु । परवइ एक-दिवसें गउ उववतु ॥६॥ कोलण-पॉहिहे परिमिउ णारिहि । पहाइ गहन्दुध सहुँ गणियारिहिया णियडिय तासु दि ितहि अवसरे । जहि भुउ महुयरु कमलम्भन्तर ।।८॥
घत्ता चिन्तिक 'जिह धुअगाउ रस-लम्पड्ड अच्छन्तड । शिह कामाउर सग्नु कामिणि-घयणासत्तउ' ॥९॥
गिय-मणे जाइ विसायहाँ जाउँ हिँ । सबण-साधु संपाहत तावे हि ॥१॥ सयल वि रिसि तियाल-जोगेसर । महकइ गमम दाइ वाईसर ॥२॥ सयल वि बन्धु-सत्तु-सममावा । तिण-कण-परिहरण-सहाघा ॥३॥ सयल वि जल-मल किय-हा। धीरतणेण महीहर-जेहा ।।। सयल बि णिय-तब-तेप दिणयर 1 गम्भीरतणेण स्यणायर ॥५॥ सपल वि घोर-चोर-तव-तत्ता। सयल वि सयल-सन-परिचत्ता ।।५।। सयस बि कम्म अन्ध-विवंसण । सयल वि सयल-जीव-मम्भीसणा।। सयल बि परमागम-परिमाणा। काय किलेसे केक-पहाणा ।।८॥
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पनमो संधि
[१४] उन्होंने भीमसे कहा, "तुम राज्यमें दृढ़ होओ मैं अब अपने कामके लिए जाता हूँ।" तब उसने कहा कि मैं भी परम्परा भग्न नहीं करूँगा, आपने इसे वेश्या कहा है, मैं इसका भोग नहीं फलंगा? सगरने भीमको लोन लिया. और भगीरथको चुलाया, उसे धरती दी, और आसन पर बैठाया, और स्वयं भरतके समान प्रत्रजित हो गया । तप करके उसने निर्वाण प्राप्त किया। यहाँ पर प्रतिपक्षका नाश करनेवाले और राज्य करते हुए उस महारक्षके देवरक्ष पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा एक दिन उपवनमें गया । त्रियोंसे घिरा हुआ वह, जब क्रीडापापिकामें नहा रहा था ( जैसे हाथी अपनी इथिनियोंके साथ नहा रहा हो) कि उस समय उसकी दृष्टि, कमलके भीतरके मरे हुए भ्रमर पर पड़ी ॥१-८!!
घत्ता-उसने सोचा, "जिस प्रकार रसलम्पट यह भ्रमर निश्चेष्ट है उसी प्रकार कामिनीके मुखमें आसक्त सभी कामीजनों की यही स्थिति होती है" ॥९॥
[१५] जैसे ही उसे अपने मनमें विषाद हुआ, वैसे ही वहाँ एक श्रमण संघ आया। उसमें सभी ऋषि त्रिकाल योगेश्वर थे। महाकषि व्याख्याता वादी और वागीश्वर थे। सभी शत्रु और मित्रमें समभाव रखनेवाले, और तृण और स्वर्णको समान रूपसे छोड़नेवाले, सभी सूखे पसीने और मलसे युक्त शरीरवाले,
और धैर्य में महीधरके समान थे। सभी अपने तपके तेजसे दिनकरकी तरह थे और गम्भीरतामें समुद्र की तरह। सभी धीर-वीर तपसे तपे हुए थे और समस्त परिग्रहको छोड़नेवाले थे। सभी कर्मबन्धका विध्वंस करनेवाले और सभी, सभी जीवों को अभयवचन देनेवाले थे। सभी परमागमोंके जानकार और कायक्लेशमें एकसे एक बढ़कर थे ।।१-८॥
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पउमचरित
धत्ता सयल वि चाम-सरीर सयक वि उज्बुम-पिता। जं परिणगहें पय सिबि-बहुम बरहसा ।।९॥
[११] तो एस्थन्तरें पहु माणन्दिउ । सो रिसि सप सरन्त बन्दिर ३॥ पणिड विण्णवेवि सुयसायर। मो मो मध्वम्भोय-दिवायर ।।२।। भव-संसार-महण्णव-णासिय। करें पसाउ पम्वजहें सामिय' ॥१॥ जम्पइ साष्टु 'साहु लस। पई पिउबर !! जे जागहि सं करहि तुरन्तउ'। णिविसहेज सो वि णिवला ॥५॥ भट्ट दिषस संज्ञहण मावि। अट्ठ दिवस दाणई देषावि ॥६॥ भट्ट दिवस पुझाउ णीसार वि। भट्ट दिवस परिमळ महिसारे धि ५॥ अट्ठ दिवस भाराहण पाएँ वि। गड मोक्खहाँ परमप्पउ मावि ॥८॥
घसा तहाँ महरक्खहाँ पुतु देवरक्खु धरूयन्तउ । थिउ श्रमराहिउ जेम ल स इंभुशवा ॥९॥
६. छट्ठो संधि घउसद्विहि सिंहासणे हि अहकहि भागन्तएँ भिसिए । पुणु उप्पण्णु कित्तिपवलु धवलिउ जेण भुअणु णिउ-कित्तिए ।।१।।
यथा प्रथमस्तोपदवाहनः । तोयदयाहनस्यापस्य महरक्षः । महरक्षस्यापमं घेवरक्षः । देवरक्षस्थापत्य रक्षः । रक्षस्थापत्यमादित्यः। श्रादित्य
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खट्रो संधि पत्ता-"सभी चरमशरीरी, सभी सरल चित्त मानो सिद्धरूपी वधूसे विवाह करनेके लिए पर ही निकल पड़े हो ॥९॥
१६ ] इसके अनन्तर राजा आनन्दित हो उठा। उसने सुरन्त उसे ऋषि संघकी वन्दना की। उसने प्रणाम करते हुए कहा, "भव्यरूपी कमलोंके लिए दिवाकर और भवसंसारके महासमुद्रका नाश करनेवाले हे स्वामी, कृपाकर मुझे प्रव्रज्या दीजिए" । साधु बोले, "हे लंकेश्वर ! बहुत अच्छा, तुम आठ दिन और जीनेवाले हो, इसलिए जो ठीक समझो वह तुरन्त कर लो"। वह भी आधे पलमें ही प्रश्नजित हो गया। आठों दिन उसने लेतनाका शान मथा दाम दिलमाया, लाड़ों दिन पूजा निकलवायी, आठों दिन प्रतिमाका अभिषेक किया, आठों दिन आराधना पढ़ी और इस प्रकार परमपदका ध्यान कर वह मोक्षको प्राप्त हुआ॥१-८॥
घत्ता- उस महारक्षका बलवान पुत्र देवरक्ष गद्दोपर बैठा और इन्द्र के समान लंकाका स्वयं उपभोग करने लगा ।।।
छठी सन्धि अनन्त परम्परामें चौसठ सिंहासन बीत जानेके बाद कीर्तिधवल उत्पन्न हुआ, जिसने अपनी कीर्तिसे भुवनको धवल कर दिया। जैसे पहला तोयदवाहन, तोगदवाहनका पुत्र महरक्ष । महरक्षका पुत्र देवरक्ष । देवरक्षका पुत्र रक्ष । रक्षका पुत्र आदित्य | आदित्यका पुत्र आदित्यरक्ष । आदित्यरक्षका
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पउमचरिड
स्थापश्यमादिस्परशः । मादित्यरक्षस्यापस्य भीमप्रभः। भीमप्रमस्यापत्यं पूजाईन् । पूजाहसोऽपत्यं जितभास्करः । जितमास्करस्थापत्यं संपरिकीर्तिः । संपरिकीतरपरयं सुमोवः । सुग्रीवस्थापत्यं हरिग्रीवः । हरिग्रीवस्थापत्य श्रीग्रोवः । श्रीग्रीवस्यापत्यं सुमुखः । सुमुखस्यापस्य सुम्यक्तः । मुम्यक्त स्थापत्यं मृगवेगः। मृगवेगस्यापत्यं भानुगतिः। भानुगतेरपस्यमिन्द्रः। इन्द्रस्यापत्यमिन्द्रप्रमः । इन्द्रप्रभस्यापत्यं मेघः । मेघस्मापत्यं सिंहवदनः। सिंहबदनस्यापत्यं पविः । पवेरपत्यमिन्द्रविदुः । इनविटोरपत्यं मानुधर्मा । भानुचर्मणोऽपरथं मानुः । मानोरमस्यं सुरारि । सुरारपत्वं बिजटः । त्रिजटस्यापप्यं. मीमः । मोमस्थापल्यं महामोमः। महामीमस्यापत्यं मोहनः । मोहनस्यापस्यमकारकः । अङ्गारकस्यापरमं रविः । बेपत्यं चकारः। चकारस्पापस्यं वनोदरः । वनोदरस्थापत्यं प्रमोदः। प्रमोदक्यापस्यं सिंहविक्रमः । सिंहविक्रमस्यापत्यं चामुण्डः । चामुण्दस्यापत्वं घातकः । घातकस्यापत्यं भीष्मः । भीष्मस्यापत्यं द्विपबाहुः । द्विपबाहोरपत्थमरिमर्दनः । अरिमर्दनस्थापल्य निर्वाणमक्तिः । निर्वामभरपत्यमुम्नश्रीः । उपनियोऽपत्यम अतिः । अहहरपत्यं अनुत्तरः । अनुत्तरस्यापरणं गत्युत्तमः । गत्युत्तमस्यापत्यमनिलः । अनिकस्पायं चण्डः। 'चपस्यापत्य लक्कामोकः । लाशोकस्यापत्यं मयूरः । मयूरस्यापस्य महाबाहुः । महाशाहोरपस्यं मनोरमः । मनोरमस्यापत्यं भास्करः। भास्करस्यापत्य हवगतिः। बृहद्गतेरपस्थं वृहस्कान्सः । मुहरकान्तस्थापत्यमरिसंत्रासः । भरिसंत्रास्यापत्यं चन्द्रातः । चन्द्रावतस्यापत्यं महारवः । महारवस्थापल्य मेघध्वनिः । मेघध्वनेरपस्यं ग्रहक्षोभः । ग्रहक्षामस्यापस्य नक्षत्रदमनः । नक्षत्रदमनस्यापत्यं तारकः । तारकस्यापत्वं मेघनादः । मेघनादस्यापत्यं कीतिप्रवकः । इत्येतानि चतुःषष्टिसिंहासनानि ।
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छटो संधि पुत्र भीमप्रभ । भीमप्रभका पुत्र पूजाईन । पूजाहनका पुत्र जितभास्कर। जितभास्करका पुत्र संपरिकीर्ति। संपरिकीर्तिका पुत्र सुग्रीव । सुग्रीवका पुत्र हरिग्रीव । हरिग्रीवका पुत्र श्रीग्रीव । श्रीग्रीवका पुत्र सुमुख । सुमुखका पुत्र सुव्यक्त । सुव्यक्तका पुत्र मुगवेग । मृगवेगका पुत्र भानुगति । भानुगतिका पुत्र इन्द्र । इन्द्रका पुत्र इन्द्रप्रभ । इन्द्रप्रभका पुत्र मेघ । मेघका पुत्र सिंहवदन । सिंहवदनका पुत्र पवि । पथिका पुत्र इन्द्रचिटु । इन्द्रविदुका पुत्र भानुधर्मा। भानुधर्माका पुत्र भानु | भानुका पुत्र सुरारि । सुरारिका पुत्र त्रिजट । बिजटका पुत्र भौम । भीमका पुत्र महाभीम । महाभीमका पुत्र मोहन । मोहनका पुत्र अंगारक । अंगारकका पुत्र रवि । रविका पुत्र चकार । चकारका पुत्र वस्त्रोदर । वस्रोदरका पुत्र प्रमोद । प्रमोदका पुत्र सिंहविक्रम । सिंहविक्रमका पुत्र चामुण्ड । चामुण्डका पुत्र घातक । घातकका पुत्र भीष्म | भीष्मका पुत्र द्विपबाहु । द्विपबाहुका पुत्र अरिमर्दन, अरिमर्दनका पुन निर्वाणभक्ति, निर्वाणभक्तिका पुत्र उप्रश्री । उग्रश्रीका पुत्र अद्भक्ति | अईद्भक्तिका पुत्र अनुत्तर। अनुत्तरका पुत्र गत्युत्तमः। गत्युत्तमका पुत्र अनिल । अनिलका पुत्र चण्ड । चण्डका पुत्र लंकाशोक । लंकाशोकका पुत्र मयूर। मयूरका पुत्र महाबाहु । महाबाहुका पुत्र मनोरम । मनोरमका पुत्र भास्कर । भास्करका पुत्र धृहद्गति । बृहद्गतिका पुत्र वृष्टत्कान्त । बृहत्कान्तका पुत्र अरिसन्त्रास | अरिसन्त्रासका पुत्र चन्द्रावर्त । चन्द्रावर्तका पुत्र महारख । महारषका पुत्र मेघध्वनि | मेघध्वनिका पुत्र प्रक्षोभ । ग्रहक्षोभका पुत्र नक्षत्रदमन । नक्षत्रदमनका पुत्र वारक । तारकका पुत्र मेघनाद। मेघनादका पुत्र कीर्तिधवल | ये चौंसठ सिंहासन हुए।
७
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९८
सुर की रज्जु करताहो ।
एकहि दिर्गे विजाहर पत्ररु ।
पउमचरिउ
[1]
लङ्काउरि परिपालन्ताहो ॥११॥ लच्छो-मही एविहें माइ-रु ||२|| रणरह आइड पाहुणउ ॥ ३३॥ वहाँ अमुहु भाउ किविलु ॥ ४ पुणु थि एक्कासणे वसरें वि ॥५॥ अस्थकऍ पारउ पछि ||५||
दि
छत्त-य-चिन्धाएँ ॥०॥
हय- हिंसिथ गय वर- गजिया हैं ॥ ८ ॥ पच्छारिय-वारिय कोरियहूँ || ९ ||
सिरिकण्ठ-णामु णिव- मेहुणउ ।
सकल स-मन्ति सामन्त-बलु तु सपणामु समाइच्छित करेंवि । एत्थन्त इय-ग-रह- चदि । मायार विचार रुहाएँ । णिसुयहँ रणन्तूर हूँ वज्जियहूँ ।
दुम्बार बरि-सय- रोक्किई ।
धत्ता
सं पेक्खेविष्णु चरिषलु कितिधवलु सिरिकण्ठे भीरिज | 'ताव ण जिणवरु जय भगमि जाव ण रणे विक्खु सर-सीरिड' ||११||
[R]
लिरिकण्टहों जोऍषि मुह-कमलु । 'किं ण मुणहि घण- कञ्चन उरु । सहि पुष्फोत्तर विज्जाहिब । उबेलें बिगोसरिय ।
।
सहि अवसरे घबल-विसाला हूँ । स विमाणु एन्तु पहें नियत्रि सहूँ तय हुँ ज जाट पाणिग्गाहृणु । भागिय यि सेण्ण गिट्टष हो ।
-
कमळाऍ पत्तु कित्तिधवलु ||१|| विज्जाहर से विहिं मेहरु ॥२॥ तहाँ तणिय दुहिय हउँ कमलमङ्ग ॥ ३ ॥ मरहरिडि पारिहिं परियरिय ||४||
पिणु मेरु- जिणाला हूँ ||५|| घत्तिय जयगुप्पल - माफ़ माँ ॥ ६॥ एवहि शिकार काई रशु ॥ ॥ सहीं पातु महन्ता पट्टवहीं ॥८॥
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छटो संधि [१] देव क्रीड़ाके साथ राज्य करते और लंकाका परिपालन करते हुए एक दिन कौतिधवल के पास महादेवी लक्ष्मीका भाई विद्याधर, श्रीकण्ठ नामका, राजाका साला, रचनूपुर नगरसे अतिथि बनकर आया, अपनी स्त्री मन्त्री सामन्त और सेनाके साथ। फीर्तिधवल उसके सामने आया तो उसने प्रणामपूर्वक उसका समादर किया और दोनों एक आसन पर बैठ गये। इतने में अश्व, गज और रथों पर आरूढ़, अचानक शत्रु आ गया। उसने चारों द्वार अवरुद्ध कर लिये। छत्र ध्वज और चिह्न दिखाई देने लगे। बजते हुए युद्धके तूर्य मुनाई दे रहे थे। अश्व हिनहिना रहे थे और गज चिग्घाड़ रहे थे। दुर्वार सैकड़ों वैरी रुद्ध थे, उलाहना देते, चिढ़े हुए और पुकारते हुए ॥१-९॥
पत्ता- उस शत्रुसेनाको देखकर श्रीकण्ठने कीर्तिधवलको धीरज बंधाया, कि जब तक मैं युद्ध में विपक्षका तीरोंसे छिन्नभिन्न नहीं कर दूँगा, तब तक जिनवरकी जय नहीं बोलूंगा ॥१०॥
[२] श्रीकण्ठका मुखकमल देखकर, उसकी पत्नी कमलाने कीर्तिधवलसे कहा, क्या आप नहीं जानते कि विद्याधर श्रेणीमें धन और स्वर्णसे भरपूर मेघपुर नगर है। उसमें पुष्पोत्तर नामक विद्यापति राजा है। मैं उसीकी कमलावती नामकी कन्या हूँ। एक दिन मैं सहसा घूमने के लिए चमरधारिणी स्त्रियोंके साथ निकली । उस अवसर, सुमेरु पर्वनके धवल और विशाल जिनमन्दिरोंकी वन्दनाके लिए, विमान सहित आते हुए देखकर, मैंने नेत्ररूपी कमलकी माला डाल दी। और उसी समय मेरा पाणिग्रहण हो गया । अब विना किसी कारण युद्ध क्यों ! अपनी-अपनी सेनाओंको नष्ट न करें, उसके पास मन्त्रियोंको भेजा जाय" १-८॥
का
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१००
पउमचरिउ
घत्ता णिसुणे वि ते तहउ अयणु पेसिय दूय पत्राइन तेसहें। उत्तर-चार परिट्रियउ पुष्फोसरु विनाहरु जेसहें ॥९॥
विषणाण-विणय-यवन्तऍहि । विजाहरु बुत्तु महन्तएँहि ॥१॥ 'परमेसर एत्थु अ-वन्ति कर। सम्बड करणउ पर-मायण ॥२॥ सरियज णीसरेवि महाँहरहो। डोयन्ति सलिनु रयणायरहों ॥३॥ मोत्तिय-मालउ सिर कुअरहों। संबसोह देन्ति अंग्णही गरहों ॥४॥ धाराउ लेवि जलु जलहरहों। सिलतिर शव समदहो ।' उपयवि मझे महा-सरही। गालिणिउ वियसन्ति दिवायरहो ॥६ सिरिकण्ठ-कुमारहों दोसु कर। तउ दुहियएँ लइर सयम्बरउ' ॥७॥ संणिसुणधि पारषद लजियउ। थिउ माण-मडाफार-वधियउ ॥८॥
घत्ता 'कपणा दाणु कहिं (1) तणउ जहण विष्णु तो सुद्धिहि चढावह। होई सहावे महाणिय केय-काल दीषय-सिह भाषई' ॥९॥
गड एम भणेचि राहिवइ । सिरिकण्ठं परिणिय परमवह ॥१॥ वह-दिवस हि उम्माहय-जणणु । णिय-साल पेक्रवि गमण-मणु र सम्मा भणह कित्तिधवलु। 'जिह दूरीहोइ ण मुह-कमलु ॥३ तिह अह हुँ मजण पाण-पिय । कि दिदि ण पहुचा एह सिय ॥५॥ मह अस्थि अणेय दीव पवर। हरि-हणुरुह-हंस-सुधेल-धर ॥५॥ मुस-जण-कनुअ-मणिग्यण । छोतार-चीर-चाहण-जवण पा६॥ पवर-वजर-गीरा वि सिरि। सोयावलि-सम्झागार-गिरि ॥७॥ वेसन्धर-सिकल-चीणवर रस-रोहण-जोहण-
किधर ॥॥
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छट्टो संधि घत्ता-उसके इन वचनोंको सुनकर दूत भेजे गये, जो वहाँ पहुँच गये कि जहाँ उत्तर द्वारपर पुनोत्तर विद्याधर था ||
[३] विज्ञान विनय और नीतिवान् भन्जियाने पुष्पोत्तर विद्याधरसे कहा, "हे परमेश्वर, इतना अशान्तिभाव क्यों ? सब कन्याएँ दूसरेकी भाजन होती हैं। नदियाँ पहाड़ोंसे निकलकर पानी समुद्र में ढोकर ले जाती हैं। हाथीके सिरसे मोतियोंकी माला बनती है, परन्तु शोभा बढ़ाती है, दूसरे मनुष्यों की ! धाराएँ मेघोंसे जल ग्रहण कर नव तरुवरोंके अंगोंको सोचती हैं। महासरोवरके मध्यमें उत्पन्न होकर भी कमलिलियाँ खिलती हैं. दिवाकरसे। इसमें श्रीकण्ठ कुमारका क्या दोष ? तुम्हारी कन्याने स्वयं उसका वरण किया है ?" यह सुनकर पुष्पोत्तर लज्जासे' गड़ गया। उसका मान और अहंकार दूर हो गया ॥१-८॥
पत्ता-कन्यादान किसके लिए? यदि वह न दी जाय तो कलंक लगा देती है । क्ष्यकालकी दीपशिखाकी भाँति कन्या स्वभाषसे मलिन होती है ।।२। ___ [४] इस प्रकार कहकर नराधिपति चला गया, श्रीकण्ठने कमलावतीसे विवाह कर लिया। बहुत दिनोंके बाद पिताके लिए व्याकुल अपने सालेको जानेके लिए इच्छुक, देखकर कीतिधवल सद्भावसे कहता है, "तुम मेरे प्राणप्रिय अपने आदमी हो, इसलिए इस प्रकार रहो जिससे तुम्हारा मुख-कमल दूर न हो, क्या तुम्हें इतनी सम्पदा पर्याप्त नहीं है ? मेरे पास अनेक बड़े बड़े द्वीप हैं, हरि, हणुरुह, हंस, सुबेल, धर, कुश, कंचन, कंचुक, मणिरत्न, छोहार, चीर, वाहन, वन, बच्चर, वज्जरगिरि, श्री, तोयावलि, सन्ध्याकार गिरि, बेलन्धर, सिंहल, चीणवर, रस, रोहण, जोहण और किष्कधर ॥१-८॥
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१०२
भार-मरकखम - भीम-तढ मित्रापि धम्मु जिह
पउमचरित्र
सिरिकण्ठों ताम सन्ति कहह । अहिँ चिक्कु महीहरु डेम-दलु । पचलङ्कुरु इन्दणील-गुठिल । मुन्नाहल-जल-तुसार दरि । श्रहिणव कुसुमहँ पक्क फलई । जहि दृश्य रसाळ दोडियउ । जहिं णाणा कुसुम-करग्वियहूँ । जहिं भ्रष्ण फल- संदरिसियहूँ ।
মূলা
एय महारा दोन विचिता । जं भाव से गेहहि मिया ॥९॥
[ ५ ]
'कि वहचें वाणर-दीउ छइ ॥१॥ विष्फुरिय महामणि- फलिह सिलु ॥१ सकिन्गीर-विहार- पहलु ३७ जहिं देसु चि वासु जे अणुसरिंतु ॥ ४ ॥ कर गेहूँ पाइँ फोप्फल हूँ ॥५॥ गुलियट अमरेहि मि हि [य] उ ।। ६ सीयल हूँ जलहूँ अलि चुम्बियहूँ ॥ ७ ॥ धरणिहे अङ्गाई व हरिसियाँ ॥८॥
घन्ता
तं निसुर्णेवि तोसिय-मण देवागमणहों अणुहरमाण माय-मासह। पदम-दिणें
तहिँ सिरिकण्हें दिष्णु पाउ ॥९॥
[3]
द्वेष्पिणु लवण समुद्द-जलु | बाणर-दीड पट्टु बल्लु ॥ १ ॥ जहि कुहिणिय रषिकन्त पहउ । सिहि-सङ्कऍ उपरि ण देह पत्र ॥२॥ जहिं वाचित घडला मोइयज । सुर-सङ्कऍ परेण प जोइयउ ॥३॥ जहि जल गाति विशु पङ्कहिँ । पङ्कय पाहि बिणु छप्पऍहि ॥ ४ ॥ कहि वणइँ पहि विणु अम्बऍहि | अम्वा षि णाहि विणु गोहिं ॥ गोच्छा व हि विशु कोइलें हिं । कोइ णाहि विणु कलयले हिं ॥ जहिं फलइँ णाहि विणु तरुवरेंहि । तहवर षि प्याहि विणु व्यहरे हिं ॥७॥ छयहरहूँ णाहिँ विकुसुमियहूँ। जहिं महुयर-विन्दहूँ ण भमियहूँ ॥८
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संधि
*
धत्ता - भारभर क्षम, भीमतट, ये मेरे विचित्र द्वीप हैं । 'धर्म' की तरह, इनमें से एक चुनकर, हे मित्र, जो अच्छा लगे वह ले लो ॥९॥
श्रीकण्डका सन्धी कहता है, 'बहुत करते क्या, बानर द्वीप ले लीजिए, जिसमें किष्क पहाड़ और स्वर्णभूमि है, जिसमें चमकती हुई महामणियों की बड़ी-बड़ी चट्टानें है । प्रवालों और इन्द्रनीलसे व्याप्त हैं, जिसमें चन्द्रकान्त मणियोंसे निर्झर बहते हैं, जिसमें मुक्ताफल जलकणोंकी तरह दिखाई देते है, जिसमें देश, एक दूसरेके समान है ? अभिनव कुसुम, पके हुए फल, करमा हैं पत्ते जिनके, ऐसे सुपाड़ीके वृक्ष | जहाँ मीठी द्राक्षा लताएँ हैं, जो देवोंके द्वारा चाही गयी हैं। जहाँ शीतल, तरह-तरह के फूलोंसे मिश्रित और मौरोंसे चुम्बित जल हैं। जहाँ दानोंको प्रदर्शित कर रहे धान्य ऐसे लगते हैं जैसे धरती के हर्षित अंग हों ||१८||
धत्ता - यह सुनकर श्रीकण्ठका मन सन्तुष्ट हो गया । उसने चैत्र माह के पहले दिन उस द्वीपके लिए प्रस्थान किया, उसका यह प्रस्थान देवताओंके समान था || ||
[ ६ ] लवणसमुद्रका जल पार करते ही उसकी सेनाने बानर द्वीप में प्रवेश किया। उसकी पगडण्डियाँ सूर्यकान्तमणिसे आलोकित हैं. आगकी आशंकासे कोई उसपर पैर नहीं रखता । जहाँ गुलोंसे आमोदित बावड़ीको देवोंकी आशंका से मनुष्य नहीं देखते, जिसमें बिना कमलोंके जल नहीं है, और कमल भी बिना भ्रमरोके नहीं हैं, जहाँ बिना आम्रवृक्षोंके वन नहीं हैं आम्रवृक्ष भी बिना मंजरियोंके नहीं हैं। मंजरियाँ भी बिना कोयलॉक नहीं हैं, कोयले भी 'कलकल' ध्वनिके बिना नहीं हैं, जहाँ फल पेड़ोंके बिना नहीं हैं, पेड़ भी लताओंके बिना नहीं हैं, लताएँ भी बिना फूलोंके नहीं हैं, और फूल भी ऐसे नहीं हैं
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१०
एम चरिख
घत्ता
साइड उ विणु वाणरें हिं तहूँ यिन्त तहि जे थिङ
एक-दिवसें देवागमणु वन्दण-इतिऍ सो वि गड
|
पहु तेहिं समाणु खेड करेषि । गड किवकु महीहरहो (?) सिहरु किट सहसा सम्वु सुचण्णमउ | जहिँ चन्दकन्तिमणि चन्दिय । जहि सूरकन्ति मणि विष्फुरिय । जहिं णोलाउलि-भू- महुहूँ । विमदुवार - रताहर हूँ | उपणु साम कोड्डाण ।
-ु
पड़ वाणर जा ण बुकासे । बिज्जालड सिरिकण्ठ-कुमारो ॥९॥
[ ]
अवरेहिं धरावेषि सहँ घरे दि ॥१॥
उदह-जोयण - एमश्णु णयरु ॥२॥ णामेण विषकुye अष्णमउ ॥ ६ ॥ ससि मणेंचि अ-दियों में यन्दियउ ॥ रवि मणेंवि जलाई मुअन्ति दिया ॥ ५॥ मोतियतोरण- उदन्तुरहूँ ॥ ६ ॥ अवरोप्यरु विहसन्ति व घर ॥७॥ सिरिकण्ठों वज्यकण्डु सणउ ॥ ८ ॥
घत्ता
जिवि जन्तु मन्दीसर - दीवहो । परम-जिणों तइलोक-पई वहाँ ॥ ९॥
[C]
।
स पसाह स-परिवारु सन्धव पटिकूलिज ताम गमणु रहो । महूँ भष्ण भवन्तरे का है किउ वरि घोरचौर-तउ उँ करमि । गड एम भावे पिय-पट्टणहों । संगु जाउ निविसन्तरेण ।
मसुर-महिहरु जाम गर ॥११॥ सिद्धालउ णा कु-मुणिवरहों ॥ २ ॥ जे सुर गय महुजि विमाणु थिउ ॥ ३५ मन्दीर जे पइसरभि' ॥४॥ संसाणु समप्पें वि णन्दणों ॥५॥ जिह बजकण्डु कान्तरेण || 4 ||
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छट्टो संधि
जिनमें भ्रभर न गूँज रहे हों ॥ १-८ ॥
घत्ता — शाखाएँ बिना बन्दरोंके नहीं है, वानर भी ऐसे नहीं जो बोल न रहे हो। उन्हें देखता हुआ विद्यावर श्रीकण्ठ बह बस गया || १ ||
[ ७ ] श्रीकण्ठ उनके साथ क्रीड़ा करने लगा । उन्हें दूसरोंसे पकड़वाता, और स्वयं पकड़ता । वह किष्क महीधरकी चोटीपर गया। और उसपर चौदह योजन विस्तारका नगर बनाया | समूचा स्वर्णमय और अन्नमय था, उसका नाम किष्कपुर रखा गया। जिसमें चन्द्रकान्त मणिकी चाँदनीको चन्द्रमा समझकर लोग असमय में ही बन्दना करने लगते । जहाँ सूर्यकान्त मणिकी कान्तिको सूर्य समझकर दीपक ज्वालाएँ छोड़ने लगते, जहाँ नीले मणियोंकी कतारोंसे भंगुर भौहोंवाले, मोतियोंके तोरणोंसे दाँत निकाले हुए और विद्रुमद्वाररूपी रक्तिम अधरोंवाले वर ऐसे मालूम होते हैं जैसे एक- दूसरेपर हँस रहे हैं। तब इसी बीच श्रीकण्ठका मनोरंजन करनेवाला वज्रकण्ठ नामका पुत्र हुआ ||१८||
धत्ता - एक दिन नन्दीश्वर द्वीपको जाते हुए देवागमनको देखकर त्रिलोक प्रदीप परमजिनकी वन्दना भक्तिके लिए वह भी गया ||९||
१०५
' [८] अपनी सेना, परिवार और ध्वजके साथ जैसे ही वह मानुषोत्तर पर्वतपर गया, वैसे ही उसका गमन प्रतिरुद्ध हो गया, वैसे ही, जैसे खोटे मुनिके लिए सिद्धालय रुद्ध हो जाता है। वह सोचता है, "मैंने जन्मान्तरमें क्या किया था कि जिससे दूसरे देवता चले गये, परन्तु मेरा विमान रुक गया । अच्छा, मैं भी घोर वीर तप करूँगा जिससे नन्दीश्वर द्वीप में प्रवेश पा सकूँ ।" यह सोचकर वह अपने नगरको लौट गया, राज्यपरम्परा अपने पुत्रको सौंपकर आधे पलमें प्रत्रजित हो
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तिह इन्दाउहुँ तिष्ट इन्दमद। तिह रविपहु एम मुहासण।
तिह मेरु समन्दरु परणगई 11 ॥ अवगयई भट्ट सोहासणहूँ ।।६।।
छत्ता एवमड जामें अमरपतु वासुपुज-सेयंस जिणिन्दहुँ । मन्तरें बिहि मि परियउ छण-पुग्घण्छ जेम रवि-चन्द₹ ॥ ५॥
परिणतही लवाहिव-चुहिय । सहों पङ्गण केण वि का लिहिय ॥१॥ दीहर-लंगूलारच-मुह। कामु दिन्ति व शवन्ति व समुह ॥ सं पैखें वि साहामय-शिचहु। भइयएं मुच्छाविय राय-बहु ।।३।। एस्थन्तर कुविउ गहिवाइ । 'तं मारहु लिहिया बेण कई' 11।। पणवेप्पिणु मन्तिाह उपसमित। कह-णिवहु ण केण विभहकमिउ ।।५ एयहुँ नि पसाए राय-सिथ । तर पेसणधारी जेम तिय ॥१॥ एयहुँ जे पसाए रण अजय जगें वाणर-बसु पसिद्धि-ाउ ॥७॥ सिरिकपठहो लगों चिकइ-सयई। पवई में तुम्ह कुल-देषय ॥८॥
पत्ता तं णिसुणेविपरितुटऍण अइकमिय (?) णमिय मरिसाविय । हिम्मल-कुलहाँ कलङ्क जिहू मउ चिन् धए छत्ते लिहाविय ।।५।।
[१०] ते याणर-वंसु पसिद्धिनाउ । चिणि वि सेनिउँ बसिरवि थिउ ॥३॥ उप्पण्णु कइउ तासु मुर। कइधग्रही वि पडिबलु पव-भुउ ॥२॥ परिषटहाँ वि णयणाणन्टु पुणु । पुणु सयाणन्तु घिसाल-गुणा ॥३॥ पुणु गिरिपन्दणु पुणु उहिस्। तहाँ परम-मिन्तु पढिपक्स-खा ॥४ सडिकसि-णामु लाहिवह। विनाहर-सामिड गयणगइ ॥५॥ एकहि दिणे उचवणु णीसरिउ । पुणु बुहम-वाचिई पइसरिउ ॥६॥
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छटो संधि
१००
गया। जिस प्रकार यजण्ट, इन्द्रायुध, इन्द्रमूर्ति, मेरु, समन्दर, पधनगति और रविप्रभु, इस प्रकार आठ सुखद सिंहासन वीत गये ।।१-८॥
धत्ता-नीचा अमरप्रम, वासुपूज्य और श्रेयान्स जिनेन्द्रके बीच में ऐसे ही प्रतिष्टित था, जैसे सूर्य और चन्द्रमा, दोनों के मध्य पूणिमाका पूर्वाह ||५||
[९] लंका नरेशाकी कन्यासे विवाह करते समय उसके आँगनमें क्रिसीने बन्दरोंके चित्र बना दिय | लम्बी पूंछ और लाल-लाल मुंहवाले से छलांग भरकर सामने दीढ़ते हुए। वानरोंके उस चित्रसमूहका देखकर मारे हरके, राजवधू मच्छित हो गयी। इससे राजा क्रुद्ध हो गया। ( उसने कहा ), "उसे मार डालो जिसने ये बन्दर लिख"। तब मन्त्रियोंने उसे शान्त किया कि वानरममहका अतिक्रमण आजतक किसी ने नहीं किया। इन्हींके प्रसादसे यह राज्यश्री, तुम्हारी आज्ञाकारी स्त्रीके समान है। इन्हींक प्रसादसे तुम युद्ध में अजेय हो। और इन्हीं के कारण वानरवंश दुनियामें प्रसिद्ध हुआ। श्रीकण्ठके समयसे लेकर ये सैकड़ों धानर तुम्हारे कुलदेवता रहे हैं ॥१-८॥ ___घत्ता--यह सुनकर सन्तुष्ट मन अमरप्रभने उनसे क्षमा माँगी और प्रणाम किया, तथा अपने पवित्र कुलके चिहके रूपमें उन्हें पताकाओं, स्त्रज और छत्रोंपर चित्रित करवाया ॥९॥
[१०] उसीसे यह बानरबंश प्रसिद्ध हुआ । और वह दोनों श्रेणियोंको जीतकर रहने लगा। उसका पुत्र कपिध्वज उत्पन्न हुआ, कपिध्वजका प्रबर भुज प्रतिबल, फिर प्रतिबलका नयनानन्द, फिर विशालगुण खेचरानन्द, फिर गिरिनन्दन, फिर उदधिरथ, उसका परममित्र, शत्रुपक्षका क्षय करनेवाला, तडिस्कदा लंकानरेता था। विद्याधरोंका स्वामी, और आकाशगामी वह एक उपवनमें गया और स्नान करनेकी बावड़ीमें
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१०८
महवि ताम सह तक्खपण । लेण वि णामहिं विधु कड् ।
- णमोकारही फण
यि भवन्तरु संभरें वि
पउमचरिउ
तडिकेसु शिएत्रि विहाय । अजुनि म स समुष्षहद् । केस बस खुट्टु खलु । तो एस भनें वि साहामित्र हूँ । रतमुह पुच्छ-पईहरई । आणत उष्परि धाइय हूँ । अण्णई उम्मूलियन्तस्वरहूँ । अण्णाएँ उम्गामिय-पहरण
अहूँ हुयवह हत्थाई रूवइँ काहहाँ केरा हूँ
यण सिहर फाक्षिय मडेंण ॥७॥ आज तड जज तरुवर-मूल जड् ॥ ४ ॥
घन्ता
अण्णाहं कोकिलकाहिवद्द | संणिसुणे वि णरवइ कम्पियउ । किं कहि मिन्हों पहरणइँ । चिन्तेचि महाभय-वस्थऍन । 'के तुम्हई काहूँ - स्वन्ति किया ।
उवद्दिकुमारु देउ उप्पण्णउ । विज्जुकेसु जउ त अव
[11]
||९||
'हउँ एण हवायें धाइयउ ||१|| जब पंक्य त कड़वर चहद्द ||२|| उपायमि माया पमय-बलु ॥३॥ गिरिवर-संकासहूँ निम्मिय हूँ ||४|| कार-घोर घग्घर-सरहूँ ॥५॥ जलै थले आयासे ण माय ||६|| अण्णइँ संचालिय- महिहरई ॥७ ॥ अण्णई लंगूल-पहरणं ॥ ८॥३
घत्ता
अण्णा पुणु अपनेंहि उप्पाएँ हि । आवे विभियहुँ गाई बहु भाएँ ||९||
[ 9 ]
'सिंह पहरु पाव जिड़ हिट कर ॥1॥ 'किं कहि मि पत्रङ्गमु अम्पियउ' ||२|| आयहँ हुआएँ ० कारणई ||३|| कोला विष पणविय सरथ ऍश ॥४॥ कज्मेण केण सण्णहें वि थिय' ||५||
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छट्टो संधि घुसा। इतने में उसकी महादेवीके स्तनके अप्रभागको तत्काल एक वानरने फाड़ डाला। उसने भी तीरोंसे वानरको छेद दिया। कपि तम्वरके मूल में वहाँ गया, जहाँ एफ मुनियर थे ॥१-८|| __ पत्ता-वह वानर णमोकार मन्त्र पानेके फलके कारण स्वर्गमें उदाधिकुमार देव हुआ। अपने जन्मान्तरको याद कर जहाँ तडित्केश था वहाँ यह देव अवतीर्ण हुआ ॥९॥
[११] तडित्केशको देखते ही यह क्रोधसे भर उठा, "मैं इसी हताशके द्वारा मारा गया । आज भी इसके मनमें शल्य है, और जहाँ देखता है, वहीं वानरोंको मार देता है। यह क्षुद्र नीच कितने चन्दर मारेगा, मैं 'मायावी वानर सेना' उत्पन्न फरता हूँ।" यह सोचकर उसने पहाड़के समान बड़े-बड़े वानरोंकी रचना की । लालमुख और लम्त्री पूंछवाले वे वुक्कार और घग्घरके घोर ताल कर रहे थे आदिः ये उपर पड़ रहे थे, जल, थल और नम कहीं भी नहीं समा रहे थे। कुछने बड़ेबड़े पेड़ उखाड़ लिये, कुन्छने महीधर संचालित कर दिये, कुछने हथियार ले लिये और कइयोंने अपनी लम्बी पछे उठा ली ।।१-८॥ __घत्ता-कुछ हाथमें आग लिये हुए थे, दूसरे, दूसरे-दूसरे साधनोंसे युक्त थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो कालके रूप ही अनेक भागोंमें आकर स्थित हो ॥९||
[१२] एकने जाकर लंकानरेशको ललकारा, "हे पाप, उसी प्रकार प्रहार कर जिस प्रकार कपिको मारा था ।" यह सुनकर राजा काँप गया कि कहीं वानर भी बोलते हैं ? क्या कहीं वानरोंके भी हथियार होते हैं ? यहाँ कोई मामूली कारण नहीं है ? महाभयसे आक्रान्त और अपना मस्तक झुकाते हुए उसने कपिसे कहा, "आप लोग कौन है ? यह अशान्ति क्यों मचा रखी है ? किस कारण आप तैयार होकर यहाँ स्थित है ?"
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पउमचरिउ
तं णिसुर्णेषि चविउ पमय- शिवहु । 'किं पुन्च-वहरु बोरिङ पहु ॥६॥
I
जयहुँ जल काळ आयउ । निमचणमो
११०
बरु तुहार संभरषि संर अहि कायूँ रण
।
संणिसुर्णेवि णमिउ णराहिवइ । टिविज्युसु करें धरेविं तहिं पाहिण करेंवि गुरु मत्ति किया । सम्बडि सुरवरु परिसियड । अज्जु विलक्खिन पायउ |
दिट्टु महारिस चेह-हरें परम-जिनिन्दु समोसरणें
विकिं चि रिज । पुणु पुष्टि महरसि धम्मु कहें। संणिसुविच चारु चरिव । सीक धम्मु सम्वतिहरु | परिभसें सिणि वि उद्यलिय ।
पण पछि परम- रिसि । परमेसर जम्पड़ जड़-पवरु । 'धम्मेण जाण अस्पाण-भय 1
महपत्रि कब्जे कइ घाइयउ ॥७॥
दुज
॥४॥
सो
पनि थिउ बहु-भाएँ हिँ । जिम असिड जिम पद्ध मह पाएँहि ॥ ९॥
घत्ता
[१३]
अमरेण वि दरिलिय अमर गइ ||१|| विसर महरिसि चणाणि जहिं ॥ श वस्त्रेष्पिणु विष्णिभि पुरउ थिय ॥३॥ 'ऍडु जम्मु एण महु दरिसिया ||४|| महु क्रेर एउ सरीरहउ' ||५|| णं पवण- छिन्तु तरु थरहरि ॥६॥ परिभ्रम जेण पाउ णरय - पहुँ' ||७|| 'महु अन्य अणु परमायरि ||4|| पहस हुँ जि जिणालउ सन्तिहरु' ॥२॥ बाहुबलि - मरह-रिसह व मिडिय।। १०३॥
घत
परवइ उ वहिकुमार-मुणिम्देहि । णं धरणिन्द सुरिन्द-परिन्दे हि ॥११॥
[ 18 ]
'रिसाव मारा धम्म- दिसि ॥१॥ सह-काल-बुद्धि चउ णाण-घरु ॥१॥ भ्रमेण मिश्र रह -तुरय-गय ||३||
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१११
छटो संधि यह सुनकर वानरसमूह बोला, “क्या राजा तुम पुराना वैर भूल गये कि जब तुम जलनाडाप लिए आये थे और महादेवाके कारण तुमने कपिको मारा था। ऋपिके पंचणमोकार मन्त्रके प्रभावसे मैं सुरवर उत्पन्न हुआ ॥२-८।।
पत्ता--तुम्हारे बैरकी याद कर, यहाँ मैं एक होकर भी अनेक भागों में स्थित हूँ | अब तुम युद्धमें शान्त क्यों हो? या तो लड़ो या फिर मेरे पैरोंमें गिरो" ||९||
[१३] यह सुनकर राजा नत हो गया। अमरने भी अपनी अमरगति दिखायी। वह तडित्केझाको हाथ पकड़कर वहाँ ले गया जहाँ 'चार ज्ञानके धारक महामुनि थे। प्रदक्षिणा देकर गुरुमक्ति की और वन्दना करके दोनों सामने बैठ गये । देयका अंग-अंग हर्षित हो उठा। ( वह बोला), "यह जन्म इन्होंने हमें दिखाया, आज भी मेरा यह प्राकृत शरीर देखा जा सकता है।" उसे देखकर तडित्केश भी डर गया मानो हवाके झोंकेसे तरुवर ही काँप उठा हो ? फिर उसने महामुनिसे कहा, "धर्म बताइए, जिससे मैं नरकपथमें भ्रमण न करूं।" यह सुनकर सुन्दर चरित मुनि कहते हैं, "मेरे एक दूसरे परम आचार्य है, बह सब प्रकारकी पीड़ा दूर करनेवाला धर्म बताते हैं, हम शान्ति जिनालय में प्रवेश करें।" परितोषके साथ तीनों चले जैसे भरत, राहुबलि और ऋपभ मिल गये हों ।।१-१०||
घत्ता नरपति उदधिकुमार और मुनीन्द्रने चैत्यगृहमें परमाचार्यको देखा, मानो समवशरणमें परमजिनेन्द्र को धरणेन्द्र देवेन्द्र और नरेन्द्रने देखा हो ॥११॥
[१४] प्रणाम कर उन्होंने परमऋषिसे पूछा, "आदरणीय, धर्मकी दिशाका उपदेश दें।" परमेश्वर, जो मुनिप्रवर त्रिकाल बुद्धि और चार ज्ञानके धारी हैं, कहते हैं, "धर्मसे यान, जपाय (?) और ध्वज होते हैं, धर्मसे मृत्यु, रथ, तुरंग और गज मिलते हैं,
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पउमपस्वि
धम्मेणाहरण-विलेवणहूँ। सम्मेण कल तइँ मणहरई। धम्मेण पिण्ड-पीणस्थणउ । धम्मेण मणुय-देवतणई। धम्मेण भरूह-सिद्धसणाई।
धम्मेण गियासण-मोयण ॥ धम्मेण छुहा-पण्डर-घर ।।५।। चमरई पाडम्ति वरण ॥६॥ वलपव-दामुपवत्तणहूँ ।।। तिस्थकर-चकहरतणहूँ ॥८॥ घत्ता इन्दा वेव वि सेव करन्ति । घण्टाल वि पक्षणएँ ण ठन्ति' ।।९।।
एम्में होन्तऍण भम्म-विहुणहों माणुसहों
[५] सडिकेसे पुच्छिा पुणु वि गुरु। 'अण्णहिं भवे को हमें को व सुरु ॥३॥ जह जम्प "णिसुणुत्तर-दिसएं। जाभो सि आसि कासी विस ॥२॥ सु? साहु एहु धाशुषु तहि । आइउ तरु-मूले वि थिओ सि जहि ।।३।। शिगन्धु णिऍवि उवहासु कर । ईसीसुप्पण्णु कसाल तउ ॥४॥ मावि काविस्थ-साग-गमणु। पत्तो सि णधर जोइस-भवणु ॥५॥ स्यहाँ वि पवेपिणु सुद्धमइ । हओ सि एरथ काहिवइ ॥३॥ पाणुकित हिषि मनाहणें । उप्पण्णु पवामु पमय-वण ॥७॥ पई हउ समाहि-मरणेण मुर। पुणु गम्पिणु उवहि-कुमार हुड' ॥ll
पत्ता संणिसुणे वि लकैसरेण रजें सुके थवे दि परमरथें । मुऐंवि कु-वेस व राम-सिय सब-सिय-बहुय सइय सह हस्य ॥११॥
[१ ] बं विजुकेसु णिगन्धु थिड। पो हि मुढिहिं सिरे कोड किड ॥॥ संकदय-मउग्र-कुण्डल-धरण। सम्मत लाउ दिव सुस्वरेण ॥२॥ पुत्थम्सर किक-पुरेसरहों। गड खेहु कादय-सेहरहों ॥३॥ महि-मपटक पतिउ दिदु किर। णावालउ गा-बाहु मिह ।।४।।
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१५
छट्ठो संधि धर्मसे आभरण और विलेपन, धर्मसे नपासन और भोजन, धर्मसे सुन्दर स्त्रियाँ, धर्मसे चूनेसे घुते सुन्दर घर, धर्मसे पीन स्तनोंवाली वारांगनाएँ सुन्दर चमर डुलाती है। धर्मसे मनुष्यत्व
और देवत्व, बलदेवत्व और थासुदेवत्व । धर्मसे अहन और सिद्ध तीर्थकरत्व और चक्रवर्तित्व ॥१-८॥
पत्ता-एक धर्मके रहनेपर इन्द्र और देवता सेवा करते हैं, जयकि धर्महीन आदमीके घरके आँगनमें चाण्डाल तक नहीं रहते" ||९||
[१५] तद्धित्केशने तब पुनः गुरुसे पूछा, "दूसरे भवमें मैं कौन था, और यह देव क्या था ?' अतिवर बताते हैं, "सुनो, उत्तर दिशामें काशीमें तुमने जन्म लिया था। तुम साधु थे, और यही वहाँ धनुधारी था। यह नरूममें आया जहाँ कि तुम बैठे हुए थे । निम्रन्थ देखकर उसने तुम्हारा मजाक उड़ाया, इससे तुम्हें भी थोड़ी-सी कपाय हो गयी। कापित्थ वर्गके गमनका निदान भंग कर, तुम केवल ज्योतिपभवन में उत्पन्न हुए। वहाँसे आकर, शुद्धमति यह लंकाका नरेश हो। वह धानुष्क भी भवग्रहणमें घूमने-फिरने के बाद, वानर बना । तुमसे आहत, समाधिमरणसे मरकर स्वगमें देव हुआ उदधिकुमारके नामसे" ||१-८||
घत्ता-याह सुनकर लंकानरेशने राज्यमें सुकेदाको स्थापित कर, वास्तव में कुवेश और राज्यश्चीको छोड़ते हुए तपश्रीरूपी वधूका पाणिग्रहण लिया ||२||
[१६] जब तडित्केश निर्मथ हुआ तो उसने पाँच मुट्टियोंसे कैशलोंच किया । कटक, मुकुट और कुण्डल धारण करनेवाले उस उदधिकुमार देवने भी सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। इसके अनन्तर किष्क नगरके राजा कपिध्वज श्रेष्ठके पास लेखपत्र गया। महीमण्डल में पड़ा हुआ वह ऐसा दिखाई दिया जैसे
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पउमचरित
वन्धण-विमुक णं णिस्य उल्लु । दस सहावे जेम सलु ॥५|| जुबई जणु अण्णु समुच्चहइ । आय रिट व वरिउ कहर कहा ॥३॥ णं अक्षर पन्तिहि पडु मणिउ । 'तुम्हढे सुकेसु परिपालगिउ । सडिकेसे तव-सिय कय करें। जं जाणहि तं पहुं बहु मि करें |
लेहु घिवेप्पिणु उवहिर पुर पडिसन्दु परिट्टियड
पत्ता
पुत्तहाँ रज्जु देवि गिरवता । वाणरदीड स ई भुजन्सड ॥१॥
७. सत्तमो संधि पडिचन्दहो जाय किचिनन्धय पवर-मुख । र्ण रिसह-जिण्यासु मरह-वाहुवकि वे वि सुव ।।१।।
[.]. बुद्ध छुडु सरीर-संपति पत्त । तहि अवसरे केण वि कहिय वत्त ।।।। 'वेयर-कढएँ घण-कणय-पउरें। दाहिण सेहिहि आहचणयर ॥२॥ विजामन्दरु णामेण राज । वेयमा अंग्ग-मदिसिएँ सहार ॥३॥ सिरिमाल-पाम तहाँ तणिय दुहिय । इन्दीवरपिछ कप-चन्द-मुहिय na कयली-कन्दल-सोमाल वाक। सा पर घिवेसह कहों वि माक' ॥१॥ तं णिसुणेचि पवर-कहपहि। गमु समिड किन्मिन्यएहि ।। होइयई विमाण पविय जोह। संचक्क पाहणे दिण्ण-सोइ ॥॥ णिघिसन्हें दाहिण-सेवि पस। जहि मिमिया विनाहर समस्त ॥॥
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सप्तमो संधि
११५
वह गंगाके प्रवाहकी तरह नावाल (नामोंकी भरमार, और नावोंका घर) हो । विरक्त कुलकी तरह बन्धनसे मुक्त था। खलकी तरह स्वभावमें वक्र था। बाद रावतीजनके समान वर्णको धारण करता है, आचार्यकी तरह चारत और कथा कहता । मानो अझर पंक्तियोंके प्रभुसे कहा गया, "तुम सुकेटाका पालन करना तडित्केशीने तपश्री अपने हाथमें ले ली, हे प्रभु, तुम जैसा ठीक समझो, वह करो" ॥१-८॥
वत्ता-लेख ग्रहण कर उदधिरवने पुत्रको राज्य देकर दीक्षा प्रहण कर ली। नगरमें प्रतिचन्द्र प्रतिष्ठित हुआ और वानर द्वीपका वह खुद उपभोग करने लगा ॥२॥
सातवीं सन्धि प्रतिचन्द्र के दो पुत्र हुए, प्रवरबाहु किष्किन्ध और अन्धक, मानो ऋषभजिनके दो पुत्र, भरत और बाहुबलि हों।
[१] उन दोनोंने शीघ्र ही शरीर सम्पदा { यौषन ) प्राप्त कर ली। उस अवसरपर किसीने यह बात कही-"विजयार्थ पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में धन और स्वर्णसे परिपूर्ण आदित्यनगर है। उसमें विद्यामन्दिर नामका राजा है। सुन्दर वेगमती उसकी अनमहिषी है । श्रीमाला नामकी उसकी कन्या है, जिसकी आँखें नीलकमलके समान और मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान । वह बाला केलेके अंकुरके समान सुकुमार है। वह कल किसीको माला पहनायेगी।" यह सुनकर किष्किन्ध और अन्धक दोनों प्रबल कपिध्वजियोंने जानेकी तैयारी की । विमान निकाल लिये गये । योद्धा उनमें सवार हुए, आकाशमें चलते हुए उनकी शोभा निराली थी। आधे पलमें दक्षिण श्रेणी में पहुँच गये जहाँ समस्त विद्याधर इकट्ठे हुए थे ॥१-८॥
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पउमचरिड
किन्धेि दिल हजार णा
घसा घउ राउलउ सु (?) पयणहर । करगल सिरिमालह तण ॥९॥
[१] णिय-णिय-याणेहि णियछु मच। महकवि-कब्धालाब छ सु-सच ॥५॥ भारूद सम्य मोसु तेसु खामियर-गत्त-मणि-भूसिपसु ॥२॥ परिभमिर-म मस्तकारिपसु । गिविहायवस-अन्धारिएसु ॥३॥ रविकम्त-कन्ति-उजालिंपस । क्षालावणि-सह-बमालिएसु ॥४॥ मसु तेसु थिय पड्ड चडेवि। चम्मह-गड णारिज्वन्ति (१) के वि ॥५॥ भूसंन्ति सरीर वारवार । कण्डाइँ मुमन्ति लयन्ति हार ॥६॥ सुन्दर सरकाय वि कण-दौर। अलि जि घिवन्ति मोवि थोर ॥७॥ गायन्ति हसन्ति पुमासणस्थ । अङ्गइँ मोडम्ति वलन्ति हस्य ॥८॥
स-पसाहपासव
पत्ता थिय सम्मुह बरइत्त किन्छ । मायएँ आस समय जिह ||५||
'किर होसह सिद्धि'
[३] सिरिमाल साम करिणिहें वहा । विज्ञ्ज महा-घण-कोडि लग्ग 1 सवकाहरणालयरिय-देह । णं णहें उम्मिलिय चन्द-छेद ॥२।। अग्गिम-गणियारिहं चपिय धाइ। णिसि-पुरर परिट्टिय सम्म णाइ ॥३॥ दरिसाचिज गर-णिउरूम्यु तीएँ। णं पण-सिरि तरुवर महुयरीएँ ॥४॥ उखु सुन्दरि धन्दापण-कुमार। उग्घाउ जहु रणे दुण्णिवारु ॥५॥ बहु विजयसीहु रिउपलय-कालु । रहणेउर-पुरचर-सामिसाल ॥६॥ सयछ वि णरवर वशन्ति जाइ । भवराम सम्मादिहि पाएँ ॥५॥
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ससमो संधि
११० पत्ता-किष्किन्धने देखा कि राज्यकुलका ध्वज हवामें उड़ रहा है, जैसे श्रीमालाका हाथ उसे पुकार रहा हो ।।९।।
[२] अपने-अपने स्थानों पर मंच बने हुए थे जो महाकविके काव्य-वचनकी तरह मुगठित ( अच्छी तरह निर्मित ) थे । सोनेके गत्तों और मणियोंसे भूषित उन मंचोंपर सब बैठ गये। जिनमें भ्रमण करते हुए भौरोंकी ध्वनि गँज रही है, सघन आतपत्रोंसे अन्धकार फैल रहा है, सूर्यकान्तकी किरणोंसे जो आलोकित हैं, जो वीणाक शब्दांसे मुखर है, सहयोपर - कर राजा लोग बैठ गये । वामन और नद की तरह कोई अपना अभिनय कर रहे थे। बार-बार अपना शरीर अलकृत करते हुए उतारकर हार धारण करते। कोई सुन्दर अच्छी कान्तिवाली सोनेकी करधनी, यह कहकर कि यह बड़ी है, झूठमूठ फेक देता, कोई आसनपर बैठे-बैठे हँसते और गाते हैं, अंग मोड़ते हैं और हाथ घुमाते हैं ॥५-या
वत्ता- सभी वर प्रसाधन किये हुए सामने ऐसे स्थित थे, जैसे 'सिद्धि होगी' इस आशा से सभी समद (प्रसन्न) हो ||२||
[३] तब श्रीमाला हधिनीपर चढ़ गयी मानो बिजली ही महामेघमालासे जा लगी हो। समस्त आभरणों से अलंकृत उसकी देह ऐसी जान पड़ती थी मानो आकाशमें चन्द्रलेखा प्रकाशित हुई हो । एक स्त्रीने राजसमूह उसे इस प्रकार दिखाया, मानो मधुकरी वनश्रीको तरुवर दिखा रही हो । (वह कहती), "हे सुन्दरि, वह कुमार चन्द्रानन हैं, वह युद्ध में दुर्निवार उद्धत है, वह शत्रुओंके लिए प्रलयकाल विजयसिंह है, जो रथनूपुर नगर का श्रेष्ठ स्वामी है। वह सभी नरवरोंको छोड़ती हुई, उसी प्रकार आगे बढ़ती है जैसे सम्यग् दृष्टि दूसरोंके भागमको
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पउमचरिय
पुर उज्जोदन्तिय दीवि जेम ।
पच्छ अन्धार करन्ति ते ॥८॥
सिद्धि कु-मुणिवर परिहरन्ति । दुगाम्ध रुख मं भमर- पति ॥९॥
११८
यत्ता
यि किक्किन्धों पासु किह ।
गणिवारिए वाक सरि-परिहलिए (१) कछहंसह कलहंसि विह ॥ १०॥
]
णं मेसरों कोयणाएँ ॥३१॥ णं कर्णयगिरि - चन्दले ॥२॥ । ससि-बोण्डऍ विणु णं महिहरिन्द ॥३ णं पय-सर रवि कन्ति-मुक ॥४॥ कोवग्गि-पकीविउ विजयसीहु ||५|| पसारु दिष्णु किं वन्न राहु ४५ ॥ पाणर-स-परुहों कन्दु खजहाँ ॥ ७ ॥ हारि अमरिस-कुण ॥४॥
[
किन्हों घल्लिय माळ ताएँ । आसण्ण परिद्विय विमल- देह । विच्छाय जाय सयक्ष वि गरिन्छ णं कृन्तवसि परम-गहें चुक | एथन्तर सिरिमाळा-बईतु 'सरे चियाहर-वराहुँ । उद्दाह वहु बरहलु हणहो । शं वयशु सुणेपिणु अन्धएण ।
"बिनाहर तुम्हें
कद्दू पहरण पाव
घता
अम्हें कइदय कषणु खलु । जाम ण पाडमि सिर-कमलु ॥५॥
[ ५ ]
उत्थर पवर-मुख-हि-दीहु ॥१॥ सिरिमाला - कारण दुन्दराहँ || २ || णं सुकइ-कम्व वयणहुँ घरन्ति ॥३॥ दुषि-वरलाव व कु सच ॥४॥ शं पंसुलि-लोयण परिनमन्ति ॥५॥ कक्कादिड पत्तु सुकेसु वाम ॥ ६ ॥
संचयणु सुणेपिणुविजयसोहु । अभि ज्यु विजाहराहें । साइण मि अवरोष्प मिठन्ति । मञ्जन्ति खम्म विदन्ति च । हय गय सुण्णासन संचरन्ति । रणु विजाहर-वाणा जाम ।
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सप्तमो संधि
१११ छोड़ देता है । दीपिका जैसे आगे-आगे प्रकाश करती हुई, पीछे अन्धकार छोड़की जाती है, जैसे सिर खोटे मुनिवरको छोड़ देता है ।।१-२||
धत्ता–हथिनी बालाको किष्किन्धके पास इस प्रकार लें गयी। जैसे नदीकी लहर कलहसीको फलइसके पास ले जाती है |१०||
[४] उसने किष्किन्धको माला पहना दी, मानो सुलोचनाने मेघेश्वरको माला पहना दी हो। विमलदेह वह उसीके पास बैठ गयी, मानो कनकगिरि पर नवचन्दलेखा हो । सभी राजा कान्तिहीन हो गये, मानो चन्द्रज्योत्स्नाके बिना महीधरेन्द्र हों, मानो परमगतिसे चूका हुआ खोटा तपस्वी हो, मानो सूर्य की कान्तिसे रहित कमलोंका सरोवर हो । इसी बीच विजयसिंह श्रीमालाके पतिपर क्रोधकी ज्वालासे भड़क उठा, "श्रेष्ठ विशाधरोंके मध्य वानरोंको प्रवेश क्यों दिया गया ? वधू छीन लो
और घरको मार डालो, वानरवंशरूपी वृक्ष की जड़ खोद दो।" यह शब्द सुनकर, अमर्षसे भरकर अन्धकने उसे ललकारा ||१-८॥ ___ पत्ता-तुम विद्याधर हो और हम वानर ? यह कौन-सा छल है ? ले पाप, आक्रमण कर जबतक मैं तेरा सिरकमल नहीं गिराता ॥९॥
[१] यह वचन सुनकर प्रवल और विकसित बाहुओंवाला विजयसिंह उछल पड़ा ! इस प्रकार श्रीमालाके लिए दुर्धर विद्याघरों में संघर्ष होने लगा। सेनाएँ भी आपस में उसी प्रकार मिड़ गयीं, मानो सुकवि के काव्य वचन आपस में मिल गये हों। शून्य आसनवाले अश्व और गज घूम रहे हैं, मानो कुकविके अगठित काव्य वचन हों। जिस समय विद्याधरों और वानरोंका युद्ध चल रहा था, असमय लंकानरेश सुकेश वहाँ पहुँचा।
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पडमचरित
आलग्णु सो वि वणे जिह हुमासु । जस मुछा सो सो केह णासु ॥७॥ तहि अवसर वेहाविदएण। रणे विजयसीह इउ भन्धएण 16॥
धत्ता महि-ममद्धल सीसु दीसह असिषर-खण्डिया । णावह सयवन सोवि हंसे छण्डियउ ॥९||
[३] विणिशाइ' विजयमइन्हें खु। किएँ पाराउट्टएँ वस्त्र-समुरें ।।। सुहागणु मणा सुकेसु एम। 'सिरिमाल लएप्पिणु जाहुँ देव' ॥२॥ से घयणे गय कण्टइय-गत्त। जिविससे कि-पुरक्खु पच ॥३॥ गुप्ता, विदुगिट्टवण-हेड । केण विणिसुणाविउ असणिवेउ ॥४॥ 'परमेसर पर-गरवर-सिरीहु । श्रोहगाह पाणे हिं विजयसीह ।।५।। पडिचन्दही सुगण कहइएण। आवहिउ जम-मुहें श्रन्धएण' ॥६॥ तं वयणु सु वि ण करन्तु खेड। सण्णहवि पधाहत असणिवेड ॥ चवर विजाहर-वलेण। परिवेनिउ पट्टणु से छलेण ॥८॥
पत्ता हकारिय वे वि "पावहीं पमय-महदयहो। लाइ हुन्उ काल णिमाहाँ किकिन्धनधषही' ॥२॥
[५] पुणु परछएँ विस्फुरियाणणेण। हकारिष विजुळवाहणेण ।।३।। 'अरें माइ महारउ णिहउ जेम । बुद्धर-सर-धोरणि धरहाँ तेम' ॥२॥ वं णिसुणेवि दूसह-दसणेहि। पडिबग्द-णरिन्दहों पन्दणेहि ।।१।। णिरगन्तहि जण-णिगाय-पयातु । कित पाराउट्ठउ सेण्णु साधु ॥३॥
सो असणिवेट अन्धयहाँ वसिर । सरिवाहणेण सिक्किन्धु खलिउ ॥५॥ पहरण मुयन्ति सु-दारूया। खणे भग्गेयाई खणे धारणा ॥३॥ सगे पषणस्थर खणे थम्मणा। खगें वामोडण-उम्मोइणा ।।७।।
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सप्तमो संधि
यह वनमें दावानलकी तरह युद्ध में भिड़ गया,वह जहाँ पहुँचता, वहीं विनाश मच जाता। उस युद्ध में क्रोधसे भरे हुए अन्धकने विजयसिंहका काम तमाम कर दिया ॥१-८॥
धत्ता-तलवारसे कटा हुआ उसका सिर धरती पर ऐसा दिखाई देता है मानो हंसने कमल तोड़कर छोड़ दिया हो ॥९॥
[६] क्षुद्र विजयसिंहके मारे जाने, और सेनारूपी समुद्रका पार पाने के बाद, प्रसन्नमुख सुकेश इस प्रकार कहता है, “हे देव, श्रीमालाको लेकर लें।" इन सान्दोंमे पुललित शरीर वे गये
और आधे क्षणमें किष्किन्ध नगर जा पहुंचे । यहाँपर भी किसीने दुष्टोंका नाश करने में प्रमुख अशनिवेगसे जाकर कहा, "हे परमेश्वर, शत्रुराजाओंमें श्रेष्ठ विजयसिंहको, जो प्राणोंसे सेवा करता है, प्रतिचन्द्रके पुत्र कपिध्वजी अन्धकने यमके मुंहमें पहुँचा दिया है।" यह वचन सुनकर अशनिवेग बिना किसी खेदके तैयार होकर दौड़ा और विद्याधरोंकी चतुरंग सेनासे छलपूर्वक उसके नगरको घेर लिया ।।१-८॥
घत्ता- उन दोनोंको ललकारा, "अरे पापी कपिध्वजी किष्किन्ध और अन्धक निकलो, तुम्हारा काल आ पहुँचा है"||९||
[७] उसके बाद तमतमाते हुए मुखवाले विद्युदाहनने ललकारा, "अरे, जिस प्रकार तुमने मेरे भाईको मारा है उसी प्रकार तुम मेरी दुर्धर तीरोंकी बौछार झेलो।" यह सुनकर प्रतिचन्द्र के दुर्दशनीय पुत्रोंने निकलकर, जिसका प्रताप लोगोंको विदित है, ऐसी समूची सेनाको यहाँसे वहाँ छान मारा। अशनिवेग अन्धककी ओर बढ़ा। विशुद्वाहनने किष्किन्धको स्खलित किया, वे भयंकर अस्त्रोंसे प्रहार करने लगे । क्षणमें आग्नेय अस्त्र, और क्षणमें वारुणास्त्र । क्षणमें पवनास्त्र, क्षण, स्तम्भन अस्त्र, झणमें व्यामोहन और सम्मोइन । क्षणमें
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पउमचरिउ
महिलखणे गायले भ्रमति । खर्णे सन्दर्णे खर्णे जें बिमाणे धन्ति ॥८
१२२
भायामें विक्खु णि पन्थ तेण
एस विमिन्दिवाण पहउ । अच्छन्त परिचितेंवि भणेण । साई सरें सुकै पासु । परिवाइड वेयण-माउ लद । 'कहिं भन्व' 'पेस-बुकु देव' पुणु पडिवाइड पुणु आउ जीउ हा माय सहोयर देहि वाय ।
२
।
सो
मइ सुकंसु सिरें क्खि खग्र्गे
घत्ता
अन् खभ कण्हें हउ
जें सो चिजयमइन्दु गर ||२९||
[<]
किष्किन्धाराहि मुच्छ गउ || १|| आमेलिङ विजुकवाहणेण || २ || रहबरें छुहेचि डि निय-निवासु ॥३॥ उन्हें पुच्छिउ परम-बन्धु ||४|| णिवडिउ पुणो वि तडि-रुक्खु जेम ||५ हा पढ़ें विणु सुण्णउ पमय-दीड ॥ ६ ॥ हा पइँ विष्णु मेणि विजाय ॥ ७ ॥
घन्ता
संसठ माह जिएवाहों ।
अवसर कंवणु रुपषा ॥ ८ ॥
दिणु कर्जे रिहिं अनु देहि । जीवन्त सिझइ सक्छु कज्जु । से पिसुर्णे विषाणर-स- सारु । णासन्तु लिए वि हरिसिय-मणेण । कर वरि अणिवेषण पुत्तु । णासन्तु यवन्तु सुबन्तु सत्तु । जें विजयसीहु हउ मुय बिसालु
[+]
पापाकल पड्सर एहि ||१|| एत्तिउ णचिहउँ ण वि तुर्हे ण रज्जु ॥ १
सरिस साह स-परिवारु ॥ ३ ॥ रहु बाहिङ विज्जुल वाहणे ||४|| किं उत्तिम पुरिस एड जुत्तु ॥५॥ मुञ्जन्तु ण हम्मद जल पिंयन्तु ॥ ५॥ सो जिउ कियन्त-दन्तन्तरालु ॥७॥
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सतमो संधि
१२५ धरतीपर, क्षण में आकाशमें घूमते हुए । एक क्षणमें विमानमें, एक क्षणमें स्यन्दन में ।।१-८॥ __घता-बड़ी कठिनाईसे अशनिवेगने खड्गसे अन्धकको कण्ठमें आहत कर, उसे उसी पथपर भेज दिया, जिसपर कि विजयसिंह गया था ।।९।।
[4] यहाँ भी भिन्दपालसे आहत किष्किन्ध राजा मूच्छित हो गया। उसे पड़ा हुआ देखकर विद्युद्वाहनने छोड़ दिया। उस अवसरपर सुकेश उसके पास पहुँचा और रथवरमें डालकर उसे नृपभवन में ले गया । हवा करने पर उसे होश आया। उठते ही उसने अपने भाईको भूला : किसीने इ.1, "भा कहाँ देव, वह तो सेवासे चूक गया ।" वह फिर किनारेके पेड़की तरह गिर पड़ा। फिरसे हवा की गयी और उसमें चेतना आयी । वह कहने लगा, “हा, तुम्हारे बिना वानरद्वीप सूना हो गया, हे भाई, हे सहोदर, तुम मुझसे बात करो, हा, तुम्हारे बिना यह धरती विधवा हो गयी ॥१-७॥
धत्ता-तब सुकेश कहता है, "हे स्वामी, जब जीनेमें सन्देह हो और सिर पर तलवार लटक रही हो, तब रोनेका यह कौनसा अवसर है ||८||
[२] बिना कामके तुम' शत्रुओंको अपना शरीर दे रहे हो, आओ पाताललोक चलें। जीवित रहनेपर सब काम सिद्ध हो जायेंगे । यहाँ तो न मैं हूँ, न तुम, और न यह राज्य ।" यह सुनकर वानरवंश-शिरोमणि अपनी सेना और परिवारके साथ वहाँसे भाग निकला। उसे भागता हुआ देखकर हर्षितमन विद्युद्वाहनने अपना रथ हाँका । तब अशनिवेगने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, "उत्तम पुरुषके लिए यह ठीक नहीं है, भागते, प्रणाम करते, सोते, खाते और पानी पीते हुए शत्रुको मारना ठीक नहीं। जिसने विशालबाहु विजयसिंहको मारा
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पउमचरिउ
संमिसुत्र दिवाणु नियन्तु । कहु देसु पसाहिब एक छसु ||4||
घत्ता
पण अण्णा पट्टई । सु-कलत व सन्जोग्वजयें ॥९॥
१२४
रिघायद्दों लङ्क भुइँ इच्छाएँ
सुक्रेस पुर हरेबि । बहु-दिवसेंहिं घण-पट णिचि सहसार- कुमारों देषि रज्जु । बहु काले किकिन्धाहिवो वि ।
।
पहलुट्ट्टु पढोबउ णर-वरि जांच व पहिलोयणेहि ।
-
गाय व ममर-महुअरि-सरहि । वीममह व ललिय-कयाहरेहिं ।
सं सेल निवि कि पट्टणु तेथु
[ 10 ]
अवर वि विज्जाहर बसि करेषि ||१|| तं विजयसीह- वुडु संभषि ||२|| अपुर्ण साहिल पर-लोय-कउजु ॥३॥ गउ बन्दण-हतिए मेरु सोचि ॥ ४ ॥ मधु पवर-महीहरु ताम दिड् ॥१५॥ इसइ व कमलायर - आणणेहि ॥६॥ पहा व णिम्मल जल - णिज्झरेहिं ॥७॥ पणव व कुल-फल- गुरुमरेहिं ॥८॥
।
मधु-महिरो विचिन्वु वुत्तु अणु वि सूररउ कणिट्ट्टु तासु । एहें त्रि सुकेसों तिणि पुत । पोढणे च तेहिं ताउ ।
घप्ता
कोकायि जिथ पय पउ । *विकन्धे किक्किन्धपुरु ||५||
[1]
उच्छुरउ ताम उपणु श्रुत्तु ॥१॥ बाहुवलि जेम भरहेसरा || २ || सिरिमालि-सुमालि सुभलवन्त ॥ ३॥ 'क्रिण जाहूँ जे किधिराज ॥ ४ ॥
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ससमो संधि
१२५ था, वह तो यमको दाड़ोंके भीतर भेज दिया गया है।" यह सुनकर विद्युद्वाहनने प्रयत्न छोड़ दिया। शीघ्र ही उसने अपने देशका एकछत्र प्रसाधन सहा लिया ॥३॥
यत्ता-निर्यातको लंका और दूसरोंको दूसरे-दूसरे नगर दिये जिन्हें वे, यौवनवती स्त्रियोंकी तरह भोगने लगे |९||
[१०] किष्किन्ध और सुकेटाके नगरोंका अपहरण कर, तथा दूसरे विद्याधरोंको अपने अधीन यना, बहुत दिनोंके बाद मेघपटलोंको देखकर अपने भाई विजयसिंहके दुःखको याद कर, विचुद्वाहन विरक्त हो गया। कुमार सहस्रारको राज्य देकर उसने अपना परलोकका काम साधा। बहुत समयके अनन्तर किष्किन्धराज भी मेरु पर्वतपर वन्दना-भक्तिके लिए गया । वह नरश्रेष्ठ वापस लौटा, इतने में उसे मधु नामक विशाल महीधर दिखाई दिया, जो अपने प्रदीर्घ नेत्रोंसे ऐसा लगता था कि जैसे देख रहा है, कमलाकरोंके मुखोंसे ऐसा लगता था कि जैसे हँस रहा है, भ्रमर और मधुकरियोंके स्वरोंसे ऐसा लगता था जैसे गा रहा है, निर्मल पानीके झरनोंसे ऐसा लगता था जैसे स्नान कर रहा है, लतागृहोंसे ऐसा लगता था जैसे विश्वस्त कर रहा है, फूलों और फलोंके गुरुभारसे ऐसा लग रहा है, मानो प्रणाम कर रहा है ॥१-८॥
घत्ता-उस पर्वतको देखकर उसने अपनी प्रमुख प्रजाको बुलवा लिया। किष्किन्धने वहाँ किष्किन्ध नामका नगर बसाया ॥९॥
[११] तबसे मधुमहीधर भी किष्किन्धके नामसे जाना जाने लगा। उसके ऋक्षरज पुत्र उत्पन्न हुआ। उससे छोटा, दूसरा एक और सूररज हुआ, वैसे ही जैसे भरतेश्वरका छोटा भाई बाहुबलि । यहाँ सुकेशके भी तीन पुत्र हुए, श्रीमालि, सुमालि और माल्यवन्त । प्रौढ़ युवक होनेपर उन्होंने अपने पितासे पूछा,
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१२६
पउमचरित तं सुणे वि जनरें बुत्तु एम | थिय दादुप्पाडिय सयु जेम || कहि जाहुँ मुएँ वि पायाकला। चउपासिउ वहरिहुँ तणिय सा ।। धपत्राहण-पमुह णिरन्तराई। एत्तिय ई जाम रजन्तराई ॥७॥ अणुहूय सङ्ग कामिणि व पचर। महु तणएँ सीसें अवहरिय प्रवर ॥८॥
पत्ता ते व्यणु सुणेवि मालि पलित्तु दवन्गि जिह । 'उद्धद्धएँ रजें णिविस वि जिज्बइ ताय किंह ॥५॥
[२] महं कहिय भडारा पर्ने जि णित्ति । तिह जीवहि जिद परिममइ कित्ति ॥१॥ तिह इस जिह ण हसिमा जण । तिह भुज जिह " मुञ्चहि धणेण ॥२॥ तिह जुयु जिह णिच्युइ जणइ अङ्ग। तिह सजु जिह पुणु वि ण होइ सा॥३॥ विह च जिह बुच्चा साहु लाहु । तिह संचरु जिह सयणई ण डाहु ॥२॥ तिह सुगु जिह णिवसहि गुरुहुँ पासें। सिंह मरु जिह णावहि गम्भवासें ॥५॥ तिह तद करें जिह परितवद गनु । तिह रज्जु पा. जिह यह सत्तु ॥५॥ कि जीएँ रिउ शासकिएण। किं पुरसे माण-कलडिएण Ht किं दुचे दाण-विवजिएण। किं पुत्ते मइलाइ बंसु जेण hell
घता जह कल्लएँ ताय वाणरि ण पसरभि । सो णियय-जणेरि इम्दाणी करपलें परमि ॥९॥
[ ] गय स्यणि पयाणउ परएँ दिण्णु। हर तुरु रसायलु णाई मिण्णु ॥३॥ संचल्लिउ साइणु पिरयसेसु। भारत के वि पर गथषरेसु ॥२॥ तुरएसु के वि के वि सन्दणेसु । सिबिएसु के वि पवागणेसु ॥३॥ परिवढिय सा-पयरि तेहिं । जं महिहर-कोटि महा-धणेहि ॥७॥
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सप्तमो संधि "हम वहाँ क्यों न जायें जहाँ किष्किन्धराज है ?" यह सुनकर पिता बोला, "हम यहाँ उस साँपकी तरह हैं, जिसकी दाद उखाड़ ली गयी है, पाताल-लंका को छोड़कर कहाँ जाये, चारों
ओरसे दुश्मनोंकी शंका है? मेघवाइन प्रमुख, राज्यान्तर यहाँ जबतक निरन्तर बने हुए हैं, जिस लंका नगरीका हमने कामिनी की तरह भोग किया है, वहीं हमसे छीन ली गयी है" ॥१-८॥ - घत्ता-यह वचन सुनकर मालि दावानलकी तरह प्रदीप्त हो उठा, "हे तात, राज्यके छोन लिये जाने पर एक पल भी किस प्रकार जिया जाता है ? IR||
[१२] हे आदरणीय, आपने ही यह नीति मुझे बतायी है. कि उस प्रकार जीना चाहिए जिससे कीर्ति फैले, उस प्रकार हँसो कि जिससे लोग हसी न उड़ा सकें, इस प्रकार भोग करो कि धन समाप्त न हो, इस प्रकार लड़ो कि शरीरको सन्तोष प्राप्त हो, इस प्रकार त्याग करो कि फिरसे संग्रह न हो, इस प्रकार बोलो कि लोग वाह-वाह कर उठे, ऐसा चलो कि स्वजनोंको डाह न हो, इस प्रकार सुनो जिस प्रकार गुरुके पास रह सको, इस प्रकार मरो कि पुनः गर्भवासमें न आना पड़े। इस प्रकार तप करो कि शरीर तप जाये, इस प्रकार राज्य करो फि शत्रु झुक जाये । शत्रुसे आशंकित्त होकर जीनेसे क्या ! मानसे कलंकित होकर जीनेसे क्या? दानसे रहित धनसे क्या? वंशको कलंकित पुत्रके होनेसे क्या? ॥१-८॥ __घत्ता हे तात, यदि कल मैं लंकानगरीमें प्रवेश न करूँ, तो अपनी माँ इन्द्राणीको अपनी हथेली पर रखू" ॥९॥
[१३] रात बीत गयी, दिन आ गया। नगाड़े बज उठे, रसातल विदीर्ण हो उठा । समस्त सेना चल पड़ी। वे दोनों भी गजवरपर आरूद हो गये। कोई अश्वोपर, कोई रथोपर। कोई शिविकाओंमें। कोई सिंहोंपर। उन्होंने लकानगरीको
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१२८
पउमरित
णं पोल-विलासिणि कामुएहि । णं सयबप्तिणि फुल्लन्धुपाहि ॥५।। किउ कल यल रहसाऊरिणहि । पडिपहराई तुरई तरिहि ।।६।। चिहि सक्ष तालिग हि ताल । चल-पासिउ उट्टिन मड-धमाल ॥७॥ घाइउ ल कादिङ विष्फुरन्तु । रणे पाराउटर पल करन्तु |८॥
पत्ता गंमत-गइन्दु पशागणहाँ समावदित सरहमु णिग्घाउ गम्पिणु मालिइ अभिडिउ ॥९॥
[१४] पहरन्ति पशेप्पर तस्वरहि । पुणु पाहाणहि पुणु गिरिवरहि ॥१॥ पुणु विजारूवहि भीयागेहि। अहि-गरुड-कुम्भि पञ्चाणणेहि ॥२॥ पुणु णाराएहि भयङ्करहि । मुबइन्दायाम-पईहरहि ॥३॥ हिन्दन्ति महारह-छस-धयई। वहयागरण व वाया प-पयई।1।। प्रत्भन्सवाहिय-यन्दगण । दणुवइ-इन्दामिह पान्दणेण ।।।। सयचारत परिप्रजेवि गयणे। हड खरगे छुद्ध कियन्त-वयणें ॥६॥ णिग्घाउ पडिउ जिग्घाउ जेम | महियले णर गहें परितु? देव ॥७॥ चत्तारि वि धुव-परिहव-कलङ्क । जय-जय-सदेण पइट्ट लङ्क ॥ll
सन्ति सन्तिहरे सुविलासिणि जेम
गम्पिशु वन्दण-हसि किय ।
स ई भुञ्जन्त थिय ।।१।।
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सार
१२९ घेर लिया जैसे महामेघोंने महीधर श्रेणीको घेर लिया ह । मानो प्रौढ़ विलासिनीको कामुकोंने, मानो कमलिनीको भ्रमरोंने। वेगसे आपूरित वे कोलाहल करने लगे, सूर्यक्रोंने नगाड़े बजा दिये । शंखधारियोंने शंख और तालवालोंने ताल । चारों
ओरसे योद्धाओंका कोलाहल उठा। चमकता हुआ लंकानरेश दौड़ा, युद्ध में सेनामें हलचल मचाता हुआ ॥१-८॥
घत्ता-निर्घात हर्षित होकर सालिसे इस प्रकार भिड़ गया जिस प्रकार मत्त गजेन्द्र सिंहके सामने आ जाये ॥५॥
[१४] दोनों आपसमें प्रहार करते हैं, तस्वरोंसे, पाषाणोंसे, गिरिवरोंसे, भीषण सर्प, गरुड, कुम्भी और सिंह आदि नाना विद्यारूपोंसे, भयंकर तीरोसे, (जो भुजगेन्द्र के आयामकी तरह दीर्घ थे), महारथ छय और वजोंको उसी तरह छिन्न-भिन्न कर देते हैं जिस प्रकार वैयाकरण व्याकरणके पदों को। इसी बीच राक्षस और इन्द्राणीका पुन मालिने अपना रथ हाँकफर, आकाशमें सौ बार घुमाकर निर्घातको तलवारसे आहत कर, यमके मुखमें डाल दिया। निर्घात आहत होकर निर्घातकी तरह ही धरतीपर गिर पड़ा, आकाश में देवता सन्तुष्ट हुए, चारोंने पराभवका कलंफ धो डाला। उन्होंने जय-जय शब्दके साथ लकानगरीमें प्रवेश किया ||१-८|| ___घसा-शान्तिनाथ मन्दिरमें जाकर उन्होंने वन्दना-भक्ति की, और सुविलासिनीकी तरह लंकाका स्वयं उपभोग करते हुए वे वहीं बस गये ।।२।।
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पउमचरित
अदुमो संधि मालि राज करन्ताहौँ सिदइ विज्माहर-मण्डलाई। सहसा महिमुहिङ्काई सायरहों जेम सम्बई जलाई ॥१॥
[1] तहि अवसरें छह-पापग्दुरें। दाहिण-से लिहि रोजर-पुरें ।।३।। पिछल-णिधिणि पीपा-पोहरि । सहसारहों पिय माणस-सुन्दरि ।।२।। ता, पुत्तु सुर-सिर-संपण्णव । इन्दु बवेवि इन्दु उपाणउ ।।३।। भेला मम्ति दन्ति अइरावणु। समाचइ हरिकसि भयावणु ।।।।। विजाहर जि सब किय सुरवर । पक्षण-कुवैर-वरुण-जम-ससहर ॥५॥ सम्वीस वि सहसाई पेक्खणयहुँ। पाहि पमाणु खुज्ज-बामणय( ॥६॥ गायण जाई मुरिन्दसणपहुँ। णामई ताई कियई अप्पणगहुँ ।। उम्बसि-सम्म-तिकोतिम-पहुइहि । भट्ठायाल-सहस-वर-जुवइईि १८॥
पत्ता
परिचिन्तिर विज्जाहरण ताई ताई मछु चिन्धाई
सहाँ जाई-जाई भाखण्यलहों। छइ हउँ जि इन्टु महि-मण्डलहौ।।।
जुप खय-काणि(?) णिशालिहुँ । जे जे सेव करन्ता माझिहैं ।।। से ते सिलिय णराहिव हदहों। अवर बलोह व अवर-समुदही ॥२॥ कायु ण दिन्ति अन्ति सिरिंगारहि (1)। श्राण करन्ति वि णाहकारहि ॥३॥ केण यि कहिट गम्पि नहीं माल है। 'पहु संकन्ति(?)ण तुम्ह जिहालिहर?) इन्दु को वि सहसारहों जन्दणु । तासु करन्ति सम्घ भितणु ॥५॥ तं णिसुवि सुकेसहों पुते । कोच-जलण-मालोलि-पलिते ॥६॥
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अट्टमो संधि
आँध संधि मालिके राज्य करनेपर सभी विद्याधर-मण्डल सिद्ध हो गये, उसी प्रकार जिस प्रकार सभी जल समुद्रकी ओर अभिमुख होते हैं।
[१] उस अवसरपर इक्षिण श्रेणी में चूनेसे पुता हुआ सफेद रथनूपुर नगर था। उसके राजा सहस्रारकी विशाल नितम्योवाली, पीन-पयोधरा मानससुन्दरी नामकी पत्नी थी। जमके सुरश्रीसे सम्पूर्ण पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे इन्द्र कहकर पुकारते थे। उसका मन्त्री बृहस्पति, हाथी ऐरावत, सेनापत्ति भयानक हरिकेदा था। उसने पवन-कुवेर-वरुण-यम और चन्द्र सभी विद्याधरों और सुरचरोंको अपना बना लिया। उसके छच्चीस हजार नाटककार थे। कुरुज और धामनोंकी तो कोई गिनती नहीं थी। इन्द्रकी जितनी गायिकाएँ थीं, उनके अनुसार उसने अपनी गाविकाओंके नाम रख लिये, जैसे उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा इत्यादि अड़तालीस हजार श्रेष्ठ सुन्दर युवतियों थीं ॥१-८॥
यत्ता-उस विद्याधरने सोचा कि इन्द्रके जो-जो चिहह वे-वे मेरे भी है, लो मैं भी पृथ्वीमण्डलका इन्द्र हूँ ॥२॥
[२] जो-जो मालिकी सेवा कर रहे थे उसकी भाग्यश्री कम होनेपर, वे सब राजा इन्द्रसे मिल गये, वैसे ही, जैसे दूसरे-दूसरे जल दूसरे समुद्र में मिल जाते हैं। श्रीसम्पन्न होकर भी वे कर नहीं देते । अहंकारी इतने कि आज्ञाका पालन तक नहीं करते । तर किसीने जाकर मालिसे कहा, "भाग्यहीन समझकर, तुमसे लोग आशंका नहीं करते। कोई इन्द्र नामका सहस्रारका पुत्र है, सब उसीको चाकरी कर रहे हैं।" यह सुनकर सुकेशका पुत्र मालि कोपाग्निकी ज्वालासे भड़क उठा।
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१३९
पउमचरित
देवाविय रण-भेरि भपकर। घर (1) सपणहें वि पराइय किएर ॥1 किकिन्धहाँ किकिम्वहाँ णदण | दिण्णु पयाणा वाहिय सन्दण ।।८॥
धत्ता 'गमणु ण सुग्नइ महु माहों' तं मालि सुमालि करें हि धरह । 'ऐक्खु देव युणिमिसाई सिष कम्पन पायसु करमरइ ॥१॥
पेक्खु कुहिणि विसहर-छिज्जती। मोकल-केस णारि रोवन्ती ॥१॥ पेक्यु फुरतज पामउ लोयण। पेक्खहि हिर-हाणु घस-मोयणु ॥२॥ पेक्सु वसुन्धरि-तलु HEIोलवर गे ॥६॥ पेक्लु भकाले महा-घणु गसिर । पाहें णास्तु कषाधु मलजिउ' ॥ तं णिसुणेवि वया तहाँ वलियउ । 'वष्य वजह सउणु जि पलिया५ तो किं मरइ सम्घु एउ अडियः । दह मुएवि अपणु को बलियड़ ॥६॥ छुड़ धीरत्ता होइ मणूसहों। लच्छि कीधि ओसरइ ण पाप्तहाँ' ॥७॥ एम मणेपिणु दिण्णु पयाणउ । चलिउ सेप्णु सरह स-विमाणड ॥८॥
घत्ता हय-नाय-हवर-परवरहिं महियल गयण ण माझ्यउ । दीसह विन्म-महोहरहों महउस्लु गाई उद्धाइयर ॥९॥
तं जमकरणहों अणुहरमाणड । उमग्र-सेवि-सामन्त पणट्ठा। तहि अवसर बलवन्त महाइय। 'अहाँ अहो सउर-पुर-राणा। दुजउ ककाहिउ समरक्षण। हाय-करिन्छ तरलोक-पियारी ।
णिसुणे वि रक्खहाँ तणउ पयाणउ॥३॥ मम्पिणु इन्दहाँ सरणें पइट्टा ॥२॥ मालिह केरा दूअ पराइय ।।३।। कम्पु देवि कर सन्धि भयाणा ॥७॥ कुछ जेण पिघाउ जमाणणे ॥५॥ दासि जेम जसु पैसणगारी ॥६॥
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भट्टमी संधि
उसने भयंकर रणभेरी बजषा दी। अनुचर सन्नद्ध होकर पहुँचने लगे। किष्किन्ध और उसका पुत्र दोनोंने रुष्ट होकर प्रस्थान किया ॥१-८॥ - घाता-उस समय मालि सुमालिका हार कर कहता है, "हे देव, देखिए कैसे दुर्निमित्त हो रहे हैं । सियार चिल्लाता है, कौआ आवाज कर रहा है ॥९॥
[३] नागिनोंसे क्षीण होती हुई पगडण्डी, और फेश खोलकर रोती हुई स्त्रीको देखिए । देखिए वसुन्धराका तल फाँप रहा है, जिसमें घर और देवकुलोंका समूह लोट-पोट हो रहा है। देखिए असमयमें महामेघ गरज रहे है, आकाशमें नंगे धड़ नाच रहे हैं। यह सुनकर उसका मुख मुड़ा। वह बोला, "वत्सवत्स, यदि शकुन ही बलवान् है, तो क्या यह सूठ है कि 'सब मरते हैं। देवको छोड़कर और कौन बलवान् है । यदि मनुष्यमें थोड़ा धैर्य हो, तो उसके पाससे लक्ष्मी और कीति नहीं हटती । ऐसा कहकर उसने प्रस्थान किया। विमानों और र्षके साथ सेना चल पड़ी ।।१-८ll
पत्ता--अश्वगज, रथवर और नरवर धरती और आकाशमें नहीं समाये । ऐसा दिखाई देता जैसे विन्ध्याचल से महामेघ उठे हों ।।९।।
[४] राक्षसके अभियानको यमकरणके समान सुनकर दोनों श्रेणियों के विद्याधर भागकर इन्द्र की शरण में चले गये। इसी अवसरपर मालिके महनीय बलवान् दूत बहाँ आये। उन्होंने कहा, "अरे अजान, रथनूपुरके राजा, तुम कर देकर सन्धि कर लो। युद्ध-प्रांगण में लंकानरेश अजेय है जिसने निर्यातको यमके मुखमें डाल दिया है, त्रिलोककी प्रिय राजलक्ष्मी,
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पउमचरित तेण समाणु विरोहु मसुन्दर'। भापहि धयणे हिं कुविउ पुरन्दरा॥ 'बूड भणेवि तेण तु चुका। तो जम-दन्तन्तरु तुका ॥८॥
को सो लक-पुरादिवइ जो जीवेसह विहि मि रण
घत्ता
को हुँ किर सन्धि कहो सणिय । महिणीसाषण्ण तहो तणिय ॥५॥
गय ते मालि-दूध णिभरिछय । दुन्वयणावमाण-परिहस्थिय ।।१॥ सगणनाइ सुरिन्दु सुर-साहणु। कुटिस-पाणि भइरावयवाहणु ॥२॥ समाजमाइ तणु-हेश आल। धूमद्धउ कुयारि मेसासणु ॥३॥ सम्णज्मद जम दण्ड-मयार। महिसारूतु पुरन्दर-किक ॥६॥ लण्णजमइ परिउ मोग्गर-धरु । रिच्छारूतु रणकणे धुनुरु ॥५॥ लग्णनइ वरुणु लि दुईसणु। णागवास-कर करिमयरामणु ॥६॥ सपणमाह मिग-गमणु समीरण | सरुवर-पवस्तगामिय-पहरणु ॥७॥ सपणमाइ कुबेरु फुरियाहरु पुष्फ-
विणारूढ़ सति-करु ८३ सपणजमाइ ईसाणु विसासणु । सूल-पाणि पर-बल-संतासणु ॥९॥ सम्णजाइ पचाणण-गामिड । कुन्त-पाणि ससि ससिपुर-सामिड १०
पत्ता बाई वि दिल्लीहान्ताई ताइ मि रण-रस-गुलउपगयई । गिवि परोप्पर चिन्धाई सुहरहुँ कवयरे फुटेंवि गयह ॥११॥
साम परोप्पर हाघिद्धई। पढम भिडन्सरै अग्गिम-खम्भा ॥१॥ मुसुमूरिप-उर-सिर-मुह-कन्धर । परिलम-माअ-सेस थिय कुमार ॥२॥ पुरछुग्गीरिय परिपहरन्ति । 'कहिाय अग्गिम-माय' मन्ति व॥३॥ जोह विभमुणिय-जहर-उरस्थरू । 'कहिंगय रित' पहरन्ति व करपल
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भट्टमी संधि जिसकी दासीकी तरह आज्ञाकारिणी है। उसके साथ विरोध करना ठीक नहीं।" इन शब्दोंसे इन्द्र क्रुद्ध हो गया, 'दूत हो' यह सोचकर तुम्हें छोड़ दिया, नहीं तो अभी तक यमकी दाढ़के भीतर चले जाते ॥१८॥ ___घता-कौन वह लंकाका अधिपति, कौन तुम, और किससे सन्धि ? युद्धमें दोनोंमें-से जो जीवित रहेगा, समस्त धरती उसीकी होगी ।।९।।
[५] दुर्वचन और अपमानसे आइत मालिके दूत अपमानित होकर चले आये। जिसके पास सुरसेना है, हाथमें वन है
और पाया की सवारी है ऐसा इन्द भरद्ध होता है, जिसका शरीर ही अस्त्र है, धूम ध्वज है, जलका शत्रु मेष जिसका आसन है, ऐसा अग्नि सन्नद्ध होता है, दण्डसे भयंकर महिपपर बैठा हुश्रा इन्द्रका अनुचर यम सन्नद्ध होता है, मुद्गर धारण करने. वाला रीळपर आरूद रणांगणमें कठोर नैऋत्य तैयार होता है, जिसके अधर स्फुरित है, और जो हाथमें शक्ति धारण करता है, ऐसे पुष्प विमानमें आरूढ़ कुबेर तैयारी करता है । वृषभ जिसका आसन है, जो हाथमें त्रिशूल लिये है, ऐसा शत्रुसेनाको सतानेवाला ईशान सम्बद्ध होता है, सिंहगामी, हाथमें भाला लिये हुए, शशिपुरका स्वामी चन्द्रमा तैयार होता है ॥१-१०॥ __ घत्ता-जो लोग ढीले पोले थे, उन्हें भी असमय उत्साइसे रोमांच हो आया, एक-दूसरेके ध्वज-चिह्न देखकर योद्धाओंके कवच तड़क गये ।।११।।
[६] तब सबसे पहले क्रोधसे भरी हुई दोनों ओरकी अग्रिम सेनाएँ आपसमें भिड़ गयीं । गजोंके वक्ष, सिर, मुख, कन्धे नष्ट हो चुके थे, उनका पिछला भाग शेष रह गया था। फिर भी वे पूल उठाकर प्रतिप्रहार कर रहे थे, जैसे यह सोचते हुए कि हमारा अगला भाग कहाँ गया ? योद्धा भी अपने पेट और उरस्थलका
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१३५
संसूरिय तुरङ्ग धय- सारहि ।
तहि अक्सरे रहनेडर-सारहों । सूररगुण सोमु रणे खारिउ ।
पउमचरि
-सेस थिय णवर महारहि ||५||
धाइउ मल्कबन्तु सहसा
||६||
उरण वरुणु हक्कारिउ ॥ ७ ॥
कलिं ॥4॥
घन्ता
'एत्ति कालु ण वुझिय उ रण्डे हि सुण्डेहि जिम्भिऍहि
तुहुँ कबहुँ इन्दहुँ इन्दु कहें। किं जो सो रम्महि इदव हें ||५||
[]
तं शिसुर्णेनि घोइड भरावउ | मालि- - पुरन्दर मिडिय परोप्पर । गुजाइँ सेस गरे हिं परिचतहूँ । इन्दयालु जिह सिंह जोइ आइ । भीम महाभीमें हि जा दिण्णी । साविकक वरण उदाइ चिन्तित वरण-पण जमव दुएं खुत्तु आस राङ्गणें ।
वह जिझरन्तु कुळ-पावर ॥१॥ विहि मि महाहउ बाउ मचकुरु ॥१२॥ थिय पढिथिराहें करेष्पिणुत ॥३॥ रक्खें - विज चिन्तिज्जइ ॥४॥ गोत्त-परम्पराएं अवइन्णी ॥५॥ परिवद्धिय गयणमण माध्य ॥ ६॥ हि । 'पत्तु इन्दु चरिए हिं अध्यण हिं ॥७॥ दुज्जड माफि होइ समरङ्ग ॥८॥
।
घत्ता
राहि परथावें पुरन्दरेंग
माहिन्द-विज्ज हु संभरिय |
यि तहें विचणिय रविकन्सिए ससि कन्ति व हरिय ॥१९॥
माहिन्द - विन अबलोऍषि | 'यण किउ महारज बुत ।
[ 4 ]
भइ सुभाष महि-मुहु जोऍषि ॥१॥ एवहिं आयउ कालु तिड ॥ २५
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भट्ठमो संधि
१३. ख्याल न रखते हुए, 'शत्रु कहाँ गया ? यह कहते हुए करतलसे प्रहार करते हैं, अश्व, ध्यज और सारथि चूर-चूर हो गये। केवल महारथियोंके हाथमें चक बाकी बधा। उस अवसरपर, रथनूपुर श्रेष्ठ सहस्रारके ऊपर माल्यवन्त दौड़ा, सूर्यरवने सोमको युद्धमें ललकारा, ऋक्षराजने बरुणको हकारा। किष्किन्धने यमको, सुमालिने धनदको, सुकेशने पवनको, मालिने इन्द्रको ॥१-८॥
घसा (मालि कहता है) "इतने समय तक मैं नहीं समझ सका कि तुम किस इन्द्रके इन्द्र हो, क्या तुम वाह इन्द्र हो जो रुण्ड-मुण्डों और जिलाओंके द्वारा इन्द्रपथमें रमण करता है, "||२||
यह सुनकर इन्द्रने एतिको प्रेरित किया, जैसे वह झरता हुआ कुलपर्वत हो । मालि और इन्द्र आपसमें भिड़ गये, दोनोंमें भयंकर महायुद्ध हुआ। शेष योद्धाओंने युद्ध छोड़ दिया, ने अपने नेत्र स्थिर करके रह गये । वे इस प्रकार देखने लगे जैसे इन्द्रजालको देखा जाता है, रामसने राक्षस विद्याका चिन्तन किया जो भीम महाभीम द्वारा दी गयी थी, और जो उसे कुल परम्परा से मिली थी। अपना मुख विकराल बनाये वह दौड़ी, बह, इतनी बढ़ी कि आकाशतलमें नहीं समा सकी। वरुण, पवन, यम और कुबेर सोच में पड़ गये, इन्द्र के दूत उसके पास पहुँचे। उन्होंने कहा, “दूतने राजसभामें ठीक ही कहा था कि मालि युद्धमें अजेय है ॥१-दा। ___घत्ता-उनके प्रस्तावपर इन्द्रने शीघ्र माहेन्द्र विद्याका स्मरण किया, वह सूर्यकान्त और चन्द्रकान्तकी तरह उससे चौगुनी बढ़ती चली गयी ॥२१॥
[८] माहेन्द्र विद्याको देखकर सुमालि मालिका मुख देखकर कहता है, "उस समय तुमने हमारा कहना नहीं भाना, अब लो
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१५८
पठमधारित तं णिसुणे वि पलम्च-भुय-दालें । अमरिस-कुपण रण माळे ॥३॥ पायय-धारण-अमगेय स्थई । मुफई तिणि मि गयह णिस्त्थई ॥१॥ जिह अण्णाण-
कतिपयमाई : गोगामें परमरपा । जिह उवयार-सयई अकुहीणएँ। वयइँ जेम चारित्त-विहीणएँ ॥६॥ गम्पि परजणु मिसिल पक्षणे। वरुणहो वरुणु हुवासु हुासणें ॥७|| फसिट पुरन्दरेण 'अरें मरणव । देव-समाण होम्ति किं दाणव' ॥६॥
घसा
मणइ मालि 'को देउ तुहुँ बं बन्धहि ओहदहि वि
पल पउरु सु स्थलु पिरिक्खियउ । इन्दयाल पर सिक्खियड' ॥५॥
सं शिसुणेषि वयशु सुरराएँ। विद्धु पिडालें मालि पाराएँ ||३॥ लहु उत्पावि घिउ परिन्दें। गाइँ बरसु मत्त-गहन्दे ॥२॥ सहसा रुहिरायम्बिरु दीसिन। णं मयालु सिन्दूर-विहूसिउ ॥३॥ वाम-पाणि वणे देवि भवन्तिएँ। भिषणु णिवाले सुराहिउ सप्सिएँ ३४॥ बिहलासु श्रोणक महीयलें। कलथल घु? रक्ख-वाणव-व ॥५|| मालि सुमालि साहुकारिध। 'पई लोम्ताएँ जिम-वंसुद्धारित' ।। उछि मुछु धाः सहसतर। एन्वळ धरवि ण सबिउ रखें ||७| सिरु पाडेवि रसायले पडियद। कह बि ण कुम्म-बी भम्मिडियउ॥4॥
क्यणु मदम ण वीसरिड घे-वारस भइराषयहाँ
पत्ता भानिउ कबन्धु रोसावियउ । कुम्भस्थले भसिवरु वाहियर ॥९॥
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अट्ठमो संधि
१३९ इस समय निश्चित रूपसे काल आया" यह सुनकर, लम्बी हैं बाँहें जिसकी ऐसे मालिने क्रोधसे भरकर वायब, वारुण और आग्नेय अस्त्र छोड़े। वे तीनों ही व्यर्थ गये, उसी प्रकार, जिस प्रकार अज्ञानीके कानों में जिनवचन, जिस प्रकार गोठबस्तीके
आँगनमें उत्तम मणिरत्न, जिस प्रकार अकुलीन व्यक्तिमें सैकड़ों अपकार, जिस प्रकार चरित्रहीन व्यक्तिमें व्रत | प्रभंजन प्रभंजनसे, बायु वायुसे और अग्नि अग्निसे जा मिला। इसपर इन्द्र हँसा, "अरे मानब, क्या देवके समान दानब हो सकते हैं ? ॥१-८|
पत्ता-मालि काहता है, "तुम कौन देव, तुम्हारा प्रबल बल मैंने पूरा देख लिया है, जो तुम बाँधते हो, फिर उसीको हटा लेरो हो, तुमने केवल इन्जाट का ॥५॥ __[२] यह वचन सुनकर इन्द्रने तीरसे मालिको मस्तकमें आहत कर दिया। तब नरेन्द्रने शीघ्र उस तीरको निकाल लिया, जैसे महाराज श्रेष्ठ अंकुशको निकाल ले। मस्तकमें सहसा रक्त की धारासे लाल वह ऐसा दिखा जैसे सिन्दूरसे विभूषित मैंगल हाथी हो ? जल्दी-जल्दीमें घारपर बायाँ हाथ रखकर मालिने इन्द्रको शझिसे ललाटमें आहत कर दिया। वह विकलोग होकर धरतीपर गिर पड़ा। राक्षस और वानरकी सेनाओंमें कोलाहल होने लगा। सुमालिने मालिको साधुवाद दिया कि तुम्हारे होनेसे ही अपने वंशका उद्धार हुआ। सहस्राक्षने उठकर शीश चक्र छोड़ा, आते हुए उसे राक्षस नहीं रोक सका । वह चक्र उसके सिरपर होते हुए धरतीपर जा पड़ा, किसी तरह कछुए की पीठसे जाकर नहीं टकराया ॥१-८॥
पत्ता-मुत्र अपना घमण्ड नहीं भूला । रोषसे भरा कबन्ध दौड़ रहा था । दो बार उसने ऐरावतके कुम्भस्थल पर तलवार चलायी ॥५॥
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१४०
पउमचरिउ
[ 10 ]
०
विजड बुद्ध अमराहिब - साहणें ॥१॥ गलिया कण्ठ- द्विय-जीयउ ॥ २ ॥ 'पच्छ सग्गू देव पश्चिवक्लों ॥ ३ ॥ - केस - किष्किन्धेहिं ॥४॥
सिंह करें जैम ण जन्ति मडारा ||५||
संणिसुर्णेवि गड घोड्ड जायें हिं । ससहरु पुरुष परिद्विउतायें हिं ॥ ६ ॥ 'महु आदेसु देहि परमेसर । मारमिह जि मिसायर वाजर ॥ ७ ॥ सेणु वित्तभि जम-मुह-कन्दरें | दसण- सिछायल - जीहा ककरें" ॥८॥
विणिवाइड र रङ्गणे ।
कद्रय-वल भय-भीगड ।
केण वि ताम कहि सहसा बहुवारत णिसियर - कचिन्हं । ए जि विजयसोह खय-गारा
इन्दे हरि
पर पाएँ हों
धत्ता
भाइ ससि सर परिसन्तु किए । धाराहरु वासारतु जिह ॥ १९ ॥
[1]
'मरु मरु हाँ वहीं किं णास हो । धाराहर-मकवदों दयासदौं ॥१॥ कुछ पाथ सं (?) वासच - केरा' ॥२॥
सुरयण-णयणानन्द-जणेरा । सं मिसुर्णेवि दुरशिय-सङ्कङ । गहकहोलु णाई ण-चन्दद्दाँ । ' ससस कलङ्क अप्रिय | चन्दु मणेवि जैं हासउ दिजह एम चवेष्पिणु चाय-गाहट । सुच्छ पराइच पसरिय- बेयशु ।
हिमवन्तु पर भ ॥ ३ ॥ पाइँ मइन्दु महग्गय-विन्दहों ॥ ४ ॥ महिलाणण वे पक्ख-विवज्जिय ॥५॥ प धि की विकिं श्र्णे घाई' ॥ ६ ॥ भिण्डिवाक-पहरणेण समाह ॥ ७ ॥ दुक्खु दुक्खु किर दोइ सय ॥४॥
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१४1
अमो संधि [१०] जैसे ही युद्ध-प्रांगणमें राक्षसका पतन हुआ, वैसे ही इन्द्रकी सेनाने विजयकी घोषणा कर दी। भयभीत वानर सेना नष्ट हो गयी। आयुध गल गये और प्राण कण्ठोंमें आ लगे। तब किसीने जाकर सहस्राक्षसे कहा, "हे देव, शत्रुसेनाके पीछे लगिए, निशाचर और कपिध्वजियों सुकेश और किष्किन्धके द्वारा बहुत बार हम विदीर्ण किये गये। विजयसिंहका नाश करने. वाले यही है । ऐसा करिए, हे आदरणीय, जिससे ये लोग वापस नहीं जा सके।" यह सुनकर इन्द्र जैसे ही अपना गज प्रेरित करता है, वैसे ही चन्द्र उसके सामने आकर स्थित हो जाता है, "हे देवा, मुझे आदेश दीजिए। निशाचरों और वानरोंको मैं मारूंगा । सेनाको भी यममुखरूपी गुफामें फेंक दूंगा। जो दाँतरूपी शिलाओं और जिलासे कर्कश है ॥१-८||
पत्ता-न्द्रने हाथ ऊँचा कर दिया । तीर घरसाता हुआ चन्द्रमा इस प्रकार दौड़ा, जिस प्रकार मेघके पछाऊँ हवासे आहत होनेपर वर्षा ऋतुमें धाराएँ दौड़ती हैं ॥९॥
[११] वह बोला, "मरो भरो, मुड़ो मुड़ो, हताश वर्षा ऋतुके वानरो, क्यों नष्ट होते हो? सुरजनके नेत्रोंको आनन्द देनेवाली इन्द्र की सेना क्रुद्ध है । हे पाप ।” यह सुनकर, अपनी शंका दूर कर माल्यवन्त आकर उसके सम्मुख स्थित हो गया, जैसे पूर्ण चन्द्र के सामने राहु, जैसे महागजसमूहके सामने सिंह हो । वाह बोला, "अरे कलंकी बेशम चन्द्र, महिलाओंकी तरह तेरा मुख है, तू दोनों ही पक्षोंसे रहित हैं । चन्द्र कहकर तेरा मजाक बढ़ाया जाता है, क्या तुमसे भी कोई युद्धमें मारा जायेगा।" यह कहकर भिन्दपाल शस्त्रसे चापसहित चन्द्र आहत हो गया। मूळ आ गयी । वेदना फैलने लगी। धीरे-धीरे कठिनाई से उसे चेतना आयी ||१-८॥
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११२
पउमचरित
दरीहूया ताम रिख सिरु संचालइ करु धुणद
शता मयलम्छशु मणे असतसह किह । संकन्ति चुफ विप्पु जिह ॥९॥
साम महा-रहणेउर-गुस्वरु। जय-जय-सर्दै पहसइ सुरवरू ॥३॥ पवण-कुवेर-वरुण-जम-खन्दै हि। -फम्भाव-छत्त-कहमन्देहि ॥२॥ वन्दिण-सयहिं पढिय-हरिस हिं। यिजाहर-किष्णर-किरिम हि ॥३॥ जोहम-जल-गरुड-गन्धब्वं हिं। जय-जय-कार कान्तहि सवें हिं॥४॥ चलणेहि गम्पि पडिज सहसारहों । णं भरहसरु तिहुभपा-सारहों ॥५॥ समिपुरि महिह विषण विक्रवायहो। धणयहाँ किक्कु जमरायही ॥६॥ मह-णयर वरुणाहिउ वियउ। कमणपुर कुबेरु पट्टविया ॥७॥
पत्ता अपणु वि को वि पुरन्दरण तहि अवसर जो समाविया । मण्डलु एक्कक्कड पक्ष सो सब्यु स इं भुजावियज ॥४॥
[९. णवमो संधि ] एत्यन्सर रिद्धिहँ जन्ताही पायास-लक भुञ्जन्ताहों। उप्पणणु सुमालिहें पुत्तु किह स्रणासउ रिसहहाँ भरहु जिह ॥१॥
[ ] सोलह-आहरप्पालङ्करित। सयमेव मयशु णं अययरिउ ॥३॥ वहु-दिवसें हि आउछेवि अणणु । गड विनाकारणे पुष्फरणु ।।२४ थिउ अवसुत्तु करयलं करें चि । जिह मह-रिसि परम-झाणु धरेंचि ॥३
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राधि
१४३
धत्ता- तबतक दुश्मन दूर जा चुका था, मृगलीहन अपने मनमें सन्त्रस्त हो उठा। वह सिर चलाता, हाथ धुनता जैसे संक्रान्ति से चूका ब्राह्मण हो ? ||९||
[१२] तब सुरवर इन्द्र जय-जय शब्द के साथ महान् रथनूपुर नगर में प्रवेश करता है। जय जय करते हुए पवन, कुबेर, वरुण, यम, स्कन्ध, नट, वामन, कविवृन्द, हर्षसे भरे हुए सैकड़ों बन्दीजन, विद्याधर, किन्नर, किंपुरुष, ज्योतिषी, यक्ष, गरुड और गन्धर्वकि साथ इन्द्र जाकर सहस्रार के चरणों में उसी प्रकार पड़ गया जिस प्रकार भरतेश्वर त्रिभुवनश्रेष्ठ ऋषभनाथ के चरणों में उसने चन्द्रमा को शशिपुर, विख्यात धनदको लंका, यमको किष्क नगर दिया। वरुणको मेघनगर में स्थापित किया । कुबेरको कंचनपुर में प्रतिष्ठित किया ||१७||
वत्ता- उस समय जो कोई वहाँ था, इन्द्रने उसका आदर किया । एकसे एक प्रवर मण्डलका उसने सबको स्वयं उपभोग कराया ||८||
नौवीं सन्धि
इसके अनन्तर, वैभव से रहते और पाताल लंकाका उपभोग करते हुए सुमालिको रत्नाश्रव नामक पुत्र उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार ऋषभको भरत हुए थे || १||
[१] सोलह प्रकारके अलंकारोंसे शोभित वह ऐसा जान पड़ता जैसे स्वयं कामदेव अवतरित हुआ हो । बहुत दिनों बाद, पितासे पूछकर विद्या सिद्ध करनेके लिए वह पुष्पवनमें गया। उसी अवसरपर गुणोंका अनुरागी व्योमबिन्दु वहाँ
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११५
पटमचरित
तहि अबसरे गुण-अशुराइय। सो पोम विन्दु संपाइयर ॥४॥ रयणात विषा तेण तहिं। 'इमु पुरिस-स्पणु उपाणु कहि ॥५॥ लइ मञ्चर हूपउ गुरु-षय गु । ऍहुँ सो णरु ऍउ तं पुचघणु' ॥६॥ कहकसि णामण वुत्त दुहिय । पप्फुलिय-पुण्डरीय मुहिय ॥७॥ पुत्ति मुहारउ भत्तारु । माणस-मुन्दरि घ सहसार' ॥८॥
घत्ता गड धीय भवेवि णियासवहीं उप्पपण विज रयणासवहीं। घिउ विहि मि म परमसरिहि पं विश्नु तावि-णम्मय-सरिहि ॥१॥
[२] अवलोइय बहु स्यणासत्रेण । श्रगग-भहिसि सई वासण ॥५॥ सु-णियम्विणि परिचलियन्यशि । इन्दीवरच्छि एकअ-चयणि ३२॥ 'कसु केरी कहि अवहम तहुँ । तर पूरै दिदि जणइ सुई ॥३॥ तं सुणेवि स-सङ्क कण चवइ । 'जह मागहों पोमबिन्दु विवाद Rel हउँ सासु धोय कंण ण परिय। ककसि णाम विजाहरिष ॥५॥ गुरुवयणे हि माणिय एड घणु। तर दिपणी करें पाणिग्गाहणु ॥६॥ सं णिसुणे वि सुपुरिम-धवलहरु । उप्पाइड विजाहरणरु ॥७॥ कोकाविउ सयलु वि बन्धुजणु । सहूं कण्णएँ कि पाणिग्गहणु ४
घत्ता
बहु-कालें सुषिणउ हक्लियर अस्थाणे णरिन्यहो अक्खियउ । ‘फाडेपिणु कुम्म, कुमरहुँ पवाणणु उबरें पट्टु महु ॥९॥
डचोलिहें चम्दाइच थिय । "अज-णिमिसाई नाणएँग ।
[ ३ ]
तं णिसुणेवि दइएं षिसिकिय (1)॥ १ बुवा रयणासवराणऍण ॥२॥
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णवमो संधि पहुँचा। उसने यहाँ रत्नावको देखा। उसे लगा कि ऐसा पुरुषरत्न कहाँ उत्पन्न हुआ? तो गुरुका वचन सच होना चाहता है, यही वह नर है और यही वह पुष्पवन है। तब उसने खिले हुए कमलोंके समान मुखवाली अपनी कैकशी नामकी पुत्रीसे कहा, "हे पुत्री, यह तुम्हारा पति है उसी प्रकार, जिस प्रकार मानस सुन्दरीका साहस्रार" ॥२-८॥
पत्ता-वह कन्या वहीं छोड़कर अपने घर चला गया, इधर रत्नाश्रयको भी विद्या सिद्ध हो गयी। वह दोनों परमेश्वरियों के बीचमें ऐसे स्थित था, जैसे ताप्ती और नर्मदा नदियोंक बीच में विन्ध्याचल ॥९॥ [२] यधूको रत्नाको दस प्रकार केला,
सिरहद अपनी अप्रमद्विषीको देखता है। अच्छे नितम्बों और गोल स्तनोंबाली उसकी आँखें इन्दीवरके समान और मुख कमलकी तरह था । ( वह पूछता है), "तुम किसकी ? और कहाँ उत्पन्न हुई ? तुम्हारी दृष्टि दूरसे ही मुझे सुख दे रही है ।” यह सुनकर कन्या शंकाके स्वरमें कहती है, "यदि जानते हैं क्योमविन्दु राजा को। मैं उसकी कन्या हूँ, अभी किसीने मेरा वरण नहीं किया है, मैं कैकशी नामकी विद्याधरी हूँ । गुरुके वचनसे मुझे इस वनमें लाया गया, तुम्हारे करमें मेरा पाणिग्रहण दे दिया गया है।'' यह सुनकर उस पुरुषश्रेष्ठने एक विद्याधर नगर उत्पन्न किया । सब बन्धुजनों को वहीं बुलवा लिया, और कन्याके साथ विवाह कर लिया ॥१-८ii
पत्ता-बहुत समय बाद उसने सपना देखा, और दरबारमें राजासे कहा, "हाथीका गण्डस्थल फाड़कर एक सिंह उदरमें घुस गया है मेरे ॥९॥
[३] कटिवल ( उच्चोलि ) में चन्द्र और सूर्य स्थित हैं।" यह सुनकर प्रिय मुसकरा उठा । अष्टांग निमित्तोंके जानकार
विवाह समबन्धुजनोंका पुरुषश्रेष्ठने एक पाणिमहण
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पउमचरित 'होसन्ति पुत्त तज तिष्णि धणे। पहिलारउ प्ताह रउद्दु रणें ॥३॥ जग-कपट सुरवर-इमर-करु। मरहन-प्पराहिउ पचरु' ॥५॥ परिओय कहि मि प्य मन्ताहुँ। णन-सुस्प-सोक्ख मायान्ताहूँ | उप्पण्णु दसाणणु अतुल-बलु । पारोह-पईहर-मुय-जुयलु ॥३॥ पक्कल-णियम्बु विस्थिण्ण-उरु । णं सम्गहों पचविउ को वि सुरु ॥७॥ पुणु भाणुकण्णु पुष चन्दणष्ठि । पुणु जाउ विहीसणु गुण-उबहि ॥॥
वत्ता सो उप्पादन्तु दन्त गय? करयल छुहन्तु मुहें पण्णयहुँ । आयएँ छोलएँ रामणु रमइ गं काल वालु होऍवि ममह ॥५॥
[ . ] खेलन्सु पईसह भण्डार । जहि होयदवाहण-सपर हार ॥ णव-मुहइँ जामु मणि-जडियाई। पत्र मह परियायेवि घडिया ॥२॥ जो परिपालिम प्रपणएँ हि । मासीथिसमोसाउण्णएँ हि ॥३॥ सामपणहाँ अण्णहाँ काइ बहु । सो कण्ठउ दुइ दुचिसहु ॥४॥ सहसति लागु कर दहमुहहीं। मिनु सुमित्तहों अहिमुहहीं ॥५॥ परिहिउ पाव-मुहइ समुट्टियई। णं गह-विम्बई सु-परिट्रियई ॥३॥
सयपत संचारिमहूँ। णं कामिणि-प्रयगाई कारिमई ॥ ॥ वोल्लन्ति समा वोल्लन्तऍण। स-वियारु हसन्ति इसन्तएँण ॥८॥
धत्ता क्खेिप्पिणु ताई दहाणणई घिर-तारई तरलई लोयण । से दहमहु दहसिरु जणेण किउ पमाणशु जेम पसिद्धि गज ॥९॥
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णवमो संधि
१४. राजा रत्नाश्रवने कहा, "हे धन्ये, तुम्हारे तीन पुत्र होंगे ? उनमें पहला, युद्ध में भयंकर, जगके लिए कण्टकस्वरूप, देवताओंसे विग्रहशील और अर्धचक्रवर्ती होगा । नषसुरतिके सुखका उपभोग करते और परितोषसे कहीं न समाते हुए, उन दोनोंके, अतुल बल प्रारोहकी तरह लम्बी भुजाओवाला दशानन उत्पन्न हुआ। पुट्ठोंसे परिपुष्ट और विशाल वक्षःस्थलवाला वह ऐसा लगता कि जैसे स्वर्गसे कोई देव झ्युत होकर आया हो ! फिर भानुकर्ण, चन्द्रनखा, और फिर गुणसागर विभीषण उत्पन्न हुए ॥१-८
घत्ता--कभी कोई बात उदाता झुअः, सी साँपोंके मुखौंको करतलसे छूता हुआ, रावण इन लीलाओंसे क्रीड़ा करता है, मानो काल ही बालरूप धारणकर घूमता हो।९||
[४] खेलता हुआ वह भण्डारमें प्रवेश करता है, जहाँ तोयदवाहनका हार रखा हुआ था। जिसके मणियोंसे जड़े हुए नौ मुख थे, जो मानो नवग्रहों की कल्पना करके बनाये गये थे। वह हार विषैले और क्रोधसे भरे हुए नागोंसे रक्षित था। कठोर कान्तिसे युक्त वह दुष्ट कण्ठा, दूसरे सामान्य जनका वध कर देता । परन्तु वह रावणके हाथमें आकर वैसे ही आ लगा, जैसे सुमित्रके सामने आनेपर मित्र उससे मिलता है। उसने जसे पहन लिया, जिसमें उसके इस मुख दिखाई दिये, मानो प्रह-प्रतिविम्य ही प्रतिष्ठित हुप हो, मानो चलते-फिरते कमल हों, मानो कृत्रिम कामिनी मुख हों, जो वोलते समय बोलने लगते, और हंसते समय हँसने लगते ॥१-दा। ___पत्ता-स्थिर तारों और चंचल लोचनोंवाले उन दसमुखोंको देखकर लोगोंने उसका नाम दसमुख रख दिया, वैसे ही जैसे सिंहका नाम पंचानन प्रसिद्ध हो गया ॥२॥
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पउमरित
जं परिहिउ कण्ठ पावणेग। किट बद्धावणउ सु-परियणेण ॥१॥ स्यणासउ कति मायदे। आणन्दे कहि मि ण माइयई ॥२॥ णिसुणेप्पिणु भाइउ उम्छु । किष्किन्धु.स-कन्तर सरल ॥३॥ लयले हिं णिहालिद साह रशु । दह-गीउम्मीलिय-दह-अयणु ॥५॥ परिचिन्तिउ 'णउ सामग्णु णरु । एहु होइ पिरुत्तर चकहरु ॥५|| एयहाँ पासित रज्जु वि विउलु। कह-जाडहाण-बलु रणे अतुल || एयद्दों पासि सुरवइ खाउ । सा-वरुण-कुवेरह पाहि जउ' |||
घत्ता अपणेक-दिवस गम्जन्तु कि पव-पाउ जहर विन्दु जिह । जहें जन्तउ परवेवि बहसवणु पुणु पुष्टिका जणणि 'गुहु कवाणु' ।।८।।
त मिसुर्णेवि मकिय-णयगियएँ पजरिउ समारगर-चयणिपए ॥१॥ 'कसिकि जगेरि एयहाँ सणिय । पहिलारी बहिणि मजुत्तणिय ॥२॥ बीसावसु बिज्जाहरु जणणु। हु भाइ तुहारउ वइसवणु ॥३।। वइरिहि मिर्कवि मुह मलिण किय । मायरिय कमागय बाहिय ||३|| एयहाँ उहालेंवि जेमि तिय । कइय? माणेनहुँ राय-सिय ॥५॥ रतुप्पल-मालोयणे । णिकमच्छिय जणणि विहीसणेण ॥६॥ 'वड्सवणही केरी कवण सिय । पहावयणहों णोक्खी का वि किय ॥०॥ पंकसहि दिवसहि श्रीवहिं। आऍहि अम्हारिस-देचऍहि ॥
पत्ता जम-खन्द-कुवेर-पुरन्दर हिँ रवि-वरुण-पवण-सिहि-ससहरहि । मदिणु दणुषह-कम्दाषणही घरे संघ करेवी रावणही ॥५॥
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णवमो संधि
[५] जब रावणने यह कण्ठा पहना, तो परिजनों ने उसे बधाई दी। रत्नाव और फेकशी दोनों दौड़े, वे आनन्दसे कहीं भी फूले नहीं समा रहे थे। यह सुनकर इच्छुरव आय. किकिंध, और पल्ला सहस सूर्यरस आया। रूपने अलंकारों से सहित उसे देखा कि उसकी दस गरदनोंपर दस सिर उगे हुए हैं। उन्होंने सोचा, “यह सामान्य आदमी नहीं है, यह निश्चय से चक्रवर्ती है । इसके पास विपुल राज्य है और राक्षसोंकी अतुल सेना है, इसके पास इन्द्र का क्षत्र है, यम, वरुण और कुबेर की जीत नहीं है" ॥१-७॥ ___ घत्ता-एक दिन वह ऐसा गरजा, जैसे नवपावस में मेघसमूह गरजता है । आकाशमें वैश्रवण को जाते हुए देखकर उसने माँ से पूछा, "यह कौन है" ? |८||
[६] यह सुनकर, अपनी आँखें बन्द करके, गद्गद वाणीमें यह बोली, "इसकी माँ कौशिकी है, जो मेरी बड़ी बहन है। विद्याधर विश्वावसु इसका पिता है। यह चैश्रवण तुम्हारा भाई ( मौसेरा) है। शत्रुओंसे मिलकर इसने अपना मुंह कलं. कित कर लिया है, अपनी माताके समान क्रमागत लकानगरीका इसने अपहरण कर लिया है । इसको उखाड़कर, मैं स्त्रीके समान कत्र राज्यश्री मानूगी ?" तब रक्तकमलके समान जिसकी आँखें हो गयी है, ऐसे विभीषणने माँको बुरा-भला कहा, "वैश्रवणकी क्या श्री है ? दशाननसे अनोखी श्री किसने की है ? थोड़े ही दिनों में हमारे दैवके प्रसन्न होनेपर तुम देखोगी ? ॥१-८॥ ___घत्ता-यम, स्कन्ध, कुबेर, पुरन्दर, रवि, वरुण, पवन, शिखी ( अग्नि ) और चन्द्रमा, प्रतिदिन राक्षसोंको रुलानेवालं रावणके घरमें सेवा करेंगे। ।।९।।
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१५०
पउमचरित
पकहि दिणे आवच्छेवि जपणु। गय तिषिण वि भोसणु मीम-षणु ॥१॥ जहिं जक्ख-सहास, दारुणई। जहि सीह-पयइँ सहिरारुण ॥२॥ जहिं णीसासन्त हिं अजयरें हि। दोलन्ति हाल महुँ तरुवर हि ॥३॥ जहिं साहारूद विप्पय । अन्दोलण-परम-मात्र-गयइ ।।४।। साहिं तेहएँ भोसण भीम-वणे। थिय विजहें प्राणु परेवि मजें ||५|| जा भट्टक्खरै हिं पसिद्धि गम। गामेण सम्व-काम-रूप ||१| सा विहिं पहरे हि पासु भय । णं गाढानिलग-गय दइय ||७|| पुथ साइच सोबह-भक्खरिय। जम (!-कोटि-सहास-दहुलरिया
धत्ता ते भायर अविचल-झाग-रव दहवयण-विहीसण-माणुसह । वणे दिट्ट जक्ष-सुन्दरि किह जिण-वाणिएं तिण्णि वि लोय निह ।।१।।
[८] जं जबिखएँ गवण दिठ्ठ वणें । तं यम्मह-वाण पइट्ठ मणे • 'वोल्लाविर बोलाइ किं ण सहुँ । किं बहिरउ किं दह गाहिं मुह ॥२॥ किं झायहि भक्खसुस्त धिवहि। महु फेरउ रूप-सलिलु पिवहि ॥३॥ दहगीव-पसरु असहन्तियएँ। स-विलक्खड खेहु करग्तियएँ ॥ वच्छन्थलें पहउ सुकामलण। कपणावर्यस-णोदप्पलेंग ||५|| अपणेकर कुत्तु वरणएँ । पप्फुरिलय-तामरसाणणएँ ॥६॥ 'त जाणहि प णरु सश्चमउ। उप्पाइज केण वि कमउ' ।।७।। पुणु गम्पिगु रग-रस-मढियहीं । जक्खहों वरिट अपष्ट्रियहाँ ॥
घत्ता 'कनी-कलाव-केलर-धर पई तिण-समु मण्णे वि तिपिण गर । वणे विजय भाराहन्त थिय णावइ जग-भवणही खम्म किय ॥९॥
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नवमी संधि
१५१
[७] एक दिन तीनों भाई अपने पितासे पूछकर, भीषण भीम वनमें गये जहाँ हजारों भीषण यक्ष थे, जहाँ खूनसे लाल सिंहोंके पदचिह्न थे, जहाँ अजगरोंके सांस लेनेपर बड़े-बड़े पेड़ों के साथ शाखाएँ हिल उठती थीं । जहाँ शाखाओंसे लटके हुए जोर-जोर से हिलते हुए अनिष्ट नाम है। उस भीषण वनमें विद्याओंके लिए, मनमें ध्यान धारण करके बैठ गये। जो आठ अक्षरों वाली सर्व कामनारूप प्रसिद्ध विद्या थी, वह दो प्रहरों में हो उनके पास आ गयी, मानो दयिता ही प्रगाढ़ आलिंगन में आ गयी हो । फिर उन्होंने सोलह अक्षरोंवाली विद्याका ध्यान किया, दस करोड़ किया |१८|| धत्ता - वे तीनों भाई अविचल ध्यानमें रत थे, रावण, विभीषण और भानुकर्ण । बनमें उन्हें एक यक्ष सुन्दरीने इस प्रकार देखा जैसे जिनवाणीने तीनों लोकों को देखा हो ||९||
[८] जैसे ही यक्षिणीने रावणको वनमें देखा, कामका बाण उसके हृदय में प्रवेश कर गया। वह उससे कहती है, “बुलाये जाने पर भी तुम क्यों नहीं बोलते ? क्या तुम बहरे हो, या तुम्हारे पास मुख नहीं हैं, तुम क्या ध्यान कर रहे हो ? अक्षसूत्रकी माला क्या फेरते हो, मेरे रूप-जलका पान करो।” घरन्तु रावणमें अपनी बातका प्रसार न पाकर वह व्याकुल हो गयी । मनमें खेद करते हुए उसने अपने कोमल कर्णफूलके नीलकमलसे उसे वक्ष में आहत किया। खिले हुए कमल के समान मुखवाली एक और वरांगनाने कहा, "क्या तुम इस आदमीको सचमुचका जानती हो, किसीने यह लकड़ीका आदमी बनाया है।" फिर उसने जाकर, रणरस से युक्त अनर्द्धित यक्षसे कहा ॥१-८||
घत्ता - " कटिसूत्र और केयूर धारण करनेवाले तुम्हें तृणके बराबर मानते हुए, तीन आदमी विद्याकी आराधना करते हुए ऐसे स्थित हैं, जैसे विश्वरूपी भवनके लिए खम्भे बना दिये गये हों।”
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पउमचरित
सं णिसुणे वि जम्मूदीव-पहु। णं जलिउ उलय जाला-णिवहु ॥१॥ 'सो कवणु पत्थु णिकम्पिर। जाँ जीवइ जी महु बाहिरड' ॥२॥ अहिमुहु पयह तहाँ श्रासयहाँ। सुय विट्ठ ताम स्यणासवहाँ ॥३॥ 'भहाँ पवश्यहाँ अहिष्णवहाँ। के शायहाँ कबणु देउ थुष्णहो ' ॥४॥ ज एशु वि उत्तर दिग्णु म वि। तं पुणु वि समुहिँउ कोष-हबि १५॥ उयसा घोरु पारग्मियज । पहुरुवं हि जलु वियम्मिया ॥३॥ आसीविस-विसहर-अजयरें हिं। सब्दुल-पोह-कुअर-घरेंहि ॥७॥ गय-भूय-पिसाएँ दि रमली हिं। गिरि-पवण-हुआसण-पाउसहि ॥८॥
घत्ता दस-दिसि-बहु अन्धारउ करवि मोहम्मेंवि जामवि उरभर थि । गउ णिप्फलु सो उपसागु किह गिरि-मस्थएँ वासारत्तु जिह ॥९॥
[0] ज चित्तु ण सहित अवह वि। थिउ तक्खणे अण्ण माय धरेंवि ॥१॥ दरिसावित सयलु वि बन्धुजणु | कलुणउ कग्दन्तु विसण्ण-मण ॥२॥ कस-घाएँ हिँ घाइजन्तु वणे। 'णिवडन्तुहन्त खणे जे खणें ॥३१६ रयणासयु कइकसि चन्दहि । झम्मन्तइँ जइ पा अम्हे गहि ।।१।। सो सरणु मणेवि पहिच(?र)क्रुख करें रिउ मारह लम्गह पुस धा ।।५॥ तं पुरिसयार किं बीसरिट । पव-क्यणु बेण कण्डम धरिउ ।।। श्रौँ भाणुकण्या करें चारहहि। मिरि महि लगाउ कार-हछि ।।। भही धरहि विहीसण जताई। वणे मेहि पिहिज्जन्ताई ॥८॥
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णमो संधि
१५३
[९] यह सुनकर जम्बूद्वीपका स्वामी वह यक्ष ऐस जल उठा मानो अग्निज्वालाओं का समूह हो। ऐसा कौन-सा अविचल व्यक्ति है जो मुझसे बाहर रहकर दुनिया में जीवित है ?" उनके स्थानके सामने जाकर उसने रत्नायके पुत्र रावणको देखा । वह बोला, "अरे नये संन्यासियो, किसका ध्यान करते हो, किस देव की स्तुति कर रहे हो ?" जब उन्होंने एक भी उत्तर नहीं दिया, तो फिर उस यक्षकी क्रोधज्वाला भड़क उठी। उसने भयंकर उपसर्ग करना शुरू कर दिया, वह स्वयं अनेक रूपों में फैलने लगा । विषदन्त विषधर और अजगर, शार्दूल सिंह और कुंजर, गज-भूत-पिशाच, राक्षस गिरि-पवन-अग्नि और पावस से ॥१-८||
पत्ता -- उसने दसों दिशाओंमें अन्धकार फैला दिया । रुककर, जीतकर, उछलकर उसने उपसर्ग किया, परन्तु वह वैसे ही व्यर्थ गया, जैसे गिरिराजके ऊपर वर्षाऋतु व्यर्थ जाती है ॥१९॥
[१०] जब वह यक्ष उनका चित्त विचलित न कर सका तो उसने तुरन्त दूसरी माया धारण की। उसने उनके सभी बन्धुजनोंको विषवमन और करुण विलाप करते हुए दिखाया ।
नमें कोड़ों आघात से पीटे जाते हुए और क्षण-क्षण में गिरतेपड़ते हुए । रत्नाश्रव, कैकशी और चन्द्रनखा पीटी जा रही हैं, यदि हमें तुम कुछ नहीं गिनते, तो फिर कहो क्या प्रतिपक्षकी शरण में जायें ? शत्रु भारता है और पीछे लगा हुआ है, ऐ पुत्र, बचाओ | क्या वह अपना पुरुषार्थ भूल गये, जिससे नौमुखका कण्ठा तुमने धारण किया था। अरे भानुकर्ण, तुम अपना शौर्य धारण करो, इसका सिर तोड़ दो जिससे वह धूलसे जा मिले। अरे विभीषण, जाते हुए इन्हें पकड़ो, बनमें ये म्लेच्छके द्वारा पीटे जा रहे हैं ।। १-८॥
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१५४
परमपरिज
वत्ता
अरें पुस्तहों पर परिमल किय जं कालिय पालिय नविय । सी शिष्फलु सलु किले गए जिह पात्रों धम्मु विवि
||९|
[11]
जं कंण विउ साहारियउ |
तं तिणि वि जक्लै मारिय ||१||
I
विछितो वि नहीं खाणु थिरु अाएँ पत्ति अविचल मणहुँ । वं निवि सी रहिराखणज । दिई सुइँ थिर जोया हूँ । सिर-क्रमकई ताह मि केराई । रावणहीँ गम्पि दरिसावियहुँ ।
पुणु तिहि मि जगहुँ निसानियत । सिव-साप-सिवाले हि खावियद्ध॥२॥ माया-रायण करेंवि सिरु ॥३॥ माइहिँ रविकरण - विहीसणहूँ ||४|| ते झाणी चयि मणामणउ ||५|| ईसीसि परायिहूँ लोयन हूँ ॥ ६ ॥ उवणाएँविदुक्ल-जमेराई ॥ * ॥ पउम चाल मेलाषियहूँ ॥ ८ ॥
घत्ता
जं एम सि रावणु अचलु थिउ तं देवहिं साहुकारु किउ । विजहुँ सहासु उप्पण्णु किह तिस्थपरहों केवक ाशु जिह ॥९॥
[18]
आगया कहन्ती महाकालिणी । गण-संचाकिणी माणु-परिमालिणी ॥ ३ कालि कोमारि वाराहि माईसरी । घोर-वीरासणी जोगखोगेसरी ॥२॥ सोमणी रयण वम्भाणि इन्द्राणी । अणिस हिमति पष्णति कमाइणी ॥३ हणि उच्चादिणी धम्मणी मोहणी । बइरि-विसणी भुषण-संखोहणी ॥४॥ वारुणी पाणी भूमि - गिरि-दारिणी । काम- सुह- दाइणी वन्ध-वह-कारिणी ॥५ स- पच्छायणी सम्व-आकरिखिणी। विजय जय जिम्मिणीसम्ब-मय-पासणी सत्ति-संवाहिणी कुद्धि भवठीयणी । श्ररिंग जल- थम्मणी विन्दुणी भिन्दणी । भासुरी रक्सी वारुणी वरिणी । दारुणी दुविंगकारा यदुद्दरिणी ॥ ८ ॥
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जवमी संधि
१५५
पत्ता - अरे पुत्रो, तुम प्रतिरक्षा नहीं करते, जो हमने तुम्हें पाला-पोसा और बड़ा किया, वह हमारा सब क्लेश व्यर्थ गया, वैसे ही जैसे पापीमें धर्मका व्याख्यान ॥ ९ ॥
[११] जब किसीने भी उन्हें सहारा नहीं दिया, तब उन तीनों को यक्षने मार डाला । फिर उन तीनों को उसने ऐसा दिखाया कि श्मशान में शृगालोंके द्वारा वे खाये जा रहे हैं । इससे भी उनका स्थिर ध्यान विचलित नहीं गया। तहस रावणका सिर काटकर, अविचल मन भानुकर्ण और विभीषण के सामने फेंक दिया। रुधिरसे लाल उस सिरको देखकर उनका मन थोड़ा-थोड़ा ध्यानसे विचलित हो गया। उनकी स्निग्ध शुद्ध और स्थिर देखनेवाली आँखें थोड़ी-थोड़ी गीली हो गयीं । उनके भी दुख उत्पन्न करनेवाले सिररूपी कमलोको ले जाकर रावणको दिखाया मानो मृणालसे रहित कमल ही हों ||१८||
बत्ता - जब भी रावण इस प्रकार अचल रहा, तब देवताओंने साकार किया । उसे एक हजार विद्याएँ उसी प्रकार सिद्ध हो गयीं, जिस प्रकार तीर्थंकरोंको केवलज्ञान उत्पन्न होता है ||१५||
[१२] कहकहाती हुई महाकालिनी आयी । गगन संचालिनी, भानु परिमालिनी, काली, कौमारी, वाराही, माहेश्वरी, घोर वीरासनी, योगयोगेश्वरी, सोमनी, रतन श्राह्मणी, इन्द्रासनी, अणिमा, लघिमा, प्रज्ञप्ति, कात्यायनी, डायनी, उच्चादनी, स्तम्भिनी, मोहिनी, वैरिविध्वंसिनी, भुवनसंक्षोभिणी, वारुणी, पावनी, भूमिगिरिवारुणी, कामसुखदायिनी, बन्धवधकारिणी, सर्वप्रच्छादिनी, सर्वआकपिंणी, विजयजय जिम्भिनी, सर्वमदनाशिनी, शक्तिसंबाहिनी, कुडिलअवलोकिनी, अग्नि-जल स्तम्भिनी, छिन्दानी, भिन्दनी, आसुरी, राक्षसी, वारुणी, वर्षिणी, दारुणी, दुर्निवारा और दुर्दर्शिनी ॥ १-८ ॥
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पसमचरिड
पत्ता भागाहें घर-
विम हि आइयहिं रावणु गुण-गण-अणुराइयहि । चउनिसि परिचारिउ सहइ किह मगरून्छा छर्ण ताराहुँ जिह ॥९॥
सन्चोसह थम्मणी मोहणिय। संविद्धि णहङ्गण-गामिणिय ॥१॥ प्रायड पञ्च वि वयगय तहि । थिउ कुम्मग्राणु चल-झाणु जहि ॥२॥ सिन्वस्थ सत्त-विणिचारिणिय । णिविग्घ गयण-संचारिणिय ||३|| भायउ चयारि पुणु चल-मणहाँ। श्रामण्णउ थियउ विहीसणाहीं ॥४॥ पुस्थन्तरे पुग्ण-मनोरहेण । बहु-विजातिय विग्गहण ॥५|| णामेण संयंपहु णयह किड। णं सग्ग-खण्ड अभयरें चि थिउ ॥२॥ अण्णु वि उप्पारन होगा। मागाहामा प्रसारित उम्सुङ्गु सिङ्ग डण्णइ करेंथि। णं वन्छह सूर-विम्वु धरें वि ॥८॥
धत्ता तं रिद्धि पुणेचि दसाणणही परिमोसु पबहिड परियणहों। आयई कह-भाउहाण-बलई पं मिल घि परोपक जल-थलाई ॥९॥
[१४] नं दिट्ट सेग्ण सयणहूँ तणिय। परिपुरिछय पुणु अत्रलोयणिय ॥१॥ ताएँ वि संघीहिउ दहश्यणु। राहु देय तुहारज वन्धु-जणु' ॥२॥ सं णिसुणे वि पारवह णीसरिउ । गिय-विज-सहा परिथरिज ॥३॥ पं कमालणि-माई पचरु सस । णं ससि सहासे दियसयरु |३| स-विहीला कुम्भयाणु चलिर । णं दिवस-तेज सूरहों मिलिड ॥५६॥ तिणि मि कुमार संबल्ल किर । उच्छक्षिय साम फरमाव-गिर ॥६॥ रयणासवु पसु ल-वन्युजणु । ने पट्टणु ते रावण-मयणु ।। तं सह-माज मणि-वेयहिट 1 तं विज-सहासु समावति ॥८॥
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णवमो संधि
पत्ता-राम गुपनों में अनुरा, साप, हुई . विद्याओंसे घिरा हुआ रावण वैसे ही शोभित था, जैसे ताराओं से घिरा हुआ चन्द्रमा | २
[१३] सर्वसहा, धम्भणी, मोहिनी, संवृद्धि और आकाशगामिनी ये पांच विद्याएँ वहाँ पहुँची, जहाँ चलितध्यान कुम्भकर्ण था। सिद्धार्थ, शत्रु-विनिचारिणी, निर्विघ्ना और गगनसंचारिणी ये चार चंचलमन विभीषणके निकट स्थित हो गयों । इसके अनन्तर बहुत-सी विद्याओस अलंकृत और पुण्यमनोरथ रावणने स्वयंप्रभ नामका नगर बसाया, मानो स्वर्गखण्ड ही उतरकर स्थित हो गया हो । उसने एक और चैत्यगृह बनाया, अत्यन्त सुन्दर उसका नाम सहस्रक्रूट था । उसकी ऊँची शिखरें उन्नति करके मानो सूर्यके विम्यको पकड़ना चाहती हैं ॥१-८।।
घत्ता-"रावणके उस वैभवको देखकर परिजनोंका सन्तोष बढ़ गया, वानरों और राक्षसोंकी सेनाएँ आकर मिल गयीं, मानो जलथल मिल गये हों।" ||२|| __ [१४] अपने लोगोंकी उस सेना को देखकर रावणने अबलोकिनी विद्यासं पूछा । उसने भी दशाननको बताया, "हे देव, ये तुम्हारे बन्धुजन हैं।" यह सुनकर राजा बाहर निकला। अपनी हजार विद्याओंसे घिरा हुआ वह ऐसा लग रहा था, मानो कमलिनी-समुहसे प्रवर सरोवर, मानो हजार राशियों से सूर्य । कुम्भकर्ण भी विभीषणके साथ चला, मानो दिवसका तेज सूर्यके साथ मिल गया हो। जैसे ही तीनों कुमार चले वैसे ही चारणोंकी वाणी उछली । रत्नाश्रव बन्धुजनोंके साथ यहाँ पहुँचा। वह नेगर रावण का भवन, मणि योंसे वेष्टितः सह सभाभवन आयी हुई हजार विद्याएँ ।।१-८॥
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1५८
पङमचरिड
धत्ता पेक्वप्पिणु परिओसिय-मणेण णिय तणय सुमालिहणन्दणे । रोमचाणन्द-गेह-जुऍहिं चुम्बेथि अवगूड स ई भु बेहि ॥९॥
[१०. दसमो संधि ] साहिउ छट्टीववासु करवि वणीलुप्पल-णपणेण । सुन्दरु सु-सु सुलत्तु जिह बन्दहासु दहवयणण ।।१।।
[ ] दससिरु विजा-दुससय-णिवासु। साहप्पिणु दूसहु घम्दहासु ॥१॥ गउ वन्दण-इत्तिा मेरु जाम। संपाइय मय-मारिच ताम ॥२॥ मन्ट्रोवरि पचर-कुमारि लेवि। रावणहाँ जे भवाणु पट्ट घेवि ॥३॥ चन्दहि गिहालिय तेहि तेस्थु । 'परमेसरि गउ दहवयणु केस्थु' ||४|| सं णिसुणवि णयणाणन्दोएँ। घुबह रयणासवान्दणीएँ । ॥५॥ 'छुछ छुद्ध साहेप्पिणु चन्दहामु । गउ अहिमुहु मेरु-महहिरासु ॥६॥ एति आवह बहसरहु ताम'। तं लेवि लिमित्तु णिविट जाम ॥॥ वेताल' महि कम्पणहँ लम्ग। संचलिय असेस वि कउद-मग ॥६॥
घन्ता
खणे अन्धारउ खण चन्दिणड खणं धाराहरू परिसइ । विजड जोक्षन्तउ दहचयशु णं माहेन्दु पदरिसइ ।।९।।
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दसमो संधि
१५९ घत्ता-देखकर, सन्तुष्ट मन होकर सुमालिके पुत्र रत्नाश्रवने अपने पुत्रोको चूमकर पुलकित बाहुओंसे आलिंगनमें भर लिया ||२||
रूबी सन्धि नवनील कमलके समान नेत्रवाले रावणने छह उपवास कर, सुन्दर तथा सुवंश और सुकलत्रकी तरह चन्द्रहास खड्ग सिद्ध किया।
[१] हजार विद्याओंके निवासस्थान चन्द्रहास खड्ग साधकर, जब वन्दना-भक्ति करने के लिए सुमेरु पर्वत पर गया, तब मदमारीच आये | प्रवर कुमारी मन्दोदरीको लेकर वे रावणके घरमें प्रविष्ट हुए। वहीं उन्होंने चन्द्रनखाको देखा और पूछा, "परमेश्वरी, दशानन कहाँ गया है ? यह सुनकर नेत्रोंको आनन्द देनेवाली रत्नाश्रवकी कन्याने कहा, "चन्द्रहास खङ्ग साधकर अभी-अभी सुमेरु पर्वतकी ओर गये हैं। तबतक आप यहाँ आकर बैठे।" उसे ( मन्दोदरी) को लेकर क्षण-भर दे बैठे ही थे कि सन्ध्या समय धरती काँपने लगी, समस्त दिशामार्ग चलित हो उठे ॥१-८॥
घत्ता-एक पलमें अँधेरा, दूसरे पलमें चाँदनी । पलमें मेघोंकी वर्पा, मानो रावग देखता हुआ माहेन्द्री विद्याका प्रदर्शन कर रहा था ||५||
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पउमचरित
मम्भोस वि मन्दोवरि मपण। चन्दणहि पपुच्छिय मय-गएण ।।३।। 'नाइँ भवानि नोड । विगम्भर र फेस व णवलु' ५॥ स वि पचविय 'कि ण मुणिड पयाउ । दहगोष-कुमारहों पहु पहाड' ॥३॥ सं णिसुर्णेवि सया चि पुकत्यङ्ग । अपरोप्पर मुहर णिए लग ॥॥ एत्यन्तरें किङ्कर-सब-सहाउ। मय-सावासु णियन्तु भाउ ॥५॥ 'पहुं को सावासिङ समभोग। पणदेवि कहिउ के चि परेण ॥३॥ 'विजाहर मम-मारिकच के वि। तुम्ह हैं मुहवैक्या माय वे वि' ॥७॥ सं णिसुणे वि जिगवर-मवणु हक्क । परियोनि बन्द वि ताम-मुक्कु ॥॥
घसा सहसत्ति दिठु मन्दोवरिए दिट्टिएँ चल-मउंहालए । दूरहों जें समाहड पछयले ण णीसप्पक-माएं ॥५॥
[३] दोसह नेण वि सहसत्ति वाळ । णं भसले अहिणा-कुसुम-माल ॥१॥ दीसन्ति चकण-णेउर रसम्स । णं मछुर-राव पन्दिण पढन्त ॥२॥ घोसइ णियम्नु मेहल-समागु । कामएव-भस्थाण-मणु ॥३॥ दोसइ रोमाचशि छुसु चडन्ति । परं कसण-बाल-सप्पिणि छलन्ति । दीसन्ति सिहिण उवलोह देत । णं उरमल भिन्नै वि हरिय-दस्त |॥५॥ दीसह पप्फुस्लिाय चयण-कमलु । पीसासामोयासन-मसलु ।।६।। दीसह सुमासु भाभ-सुबन्धु । णं णयण-अधडौं किंड सेउ-बन्धु ॥५॥ दोसा णिवाल सिर-बिहुर-कपा । ससि-विम्वु व णव-जाहर-णिनण्णु ॥
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दसमी संधि [२] मन्दोदरीको अभय वचन देते हुए, डरकर मयने चन्द्रनखासे पूछा, “यह कौन-सा कुतूहल है, जो अनुरक्तमें नये प्रेमकी तरह फैल रहा है ?" उसने उसर दिया, "क्या तुम यह प्रताप नहीं जानते ? यह, दशाननका प्रभाव हैं ?" यह सुनकर सभी पुलकित होकर एक-दूसरेका मुख देखने लगे। इतने में सैकड़ों अनुचरोंकि साथ, मय के निवासस्थानको देखते हुए रावण आया । उसने पुछा, “यहाँ ठाठ-बाटसे किसे ठहराया गया है ?" तष प्रणाम करते हुए किसी एक नरने कहा, "मय और भारीच कई विद्याधर तुमसे मिलनेकी इच्छासे आये हैं।" यह सुनकर वह जिनवर-भवनमें पहुँचा। वहाँ सन्त्राससे मुक्त जिनकी प्रदक्षिणा और वन्दना की ॥१-८||
घत्ता-फिर सहसा मन्दोदरीने अपनी चंचल भौंहोंवाली दृष्टि से इसे देखा, जैसे वह दूरसे ही नील कमलोंकी मालासे वक्षस्थलमें आहत हो गया हो ।।२।। __ [३] उसने भी सहसा बालाको देखा, मानो भ्रमरोंने अभिनव कुसुममालाको देखा हो। मुखर चंचल नू पुर ऐसे लगते थे मानो चारण मधुर स्वरमें पढ़ रहे हैं। मेखलासे रहित नितम्ब ऐसे दिखाई देते हैं मानो कामदेवके आस्थानका मार्ग हो, धीरे-धीरे चढ़ती हुई रोमावली ऐसी दिखाई देती है, मानो काली बाल नागिन शोभिन हो, शोभा दनेवाले स्तन ऐसे दिखाई देते हैं, मानो हदयोंको भेदनेके लिए हाथी दाँत हो । खिला हुआ मुखकमल ऐसा दिखाई देता है जैसे निःश्वासोंके आमोदमें अनुरक्त भ्रमर उसके पास हों। अनुभूत सुगन्ध उसकी नाक ऐसी मालूम देती है. मानो नेत्रोंके जलके लिए सेतुबन्ध बना दिया गया हो। सिरके बालोंसे आच्छन्न ललाट ऐसा दिखाई देता है मानो जैसे चन्द्रबिम्ब नवजलधरमें निमग्न हो ॥१-८॥
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११२
पउमचरिख
पत्ता
परिभमइ दिहि तहों सहि जे बहि अण्ण हि कहि मिण थार । रस-सम्पर महुयर-पम्ति जिम केयह मु वि ण सक्का ॥२॥
गध कुमारह सितु । । मीमो युग ||१|| 'वेयनों दाहिण-सेवि-पवरु। णामेण देवसंगीय-णयह ॥२॥ तहिं अम्हई मय-मारिच भाय। रावण विवाह-काजेण आय ॥३॥ लइ तुझु जें जोगाउ पारि-रयणु । उछु टु देव करें पाणि-गहणु ॥४॥ एउ जें मुहुत्तु णक्रवत्तु वाह। जंजिणु पञ्चक्षु तिकोय-सार ॥५॥ कल्लोण-लच्छिमाछ-णिवासु। सिव-सन्ति-मणोरह-सुह-पयासु'॥६॥ सं णिसुणे वि तुट्ठ दहमुहण । किंठ तक्रपणे पाणिग्गहशु तेण ॥७॥ जय-दूरहि श्वसहिमालेहि। कयण-तोरणे हि समुअलेहि ॥८॥
पत्ता
सं वहु-मरु णयणाणन्दयरु णं उत्तम-रायस-मिटुणु
विस सयंपहु पदणु । पफुल्लि य-पय-वायण ॥५॥
अवरेक-दिवस दिव-बाहु-दण्ड । विजड जोपन्तु महा-क्याम् ॥1॥ गउ सेरथु जेत्थु माणुस-वमालु। जलहरथम गामें गिरि विसालु ॥२॥ गम्धन-धावि जहि जगे पयास । गन्धब कुमारिहिं छह महास ॥३॥ दिव दिन जल कोल करस्तु जेत्थु । रयणासय-णन्द छपकु तेस्थु ॥४॥ सहसत्ति दिख परमेसरी हिं। णं मायरु-स यक-महा-सरी ॥५॥ गंणव-मयलन्छणु कुमुदाहिं। णं वाल-दिवायर कमलिणाहिं ॥१॥ सम्बउ रक्खण-परिवारिया । सम्बउ सम्बालकारियाउ ||७||
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दसम संधि
१६३
धत्ता --- उसपर उसकी दृष्टि जहाँ भी पड़ती वह वहीं घूमती रहती। दूसरी जगह वह ठहरती ही नहीं। उसी प्रकार जिस प्रकार रसलम्पट मधुकर पंक्ति केतकी को नहीं छोड़ पाती ॥९॥
[४] दशमीव कुमार का मन लेकर इनके अनन्तर, मारीच बोला, "विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में देवसंगीत नगर है । वहाँ हम मय मारीच भाई-भाई हैं । हे रावण, हम विवाह के लिए आये हैं। इसे ले लें, यह नारीरत्न आपके योग्य है । हे देव, उठिए और पाणिग्रहण कीजिए। यही वह मुहूर्त, नक्षत्र और दिन हैं। जो जिन की तरह प्रत्यक्ष और त्रिभुवनश्रेष्ठ हैं । कल्याण, मंगल और लक्ष्मी का निवास है । शिव शान्त सुख मनोरथको पूरा करनेवाला ।" यह सुनकर सन्तुष्ट मन रावणने तत्काल पाणिग्रहण कर लिया, जयसूर्य, धवल, मंगल गीतों, उज्ज्वल स्वर्ण तोरणोंके साथ ||१८||
घता-तत्र वधू और वर नेत्रोंके लिए आनन्ददायक, स्वयंप्रभ नगर में प्रवेश करते हैं, मानो उत्तम राजहंसों का जोड़ा खिले हुए पंकज वनमें प्रवेश कर रहा हो ॥२॥
[५] एक और दिन, महाप्रचण्ड दृढ़ बाहुबाला रावण विद्याका प्रदर्शन करता हुआ वहाँ गया, जहाँ मनुष्योंके कोलाहल से व्याप्त मेघरव नामक विशाल पर्वत था। वहाँ दुनियाकी प्रसिद्ध गन्धर्व बावड़ी थी । उसमें छह हजार गन्धर्व कुमारियाँ प्रतिदिन जलक्रीड़ा करती थीं। रत्नाश्रवका पुत्र वहाँ पहुँचा। उन परमेश्वरियोंने उसे अचानक इस प्रकार देखा जैसे समस्त महासरिताओंने समुद्रको देखा हो, मानो नव कुमुदिनियोंने नव चन्द्रको, मानो कमलिनियोंने बाल दिवाकरको | सबकी सब रक्षकों से घिरी हुई थीं। सभी सब प्रकारके अलंकारोंसे अलंकृत थीं ॥ १-७॥
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१६४
पउमरिक
घत्ता मन्त्रउ भणन्ति व परिहरें वि वम्मह-पर-जजरियउ । 'पहँ मलेवि भण्गुण भत्ताझ परिणि णाह सइ वस्पिड' ||
एत्यन्तरें भारक्खिय-मडेहि। कहु गम्पिणु गमप्प-वियावडेहि ॥ १ ॥ जाणाविउ सुन्दर-सुरवरातु। 'सध्या कणगड एकही परासु ||•| करें लग्गड तेण वि इच्छियाउ । पहिलड सुम्ममाइडियाउ' ॥३॥ तं णिसुर्णेत्रि सुर-सुन्दरु विरुद्ध । उहाइड गाई कियन्तु कुछ ॥४॥ भागु वि कणयाहिउ बुह-ममाणु । सं पेम बि माइणु अप्पमाणु ॥५॥ विष्टिएँ हिं बुसु 'गड को वि सरणु । तउ भम्ह है कारण दुक्कु मरणु' ॥६॥ रावणेण हसिड कि थायएहि । किर का सियाल दिघाइपहिं ।।।
घत्ता
ओसोचणि विजएँ सो चघि बहा विसार-पास हि । जिब दूर-भञ्च भव-संचिऍहि दुक्किय-कम्म-सहासं हि ॥४॥
मामेळदि पुजेत्रि को वि दाम | परिणेपिणु कण्णहँ छवि सहास॥३॥ गर रावणु णिय पट्टणु पषिद् । स-कियस्थु सयल-परियणेण विद्द ॥२ बहु-काले मन्दीय रिह जाय । इन्दइ-घणवाहण वे पि माय ॥३॥ एत्तहँ वि कुम्मपुर कुरमयष्णु। परिणाविउ सिय-संपय एवषणु ||३|| रसिन्दिउ लाउरि-पएसु । जगढइ वइसवणही तणउ देसु ॥५॥ गय पय कुमार कोउ हल। पेसि वयणालङ्कार-दूउ ॥६॥ दहरयणवाणु पइट गम्पि। मेहि मि किड अम्मुत्थाणु कि पि॥ पणिउ 'सुमालि-पहु देहि कण्णु । पोत्तर णिवारि इस कुम्मयण्णु ॥१॥
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दसमी संधि
१६५ धत्ता-कामदेवके तीरोंसे जर्जर सभी अपनी मर्यादा तोड़ती हुई बोली, "तुम्हें छोड़कर दूसरा हमारा पति नहीं है, वियाह कर लीजिए, हमने स्वयं वरण कर लिया है" ||८|
[६] इतने में जानेके लिए व्याकुल सभी आरक्षक भटोंने जाकर देववर सुन्दरको बताया, "सब कन्याएँ एक आदमीके हाथ लग गयी है, उसने भी उन्हें चाहा है, प्रत्युत अच्छी तरह चाहा है।" यह सुनकर सुरसुन्दर विरुद्ध हो जठा, वह क्रुद्ध कृतान्त की भाँति दौड़ा, एक और कनक राजा और बुध के साथ। अप्रमाण साधनके साथ उसे देखकर कन्याएँ बोली, "अब कोई शरण नहीं है, तुम्हारी हम लोगोंके कारण मौत आ पहुँची है।" इपर राना ,स' को भोजा, "दन आक्रमण करनेवाले सियारोंसे क्या ? ॥१-७)
घसा-जसने अवसर्पिणी विद्यासे कहकर, विषधर पाशोंसे उन्हें बैंधवा लिया, उसी प्रकार जिस प्रकार भवसंचित हजारों दुष्कृत कोसे दूरभव्य बाँध लिये जाते हैं ॥८॥
[७] उन्हें छोड़कर सत्कार कर अपने अधीन बनाकर उसने छह हजार कन्याओंसे विवाह कर लिया। रावण अपने घर गया। प्रवेश करते हुए कृतार्थ उसे समस्त परिजनोंने देखा । बहुत समयके अनन्तर, मन्दोदरीसे दो भाई इन्द्रजीत और मेघवाहन उत्पन्न हुए। यहाँ कुम्भकर्ण ने भी कुम्भपुरमें प्रवीण श्री सम्पदासे विवाह किया। रात-दिन वह लंकापुर प्रदेशके वैश्नवणवाले देशमें झगड़ा करने लगा | प्रजा विलाप करती हुई गयी। राजा क्रुद्ध हो उठा । उसने बचनालंकार दूत भेजा। वह जाकर दशाननके दरबार में प्रविष्ट हुआ । उसने भी उसके लिए थोड़ासा अभ्युत्थान किया । दूत बोला, "सुमालि राजन्, कन्या दो, और अपने पोते इस कुम्भकर्णको मना करो ।।१-८॥
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पडमचरित
धत्ता श्रवराह-सएहि मि वइसवणु तुम्हहि समउ ण जुज्मइ । असन्तु नि सवर-पुलिन्दएँहि विच जेमण विरुजमाह ||२||
[-] पर आएं पक्खमि विपडिषण्णु । जे पाहि णिवारहौं कुम्भयपणु ॥१॥ एयहीं पासिउ मुम्हह विणासु । एयहाँ पासिउ भागमणु तासु ॥२॥ एयहाँ शासिउ पायाल-बल पइसेवउ पुणु वि करेवि सङ्क ॥३॥ मालि वि जगढन्तउ भासि एम । मुउ परवि पई पया जेम ॥४॥ तइगहुँ तुम्हहुँ वित्तन्तु जो उज। एवहिं दीसह पडिवउ वि सोज ।।१।। वरि हु जे समप्पिड कुक-कयन्तु । अच्छउ तहाँ घर णियलाई वहन्तु ॥६॥
सुचि ससिंगलियर। कहा गड बण' कही तणउ इन्दु' ।। अवलोइउ भोसणु चन्दहासु। पडिवक्स-पक्ष-खय-काम-वासु ।। ।। पहँ पढमु कपिपणु वलि-विहाणु । पुणु पच्छ धणयहाँ मलमि माणु'॥९॥ सिरु णावेवि वुमु विहीणेण । 'विणिवाइएण दूर्वेण पण ॥१॥
घत्ता परिममइ अयसु पर-मण्डल हि तुम्हहँ प्रउ ण छन्जाइ । झुज्मन्नउ हरिण-उलेहि सहे किं पत्रमुहु ण लमह' ॥११॥
[ २ ] गोसारित दूउ पणटु केम । केसरि-कम-चुक्कु कुरमु जेम ॥१॥ एस वि दसाणणु विष्फुरन्तु । सपणहें वि विणिग्गर जिह कयन्तु।।२।। णीसरिउ बिहोसणु भाणुकण। रयणासउ मह मारिच्चु अपणु ॥३॥ णीसरित सहोवर मलवन्तु । इन्दइ घणवाहणु सिसु वि होन्तु॥४॥ हउ तूरु पयाणड दिण्णु जाम। दूएप वि धणयहाँ कहिउ ताम।।५।।
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दसमी संधि घसा-सौ अपराध होने पर भी वैश्रवण तुम्हारे साथ युद्ध नहीं करेगा, उसी प्रकार, जिस प्रकार, शबर पुलिन्दोंके द्वारा जलाये जानेपर भी, विन्ध्याचल उनके विरुद्ध नहीं होता ।।९।।
[८] पर अब इसे मैं आपत्तिजनक समझता है। यदि आप कुम्भकर्ण का निवारण नहीं करते। इसके पास तुम्हारा विनाश है, धनदका आना, इसके हाथमें है। इसके कारण ही, तुम्हें शंकाकर पातालमें प्रवेश करना पड़ेगा। मालि भी इसी प्रकार झगड़ा किया करता था। वह उसी प्रकार मारा गया, जिस प्रकार प्रदीपमें पतंग। उस समय तुम लोगोंका जो हाल हुआ था, ऐसा लगता है कि इस समय वही वापस होना चाहता है। अच्छा यही है कि उस कुलकृतान्तको मुझे सौंप दें, या फिर वह बेड़ियाँ पहनकर अपने घरमें पड़ा रहे।" यह सुनकर निशाचरेन्द्र कुपित हो उठा, "किसका धनद ? और किसका इन्द्र ?” उसने अपना भीषण चन्द्रहास खड्ग देखा जिसमें प्रतिपक्षके पक्षका क्षय करनेके लिए कालका निवास था। वह बोला, "मैं पहले तुम्हारा बलिविधान कर, फिर बादमें, धनदका मानमर्दन करूँगा।" तब सिर नवाते हुए, विभीषणने कहा, "इस दूतको मारनेसे क्या ? ॥१-१०॥ __घत्ता-शत्रुमण्डलोंमें अयश फैलेगा, तुम्हें यह शोभा नहीं देता, क्या मृगकुलसे लड़ता हुआ पंचानन लजित नहीं होता ? ॥१२॥
[२] निकाला गया दूत ऐसे भागा, जैसे सिंहके पंजेसे चूका कुरंग भागता है । यहाँ दशानन भी, आवेशसे भरकर सन्नद्ध होकर कृतान्तकी तरह निकला। विभीषण और भानुकर्ण भी निकले । रत्नाश्रव, मय-मारीच और दूसरे लोग भी निकले। सहोदर माल्यवन्त भी निकला। इन्द्रजीत और शिशु होते हुए भी मेघवाहन निकला, प्रस्थानके तूर्य बज उठे। तब दूतने भी
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पउमचरित
'मालिहें पासिउ एयाहों मस्टु । उक्खमधु देवि भण्णु वि पयट्टु' ॥६॥ सं वयणु सुणवि सण्णहें वि जक्खु ! जोसरिट जाई सई दससमक्ख ॥७॥ थिउ उरवि गिरि-अक्ण्वे जाम । सं जाउहाण-वलु हुक्कु ताम ॥८॥
पत्ता हय समर-तूर किय-फलयलई भमरिस-रहस-विसङ्ग । भइसवण-दखाणण-साधणइँ विपिण वि रणे अम्भिई ॥९॥
..] कण वि सुन्दर सु-रमण सु-मेव । आलिङ्गिय गय-घह बेस जेव ॥१॥ स यि कासु पि उश्या वेझ देह । णं विवरिय-सुरएं हियउ लेइ ॥२॥ केण घि आवाहिउ मण्डलमा। करि-सिम पिववि महिहि ला॥३॥ रण बि कासु वि गय-घाउ दिपणु । किउ सरहु स-सारहिं चुपण चुग्णा ॥ केण वि कासु वि उरु सरहिं मरिउ । लक्षिजहणं रोमम्बु धरित ||५|| केण वि कासु त्रि रण मुख वा । थिउ हियएँ धरवि गं पिसुण-व एल्धन्तरें धणएं ण किउ खेउ । हकारिउ माह कइ कसेउ ॥७॥ 'लइ नुज्य जुञ्ज पत्तहड काल। दुको सि सीह-दन्तरालु' ॥८॥
घत्ता तं पिसुत्रि रावणु कड्य-मणु बइसवणही आलग्गः । कह उम्भवि गजेवि पुलगुले विगं गयवरही महग्गउ ॥९॥
[1] सम्बुहर-लील-संदसिणे । मर-मण्डउ किउ तहि दस-सिरेण॥३॥ पिणिदारिंच दिणयर-कर-णिहाउ । गिति दिवसुकि ति सन्देहु जाउ ॥२॥
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दसमो संधि जाफर धनदसे कहा, "मालिको इतना अहंकार है कि एक तो उसने घेरा डाल दिया है और दूसरेको भी उकसाया है।" यह सुनकर धनद तैयार होकर निकला, मानो स्वयं सहस्रनयन निकला हो। वह इंडकर जबतक गुंजागिरिपर डेर। डालता है, तबतक राक्षसोंकी सेना वहाँ आ पहुंची ।।१-८11_
घसा-युद्धके नगाड़े बज उठे। अमर्ष और हर्षसे विशिष्ट कोलाहल होने लगा। वैश्रवण और रावण दोनोंकी सेनाएँ युद्ध में भिड़ गयीं ॥५॥
१०] किसीने गजघटाका उसी प्रकार आलिंगन कर लिया, जिस प्रकार अच्छा विलासी वेश्याका आलिंगन कर लेता है। गजघदा भी किसीके उरतलमें घाव कर देती है, मानो विपरीत सुरतिमें हृदय ले रही हो। किसीने तलबारसे आघात किया,
और हाथीका सिर कटकर धरतीपर गिर पड़ा। किसीने किसीपर गदेसे आघात किया और रथ तथा सारथिके साथ चूर्ण-चूर्ण कर दिया। किसीने किसीके वक्षको तीरोंसे भर दिया, वह ऐसा दिखाई देता है, मानो उसने रोमांच धारण किया हो। युद्धमें किसीने किसीके ऊपर चक्र छोड़ा, वह उसके वक्षपर ऐसे स्थित होकर रह गया, मानो दुष्टका वचन हो । इस बीच युद्ध में खिन्न न होते हुए रावणको ललकारा, "ले तुझे लड़नेका इतना समय है, तू सिंहकी दाढोंके बीच में अभी ही पहुँचता है" ॥१-८||
पत्ता- यह सुनकर कुपितमन, रावण वैश्रवणसे रेसे आ भिड़ा जैसे अपनी सूंड़ उठाकर, गरजकर और गुल-गुल आवाज करते हुए महागज दूसरे महागजसे भिड़ गया हो ।।२। ___ [१५] अपनी मेघलीलाका प्रदर्शन करते हुए दशाननने तीरोंका मण्डप तान दिया, सब दिनकर-अस्त्रसे उसका निवारण कर दिया गया, इससे यह सन्देह होने लगा कि दिन है या
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१००
पउमचरिउ
सन्दर्णे हएँ गएँ भय- सिन्धे छत्ते । जस्पार्णे विमाणें गरिन्द-गतं ॥३॥
भवन्तुएँ
में पिसुन जेम ॥४॥ सुणिवरेण कसाय व कमाण ||५|| दहमुह र किच सय स्वण्डड-खण्डु ॥ ६॥ णं गिरि-संघायों कुलिस बाद ॥७॥ ओलु माणु व्हसिएँ य दिवलें ॥ ८ ॥
थरथरहरन्त सर कथा केम । जण वि इस वाणेहिं घाण । धणु पाडि पाडि छन्त दण्डु | अपण चडेपिणु भिडिउ राउ | उ भणड मिडियाले उससे
घन्ता
जिउ यि सामन्तेंहि वसवणु विजय दमाणणें घुट्ठर । 'कहि जाहि पात्र जीवन्तु महु' कुम्मयष्णु भारु ॥१५॥
२ ]
ब्राजइ णासन्तोषि सत्तु ॥१॥ किर जाम पचाव सूपाणि ॥२॥ 'किं कायर र विद्धंसणेण ॥३॥ किं तर म जीव गिबिसी वि ॥४॥ थिङ भाशुकण्णु मच्छरु मुवि ॥५॥ सु-कलत्तु व पुष्क- विमाणु दिडु || ६ || । पट्टविय पसाहा के वि क ॥ ७ ॥ । तहों वहीं दुकड़ जिह काळ-दुण्डु ॥ ८ ॥ धत्ता
'आएं समाणु किर कपणु खलु । जं फिल्इ जम्म-सयाएँ काणि' | rase aft विहीण | सो हम्म जो पहण पुवि । णास वराड नियन्याण लेवि' । एयन्तरे वसवणहाँ मणिट् दु । चिडि राहिङ मुवि मक अणु पुणु जो जो को वि चण्
[
-
णिय बन्धव-ससणेंहि परियरिउ दणुवह दुदम-दमन्त । आहिण्डर ठीकऍ इन्दु जिह देस-स यंभु अन्त ॥९॥
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मनमो संधि
१.१ रात । रथ, गज, अश्व, भ्वजचिह्न, छत्र, जम्पान विमान और राजाओंके शरीरोंमें घर-घर करते हुए तीर ऐसे जा लगे मानो धनवान् आदमीके पीछे चापलूस लोग लगे हों । यक्षेन्द्र धनदने भी तीरोंसे तीरोंको काटा वैसे ही, जैसे मुनिवर आती हुई कपार्योको काट देते हैं । धनुप गिर गये और छत्र तथा दण्ड भी जा पड़े। उसने दशमुखके रथ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब वह दुसरे रथपर चढ़कर राजासे भिड़ा, मानो वनका आघात गिरि समूहसे मिला हो । धनद् भिन्दिपाल अस्त्रसे छातीमें आहत हो गया । और दिनका अन्त होनेपर सूर्यकी तरह लुढ़क गया।।१-८||
पत्ता-वैश्नवणके सामन्त इसे उठाकर ले गये, दशाननने विजयको घोषणा कर दी। तब कुम्भकर्ण क्रुद्ध हो उठा, "हे पाप, तू जीते जी कहाँ जाता है" ||२||
[१२] "इसके समान कौन क्षत्री है, भागते हुए भी इसका घात किया जाये, जिससे सैकड़ों वर्षोंका बैर मिट जाये।" यई कहते हुए व हाथ में लेकर कुम्भकर्ण जैसे ही दौड़ता है, वैसे ही विभीषणने उसे रोक लिया, यह कहकर कि “कायर मनुष्यको मारनेसे क्या ?' उसे मारना चाहिए, जो फिरसे प्रहार करता है, क्या साँप निर्विष होकर भी जिन्दा न रहे ! वह बेचारा अपने प्राण लेकर नष्ट हो रहा है ।" तब कुम्भकर्ण मत्सर छोड़ कर चुप हो गया। इसके बीच वैश्रवणका सुकलत्रकी तरह मनको अच्छा लगनेवाला पुष्पक-चिमान दिखाई दिया। नराधिप रावण शंका छोड़कर उसपर चढ़ गया, कितने ही लोगोंको उसने लंका भेज दिया। वह स्वयं जो-जो भी चण्ड था, उसके पास कालदण्ड की तरह पहुंचा ।।१-८॥ __ पत्ता-दुर्दमनीयोंका दमन करता हुआ और अपने बान्धव और स्वजनोंसे घिरा हुआ राक्षस राषाण, इन्द्रकी तरह लीलापूर्वक घूमने लगा, सैकड़ों देशोंका उपभोग करता हुआ ॥२॥.
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१७३
परमवरित
[११. एगारहमो संधि] पुष्फ-विमाणारूतुएंण दहवयाणे धवल-विसालाई । णं घण-विन्दई अ-सलिलई टिदुइ हरिपेण-जिणाला ॥१॥
सोगदवाहण-वंस-पईथे । पुच्छिा पुणु सुमाकि दहीवें ॥१॥ 'अहो अहो ताय ताय ससि-धवलहूँ । एथइँ किंण जलुग्गय-कमलई ॥२॥ किं हिम-सिहरह साउँ वि मुक्कई । किं णक्खत्तई थाणहाँ चुक्का ॥३|| दगगुरम-धवल-पुण्डरियई। कि काह मि मिसुपरि धरियई ॥४॥ अब्भारम्म-विवजिय-गमई। किं भूमियले गाई सुमनभई ॥५॥ किय-मङ्गल-सिकार-महास। किं श्रावापियाई कलहंसह ॥६॥ जसु सम्बनाई खपदवि खण्डे नि । किय मउ कोधि पडीउ वि।। कामिणि-वयणोहामिय-छायहूँ। किय ससि-सयई मिलेपिणु भाय ई॥४
पत्ता
कहइ सुमादि दसाणणहाँ जिग-मयण सहमकियाई
'जण-णयणाणन्द-अणेराह । पया इरिसेणही कराई ॥५॥
[२.] अट्टाझियह म महि सिद्धी पत्र-णिहि-वउदह रयण-समिद्धी । ॥ पदिकाएँ दिष महारह-कारणे जायेथि जगणि-दुक्ख गड तक्मणे ॥२॥ वीयएँ तावस-मवणु पराइट। मरणावलिह मयण-जरु लाइउ ॥३॥ तड्यएँ सिन्धुणयरे सुपरसम्पाउ | हरिष जिणेपिणु लइयड कण्ण॥३॥ वेगमईएँ चदस्थऍ हारिउ । जयचन्द हिय वारे पइसारित' ॥५॥ परमें गङ्गाहर-मदिह-रण । तहि उप्पण्णु चक्क नहीं स-स्यणु ॥६॥
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१
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एगारहमो संधि
ग्यारहवीं सन्धि पुष्पक विमानमें बैठे हुए रावणने हरिपेण द्वारा निर्मित धवल विशाल जिनमन्दिर देखे जो ऐसे जान पड़ते थे जैसे अलरहित मेघवृन्द हों ॥१॥ _ [१] नब तोयवाहन कुलके दीपक रावणने सुमालिसे पूछा, "अहो तात, चन्द्रमाके समान धवल ये क्या जलमें खिले हुए कमल हैं ? क्या हिमशिखर नष्ट होकर अलग-अलग दिखाई दे ह! क्या नमात्र अपने स्थानसं चूक गये हैं ? क्या मृणाल
साहित धवल कमल किसी दिशाके ऊपर रख दिये गये हैं ? क्या ये एसे भूमिगत मेघ हैं कि जिनका वर्षाके प्रारम्भमें गर्व नष्ट हो गया है ? क्या यहाँ ऐसे कलहंस पसा दिये गये हैं कि जो हजारों मंगल शृंगारांसे युक्त हैं ? क्या कोई अपने यशके सौ-सौ टुकड़े कर उन्हें वापस यहाँ छोड़ गया है ? क्या यहाँ ऐसे सैकड़ों चन्द्र आकर इकट्ठे हैं कि जिन्हें कामिनियोकी मुखकान्तिके सामने नीचा देखना पड़ा है ?" ॥१-८॥ - घत्ता-सुमालि रावणसे कहता है, "लोगोंकी आँखोंको आनन्द देनेवाले और चूनेसे पुते हुए ये हरिषेणके जिनमन्दिर हैं ॥२॥
[२] हरिपेणको अष्टाह्निकाके दिनों में नव निधियाँ और चौदह रत्नोंसे युक्त धरती सिद्ध हुई थी। पहले दिन वह महारथ (यात्रा) के कारण उत्पन्न होनेवाले माँके दुःखको जानकर कहाँ गया। दूसरे दिन वह तापसवन पहुँचा जहाँ उसने मदनावलीकी विरह पीड़ाको स्वीकार किया। तीसरे दिन सिन्धु नगरमें सुप्रसन्न हाथीको वश में कर कन्यारत्न प्राप्त किया। चौथे दिन वेगमतीका अपहरण करते हुए, उसका प्रवेश जयचन्द्र के हृदयमें कराया । पाँचवें दिन गंगाधर
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छट्टएँ पहिमि हम श्रावगी। अण्णु वि मयणाबलि करें फग्गी सत्तमैं गमि जणि जोक्कारिय। अट्ठम दिवसें पुज णीसारिय ॥८॥
पत्ता एमई तेण वि णिम्मिय ससि-प-खीर-कुन्दुजलाई। माहरणई व वसुन्धारहँ सिव-सासर-सुहहँ ष अविचरई॥९
[१] गड सुणन्तु हरिसेण-कहाणउ । सम्मेय-इरिहि सुक्कु पषाणड ॥१॥ ताम णिणाउ समुट्टिउ मीसणु। जाहाण-साहण-संतामणु ॥२॥ पंसिय हस्थ-पहस्य पधाय । वण-करि णिवि पडीवा भाइय ।। 'देव देव कि जेण महारड़ । अस्लई मत्त-इस्थि अइरावउ ॥१॥ गजणाएँ अणुहरह समुरहों। सीयरंण जलहरही राहों ॥५॥ कदमेण णव-पाउस-कालहीं।। णिज्मरेण महिहरहों विसालहों ॥६॥ सक्खुम्मूकणेण दुम्बायहाँ। सुड-घिणासणेण जमरायहीं ॥७॥ दसणेण श्रासोविस-सपहों। विविह-मयावस्थए कन्दष्पहाँ ॥८
पत्ता
इन्दु वि चॉवे ण सकियउ खन्धासणे एयहाँ वारणहों। गउ चउपासिउ परिमवि जिम अत्य-होणु कामिणि-जणही ॥५॥
अण्णुप्पण्णु दसण्णय-कागा। उमप-चारि सम्वनिय-सुन्दरु। सत्त समुत्तुगत णव दीहरु । णिव-इन्तु महु-
पिल-खोयणु।
[] माहव-मास देखें साहारण ॥३॥ मर-हन्थि णामेण मोम ||२॥ दइ परिणाहु निणि का विस्था ।३३। भयसि-कुसुम-णिहु रत-कराणणु॥४॥
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एगारहमो संधि महीधरके युद्ध में उसे रत्तसहित चक्र प्राप्त हुआ। छठे दिन ममची धरती उसके अधीन हो गयी और मदनावली उसे हाथ लगी। सातवें दिन जाकर उसने माँका जय-जयकार किया, और तब आठ दिन पूजायात्रा निकाली ॥१-८॥
पत्ता-शशि, क्षीर, शंख और पुत्र के समान मनिन र उसी हरिपेण द्वारा बनवाये गये हैं जो ऐसे जान पड़ते हैं जैसे पृथ्वीके अलंकार हो, या अविचल शिव-शाश्वत सुख हो ॥२|| __[३] इस प्रकार हरिषेणकी कहानी सुनते हुए उसने सम्मेद शिखरकी ओर प्रस्थान किया । इतनेमें एक भीषण शन्द हुआ जो रामसों की सेनाके लिए सन्तापदायक था। उसने इस्तप्रहस्तको भेजा, वे दौड़कर गये और एक वनगज देखकर वापस आये। उन्होंने कहा, "देवदेव, जिसने महाशब्द किया है, वह मदवाला ऐरावत हाथी है, जो गर्जेनमें भयंकर समुद्र का, जलकण छोड़नेमें महामेघोंका, कीचड़में नव वर्षाकालका, निर्झरमें विशाल पर्वतोंका, पेड़ोंको उखाड़ने में दुर्चात ( तूफान) का, सुभटोंके विकासमें यमराजका, काटनेमें दन्तविष महा. नागका और विभिन्न मदावस्थाओं में कामदेवका अनुकरण करता है ।।१-८॥
धत्ता-इस महागजके कन्धेपर इन्द्र भी नहीं चढ़ सका, वह इसके चारों ओर घूमकर उसी प्रकार चला गया जिस प्रकार निर्धन व्यक्ति कामिनीजनके आस-पास घूमकर चला जाता है ।।२।।
[४] और यह उत्पन्न हुआ है साहारण देशके दशार्ण काननमें चैत्र माहमें । यह चौरस सर्वांग सुन्दर, भद्र हस्ति है । यह सात हाथ ऊँचा, नौ हाथ लम्बा और दस हाथ चौड़ा है। इसकी सूड़ तीन हाथ लम्बी हैं । दाँत चिकने, आँखें मधुकी
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पठमचरित
पा-मालावसु मयालउ ।। बट्ट-सरहि-यणय-कुम्मस्थल । उन्जय-कबरु सूयर-पछलु ।। चाय क्षु यिर-भंसु यिराब
चर-कुम्भ-धय-छत्त-रिहासउ ॥५॥ पुलय-सरोरु गलिय-नापडत्थलु ॥६॥ बोम-पहरु सुभ्रध-मय-परिमल।।॥ जानकर-पुच्छ-पईहरू ॥८॥
एम भणेाई पक्खणई हरिध-पएसई सबहु मि
पत्ता किंगगियई पाम-विहूणाई। चउदह-सयह घडरूणाई' ॥९॥
• संणिसुमेवि दसाणणु हरिसिङ । उ म मन्नु रोमञ्ज व दरिसित ॥१॥ 'जइ तं भाव-हस्थि गाउ साहमि । तो जणपोवरि मसि पर वाहमि'॥ एउ भणेवि सम्मेण्णु पधाइड । तं पएसु सहससि पराइड ॥३॥ गयवइ णिए वि विरोलिय-गयणे । हसिउ पहरथु णवर दह-क्यणे ।।३।। 'हड जाणमि पचण्ड तम्बेरमु । णवर विलासिणि-रूप मणौरमु॥५॥ हउँ जामि गइन्द-कुम्मस्थल । णवर विलासिणि घण-थण-मण्डलु॥५॥ जाणमि सु-विसाणहं श्र-कल कई । णवर पसण्ण-कण्ण-
ताई ॥७॥ हउँ जाणमि भमन्ति भमर-उलई । णवर मिस्तर-पेलिय-कुरुलह ॥८॥
घत्ता
जाणमि करि-खन्धारुहणु णवर पहस्थ मज्जु मणहाँ
अन्तु होइ मय-भासुरः । उन्धहह णवश्लु णाई सुरउ' ||९५
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1
गरमी संधि
U
तरह पीली, अलसीके फूलकी तरह, लाल सूँड़ और मुख । पाँच मंगलावत ( मस्तक तालु आदि ) से युक्त और मदका घर है। चक्र, कुम्भ, ध्वज आदिकी रेखाओंसे युक्त उसका कुम्भस्थल उत्तम युवतीके स्तनोंके समान है। शरीर पुलकित है, गण्डस्थलसे मद झरता है, कन्धे ऊँचे हैं, पिछला हिस्सा सुडौल है, उसके श्रीस नख है, उसका मद परागकी तरह सुगन्धित है । चापषंशीय, स्थिर मांसवाला और विशाल उदर ! उसका शरीर, दाँत, सूँड़ और पूँछ लम्बी है || १८||
१७७
बच्चा - इस प्रकार जो नामरात अनेक लक्षण गिनाये गये हैं, वे सब कुछ चार कम चौदह सौ उस हाथी के प्रदेशमें हैं॥९॥
[५] यह सुनकर रावण हर्षित हो गया । भीतर न समाने के कारण वह पुलक रूप में प्रकट हो रहा था । वह बोला, “यदि मैं भद्रस्तिको अपने वशमें नहीं करता तो अपने पिताके ऊपर तलवारसे आक्रमण करूँ ?" यह कहकर वह सेनासहित वहाँके लिए दौड़ा, और शीघ्र ही उस प्रदेशमें जा पहुँचा । अपनी घूरती हुई आँखसे उसे देखकर, रात्रणने केवलं प्रहस्तका उपहास किया, "मैं इस प्रचण्ड हाथीको केवल विलासिनीके रूपकी तरह सुन्दर जानता हूँ, मैं गजेन्द्रके कुम्भस्थलको केवल बिलासिनीका सघन स्वनमण्डल समझता हूँ, उसके अकलंक दाँतोंको केवल सुन्दर कर्णावतंस मानता हूँ, उसपर घूमते हुए भ्रमरकुलको मैं केवल विलासिनीके निरन्तर लहराते हुए बालोंके रूपमें जानता हूँ ||१८||
घसा - मैं जानता हूँ कि हाथी के कन्धेपर चढ़ना अत्यन्त खतरनाक होता है, फिर भी हे प्रहस्त! मेरा मन नये सुरितभावसे उलित हो रहा है" || ९ ||
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पडमचरित
[ ] पुप्फ-विमाणहाँ लोणु दसाणणु । दिहु णिवत्थु किड कंस-णिबन्धणु॥१॥ सइय लट्टि उग्बोसिउ कलयल। वह हयई पधाइड मयगलु ॥२॥ अहिमुडु धणय-पुरन्दर-वहरिहें। वासारतु जेम विश्नहरिहें ॥३॥ पुक्खर ताडिउ लश्कुडि-धाए। जावइ काल-मेहु दुन्याएं ॥३॥ देह ण देइ वे रे जावे हि । विजुल-विकसिय करणे ताहि ॥५॥ पछले चटिड धुणेवि भुव-डालिउ । 'बुदबुद मणेवि खन्धे अपफालिउ॥६॥ जकिउ पुणु वि कोणालिवि। सुषिणा(१)दइड जेम गउ लविताका खणे गण्डयलें ठाइ खणे कन्धरें। खर्ण चरह मि चरणहुँ अन्भन्तर
घत्ता दीसह णासह विष्फुरइ परिममइ बदिसु कुसरहीं। चलु तसिजह गयणन्यले गंवि-पुष णव-जलहरहा ॥९॥
[ . ] हस्थि-विधारणाउ एयारह । अण्णड किरियड वीस दु-बारह॥१॥ दरिसेंथि किउ गिफन्दु महाभाइ । धुत्तं वेस-मर व मग्गउ ॥२॥ साहिउ मोक्नु र परम-जिणिन्दें । 'होउ होड' णं रजिट गइन्दै ॥३॥ 'भले भलें' पाणि घलगु समपिउन येण वि वामझगु वरिपउ ॥१॥ कपा धरवि आरूदु नहाइड। करवि रियारण अछकुसु लाइड ॥५॥ तेण विमाग-जाग-आगन्दै । मंस्लिउ कुसुम-वासु सुर-विन्दें। णविउ कुम्भयपणु स-विहीसागु । हस्धु पहत्थु वि मउ सुरसारणु ॥॥ मल्लवस्तु मारिषु महोयरु। रयणासन सुमालि जोयर ॥८॥
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एगारहमो संधि [६] पुष्पक विमानमें बैठे हुए उस रावणने अपना परिकर और केशा खूष कस लिये। लाठी ले ली, और कलकल शब्द किया। तूर्य बजाते ही. मदोन्मत्त हाथी धनद और इन्द्रके दुश्मनके सामने दौड़ा ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार वर्षाऋतु विन्ध्याचलके सामने दौड़ती है। लाठीसे सुंदपर वह वैसे ही आहत हुआ जैसे दुर्वातसे मे घ। जबतक वह बिजलीकी तरह चमकती हुई अपनी सूडसे रावणके वक्षस्थलपर चोट करे, उसकी सूडको आहत कर यह उसके पिछले भागपर पढ़ गया, और बुद्बुद कहकर उसके कन्धेपर चोट की, फिर उसने सूंडसे आलिंगन किया और स्वप्न में (1) प्रियकी तरह वह उसे लाँधकर चला गया। पलमें वह गण्डस्थलपर बैठता और पलमें कन्धेपर, और एक क्षण में चारों पैरों के नीचे ।।१-८||
धत्ता-वह महागजके चारों ओर दिखता है, छिपता है, चमकता है, चारों ओर घूमता है। वह ऐसा जान पड़ता है, जैसे आकाशतलमें महामेघोंका चंचल विजली-समूह हो ।।९।।
[७] हाथीको वशमें करनेकी ग्यारह और दो बार बीस अर्थात् चालीस क्रियाओंका प्रदर्शन कर उसने महागजको निस्पन्द बना दिया, वैसे ही जैसे धूर्त वेश्याके धमण्डको घूरचूर कर देता है, जिस प्रकार परम जिनेन्द्र मोक्ष साध लेते हैं, उसी प्रकार (उसने महागजको सिद्ध कर दिया)। हाथी 'होजहोउ' रटने लगा। उसने भी 'भल-भल' कहकर अपना पैर दिया, उसने भी बायें अँगूठेसे उसे दबा दिया। वह कान पकड़कर हाथीपर चढ़ गया और वशमें कर अंकुश ले लिया। यह देखकर विमान और यानोपर बैठे हुए देवताओंने पुष्पवृष्टि की। विभीषण के साथ कुम्भकर्ण नाचा। हस्त, प्रहस्त, मय, सुत और सारण भी नाचे। माल्यवन्त, मारीच और महोदर, रत्नाश्रव, सुमालि और वमोदर भी नाच उठे ॥१-८।।
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१८०
हरिस- रण करवियर तहिं रावण हावऍण
पवमचरित
घता
चन्दहासु कर करें षि महि कपिणु जयरहरु
[ 4 ]
तिजगविणु लामु गासिउ | मित सहसा करि-कह-अणुराहट । पहर-विहरु रुहिरोह्लिय-मत्तड । 'देव-देव किम्पिों व हिं ।
मिठ तर्हि सिमिरु जेरथु आवासिय ॥१ सहिँ अवसरें भनु पशु पराइ ॥२॥ णरवद्द तेण वेषि विष्णत्तय ॥३॥ सच-फलिह-सूल-हक कण हिं ॥४॥ सिरस सुसविणाराहि । वह कोन्त-गय- मोग्गर- भाएँ [हिं ॥५॥ घरेंविण सहित विहि एक वि ॥६॥ कवि कह विउ मेलिड पार्णे हि ॥ ७ ॥ हय संगाम मेरि सादर ॥८॥
जमुआरोडिज भग्गा सेण वि । पचेल्स जिल्लरिय वाणेंहि । किसुणेवि कुछ रक्
कीव-दगि पलित्तु पधाइड । पेक्ष सत्त नरम अ-रउरव । पेक्खइ मद्द वतरणि वहन्ती । ऐक्खड़ गय-पय- पेलिजन्तई । पेक्ष र मिहुइँ कन्दन्तहूँ । पेक्ख अण्ण-जीव विजतहूँ ।
वीर रसु
सो गाहिं जो
जेण मणें मावियठ । णाविय ॥ ९॥
प्रत्ता
स विमाणु आयासह
[]
वलु संवलियउ । उत्थलियउ ॥ ९ ॥
णिविर्से से जम-णय परा ॥१॥ उट्टिय बारवार हाहार ॥२॥ रस-वस-सोणिय सलिल वती ॥३॥ सुहृद-सिरहँ टसत्ति मिजन्त हूँ ॥४॥ सम्वलि-रुख वराविखन्त ॥५॥
- पन्ति ॥५॥
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एगारहमो संधि घसा-यहाँ एक भी व्यक्षिः ऐसा नहीं था जो रावणके नाचनेपर न नाचा हो, हर्षसे पुलकित न हुआ हो और मनमें बीररस अच्छा न लगा हो ॥२॥
[८] उसका नाम त्रिजगभूषण रखा गया और वह उसे वहाँ ले गया अहाँ सेनाका शिविर ठहरा हुआ था। गजकथाका अनुरागी वह वहाँ स्थित था कि इतने में एक भट वहाँ आया। प्रहारसे विधुर उसका शरीर खूनसे लथपथ था । उसने नमस्कार कर राजासे निवेदन किया, "देवदेव, किष्किन्धके बेटोने सन्वल, फलिह, शूल, हल, कणिक, असिवर, झस, संठी और तीरों तथा चक्र, कोत, गदा, मुद्गरके आघातोंसे यमपर आक्रमण किया, उसने उन्हें नष्ट कर दिया। दोनों में से एक भी उसे नहीं पकड़ सफा, बल्कि बाणोंसे छिन्न-भिन्न हो गये, किस प्रकार उनके प्राण-भर नहीं निकले" यह सुनकर रक्षध्वजी कुपित हो गया । युद्धकी भेरी बज उठी और वह तैयारी करने लगा ॥१-८॥
पत्ता-अपने हाथमें चन्द्रहास तलवार लेकर विमान और सेनाके साथ वह चला जैसे धरतीको लाँघकर समुद्र ही आकाश में उछल पड़ा हो ॥२॥
[२] कोपकी ज्वालासे प्रदीप्त वह दौड़ा और शीघ्र ही आधे पलमें यमकी नगरी पहुँच गया। वहाँ देखता है अत्यन्त रौरव सात नरक, उनमें बार-बार हा-हा रव उठ रहा था, देखता है बहती हुई चैतरणी नदीको जो रस, मज्जा और रक्तके जलसे भरी हुई थी, देखता है कि हाथी के पैरोंसे पीड़ित सुभटो. के सिर तड़तड़ कर फूट रहे हैं। देखता है कि साँवर वृक्षके पत्तोंसे सिरोंमें धीरे जाते हुए मनुष्यों के जोड़े क्रन्दन कर रहे हैं । देखता है कि दूसरे जीव आगमें जलते हुए छनछन शब्दके
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पउमचरिड
कुम्मा के चिन्ता । एक वह दुक्ख पाचन्ता ॥७॥ सयल बि मम्मीसेवि मेलाषिय | जमउरिà-zewana agıfaa 10
'ર
कंचित किया सड़ों किल रेहि' विसिति श्रणु
अच्छ एउ देव पार | तं शिसुत्रिं कुषि जमराण । कासु किम्-सिणि रुद्रित । जे पर-दि-विन्दु खोडाविज | सस वि गरब जेण विलिय । सह दरिमाषमि अजु जमत्तणु' महिसास दण्डनाय-पहर शु | केति भीसण वणिज ।
ל
घत्ता
'बइतरणि भग्ग णासिय णरय । छोडाविय णरवर वन्दि-सय ।।11
[ 3 ]
"
जसु जम वासणु जम-करणु एक्कु जि तिहुण पळय करू
म्पस-नाइद-विन्दु णं धक्कउ' ॥१॥ 'केण जियन्तु चतु अप्पाणक || २ || कासु कालु आसण्णु परिडिङ ॥ ३ ॥ तत्रणु अण्जुनो ॥ जें वइनरणि वहति विणामिय ॥५॥ एस भगेत्रिणीसरिउल साह ॥६॥ कण- देहु गुसाहरु-लोणु ॥ ॥ मिच्छु वुत्तु पुणु कहाँ उमङ्ग ॥14॥
घत्ता
जम उरि जम दण्ड समोर । पुणु पन त्रि रणमुहें को घर ॥ ५ ॥
[ * ]
जंगम-करण दिट्ठ भय-भोसणु । पर दसाणणेण ओसारिउ । 'भरें माणच वलु बलु विष्णासहि इन्दही पात्र तुम्छ कि हगहों । सच्चहूँ कुछ कियतु हाँ आइड ।
भाइ तं महन्तु विहीसणु ॥१॥ अप्पुणु पुणु कियन्तु हारि ॥२॥ । मुहियएँ जं जमु णासु पयासहि ॥३३॥ ससिंहें पदों भणयहाँ वरुणहो ॥ ४ ॥ यहि धाहि कहिँ जाहि भनाइ ॥ ५ ॥
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एगारहमो संधि
साथ छीज रहे हैं, कितने ही जीव कुम्भीपाकमें पकते हुए तरह-तरहके दुःख पा रहे हैं । उसने सबको अभयदान देकर मुक्त कर दिया। यमपुरीके सबानेवालोंको भी भगा दिया ||१-८।।
घाता-यमके किंकरोंने तब जाफर कहा, “वैतरणी नष्ट हो गयी है और नरक नष्ट हो गये है, असिपत्र वन ध्वस्त है और सैकड़ों बन्दीजन मुक्त कर दिये गये हैं" |
[१०] "हे देव, यह एक दुश्मन है जो मस गजेन्द्रसमूह के समान स्थित हैं।" यह सुनकर यमराज क्रुद्ध हो गया, ( और बोला )-"किसने जीते जी अपने प्राण छोड़ दिये हैं ? कृतान्तका मित्र शनि किसपर क्रुद्ध हुआ है ? किसका काल पास आकर स्थित है ? जिसने बन्दीजनोंको मुक्त किया है, और असिपत्र वनको तहस-नहस किया है, जिसने सातों नरक नष्ट किये हैं, जिसने बहती हुई वैतरणीको नष्ट कर दिया, उसको मैं आज अपना यमपन दिखाऊँगा।" यह कहकर वह सेनाके साथ निकला । भैसे पर आरूद, दण्ड और प्रहरण लिये हुए, कृष्णा शरीर, मूंगोंकी तरह लाल-लाल आँखोंवाला था बह । उसकी भीषणताका कितना वर्णन किया जाये ? बताओ मौतकी उपमा किससे दी जा सकती है ? ॥१-८॥ ___ घत्ता--यम, यमशासन, यमकरण, यमपुरी और यमदण्ड यदि इनमें से एक भी आक्रमण करता है, तो यह त्रिभुवनमें प्रलयंकर हैं, फिर युद्ध में पाँचोंका सामना कौन कर सकता है।।
[११] जब भीषण यमकरणको देखा, तो उसे सहन न करता हुआ विभीषण दौड़ा, केवल दशानन उसे हटा सका। उसने खुद यमकरणको ललकारा, "अरे मानव मुड़-मुड़, नष्ट हो जायेगा । तू व्यर्थ ही अपना नाम 'जम' कहता है। हे पाप, इन्द्रका, निष्करुण तेरा, चन्द्रका, सूर्यका, धनद और वरुणका, सबका यम मैं आया हूँ ? ठहर-ठहर, बिना आघात खाये कहाँ
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पउमचरिउ
संणिसुविशु इरिव करू |
जर्मेण मुक्कु र दण्डु मयंकरु ॥६॥ एन्तु पछिष्णु उसासें ॥७॥
धाउ धगधगतु आयातें |
सम-सय-खण्ड करेष्पिणु पाटि । गाइँ क्रियन्त महफर साहिल 114 ||
१८४
धहरु केत्रि तुरन्तऍण सं पि णिचारिव रावण
[१२]
विदम्स
पुणु वि पृणुचि विणिवारिय घणयहीँ रयणासच तणयों ॥ १॥ दिट्टिमुट्ठि-संघाणु ण णादड् । णवर सिलीमुह धोरण भावइ ॥ २१ ॥ | जानें जाणें हुए ह गय नायवरे। उन्हें छत भएँ धर्म रहें रहवरें || ३ || भ भ म म करें करलें । चलणं चणं सिरें सिरेंडर वस्य ॥४ भरिय वाण कविय साहणु पढ्छु जमो बि बिहरु विपहरणु ॥ ५ ॥ सरहों हरिणु जे उदाइ । निविदाहिण- सेवि पराइ ॥ ६ ॥ सहि रहर पुरवर-सारहों इन्दों कहिउ अष्णु सहसा रहीं ॥७॥ *सुरवड़ कई अपपल पहन्तशु | अहो कहीं चि समप्पि जमसणु ॥ ४ ॥
मालि माहिं पोर हि लक सुज्य सुराहिचह
घत्ता
सर-जाल विसजिउ भासुरउ । जामाएँ जिस खलु सासुर ||२९||
संविवि अम-वयणु अमुन्दरु
अग्ग सामन्ति थिट भेसह सुहुँ पुछावड़ नाइँ भयाण ।
'
घन्ता
दरिसाक्षित कह विष्ण महु म.णु । धणपुण वि इयउ तह चरणु ॥९॥
[१३]
किर णिनाइ सणहें सि पुरन्दरु ॥19॥ 'जो पहु सो सयलाई गवेमइ || २ | सो जे कमागड लक राम ॥३॥
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एगारहमो संधि जाता है ?" यह सुनकर वैरियोंका क्षय करनेवाले यमने अपना भयंकर दण्ड युद्ध में फेंका, वह धकधक करता हुआ आकाशमें दौसा, उसे आते हुए देखकर राषणने खुरुपासे छिन्न-भिन्न कर दिया, सौ-सौ टुकड़े करके उसे गिरा दिया। मानो कृतान्तका घमण्ड ही नष्ट कर दिया हो ॥१-८।। __ घत्ता-तब यमने तुरन्त धनुष लेकर तोरोंकी भयंकर बौछार की, रावणने उसका भी निवारण कर दिया, उसी प्रकार जैसे दामाद दुष्ट ससुराल का ॥९॥
[१२] धनदका काम तमाम करनेवाले, बार-बार आक्रमण करते हुए, रत्नाश्रवके पुत्र रावणकी दृष्टि और मुद्राका सन्धान हात नहीं हो रहा था. उदद तीरोंकी पंक्ति दौड़ रही थी। यान-यान, अश्व-अश्व, गज-गजवर, छन्त्र-छन्त्र, ध्वज-ध्वज, रथरथवर, योद्धा-योद्धा, मुकुट-मुकुट, कर-करतल, चरण-चरण, सिर-सिर, उर-रतल बाणोंसे भर गया, सेनामें कडू आहद फैल गयी। यम भाग गया, विधुर और अनविहीन । सरभसे जैसे हरिण चौकड़ी भरकर भागता है वैसे ही वह एक पलमें दक्षिण श्रेणी में पहुँच गया। वहाँ उसने रथनूपुरके श्रेष्ठ इन्द्र और सहस्रारसे जाकर कहा, "हे सुरपति, अपनी प्रमुता ले लीजिए ! यमपना किसी दूमरेको सौंप दीजिए ||१-८॥
घसा--मालि और सुमालिके पोतोंके द्वारा मेरी यह हालत हुई है, किसी प्रकार मेरा मरण-भर नहीं हुआ, हे सुराधिपति, तुम्हारी लज्जाके कारण धनदने भी तपश्चरण ले लिया है" ||९||
[१३] यमके इन असुन्दर शब्दोंको सुनकर पुरन्दर भी तैयार होकर जैसे ही निकलता है, वैसे ही वृहस्पति सामने आकर स्थित हो गया और बोला, "जो स्वामी होता है वह आदिसे लेकर अन्त तक पूरी बातको गवेषणा करता है, परन्तु तुम अज्ञानीकी तरह दौड़ते हो, वह लंकाका क्रमागत राजा
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पडमचरित
तुम्हें हिं मालि काले भुत्ती। मण्डु मातु जिह पर-कुलउत्ती ५५।। ताह में पड़ जुत्तु पहरेवड़। पद्ध उक्वन्धं पई जाएवउ ||५|| देहि ताम ओशामिय-छायहाँ। सुरसंगीय-णयह जमरायहाँ॥६॥ भुन सालि में मय-मारिच्चे हि' । एम भणेति णियतिर मिहि ॥७॥ दामहो वि जमउरि उराश्यहाँ । किमिन्धरि देवि सूरस्यहाँ ॥ ६॥
पत्ता
गउ सहें सबङमुहर शायदवाहण-बंस-दलणं
णहें सरगु त्रिमाणु मणोहरउ । काले बद्धिउ दाहरउ' ॥२॥
[१] मीमण-मयरहरोवरि जन्ते। उवसिहामणि-काया-मन्तं ॥॥ परिपुच्छिइ सुमालि विष्णुप्तह। कि णहयालु' 'णं प रयणाय ॥२॥ 'किं तमु किं तमालतस-पतिद' । . ' ण बन्दगान-मणि-कन्तिउ' ॥६॥ 'कि एयाउ कौर-रिकोलिर'। 'णं णं मरगय-पवणालोलिल' ॥४॥ 'कि महियले पहिग्रई रवि-किरणई । 'णं णं सूरकन्ति-मणि-श्यणहूँ' ॥५॥ 'किं गय घडर गिल निल्लोलर' | 'गं को जमणिहि-जल-कलोलज'॥६॥ 'स-यवसाय जाय किं माहिहर'। 'णं णं परिममलित गल जालय ॥७॥ एम चरन्त पस लंकाउरि । जा तिकूल-महिहर-सिहरोवरि ३६ ॥ जणु पोसरिज सम्यु परिश्रीसें। दियघर-पणइ-सूर-णिग्घोसें ॥९॥ णन्द-बद्ध-जय-सह-पत्तिहिं। सेसा-अग्धपत-जल-अतिहि ॥१०॥
लाहिवह पहल पुरे जिह मुरबह सुरवर-पुरिहि
परिव पष्ट अहिलेड किंउ । तिस रज्जु स ई सु अन्तु घिउ।।११।।
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एगायमो संधि
है। तुम लोगोंने मालिके समय, परकुलकी कन्याकी तरह बलात् उसका सेवन किया है। उनपर तुम्हारा पहले ही प्रहार करना उचित था, इस प्रकार हड़बड़ी में जाना उचित नहीं। इसलिए, जिसकी कान्ति क्षीण हो गयी है ऐसे यमराजको सुरसंगीत नगर दे ईमिर जिसका किया जातीचा डामा भोग किया जा चुका है।” रावण भी अक्षरजको यमपुरी और सूर्यरजको किष्किन्धापुरी देकर ॥१-८।।
पत्ता-लका नगरीकी ओर उन्मुख होकर चला । आकाशमें जाता हुआ उसका सुन्दर विमानऐसा लगा मानो समयने तोयदबाइन वंशके दलको एक दीर्घ परम्परामें बाँध दिया हो ।।५।। __ [१४] भयंकर समुद्रके ऊपरसे जाते हुए, अपने ऊर्च शिखामणिकी छायासे प्रान्त रावण पूछता है, और मालि उत्तर देता है। क्या नमतल है ? नहीं नहीं रत्नाकर हैं? क्या सम है या तमालंकार नगर है ? नहीं नहीं, इन्द्रनील मणियोंकी कान्ति है ? क्या ये तोचोंकी पंक्तियाँ है ? नहीं-नहीं, पवनसे आन्दोलित मरकसमणि हैं। क्या ये धरतीपर सूर्यको किरणें पड़ रही है ? नहीं नहीं, ये सूर्यकान्त मणि हैं। क्या यह गीले गण्डस्थलोंवाली गजघटा है ? नहीं-नहीं, ये समुद्र-अलकी लहरें हैं । क्या यह पहाड़ व्यवसायशील हो गया है ? नहीं नहीं, जलमें जलचर घूम रहे हैं ? इस प्रकार बातचीत करते हुए वे लंका नगरी पहुँच गये, जो कि त्रिकूट पर्वतके शिखरपर स्थित थी। द्विजवर मन्दीजन उन्हीं तूाँके शब्दोंके साथ, सभी परितोषके
साथ बाहर आ गये । सभी कह रहे थे, "प्रसन्न होओ, बढ़ो।" | सभी निर्माल्य अर्घपात्र और जल लिये हुए थे ॥१-१०॥
घत्ता-लंकानरेश नगर में प्रविष्ट हुआ। राज्यपट्ट बाँधकर उसका अभिषेक किया गया। जिस प्रकार सुरपुरीमें इन्द्र, उसी प्रकार अपनी नगरीमें राज्यका भोग करता हुआ बह रहने लगा।
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पटमचारिस
[१२. वारहमो संधि
पमणइ दहवयणु दीहर-णयणु णिय-अस्थाणे णिविट्ठउ ! 'कहहों कहीं गरहों विजाहरहों भज वि कवणु अणिहर'
!
तं णिमुवि जम्पड़ को दि णरु । सिर-सिंहर पदाधिय उमय-करू ११11 'परमेसर दुजाउ दुटु खलु । चन्दीवरु णाम अतुल-पलु ॥२॥ सो इन्दहों तणिय फेर करवि पायारल-मत थिउ पइस दि' ॥३॥ अवर दीजिरवरेंग;
दोपरे || सुवन्ति कुमार अण्ण पवल ।। उच्छुत्यहाँ जम्दण णीळ-णक'॥५॥ अण्णे धुञ्चत् 'कहामि । दो-पासिउ जहण प्राय झहमि॥६॥ किचिपुरिहिं करि-पवर-भुउ।। णामण वालि सूराय-सुउ ॥1 जा पारिहछि मई दिट्ठ सहाँ। सा तिहुयणे गउ भणहों णाहाँ८
घसा रहु बाई वि अझणु हय हणे नि पुणु जा जोपणु विण पावइ । ता मे रुहें भवि जिणवह पर्व वि सहि जे पदीवड़ भावह ।।१॥
तहों गं वलु संण पुरन्दरहों। ण कुत्ररहों वरुणहों ससहरहों ॥१॥ मरु वि टावह वहामरिसु। तहों अपणु णराहिउ विण-सरिसु ॥२५ कहलास-महीहरु कहि मि गड। सहि सम्मउ णार्मे लहड वउ ||३H णिमाम्धु मुएवि विसुन्छ-मह। अण्णही इम्यहाँ वि नाहि म॥४॥ संतेहउ पेक्स्वेचि गीत-भड । पग्वज लेवि गड पूरा ॥५॥ 'मा होसइ केण वि कारणेग। समरमाणु समड दसाणण' ॥६॥
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बारहमासीय
बारहवीं सन्धि
अपने सिंहासनपर बैठा हुआ, विशालनयन रावण पूछता है-"अरे मनुष्यो और विद्याधरो, बताओ आज भी कोई शत्रु है ?"
[१] यह सुनकर अपने शिररूपी शिखरपर दोनों हाथ चढ़ाकर एक आदमी बोला,"परमेश्वर ! चन्द्रोदर नामक अतुल छलशाली दुष्ट खल अजेय है । वह इन्द्रकी सेवा करते हुए, पाताल लंकामें प्रवेश कर रहता है।" तब एक दूसरेने इसका प्रतिवाद किया, "इन्द्र और चन्द्रोदर क्या है ? ऋक्षरजके पुत्र नील और नल अत्यन्त प्रबल सुने जाते हैं।" एक औरने कहा, "मैं बताता हूँ यदि अगल-बगलसे मुझपर आघात न हो। किष्किन्धापुरीमें गजझुण्डके समान हाथवाला, सूर्यरजका पुत्र बाली है। उसके पास जो कण्ठा (1) मैंने देखा है, वह त्रिभुक्नमें किसी दूसरे आदमोके पास नहीं है। ॥१-८॥ ___घता--अरुण ( सूर्य ) अपना रथ और घोड़े जोतकर एक योजन भी नहीं जा पाता कि तबतक वह मेरुकी प्रदक्षिणा देकर और जिनबरको वन्दना करके वापस आ जाता है ? ॥५॥
[२] उसके पास जो सेना है, वह इन्द्र के पास भी नहीं है, कुबेर, वरुण और चन्द्रके पास भी नहीं। अमर्षसे भरकर वह सुमेरु पर्वतको चलायमान कर सकता है। उसकी तुलनामें दूसरे राजा तृणके समान है । कभी वह कैलास पर्वतपर गया था। वहाँ उसने सम्यग्दर्शन नामका व्रत लिया है कि 'विशुद्धमति निर्मन्ध मुनिको छोड़कर और किसी इन्द्रको नमस्कार नहीं करूंगा।' उसे इस प्रकार दृढ़ देखकर, पिता सूर्यरजने प्रवज्या ग्रहण कर ली, यह सोचकर, (या इस डरसे) कि मेरा किसी कारण दशानन
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१९.
पउमचरित
अवसु ण इमु घडद । कइयंसिउ : अम्झहुँ भिड ॥ ॥ सिारकण्ठ मितस्य । राणु सिएहि कइय १८॥
धत्ता अहवइ वापर पि सुरवर-प्पर वि रत्तुप्पल-दल-णपणहों। तासया वि सुहब जा समर-जमा गड णिएन्ति दहावरणहाँ ॥९॥
[1] वालि-सल्लु हियवर धरेंवि । तो रावणु अण्ण योल्ल करें वि ॥१॥ गड एक-दिवसें सुर सुन्दरिह। जा भवहरणेण तणूरिहें ॥१॥ वा हर वि णीय कुल-भूसणे हि । चन्दणहि ह(?)रिय खर-दूसणेहि णासम्त णिवि सहोपरण। जयरेणाकारोदएण ॥४॥
उबरें छुई वि रक्खिय-सरण किय(1)नहि मि चन्दोवर-मरमु ।।॥ विणिवाइज जत्थणे में भिड । जो बुकिङ सो सं वारु गिड ।।६।। कुते सम्गड जं स्यणियर-वलु। रह-तुरय-णाय-णरचर-पवलु ।।७।। भलहन्तु चारु त णिप्पसा गा वह बि पढीषउ णिय-णयहाा।
घत्ता छुनु छुडु दहवयणु परितुद-मणु किर स-कळत्तर आवइ । उम्मण-दुम्मणा असुहारणउ णिय-धरु ताम बिहावइ ।।१।।
सुरमाणे केण वि वरित । खर-दूसण-कण्णा -दुरुचरिउ ||3|| अश्यक श्रायम्विर-णयणु । कु लगइ स-रहसु दहश्रयणु ॥३॥ करें धरिंज ताम मन्दोधरिप। गं गङ्गा नाहु जवण-सरि ।।३।। 'परमेसर कहो विग अपणिय । जिह कग्ण तम पर-मायणिय ||४|| एक करवाल-भय हरहुँ । चउदह सहास विजाहरहुँ ।।५।। जइ माण-घडीचा होन्ति पुणु। तो घरें अच्चम्तिएँ कवणु गुणु ॥३॥
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बारहमो संधि
से युद्ध होगा।" एक औरने कहा, "यह ठीक नही जंचता, क्या कपिध्वजी हमसे लदा ? श्रीकण्ठसे लेकर हमारी मित्रता है और भी हमारे उनके ऊपर सैकड़ों 3 पकार हैं ॥१-८॥ ___घत्ता-अथवा चाहे वानर हों, सुरवर या अन्यवर ? वे सारे योद्धा, रक्तकमलके समान नेत्रवाले रावणकी युद्धकी चपेट नहीं देख सकते" RII
[३] तब, बालीका खटका अपने मनमें धारण कर, रावणने दूसरी बात शुरु कर दी। एक दिन जब वह सुरसुन्दरी तनूदराका अपहरण करनेके लिए गया, तबतक कुलभूषण खरदूषण चन्द्रनखाका अपहरण करके ले गये | अलंकारोदय नगरमें सहोदरने उन्हें भागते हुए देखकर, उन्हें बचाने के लिए छिपाकर शरणमें रख लिया । उन्होंने सहोदर चन्द्रोदरको मार डाला। जो सिंहासन पर स्थित था उसे नष्ट कर दिया, जो आया उसको उसीके रास्ते भेज दिया। रथ, तुरग, गज और मनुष्योंसे प्रबल, जो राक्षस-सेना पीछे लगी हुई थी, द्वार न पा सकनेके कारण रुक गयी और मुड़कर वापस अपने नगर पली गयी ॥१-८॥
घत्ता-इतनेमें शीघ्र ही जब रावण सन्तुष्ट मन अपनी पत्नीके साथ आता है तो उसे अपना घर उदास, सूना और असुहावना-सा दिखाई देता है ॥९||
[४] शीघ्र ही किसीने खरदूषण और कन्याका दुश्चरित उसे बताया। सहसा रावणकी आँखें लाल हो गयीं और वेगसे वह उसके पीछे लग गया। इतने में मन्दोदरीने उसका हाथ पकड़ लिया, मानो यमुना नदीने गंगाके प्रवाहको रोक लिया है । वह बोली, "परमेश्वर, चाहे वह कन्या हो या बहन, ये अपनी नहीं होती। तुम एक हो, और वे तलवारोंसे भयंकर चौदह हजार विद्याधर हैं, यदि वे तुम्हारी बात मान भी लें, तो भी लड़की को घर में रखनेसे क्या लाभ । इसलिए युद्ध छोड़
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परमचरित
पट्टकहि महन्ला मुवि स्त्र । संपामु मुवि मारिष-मम ।
कण्ण करम् पाणिरगहणु' ॥७॥ पेमिष दडपत्ते तुरिभ गय 16th
घन्ता
तेहि विवाह किट खर र घिउ अणुराह विज-साहिए । धणे णिवसन्तियहें वय-वन्तिय सुउ उपाणु विराहिउ ॥९॥
एस्यन्तरे जम-जूरावण । तं सल्लु धरेषिपणु रावणेण ॥१॥ पटुविउ महामह दूत तहि । सुग्गीव-सहोयर बालि जहि ॥२॥ वोहलाविङ थाएं वि अहिमुहण । 'हाउँ एम विसजिउ दहमुहँण ॥३॥ एक्कूणवीस-रज्जन्तरई । मिसइयएं गयइँ गिरन्सरई ॥४॥ को वि किसिधवलु णामेण सिह । सिस्किपट-कम्जे घिउ देयि सिरु |॥५॥ णवमउ परिणाविड श्रमरपतु । जे धहि लिहाबिउ कह-णिव हु॥६॥ दहमउ कइ-केयणु सिरि-महिउ। एगारहमउ पहिवलु कहिउ ॥७॥ बारहमउ गयणाणन्दयह। तेरहमउ सयराणन्तु वरु ॥८॥ चडदहमउ गिरि-किचेरवलु (?)। पषणारहमत गन्दणु मजउ ॥९॥ सोलहमउ पुणु को वि उवहिरड । तहिकंप-विगमे फिर तेण तङ ॥१०॥ ससारहमउ किकिन्धु पुणु । तहा कवशु सुकं ग किउ गुणु॥११॥ अट्ठारहमउ पुण सूरत । जमु मझवि तहों पदसारू कड॥३२॥ तुहुँ एनहि एक्कुणवीसमउ । अणुहु र मणे मुवि मउ॥१६॥
घत्ता
आउ णिहाले मुह संपामहि तहुँ गम्पि दसाणण-राणउ । मेण देह पवस चउरा-बलु इन्दहाँ उरि पयाणउ' ॥१४॥
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पारहमो संधि
१९३
कर, मन्त्रियोंको भेजिए और कन्याका पाणिग्रहण कर दीजिए।" यह वचन सुनकर उसने मय और मारीच को भेजा। प्रेषित वे तुरन्त गये ॥१-८॥
घसा- उन्होंने विवाह कर लिया। विद्यासहित खर राज्यमें स्थित हो गया। चन्द्रोदरकी विधवा पत्नी व्रतवती अनुराधाके वनमें निवास करते हुए विराधित नामका पुत्र हुआ ||२||
[५] इसके अनन्तर, यमको सतानेवाले रावणने उक्त शल्य अपने मनमें रखते हुए महामति दूतको वहाँ भेजा, जहाँ सुप्रीयका सगा भाई वाली था । दूतने बालीके सामने उपस्थित होते हुए कहा कि मुझे यह बतानेके लिए भेजा गया है कि हमारी उन्नीस राज्यपीढ़ियाँ निरन्तर मित्रतासे रहती आयी हैं, कोई कीर्तिधवल नामका पुराना राजा था जो श्रीकण्ठके लिए अपना सिर तक देनेको तैयार था। नौवीं पीढ़ीमें अमरप्रभ हुआ जिसने राक्षसों में अपना विवाह किया और जिसने ध्वजों पर वानरोंके चिन्न अंकित करवाये | दसवाँ श्रीसहित कपि केतन हुआ। ग्यारहवाँ प्रतिपालके नामसे जाना जाता है। तेरहवाँ श्रेष्ठ खेचरानन्द हुआ। चौदहवाँ गिरिकिंवेलरबल, पन्द्रहवाँ अजितनन्दन, सोलहवा फिर उदधिरथ, जिसने तडित्केशके वियोगमें संन्यास ग्रहण किया। सत्तरहवाँ फिर किष्किन्ध हुआ, उसकी सुकेझने कौन-सी भलाई नहीं की। अठारहवाँ फिर सूर्यरज हुआ, यमका नाश कर जिसे इस नगरीमें प्रवेश दिलाया गया । तुम अब उन्नीसवें हो, अतः मनसे अहंकार दूर कर राज्यका भोग करो ॥१-१३।।
पत्ता-आओ उसका मुख देखें, वहाँ चलकर दशाननको तुम नमस्कार करो जिससे वह अपनी चतुरंग सेनाके साथ इन्द्र के ऊपर कूचका डंका बजवा सके ॥१४॥
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पडमचरिङ
[ ] जं किउ जयकार णाम-गहणु। तं णवर चलें वि थिड अपण-मणु॥१॥ ण करेइ कण्ण वयणाई पहु। जिह पर-पुरिसहाँ सु-कुलीण-बहुर एस्यन्तरे दहमुह-दुभएण । अच्चन्त-विलक्ली हाएं पा ॥३॥ जिम्मसिंधड मेल्लेंवि सयण-किय । 'जो की विणमेसइ सासु सिमा णीसह सुई भायहाँ पट्टणहो। णे तो मिद्ध परएँ इसाणणहो' ।।५।। के णिसुर्णेवि कोव-करम्विण। पविदोष्ट्रिउ सीहविलम्बिएण॥३॥ 'अरें वालि देउ कि पई ण सुउ। मदु महिहरू जेण भुहि विहुउ॥॥ जो णिषिसरेण पिहिषि काई । चत्तारि वि सायर परिममा ॥४॥
घप्ता जासु महाजसपर रणे अणषण धरलीहअज सिहुवणु । तासु वियवाही भम्भिाहों कवणु गाणु किर रावणु' ।।१।।
[ ] सो दूर कडुय-वयणासि-हउ । सामरिसु दसासहा पासु गर ॥ "किं बहुए एत्तिउ कहिउ मह । तिण-समउ वि ण गणा वालि पाई । सं वयणु सुणेपिणु इससिरैण। बुरुचाइ रयणायर-रब-गिरें ॥३॥ 'जहरण-मुहें माणु ण मलमि तहों। तो छिस पाय रयणासवहाँ ॥ आरुहेचि पहज पयह पहु। णं कहों वि विरुवर कूर-गहु ॥५॥ थिउ पुरुविमा मणोहरएँ। णं सिद्धसिवालए सुन्दर ॥६॥ करें जिम्मलु वन्दहासु धरित। णं घण-णिसणु तरि-विपरित ॥७॥ णीसरिए पुर-परमेसरेण णीसरिय वीर णिमिसम्तरेण ॥४॥
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धारहमो संधि
१९५ [६] जब दूतने जयकारके साथ रावणका नाम लिया उससे थाली केवल अन्यमनस्क होकर और मुँह मोड़कर रह गया । स्वामी दूतके वचनोंपर कान नहीं देता, उसी प्रकार, जिस प्रकार कुलवधू परपुरुषके वचनोंपर । इसके अनन्तर रावणके दूतने समस्त सज्जनोचित आचरण छोड़ते हुए बालीका यह कहते हुए अपमान किया, "जो फोई भी हो, जो नमस्कार करेगा, श्नी उसीकी होगी, या सो तुम इस नगरसे चले जाओ, नहीं तो कल रावणसे युद्धके लिए तैयार रहो।" यह सुनकर क्रोधसे आगबबूला होते हुए सिंहविलम्बितने इसका प्रतिवाद किया, "अरे क्या बालीके विषय में तुमने नहीं सुना जिसने मधु पर्वतको अपनी भुजाओंसे नष्ट कर दिया, जो आधे पलमें सारी धरतीकी परिक्रमा कर, चारों समुद्रोंके चयन का आता ।१-८॥
घसा-युद्ध में इसके स्वाधीन यशसे सारा संसार धवलित है। युद्ध में प्रवृत्त होनेपर उसे रावणको पकड़ना कौन-सी बड़ी बात है ?"
[७] कटुशब्दोंकी तलवारसे आहत वह दूत क्रोध के साथ रावणके पास गया और बोला, "बहुत क्या, मुझसे इतना ही कहा कि बाली तुम्हें तृष्ण बराबर भी नहीं समझता।" यह पचन सुनकर रावण समुद्रके समान गम्भीर स्वर में बोला, "मैं अपने पिता रत्नाश्रय के पैर छूनेसे रहा यदि मैंने युद्ध में उसका मान-मर्दन नहीं किया।" यह प्रतिज्ञा करके वह चल पड़ा मानो कोई क्रूर ग्रह ही विरुद्ध हो उठा हो । वह सुन्दर पुष्प विमानमें ऐसे बैठ गया जैसे सुन्दर शिवालयमें सिद्ध स्थित्त हो जाते हैं। उसने हाथमें चन्द्रहास खडूग ले लिया मानो बादलों में बिजली चमक उठी हो, पुरपरमेश्वरके निकलते ही वीर पलके भीतर निकल पड़े ॥१८॥
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एउमचरित
पत्ता 'भम्हहुँ पथ-भरेण णिक णिरण म मरउ धरणि पराइय' । एसिय-कारणण गयणझणण णावई सुहर पराइय ॥९॥
पक्ष वि समर-दुजोहणिहि उदहहि गरिन्द-अखोहणिहि ॥१॥ सम्ण वि वालि पीसरिड किह । मज्जाय-विवज्जिउ जहि जिछ॥२॥ पणवेग्पिणु विणि वि अतुल-बल। थिय अग्गिम-खम् हिणीक-गल ॥३॥ विरहट मारायणु रण मञ्चल । पहिलड में णिविद्ध पायाव-बलु।४॥ पुणु पच्छएँ हिलिहिलन्त स-भय । वर-खुहिं खणास खोणि सुरथ ॥५॥ पुगु सइक-सिहर-सपिणह सया। पुणु प्रय-विहलाक हस्थि-हई ।।५। पुणु णरवह बर-करवाल-धा। आसपण दुक तो रणियर ॥1॥ किर समर मिडन्ति भिवन्ति णा थिय भन्तरे मन्ति सु-विउल-मह॥
घत्ता 'वालि-दसाणणहाँ जुमण-मणहाँ एड काई ण गचेसहाँ। किएँ स्व' वग्धवढे पुणु केण सहुँ पच्कएँ रज्जु करेसहों ॥९||
[५] जो कित्तिधवल-सिरिकण्ठ-किस 1 किसिन्ध-सुकेसहि विधि णिउ ॥१॥ तं खयहो णेहु मा णेह-तरु। जइ घरवि ण सकहों रोस-मरु ॥२॥ तो वि परोप्पर उस्थरहों जो को वि जिण जयकार तहों' ॥ राणिसुधि वालि-देउ पवइ । 'सुन्दर भणन्ति लङ्का हिवह ॥३॥ खउ तुझ व मस व णिम्बउ । जिम धुव धिम मन्दोबरि स्वर ॥५॥ कि वह हिं बीचें हिंघाइ हिं। बन्धव-सपणेहि विणिवाइऍहि ॥६॥ ला पहरू पहरू जइ अस्थि छलु । पेक्षहुँ तुह विजहुँ तणड बलु'
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बारहमो संधि
घत्ता-सुभट केवल इस कारणसे, आकाश मार्गसे वहाँ पहुँचे कि कहीं हमारे पैरोंके निष्ठुर भारसे बेचारी धरती ध्वस्त न हो जाये ॥५॥
[4] यहाँ भी समरमें अजेय, राजाओंकी चौदह अक्षौहिणी सेनाएँ, बालीके ससद्ध होते ही इस प्रकार निकल पड़ी, जिस प्रकार मर्यादाविहीन समुद्र हो । अतुलबल नल और नील दोनों ही प्रणाम करके अग्रिम सेनाओंमें स्थित हो गये। उन्होंने युद्ध में अपनी अचल न्यूह रचना की। पहले पैदल सेना स्थित थी। उसके पीछे हिनहिनाते हुए समद घोड़े थे जो अपने तेज खुरोंसे धरती खोद रहे थे। फिर शैलशिखराको नाति रथ थे। फिर मदसे विकलांग गजघटा थी। फिर राजा श्रेष्ठ तलवार अपने हाथमें लिये स्थित था। इतने में निशाचर निकट आये । जचतक वे लोग युद्ध में भिड़े या न भिड़ें कि इतने में दोनोंके बीच विपुलमति मन्त्री आया ॥१-८॥
पत्ता-उसने कहा, "युद्धके इच्छा रखनेवाले, आप दोनों (बाली और रावण) इस बातका विचार क्यों नहीं करते कि स्वजनोंका क्षय हो जानेपर फिर राज्य किसपर करोगे" ॥९॥
[९] जो कीर्तिधवल और श्रीकण्ठने किया, जिसे किष्किन्ध और सुकेशीने आगे बढ़ाया, उस स्नेहके तरको नष्ट मत करो। यदि आप अपने रोपके भारको धारण करने में असमर्थ हैं, तो आपसमें लड़ लो, जो जीतेगा उसकी जय-जयकार होगी।" यह सुनकर बाली कहता है कि हे लंकाधिपति, यह सुन्दर कहता है । क्षय, तुम्हारा या मेरा, दोनोंमें से एकका हो ? जिससे ध्रुवा या मन्दोदरी विधवा हो, बहुत-से जीवोंको मारने या स्वजन बन्धुओंके पतनसे क्या? इसलिए यदि कौशल है, तो प्रहार करो, देखें तुम्हारी विद्याओंका बल !" यह
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१९८
पउमचरिद
संणिसुणेवि समस्-सएहि थिा। बाबरेंवि लगा बीमबु-मित !!८॥ मामेषिद्धय विज महोयरिय (1)। फणि-मण-फुकार दिन्ति गाय ॥९१
घत्ता बालि भीसणिय अहि-णासणिय गरद-विज विसचिव । उत्त-पत्रिय कुल-उत्तिवएँ गं पुष्णाकि परजिय ||१०॥
[-] दहवणे गरुड-परायणिय । पम्मुक विज णारायणिय ॥ गम-स-बक्क-सारा-धरि । घउ-भुभ गरुदासण-गमण करि ॥१॥ सारय-सुएण वि समरिय । जामेय विज माहेसरिय ॥३॥ काल-कराल विसूल-करि । ससि-गडरि-गा-खङ्गधरि ॥४॥ किर अपर विसजा दङ्वयणु। सय-वारउ परिभाषि रणु ॥५॥ स-विमाणु स-वगण महावलंण। उचाइड दाहिण-करयल ण 114|| णं कुअर-करेंण कवल पवरु। चाहुबलीसें चकहरु ।।७।। महै दुन्दुहि धादिय सुरयणे। किड कलयालु कहषय-साहणेण ॥४॥
पत्ता माणु मलेवि तहाँ लाहिवहीं बद्ध पद्द सुग्गीवहाँ। 'करि जयकार तुहुँ अणुभुों सुहु भिनु होधि दहगीवहीं ॥९॥
महु तणउ सीसु पुणु बुण्णमउ । जिह मोक्ष-सिहरु सबुत्तमा ॥१॥ पणप्पिणु तिहलोकाहिकह । सामण्णही अपणहाँ गउ गबह ॥२॥ मछु तणिय पिहिवि सुई भुक्षि एहु । रिजार कइ-जाउहाण-णिघहु ॥३॥ अणु मि जो पई उवयाच फिट । सायहाँ कारणे जमराउ जिउ था वहों मई किय पविषयार-किय । भावगी भुमहि राय-सिय' ॥५॥
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बारहमी संधि
१९९
सुनकर सैकड़ों युद्ध में अडिग रावणने युद्ध करना शुरू कर दिया । उसने सर्पविद्या छोड़ी जो सर्पोंके फनसे फुफकार छोड़ती हुई चली ॥१-२||
बत्ता - बालीने सर्पोका नाश करनेवाली भीषण गारुड़ विद्या विसर्जित की। वह उसी प्रकार पराजित हो गयी, जिस प्रकार कुलपुत्री की उक्ति-प्रति-उक्तियोंसे 'वेश्या' पराजित हो जाती हैं ॥१०॥
[१०] दशवदनने गरुड़-विद्याको नष्ट करनेवाली नारायणी विद्या छोड़ी, ओ गदा और धनुषको कारण किये हुए थी, उसके चार हाथ थे और हाथी पर गमन करती थी । तब सूर्यरजके पुत्र बालीने माहेश्वरी विद्याका स्मरण किया, कंकालों. से भयंकर हाथ में त्रिशूल धारण करनेवाली, चन्द्रमा गौरी-गंगा खट्वांगसे युक्त था । तब दशवदनने एक और विद्या छोड़ी, जिसे महाबली वाढीने रणमें सौ बार परिक्रमा देकर विमान और खड्गके साथ रावणको दाहिने हाथ पर ऐसे उठा लिया जैसे बड़ा हाथीने बड़ा कौर ले लिया हो, या बाहुबलिने चक्र ले लिया हो। देवताओंने आकाशमें नगाड़े बजाये और कपि
जियोंकी सेना में कोलाहल होने लगा || १८ ||
घत्ता - इस प्रकार लंकानरेशका मान-मर्दन कर तथा सुग्रीव को राजपट्ट बाँधकर बालीने कहा, “नमस्कार कर तुम रावणके अनुचर बन जाओ और सुख भोगो" ||९||
[११] “मेरा सिर दुर्नमनशील है उसी प्रकार जिस प्रकार मोक्ष शिखर सर्वोत्तम है। त्रिलोकाधिपतिको प्रणाम करनेके बाद अब यह किसी दूसरे को नमस्कार नहीं कर सकता है स्वामी, मेरी धरतीको आप भोगें और वानर तथा राक्षसोंके समूहका मनोरंजन करें। और तुमने जो उपकार किया है, तातके लिए तुमने यमराजको जीता था, उसके लिए मैंने यह प्रत्युपकार
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पउमपरित
गड एम मणेपिणु सुरिउ सहि| गुरु गयणचन्तु णामेण अहि ॥६॥ सब चरणु कइउ सरगय-मणण। उप्पण्णउ रिडि तक्षणेण ॥ आदि सासु इन्धिा-। गर तिथुधु कहलास-गिरि ||4||
धत्ता उप्परि चहि सही माययाही पश्च-महावय-धारउ । भचावण-सिकह सासय-इसहँ गं थिङ बालि भद्वारा ॥९॥
[ २] एत सिरियह मइणि तहाँ। सुग्गी दिण्ण दसाणणही ॥१॥ घोसाविउ गउ पका-पयरें। पल-पील विसजिय किक-पुरै ॥२॥ सुर धुष-महएविहें संथनिउ । ससिकिरणु णिपद्ध-रले थपिड ॥३॥ साई अवसर उत्तर-सेवि-विहु । विनाहरु णामें अलणसिहु ॥३॥ तहो धीय सुमार-णाम गरेंग। मग्गिगा दससयगड-वरेण ॥५॥ गुरुवपणे सासु ण पट्टविय । सुरंगोषों णवर परिविय ।।२।। परिणेवि कण्ण णिय जियय-पुरु। दससयगइ वि विरहग्गिा गुरु ॥७॥ पजका उपायह कलमलाउ ! उपहउ प सुहाइ सोमकल ॥४॥ उम्भन्तर कहि मि पाइट वणु। साह विज्ञ थिउ एक-मणु ॥१॥
घत्ता
ताइ मि धण-पउरें किक्किन्ध-पुरे अन्य घड्नम्तई । थियइ स्यण [] गई गिण वि जणाई रज्नु स ई भुञ्जन्तई ॥१०॥
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धारहमी संधि किया, तुम अम स्वतन्त्र होकर राज्यश्रीका उपभोग करो।" यह कहकर, वह बहाँ शीघ्र चला गया जहाँ कि गगनचन्द नामके गुरु थे। उसने एकनिष्ठासे तपश्चरण ले लिया, उन्हें तरक्षण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी । प्रतिदिन इन्द्रियरूपी शत्रुको जीतते हुए वह वहाँ गये, जहाँ कैलास पर्वत है ॥१-८॥ ___ घत्ता-पाँच महाप्रतोंके धारी यह अष्टापद शिखरपर चढ़ गये और आतापिनी शिलापर इस प्रकार स्थित हो गये जैसे शाश्वतशिलापर स्थित हों ! ॥१॥ __ [१२] यहाँ सुग्रीवने उसकी बहन श्रीप्रभा रावणको दे दी। उसे लेकर वहाँ लंका नगर चला गया। नल और नीलको किष्कपुर भेज दिया गया । ध्रुवा महादेवीके पुत्र शशिकरणको भी उसने अपने आधे राज्यपर स्थापित कर दिया। उस अवसरपर उत्तर श्रेणीका स्वामी ज्वलनसिंह नामक विद्याधर था । उसकी सुतारा नामकी कन्या भी, जिसे सहस्रगति नामक वरने माँगा। परन्तु ज्वलनसिंह गुरुके आदेशसे उसे न देते हुए सुप्रीवसे उसका विवाह कर दिया। विवाह करके कन्या वह अपने घर ले आया, उससे सहस्रगतिको भारी विरहाग्नि उत्पन्न हुई। वह जलता, पीड़ित होता और कसमसाता । उसे न उच्यता अच्छी लगती और न शीतलता । उद्भ्रान्त वह वनमें कहीं चला गया और एकाग्र मन होकर विद्याकी सिद्धि करने लगा ॥१-९||
घत्ता-तबतक धनसे प्रचुर किष्किन्ध नगरमें अंग और अंगद बढ़ने लगे और दोनों ही दिन-रात राज्यका स्वयं उपभोग करते हुए रहने लगे ॥१०॥
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१०३
पउमचरित
[१३. तेरहमो संधि ] पेक्खेपिणु वालि-मदार रावणु रोसारियउ । पभणइ कि मह जीवन्तण जाम ण रिउ मुसुमूरियड' ॥१॥
[ ]
दुवई बिज्जाहर-कुमारि ग्यणावलि णिचालोय-पुरवरे ।
परिणेंवि कलाइ जाम सा थम्भिउ पुष्फविमाणु अम्बरे ॥१॥ महरिसि-तव-तेएं थिउ विमाणु णं दुलिय-कम्म-वसेण दाणु ॥२॥ प सुके खोलिउ मेह-जाल । णं पाउसेण कोइल-धमाल ॥२॥ पं दूसामिण कुटुम्प-वित्तु । णं मच्छ घरिस महायबसु (१)॥४॥ पां कन्यय-सेले पवण-गमणु । प्यं दाण-पहाचे णीय-भवष्णु ॥ णीसाड हयड किङ्किणीउ । णं सुरऍ समता कामिणीउ ॥६॥1 घग्घर हि मि घवधव-घोसु चत्तु । णं गिम्भयालु ददुरहुँ पसु ॥७॥ पारवर? परोप्परु हुड चप्पु । महों धरणि एनेविणु धरणि-कम्॥४॥ पदिपेल्लियउ चि ण वह विमा शु । णं महरिसि भइयएँ मुभा पाणु ॥९॥
धत्ता चिहाइ थाहा ण दुकइ उपरि वाति-महाराहों। छुटु छुद्ध परिणियड कलतु प रह-दइयहाँ बड्डाराहीं ॥१०॥
दुवई तो एत्यन्तरेण कयं पहुणा सन्त्र-दिसावलोयगं ।
सम्व-दिसावकोयणेण वि रत्तुष्पलमिव जहागं ॥१॥ 'मरु कहों अथक[प]कालु कुद्ध । कर केण भुयाम-वयण छुधु॥९॥ के सिरण पहिच्छित कुलिस-बाउ । को णिग्गड पञ्चाणण-मुहाउ ॥शा
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तेरहमो संधि
तेरहवीं सन्धि आदरणीय बालीको देखकर रावण रोषसे भर उठा। (अपने मनमें ) कहता है, "जबतक मैं शत्रुको नहीं कुचलता, मेरे जिन्दा रहनेसे क्या ?" ||१||
[ सियालो लागी जिया जमाती नालीसे विवाह कर जब वह लौट रहा था कि आकाशमें उसका पुष्पक विमान रुक गया, मानो पापकर्मसे दान रुक गया हो, मानो शुक्र नक्षत्रसे मेघजाल स्खलित हो गया हो, मानो वर्षासे कोयलका कलरव, मानो खोदे स्वामीसे कुटुम्बका धन, मानो मच्छने गहाकमलको पकड़ लिया हो, मानो सुमेरु पर्वतने पवनकी गतिको, मानो दानके प्रभावसे नीच भयन । उसकी किंकिणियाँ शब्दशन्य हो गयीं, जैसे सुरति समाप्त होनेपर कामिनी चुपचाप हो जाती है। घण्टियोंने भी घन-घन शब्द छोड़ दिया, मानो मेंढकोंके लिए ग्रीष्मकाल आ गया हो । नरश्रष्ठोंमें काना-फूसी होने लगी ........। बार-बार प्रेरित करनेपर भी विमान नहीं चलता, नहीं चलता, मामो महामुनिके मयसे प्राण नहीं छोड़ता ॥१-९॥
छत्ता-विघटित होता है, थर-थर करता है, परन्तु वह विमान आदरणीय बालीके ऊपर नहीं पहुँचता, वैसे ही जैसे नयी विवाहिता स्त्री अपने प्रौढ़ पति के पास नहीं जाती ॥१०॥
[२] तब, इस बीच रावणने सब दिशाओंमें अवलोकन किया। सब ओर देखनेसे उसे आकाश ऐसा लगा जैसे रक्तकमल हो। फिर वह अचानक क्रुद्ध हो उठा, मानो काल ही क्रुद्ध हुआ हो। उसने कहा, "किसने साँपके मुँहको क्षुब्ध किया है ? किसने अपने सिरपर वाघात चाहा है ? सिंहके मुंहसे
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२०४
पउमचरित को पइटु जलन्स जरुण-जालें। को ठिज क्रियन्त-दन्तन्तरालें ॥५॥ मारिग सुन्नई 'जेच देशातु सन्दग-रस सेन ||१|| लम्बिय-थिर-थोर-पल म्व-बाहु। अच्छा कालासहाँ उवरि साहु॥॥ मेरु व अकम्पु उवहि व अखोडु । महिगल व बहु-क्खमु पत्त-मोहु ॥७॥ माह-पयङ्गु व उग्ग-तेउ । सहाँ तवसत्तिएँ पहिखलिब वेर॥ ओसारि विमाणु देवत्ति देव । फुह ण जाम खलु हियर जेम' ॥९॥
पत्ता सं माम-वयणु गिसुणेपिणु दरमुह हेट्टामा पलिउ । गयणप-लपिछड़े केरउ जोवण-भारु गाई गलि ||१|
दुबई
तो गज्जन्त-मत्त-मायक-सुझ-सिर-घट्ट-कन्धरो।
डक्खय-मणि-सिलायलुरछालिय-इल्लाषिय-वसुन्धरो || ।। बहु-सूरकन्त-दुयघह-पलितु । ससिकन्त-णोर-शिर-किलिसु ॥२॥ मरगय-मजर-संदेह-वन्तु । गील-मणि-पहनधारिय-दियन्तु ।।३।। वर-पउमराय-कर-जियर-तम्नु । गय-मय-गाइ-एक्खालिय-णियम् ॥२॥ सह-पडिय-पुष्फ-
पत-सिहरु । मयरन्द-सुरा-रस-मस-भमरु ||4|| अहि-गिलिय-गइन्द-मुत्त-सासु । सासुग्गय-मोसिय-धवलियासु ॥६॥ सो सहर गिरि-कलासु दिव। भाणु वि मुणिवर मुणिवर-वरितु । पञ्चारित 'लाह मुणिओ सि मित्र । स-कसाय-कोष-हुववाह-पकित्त ॥६॥ भज वि रणु इष्टहि मई समाणु । जइ रिलि तो कि यस्मित विमाणु॥५॥
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०५
तेरहमो संघि कौन निकलना चाहता है ? जलती हुई आगकी ज्वालामें किसने प्रवेश किया है ? यमको पारों के बीच कोल बैठा है। गीच ने कहा, "देवदेव, जिस प्रकार साँपोंसे सहित चन्दन वृक्ष होता है, उसी प्रकार लम्बी-लम्बी स्थूल बाहुवाले महामुनि कैलास पर्वतके ऊपर स्थित है, मेरुके समान अकम्प और समुद्र की तरह अक्षुब्ध, महीतलके समान बहुक्षम, त्यक्तमोह (मोह छोड़ देनेवाले) और मध्याहके सूर्यको तरह उन तेजवाले। उनकी शक्तिसे विमानका तेज मक गया है। हे देव, विमान शीघ्र हटा लीजिए जिससे हृदय की तरह फूट न जाये ॥१-९।।
पत्ता-अपने ससुरके शब्द सुनकर रावण नीचा मुख करके रह गया। मानो गगनांगनारूपी लक्ष्मीका यौवनभार ही गल गया हो। ॥१०|| । [३] उसने ( उतरकर ) वह कैलास गिरि देखा, जिसके स्कन्ध गरजते हुए मत्तगजोंके ऊँचे सिरोंसे घर्षित हैं, जो प्रचुर सूर्यकान्त मणियोंकी ज्वालासे प्रदीप्त और चन्द्रकान्त मणियोंकी धारासे रचित है, जो मरकत मणियोंसे मयरोंका भ्रम उत्पन्न करता है, जिसने नीलमहामणियों की प्रभासे दिशाओंको अन्ध फारमय कर दिया है, जो श्रेष्ठ पझराग मणियोंके किरणसमूहसे लाल है, जिसके तट, हाथियोंके मदजलकी नदियोंसे प्रमालित हैं, जिसके शिखर वृक्षोंसे गिरे पुष्पोंसे व्या हैं, जिसमें मकरन्दोंकी सुरा पीकर भ्रमर मतवाले हो रहे हैं, साँपोंसे दंशित महागज जिसमें साँसें छोड़ रहे हैं, और सासोंसे निकले हुए मोतियोसे जिसकी दिशाएँ धवलित हो रही हैं। एक और मुनिवरको उसने वहाँ देखा । उसने उन्हें लटकारा, "लो मित्र, मुनि होकर भी तुम कषायपूर्वक क्रोधाग्निकी ज्वालामें जल रहे हो, आज भी मेरे साथ युद्ध करने की इच्छा रखते हो, नहीं तो, जब मुनि थे चो विमान क्यों रोका ?" ॥१-२॥
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२०६
धत्ता
जं पइँ परिहरि, दिण्ण तं सन्तर अलवमि । पाहाण जेम उम्मूषि कलास ॐ लायरे विवमि ॥ १०॥
अहबड़ भुवइन्द-ललन्त-जालु । भव णं वसु मङ्गीहरा हूँ ।
मभषेत्रि सति पश्चि
इव वालि तण सावेणं ।
तलु भिन्देवि पडु महिदारणिय हें बिजहें पहावेणं ॥१॥
चिन्तेष्पिणु विज-लहरतु तेण । सुप्रसिद्ध सिद्ध न्द्र-संसु । अहवड़ णवन्तु दुकिय-मरेण ।
अहबद्द चलवल भुअङ्ग-थट्ट्टु । खोलक्खड खोणि- खयालु माइ । गिरिवरेण - चउ-समुद्द |
पउमचरि
जं गयउ आसि णासेपिशु तं मण्ड हरेच पडीवर
[ 8 ]
दुबई
करथह विहडियाँ सिलायला हूँ । करथइ गय णिनाय - सुण्ड । करइ सुअ-पति जडियाउ । कथह भमरोलिङ धावडा |
उम्मूकिङ महिहरु दद्द मुद्देण ॥२॥ पावर प्युमियय-वसु ॥३॥
लोक्कु वखित्त (?) व जिणवरेजः ॥ ४ ॥ गीसारिव महि-अवरों व बालु॥५॥३ छोदानिय बालाविरा ॥ ५॥ णं धाणि-अन्त- पोलु त्रिखट्टु ॥*॥ पायालद्दों फावि उरु लाहूँ ||८|| भहिमुह उत्थाविय रव ॥ ५९॥
घत्ता
सायर-जारें माणियड |
अल-कु-फलतु व आाणियज ॥ १० ॥
[4]
दुवई
सुरवर-पचरकरि-कराकार- करम् गुग्गामिएँ घरे |
भग्ग-भुङ्ग - उमा-मिस्गय-विसग्गलग्गन्त कन्दरे ॥१॥१
सहलाई कियई व खलहलाई ॥२॥ णं धाएँ पसारिंग बाहु-दण्ड ॥३॥ णं सुइड मरगम कण्डिया ॥१४॥ उति व कलासहों जढा ॥५॥
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तेरहमो संधि
२०.
धत्ता-"पहले जो तुमने पराभवका ऋण मुझे दिया था, उसे अब कालान्तरमें मैं चुकाता हूँ | पाषाणकी तरह इस कैलासको उखाड़कर समुद्र में फेकता हूँ" ||१०||
[४] ऐसा कहकर, वह शीघ्न बालीके शापके समान नीचे आ गया । मही विदारिणी विद्याके प्रभावसे वह तलको भेदकर भीतर घुसा। अपनी हजार विद्याओंका चिन्तन कर रावणने पहाडको उखाड़ लिया जैसे कुपुत्र प्रसिद्ध सिद्ध प्रशंसाप्राप्त अपने वंशको स्वाड़ दे। अथवा जिस प्रकार पापभारसे झुकते हुए त्रिलोकको जिनवर लखाई देते हैं, अथवा सर्पराजकी तरह सुन्दर है भाल जिसका, ऐसा बालक, धरतीके उदरसे निकला हो; अथवा व्यालोंसे लिपटे पहाड़ोंसे धरती छूट गयीं हो, अथवा चिलबिलाता हुआ साँपोंका समूह हो, अथवा धरतीकी आँतोंकी ढेर विशेष हो। खोदा गया धरतीका गट्टा ऐसा जान पड़ता है, मानो पातालका उदर फाड़ दिया गया हो । पहाड़के हिलते ही चारों समुद्रों में सर्पमुखोंकी तरह भयंकर उथल-पुथल मच गयी ॥१-९॥
पत्ता-जो जल भाग था और जिसका प्रेमी समुद्ने भोग किया था उसे कुकलत्रकी तरह बलपूर्वक पकड़कर पहाड़ ले आया ।।१०।
[५] इन्द्रके महान् ऐरावतकी गुंड़के समान आकारवाली हथेलीसे धरतीको उठानेपर भुजंग भग्न हो गये, उनसे निकलनेवाली उप्र विषकी ज्वालाएँ गुफाओं से लगने लगी, कहीं शिलातल खण्डित हो गये और शैलशिखर स्खलित हो गये, कहीं सूंड उठाकर हाथी भागे, मानो धरतीने अपने हाथ फैला दिये हों, फहीं तोतों की पंक्तियाँ उठी, मानो मरकतके कण्ठे टूट गये हों, कहीं भ्रमरपंक्तियाँ दौड़ रही थीं, मानो
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२०८
पउमचरित काथइ बणयर णिग्गय गुहेहि। गं वमा महागिरि बहु-मुहेहि ॥६॥ उच्चलिउ कहि मि जल धवल-धारू । पां तुडेवि गउ गिरिवरहो हास ॥७॥ कस्थइ उट्टियाँ बलाय-सयई। पां तुटुंचि गिरि-अट्ठयई गयई ॥४॥ कायह उच्छतियाँ विरमाई। णं रुहिर-फुलिङ्ग अहिणबाई ॥९॥
.. पत्ता अण्णु वि जो अण्णहाँ हत्यण णिय-थापगहों मेलावियउ । णिचालु ववसाय-विष्णउ कवणु ण आवइ पाविया ॥१०॥
दुबई ताम फडा-कसप्प-विष्फुरिय-परिपफुल-मणि-णिहायहो ।
पासण-कम्पु जाउ-पायालयले धरणिन्द-यही ॥३॥ अहि अवहि पउ’ वि आउ तेरथु । रावणु केलासुधरा जेत्थु ॥२॥ जहिं मणि-सिकायलुप्पीलु फुटु । गिरि-डिम्भहाँ णं कडिसरउ सुटु ॥३॥ दहि बणयर-थट्ट-माटु म। जहि वालि महारिसि सोनसरगु॥॥ जल-मल-पसाहिय-सयम्हनात्तु । विजा-जोगेसरु रिद्धि-पत्तु ॥५॥ सिण-फणयकोडि-सामग्ण-भाउ । सुहि-सत्तु-एक-कारण-सहाउ ॥६|| सो जइवरु कुञ्चिय कर कमेण । परिश्रञ्चिड णमिड भुअरमण ॥७॥ मयिक-साथ-सीसावलि बिहाइ। किय अहिणव-कमलमणिय पाई ॥४॥ रेहद फणालि मणि-विप्फुरन्ति । णं योहिय पुरउ पईच-पन्ति ॥५॥
पत्ता
पणचन्हें इससयलोषणय हेटामुक्षु कहलासु णित । सोणिक दह मुहहि वहन्तर दहमुहु कुम्मागाह किउ ॥10॥
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तेरहमो संधि
कैलास पर्वतकी जटाएँ उड़ रही हो, कहीं गुहाओंसे वानर निकल आये, मानो महागिरि बहुत-से मुखोंसे चिल्ला रहा हो, कहीं जलकी धवलधारा उछल पड़ी हो, मानो गिरिवरका हार टूट गया हो, कहीं सैकड़ों यगुले उड़ रहे थे, मानो पहाड़की इड़ियाँ धरमरा गग्री हों, कहीं मूंगे उछल रहे थे मानो अभिनव रुधिरकण हो ॥१-९||
पत्ता-दूसरा भी कोई, जो दूसरेके द्वारा अपने स्थानसे युस करा दिया जाता है, व्यवसायसे शून्य और गतिहीन वह किस आपत्तिको नहीं प्राप्त होता ।।१०||
[६] इसी बीच जिसके फनसमूहपर मणिसमूह चमक रहा है, ऐसे धरणेन्द्रका पाताललोकमें आसन काँप उठा। अवधिज्ञानसे जानकर नागराज वहाँ आया जहाँ रावणने कैलास पर्वत उठा रखा था। जहाँ उत्पादनसे शेलातल फूट चुके थे, जैसे पहादरूपी शिशुके कटिसूत्र बिखर गये हों, जहाँ पनचर समूहका अहंकार पूर-चूर हो गया, जहाँ महामुनिपर उपसर्ग हो रहा था। पसीनेके मैल और मलसे जिनका शरीर अलंकृत था और जो विद्यायोगेश्वर और ऋद्धियोंके धारी थे। तृण और स्वर्ण में जो समानभाव रखते थे। मित्र और शत्रुके प्रति जिनका एक-सा स्वभाव था, ऐसे उन मुनिवरकी अपने हाथ-पैर संकुरितकर नागराजने प्रदक्षिणा कर प्रणाम किया। धरतीपर उसकी फणावली ऐसी मालूम देती है जैसे अभिनव कमलोकी अर्चा हो । मणियोंसे चमकती हुई उसकी फणावली ऐसी प्रतीत होती है. मानो सामने जलायी हुई प्रदीप पंक्ति हो ॥१-९॥ __ घत्ता-धरणेन्द्र के नमस्कार करते ही कैलास पर्वत नीचा होने लगा, रावणके दसों मुखसे रक्तकी धारा बह निकली और वह कछुएके आकारका हो गया ॥१०॥
१४
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पउमचरिउ
[ ]
दुवई
जं अहिपकर-राय- गुरुभारकन्त धरण पेलिओ । दस-दिसिह भरन्तु दहवयणें घोराराउ मेलिओ ॥१॥
सद सुणेवि मोरंग
केकर-हार-शेडर-धरेण । कञ्ची- कलाव- रोलिरेण । विक्रमम-विलास-भूभङ्गरेण 1 'हा हा दहमुह जय-सिरि-निवास बीस - गीव चीमद्ध-जीह | मन्दोवरि पभण 'चारु चित्त ।
सों आ ण जीउ जाम |
२१०
संकलन- वयण णिमुष्पिणु मघ- रोहिणि उत्तर-पत्रोंण
पद-रि-कुग्भपद्योद्योग ॥॥
खत-कुण-करेण ॥३॥ मुह-कमलासत्तिन्दिदिरे ||४|| हाहारउ किन अन्तेरेण ॥५॥ | हवयण दमा हा दसास ॥६॥ दस सिर सुरवर-सार-सीह ॥७॥ अहाँ बालि महारा करें परित ||८|| सत्तार - भिक्ख मञ्जु देहि ताम ॥१॥
घत्ता
धरणिन्दे उद्धरि घरु ।
अङ्गारेण व अम्बुहरु ॥१० ॥
[<]
दुबई
सेक-विसा साल-मूल-तल-वालिउ बाहिङ विणिग्गओ । केसरि-पहरणहर- सर चढण चुको इव महमाओ ॥ १ ॥ लुभ-केसर-3 क्खय-ह-गिहाउ ।
गिरिं गुह मुवि महन्तु आउ || १॥ णं पायाहाँ नीसरि कुम्भु ॥ ३ ॥
मलणु सिउ तेय-मन्दु । गवतेत जेस हे गुण-नाणालि । परिभवि बन्दिउ दुससिरेण ।
कुण्डलिय- सोस कर-चरण- जुम्भु । .क्खड - णिसुटिय-फड-कडप्पु णं गड-मुद्दों णी सरिउ सप्पु ॥४॥ णं राहु-मुहहाँ णीसरि च ॥५॥ अ अत्तावण-सिकहिं याहि ॥५॥ पुणु किय गरहण गगार - गिरे ॥ ७॥
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तेरहमो संधि [७] नागराजके भारी भारसे आक्रान्त धरतीसे दशानन पीड़ित हो उठा। उसने ओरसे शब्द किया जिससे दसों दिशाएँ गूंज उठी । रावणके सुन्दर अन्तःपुरने जब वह शब्द सुना तो वह हाहाकार कर उठा। उसके स्तन ऐरावतके कुम्भस्थलके समान थे, वह केयूर हार और नू पुर पहने हुए था, उसके हाणके कंगन खन-वन बज रहे थे. कटिसच रुनझन कर रहे थे, मुखरूपी नील कमलोंके पास भौर मड़रा रहे थे, विश्नम और क्लिाससे उसकी भौंहें टेढ़ी हो रही थीं। ( वह विलाप करने लगी ), "हा, श्रीनिवास दशानन ! दस जीभ, हाथ-पैरवाले हे दशानन ! इन्द्ररूपी मृगोंके लिए सिंह के समान हे दस सिर!" मन्दोदरी कहती है, "हे चारुचित्त आदरणीय, रक्षा कीजिए, जिससे लंकेश्चरके प्राण न जाये ! मुझे अपने पतिकी भिक्षा दीजिए ।" ॥१-५॥
पत्ता-यह करुण वचन सुनकर धरणेन्द्रने धरती उठा दी, वैसे ही जैसे मधा और रोहिणीके उत्तर दिशामें व्याप्त होनेपर मंगल मेघोंको उठा लेता है ।।१०।।
[८] पर्वतके मूलभागसे प्रताड़ित लंकानरेश ऐसे निकला, जैसे महागज सिंह के प्रहारके नखोंकी खरी चपेटसे बच निकला हो, मानो गिरिगुहासे ऐसा सिंह आया हो जिसके अयाल कट गये है और नाखून दूट हो चुके हैं ! मानो पातालसे कछुआ निकला हो जिसने अपना सिर, कर और चरण-युगल पेट में कुण्डलित कर रखा है। कर्कश आघातसे नष्ट हो गया है फन समूह जिसका, ऐसा साँप ही गरुड़के मुँहसे निकला हो। मृगलांछित दूपित और क्षीण तेज चन्द्र ही मानो राहु के मुखसे निकला हो । वह वहाँ गयाः जहाँ गुणालय वाली आतापिनी शिलापर आरूद थे । प्रदक्षिणा करके रावणने वन्दना की और
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पउमचरिड 'मई सरिसउ अगणु जगें अयाणु । जो करमि केलि सोहं समाणु ॥ मई सरिसउ अण्णु ण मन्द-मगा। जो गुरुहु मि करमि महोबसग्गु ॥९||
घत्ता
जं सिद्धषण-शाहु मुएपिणु तं सम्प्रत्त-महमहों
अण्णहों णमिउ ण सिर-कमलु । लद्ध देव पई परम-फलु' ॥१०॥
[ २ ]
दुबई पुणरवि धारवार पोमावि दसविह-धम्मवालयं ।
गड तेत्त हें तुरन्तु तं जेत्तहें मरहाहिब-जिणालयं ॥१॥ कइलास-कोटि-कम्पावणेण । किय पुज जिणिन्दही रावणेण ॥९॥ फल-फुल्ल-समद्धि-वणासह च । सावय-परियरिय महादई म्ब ॥॥ अहिणष-उच्चाव विलासिणि व्य। पर दड्द-धूव खल-कुट्टणि व्व ॥॥ बहु-दीघ समुहन्तर-महि स्व। पेल्लिय-दलि पारायण-मह च ॥५॥ घण्टारक-मुहलिय गय-घड छ। मणि-स्यण-समुज्जल-अहि-फड म्याद पहाणद वेस के पावलि । गन्धुक्कड कुसुमिय पाउलि च ॥७॥ सं पुज्ज करें वि आइत्तु गेउ। मुच्छण-कम-कम्प-विगाम-भेड ॥4॥ सर-सज्ज-रिसहभान्धार-बाहु ।। मज्झिम-पग-धइवय-णिसाहु ।।९।।
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माहुरेण धिरेण पलोष गायह गन्धयु मोहरु
पत्ता जण-वसियरण-समस्थएँग । सवणु रावणहस्थऍण ||३०||
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तेरहमी संधि
२१
फिर गद्गद स्थरमें अपनी जिल्हा करने सपा, "मेरे सामान दुनियामें कोई अज्ञानी नहीं है, जो सिंहके साथ क्रीड़ा करना चाहता है। मेरे समान दूसरा मन्दभाग्य नहीं है कि जो मैंने गुरुपर ही भयंकर उपसर्ग किया ॥१-९॥
पत्ता-उन त्रिभुवन स्वामीको छोड़कर मैं किसी औरको जो अपना सिरकमल नहीं झुकाया, ऐसे उस सम्यग्दर्शनरूपी वृक्षका परम फल प्राप्त कर लिया" ॥१०॥
[९] दस प्रकारके धर्मका पालन करनेवाले बालीकी वारबार प्रशंसा कर रावण वहाँ गया जहाँ भरतके द्वारा बनवाये गये जिनालय थे । कैलास पर्वतको कॅपानेवाले रात्रणने जिनेन्द्र भगवान्की पूजा की, जो वनस्पतिकी तरह फल-फूलोंसे समृद्ध, महाअटवीकी तरह सावय (श्रावक और श्वापद पशु ) से घिरी हुई, विलासिनीकी तरह अत्यन्त उल्लाव ( उल्लाप =
आलाप से भरी हुई, खलकुट्टनीकी तरह पर बड़ धूव (मनुष्यों के द्वारा जिसमें धूप जलायी गयी, कुट्टनी पक्षमें, (नष्ट कर दी गयी धूतता जिसकी), समुद्रके भीतरकी तरह बहुत दीप (दीपक और द्वीप) बाली, नारायणकी मतिकी तरह पेल्लिय बलि (नैवेद्य और राजा बलि) से प्रेरित गजघटाकी तरह घण्टाओंसे मुखरित, साँपके फनकी तरह मणि और रलोंसे समुज्ज्वल, वेश्याके केशोंकी तरह स्नानसे चिासत, खिले हुए गुलाबकी तरह उत्कट गन्धसे युक्त थी। पूजा करनेके बाद रावणने अपना गान प्रारम्भ किया। वह गाम मुर्छना कम कम्प और त्रिगाम, पज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद इन सात स्वरोंसे युक्त था ॥१-२।।
घत्ता-मधुर स्थिर और लोगोंको बसमें करनेमें समर्थ अपनी वीणा से रावण ने मधुर गन्धर्व गान किया ॥१०॥
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२१४
पङमचरित
[१०]
दुवई
सालदारू सु-सरु सु-वियड्तु सुहावर पिय-कलत्तु चं ।
आरोहि-अध (?) रोहि-याइय-संघारिहि सुरय-तत्तु वे ॥१॥ जव-बहुभ-णिडालु व तिलय-चारु । गिग्यण-गयणय लु व मद-तारु ।।२॥ सण्णद्ध-चलं पिव लय-ताश! धरिव सज्जोड पसपण-वाण ||३| तं गेउ सुप्पिाणु दिग्ण णियय । घरगिन्दै सत्ति अमोहविजय ।।४।। लियसाह पवेषिणु रिसह-देउ। पुणु गउ णिय-गयरहों कइकसेउ॥५॥ एस्वन्तर सुग्गीउसमासु। उप्पण्णउ केवलु णाणु तासु ॥६॥ वाहुबलि जेम थिङ सुन्छु-तु। उप्पण्णु अपणु धवलायवन ॥७॥ मामण्डल कमलासण-समाणु । बह-दिवसेंहि गड णियाण-याण ॥४॥ दससिह वि मुरासुर-हमर-भार। उच्चहइ पुरन्दर-बार-धरि ॥९॥
घता
'पइस वि जेप्प रण-सावरें तहाँ सलहों पुरन्दर-हंसाहों
मालिहं खुद्धिय सिर-कमलु । पाडमि पाण-पक्ष-जुअलु' ॥१॥
[ 1]
दुवई एम भणेवि देवि रण-भेरि पयष्टु तुरन्नु रावणो ।
ओ जम-धणय-कणय-बुह-अट्ठात्रय-धर-धरहरावणी ॥१॥ णीपरिऍ दसाणणे मिसियरिन्द । णं मुबास गिरगय गइन्न ॥२॥ माणुण्णय णिय-णिय-वाहणत्थ। दणु-दारण पहरण-पवर-इत्थ ॥३॥ समुह वर णिविड गय-घट घर(?)। णन्दीमा-दीवु व सुर पग्रह ॥४॥ पायाललक पावन्तपय । दागी दइरु यहन्तएण ||५
पन्जलिउ जलशु जालासरण(?)॥ बुखाइ 'स्वर-दूसण लेहु ताव । रमाल खुद्द पिसुण परिधिटु पात्र'७||
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तेरहमी संधि [१०] वह संगीत प्रिय कलत्रकी भाँति अलंकार सहित सुस्वर विदग्ध और सुहावना था, सुरतितत्त्वकी तरह आरोह अवरोह स्थायी और मंचारी भावोंसे परिपूर्ण था। नववधूके ललाटकी तरह तिलक ( टीका, राग ) से सुन्दर था, मेघरहित आसमानकी तरह मन्दतार (तारे, तार ) था, सन्नद्ध सेनाकी तरह लइयताण (त्राण, कवच और तान ) था, धनुषकी तरह सजीउ ( ज्या और जीवन सहित ) प्रसन्न बाण ( तीर और रागविशेष ), था। उस संगीतको सुनकर धरणेन्द्रने अपनी अमोघविजय नामक विद्या रावणको दे दी । इसी बीच सुग्रीवके बड़े भाई बालीको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। वह बाहुबलीके समान शुद्ध शरीर हो गया, दूसरे उन्हें धवल छत्र कमलासन के समान भामण्डल उत्पन्न हुए। बहुत दिनोंके अनन्तर उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। सुर और असुरोंके लिए भयंकर भेरीके समान रावण इन्द्र के प्रति शत्रुताके भावसे उद्वेलित था ।।१-९||
घत्ता-जिस (इन्द्र)ने युद्ध के सरोवर में प्रवेश करके मालिका सिरकमल तोड़ा, उस दुष्ट इन्द्ररूपी इसके प्रापारूपी पक्ष-युगलको गिराकर रहूँगा ।।१०||
[११] यह सोचकर और युद्धकी भेरी बजवाते हुए रावण तुरन्त चल पड़ा, जो यम-धनद-कनक-बुध-अष्टापद और धरतीको थर-थर कँपा देनेवाला था। रावणके प्रस्थान करते ही निशाचरेन्द्र इस प्रकार निकल पड़े, जैसे मुक्तांकुश हाथी ही निकल पड़े हो । मानसे उन्नत वे अपने-अपने वाहनोंपर सवार थे। दनुको विदीर्ण करनेवाले उनके हाथों में प्रबल प्रहरण थे | सामने पताकाएँ थी और गजघटा टकरा रही थी, ऐसा लगता था कि सुर नन्दीश्वरदीप जा रहे हों। अपने मनमें वैर धारण करनेवाले दशानन पाताल लंकाको पाते ही शत-शत ज्वालाओंकी तरह भड़क उठा। उसने कहा, "तबतक खल, क्षुद्र,
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तं वयणु सुणेपिणु मामरण । 'सहसा लिएका कालिज
कङ्काहिउ बुज्वरात्रि मण ॥ ८ ॥ तुम्ह जिहा॥ि५॥ लहु वहिणि सोबर लिए जाहुँ । आरू वि किज काई ताहुँ ॥३०॥
चत्ता
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पउमचरिउ
संवय सुर्णे विदवत्र चूडामणि- पाहुड-दस्थउ
मच्छरु म परिलेसियउ ।
इन्दर कोकड पेसियउ ||११||
[ २ ]
दुबई
आय धुते वि पिय-वयहि जोक्करिव दसाणणो ।
किक्किन्ध-णयरु सुग्गी व मिलिड समन्ति लामो ॥१॥ एतढिय सङ्क णरवर-जलासु ॥२॥ उ पाण पत्रण - वेद ॥३॥ रेवा-विवाद रहि अन्तरले ||४ अल्लीपासु निसिभढ (१) ॥५॥ नखत्त कुसुम- सेहर साह ॥ १ ॥ भगव-भेसह कण्णावयंस ॥१॥ जोहारलोकिरहार-मार ॥ ८ ॥ मिलि-बहु अल्लीण मिलायशसु ॥ ५ ॥
घत्ता
विष्णव सील-सहावई सुरउस भुन्ताहूँ । *मादिणरु कहि मिणिपुराउ' पाइँ स सङ्कहूँ सुसाई ॥ १० ॥
एव-कषु ।
इय इत्थ प उ म चरिए कला सुद्वरण मि
धनञ्जयासिय स य तेरसमं साहियं प० ॥ प्रथमं पर्व
साहिद अरि-खोहणि महासु । रहन्तुरय-गद्दन्दहुँ गाहिं छेउ | थिय अग्गिम बेलि - महाविसालें | अस्थवाहों डुबक पर साम । वरि लगा-वस्थ सीमन्त- वाह । क्रिलिय चञ्चक्किय-गण्डनास | बहुलक्षण सहर-तिलय-तार | णं विदिट्टि दिषायरासु ।
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तेरहमी संधि
११७
पापी और ढीठ खरदूषणको पकड़ो।" यह वचन सुनकर ससुर मयने लंकेश्वरको समझाया कि बहनोई के साथ क्या बैर ? यदि वह मारा जाता है तो इसमें तुम्हारी ही हानि है, शीघ्र ही बहन और बहनोईके घर चलें, क्रोध करके भी उसका तुम क्या कर लोगे ? ॥१-१०॥
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बताये वचन सुनकर रावणने अपने मनसे मत्सर निकाल दिया और चूड़ामणिका उपहार हाथमें देकर उसने इन्द्रजीतको बुलाकर भेजा ॥११॥
[१२] खरदूषण भी वहाँ आये और प्रिय शब्दों को नमस्कार किया। सुमीव भी मन्त्री और सेनाके साथ किष्किन्धा नगर चला गया। उसने शत्रुकी एक हजार अक्षौहिणी सेना सिद्ध कर ली । श्रेष्ठ नरोंकी भी इतनी ही संख्या उसके पास थी । रथ, तुरंग और गजराजोंका उसके पास अन्त नहीं था। उसने पवनगति से प्रस्थान किया । उसकी अग्रिम सेना रेवा और विन्ध्याचलके विशाल अन्तराल में ठहर गयी। इतनेमें सूर्यका अस्त हो गया, कि निशा पास ही अटवीमें व्याप्त हो गयी, दिव्य वस्त्रको धारण करती हुई । नक्षत्र और कुसुमके शेखरसे युक्त उसका सीमन्त (चोटी) था। कृत्तिकासे उसका गण्डवास अंकित था । शुक्र और बृहस्पति उसके कर्णावतंस थे, अन्धकार अंजन, शशधर स्वच्छतिलक, ज्योत्स्नाकी किरण परम्परा हारभार था । मानो सूर्य की दृष्टि बचाकर निशारूपी वधू निशाकरमें लीन हो गयी || १-२ ॥
उत्तम
धत्ता- दुश्शील स्वभाववाले दोनों ही स्वयं सुरतिका सुख भोगते हुए इस आशंकाके साथ सो रहे थे कि कहीं दिनकर उन्हें देख न ले || १० ॥
इस प्रकार धनंजय के आश्रित स्वयम्भू देवकृत पद्मचरित में कैलास उद्धरण नामका तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।
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परामचरित
[१४. चउदहमो संधि विम्ले विहाण कियण पयाणाएँ उययइरि-सिहर रषि दोस । 'मई मलप्पिणु मिसिया लेप्पिणु कहिं गय णिसि' गाई गवेसह ।।१।।
सुप्पहाय-दहि-अंस-वण्णउ । कोमल-कमल-किरण-दर-ऋणड ॥१॥ जय-हर पइसारिउ पइसन्ते । णावइ माल-कलसु इसन् ॥२॥ फग्गुण-खलहों वूउ गोसारिउ ।। जेण विरहि-जणु का व ण मारिउ॥३॥ जेण षणप्पाइ-पय विभाडिय। फल-दल-रिति-मइष्फर सासिय ॥४॥ गिरिवर गाम जेण धूमाविय। बण-पट्टण-णिहाय संताधिय ॥ सरि-पवाह-मिहुण णासन्त, जे वरुण-घण-णियलेंहि पित्तई ॥१॥ जेण उच्छु-विड जन्ते हि पीलिय । पव-मण्डव-णिरिक भावीसिय ॥ ॥ जासु रजें पर रिद्धि पलासहों। तहाँ मुड महले वि फरगुण-माप्तहाँ॥८॥
पत्ता पय-अयणड कुवलय-णयगड केयइ-केसर-सिर-सेहरु । पल्लव करयलु कुसुम-णहुनलु पइसरइ वसन्त-परेसर ||५||
। [२] ओला-सोरण-वारें पईहाँ। पहर वसन्तु वसन्त-सिरी-हरें ॥१॥ सररुह-वासहर हि रवणेउरु ।। अ.यासिङ महुअरि-मन्तउरु ॥२॥ कोहल-कामिणीउ उजाणेहि ।। सुय-सामन्त लयाहर-थाणे हि ॥३॥ एकप-रत-दण्ड सर गियर हिं। सिहि-साहुलउ महीहर-सिहरहि।
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घउदहमो संधि
२१९
चौदहवीं सन्धि दूसरे दिन सुन्दर सवेरा होनेपर रावणने प्रयाण किया। उदयगिरिक सिरपर सूर्य दिखाई दे रहा था, मानो यह खोजते हए कि मुझे छोड़कर और निशाकरको लेकर निशा कहाँ चल दी? ॥१॥
[१] सुप्रभातकी दहीके समान किरणोंसे सुन्दर और कोमल किरणोंके दलसे आच्छन्न, अरुण सूर्यपिण्ड ऐसा मालूम पड़ता है मानो बसम्तने अपने जयगृह में प्रवेश करते हुए, मंगलकलशका प्रवेश कराया हो, फागुनरूपी दुष्ट के दूतको निकाल दिया गया जिसने विरहीजनोंको किसी प्रकार मारा भी नहीं था, जिसने वनम्पतिरूपी प्रजाको तहस-नहस कर दिया, फलों और पत्तोंको ऋद्धिको नष्ट कर दिया, गिरि और गाँवोंको जिसने कुहरेसे भर दिया, वन और नगरोंके समूहको जिसने खूब सताया, नदीके प्रवाह मिथुनोंको नष्ट कर जिसने वरुणके हिमघनकी श्रृंखलाओंमें डाल दिया, जिसने इक्षु वृक्षोंको यन्त्रोंसे पीड़ित किया, तैरनेके मण्डपसमूहको पीड़ा पहुँचायी, जिसके राज्य में केवल पलाशको ही वृद्धि प्राप्त हुई, उस फागुन माहका मुख काला करके ||१-८॥
घत्ता--पंकज है मुख जिसका, कुवलय जिसके नेत्र हैं, केतकीका पराग सिरशेखर है, पल्लत्र करतल हैं, कुसुम उज्ज्वल नख हैं, ऐसा बसन्तरूपी नरेश्वर प्रवेश करता है |२||
२] झूलों और वन्द नवारोंसे जिसके द्वार सजे हुए हैं, ऐसे बसन्तके श्रीगृहमें यसरने प्रवेश किया। कमलोंके वासगृहोंमें शब्द ही हैं नूपुर जिसके, ऐसा मधुकरीरूपी अन्तःपुर ठहर गया। कोयलरूपी कामिनी उद्यानोंमें शुकरूपी सामन्त लतागृहों में, पंकजोंके छत्र और इपड सरोवर-समूह में, मयूर
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२२०
पउमचरित
कुसुमा-मम्जरि-धय साहार हिं। दवणा-गण्ठिवाल केयारहि ॥५॥ वाणर-मालिन साहा-वन्देहि। महुभर मत्तयाल(?)मपरन्दहि ॥६॥ मा ताल कल्लोलावा हिं। भुमा अहिणव-फल-मणासें हि ॥७॥ एम पद विरहि विद्धन्तउ। गयवह-धम्म हि अन्दोलनमा ||८॥
वत्ता पेक्खें वि एन्तहों रिद्धि वसन्तहों महु-इकनु-सुरासष मन्ती। गम्भयन्वाली भुम्भल-मोली गं भमद सलोणहाँ रत्ती ॥९॥
[1] णम्मयाएँ मयरहरहों जन्तिएँ। णाइँ पसाहणु लइउ तुरन्ति ॥३॥ घवघवन्ति जे जल-पब्भारा । ते जि णाई णेउर-मक्कारा |२|| पुलिणई जाई वे वि सरलाय है। ताई में उड्ढणाइँ णं जायई ॥३॥ जं जल खलाइ धलइ उल्लोलह। रसणा-दामु तं जिणं धोलह ॥॥ जे भावत्त समुट्ठिय चना । ते जि प्याई तणु-तिवलि-तरका ||५॥ जे जल-दस्थि-कुम्म सोहिला। सेलि पाई थण अधुम्मिल्ला ॥३॥ जो हिण्डीर-णियह अन्दोलइ। णावह सो जें हारु रसोलह ॥७॥ ज जलयर-रण-रनिउ पाणि। संजि णाई तम्बोल समाणिउ ॥ मत्त-हस्थि-मय-महलिउ जं जलु। तं जि णाई क्रिउ अश्विहि कमलु ॥९ जाउ सरशिणि भवर-ओह। ताद जि महाराज णं भउहउ ॥३०॥ जाउ समर-पन्तित अहलीणउ। केसावलिउ ताल णं दिण्णा ॥१॥
घत्ता मज्ों जन्तिएँ मुहु दरसन्ति माहेसर-लक-पईचहुँ । मोहुप्पाइउ णं जरु लाइड तहुँ सहसकिरण-दहगीवहुँ ।।१२।।
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चउदहमो संधि
२११ और कोयल, महीधरोंके शिखरोंपर, कुसुमोंकी मंजरी रूपी ध्वजाएँ आत्र वृक्षोंपर, दवणरूपी प्रन्थपाल केदार वृक्षों में, वानर रूपी माली शाखा-समूहों में, मधुकररूपी मस्त बाल परागोंमें, सुन्दर ताल लहरोंके आवासोंमें, भोजनक अभिनव फलोंके भोजनगृहोंमें ठहरा दिये गये । इस प्रकार विरहीजनोंको समाते हुए, गजातिले शुभत हुए वसन्तन प्रवेश किया ॥१-८॥
पत्ता-आते हुए वसन्तकी ऋद्धि देखकर मधु, ईख और सुरासबसे मतवाली तथा विद्यल और भोली नभेदारूपी बाला प्रियसे अनुरक्त होकर घूमने लगती है ॥९॥
[३] समुद्रके पास जाते हुए उसने शीघ्र ही अपना प्रसाधन कर लिया । जो उसमें जलके प्रवाहका घवघव शब्द हो रहा है, वहीं उसके न पुरोंकी झंकार है, जितने भी कान्तियुक्त किनारे हैं, वे ही उसके ऊपर ओढ़नेके पर हैं, जो जल खलबल हुआ करता और उछलता है, वही रसनादामकी तरह शोभित है। जो उसमें सुन्दर आवर्त उठते हैं, वे ही उसके शरीरको त्रिबलियोरूपी लहरें हैं। जो उसमें जलगजोंके कुम्भ शोभित हैं, वे ही उसके आधे निकले हुए स्तन हैं, जो फेनसमूह आन्दोलित है, वह उसके हारके समान ही हिलहुल रहा है, जो जलचरोंके युद्धसे रक्तरंजित जल है, वही उसके ताम्बूल के समान है, मदवाले गजोंसे जो उसका पानी मेला हो गया है, वहीं मानो उसने आखोंमें काजल लगा लिया है, जो तरंगें ऊपर-नीचे हो रही है, वह मानो उसकी भौंहोकी भंगिमा है, जो उसमें भ्रमरमाला व्यास है, वह उसने कशावली बाँध रखी है ।।१-११॥
बत्ता-माहेश्वर और लंकाके प्रदीप सहसकिरण और रावणके बीच में जाते हुए और अपना मुंह दिखाते हुए उसने उनको मोह उत्पन्न कर दिया जैसे उन्हें ज्वर चढ़ गया ॥१२॥
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पउमचरित
[ ४ ] सो वसन्तु सा ग्वा तं जलु। सो दाहिण-मारउ मिय-सीयल | ताइं असोय-णाय-चूय-वणई। मझुरि-महुर-सरइँ लय-मवपाई ॥२ ते धुयगाव ताउ कारोलिंच। ताड कुसुम-मरि-सिम्कोलिउ ॥१॥ ते पल्लव सा कोल-कलयल। सो कयह कैसर-स्य-परिमल ॥४|| ताउ यवल मल्लिय-कलियउ। दवणा-मारियड णव-फलिया ॥५॥ ते अन्दोला तं भुवईयणु । पक्रववि सहसकिरणु हरिखिय-मणु ॥६ सहुँ भन्त उरेण गर तेतह। णम्मय पर महागइ जेन( ।।७।। दूर शि: आरक्खिय-णिय-वलु। जल जन्ति हिं णिरुद्ध णिम्मलु ।।
पत्ता वद्धिय-हरिसउ जुबहि सरिसर माहेसरपुर-परमेसरु । सलिलभन्तर माणस-सरवरें चंपइट सुरिन्दु स-अकरु ॥
सहसकिरणु सहसति णिउ.वि । भाड णा महि-बहु अवरुण्डै वि ॥१ दिह मउड अम्मिल्लर। रवि व दरगमन्नु सोहिल उ ।।२।। दिट्ट मिजाज क्यणु बच्चस्थलु । णं चन्दङ्घ कमलु पह-मपदल ॥३॥ पभणह सहसरासि 'लह तुकहाँ। अन्मही रमहाँ हाहाँ उलुकहों' ॥ तं णिसुणे वि कडक्रस-विक्वविउ । बुखाउ उकासव महाविड ।।५।। उपपरि-कायह-गियरु परिटिज। णं रसुप्पल-सपटु समुष्ट्रिड ।। ६।। ण केयह-आरामु मणोहरू । जरा-सूह कउल्ला केसा ॥७॥ महुपर सर-भरेण बल्लीणा। कामिणि-मिसिणि मणे वि णं कोणा ।
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सउदहमो संधि [8] वही वसन्त, वही नर्मदा और वहीं उसका जल । वे ही अशोक भाग और आम्रवृक्षोंके वन और मधुकरियोंसे मधुर और सरस लतागृह, वे ही कम्पित शरीर कीरोंकी पक्तियाँ, वहीं कुसुममंजरियोंकी कतारें, वे पल्लच, वही कोयलोंका कलरव, वही केतकीके केशररजका परिमल, वे ही मल्लिकाकी नयी कलियाँ, नयी-नयी फलित दवणामंजरी। वे सूले, घे युवतीजन । देखकर सहर किरणका मन प्रसन्न हो गया । अपने अन्तःपुर र वह वहाँ गण, यहाँ विगाल नर्मदा नदी थी। अपनी आरक्षित सेना उसने दूर ठहरा दी, यन्त्रोंसे निर्मल जल रोक दिया गया ॥१-८॥
घत्ता-बढ़ रहा है हर्ष जिसका, ऐसा माहेश्वरपुरका नरेश्वर, युवतियों के साथ पानीके भीतर इस प्रकार घुसा मानो अप्सराओंके साथ इन्द्र मानसरोवर में घुसा हो ।।२।।
[५] सहस्रकिरण सहसा डूबकर जैसे धरतीरूपी वधूका आलिंगन करके आ गया । उसका अर्धोन्मीलित मुकुट ऐसा शोभित हो रहा है, मानो थोड़ा-थोड़ा निकलता हुआ सूर्य हो। जुसका ललाट, मुख और वक्षस्थल ऐसा लग रहा था मानो आधा चन्द्र, कमल और नभमण्डल हो। सहस्रकिरण कहता है, "लो, पास आओ, रमो, जूझो, नहाओ, छिपो।" यह सुनकर और कटाक्षसे क्षुब्ध होकर, दोनों हाथ ऊपर कर महादेवी पानी में डूब गयो । पानीके ऊपर उसका करतल समूह ऐसा लग रहा था मानो रक्तकमलोंका समूह पानीमें-से उठा हो, मानो केतकीका सुन्दर आराम हो, जिसमें नख, सूची ( कौंटे, जो केतकीमें रहते हैं) और कटिसूत्र केशर है। इस प्रकार कामिनीको कमलिनी समझकर स्वरभारसे व्याप्त भ्रमर उसमें लीन हो गये ॥१-८॥
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पउमचरिड
घसा सलील-तरन्तहु उम्मीलन्तहुँ मुह-कमल हुँ केह पधाइय । भाय सरस किप (?) सामरसह परवदह भन्ति उप्पाइय ॥९॥
अषरोप्पक जल-कोल करतहुँ। धण-पापालि-पहर मेल्लन्तहुँ ॥१॥ कहि सि चन्द-कुन्दु जल-तारं हि । धवलिउ जलु सुहन्त हि हारहि ॥ कहि मि रसिङ णेउर हि रसन्त हि । कहि मि फुरिंड कुण्डले हि फुरन्ते हि ।। कहि मि सरस-तम्बोलारसउ। कहि मि वउल-कायम्बरि-मत्तड ॥४॥ कहि मि फलिह कप्पर हि वासिङ । कहि मि सुरहि मिगमय-वामीसिउ । कहि मि विविह-मणि-रयन लियाउ । कहि मि धोम-कजल-संवलिया॥ कहि मि पहल-कुकम-
पिरियड । कहि मि मलय-चन्दण-रस-भरियउ ॥ कहि मि जक्खकदमा करम्विउ । कहि भि भमर-रिन्छोलिहि चुम्विाजा
पत्ता विद्दुम-मरणय- इन्दणील- सय- चामियर-हार-संवाए हि । बहु-वण्णुजलु गाव णहयलु सुरवणु-धण-विज्ज-वलायहि ॥५॥
[ ७ ] का घि करन्ति केलि सहुँ राएं। पहण कोमल-कुषालय-धाएं ॥१॥ का विमुख दिप सुविसाल' । का वि णवल मल्लिय-मालएँ ॥२॥ का वि सुयन्धेहि पाइलि-दुले हि । का वि सु-पूय फलं हि वउल्ले हि ॥३॥ का वि जुण्णवणे हि पणिऍहि । का वि स्यण-मणि-अवलम्वणिएँहि ॥ का वि विलेखणेहि उव्यरियहि। का वि सुरहि-दवणा-मारियहि ॥५॥ कवि गुज्छ जले अधुम्मिलुङ । णं मयरहर-सिहरु सोहिलउ |
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घउदहमो संधि
२१५ घत्ता-लीलापूर्वक तैरते और निकलते हुए मुखकमलोंके लिए कितने ही (भौरे ?) दौड़े। राजाको यह भ्रान्ति हो गयी कि इनके समान रक्तकमल क्या होंगे ? ॥९॥
[६] एक दूसरेके ऊपर जलकीड़ा करते हुए, सघन जलधारा छोड़ते हुए, कहीं चन्द्रमा और कुन्द पुष्पके समान उज्ज्वल
और स्वच्छ, टूटते हुए हारोंसे जल सफेद हो गया, कहीं ध्वनि करते हुए नूपुरोंसे ध्वनित हो उठा, कहीं स्फुरित कुण्डलोंसे जल चमक उठा, कहीं सरस पानसे लाल हो उठा, कहीं यकुल कादम्बरी (मदिरा) से मत्त हो गया, कहीं स्फटिक कपूरसे सुवासित हो उठा, कहीं-कहीं सुगन्धित कस्तूरीसे मिश्रित था, काहीं-कहीं विविध मणिरत्मोंसे आलोकित था, कहीं धोये हुए काजलसे मटमैला था, कहीं अत्यधिक केशरके कारण पीला था, कहीं मलय चन्दनके रससे भरा हुआ था, कही यक्ष कर्दमसे मिश्रित था, कहीं भ्रमरपतियोंसे घुन्वित धारा
पत्ता--विद्रुम, मरकत, इन्द्रनील और सैकड़ों स्वर्णहारोंके समूहसे रंगबिरंगा नर्मदाका जल ऐसा जान पड़ता था मानो इन्द्रधनुष, धनविद्युत् और बलाकाओंसे युक्त आकाशतल हो ।।९।।
[७] कोई एक राजाके साथ क्रीड़ा करती हुई कोमल इन्द्रनील कमलसे उसपर प्रहार करती है । कोई मुग्धा अपनी विशाल दृष्टिसे, कोई नयी मालतीमालासे, कोई सुगन्धित पाटल पुष्पसे, कोई सुन्दर पुगफलों और बकुल कुसुमोंसे, कोई जीर्णवर्ण पट्टनियोंसे, कोई रत्न और मणियोंकी मालासे, कोई बचे हुए विलेपनसे, कोई सुरभित दवणमंजरी लतासे । कोई किसी प्रकार जलके भीतर छिपी हुई आधी ऊपर निकली हुई ऐसी दिखाई देती है, मानो कामदेवका चूड़ामणि शोभित ।
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पउमचरित
कहें वि कसा रोमावलि दिही। काम-वेणि गं गले वि पट्टी कहें वि श्रणोपरि ललह नहोरण । णाई अगङ्गहों काउ तोरणु ॥८॥
। घत्ता कहे विस-हिरई दिछह जहर, धण-मिहरोवरि सु-पहुँतई । धेगेण यहाई : राण-तुराहो पाय, इन पर खुसर ॥१॥
[ ] तं जल-कील णिएवि पहाणहूँ। जाय बोल्ल पाहयले शिम्बाहुँ॥॥ पभणन एक हरिस-संपपाउ । 'तिहुश्रणे सहमकिरण पर धण्णव ॥२॥ जुबह-सहासु जासु स-वियारउ । विरुमम-हाव-भाव-जावारउ ||३|| नलिणि-त्रणु व विणयर-कर-इच्छङ । कुमुय-वणु व ससहर सणिणच्छउ (?) कालु जाइ जमुमयण-विलासें । माणिणि-पत्तिजवणायासें ॥4॥ अच्छउ सुरउ जण जगु मत्तड़। जल-कोला जि किण्ण पजत्ता' ||२|| सं णिसुणे वि अत्ररेक्छु पीछिन । 'सहमकिरणु केवल सलिलोल्लिज ॥७॥ इत्थु पवाहु मणोहर-वन्तः। जो जुबइहि गुमान्तु वि पत्तः ॥८॥
घत्ता जेण वणन्तरे सलिलभन्तर गलियंसु-धरण-धावारएँ । सरहसु ढुक्कर माणे वि मुक्का अन्तेउरु एकप धारएं ॥२॥
रायणो वि जल-कोल करेपिणु । सुन्दर सियय-त्रेइ विरएक्षिण ॥१॥ उपपरि जिणवर-पहिम चाववि । चिबिह-विताण-णिवहु अन्धा वि ॥ सुम्प-और-सिसिरहिं अहिसिझेवि । णाणाविह-मणि-यणेहि अवि।।३।। गाणाविहार विलेषण भएँ हि । दीव-धूव-पश्लि-फ्फ-णिबेहि ॥
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चउदहमो संधि
२२७ हो ? क्रिसीकी काली रोमावली दिखाई दी मानो कामवेणी ही गलकर वहाँ प्रवेश कर गयी, किसीके स्तनपर ऊपरका वस्त्र ऐसा शोभित था मानो कामदेवका तोरण हो ॥१-८1) ___घत्ता-किसीके स्तनके ऊपर रक्तरंजित प्रचुर नखक्षत ऐसे मालूम होते थे मानो तेजीसे भागते हुए कामदेवके अश्वोंके पैर गड़ गये हो 1 ।।५।।
[८] उस जलक्रीडाको देखकर प्रमुख देवताओंमें बातचीत होने लगी। एक इर्षित होकर कहता है, "त्रिभुवनमें सहस्रकिरण ही धन्य है, जिसके पास विभ्रम हावभावकी चेष्टाओंसे युक्त और विलासपूर्ण हजारों स्त्रियों है, जो नलिनीवनके समान दिनकर (सूर्य और राजा सहस्रकिरण) की किरणोंकी इच्छा रखती है, कुमुद वन जिस तरह चन्द्रमाको चाहता है, उसी प्रकार वे सहस्रकिरणको चाहती हैं, जिसका समय कामविलास और मानिनी स्त्रियोंको मनाने के प्रयासमें जाता है। जिसके लिए दुनिया मतवाली है, वह सुरति उसे प्राप्त है। जलक्रीड़ासे क्या पर्याप्त नहीं हैं।" यह सुनकर एक
और ने कहा, "सहस्रकिरण केवल पानीका बुलबुला है, सुन्दर है, यह प्रवाह है, जिसमें छिप जानेपर भी यह युवतियोंके द्वारा पा लिया जाता है ।।१-८॥ ___घता-जिसके कारण पानीके भीतर ढीले वस्त्रोंको ठीक करते हुए एक बारमें ही अन्तःपुर मान छोड़कर हर्षपूर्वक पास आ जाता है ॥२॥
[९] रावण भी जलक्रीड़ा करनेके बाद सुन्दर बालूकी वेदी बनाता है, ऊपर जिनवरकी प्रतिमा स्थापित कर, विविध वितानोंका समूह बँधचाकर, घी-दूध और दहीसे अभिषेक कर, नाना प्रकारके मणिरत्नोंसे अर्चना कर, नाना प्रकारके विलेपनके भेवों दीप, धूप, नैवेद्य, पुष्प, और निर्माल्यसे पूजा कर जैसे ही
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२१८
पउमचरिउ
म कवि किर गायत् जा!ि जति लु मेलिन ताहि॥1॥ पर-कलत्तु संकेयहाँ कुषउ । णाई वियहिं माणधि मुकउ ॥६॥ भारउ उड्य-नई पेल्लन्तड। निणवर-पवर-पुजा लन्तउ ॥ ॥ दहमुड पटिम रूवि बिहडफड । कह वि कह धिणीसरिउ वियावह
घत्ता भणइ गरेसहों तुरिज गवेसहों किउ जेग एउ पिसुणतणु । किं बहु-बुसेण तासु णिरुत्तेण दक्षमि अनु जम-सासणु' ॥९॥
[१०] को एस्धन्तर लडाएमा । गय मण-गमणाणेय गवेसा ॥१॥ राषणेण सरि दिव वहन्ती। मुय-महुयर-दुक्षेण व जन्ती(?)॥२॥ पन्दण-सेंग व बाल-विलिप्ती । जल-रिद्धि णं जोवणासी ॥३॥ वापर-बाहेण व वीसथी। जच्च-पहवरधर व पियस्थी ॥धा होणाहीरणई व पंगती। वालाहिय-णियाए व सुत्सी ॥५॥ पल्लिभ-दन्त हि व विहसन्ती। णीलुप्पल-णय ऎहिं व गिएन्ती ॥५॥
उल-सुरा-गन्धेण व मत्ती । केयह ह व णपन्ती ११७॥ हिरि-महुर-सरु व गायन्ती। उमर-मुरवाई व वायन्ती ८॥
अरमियरामहो णिक णिकामहों आरूमेंषि परम-जिणिन्दहाँ । पुन इरेपिणु पाहु लेपिणु गय णावइ पासु समुहौं ॥५॥
[111 हिं भवसर जे किलर शइय। ते पडिवत्त लएपिपशु आइय ||१॥ हिय मुणन्तहाँ खभावारहों। 'लह एप्स सारु संसारहों ॥२१॥
सरवह णर-परमेसह । सहसकिरणु णामण गरेसरु ॥३॥ | जल-कोल तेण उपाय ! सा श्रमरहि मि रमवि ॥ जाग्र॥४॥ सम्बई कामु को पि फिर सुन्दर । सुरवा मरहु सयर चक्केसह ॥५॥
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वह गान प्रारम्भ करता है, वैसे ही यन्त्रोंसे पानी छोड़ दिया जाता है, वह पानी ऐसे पहुँचा जैसे परस्त्री संकेतस्थानपर पहुँच जाती है, या जैसे विदग्ध भोगकर उसे छोड़ देते हैं। वह पानी दोनों किनारोको ठेलता हुआ जिनवरकी पूजाको बहाता हुआ दौड़ा। रावण हड़बढ़ाकर और जिनप्रतिमाको लेकर कठिनाईसे बाहर निकला ।।१-८॥ __घत्ता-उसने लोगोंसे कहा, "खोजो उसे जिसने यह दुष्टता की है, बहुत कहने से क्या, आज मैं निश्चित रूपसे उसे यमका शासन दिखाऊँगा" ॥९॥
[१०] इसके अनन्तर आदेश पाते ही मनसे भी अधिक गतिशील अनेक लोग खोज करने गये। रावण नर्मदाको बहते हुए देखा, जैसे वह मृतमधुकरोंके दुःखसे (धीरे-धीरे) जा रही हो, चन्दनके रससे अत्यन्त पंकिल, जलकी ऋद्धिसे यौवनवती, मन्द प्रवाहसे विथन्ध, दिव्य वस्त्रोंको धारण करती-सी, वीणा
और अहोरण ( दुपट्टा ) से अपनेको छिपाती-सी, व्यालोंकी नीदसे सोती हुई, मल्लिकाके समान दाँतोंसे हँसती हुई, नील कमलके समान नेत्रोंसे देखती हुई वकुल (1), सुराकी गन्धसे मतवाली केतकीके हाथोंसे नाचती हुई, मधुकरी और मधुकरके स्वरसे गाती हुई, निर्झररूपी मृदंगोंको बजाती हुई ॥१-८॥ ___घत्ता-स्त्रीका रमण नहीं करनेवाले निष्काम परम जिनेन्द्रसे रूटकर ही ( उनकी) पूजाका अपहरण कर, उपहार लेकर मानो वह समुद्र के पास गयी ॥२॥
[११] उस अवसर जो भी अनुचर दौड़े, वे खबर लेकर वापस आ गये। सुनते हुए स्कन्धावारसे उन्होंने कहा, "लो, संसारका सार इतना ही है, माहेश्वरका अधिपति सहस्रकिरण नामका नरेश्वर है। उसने जो जलक्रीड़ा की है वैसी क्रीड़ा देवताओंको भी ज्ञात नहीं सुना जाता है कोई सुन्दर
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३५०
पउमचरित
महया सणकुमार से सयल वि । णड पावन्ति तासु एक-यफ वि ॥ का वि अउम्व लील विम्माणिय । धम्मु अस्थु पिम्पिा वि परियाप्पिया॥ काम-ततु पुणु तेण में णिम्मिउ । अण्ण रमम्ति पसब-को मिल ॥८॥
पत्ता मष्ट पहवन्तेय भुषणे तवसैण गयणाथु पयगण ort (मा)वा । एस चारण पिंय-पाषाण विउ सलहों पसधि गाय
[ १२ ]
पवरेमकंण बुत्त 'मई लक्खिउ । सचउ सध्यु एण जं अश्लिड [1982
पुणु सहाँ केरड अन्तेउन । णं पञ्चक्खु में मयरस्य-पुरु ॥२॥ उर-मुस्यहुँ पेपरखण्णया-हरु। लापण्णाम्भ-तलाउ मनोहरू ॥३॥ पर-सह-कर-कम-कमल-महालर। मेहल-तोरणा कण-वासरु ||४|| णि हस्थिहि साहारण-काणणु। हार-सग-वच्छहों गयणगणु ॥५॥ हर-पवाक-पषालायायरु । दन्त-पति-पोतिय-सरणयरु ॥६॥ रोहाकलयगिठहिं जन्दावणु। कपणन्दोलयाई वेशतणु ॥७॥ यण-ममरहुँ केसर-सेहरु । ममुहा-भङ्ग हुँ णावय-घरु ॥८॥
छत्ता काई बहुसँण (पुण) पुणरसैण मयणग्गि-पमा संपण्णउ । नरहुँ भणन्तहुँ मण-धण-वम्तहुँ धुद चोरु घण्टु उप्पग्णाई' ॥५॥
पाय ।
[ ५] वरण वुत्त 'मई जन्त । दिई णिम्मले सलिल तस्म्त ।।१।। । सुन्दर सुकिय-कम्मा व । सुघटियाई अक्षिणप-पेस्माई व ॥२॥ गलाई सु-किविण-हिययाई छ । णिउण-समालिय सुकइ-पयाई व 480 चारिमइँ कु-पुरिस-भणाई व । कारिमा कुणि-वयणाई व ॥४॥
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घउदामो संधि
२२१
कामदेव, इन्द्र, भरत, सगर, मघवा और सनत्कुमार चक्रवती वे सब भी, उनकी एक कलाको नहीं पा सकते। वह कोई अपूर्व लीलाको मानता है, और धर्म तथा अर्थ दोनोंको जानता है ? कामतस्वकी रचना तो उसीने की है, दूसरे लोग तो पसाये हुए कोदोंका रमन करते हैं ॥१.८|| __घत्ता-प्रभावान मेरे भुवनमें तपते हुए. आकाशमें स्थित सूर्य शोभा नहीं पाता, इस कारणसे प्रिय व्यापारफे साथ 'यह पानीके भीतर प्रवेश करके स्थित है" ॥९||
[१२] एक औरने कहा, "इसने जो कुछ कहा है, सचमुच वह मन मैंने देखा है, पुनः जम्मका अन्तःपुर मानी साक्षात कामपुर है, जो नूपर, मुरज और नृत्यकारीको धारण करता है, सौन्दर्य जलके तालाबसे सुन्दर है, शिर मुखकर चरणरूपी कमलोंसे युक्त सरोवर है, मेखलाओं और तोरणोंसे उत्सवका दिन है, स्तनरूपी हाथियोंसे साहारण-कानन है, हाररूपी स्वर्गवृक्षोंसे गगनांगन है, अधररूपी प्रवालोंके मूंगोंका आकर है, दाँतोंकी पंक्तिरूपी मोतियोंका रत्नाकर है, जिद्वारूपी कोयलोंके लिए. नन्दन वन है, कानोंके आन्दोलनसे लचीलापन है, लोचनरूपी भ्रमरोंसे केशरशेखर है और भौंहोंकी भंगिमासे मृत्यकर है ॥१८॥ - पत्ता-बहुत या बार-बार कहनेसे क्या ? मदनाग्नि भयंकरता से सम्पूर्ण वह मनरूपी वित्तवाले अनन्त लोगोंके लिए धूत प्रचण्ड चोर ही उत्पन्न हो गया है" ॥२॥
[१३] एक औरने कहा, "मैंने निर्मल पानी में तिरते हुए यन्त्र देखे हैं, जो पुण्य कर्मोकी तरह अत्यन्त सुन्दर हैं, अभिनव प्रेमकी तरह सुगठित हैं, अत्यन्त कृपाणके हृदयकी तरह कठोर हैं, सुकविके पदोंकी तरह निपुण समास ( सुन्दर समास, दूसरे पक्षमें काठकी कलाशियोंसे रचित) है, कुपुरुषके
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पउमचरिउ
२३१
परिकएँ सजण चिताएँ व । दुई सुकलताई व वारि वमस्ति नाई सिरिणासहि संहि पुत्र जलु यम्नंवि शुक्क
घत्ता
तं निखुणेपिणु 'हेड' भणेष्विणु असिव स है सु घेण पकतिज | सहइ समुज्जलु ससि-कर- मिम्मल णं पक्ष- दाण- फलु वहिंउ || ९ || चउमुहएवं च गोगगह कहाऍ । अज चि करणो ण पावन्ति ।।
जल-कीलाएँ सयम्भू भदं (हं) च मच्छवेहे
वहूँ अस्थत विसाएँ व १५ ॥ - विताएँ व ॥ ३६॥ उस्कर चरण-कण्ण-णपणासेहिं ॥ संग पुज रेलेन्तु पशुकन ॥८
[ १५. पण्णरहमो संधि ]
दाण-मयन्र्घेण गय-गन्धण जग कम्पाणु रणे रावणु
जेम महम्दु त्रियउ | सहस्रकिरण अभिउ ॥१॥
[,]
आसु दिष्णु यि किक्क रहें । मारिच-मयहुँ सुब-पारणहुँ । हम-हस्थ-यहस्थ- विहीर हुँ । ससिकर-सुग्गीध गील-जल हुँ । उद्धाय मध्र-मतिय-कर |
वज्जोय र-मयर-महोय रहुँ ॥१॥ इन्द्रइकुमार-घणवाणहुँ ॥ २ ॥ विष्टि - कुम्भयपण खर दूसणहुँ ॥ ३ ॥ अवरहु भि अणिट्टिय भुय वरूहूँ ॥४॥ मीसावण-पण-नियर-घर ॥५॥
सहसयरु विजुतहिं परिथरि । शुद्ध जेदुद्ध सकिल हो नीसरिज ॥ ॥ ॥
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पण्णरहमो संधि
धनकी तरह गतिशील हैं, कुट्टनीके वचनोंकी तरह कृत्रिम (था काले हैं, सज्जनो चिसको तरह भरे हुए हैं, भिखारीके धनकी तरह अच्छी तरह बँधे हुए हैं, सुकलनोंकी तरह दुलंघ्य हैं, डूबते हुओंके समान चेष्टाविहीन हैं, पानी छोड़ते हुए उर-कर-चरण-कर्ण-नेत्र और मुखवाले, श्रीका नाश करते हुए उन यन्त्रोंसे रोककर यह पानी छोड़ा गया है जो पूजाको बहाता हुआ आया" ॥१-८॥
पत्ता-यह सुनकर, 'पकड़ो', यह कहकर रावणने स्वयं अपने हाथमें तलवार ग्रहण कर ली, जो चन्द्रमाकी किरणकी तरह निर्मल एवं उज्यल ऐसी शोभित है मानो सुपात्रमें दिये गये दानका फल बढ़ गया हो ।
जलक्रीड़ामें कवि स्वयम्भूको, गोमकथामें चतुर्मुख देवको और भद्र कवि मत्स्यवेधमें आज भी कवि नहीं पा सकते ।
पन्द्रहवीं सन्धि दान से मदान्ध गन्धराज के साथ जिस प्रकार सिंह भिड़ जाता है, वैसे ही जगको कैंपानेवाला रावण सहनफिरणके साथ भिड़ गया था
[१] उसने अपने अनुचरों-वनोदर, मयर, महोदर, मारीच, मय सुत, सारण, इन्द्रकुमार, बनवाहन, हस्त, प्रहस्त, विभीषण, दोनों कुम्भकर्ण, खर, दूषण, चन्द्र, सुग्रीव, नल, नील और भी दूसरे निम्सीम बाहुबलवालोंको आदेश दिया । मत्सरसे हाथ मलते हुए भयंकर हथियारोंका समूह धारण करनेवाले वे उटे । युवतियोंसे घिरा हुआ सहस्रकिरण भी जल्दी-जल्दी पानीसे
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२३५
पडमचरित ताणग्तरें सूरह णिसुणियई। पणवेप्पिणु मिश्चदि पिसुणियई ॥७॥ 'परमेसर पारस्कर परिउ । छह पहरणु समरु समावडिउ' |॥८॥
धत्ता सं णिसुप्पिणु धणु करें लेप्पिणु णिसियर-पवर-समूहहाँ। थिउ समुहागा प पाणण णाई महा-य-जूहों ॥९॥
[२] जं झुज्म-सज्नु थिट देवि धणु । तस्ठि अखेसु त्रि जुत्रायणु ॥॥ मम्मीसित राई दुग्ण-मणु । किं पाणहों या सहसकिरण ॥२॥ एक्कक्कहीं एक्कक्कर में करु। परिरक्वइ जह तो कवणु गुरु ॥३॥ भच्छहाँ भुव-मण्ड वाइसरवि। जिह करिणिउ गिरि-गुह पइसरवि ॥४ मा दलमि कुम्भि-कुम्मस्थलाई। होसन्ति कुटुम्विहि उपरवल हैं ॥५॥ जा खणमि विसाणइ पवराई । होसन्ति पयहाँ पञ्चवराई ॥६॥ जा कमि करि-सिर-मोतियहूँ। होसन्ति तुम्ह हारतियई ॥७॥ जा काडमि फरहरन्त-धयई। होसन्ति देणि-वन्धण-समई ॥८॥
पत्ता . एम मणेपिणु तं धीरेपिणु णरवइ रहबर मडियट । वहकरुणण (1)xx विणु अहणण णाई दियावह परियउ॥९॥
प्रस्त रे आरोडिउ भ. हि णं केसरि मत्त-हस्थि-होहिं ॥१॥ सो एक्कु अणन्तड जद वि बलु । पप्फुल्ल तो वि तहाँ मुह-कमलु॥२॥ जं लइड भरखते सहसयरु । संघविउ परोप्पा सुर-पकरु ॥३॥ 'अहाँ भहो भणीइ काहि किय। एक्कु ऐ वतु अण्णु थि गयणे थियार
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पणरहमो संधि
ખ
निकला। उसके अनन्तर नगाड़े सुनाई देने लगे । अनुचरों ने प्रणाम कर सूचित किया, "देख-देख सत्रु आ सका है, युद्ध आ पड़ा है। हथियार लीजिए" ||१८||
घत्ता--यह सुनकर, हाथमें धनुष लेकर वह निशाचरोंके प्रवल समूह के सम्मुख उसी प्रकार स्थित हो गया, जिस प्रकार सिंह महाराज यूथके सम्मुख बैठ जाता है ||२॥
[२] जब वह धनुष लेकर युद्धके लिए तैयार हुआ तो अशेष युवती जन डर गयीं । खिन्न मन उसको राजाने अभय वचन देते हुए कहा, "क्या सहस्रकिरण किसी दूसरेका नाम है ? जब मेरा एक-एक हाथ एक एककी रक्षा करता है तो तुम्हें किस बातका डर है ? तुम भूमण्डप में प्रवेश कर बैठी रहो, जिस प्रकार हथिनियाँ गिरिगुहा में घुसकर बैठ जाती हैं। मैं जो हाथियोंके कुम्भस्थल तोड़गा वे परिवार के लोगों के लिए ऊखल हो जायेंगे, जो मैं प्रवर दाँत रखागा, वे प्रजाके लिए मूसल हो जायेंगे। जो मैं हाथियोंके सिरसे मोती निकालूँगा, वे तुम्हारे लिए हार हो जायेंगे। जो मैं फहराती हुई जाएँ फागा, वे तुम्हारी चोटी बाँधने के लिए सैकड़ों फीतेका काम देंगे" ॥१-८||
घत्ता - इस प्रकार कड़कर उन्हें धीरज बँधाते हुए वह राजा रथवरपर चढ़ गया, मानो युवतियोंके करुणाके कारण, मानो चिना अरुणिमाके सूर्य प्रकट हुआ हो ||१||
[३] इसके अनन्तर योद्धाओंने आक्रमण किया, मानो मत्त गजघटाने सिंहपर हमला बोला हो । यह अकेला है और शत्रुसेना अनेक हैं, फिर भी उसका मुखकमल खिला हुआ है। जय इस प्रकार अक्षात्रभाव के विरुद्ध सहस्रकिरणपर हमला किया गया तो देवताओंमें बातचीत होने लगी, "अरे-अरे, राक्षसोंने बहुत बड़ी अनीति की हैं। यह अकेला, वे बहुत, उसपर
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पबमचरिड पहरणई पवण-गिरि-वारि-चि। भाएहि सरिस नमें भीरु ण वि'॥५॥ तं णिसुणवि णिसियर लज्जियई। थिम मनियल विस्ज-
विनियई ॥६॥ तो सहसकिरणु सहसहि करेंचि । णं विद्इ सहस-सहस-ससहि ॥७॥ दूरहों जि णिरुद्धउ वहरि-वल। णं जम्बूदी। उवहि-जल ॥४॥
पत्ता अमुणिय-यापहों किय-संधाणहों दिदि-मुहि-सर-पयरहों। पासु ण दुकह से उल्लुकह तिमिरु जेम दिवसयरहो ॥९॥
[५] अट्टायय-गिरि-कम्पावणहाँ। पहिहारे धम्खिड़ रावणहों || 111 'परमेसर पक्के होम्तएँण । वलु सयलु परिउ पहरन्तऐज ॥२॥ रणें रहबर एक्कु जें परिभमा 1 सन्दप-महासु णं परिममइ ।।३।। धणु एक्कु एक्कु णरु कुछ ज कर । चउदिसहि णवर णिवदन्ति सरा कर कहीं वि कहाँ चि उरु कप्परिउ । करि कहाँ वि कहाँ वि रहु जसरित।५॥ तं णिसुणेवि उवहि जेम खुहिट । बहु सिजगनिनुसण भारहिट ॥३॥ गड तेत्तहें जेसह सहसका। कोकिउ 'मरु पाब पहरु पहरु ॥७॥ हउँ रावणु दुजउ केण जिउ । जे पाराउट्ठर धड किड' ||४ih
घत्ता एम भणन्तण विद्वन्तण स-रहि महारह छिण्णा । पणइ-सहास हिं चउ-पासे हिं जसु चदिसु विपिखपणङ ॥॥
माहेसरपुर-बद विरह किउ पं अंजण-महिहरें सरय-वणु।
णिविसई मत्त-गाइन्दै थिउ ॥१॥ उत्थरिउ स-मार गोड-धणु ॥१
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पण्णरहमो संधि
२00 भी आकाशमें स्थित हैं। उनके अस्त्र है पवन, गिरि, वारि और अग्नि । लोगोंमें इनके समान डरपोक दूसरा नहीं है।" यह सुनकर निशाचर लज्जित हुए और आकाशतल में विद्याओंसे रहित हो गये। पाइलकिरण हाने दामोसे हजार हजार तीरोंसे साधुको बेधने लगा। उसने दूर ही शत्रुबलको उस प्रकार रोक लिया, जिस प्रकार जम्बूद्वीप समुद्रजलको रोके हुए है ॥१-८|
घत्ता- स्थानको नहीं देखते हुए, दृष्टि, मुट्ठी और सरसमूहका सन्धान करनेवाले उसके पास शत्रुबल नहीं पहुँच सका, वह वैसे ही छिप गया जैसे सूर्यके सामने अन्धकार ॥२॥
[] तब प्रतिहारने अष्टापदको फैपानेथाले रावणसे कहा, "अकेले होते हुए भी उसने प्रहारके द्वारा समूची सेनाको अवरुद्ध कर दिया है, युद्ध में यह एक रथवर घुमाता है, पर लगता है जैसे हजार रथ घूम रहे हैं। एक धनुष, एक मनुष्य और दो हाथ, परन्तु चारों दिशाओंमें तीरोंकी वर्षा हो रही है। किसीका कर, तो किसीका उर कद गया है। किसीका हाथी तो किसीका रथ जर्जर हो गया है।" यह सुनते ही रावण समुद्रकी तरह क्षुब्ध हो गया और शीघ्र ही त्रिजगभषण गजवरपर चढ़ गया। वह वहाँ गया, जहाँ सहस्त्रकिरण था। उसने ललकारा, "हे पाप ! मर, प्रहार कर, मैं रावण हूँ, फिसने मुझे जीता, मैंने धनदको भी यहाँसे वहाँ तक देख लिया है" ||१-८॥ ___ घत्ता-ऐसा कहते हुए और प्रहार करते हुए उसने सारथी सहित महारथको छिन्न-भिन्न कर दिया। चारों ओर खड़े हुए हजारों बन्दीजनोंने उसके यशको चारों दिशाओंमें फैला दिया ॥९॥
[५] जब माहेश्वरपुरका राजा रथविहीन कर दिया गया, तो वह एक पल में मदोन्मत्त गजेन्द्रपर सवार हो गया, मानो
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રીઢ
पडमालि
साणा खुरुप्प कप्परिड । लाहिट कह व समुम्बरिउ ॥॥ जे सम्बाया भुभइ सर । लुअ-पात पक्षि णे जम्ति घर ॥ दुसस्यकिरणेण पिरिविरमयड। पचारित 'कहिं अणु सिक्खियउ॥५॥ जलाचि साम अम्मासु करें। पच्छल जुजोजहि पुणु समरें ॥५॥ सं णिसुणे वि जमेण व जोइयउ। कुअरु कुक्षरहाँ पचोइयड ॥७॥ भासणे घोऍषि विगय-भउ । णरबह गिडालें कौन्तेण इउ ॥६॥
घसा जाम भयकर असिवर-करु पहराइ भाकर-भरियउ । ताम दसासेंण श्रायासेंण उपएनि पटु धरिपउ ॥५॥
[१] णि णिय-णिलयहाँ मय-वियलियउ। गं मत्त-महागउ णियकिय ॥ 'मा मह मि घरेसइ दहवयणु'। णं भयएँ रवि गर भस्थत्रशु ॥२॥ पसरिड अम्धार पमोपलर । णिसिएँ पित्त मसि-पोष्टलउ ।।३।। समि उग्गउ सुट्ट सुसोडियउ। जग-हरें दीवट वोहियउ॥m सुविहाणे दिवायरु उग्गमिर। शं रयणिहिं मइयवटु भमिउ ॥५|| तौ णवर जसपारण रिसिह । सयकरहों विणासिय-भव-णिसिहे ॥ गय वत्त 'सहासकिरण परिज'। बउषिद्द-रिसि-स परियरिड 11 ॥
धत्ता
रावणु जेत्तहें गडं ( सो) तेत्त पञ्च-महाबय-धारउ । दिट्ट दुसासैंण सेयंसेंण णावह रिसहु मदारउ ॥४॥
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पण्णरहमी संधि
२३९ अंजनगिरिपर शरद भेध हो। धनुष लिये हुए और मत्सरसे भरकर वह उछला और खुरपेसे कवच काट दिया, लंकाधिप किसी प्रकार बच गया। जब वह पूरे आयामसे तीर छोड़ता तो ऐसा लगता, जैसे विना पंखों के पंखी धरतीपर जा रहे हों। सहस्र किरण ने निरीक्षण किया और ललकारा, "कहाँ धनुष सीखा है ? जाओ-जाओ, पहले अभ्यास कर लो, बादमें फिर युद्ध में लड़ना ।" यह सुनकर यमकी तरह उसकी ओर देखते हुए रावणने हाथीको हाथीकी ओर प्रेरित किया । विगतमद उसने हाथीको निकट ले जाकर सहस्रकिरणको मस्तकपर भालेसे आहत कर दिया ॥१-८।। __घता-जबतक भयंकर और मत्सर भरा हुआ वह अमिवर हाथ में लेकर प्रहार करता तबतक दशाननने आयास करके उसे पकड़ लिया ।।९।।
[६] मदविगलित उसे रावण अपने घर ले गया, मानो श्रृंखलाओंसे जकड़ा हुआ महामत्त गज हो। इतने में, कहीं दशानन मुझे मी ने पकड़ ले मानो इस डरसे सूरज डूब गया। अन्धकार मुक्तभावसे फैलने लगा मानो निशाने स्याहीकी पोटली खोल दी हो । अत्यन्त सुशोभित चन्द्रमा उग आया मानो जगरूपी घरमें दीपक जल उठा हो । सुप्रभातमें सूर्यका उदय हो गया, मानो निशाका मइयवट्ट ( मैला मार्ग ?) चला गया। इतनेमें भवनिशाका नाश करनेवाले जंधाधरण महामुनिके पास सहस्रकिरणका यह समाचार गया कि वह पकड़ लिया गया है । तब चार प्रकारके ऋपि संघोंसे घिरे हुए ॥१-७॥
पत्ता-पाँच महानतोको धारण करनेवाले जंघाचरण महा. मुनि वहाँ गये जहाँ रावण था । दशानन ने उनके उसी प्रकार दर्शन किये जिस प्रकार श्रेयांसने आदरणीय पजिनके किये थे ||८||
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२४.
पउमचरित
[-] गुरु घन्दिय दिगण, भासणई। मणि-वेयडियाँ सुह-दसणहूँ ॥॥ मुणि-पुंगड चवा विसुद्धमइ। 'मु सहसकिरणु लंकाहिवः ॥२।। ऍहु चरिमदेहु सामण्णु ण कि। महु सणउ' भव-राईब-रवि' ॥३॥ सं णिसु धि जम कम्पावणेण। पपवेपिपगु वुश्च रावण ॥४॥ 'महु एण समाणु कोउ कवणु ! पर पुजहें कार आउ रणु ॥५॥ भजु वि एड जें पहु सा जि सिय । अणुहुजउ मेइणि जेम लिय' ॥६॥ तं णिसुणवि सहसकिरण चवइ । 'उत्तमहाँ एउ कि संभवह ॥७॥ से मणहर सलिल कील करेंवि। पई समउ महाहचे उत्थरे वि ||
पत्ता एकहि भायर दिनकायों राय-सियएँ कि किजई । परि थिर-कुलहर अजरामर सिद्धि-बहुव परिणिनई ॥५॥
ते वयणे मुक्कु विसुद्ध-मइ । माईसर-पवर-पुराहिवइ ॥१॥ णिय-गन्दणु णियय-धाणे थवे धि । परियणु पट्टणु पय संथ पि ॥२॥ णिकखन्न खण, निगय-भज। रावणु वि पयाणउ देवि गउ ॥३॥ परिपेसिड केहु पहाणाहाँ। मणरणहाँ उज्झहें राणाहों ॥४ मुह बत्त कहिय 'दहमुहेण जिउ । लइ सहसकिरण लव-घरौँ थिड' ॥५॥ संणिसुणेवि गरवाह हरिसड़1 ईसीसि विसाउ परिसियाउ ॥६॥ संगाम-महासाहि दूसहहाँ सिय सयल सगप्पेचि दसरहदो ॥७ सहससि सो वि णिक्खन्तु पहु। अपणु वि तहाँ तणा अणन्तरदु 1८
घत्ता ताम सुकेसेंण कोण जमहर-भणुहरमाणउ । जागु पणासधि रिड तासें वि मगहहँ भुक्कु पयाणउ ॥९॥
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पण्णाहमो संधि [७] गुरुकी वन्दना करके मणिनिर्मित और शुभदर्शन आसन उन्हें दिये गये। विशुद्धमति मुनिश्रेष्ठ बोले, "लंकाधिपति, तुम सहस्रकिरणको छोड़ दो, यह सामान्य व्यक्ति नहीं, चरमशरीरी है, मेरा पुत्र और भन्यरूपी कमलोंके लिए सूर्य ।” यह सुनकर यमको कपानेवाले दशाननने प्रणाम करते हुए कहा, "मेरा इनके साथ किस बातका क्रोध ? केवल पूजाको लेकर हम दोनोंमें युद्ध हुआ, यह आज भी प्रमु हैं और वही इनकी लक्ष्मी है, यह सन्नीकी तरह परतीका भोगनरें।" यह सुनकर महलकिरण कहता है, "श्रेष्ठ व्यक्तिसे क्या यह सम्भव है ? वह सुन्दर जलक्रीड़ा कर और तुम्हारे साथ युद्धमें लड़कर ॥१-८॥
घत्ता-अब इस फीकी राज्यश्रीका क्या करना ? अच्छा है कि श्रेष्ठ स्थिरकुलवाली अजर-अमर सिद्धिरूपी बधूका पाणिप्रहण किया जाय ॥२१॥
[4] इन शब्दोंके साथ मुक्त विशुद्धमति माहेश्वर अधिपति सहस्रकिरण अपने पुत्रको अपने स्थानपर स्थापित कर, परिजन, पट्टण और प्रजाको समझाकर निडर वह एक क्षणमें दीक्षित हो गया । रावण भी प्रयाण कर चला गया । तब अयोध्याके प्रधान राजा अणरण्यको लेखपत्र भेजा गया, उसमें मुख्य बात यह कही गयी थी कि दशमुखसे जीवित बचा सहसकिरण तपश्चरणमें स्थित हो गया। यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और थोड़ा-सा विषाद भी उसने प्रदर्शित किया। हजारों युद्धोंमें दुःसह दशरथको समस्त श्री समर्पित कर, राजा अगरण्यने भी दीक्षा ग्रहण कर ली और उसके दूसरे पुत्र अनन्तरथने १-८॥ .
पत्ता-तच सुकेश और लंकेशने यमगृहके समान यज्ञको नष्ट करने और शत्रुको सन्त्रस्त करने के लिए मगधके लिए कच किया ॥५॥
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२४२
पजमधरिड
पार धीरे वि मरु सिकरें वि। तहों तणिय तणय कश्यले धरै वि || णघ णव संबर तेत्यु थिउ। पुणु दिण्णु पयाणउ भगहु गउ |॥२॥ पेमवि सवणु आसकिपउ। महु महापुराहिउ पमिकियउ ||३| जसु चमरें अमरें दिपणु वरु। सूलाउछ सयलाउह-पयरु ॥४॥ णिय सणय तासु लाएवि करें। घिउ णयर गम्पि कइलास-धरें ॥५॥ . मन्दाइणि दिट्ट मनोहरिन । ससिकन्त-णीर-णिज्मर-मरिय ॥६॥ गय-मय गई गइलिय-उभय-तः। स-नुरझम-कुझर गाय भड़ ॥७॥ वन्देप्पिणु जिणदर-भवणारे । दहमुहु दक्खचाइ णियाणाई ॥६॥ 'ह, सिद्ध सिद्धि-मुहकमल-अलि । जिष्णवरु भरहेसर याहुबलि ॥९॥
धत्ता प्रधु सिलासणे अत्तावा मच्छिउ' यालि-भडारउ | जसु पय-मागरें गरुवारण हउँ किउ कुम्मायारउ' ||१०||
E ] जम-धणय-सहासकिरण-दमणु। जंघिउ अट्टावएँ दहवयणु ॥ संपत्त वत्त णलकुवरहीं। दुल्लम-णयर-परमेसरही ॥२॥ परिचिन्तिज 'हय-गाय-रह-पव। भासपणे परिट्टिएं घरि-वलें 11३1 एरथु वि भमराहिवें रण अजएँ। जिण-चन्दणहत्तिएँ मेरु गएँ । एह अवसर उबाउ कवणु'। तो मन्ति पत्रोल्लिड हरिदवणुः ।।५|| 'वलवन्त जन्तई उपहाँ। चदिसु भासाल-विज उवहाँ ॥६॥ जं होइ अउ अभेउ पुरु। ता रक्खहुँ पापहजाण सुरु' ॥७॥ के णिसुणे वि तेहि मि तेम किउ । सत्-धिसु व ण पर दुलह पिड ॥६॥
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पण्णरहमो संधि
२५ [९] नारदको धीरज देकर महको वश कर उसकी कन्यासे पाणिग्रहण कर लिया । नौ वर्षे वहाँ रहकर फिर कूच कर वह मगध के लिए गया। रावणको देखकर मथुराका राजा मधु आशंकित हो उठा, रावणने इसे वशमें कर लिया, उसे घमरेन्द्र देवने समस्त आयुधोंमें श्रेष्ठ मुलायुध । विनाशकी कन्या भी अपने हाथमें लेकर, वह जाकर कैलास पर्वतकी धरतीपर ठहर गया। उसे सुन्दर मन्दाकिनी नदी दिखाई दी, जो चन्द्रकान्त मणियोंके नीर निर्झरोंसे भरी हुई थी, गजमदसे नदीके दोनों तट मैले थे | योद्धाओंने अश्वों और गोंके साथ स्नान किया। जिनवरके भवनोंकी बन्दना करनेके पश्चात् दसमुख निर्वाण स्थानोंको दिखाने लगा, "यह सिद्धिरूपी वधूके मुखकमलका भ्रमर, भरतेश्वर और बाहुबलि है ।।१.९|| __घत्ता-इस आतापिनी शिलापर आदरणीय वाली स्थित थे जिनके भारी पदभारसे मैं कछुएके आकारका बना दिया गया था। ॥१०॥
[१०] यम, धनद् और सहस्रकिरणका दमन करनेवाला दशमुख जब अष्टापद पर्वत पर था, तभी यह बात दुर्लध्य नगरके राजा नलकूबरके पास पहुँची।" वह सोचने लगा, "अश्व, गज और रथोंसे प्रबल शत्रुसेनाके निकट है, दूसरे इन्द्र के युद्ध में अजेय रावण इस समय जिनकी वन्दना-भक्ति करने के लिए मेरु पर्वतपर गया हुआ है, इस अवसर पर क्या उपाय किया जाये ।" तब हरिदमन नामक मन्त्री बोला, "बलवान् यन्त्र उठवा दो, चारों दिशाओं में आशालीविद्या स्थापित कर दो जिससे नगर अछेद्य और अभेद्य हो जाये, तभी इसकी रक्षा कर सकते हैं कि उसे भेद न मिले।" यह सुनकर उन्होंने भी ऐसा ही किया और सतीके चित्तकी तरह नगरको दुर्लध्य बना दिया ॥१-८॥
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पदमचरित
पत्ता साव विरुदेहि जस-लुद्धे हि रावण-भिश्च-सहा हि । बेडिट पुरवर संवच्छह णावह घारह-मासे हि ॥९॥
जन्त भयएँ बिहडफोहि। दहमुहद्दी कहि केहि मि मरेंहि ॥१ 'दुग्गेज्नु भद्धारा सं णयरु । सिद्धहु जिह सिहुअण-सिहरू ॥२॥ तहिं जन्त-सयई समुडियाई। जम-भरहूँ जमेण व छड़ियहूँ ।।३॥ . जोयणही मों जो संचरह । सो पडिजीवन्तु ण णीसरह ॥४॥ तं गिसुणे वि चिन्तावष्णु पहु। विउ नाम जाम उवाम्म बहु ॥५॥ अणुरत परोक्षए जे जसण। जिह मछुमार कुसुम-गन्ध-बसण ॥३॥ जगणइ कस्पुरु ण चन्दमसु । ण ण चन्दणु तामरसु ॥७॥ तहैं दसमी कामावस्थ हुय । विसग्गि-दृ उ कह मि मुय ॥७॥
घत्ता 'इमु मा जोवण ऍहु (सो) रावणु एह रिछि परिवारहों। भइ मेलावदि तो हर्के सहि एत्तिउ फलु संसारहों' ॥५॥
[१२] तंणिसुणे वि चित्तमाल चबइ। 'मइ हातिए काइँ ण संभषइ 491 पाएमु देहि छुडु पत्तडउ । ऐंड सुन्दरि कारणु केसडउ ।।२॥ सुद्द रुवहीं रावणु होइ जह। सइ वा तो एसदिय गई ॥३॥ तं णिमुणवि मणहर-हरयलु । उवरम्भा बिहसिउ मुइ-कमलु ॥४॥ पहले हद सहि ससिमुहिंस-गह । सो सुइउ प छह कह वि जाइ ||५|| भासास-विस तो रेहि सहो। अण्णु वि वजारहि दसाणणहाँ ॥६॥
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पण्ण रहमो संधि
૪૫
धत्ता - तबतक विरुद्ध यशके लोभी रावणके हजारों अनुचरोंने पुरवरको उसी प्रकार घेर लिया जिस प्रकार वर्ष को बारह माह घेरे रहते हैं ||९||
[११] यन्त्रोंके भय से चबढ़ाये हुए कितनों ही भटने दशमुखसे कहा, "हे आदरणीय, वह नगर दुर्ग्राह्य है ? उसी प्रकार, जिस प्रकार असिद्धोंके लिए मोक्ष | वहाँ सैकड़ों यन्त्र लगे हुए हैं, यमके द्वारा छोड़े गये यमकरणोंके समान । एक योजनके भीतर जो भी चलता है तो वह प्रतिजीवित नहीं लौट सकता।" यह सुनकर रावण जबतक चिन्ताकुल रहता है तबतक नलकूबरकी वधू उपरम्भा, उसका परोक्षमें यश सुनकर उसी प्रकार आसक्त हो उठती है जिस प्रकार मधुकरी कुसुम गन्धसे वशीभूत होकर उसे कपूर अच्छा लगता है और न चन्द्रमा । न जलार्द्रता चन्दन और न कमल । वह कामको दसवीं अवस्था में पहुँच जाती है। वियोगकी विषाग्निसे दग्ध वह किसी प्रकार मरी भर नहीं ||१८||
घचा - यह मेरा यौवन, यह रावण, यह परिवारका वैभव, हे सखी ! यदि तू मिलाप करवा दे तो संसारका इतना ही फल है ।" ॥९॥
[१२] यह सुनकर चित्रमाला कहती है, “मेरे होते हुए क्या सम्भव नहीं है? इतना आदेश-भर दे, शीघ्र । यह कितनी सी बात है ? रावण यदि तुम्हारे रूपका होता है (तुममें आसक्त होता है), तो लो ऐसी ही चाल होगी ।" यह सुनकर सुन्दर है अधरतल जिसका, उपरम्भाका ऐसा मुखकमल खिल गया । वह बोली, "हे हे चन्द्रमुखी हंसगति, वह सुभग यदि किसी प्रकार न चाहे तो उसे आशाली विद्या दे देना और
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२४
पडमचरित
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बुचा रहनु भर-बिह-लुइणु। तणिसुणे विदई जिग्गय ।
इन्दाबहु भन्छइ सुभरिसणु' कसाचासु णवर गहम ॥८॥
घत्ता
कहिउ दसासहाँ सुस्तासहों में उपरम्मएँ बुत्तड । 'एसित दाहण तुह विरहण सामिणि मरइ णिरुत्तउ ॥५॥
[१३] सवरम्भ समिछहि भज्नु जह। वो गं चिहि त संमवह ॥३॥ जासाली सिजाइ पुरवरु वि। सुभरिसणु चक्कु पहकुष्वर वि' ॥१॥ संणिसुणेवि सुख विचारसणहाँ। अवलोइड पयशु विहीसणहों ॥३॥ पइसारिब दुई मजणएँ। थिय वे षि सहोयर मन्तणएँ ॥४॥ 'अहो साहसु पमण पहु-मुषवि । महिल करइ तं पुरिसुण वि ॥५॥ दुम्मदिल जि भीसण जम-णयरि । दुम्माहित जि असणि जगन्त-यरि ।।। दुम्माहिल जिस-घिस भुया-फर्छ । दुम्माहिक जि वहवस-महिस-महा॥ दुम्महिल जि गाय पाहि णरहों। दुम्महिक जि परिध मा धरहों ॥६॥
धत्ता
भपा विहीसणु सुरु-दैसशु 'एत्थु एउ ण घट्टइ। . सामि णिसपणही णउ अण्णहाँ भेयही अवसरु वह ॥९॥
[५] जा कारणु वहरि सिद्धऍण | गपरें धण-कणय-समिवरण 191 तो कवडेण वि "इस्लामि" मणु । पुष्णालि असपि दोसु कबणु ॥२॥ सुडु केम वि विज समावडउ । उपरम्म सुझु पुणु मा परउ' ॥३॥ तं णिपुणेधि गउ दहगीत तहि। मजणयहाँ जिग्गय दूह जहि ॥४॥ देवाई पस्थर होइगई। भाहरण रमणुजोड्याई ॥५॥ केकर-हार-कटि सुसाई। उरई कडध-संजनाई ॥३॥
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पण्णरहमो संघि रावणसे यह भी कहना कि योद्धाओंकी लीख पोंछ देनेवाला ओ सुदर्शन चक्र इन्द्रायुध कहा जाता है, वह भी है।" यह सुनकर दूती गयी। वह केवल रावणके डेरेपर पहुँची ।।१-८1।
पत्ता-उपरम्भाने जो कुछ कहा था, वह उसने देवोंको सन्त्रास देनेवाले दशाननसे कह दिया। इतना और कि "तुम्हारे वियोगके दाइसे स्वामिनी निश्चित रूपसे मर रही है" ||२||
[१३] यदि तुम आज भी चाहने लगते हो, तो जो सोचते हो वह सम्भव हो सकता है। आशाली विद्या सिद्ध होती है, और पुरवर भी, सुदर्शन चक और नलकूबर भी।" यह सुनकर उसने अत्यन्त विचक्षण विभीषणका मुख देखा । दूतीको स्नान करने के लिए भेज दिया गया और दोनों भाई मन्त्रणाके लिए बैठ गये । “अहो साहस, जो स्वामी छोड़नेके लिए कहता है, जो महिला कर सकता है, वह मनुष्य नहीं कर सकता। दुर्महिला ही भीषण यम नगरी है, दुर्महिला ही जगत्का अन्त करनेवाली अशनि है। दुर्महिला ही विषाक्त सर्पफन है । दुर्महिला ही यमके भैंसोंकी चपेट है, दुर्महिला ही मनुष्यको बहुत बड़ी व्याधि है, दुर्महिला ही घरमें बाघिन है" ॥१-८||
पत्ता-शुभदर्शन विभीषण कहता है, "यहाँ यह घटित नहीं होता। हे स्वामी, बैठे हुए यहाँ भेदका दुसरा अवसर नहीं है ।।२।।
[१४] यदि कारण, शत्रुको जीतना और धन कंचनसे समृद्ध नगरको प्राप्त करना है, तो कपदसे यह कह दो, 'मैं चाहता हूँ।' असती और वेश्यामें कोई दोष नहीं । शायद किसी प्रकार विद्या मिल जाये, फिर तुम उपरम्भाको मत छूना। यह सुनकर दशानन वहाँ गया जहाँ दूती स्नान करके निकल रही थी। उसे दिव्य वस्त्र और रत्नोंसे चमकते हुए आभूषण दिये गये । केयूर हार और कटिसूत्र और कटकसे युक्त नूपुर ।
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२४८
पउमचरित
अवरइ मि देवि तोसिय-मणेण । भासाल-मित्र मग्गिय सणेण ॥७॥ ताएँ वि दिया परिसुट्टियाएँ। णिय हाणि ण जाणिय मुद्धिया॥४॥
घत्ता ताव विसाजिय भासालिय गहें गचन्ति पराइय । सं विमाहरु णककुन्धरु मुऍषि णा सिथ भाइय ॥१॥
गय दूई किन कलयलु भ. हिं। परिवेडिङ पुरवर गय-घहि ॥१॥ सण्णहवि समर पिच्छिन-मणहों । णलकुम्वरु भिडिउ विहीखणहाँ ॥२॥ बल बलही महाइ दुजयहो। रहु रहहाँ गइन्दु महागयहाँ ॥३॥ हउ यहाँ राहिल णरत्ररहों। पहरण-धरु घर-पहरण-धरहों ॥३॥ चिन्धिट चिन्धियहाँ समावडिङ । वइमाणित वइमाणिह भिडिउ ॥५॥ सहि न तुम भीमान ! हि सहसकिरण रण रावणेण ॥९॥ तिह विरह करविणु तक्खणेण। णलकुचर परिउ विहीसणेण ॥७॥ सहुँ पुरेण सिधु से सुरिसणु । उपरम्भ ण इच्छइ दहवयणु ॥८॥
घत्ता सो ज्ने पुरेसरु णलकुम्वरु णियय कर लेवाविउ । समउ सरम्भएँ उवरम्मएँ रज्जु स इं भुनाविउ ॥९॥
[१६. सोलहमो संधि शलकुम्बारे धरिय विभप पुढे वइरि तणएँ । णिय-मन्तिहि साहियउ इन्दु परिहिउ मन्तण ।
जे गूढ पुरिस पट्टविय तेण । ते आय पढीचा तपणेण ॥१!! परिपुष्ट्यि 'लह अपरषदों दवत्ति । केहउ पडु केहिय तासु सति ॥२॥ किं वल केहउ पाइस-कोउ। किं वसणु कवणु गुणु को वियोउ ॥३॥
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सोलहमो सास
२१९ और भी सन्तुष्ट मनसे देकर उसने एक पलमें आशाली विद्या मांग ली। परितुष्ट होणार उसने भी दे दी, वह मूर्खा अपनी हानि नहीं जान सकी ॥१-८।।
घत्ता-तबतक आशाली विद्या आकाशमें गरजती हुई श्रा गयी, मानो नलकूवर विद्याधरको छोड़कर उसकी लक्ष्मी ही आ गयी हो ॥२॥
[१५] दूती चली गयी। योद्धाओंने कोलाहल किया। गजघटाओंसे पुरवरको घेर लिया। नलकूबर भी सन्नद्ध होकर निश्चित मन विभीषणसे भिड़ गया। महायुद्ध में दुर्जेय बलसे बल, रथसे रथ, महागजसे गज, अश्वसे अश्व, नरवरसे नरवर, प्रहरमधारी प्रहरणधारीसे और चिह्न चिह्नसे भिड़ गये । वैमानिकोंसे वैमानिक । उस तुमुल घोर संग्राममें जैसे सहस्रकिरणको भीषण रावणने, उसी प्रकार विभीषणने तत्काल नलकूवरको विरथ कर पकड़ लिया। पुरके साथ सदर्शन चक्र भी सिद्ध हो गया । परन्तु दशाननने उपरम्भाको नहीं चाहा ॥१-८॥ __घत्ता–पुरेश्वर उसी नलकूबरसे अपनी आज्ञा मनवाकर उपरम्भाके साथ उसको राज्य भोगने दिया ||२||
. सोलहवीं सन्धि
नलकूबरके पकड़े जाने और शत्रुओंकी विजय घोषणा होने पर इन्द्र अपने मन्त्रियोंके साथ मन्त्रणाके लिए बैठा।
[१] उसने जो गुप्तचर भेजे थे वे तत्काल वापस आ गये । उसने पूछा, "लो जल्दी बताओ, वह (रावण) कितना चतुर है ? उसकी कितनी शक्ति है ! कितनी सेना है ?जा कितना है ?
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पडमचरिक तं गिसुणे धि दाशु-गुण-पेरिए हैं। सहसक्यहाँ मानिसउ हैरिएहि ॥१॥ 'परमेसर र रावणु अधिन्तु । उच्छाह-मन्त-पटु-सचि-यन्तु 11५|| चउ-बिन-माल -गाया। मालुस-पाइपमासु ॥६॥ सत्तविह-रसण-विरहिय-सरीरु। पहलदि-सचि-सा काल-पोर ॥७|| भरियर-घरग-विणासपालु। भद्वारविह-शिस्त्रापालु ८
घत्ता
तहाँ केरण साहुण सम्बु साम-सम्माणियट । पड कुबूङ लवड को त्रि मी अवमाणियउ ॥१॥
विणु णित्तिएँ एक्कु वि पर पप देह । भट्टविह-विणोएं दिवसु णे ॥१॥ पहरख पगाव-गवेसणेण । मन्तेउर-रायण-पेसणेण ॥२॥ पहह णघरु कम्हुल-खणेण ] अहबद अस्थाण-णियन्त्रण ३ पहरद्ध पहाण-देषवणेण । भोयण-परिवाण-विलेवणेण ||१11 पहर दष्व-भवलोयण। पाइ-पचिपाहुस-होयगेण ॥५॥
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सोलहमी संधि
१५१
क्या व्यसन हैं, कौन-सा गुण है ? क्या विनोद है ?" यह सुनकर राक्षस गुणोंसे प्रेरित गुप्तचरोंने इन्द्रसे कहा, "परमेश्वर, युद्धमें रावण अचिन्त्य है, वह उत्साह मन्त्र और प्रभुशक्तिसे युक्त है। चारों विद्याओं में कुशल, और ६ गुष्पोंका निवास हैं। उसके पास ६ प्रकारका यल और ७ प्रकारकी प्रकृतियाँ हैं । उसका शरीर ७ प्रकारके व्यसनोंसे मुक्त है । प्रचुर बुद्धि, शक्ति, सामर्थ्य और समय से गम्भीर है । ६ प्रकारके महाशत्रुओं का विनाश करनेवाला और १८ प्रकारके तीर्थोंका पालन करनेवाला है ।। १-८|| पत्ता - उसके शासनकालमें सभी स्वामीसे सम्मानित हैं। उनमें कोई क्रुद्ध लुब्ध नहीं है। कोई भी भीरु और अपमानित नहीं है ॥९॥
[२] नीति के बिना वह एक भी पग नहीं देता, आठ प्रकार के विनोदोंमें अपना दिन बिताता है। आधा पहर प्रतापकी खोज में, और अन्तःपुरकी रक्षा और सेवामें, आधा पहर गेंद खेलने, अथवा दरबार लगाने में, आधा पहर स्नान और देवपूजामें, भोजन- कपड़े पहनने और विलेपन में । आधा पहर द्रव्यको देखने
१. विद्याएँ ४ हैं - आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनोति । सांख्य योग और लोकायत को बान्वीक्षिकी कहते हैं । साम ऋग् और यजुर्वेद त्रयी कहलाते हैं । कृषि, पशुपालन और बाणिज्य वार्ता है। गुण ६ होते हैं - सन्धि विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव । बल ६ हैं - मूलबल, भृत्यचल, श्रेणिबल, मित्रबल, अमित्रवल और अविकल प्रकृतियाँ ७ हैं - स्वामी, अमात्य राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना और सुहृद् । व्यसन ७ हैंद्यूत, मद्य, मांस, वेश्यागमन, पापघन, चोरी, परस्त्रीसेवन | अन्तरंग शत्रु ६ है - काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष । तीर्थ अठारह हैंमन्त्री, पुरोहित, सेनापति, युबराज दौवारिक, अन्तर्वेशिक, प्रशास्ता, समाहर्ता, संविधाटा, प्रदेष्टा, नायक, पौर, व्यावहारिक, कर्मान्तक मन्त्रिपरिषद्, दण्ड, दुर्गान्तपाल और भाटविक
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१५२
पहर लेह वायण-खणेण । पहस्तु सहर-ग लवल-बल-दरिसणेण ।
पश्चरण
पउमचरिय
पहरखु नराहिउ जमथाण परिनि
जिह दिवसुतेम froाप्य राय । पहिलए पहर विचिन्तमाणु | वीय गुणणे त्रि पहाणासणेण । तयएँ जय तूर- महारवेण । चरस्थऍपमें सोच-षण । छह-पष्टह- घिडणेण । सप्तमेँ मन्तिहि स मन्तणेण । अट्टमें सासणार- पेसणेण । महणसि परिपुच्छ आखणेण ।
इथ सोलह-भाएँ हि मणु जुज्झहों उप्पर
सासणहर हेरि-विसजमेण ॥३॥
अश्वगन् र-ग-म-इ-गवेसणेण ॥८॥
घसा
सेणावइ-संभावण
परमण्डक - आरूसणेण ॥१२॥
[2]
णिसि णेह करेपिणु अट्ट भाय ॥१॥ अच्छे णिगूद्ध पुरिसें हिं समाणु ५२ अहवह पवरह- खुड-इ-संसणेण ॥ ३ ॥ अन्तेउरु विसद् मणुच्छषेण ॥४॥ चदिसु दिवेण परिरक्खणेण ॥५॥ सम्मरयसत्थ- परिक्षण ॥ ६ ॥ णिय - रज्ज - कज्ज -परिचितणेण ॥ ७ ॥ सुविधा में वेज्ज-संभासणेण ॥८॥ पिम्मिति पुरोडिय घोसणेण ॥९॥
धत्ता
दिवसु विरयणि विशिष्वह । तासु णिरास्डि उच्छह ॥ १० ॥
[ * ]
सुम्हš हूँ एक्कविणाहिँ सन्ति । सुविण वाळसणें जें णड मिह सत्तु | जय णामउ छु छु
दसासु
विण हुब उच्छाइ सस्ति ।।१७ नाह मंसु जि क्रिउ कुठार-मेन्तु ॥२॥ जब साहित विजा-सहासु ॥३॥
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I
सोहमो संधि
२५३
और उपहार प्रत्युपहार रखनेमें, आधा पहर पत्र बाँचने और आदेश प्राप्त गुप्तचरोंको निपटानेमें, आधा पहर स्वच्छन्द विहार और अन्तरंग मन्त्रणामें, आधा पहर समस्त सेनाके निरीक्षण तथा रथ- गज-अश्व और वज्रके अन्वेषण में ||१८|| क
घत्ता - आप पर
करता है। यदि वह शत्रुमण्डलसे नाराज होता है, तो उसे सीधा यमके स्थान भेज देता है" ॥९॥
[३] "हे देवराज, जिस प्रकार दिवस उसी प्रकार वह रातको भी आठ भागों में विभक्त कर बिताता है। पहले आये पहर में गूढ़ पुरुषोंके साथ विचार-विमर्श करता हुआ बैठा रहता है, दूसरे में स्नान और आसन, अथवा नवरतिके शुभदर्शन करता है। तीसरेमें जयसूर्य के महाशब्द के साथ प्रसन्नमन अन्तःपुरमें प्रवेश करता है। चौथे पहरमें खूब सोता है और चारों दिशाओंकी दृढ़ता से रक्षा करता है। छठे पहर में नगाड़े बजाकर उसे उठाया जाता है, वह सर्वार्थ शास्त्रोंका अवलोकन करता है। सातवें में मन्त्रियोंके साथ मन्त्रणा करता है । अपने राजकार्य की चिन्ता करता है। आठवें में शासनधर जनोंको भेजता है और प्रातःकाल वैद्यसे सम्भाषण करता है। रसोईघरमें पूछताछ करता है और बैठता है, नैमित्तिकों और पुरोहितोंसे बात करता है || १-२॥
धत्ता - इस प्रकार १६ भागों में विभक्त कर वह दिन और रातको व्यतीत करता है। युद्ध करनेके लिए उसका मन निरन्तर उत्साह से भरा रहता है" ॥१०॥
[४] तुममें सन्तोष करने लायक एक भी बात नहीं है । उत्साहशक्ति तुममें स्वप्न में भी नहीं है । जब शत्रु छोटा था, तत्र तुमने उसे नहीं मारा, जो नखके बराबर था वह अब कुठारके बराबर हो गया, जब दशाननका नाम ही नाम हुआ
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२५४
परमवरित जइयर्ह करें बग्गड चन्दहासु। जब मन्दोयरि दिण्ण तासु ॥४ अइय? सुरसुन्दर वक्षु कण । जइबहुँ प्रोसारित समरें धणड ॥५॥ साइपहुँ जगभूसणु परिउ णाउ । अहमहुँ परिवविउ कियम्स-राउ ॥६॥ जझ्यहुँ सुन्तणूयरि मा । प्राण प्रणात कि ji तइग्रहुँ में णाहिजे णिहउ सप्तु । सं एवहि वडारउ पयत्तु' ॥८॥
घत्ता घुबह सहसपखें कि केसरि सिसु-करि बहह । पञ्चेल्लिज हुभवहु सुका पायउ सुहु बहा' ॥९॥
[५]
पच्चसह वैवि गइन्दनामणु । पुणु हुक्कु सक्कु एवन्त-भवणु ॥१॥ जहि भेउ न मिन्दर को वि सोट । अहिं सुअ-साग्यि विणाहिं दोउ ॥२॥ सहि पहसवि पमण अमर-राउ । 'रिउ दुज्जर एषहि को उबाउ ॥३॥ कि सामु भेस कि उवचयाणु । किं दण्ड बुझिय-परिपमाणु ॥४॥ किं कम्मारम्भुववाय-मन्छ। किं पुरिस-दष्व-संपति-वस्तु ॥५॥ किं देस-काल-पविहाय-सारु । विणिवाइय-पविहार चार ॥६॥ कि काज-सिद्धि, पामा मस्तु । को सुन्दरु सच-विसार-धन्तु' ॥७॥ तो भारदुवाएं कुसु एम। 'जं पई पारवड त जि देव ॥८॥ अजन्ते गवर णिवाद छे'। पर मन्तिहि संघलु मन्त-मज' ॥९॥ सं णिसुणे वि मणइ विसालचाखु । ' पई उम्गाहिउ कवणु एक्स्तु।।१०॥
सा मा सुरबह पहु मन्वि-विहणड
पत्ता
जो पीसेसु रज्जु करइ । चउरशिहि मि ण संघरह ॥१॥
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सोलहमी संधि
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था और जब उसने हजार विद्याएँ सिद्ध की थीं, जब उसके हाथमें वळवार आयी थी, जब उसे मन्दोदरी दी गयी थी, जब उसने सुरसुन्दर और कनकको बाँधा था, जब उसने युद्धसे धनदको खदेड़ा था, जब उसने त्रिजगभूषण महागजको पकड़ा था, जब उसने कृतान्तको सारा था, जब बहु तबूहराका अपहरण करने के लिए गया था, और भी रत्नावली से पाणिग्रहण किया था, उस समय तुमने जो शत्रुका नाश नहीं किया, उससे अब वह इतना बड़ा हो गया ||१-८ ॥
धत्ता-इन्द्र कहता है, "क्या सिंह गजके बच्चे को मारता है, कि आग सूखे पेड़को आसानीसे जला देती है" ॥९॥
[५] यह उत्तर देकर गजगति से चलनेवाला इन्द्र एकान्त भवनमें पहुँचा । जहाँ कोई भी आदमी भेटको न ले सके। जहाँ शुक और सारिका को भी नहीं ले जा सकते। वहाँ प्रवेश कर अगरराज पूलता है, "इस समय शत्रु अजेय हैं, क्या उपाय हैं ? क्या साम, दाम और भेद ? क्या दण्ड जिसका परिणाम अज्ञात हैं ? कर्म आरम्भ और उपवयका मन्त्र क्या है, पौरुष द्रव्य और सम्पत्तिसे युक्त होनेका उपाय क्या है ? देशकालका सर्वश्रेष्ठ विभाजन क्या है ? प्रतिहारको किस प्रकार ठीकसे विनियोजित किया जाये ? कार्य की सिद्धिका पाँचवाँ मन्त्र क्या है ? सत्य विचारवान् सुन्दर कौन हैं ?" यह सुनकर भारद्वाज ने कहा, "हे देव, जो आपने प्रारम्भ किया है, वही ठीक है । कार्यके समाप्त होने पर ही इसका रहस्य प्रकट होगा | परन्तु मन्त्रियोंसे केवल मन्त्रभेद करना चाहिए।" यह सुनकर विशालचक्षु कहता है, "यह तुमने कौन-सा पक्ष उद्घाटित किया है ? ॥१-१०॥
घत्ता-इन्द्र तो ठीक जो अशेष राज्य करता है नहीं तो प्रमु मन्त्रीके बिना शतरंज में भी चाल नहीं चलता” ॥११॥
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पारासह पभणह 'विहि मणोज्नु । उ एक्कै मलिए रज्ज-कज्जु ॥१॥ विलुणेण मुनिवि होन्ति । अवरोप्परु घर्मेचि कुमन्तु देति ॥ २ ॥ कवि 'करण भन्ति । विवि मारि विवाह मन्ति' ॥३॥ मणु चमड् 'गरुन चार वृद्धि । जए विहिं विहिं कम-सिद्धि' ॥४॥ संणिसुदिपसाइ अमरमस्ति । 'असुन्दरु जड़ सो हन्ति ॥ ५७ मिगुणन्दणु षोड 'बुद्धिषन्तु । अफिस बोलहिं होइ मन्तु ॥५॥ निसुर्णेषि चव सहासनगणु विणु मम्ति सहासे मन्तु कवणु ॥ ७ ॥ अण्णही अण्णारिस होड़ बुद्धि । अकिलेसें सियाह कज्ज-सिद्धि ॥८॥
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अबकारि सवेंहिं तो समदसा
घत्ता
'अम्स फेरी बुद्धि नह सुम्दर सन्धि सुराहिव ॥ ९ ॥
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खुद्द मध्यस्थ पमणन्ति एव ।
कहिँ सम्म उत्तम सन्धि देव ॥११॥
ही तर परमेसर कवण हाणि । खइ साम- मेष- दाणेंहिं जि सिद्धि मच्छन्ति वाकि रशु संभरेवि । कणीक ते विवि असुद्ध खर-दूसणा विनिय पाण- भोय माहेसरपुर बइ-मरुणरिन्द ।
वि माकिहें सिरु खुडें वि धित्तु । अण्णु वि जइ रावणु होइ मित्तु ॥२॥ अहि असह तो विसिहि महुर-वाणि ॥ ॥ । तो दण्डे पक्षिए करण विद्धि ॥४॥ सुग्गी-बन्दकर कुछ वे वि ॥५॥ सुम्बन्ति शिरारिउ अस्थ-लुद्ध ॥१६॥ कज्ज्रेण जेण चन्दणहि णीय ॥ ॥ ॥ भवमा वि वसिकिय जिड़ गइन्द || 4 ||
घन्ता
आरहिं उबाऍ हिं
मेइज्जन्ति णराहिषड् ।
दहवचन- किशु जाह वूड चित्त जइ ॥९॥
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सोलहमो संधि [६] तब पाराशर कहता है, "दो मन्त्री होनार र है। एक मन्त्रीसे राज्यकार्य नहीं होता।” नारदने कहा-"दो भी नहीं होने चाहिए । एक दूसरेसे मिलकर खोटे सलाह दे सकते हैं।" तब कौटिल्यने कहा, "इसमें क्या सन्देह है, तीन या चार मन्त्री ही सुन्दर हैं।" मनु कहते हैं, "बारह मन्त्रियोंकी बुद्धि भारी होती है, एक-दो या तीन मन्त्रियोंसे कार्य-सिद्धि नहीं होती।" यह सुनकर बृहस्पति कहता है, "आते सुन्दर है यदि सोलह मन्त्री हो तो। भृगुनन्दन कहता है, “बीस होनेपर मन्त्र बिना कष्टके विवेकपूर्ण होता है ।" यह सुनकर इन्द्र कहता है, "एक हजार मन्त्रियोंके बिना कैसा मन्त्र ? एकसे दूसरेको बुद्धि होती है और बिना किसी कष्टके कार्यकी सिद्धि हो जाती है" ||१-८|| ___ पत्ता तब सबने इन्द्रका जयकार किया और कहा, “यदि हमारा मन्त्र माना जाये तो हे इन्द्र, दशाननके साथ सन्धि कर लेना सुन्दर है" ॥९||
• [७] "पण्डित और अर्थशास्त्र यही कहते हैं कि हे देव, उत्तम सन्धि करना कठिन है। एक तो तुमने मालिका सिर काटकर फेंक दिया, दूसरे यदि रावण तुम्हारा मित्र बनता है तो इसमें क्या नुकसान हँ ? मयूर साँप खाता है, परन्तु वाणी सुन्दर बोलता है। यदि साम, दाम, दण्ड और भेदसे सिद्धि होती है तो दण्डका प्रयोग करनेसे कौन-सी वृद्धि हो जायेगी ? बालीके युद्धकी याद कर सनीय और चन्द्रोदर दोनों क्रुद्ध हैं । नल
और नील, वे भी हृदयसे अप्रसन्न हैं। सुना जाता है कि वे धनके अत्यन्त लोभी हैं। खरदुषण भी अपने प्राणोंसे डरे हुए हैं। वे जिस प्रकार चन्द्रनत्राको ले गये थे। माहेश्वरपुरपति और राजा मरुको अपमानित कर महागजको वश में किया ॥१-८॥
धत्ता-इन उपायोंसे राजाका भेदन करना चाहिए। यदि चित्रांग दूत दशाननके घर जाये तो यह सुन्दर होगा" !RIL
१७
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૨૫૮
पउमचरिउ
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चिसङ्ग कोकिउ तक्रणेण ॥१॥ गडणारं रावण- भवणु ताम १२ ॥ परिरक्षहि सन्धावारु साउ ||३|| उषीस - पवर-गुण-सार-भूउ ॥४॥ सुग्गीव-समुह विज्जाहराहँ ॥५॥ वोलिज्ज सन्धि दोह जेव ॥ ६ ॥ आवग्ग कइ हरेवि रज्जु ॥७॥ सक्किज्जइ यो पुणु असक्कु || ||
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तं मन्ति-वयणु पडिवण्णु तेण । सिक्स पुरन्दरु किंपि जाम | 'ओसारे वि दिग्जद कृष्ण-जाउ । असइ इन्द्रों ताउ दूर । सो भेउ करेस स्वराहँ
सहु तेण महुर-वयणेहिं देव । सो धोबड तुहुँ पुणु पत्रलु अज्जु । rry जे अवसर संगाम सक्कु 1
मरु-जग्र्गे दसाणण चारों तहाँ मई
घत्ता
बहुसंघ-बुद्धि-गीइड सरन्तु | स-सणेहु समावि करेषि । वहलणड दिष्णु संवाहु भोरु । पुज्जेष्पिणु कप्पिणु गुण-समाई।
जं पई विश्व रक्षियत । परम भेउ ऍडु अक्खियउ ॥९॥
[ 3 ]
'पर-पुसि ण विसन्ति प्रेम । एसडिय परोपर बोल जाब । पुर- राधि बहु संघवन्तु ।
गडणारउ कहि मि इङ्गणेण । सेणाव बुत्तु दसाणणेण ॥१॥ परिरक्खहि सन्धावार सेम ॥२॥ चित्तगु स-सन्दणु भाउ शान ॥३॥ क्वन्तोसामिति धन्तु ( 2 ) ॥४॥
रण- दुग्ग-परिग्गह-महि नियन्तु । उत्तर हो पहु तह चिन्तवतु ॥५॥
मारिश्चि मत्रणु पसह तुरन्तु ॥ ६ विउ पासु गरिन्दों करें घरेवि ॥ ७॥ चूडामणि कण्ठउ कदउ दोरु ॥८॥ पुणु पुच्छिउ 'बहु पमाणु का ४९
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सोलहमो संधि
२५९ [८] उसने मन्त्रीके वचनको स्वीकार कर लिया। उसने सत्काल चित्रांग दूतको बुलवाया। इन्द्र उसे कुछ तो भी सिखाता है, जबतक, तबतक नारद रावणके पास जाता है।
और उसे एकान्त में ले जाकर कानमें कहता है, “अपने स्कन्धावारको सुरक्षित रखो, चौबीस श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त इन्द्रका दूत आयेगा, वह नरवरों और सुग्रीव प्रमुख विद्याधरोंमें फूट डालेंगा, उसके साथ मधुर वचनोंमें इस प्रकार बात करना, जिससे सन्धि न हो । वह थोड़ा है, और आज तुम प्रबल हो, वह तुम्हारे राज्यका अपहरण कर स्थित है, इस अवसर पर संग्राममें इन्द्रको संकट में डाला जा सकता है. नही तो मादमें वह अशक्य हो जायेगा" ||१-८
धत्ता-“हे दशानन, मरुयज्ञमें जो तुमने विघ्नोंसे मेरी रक्षा की, उसी उपकारके कारण मैंने यह परम रहस्य तुम्हें बताया" ॥२॥
[२] नारद आकाशमार्गसे कहीं चले जाते हैं। दशानन सेनापतिसे कहता है, "कोई गूढ पुरुष किसी भी प्रकार प्रवेश न कर सके, स्कन्धावारकी ऐसी रक्षा करना।" जबतक दोनों में इस प्रकार बातचीत हो रही थी तबतक चित्रांग रथसहित वहाँ आया। पुर, राष्ट्र और अटवी तथा युद्ध दुर्ग परिग्रह और धरती को देखता हुआ, उत्तर-प्रत्युत्तरका विचार करता हुआ बहुत-से शान बुद्धि और नीतिका अनुसरण करता हुआ वह तुरन्त मारीचके भवन में प्रवेश करता है। सस्नेह उसका आवर करके मारीच उसका हाथ पकड़कर राजाके पास ले गया। रावणने भी उसे बैठाकर बढ़िया पान, चूडामणि, कण्ठा, कटक और दोर प्रदान की। आदर कर और सैकड़ों गुणोंकी कल्पना करते हुए उसने पूछा, "आपकी कितनी सेना है ? ॥१-२||
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पउभचार
पत्ता बुखइ चिसङ्गेण देवहाँ सीसइ गरेंण । सं कयणु दुलउ जण वि दिटु दिवायरॅण' 10॥
[10] तं वयणु सुधि परितु राउ। 'मई चिन्तिउ को वि कु-दूउ भाउ॥५॥ जिम सासणहरु जिम परिमियाथु । एव हि मुणिमो-सि णिसिद्ध-अल्थु ॥२॥ धषणउ सुरवइ सुई नासु मत्त । थापास-पु-Eि मणु भणु पेसिड कम्जेण केण' । विहसेवि वृत्त चित्तंगएण ॥३॥ 'पहु सुन्दर भम्हहुँ लणिय बुद्धि । सुह जीव? के वि करेचि सन्धिा !५॥ रूवबह-णाम रूवें पसण । परिणेपिणु हन्दहाँ सणिय कण्ण ॥६॥ करि मा-परिहं विजय-जत्त। चल सच्छि मणूसही कषण मत्त ॥७॥
पत्ता इमु वयणु महारउ तुम्हहें सम्वई थाउ मण । निह मोक्तु कु-सिद्धही तेमण सिझइ इन्दु रणे' ||६॥
{"] सं सुणे वि सत्तु-संतामणेय । विस्तछगु पमणि राबणेण ॥१॥ 'धेयरहों सेठिहि जाई जाई। पपणस व सहि वि पुरवराई ।।२।। सम्बई महु अप्पे वि सन्धि काहों। गं तो कल्लए संगामें मरहो' ॥३॥ संणिसुर्णेवि पहरिमियगए। दहवयशु वुत्तु चित्तएण ||४|| 'एक्कु वि सुरषद् सपमेव उग। अण्णु वि रणेडर-णयरु दुग्गु ॥५॥ परिभमियउ परिहउ सिपिण तासु । सरिसाउ जाउ स्यणायरासु ॥ संकम वि घपारि पहिसासु। घउ-वारई एकए सहासु ॥७॥ वचन्तहुँ जन्त मीसगा। भक्खोहगि अक्खोइणि रणा ॥४॥
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सोलहमो संधि
२६१ घत्ता-चित्रांग कहता है, "नरकी क्या देवसे तुलना की जा सकती है जो सूर्यते भी नहीं देखा, वह भी क्या उसे दुर्लक्ष्य है ?" ||१०||
[१०] यह सुनकर रावण सन्तुष्ट हुआ। उसने कहा, "मैंने समझा था कोई कुदूत आया है, आप जैसे आज्ञाकारी है, वैसे ही यथार्थद्रष्टा हैं । आप निषिद्ध अर्थोंको भी विचार करनेकी क्षमता रखते हैं, वह इन्द्र धन्य है जिसके पास तुम-जैसा दूत हैं, जिसे पचीस गुण और ऋद्धि प्राप्त हैं, बताइए बताइए, किस लिए तुम्हें भेजा है।" तब हंसते हुए चित्रांगने कहा, "हे परमेश्वर, हमारा यही सुन्दर विचार है कि दोनों सन्धि कर, सुखसे जीवित रहे। रूपमें सुन्दर, रूपवती नामकी इन्द्रकी कन्यासे विवाह कर लंकानगरीमें विजययात्रा निकालें, मनुष्यकी लक्ष्मी चंचल होती हैं, उसकी क्या सीमा ?" ॥१-७॥
पत्ता-"यह हमारा वचन, आप इसको अपने मनमें थाह लें, जिस प्रकार कुसिद्धको मोक्ष सिद्ध नहीं होता, उसी प्रकार युद्धमें इन्द्रको नहीं जीता जा सकता" ||८||
[११] यह सुनकर शत्रुको सतानेवाले रावणने चित्रांगसे कहा, "विजयाध पर्वतकी श्रेणीपर जो पचास-साठ पुरवर है, वे सब मुझे देकर सन्धि कर लो, नहीं तो कल संग्राममें मरो।" यह सुनकर प्रहर्पितजंग चित्रांगने रावणसे कहा, "एक तो इन्द्र स्वयं उग्र है, दूसरे उसके पास रथनूपुर नामका दुर्ग है । वह तीन परिखाओं से घिरा हुआ है जो रत्नाकरके समान विशाल हैं, चार दिशाओं में चार परकोटे हैं, चार द्वारोंपर एक-एक हजार सैनिक हैं। अलवान् और भीषण यन्त्रोंकी एकएक अक्षौहिणी है ॥१-८॥
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२६२
पउमचरिउ
घत्ता
कोण-परिमाण
जो तुक सी गउ जिय ।
जिह दुज्जण वयगहुँ को वि ण पासु समिलियइ ॥ ९ ॥
जसु एहउ अस्थि सहाउ दुग्गु । जसु कटु कष भहुँ गया हूँ । संकिण- गइन् बोस लक्ल । एउ पहिला मूळ - सेण्णु । atra सेणी-बन्दु दुणिवाह | दुज्च पञ्चम अमित-सेन्जु । रावण पुणु बूह नाहि छेउ । इय-गय-रह-पर- जुज्झहुँ तहेच ।
सुबह दहवय तो अप्पन घसमि
[R]
अण्णु वि साइणु अञ्चन्त - उग्गु ॥१॥ बारह मन्दहुँ सोलह मया हूँ || २ || रह- तुरय-भवहं पुणु णत्थि सङ्घ ॥ ३ ॥ बलुवीय मिश्च सणउ अण्णु ॥ ४ ॥
उथल मित्त वलु अणाय पारु ॥५॥ छड आडविच अणाय- गण्णु ॥३॥ अमरा चि वलण मुणन्ति मेउ ॥७॥ सो सुरबड़ जिज्जद समरें केव ॥८॥
धत्ता
'जइ सं जिमि र आइयाँ । जामालाइ जलणें ॥९॥
[ 1 ]
इन्दइ पभणह 'सुर-सार-भूअ ।
किं जम्पिएण वहवेण दूर ||१|| जं किउ जम धणय विधि मि ताहें। जं सहस्रकिरण-लकुम्बराई ॥२॥
सं तुह वि करेसह ताउ अज्जु । संवयणु सुर्णेवि उट्टन्तपुर्ण । 'णिमन्ति-सि इन्द्रेण देव | सिरिमाथि कुमारें हिं सविधर्हि । सुग्गीय तु भि साहब
खहु ठाउ पुरन्दरु जुज्झ सज्जु ॥३॥ चिसमें कुम्बइ जन्तपूर्ण ॥ || विजयन्ते इन्दर तुहु मि तेव ॥ ५॥ ।। ६ ।।
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सोलहमी संधि
२६३
घत्ता-जो व्यक्ति एक योजनके भीतर चला जाता है वह जीवित नहीं बचता, उसी प्रकार, जिस प्रकार दुर्जन मनुष्यसे कोई नहीं मिन्टना ॥२॥
[१२] जिसके ऐसे सहायक और दुर्गहों तथा दूसरे भी साधन अत्यन्त उग्र हो । जिसके पास आठ लाख भद्गज हों, बारह लाख मन्द और सोलह लाख मृगगज, बीस लाख संकीर्ण गज हां, तथा रथा, अश्व और योद्धाओंकी संख्या ही नहीं है। यह उसकी पहली मूल सेना है, दूसरी सेना अनुचरों की है। तीसरा दुनिर श्रेणी चल है, चौथा अझातपार मित्रबल है, पाँचवीं अजेय अमित्र सेना है, छठी है आदविक सेना, जिग्न की गणना अज्ञात है। हे रावण, उसकी उगृह-रचनाका अन्त नहीं है, देवता भी उसकी सेनाका भेद नहीं जानते | अश्व, गज, रथ और नकि उस युद्धमें वह इन्द्र तुम्हारे द्वारा कैसे जीता जा सकता हूँ ?" ||१८|| ___ पत्ता-दशवदनने तब कहा, “यदि उसे मैं युद्ध में नहीं जीतूंगा तो ज्वालमालाओंसे युक्त आगमें अपने आपको होम दूंगा ?" ॥९||
[१३] इन्द्रजीत कहता है-“हे सुरसारभूत दूत, बहुत कहनेसे क्या? जो हाल हमने यम और धनदका किया, और जो सहस्रकिरण और नलकूबरकातात, आज वही हाल तुम्हारा करेगा । इसलिए इन्द्र ठहरे और युद्ध के लिए तैयार हो जाये।" यह वचन सुनकर और उठकर जाते हुए चित्रांगने कहा, "हे देव, इन्द्र के द्वारा आप निमन्त्रित हैं, इन्द्रजीत विजयन्तके द्वारा तुम भी आमन्त्रित हो। श्रीमालि कुमार शशिध्वजके द्वारा आमन्त्रित है, सुग्रीय, तुम भी शाखाध्वजियों (वानरों)के द्वारा आमन्त्रित हो, यमराजके द्वारा जाम्बवान्, नल और नील,
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२६४
जमराएं जम्बच-गील हो । सोमेण बिहीण कुम्मयण्ण ।
परिवार्डिएँ तुम्ह भुजेवर सवें हिं
सण वि पुरन्दरु
णं विज्झ उप्पर
पउमचरिय
।
गड एम मण वि चित्त ते 'परमेसर दुज नाहाणु । तं निसुर्णेवि पवलु अराष्ट्र-पक्तु । हय मेरि तूर पड़ उह् वज । एक्खरिथ तुरङ्गम जन सवड । बीसासु वसु रण-भर समस्य । किंपुरिस गरुड़ गन्धव्य जक्ख । जं यर-ओलिहि वलु ण माइ
।
मिग- मन्द-मह-संकिण्ण-गादि । बिउ अग्गएँ पच्छाएँ भव-समूहु । सुरवर स एवर-पहरण कराळ | सियाहररतुष्पदळकल
हृय पक्ष चञ्चल वलमा
ऍड जेसिड स्क्खष्णु गपधरासु ।
हरिसिं हत्थ-पहर खड़ों ॥७॥ अवरेहि मि केहि मि के त्रिष्ण ॥4
घत्ता
[ १७ ]
सुर-परिमिड सुरवर-राउ जेधु ॥ १ ॥ करे सन्धि तुम्हें हिं समाणु' ॥ २ सण्णा सरह दससयवस्तु ॥ २ ॥ किय मत्त महागय सारि-सज्म ॥ ४ ॥ जस-लुद्ध कुछ सण्णव सुहव ॥ ५ ॥ जम-ससि कुबेर पहरण-विहृत्य || ३ || किष्णर पर असर बिरल्कियख ॥७॥ तं इयण उपऍषि जाइ ॥८॥
घत्ता
[
दिणरु एउ णिमन्तणउ |
गरुन पहारा भोयण ॥९॥
-
णिसाउ भइरादऍ चति ।
सस्य महाषणु - पामति ॥ ९॥
१५ ]
घद्ध विरवि पहिं चाव सऍहिं ॥१॥ सेणाव -मन्सिहिं रह चू. हु ॥ १ ॥
काहिँ पहिलो मवाल ॥३॥ गऍ गएँ पण्णारह गसक्ख ॥ ४ म तिमि तिणि इऍ इऍ स खम्भा ॥५ सेसिउ जे पुणु वि धिट रहबरासु ॥५॥
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सोहमी संधि
२६५
हरिकेश के द्वारा बलहस्त और प्रहस्य, सीम द्वारा विभीषण और कुम्भकर्ण निमन्त्रित हैं। इसी प्रकार दूसरों - दूसरों के द्वारा दूसरे दूसरे आमन्त्रित हैं ॥१-८||
धत्ता — परम्परा अनुसार ही तुम्हें यह निमन्त्रण दिया गया है, तुम सब भारी प्रहारोंका भोजन करोगे !" ॥९॥
[१४] यह कहकर चित्रांग वहाँ गया जहाँ देवताओंसे घिरा हुआ इन्द्र था । वह बोला, “परमेश्वर, राक्षस अजेय है, वह तुम्हारे साथ सन्धि करने को तैयार नहीं है।" यह सुनकर प्रबल शत्रुपक्ष और इन्द्र तैयार होने लगा । भेरी और तूर्य, पट्ट-पट तथा वा बजा दिये गये । मत्त महाराजों की झूले सजा दी गयीं। तुरंगको कवच पहना दिये । रथ जोत दिये गये । यश के लोभी क्रुद्ध सुभट तैयार होने लगे। रणभारमें समर्थ विश्वावसु, वसु हाथमें हथियार लेकर, जम-शशि और कुबेर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व और यक्ष- किन्नर, नर और विरलिया अमर । जय नगर के मुख्य द्वारपर सेना नहीं समायी तो वह उछलकर आकाश तलमें जा पहुँची ॥१-८||
घत्ता — इन्द्र सन्नद्ध होकर ऐरावतपर चढ़ गया मानो विन्ध्याचलके ऊपर शरद के महाघन आ गये हों ॥२९॥
[१५] मृग-मन्द-भद्र और संकीर्ण गजों और पाँच सौ धनुर्धारियोंसे घटाकी रचनाकर, आगे-पीछे भद्र समूह बैठ गया। सेनापति और मन्त्रियोंने व्यूहकी रचना की प्रवर हथियारोंसे भयंकर सुरवर सघन कक्षों और पक्षोंमें लोकपाल, ओठ चबाते हुए, रक्त कमलके समान आँखोंवाले पन्द्रह अंगरक्षक प्रत्येक गजके पास थे । पाँच-पाँच चंचल अब रखे गये, प्रत्येक अश्वके साथ तीन-तीन योद्धा तलवार के साथ रखे गये ! महागजों का यह जितना भी रक्षण था, उतना ही रक्षण रथवरों
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पउमचरित
पसदह भङ्गकिहि भरो णराय: पसहि पहिं गउ गयवरासु।
ग्यलिहि हि निति इट लगाम धाशुकिउ छहिं धाणुडियासु ॥४॥
पत्ता
संरएप्पिणु समरगणें मेणि
भीसणु तस्वमालु किं । सक्कु स ई भूसेवि थिउ
॥
[ १७. सत्तरहमो संधि ] मन्सणाएँ समत्तर दू मियतएँ उभय-बलहँ अमरिसु चहह । सइलोक-मयङ्कर सुरवर-दामा राधणु इन्दही अम्भिबाह ।।
किय करि सारि-सज्ज पक्ररिय तुरय-यहा ।
उहिमय धय-णिहाय स-विमाण रह पयहा ।।१॥ आइय समर-मेरि मीसावणि। सुरवर-बहरि-वीर-कम्पावणि ॥२॥ इत्य-पहस्थ करें वि सेणावद। दिण्णु पयाणड पचलिउ गरवइ ॥३॥ कुम्मयण्णु सकेस-विहीसण। जळ-सुगीच-णील-स्वर-दूसण ॥४॥ मय-मारिध-मिश्च सुलसारण ! अजनय-हम्दइ-घणवाहण ॥५॥ रण-रसेण भिजन्त पधाइय। णिविसे समर-भूमि संपाविय ॥६॥ पञ्चहि घणु-सएहि पहु देप्पिणु । रिचवूहहाँ पदिसू हु रएप्पिगु ॥७॥ णिवदिड जाउहाण-बलु सुर-घलें। पहय-पदइ-परिवद्विय कलयलें ।।८ जाज महाहउ भुषण-भयकरु । उविउ रड महलन्तु दियम्त ॥९॥
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सत्तरहमो संधि
२६. का था। नर से नरके बीच १४ अँगुलियोंकी दूरी थी, रात्रिमें ११ । उतनी ही अश्वसे अश्व के बीच में भी। गजवरसे गजबरके बीच पाँच और धनुर्धारीसे धनुर्धारीके बीच ६ अँगुलियों की ॥१-८॥
पत्ता- उस न्यूह की रचना कर उन्होंने सूर्योका भीषण कोलाहल किया, उस समय ऐसा लगा मामो युद्धके प्रांगणमें धरती और इन्द्र स्वयं अलंकृत होकर स्थित थे ।।९।।
सत्रहवीं सन्धि
मन्त्रणा समाप्त होने और दूत्तके वापस जानेपर दोनों सेनाओंमें रोप बढ़ गया । त्रिलोकभयंकर और देवताओं के लिए भयंकर रावण इन्द्रसे भिड़ जाता है।
[१] हाथी अम्बारीसे सजा दिये गये, अश्व-समूहको कवच पहना दिये गये । ध्वजसमूह उड़ने लगे। विमान और रथ चलने लगे। भयंकर समरभेरी बजा दी गयी जो इन्द्रके शत्रुओंको कँपा देनेवाली थी। हस्त और प्रहस्तको सेनापति बनाकर, प्रयाण देकर राजा स्वयं चला । कुम्भकर्ण, लंकेशविभीषण, नल, सुग्रीव, नील, खरदूषण, मय, मारीच और भृत्य, सुतसारण, अंग, अंगद, इन्द्रजीत और घनवाइन । रणरस (उत्साह्) से भीगे हुए सब लोग युद्धके लिए दौड़े और पलमात्रमें युद्धभूमिमें पहुँच गये । रावण भी पाँच सौ धनुषोंसे मार्ग देकर शत्रुव्यूहके विरुद्ध प्रतिव्यूहकी रचना करता है। देवसेना राक्षस सेनापर टूट पड़ी। आहत नगाड़ोंका कोलाहल होने लगा। भुवनभयंकर महायुद्ध हुआ। धूलि दिशान्तरोंको मैली करती हुई छा गयी ॥१-९॥
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पडमचरित
पत्ता गर-हयनाय गत्तई रह-धय-छत्तई सम्बई खणे उलियाई । हि कुलई पुपुतं तिह वदन्ते वेणि वि सेण्णाई मलियइँ ॥१०॥
[२] विटमम-हाव-भाव-मूमरछराई ।
लाय. सुर-विमाणई धूलिधूसराई ।। ताव हेइ-बट्टणेण काल। उच्छलियउ सिहि-जाला-मालउ ॥२ सिवियहि छत्त-धहि कग्गन्ति । अमरविमाण-सयाई दहन्तिउ ॥३॥ पुणु पच्छा सोपिय-जल धारउ । स्य-पसमणउ हुआस-शिवारउ ॥४॥ साहिं असेसु दिसामुष्टु सिसउ । थिङ गहु णाई कुसुम्भएँ वित्त ॥५॥ भण्णउ परियत्तउ गयणहों। पां घुसिणोलिड शह-सिरि-कहाँ ॥ जाय वसुन्धरि रुहिराथम्बिर। सरहस-सुबह-कबन्ध-परिचार ॥ करि-सिर-मुत्ताहलेंहिं विमीसिय । सन्म व ताराइण्ण पदोसिय ॥॥ रद खुष्पन्ति वहन्ति ण पाई। वाहण-जान-विमाणहूँ थाई ॥९॥
__ घत्ता सहएँ वि महारणे मेइणि-कारणे रतें ममन्ते तरन्ति गर । जुज्यन्ति स-माकर तोसिम-अच्छर णाई महगणवे धारिबर ॥१॥
] तो गजन्त-मस-मायक-वाहणेणं ।
अमरिस-कुछ एण गिम्बाण-साहमेणं ॥१॥ जारहाण-साइणु पटिपेलिउ । णं खय-सायरेण जग रेलिक ॥॥ मिसियर परिभमन्ति पहरण-भुन । णं आवस-शुद्ध जक-युम्वुव ॥३॥
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२६५
सत्तरहमो संधि घत्ता-मनुष्य, अश्व और हाथियों के शरीर, रथ, ध्यज, छम सब एक क्षणमें धूम मा हाये। जिला प्रसार गोले बढ़नेसे कुल मैले हो जाते हैं, वैसे ही दोनों सेनाएँ धूर से मैली हो गयीं ॥१०॥
[२] विभ्रम हाव-भाव और भ्रूभंगसे युक्त अप्सराएं और देवताओंके विमान धूलसे धूसरित हो गये। इतने वनके संघर्षसे उत्पन्न भयंकर आगकी ज्वालमाला उठी, जो शिविकाओं और छत्रध्वजोंसे लगती हुई सैकड़ों अमरविमानोंकों जलाने लगी। फिर बादमें रक्तकी धारासे धूल शान्त हुई और आगका निवारण हुआ। उस रक्तधारासे अशेष दिशामुख सिक्त हो गये और आकाश ऐसा लगा जैसे कुसुम्भरंगमें डाल दिया गया हो, अथवा नभरूपी लक्ष्मीका कुंकुम-जल आकाशमें फैल गया हो। रक्तसे लाल धरती, सुभटोंके वेगपूर्ण धड़ोंसे जैसे नाच रही हो, हाथियोंके सिरोंसे गिरे हुए मोतियोंसे मिश्रित वह ऐसी लगती थी मानो नक्षत्रोंसे व्याप्त सन्ध्या दिखाई दे रही हो । रथ { कीचड़में ) गड़ गये, उनके पहिये नहीं चलते थे, वाहन, विमान और यान रुक गये ॥१-९॥
घत्ता-धरतीके लिए लड़े गये उस महायुद्ध में मनुष्य रामें तिर रहे हैं। ईर्ष्यासे भरकर और अप्सराओंको सन्तुष्ट करते हुए ऐसे लड़ते हैं, मानो महासमुद्रमें जलचर लड़ रहे हो ॥१०॥
[३] तब, गरज रहे हैं मतवाले महागज जिसमें, ऐसी देवसेना क्रोध और अमर्षसे भरकर राक्षसोंकी सेनापर उसी प्रकार पिल पड़ती है जैसे प्रलय-समुद्र विश्वपर | हाथमें प्रहरण लिये हुए राक्षस घूम रहे हैं मानो क्षुब्ध और जलके बुलबुलों.
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पउमचरित पेखे वि णिय-वल्ल मोहद्दन्तड । सुरक्षागला मुहें भावम्तउ ||४|| पेक्खें वि दस्थडन्तह इसई। मत्त-गय? भिज्ज तर गत्तई ॥५॥ पक्वं वि फुटम्सई रह-वीदहूँ। आपर-विमाणहूँ ममरुवगीठ ॥॥ पेक्लेवि हमवर पाहिजन्ता ! सुहब-मडफर सादिमन्ता ॥७॥ भायामेपिणु रह-गय-वाहणें। भिडिज पखण्णकित्तिसुर-साहणे ॥४॥ घाणर-चिन्धु महागय-सन्द। पाप-विहाधु महिम्दहों णम्दणु ॥९॥
घसा जर-हय-गय तागि समा मानिस हो वो मान लि बम्मे हि विन्धन्तड जीविउ लिन्तउ कामिणि-हिपउ वियर र जिह॥
[ 8 ] सुरवर किरोहि उरधरें घि अहि मुददि ।
कड़उ पसण्यकिति तिखेहि सिलिमुहेहि ॥३॥ तो एस्थन्तर दिन-भुअ-पाः। रावण-पित्तिएण सिरिमा ॥२॥ रहबरु वाहिर सुरवर-वन्दते। एकमउ 'मिट्ठ महाहवेचनहीं ॥१॥ कुन्त-विहस्थहीं सीहारुवहाँ। जयसिरि-पवर-जारिभवगूढहाँ ॥३॥ 'अरे स-कलङ्क वक्त महिलाणण। पुरड म थाहि माहि मय कान्छण' ।' तं णिसुणे चि भोरखण्डिय-माणड। शहसिन मियत पक्क जमराणउ na महिसास्तु दण्ड-पहरण-धरु ।। सिहुअप-जण-मण-गयण-मयस्सा । सो वि समुस्थरन्तु दणु-दुद्दउ । किउ णिविसमें पाराउदाउ ॥4॥ साम कुरु थक्क सवहम्मुहु। किडणाराऍहि सो वि परम्मुहु ॥९॥
धत्ता सिरिमालि धणुद्धरु रणमुहें दुबरु भरें वि ण लक्किउ सुरवर हिं। संसाड करता पाण हरन्त बम्म जेमक-मणिकर हि ।
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२७॥
सत्तरहमी संधि वाले आवर्त हो। अपनी सेना नष्ट होती और सुरोंके बगुलामुखमें जाती हुईं देखकर, उछलते हुछत्र और मत्तगजोंके नष्ट होते हुए शरीर देखकर, फुटे हुए रथपीठ और भ्रमरोंसे आलिंगन यान-बिमान देखकर, हयवरोंको गिरते और सुभटोंका घमण्ड नष्ट होते हुए देखकर, प्रसन्नकीर्ति रथ और गजसे युक्त सुरसेनासे आयामके साथ भिड़ गया, कपिध्वजी, महागज जिसके रथमें जुता है और धनुष जिसके हाथ में है, ऐसा वह महेन्द्रका पुत्र ॥१-९||
बत्ता-जर, हय और गजोंकी भर्त्सना कर, रथध्वजोंको भग्न कर वह व्यूह के बीच इस प्रकार स्थित था जैसे कामसे विद्ध जीवन लेता हुआ विदग्ध कामिनी-हृदय हो ॥१०॥
[४] इन्द्र के अनुघरोंने सामने आकर तीखे तीरोंसे प्रसन्नकीतिको विद्ध कर दिया। इसी बीच दृढमुजरूपी शाखायाले रावणके पिसृत्य श्रीमालने अपना रथ देवसमूहकी ओर बढ़ाया, पहले वह महायुद्ध में चन्द्रमासे भिड़ा, जिसके हाथमें माला था, जो सिंहपर आरूढ़ था और विजयलक्ष्मीसे आलिंगित्त था । ( श्रीमालने ललकारा)-"अरे कलंकी वक्र महिलानन ! मृग लांछन, मेरे सामने खड़ा मत रह, चला जा।" यह सुनकर, खण्डितमान चन्द्रमा खिसक गया। तब यमराज सामने आया, भैंसेपर बैठा हुआ, हाथमें दण्ड लिये हुए । त्रिभुवनके जनमन और नेत्रोंके लिए भयंकर | उछलते हुए उस दुष्ट दानवका भी आधे पलमें पार पा लिया। तब कुत्रेर सामने आया । परन्तु उसने तीरोंसे उसे भी विमुख कर दिया ।।१२।।
पत्ता-युद्धमै धनुर्धारी श्रीमाली दुधर-सा मुखरोंके द्वारा वह पकड़ा नहीं जा सका उसी प्रकार, जिस प्रकार कुसुनिदरों द्वारा संताप करनेवाला और प्राणोंका अन्त करनेवाला कामदेव वशमें नहीं किया जा सकता |१०||
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पउमचरिड
भाग कियात समरें तो ससि कुवेर-राए ।
केसरि-कमय-हुभवहा मल्लवन्त जाए ॥१॥ तिणि वि मिरिय खत्तु श्रामेल्लेंवि । धय-भूषास महारह पेल्छेवि ॥२॥ तीहि मि सभकण्डि रयणीयरु। णं धाराहर-वणे हि महीहरु ॥३॥ सरवर-सस्वहिं विणिक्षारिय । विधि हि देस मासास्थि ॥" अमर-कुमार णयर उद्धाइय। रिउ जिह एकाहि मिलवि पराइय ॥५॥ छाय सिलीमुकेहि सिरिमार्सि। परम-सिणिन्द चरण-कमकालिं ॥१५ अवससीहि सीस उरिकपणहूँ। ण णीलप्पलाई विक्षिण्णई ॥७॥ जड जड जाउहाशु परिसकट। तब सउ अहिमहु को पि ण थाहा॥ णिऍघि कुमार-सिरह छिजन्तई। रण-देवय चक्कि व दिन्त ॥५॥
घत्ता सक्सक्सु विरुजमा किर सपणजमइ ताव जयन्ते दिण्णु रहु। 'म. वाय जियसे सुइड-यन्हें अप्पुणु पहरणु धरहि बहु ॥३०॥
जयकारेचि सुरवई धाइभी जयन्ती ।
'गिसियर थाहि थाहि कहि जाहि महु जियम्तो ॥५॥ वाहि पाहि सबढम्मुहु सन्दशु । हुई धब देमि पुरन्दर-णन्दशु ॥२॥ सीरिय-सोमर-कपिणय-धाय? । बहु-वावल्ल-मल्ल-णारापहे ॥३॥ पद्धससिहि खुरुप्प-खेल्लग्गहुँ । पष्टिस-फलिह-सूल-फर-गहूँ ॥४॥ मोगर-मसि-चित्तदण्डिहि । सवल-हुलि-हरमुसल-मुसुण्डिहि५ असर-सिसत्तिपरसु-इस-पासहुँ। कणय कोन्त-घण-च-सहास? ॥६॥ रुक्स-सिलायक-गिरिवर बायई। हवि-जल-पवण-विज्छ-संघाप हुँ ।।७।। सं णिसुणे वि सिरिमाकि-पहरिसिउ । सुरवह-सुबाहों महारड्ड दरिसिज॥४॥ 'पई मेष्लेप्षिण जय-सिरि-छाहा । को महु अण्णु देह धब प्राइवें ॥९॥
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सत्ताहमो संधि [५] उस युद्ध में कृतान्त, चन्द्र, कुबेरराज, केशरी, कनक, अग्नि और माल्यवन्तके नष्ट होनेपर तीनों क्षमाभाव छोड़कर फहराती हुई ध्वजाओंवाले वे महारथी निशाचर इस प्रकार भिड़ गये, मानो मूसलाधार मेघ पहाड़ोंसे टकरा गये हों।" श्रेष्ठ तीरोंसे श्रेष्ठ तीर काट दिये गये। वे तीनों पीठ देकर भाग गये। केवल नये अमरकुमार दौड़े। और जहाँ शत्रु था वहाँ
आकर स्थित हो गये। शिलीमुखोंसे श्नीमालिको इस प्रकार ले लिया जैसे भ्रमर जिनभगवानके चरणोंको। अर्धचन्द्रसे चन्द्रमा का सिर काट दिया, और नील कमल फैला दिये गये हों, जहाँ जहाँ राक्षस पहुँचता है, वहाँ-वहाँ उसके सामने कोई नहीं टिक सका । बिखरे हुए छम्र कुमारोंके सिर ऐसी शोभा पा रहे हैं, मानो युद्धके देवताके लिए बलि दे दी गयी हो ॥१-५॥
पत्ता-तब इन्द्र विरुद्ध हो उठता है, और सन्नद्ध होता है, इतने में जयन्त अपना रथ बढ़ाता है,"हे तात, सुभटोंके लिए यम के समान मेरे रहते हुए आप शस्त्र धारण क्यों करते हैं ?"||१०||
[६] इन्द्रकी जय बोलकर जयन्त दौड़ा, “निशाचर ठहर, कहाँ जाता है मेरे जीते हुए ? सामने अपना रथ बढ़ा, मैं इन्द्रपुत्र तुझे चुनौती देता हूँ, तीरिय, तोमर और कर्णिकाके आघातसे, प्रचुर वावल्ल भालों और तीरोंसे, अर्धचन्द्रों, खुरुष और शैलामोंसे, पट्टिस-फलिह-शूल-फर और खड्गसे, मुद्गर-लकुटी-चित्रदण्ड और इण्डिसे, सब्बल-हूलि-हल-मुसल
और मुसुण्डीसे, झसर-त्रिशक्ति-फरसु और इषुपासोंसे, हजारों कनक-कोत-धनन्वक्रोंसे, वृक्ष-शिलातल और गिरिवरके आघातोंसे, अग्नि, जल, पवन और विद्याओंके संघातोंसे।"
यह सुनकर श्रीमाल हंसा और उसने अपना महारथ इन्द्रके सामने कर दिया और कहा, "तुम्हें छोड़कर दूसरा कौन युद्ध में चुनौती दे सकता है" ।। १-९॥
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पउमचरित
पत्ता तो एवं विसेसें वि सर संपेसवि छिण्णु जयन्तहो तगड धड । गयङ्गण-सच्छिह कमल-दच्छिहें हारु णाई उरचलें वि गड 111
दहमुह-पिसिएण दणु-वेद-दारणेणं ।
मुखमूति मत हो काम पाहणे ॥१॥ एउ ण जाणहुँ कहिं गउ सन्दणु । बुबाउका वि कह वि सुर-णन्दणुगरण दुक्खु दुक्खु मुच्छा-विहलाछु। उहिर उख-सुण्ड गं भयगल ॥३॥ मोसण-भिडिवान-पहरण-धरु। जाउहाण-रहु किड सय-सबह 11॥ सो वि पहार-विहुस मियोपण। मुच्छ पराइड पसरिय-चेयणु ॥५॥ धाइउ धुणेवि सरीरु रमाण । कर महागहु णा िणाहणे ॥६॥ विम्कि मि दुजय दुखर पवयन । विणि मि भीम गयासणि-करपल७n धेणि मि परिभमन्ति गाह-मण्डलें। लोह दिन्ति रावणे आरक्षण्वलें ॥८॥ सुरवा-णन्दणेण आयावि। कुलिस-दण्ड-सम्णिह गय भामवि॥९॥
पत्ता आहर वरदयले एडिउ रसायो पाण-विवनिड स्थणियन । जड जात जयम्तहों णिसियर-तम्यहाँ चित्तु णाई सिरे स्य-णिया ॥१०॥
[] जं सिरिमालि पारिओ अमर-णन्दणेणं ।
वा इन्दा पधाविमो समठ सन्दमेण ॥॥ मेरे दुधियद्ध
मम ताउ वहघि कहि जाहि सत॥१॥ बलु क्लु हयास
म. जीवमाण कहि जीविपास' ॥३॥ पक्षणेप सेज
मर धणुहर किड सुर-णम्दरेय ॥४॥ सत्यरिय के पि
समरणे सर-मंदबु करेवि II रिज मरणेण
भायामें चि दहमुह गणेण ॥६॥
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वपरमी संधि
पत्ता-इस प्रकार अपनी विशेषता बताकर और तीर चलाकर उसने जयन्तका ध्वज छिन्न-भिन्न कर दिया, मानो कमलके समान नेत्रोंवाली गगनरूपी लक्ष्मीका हार ही उछलकर चला गया हो ।॥ १० ॥
[७] राक्षसोंके शरीरोंका विदारण करनेवाले कनक अखसे दशमुखके पितृव्य ( चाचा) ने उसके रथको तहस-नहस कर दिया। यह भी पता नहीं लगा कि रथ कहाँ गया, किसी प्रकार इन्द्रका पुत्र बच गया । मूच्छासे विह्वल वह बड़ी कठिनाईसे ऐसे उठा, जैसे ऊपर सूंड़ किये हुए महागज हो । भीषण भिन्दिपाल शस्त्रको धारण करनेवाले उसने राक्षसके रथके सौ टुकड़े कर दिये, प्रहारसे विधुर वह संज्ञाशून्य हो गया । मूली चली गयी, उसमें चेतना आ गयी। अपना शरीर धुनता हुआ वह आकाशमें क्रूर महाग्रह के समान दौड़ा। दोनों ही अजेय और प्रबल थे। दोनोंके हाथमें भयंकर गदाएँ थी। दोनों आकाशमें घूम रहे थे, इन्द्र और रावणकी लीक देते हुए । तब इन्द्रपुत्रने वनदण्डके समान, आयामके साथ गदा घुमाकर ।।१-९॥
घत्ता-बक्षस्थलपर आघात किया। निशाचर प्राणविहीन होकर रसातलमें जा गिरा। जयन्तकी जीत हो गयी, मानो निशाचर समूहके सिरपर धूल पड़ गयी ॥१॥
[८] जर अमरपुत्र इन्द्रने श्रीमालको मार दिया, तो उसके सामने इन्द्रजीत दौड़ा, “अरे दुर्विदग्ध, धूर्त, मेरे तातको मारकर कहाँ जाता है ? हताश मुड़-मुड़, मेरे जीते हुए तुझे जीनेकी आशा कैसे ?" यह वचन सुनकर अमरपुत्रने अपने हाथमें धनुष ले लिया। तीरोंका मण्डप तानकर, वे दोनों युद्धके प्रांगण में उछले । शत्रुका नाश करनेवाले दश-मुखके
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पउमचरित
विणिय-पहरे हि रक्षित सरीरु उपवि जाम
सपणाहु छिपणु तीसहि सरहि ॥ कह कह वि णाहिकप्परिउ वीरु॥४॥ किर धरइ पुरन्दरु पत्तु ताम ॥९॥
पत्ता उग्गामिय-पहरण चोइय-वारण अन्तर यिउ भमराहियाइ । अरें अरिचर-मण राषण-गन्दण उचरि वलि चारहदि अइ ॥ol
खतु मुएवि सम्वेहि मिरि-भासुरेहि ।
काविहाँ पान्दमी यदिभा सुराहे ॥ पेदिउ प भणन्तहि रावणि। तो वि ण गणा सुहट चूणामणि ॥२॥ रोगह बना भाइ भम्मि । रिउ पपणास-सहि दलषय ॥३॥ सन्दण सन्दणेण संचूरइ । गयषर गयवरेण मुसुमूरह ॥४॥ सुरउ सुरगामेण विणिवायइ । णरवर परवर-धाएँ घायई H५| जाम वियम्भह सम्बाया । ताष सु-सारहि सम्भाइ-गामें ॥६॥ पभणइ 'रावण किं णिचिन्तन। मल्लवन्त-णम्दणु अरचन्तड 404 अपणु वि रावणि कइड अख। धेटिव सुस्वर-वलेण समसें ॥४॥ दुखउ जइ वि महाहवें साइ। एक्कु भणेय जिणधि कि सकह ॥९॥
घत्ता ते वयणे राबणु जण-जूरावणु चदिउ महारह खम्ग-करु । पक्खिला देवहि बहु-अवळे हि णाई किंयन्तु जगन्सया ।।१०॥
[..] दूरधेण मिसियरिन्देष्ण सुरवरिन्दी। सौहणं विरुदघेणं जोइभी गइन्दो ॥
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सत्तरहमो संधि पुत्र इन्द्रजीतने आयाम करके, शास्त्रोंको आहत करनेवाले तीस तोरोंसे उसका कवच छिन्न कर दिया। शरीर किसी प्रकार वच गया, वह कटा नहीं। जैसे ही वह उछलकर उसे पकड़नेवाला था, वैसे ही इन्द्र कहा आ गया । १. -२
घत्ता-शल लिये हुए, हाथीको प्रेरित करके अमरराज बीच में आकर स्थित हो गया और बोला, "अरे शत्रुका मर्दन करनेवाले रावणपुत्र, यदि वीरता हो तो मेरे ऊपर उछल"।।१०।।
[९] इस प्रकार क्षात्रधर्मको ताकमें रखते हुए, भौंहोंसे भारवर सभी देवोंने लंकाराजके पुत्र इन्द्रजीतको घेर लिया। एक रावणपुत्रको अनेकोंने घेर लिया, वह सुभटश्रेष्ठ तब भी उनको कुछ नहीं गिनता । रोकता है, मुड़ता है, दौड़ता है, लड़ता है, पचास-साठ शत्रुओं का सफाया कर देता हैं। रचको रथसे चूर कर देता है, गजयरको गजवरसे कुचल देता है। तुरंगको तुरंगसे गिरा देता है, मनुष्य, मनुष्यके आधातसे घायल होता है। इस प्रकार जय इन्द्रजीत पूरे आयामके साथ सबको अश्चर्यमें डाल रहा था कि इतनेमें सन्मति नामक सारथी कहता है, "आप निश्चिन्त हैं माल्यवानका पुत्र मारा गया है, और भी इन्द्रजीतको अक्षात्रभावसे घेर लिया है समस्त सुरवर सेनाने । महायुद्धमें यद्यपि वह अजेय है, फिर भी अकेला बह अनेकोंको कैसे जीत सकता है ?" ||१-२||
घत्ता- यह शब्द सुनकर जनोंको सतानेवाला रावण हाथ में तलवार लेकर महारथमें चढ़ा, अत्यन्त अईकारसे भरे हुए देवोंने उसे जगका अन्त करनेवाले कृतान्तकी तरह देखा ॥१०॥
[१०] दूरस्थ निशाचरराजने सुरराजको इस प्रकार देखा, जैसे विरुद्ध होकर सिंह गजराजको देखता है । वह कहता है,
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पउमचरित 'सारहि वाहि पाहि रहु तेत्तहें। आयवसु भापण्डुरु जेत्तहँ ॥२॥ जेत्त भइरावणु गलगलइ। जेसहें भीसण दुन्दुद्धि वजह ॥३॥ बेतह सुरवह मुर-परिवरियउ। जेत्तहूँ यमदण्ड करें धरियड' ॥॥ सं णिसुण वि सम्मइ उच्छाहिउ। परिउ सङ्घ महारहु बाहिउ ॥५| बिट कला दिग्णरमना : सिगई रिप-मुहई च कूरई ॥५॥ समरु धुट वाइ मि अभिट्टई । रण-रसियह सणाह-विसई ॥७॥ पवर-सुरजम पवर-तुरगहुँ । मिडिय मयङ्ग मत्त-मायनहुँ १८॥ रह रहबरहुँ परोप्परु धाइय। पायाल? पायाल पराइम ||५||
पत्ता
मेलिय-हुकाई दिण्ण-पहारई सिर-कर-पास णमन्ताई । मिडियई अ-णिविष्णई चेण्णि मि सेगणई मिदुई जल अणुरत्ताई ॥१०॥
[1] जाउ महन्तु आहयो विहि विहिं जणाहुं ।
इन्दा-हम्दतणयहूं इन्द-रावणाई ॥१॥ रपणासव-सहसार-जणेरहुँ । मय-भेसइ-मारिप-कुवेर? ॥२॥ जम-सुग्गीवहुँ सम-सील हुँ । अणख-णा हुँ पलयाणिल-प्पोकहुँ ॥३॥ ससि-अन्य? दिवायर-अङ्गहुँ । खर-चिसई दूसण-चित्तम ॥ ४॥ सुन-धमू हुँ वीसावसु-हत्यहुँ । सारण-रि-हरिकेसि-पहत्थ? ॥५॥ कुम्भयपण-इंसाणणरिन्दहुँ । विहि-केसरिहिं विहीसण-खन्दहुँ ॥३॥ घणवाहण-तहिकेसकुमारहुँ । मल्लवन्त कणयहुँ तुडधारहुँ ॥७॥ 'जम्बुमालि-जीमुत्तणिणायहुँ । घजोयर-वजाउहरायढें ॥८॥ वाणरचय पत्राणणचिन्धहुँ । एम जुनसु महिमहु पसिब ३९॥
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सत्तरहमो संधि "सारथि-मारथि, रथ वहाँ हाँको, जहाँ सफेद आतपत्र है। जहाँ ऐरावत गरज रहा है, जहाँ दुन्दुभि बज रही है। जहाँ इन्द्र देवताओंसे घिरा हुआ है। जहाँ इसने वनदण्ड हाथमें ले रखा है।" यह सुनकर सन्मति सारथिका उत्साह बढ़ गया, शंख बजाकर उसने अपना रथ आगे बढ़ाया। कोलाहल होने लगा। सूर्य बजा दिये गये । शनि और यमके मुख दुष्टोंकी तरह हँसने लगे। समर होने लगता है, सेनाएँ भिड़ती है, उत्साहसे भरी हुई और कवचासे आरक्षित | प्रबल अश्व, प्रबल अश्वोंसे, गज गजवरोंसे, रथ रथवरोंसे और पैदल, पैदल सैनिकों से ॥१-९॥ ____घत्ता-हुंकार छोड़ते हुए, प्रहार करते हुए, सिर कर और नाक झुकाये हुए बिना किसी खंदके दोनों सेना अनुरक्त मिथुनोंकी भाँति आपस में भिड़ गयीं ॥१८॥
[११] दोनों सेनाओंमें दोनों ओरसे भयंकर युद्ध हुआ। इन्द्रजीत और जयन्त में तथा रावण और इन्द्रमें । पिता रत्नाश्रव और सहस्रारमें, मय-बृहस्पति-मारीच और कुबेरमें, विपमशीलवाले यम और सुग्रीवमें, प्रलयकालके अनलकी लीला धारण करनेपाल अनल और नलमें, चन्द्रमा और अंगद में, सूर्य और अंगमे, खर और चित्रमें, दूपण और चित्रागमें, सुत
और चमूमें, विश्वावसु और हस्तमें, सारण और हरिमें, हरिकेश और प्रहस्तमें, कुम्भकर्ण और ईशान नरेन्द्र में, विधि
और केशरीमें, विभीषण और स्कन्धमें, घनवाहन और तडिकेशीके कुमारमें, दुर्य माल्यवन्त और कनकमें, जम्यू
और मालिमें, जीमूत और निनादमें, घनोदर और वनायुधमें, चानरवजियों और सिंहध्वजियों में इस प्रकार प्रसिद्धप्रसिद्ध लोगोंमें युद्ध हुआ 11१-९।।
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२८.
पङमचरित
पत्ता करि-कुम्म-विकत्तणु गोलिय-तणु को रण जासु समाषधिउ । सो तासु समच्छरु तोसिय-अच्छरु गिरिहं दग्गि व अम्मिसिद्ध ॥१०॥
को वि किवाण-पाणिए सुरवह णिएवि ।
___ण मुबह मण्डलग्गु पहरं समश्लिपवि ॥॥ को वि णीसरन्तन्त-घुटमळो। ममइ मत-दस्थि व स-सङ्खली ॥२॥ को वि कुम्भि-कुम्भयल-दारणो। मोसिनोह-उजलिय-पहरणो ॥३॥ को वि दन्त-मुसलुक्खयाउहो । घाई मत्त-माया-सम्मुद्दो ॥॥ को वि खुडिय-सीसो धणुकरो। पल धाइ विन्धइ स मच्छरो ॥५॥ को वि वाण-विणिभिण्ण-वच्छाओ। वाहिरन्तरवरिय-पिच्छमो ॥ लोणियारणो सहह णस्वरों। इस-कमल-पुओष स-भमरो || को वि एक-चलणे तुरङ्गमे। हरि व विस्थिो ण मरिए कमे |६|| को चि सिरउडे करें विकायले। जुशा-भिक्ष मागे पर-पके ॥५॥
धत्ता मधु को वि परिस्छिरु णित्रष्ट्रिय-सिरु सोणिय-धारुजछलिय-तणु । पक्षिजह दारुणु सिन्दूरारुणु फग्गुणे णाई सहसकिरण ॥१०॥
[३] करथ इ मस-कुजारा जीधिएण चत्ता ।
कसण-महाधण म्ब दोसन्ति धरणि-पत्ता ॥१॥ कत्य ह स-विसाणह कुम्भयक है। णं रणबहु-उपखलर स-मुसलर ॥३॥ कस्य इहय करवाकहि खण्टिय । अन्त-सलत खकम्त पहिग्गिय ॥६॥
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सत्तरहमो संघि घता-गजकुम्भको विदीर्ण करनेवाले पुलकित शरीर जिसके सामने जो योद्धा आया, अप्सराओंको सन्तुष्ट करनेवाला वह मत्सरसे भरकर उसी प्रकार भिड़ गया, जिस प्रकार गिरिसे दावानल।" ॥१०॥
[१२] कोई सुरवधूको देखकर, कृपाण हाथमें लिये हुए आघात खाकर भी तलवारको नहीं छोड़ रहा है। कोई अपनी निकली हुई आँतोंसे विडल इस प्रकार घूम रहा था, जैसे शृंखलाओंसे हुआ समान हो, न भासदो विदीर्ण करनेवाले किसीका अस्त्र मोतियोंके समूहसे उज्ज्वल था। दन्त और मूसलोंके लिए निकाल रखा है आयुध जिसने, ऐसा कोई वीर मत्तगजके सम्मुख दौड़ता है। कट गया है सिर जिसका, ऐसा कोई धनुर्धारी मुड़ता है दौड़ता है और मत्सरसे भरकर बेधता है। किसीका वक्षस्थल तीरोंसे इतना विद्ध है कि उसके बाहर-भीतर पुंख आरपार लगे हुए हैं ? कोई रक्तसे लाल व्यक्ति ऐसा शोभित है मानो भ्रमरसहित रक्त कमलोंका समूह हो । कोई एक पैरके अश्वपर आसीन, विष्णुके समान ही एक कदम नहीं चल पाता। कोई अपने करतल सिर. तटपर रखकर शत्रुसेनामें युद्धकी भीख माँग रहा है ॥१-२||
घत्ता-कट चुका है सिर जिसफा, जिसके शरीरसे रक्तकी धाराएँ उछल रही हैं, तथा प्रति इच्छा रखनेवाला भट ऐसा दारुण दिखाई देता है, जैसे फागुनमें सिन्दूरसे लाल सूर्य हो ।।१०॥
१३ ] कहींपर जीवनसे त्यक्त मत्सगज ऐसे जान पड़ते हैं जैसे काले महामेघ धरतीपर आ गये हों। कहींपर दाँतों सहित कुम्भस्थल ऐसे जान पड़ते हैं मानो रणरूपी वधूके ऊखल और मूसल हो। कहींपर तलवारोंसे खण्डित अश्व स्खलित होते
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पउमचरित कस्थ इ छत्तई हाई विसालाई णं जम-भोयणे दिण्णाई थालई ॥४॥ कस्य इ सुघड-सिराई पलोइँ । गाइँ अ-णालई णव-कन्दोई ।।५।। कस्थ इ रहयकई विच्छिणगई। कलि-कालही भासण व दिपण॥६॥ करथ नि भइद्दों सियङ्गण किय । 'हियवउ णाहिं' मणेवि उकिय ॥॥ करथ वि गिद्ध कन्धे परिट्रिक । अहिणव-सिरु सुहड्ड समुहिउ ॥८॥ काय ६ गिद्ध मणुसु ण सद्धट । वाणे हि धनुहि मेउ पा कदङ ॥९॥
घत्ता कस्थ छ णर-रुण्ड हि कर-कम-तुण्डे हि समर-वसुन्धर भीसणिय । बहु-खण्ड-पयारे हि णं सुआरे हि रक्ष्य रसोइ जमही तणिय ॥१०॥
[१५] सहि तेहएँ महाहवे किय-महोच्छषेहि ।
कोचिड एक मेनु लहेस-वापवेहि ॥१॥ 'उर उरै सकसक परिसकहि। जिह शिट्टविउ माकि सिह थकहि ॥२॥ हउँ सो राषष्णु भुवण-मयरु। सुरवर-कुल-कियन्तु रणे दुरु' ॥३॥ त णिसुणेषि पलिउ बाखण्डलु। पच्छायन्तु सर हि गह-मण्डलु ॥४॥ दतमुही वि उत्थरिउ स-मकरु। किउ सर-जालु सरेंहि सय-सकरु ॥५॥ तो एस्थन्सर इय-परिवर्खे। सस् अग्गेउ मुक सहसखें ॥६॥ घाइड धगधगन्तु धूमम्सउ । चिन्धहि छत्त-धारे हि लग्गन्त ॥७॥ रावण-बलु णासंघिय-जीविउ । णासइ जाला-माकालीविउ ॥४॥
घत्ता उपणियर-पहाणे वारुण-बाण सरवरमिा उल्हावियउ । मसि-वण्णुपरस्तद धूमल-गत्तउ पिसुण जेम वोलावियउ ॥९॥
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सत्तरहमो संधि हुए आँतोंसे शोभित घूम रहे हैं। कहींपर आहत विशाल छत्र ऐसे जान पड़ते हैं मानो यमके भोजनके लिए थाल दे दिये गये हों, कहींपर योद्धाओंके सिर लोट-पाट हो रहे हैं मानो बिना नालके कमल हों, कहींपर टूटे-फूटे रथचक्र पड़े हुए हैं, जैसे कलिकालके आसन बिछा दिये गये हों, कहींपर योद्धाके पास सियारन जाती है और 'हृदय नहीं है। यह कहकर चल देती है, कहींपर गीध धड़पर बैठा है, जैसे सुभटका नया शिर निकल आया हो, कहीपर गीध मनुष्यको नहीं खा सका, वह तीरों और चोंचोंमें भेद नहीं कर सका ।।१-९||
पत्ता-कहीपर मनुष्योंके धड़, हाथ और पैरोंसे समरभूमि इस प्रकार भयंकर हो उठी, मानो रसोइयोंने बहुत प्रकारसे यमके लिए रसोई मनायी हो ॥१०॥ . [१४] उस महा भयंकर युद्धमें, महोत्सव मनानेवाले लंकेश और देवेशने एक दूसरेको पुकारा,- "अरे-अरे शक्र-शक्र, चल, जिस तरह मालि का वध किया उसी तरह स्थित हो। मैं वही मुक्नभयंकर रावण हूँ, देवकुलके लिए यम और युद्धमें दुर्धर ।" यह सुनकर इन्द्र मुड़ा और तीरोंसे उसने आकाशको आच्छादित कर दिया। तब दशानन भी मत्सरसे भरकर उछला और उसने तीरोंसे शरजालके सौ टुकड़े कर दिये। इस बीच में प्रतिपक्षको नष्ट करनेवाले इन्द्रने आग्नेय वीर छोड़ा, वह धकधक करता धुआँ छोड़ता हुआ तथा चिह्नम्वज और छत्रोंसे लगता हुआ दौड़ा। जीवनकी आशंकासे युक्त, आगको लपटोंमें झुलसती हुई रावणकी सेना नष्ट होने लगी ॥१-८11
पत्ता-तब निशाचरोंके प्रमुख रावणने वारुण बाणसे आग्नेय तीरकी ज्वालाको शान्त कर दिया, जो दुष्टकी तरह . धूमिल शरीर और काले रंगको लेकर चला गया II
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३८५
पउमरिज
[१५] उपसमिप हुआसणे वयणमासुरेणं ।
बहल-तमोह-पहरणं पेसिनं सुरेणं ॥१॥ किउ श्रन्धारण रणङ्गणु। कि पि ण देखाइ णिसियर-साहणु॥२॥ जिम्मइ अङ्ग चलह णिरायइ । सुभइ अचेयणु ओसुविणायइ ॥३॥ विखें वि णिय-पलु भोणल्लन्तउ । मेलिउ दिणयात्थु पजकन्तः ।।या अमराहिण राहु-वर-पहरण। णाग-पास सर मुबह दसागणु ।।५।। पषर-भुअङ्ग-सहासेंहि दट्टर। मुस्वल पाण लएवि पण?उ ॥६॥ पारुदत्थु बासवेण निमिउ । विसहर-सरवर-जालु परजिउ ॥७॥ षगउड-पवणन्दोलिय मेइणि | डोसा-रूढी णं बर-कामिणि ॥ पक्ष-पषण-पडिपहय-महीहर। पञ्चाविय स-दिसिवह स-सायर ॥९॥
पत्ता
मलें वि रिउ-घायणु सरु णारायणु विजगविहूसणं गएँ चदिउ । जेत्तहें अइरावणु सेत्तहँ रावणु जावि इन्दहों अमिडिड ॥१०॥
[१६] मत्त गहन्द दोषि उम्भिण्ण-कसण-देहा 1
णं गजान्त भन्त सम-उत्थान्त मेहा || परोवरस्स पत्तया। मयम्घु-सित्त-गत्तया ॥२॥ थिोर थोर-कन्भरा। पलोह-दाम-णिजारा ॥ स-सीयर व पाउसा । मयम्ध मुक-भसा ॥३॥ विसाक-कुम्भमण्डला। णिवड-दन्त-उजला ॥५॥ अथक-कण्ण-चामस । णिवारियालि-गोयरा ॥६॥ समुद्ध-सुण्ड-भीसणा। विसह-घण्ट-णोसणा ||७॥ मणोज-रोज पन्तिणो। भमन्ति के वि दन्सिणो ॥6॥
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२८५
सत्तरहमो संधि [१५] अग्निबाणके शान्त होनेपर भास्वरमुख इन्द्रने अन्धकारका बाण छोड़ा। उसने युद्धके प्रांगणमें अन्धकार फैला दिया, निशाचरोंकी मेनाको कुछ भी दिखाई नहीं देता, सेना अँभाई लेती, उसके अंग झुकने लगते, नींद आती, बेहोश होती, सोतो और स्वप्न देखती। अपनी सेनाको अवनत होते हुए देखकर, दशानन जलता हुआ दिनकर अक्ष छोड़ा। इन्द्रने राहु अन छोड़ा। रावण नागपाश अत्र चलाता है। हजारों बड़े-बड़े साँपोंसे डैसी गयी देवसेना प्राण लेकर भागने लगती है। इन्द्र गरुड़ अल चलाता है जो साँपोंके प्रवर शरजालको पराजित कर देता है। गरुड़ोंके पंखोंके पवनसे आन्दोलित धरती ऐसी मालूम होती है मानो वरकामिनी हिंडोलेमें बैठी हो पंखोंके पवनसे प्रतिहत महीधर दिशापथों और समुद्र सहित धरतीको नचाने लगे। ॥१-|
घचा-तब शत्रुनाशक नारायण बाण छोड़कर रावण त्रिजगभूषण हाथीपर चढ़ गया और जहाँ ऐरावत महागज था, वहाँ जाकर इन्द्रसे भिड़ गया ॥१०॥
[१६] दोनों ही महागज अत्यन्त कृष्णशरीर और मतवाले थे, मानो खूब गरजते हुए, समान रूपसे उछलते हुए महामेघ हों। दोनों एक दूसरेके पास पहुंचे। दोनोंका शरीर मदजलसे सिक्त था, दोनोंके वक्ष और कन्धे विशाल थे, दोनोंसे मदकी धारा बह रही थी, दोनों पाषसको तरह जलकणोंसे युक्त थे, दोनों मदान्ध और निरंकुश थे, दोनोंके गण्डस्थल विशाल थे, दोनोंके गठित उज्ज्वल दाँत थे, दोनोंके नहीं थकनेवाले कर्णरूपी चामर लगातार भ्रमरोंको उड़ा रहे थे, दोनों उठी हुई सूहोंसे मयंकर थे, दोनोंके घण्टोंसे विशिष्ट ध्वनि हो रही थी । जैसे सुन्दर गीत पंकियों हों, दोनों महागज घूम रहे थे ॥१-८॥
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२८३
पउमचरिउ
घत्ता मयगले हि महन्ते हि विहि मि भमन् हि सुरवह-लाहि पधर । भव-भवर्गहि छूटो णं महि मूढी भमइ स-सायर स-धरधर ।।९।।
_ [१] तिजगविहसणेय किउ सुर-फरी णिरस्थी।
परिभोसिय णिसागरा ल्हसिट बहरि-सस्थो ॥॥ रावणु णव-जवाणु वलपम्तउ। भमराहिड गय-वेस-मान्त11२॥ ममें विण सात करिवरू खोट । स्क्वे सयवारस परियचिउ ॥३॥ गड़ गएण पढ़ पहुणोद्धउ । झम्म देवि अंसुगुण णिवन्दउ ॥४।। विजन घुटु रयणीयर-साहणें। देहि दुन्दुहि दिषण दिवङ्गण ।५॥ ताव जयन्तु दसाण-जाएँ। आणि वन्धेवि पाहु-सहाएं ॥३॥ जम सुग्गी दूसम-सीले । भणलु णलेण मणिलु रण णीसें ॥७॥ खर-दूसपणे हि चित्त-चिसङ्गय ।। रवि ससि लेवि आय अमान्य ८॥ सुरवर-गुरु मपण णिभिचें। बहउ कुबेरु समरें मारिरुचें ॥९॥
घत्ता जो जसु उत्थरियड सो ते धरियउ गण्हॅवि पवर-धन्दि-सयहूँ । गउ सुरवर-धामह पुरु भजरामह जिणु जिह जिगवि महामयई॥१०॥
[ १८ ] लङ्क पुरन्दरे लिए जय-सिरी-णिवासो।
सहसारेण परिधदो पस्थिओ दसासो ॥५॥ 'अहाँ जम-धणय-सक्क-काराषण । देहि सुपुत्त-मिक्ख महु रावण' ॥२॥ तं णिसुणेवि भणइ सुर-वधए । 'तुम्हवि श्रम्ह वि एड णिवन्धः । जमु सलवत परिपालउ पर। पशु णिवित करत पाणु ॥४॥ पुफ्फ-पबरु घर देउवणासह । सहुँ गन्धम् हि गाय सरसर ।।५५
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सत्तरहमी संधि पत्ता-दोनों घूमते हुए मदकल महागजोंके साथ इन्द्र और रावण ऐसे मालूम पड़ रहे थे, मानो भवरूपी भवनसे युक्त धरतीरूपी मुग्धा सागर और समुद्र के साथ घूम रही है ।।।।
[१७] त्रिजगभूषण महागजने ऐरावतको निरस्त्र कर दिया। निशाचर प्रसन्न हो गये। शत्रुसमूहका पतन हो गया। रावण नवयुवक और बलवान था जब कि इन्द्रकी वय
और तेज जा चुका था। खींचनेपर भी ऐरावत महागज हिल नहीं सका. गासने सौ बार उसे छुआ। गजने गजको और स्वामीने स्वामीको उठा लिया। चूमकर उसने वखसे उसे बाँध दिया। निशाचरोंकी सेनामें विजयकी घोषणा कर दी गयी। देवताओंने आकाशमें दुन्दुभि बजा दी। तबतक इन्द्रजीत जयन्तको अपनी बाहुओंसे बाँधकर ले आया, विषमशील सुग्रीव यमको, नल अनलको, नील अनिल को,खर-दूषण,चित्र-चित्रांगदको और अंग-अंगद सूर्य-चन्द्रको लेकर आ गये । निर्मीक मयने बृहस्पविको और मारीचने कुबेरको पकड़ लिया ॥१-२||
घसा-जिसने जिसपर आक्रमण किया, उसने उसको पकड़ लिया। इस प्रकार सैकड़ों प्रवर वन्दियोंको पकड़कर, इन्द्रके लिए भयंकर रावण अपने नगरके लिए उसी प्रकार गया, जिस प्रकार परमजिन महामदोंको जीतकर अजर-अमर पदको प्राप्त करते हैं ॥१॥
[१८] इन्द्रको लंका ले जानेपर, सहस्रारने जयश्रीके निवास राजा रावणसे प्रार्थना की, “यम, धनद और शक्रको फैपानेवाले रावण, मुझे पुत्रको भीख दो।" यह सुनकर देवोंको बाँधनेवाले रावणने कहा, "तुम्हारे हमारे बीच यह शर्त है कि यम तलवर ( कोतवाल) होकर नगरकी रक्षा करे, प्रभंजन हमारा आँगन साफ करे, वनस्पति धरपर पुष्पसमूह दे,
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२८८
चस्व-सहासई हवि पक्वालड। जोपह करेउ मियडू गिरन्सरु । ममरराउ मजणउ भरावर । सं पडिवाणु सन्चु सहसारें।
कोसु असेसु कुवेत णिहालउ ॥६॥ सीयल गइयले सबउ दिवायरू ॥७॥ अण्णु पि धणेहिं छहउ देवावउ' १८॥ मुक्कु सक्कलकालकारें ॥५॥
पत्ता
णिय-रज्जु विवज्जेंवि गउ पन्बजेंवि सासयपुरहों सहसणघणु । जय-सिरि-बहु मण्ड वि थिउ अवरुणवि स ( भु य-फकिहहिं दहवषणु।१०
इय चारु-पउमचरिए धणअयासिय-समम्भुएय-कए । जाणारा व ण वि जय' समारहम इमं पम्वं ।।
[१८. अट्ठारहमो संधि ]
रण माशु म वि पुरन्दरही परियच वि सिहर, मन्दरही। भाषा वि पद्धीवउ जाम पहु ताणन्तरे दिटु भणन्तरहु ॥
[ ] पेक्वेरिएणु गिरि-कवण-सुमन्दु । जिण-वन्दण-दूरुच्छलिय-सदु ॥३॥ सुरवर-सब-सेव-करावणेण । मारिधि पपुच्छिउ रावणेण ॥२॥ 'मह-मक्षण-भुवणुच्छलिय-णाम । उहु कलयलु सुम्मद का माम' ॥३॥ त णिसुणवि पभणह समर-भीर। 'पहु जाइ णामेण अणन्तवीर ॥॥ दसरह-माया श्रणरण्ण-जाउ । सहसयर-सोहें तवसि जाउ ||५|| उप्पण्णउ पयहाँ पत्थु णाणु। उह दीसह देवागमु स-जाणु' ।।
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૨૮૨
सप्तरहमो संधि गन्धर्वोके साथ सरस्वती गान करे, अग्नि इजारों वस्त्र धोये, कुबेर अशेष कोशकी देखभाल करे, चन्द्र सदैव प्रकाश करे, दिवाकर आकाशमें धीरे-धीरे तपे, अमरराज नहानेका पानी भराये और मेघोंसे छिड़काव कराये।" सहस्रारने यह सब स्वीकार कर लिया, लंकानरेशने शकको मुक्त कर दिया ॥१-१०॥
घत्ता-अपना राज्य छोड़कर और अनन्या लेकर सहस्रार शाश्चत स्थानको चला गया और रावण जयश्रीरूपी वधूको अलंकृत कर अपने मुजस्तम्भोंसे उसका आलिंगन कर रहने लगा ॥१२॥ धनंजयके आश्रित, स्वयम्भूदेवकृत पद्मचरितमें राषण
विजय नामक १७वाँ पर्व पूरा हुआ।
अठारहवीं संधि युद्ध में इन्द्रका मान-मर्दन कर, सुमेरु पर्वतके शिखरोंकी प्रदक्षिणा कर, जब दशानन लौट रहा था तो उसने अनन्तरथके दर्शन किये।
[१] जिसमें दूर-दूर तक जिनको चन्दनाके शब्द उछल रहे हैं, ऐसे सुभद्र स्वर्णगिरिको देखकर, सुरवरोंसे अपनी सेवा करानेवाले रावणने मारीचसे पूछा, “योद्धाओंका संहार करनेचाले, प्रसिद्धनाम ससुर, वह क्या कोलाहल सुनाई दे रहा है ?" यह सुनकर समरधीर मारीच कहता है, "यह अनन्तवीर नामके मुनि है, अणरणसे उत्पन्न दशरथके भाई, जो सहस्रकिरणके स्नेहके कारण तपस्वी हो गये थे इन्हें केवलझान उत्पन्न हुआ है,
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पउमचरिउ
तं सुष्पिणु णिमियरिन्दुस से मुलियन् ॥ ७ ॥ परियचैचि गर्दै विथुर्णे वि गिविं । सगलु वि जणु वयइँ कयन्तु दिछु । ८॥
२९.
महवय को वि कवि अणुत्रय को त्रि दिड सम्मत्त कवि थि
घता
को त्रि सिक्खावय गुणवयहूँ । पर रावणु एक्कु ण उवसमिव ॥ ९॥
धम्महु
महारिस भइ तेरधु । दहमुह मोहम्धारें छूट । अमियालएँ अमिउ ण लेहि केम | तं वयणु सुष्पिणु दससिरेण । 'समि भूमएँ सम्पदेवि । सक्कमि गिरि-मन्दरु हिलेवि । सक्कम मारुइ पोट्टले छुहेचि । सक्कमि रणायर-जलु पिषि ।
[२]
'मणुयत्तु हें चि बहस वि एत्थु ॥ १ ॥ यायस्यणु ण केहि मूढ ॥२॥ अच्छहि णिहुअउ कट्टमर जेस' ॥३॥ बुम्बइ धोत्तुग्गीरिव - गिरेण ॥४॥ सक्कमि फण- फणिमणि स्यशु केवि ५॥ सक्कम दस दिसि वह दरमले ६॥ सक्कम जम-महि समारुहेवि ॥७॥ सक्कमि आसीविसु अहि णिचि ॥८॥
धत्ता
कमिसक्कों में उत्थरे वि
कमि सखि सूरहँ पह हरे बि
सक्कम महि गणु एक्कु करें वि दुखरु ण सक्कमि व घरे वि ॥ ९ ॥
[3]
'कड् लेमि एक्कु वड' लुत्तु तेण ॥१॥ तं मण्ड कमि ण पर कतु ॥२॥ भिउ अचलु रज्जु भुखन्तु खयरु ॥३॥ पुरवरें इच्छिय-अणुअ-कामें ॥३॥ सहें हियञ्जसुन्दरी मणोज्ज ॥५॥
परिचिन्तं वि सुरु राहितेण । 'जं मद्देण सच्छिद्र चातु | गड एम भणेपिणु पियय-गयरु । एत वि महिन्दु महिबु जामें । सो हिययचेय णामेण मज्ज |
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अट्ठारहमी संधि वह यानोंके साथ ठेवागम दिखाई दे रहा है।" यह शब्द सुनकर निशाचरराज वहाँ गया जहाँ मुनिवरेन्द्र थे। प्रदक्षिणा, नमन और स्तुति कर वह वहाँ बैठ गया। उसने वहाँ लोगोंको अत ग्रहण करते हुए देखा ॥१-८ __ घत्ता-कोई महावत, और कोई अणुव्रत । कोई शिक्षाप्रत और गुणवत। कोई देखा गया दृढ सम्यक्त्व लेता हुआ। परन्तु रावणने एक भी व्रत'नहीं लिया ।
[२] तब धर्मरथ महामुनि वहाँ कहते है, "अरे रावण, मनुष्यत्व पाकर और यहाँ बैठकर मोहान्धकारसे छूट । मूर्ख रत्नाकरसे भी रत्न ग्रहण नहीं करता। अमृतालयसे अमृत क्यों नहीं लेता, एकाकी ऐसा बैठा है, जैसे काष्ठसे बना हो।" यह वचन सुनकर, रावण, स्तोत्रका उच्चारण करनेवाली वाणीमें बोला, "मैं आगको ढक सकता हूँ, शेषनागके फनसे मणि ग्रहण कर सकता हूँ, मन्दराचलको उखाड़ सकता हूँ, दसों दिशाओंको चूर-चूर कर सकता हूँ, हवाको पोटलीमें बाँध सकता हूँ, यममहिषपर चढ़ सकता हूँ, समुद्रका जल पी सकता हूँ, आशीविष सौंपको ला सकता हूँ ।।१-८।। ___घत्ता-युद्धमें इन्द्र को पकड़ सकता हूँ, चन्द्रमा और सूर्यकी प्रभा छीन सकता हूँ | धरती और आसमान एक कर सकता हूँ, परन्तु कठोर व्रत प्रण नहीं कर सकता" ॥९॥
[३] तब बहुत समय तक सोचनेके बाद, "लो, एक प्रत लेता हूँ" उसने कहा, "जो सुन्दरी मुझे नहीं चाहेगी, उस पर-स्त्रीको मैं बलपूर्वक नहीं प्रण करूँगा।" यह कहकर वह अपने नगर चला गया और अपने अचल राज्यका उपभोग करने लगा। यहाँ भी 'महेन्द्र' नामका राजा अपनी इच्छाके अनुसार कामको भोग करता हुआ रहता था। उसकी हृदयदेगा नामकी सुन्दर पत्नी थी। उसकी अंजना सुन्दरी नामकी
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५
पउमचरित
पिठ
कमल
वि ॥३
लड् षट्ट गिरि कलासु णेमि ॥ ७ ॥
बरु
से होस को नि ते '
॥ ८ ॥
११२
शिम्पुण रमति धण
उपण चिन्त 'कहीं कण्ण देमि । बिज्जाहर सय मिळम्ति जेथु ।
धसा
गड एम भणेवि पहु पब्वयों जिण अट्टाहिए अहावयहाँ । आश्रासि परसेंहिं गोयड हिं णं वारायणु मन्दर त हिं ॥९॥
[ * ]
सहुँ कंडसइऍ रविपुर आउ ॥१॥
एसविता पल्हाय-राउ | स विमाणुस साहस-परिवारु । अष्णु वि तहि पचणञ्जय कुमारु ॥ २ ॥ णं वन्दहत्तिएँ इन्दु अड् ॥३॥ ते ते विज्जाहर मिलिय सच्च ॥४॥ किय हवण पुज्ज लोक्कणा हें || ५|| । मित्तष्क्ष्य परोप्यरु हुआ ताहँ ॥ ६॥ 'तरणिय कष्ण महु तणउ पुत्तु ॥७॥ तं शिवि ते विदिष्ण घाय ॥ ८ ॥ मटियाँ मुहइँ खल-दुज्जणाएँ ॥९॥
एक्कत दूसावासु लड्ड ।
अवर वि जे जे आसगण-मन्त्र । पहिलाएँ फग्गुणणन्दोसराहें । दि बीयविह्निमि नराहिवाहँ पहाएँ कवि तु । किण कीरह पाणिगहणु राय' । परिओसु पवद्विड सज्जा हूँ ।
'चतु अञ्जण बाउकुमारु वह' 'लक्ष्य वासरें पाणिग्गणु
धूमाइ त्रष्ठइ धगधगद् चितु चन्दि
घत्ता
घोसेध्पिणु णयमाणन्दयस् । राय परवड वियय - नियय भवणु १० ॥
[4]
एत्यन्तरें दुज्जड दुष्णिदारु ।
मयणाउरु पत्रणञ्जय कुमारु ॥१॥
उ विसहइ सय दिवसु एन्तु | अणि शम्पन्तु ॥२॥
चन्दु घन्दणु जलधु।
मन्दिर अन्त पलितु ॥३॥ कंप्पूर- कमलदन सेज्ज - मध्वु [1811
११
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कहारमो संधि
RE
सुन्दर कन्या थी । एक दिन गेंद खेलते हुए उसके स्तन देखकर राजा अपने मुँहपर कर-कमल रखकर रह गया। उसे चिन्ता उत्पन्न हुई कि मैं किसे कन्या हूँ, लो मैं कैलास पर्वत ले जाता हूँ। जहाँ सैकड़ों विद्याधर मिलते हैं, वहाँ कोई न कोई वर अवश्य होगा ।। १-८||
पत्ता - यह विचारकर जिन अष्टाहिकाके दिनोंमें राजा अष्टापद पर्वतपर गया और निकटके भागमें ठहर गया, मानो मन्दराचलके तोंपर तारागण हों ||२||
[ ४ ] यहाँ भी आदित्यपुरसे प्रह्लादराज अपनी पत्नी केतुमती के साथ आया और अपने विमान, सेना और परिवारके साथ, कुमार पवनंजय भी । उन्होंने एक जगह अपना तम्बू ताना, मानो वन्दनाभक्तिके लिए इन्द्र ही आया हो। और भी जो-जो आसन्नभव्य थे, वे सब विद्याधर वहाँ आकर मिले | पहले उन्होंने फागुन नन्दीश्वर त्रिलोकनाथ की अभिषेकपूजा की। दूसरे दिन सत्र नराधिपोंकी परस्परमें मित्रता हुई । प्रह्लादने मजाक करते हुए पूछा, "तुम्हारी कन्या हमारा पुत्र, हे राजन, विवाह क्यों नहीं कर देते ।" यह सुनकर प्रह्लाद राजने भी वचन दे दिया। सज्जनोंको इससे सन्तोष हुआ, परन्तु खल और दुर्जनों के मुख मैले हो गये ॥ १-२ ॥
घत्ता - " अंजना बहू, और वर— नेत्रोंको आनन्द देनेवाला वायुकुमार तीसरे दिन विवाह" यह घोषणा कर राजा अपनेअपने घर चले गये ||१०||
[५] इसी बीच में दुर्जेय और दुर्निवार कुमार पवनंजय कामातुर हो उठा। आनेवाले तीसरे दिन को भी वह सहन नहीं कर सका, किसी तरह विरहानलको शान्त करनेका प्रयत्न करता है। उसका चित्त धुआँता है, मुड़ता है, धकधक करता है, जैसे घरमें भीतर ही भीतर आग लगी हो । चाँदनी चन्द्र
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२९४
दाहिण मारउ सीयल जला हूँ । डिहह हुई अञ्जु । णीससइ ससद् चैवइ तमेण । उच्हण आहरण-पसाद्दणाइँ ।
पउमचरिउ
तहाँ फुकिङ्ग केवलाई ||५|| सज्जन- हिययाई व पिसुण-सङ्ग ॥ ॥ घाडावर धाहा पञ्चमेण ॥७॥ सब्बई अङ्गर्हो भसुहावणाइँ ||८||
घत्ता
पासेउ बलगाइ सइ तणु
तं इङ्गिङ पेक्यवि मण्ण मणु ।
पमणिड पहसिऍण णिएवि मुहु 'किं दुम्बकिय कुमार तुदु' ॥९॥
[*]
पहसित पतु पचण
विरहविंग-दड्ड-मुह-कण । 'भो यणाणन्दण वाह-चित्त । जइ अज्जु ण लक्षित पियहँ ध्यणु संणिसुवि दुबह पहसिपुण । 'फणि- सिर- रयणेण वि णाहि गष्णु किं पण कवणुवि दुप्पवेसु' । थिय जान गवाएँ दिट्ठ वाक । मारो षि मरइ विरहेण जाहें ।
॥१॥ उ विसहउँ तइयउ दिवसु मिश्र ॥ २ । तो कल्लएँ महु नित्तुरूउ मरणु' ॥३ कमलेण च वयणें पहसिपुण ॥४॥ पूँउ कारण केसिड जे विषण्णु ॥ ५ ॥ गय वेणि विहिं सम्पवेसु ॥ ६॥ णं भयण वाण धणु-सोण-मारू ॥०॥ को वर्णेवि सक्कड़ रूबु ताई ॥ ८ ॥
।
धत्ता
तं बहु पेक्खचि परितोसिपूण वरस्तु पसिउ पहसिएण । 'तं जीविउ सहलु भणन्त सिय असु करें लग्गोसह ह दिय ॥२॥
[]
प्रथन्तरें सट्टमी - घन्द-भाड
सुड्ड जोऍचि चव व समाळ ॥१७
'लहकर तर माणुस जम्मु माएँ । भन्सार पक्ष रुद्ध जाएँ' ॥२॥
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भट्ठारहमो संघि
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जलाई-चन्दन कपूर-कमलदलोंकी मृदु सेज, दक्षिणपवन और शीतल जल, उसके लिए केवल आगको चिनगारियाँ थी । अनंग उसके अंग-प्रत्यंगको जलाता है, उसी प्रकार, जिस प्रकार दुष्टोंका संग सज्जनोंके हृदयको । निश्वास लेता, साँस छोड़ता, (अज्ञानसे) काँपता, पंचम स्वर में चिल्लाना, लत्तरीय आभरण और प्रसाधन सभी उसके अंगोंको असुहावने लगते ॥१-८11
पत्ता-पसीना पसीना होने लगता, शरीर टूटता। उसकी अन्यमन चेष्टा और मुँह देखकर प्रहसित बोला, “कुमार, तुम दुर्बल क्यों हो गये ||
६] विरहाग्निसे जिसका मुंहकमल दग्ध हो गया है, ऐसे पवनंजयने कहा, "हे नेत्रोंको आनन्द देनेवाले सुन्दरचित्त मित्र, मेरे लिए तीसरा भी दिन असच है, यदि मैं आज प्रियतमा का मुँह नहीं देखता तो कल मेरा मरण निश्चित है।” यह सुनकर ग्रहसित, जिसका मुख कमलके समान है, बोला; "नागराजके सिरका भी रत्न किस गिनतीमें है ? फिर यह कितनी-सी बात है कि जिसके लिए तुम इतने दुखी हो। क्या पवनका कहीं भी प्रवेश असम्भव है ?" इस प्रकार तपस्वीका रूप बनाकर रातमें दोनों गये। उन्होंने जालोके गवाक्षमें बालाको बैठे हुए देखा, मानो कामदेवके बाण धनुष और तूणीरकी माला हो। जिसके वियोग में कामदेव ही स्वयं मर रहा हो, उसके रूपका वर्णन कौन कर सकता है?॥१-८३
पत्ता-उस वधूको देखकर प्रहसितको परितोष हुआ और उसने वरकी प्रशंसा की, "तुम्हारा जीवन सफल है, जिसके हाथ अनन्तश्रीवाली यह स्त्री हाथ लगेगी" ||९||
[७] इसके अनन्तर, अष्टमीके चन्द्रके समान है भाल जिसका ऐसी अंजना सुन्दरीका मुख देखकर, वसन्तमाला कहती है, "दे आदरणीये, तुम्हारा मनुष्यजन्म सफल है जिसे
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२२३
पउमरिंड
तं गिसुर्णेवि दुम्मुह दुटु-वेस। सिरु विहुणे वि भणइ वि मीसकस ॥३॥ 'मोदामणिपहु पहु परिहरेवि। थि परशु कवणु मुणु संभरेवि ।। जं अन्तर गोपथ-सायराहुँ । जं जोइनणहं दिवायराहुँ ॥५॥ जं अन्तर केसरि-कुञ्जराह । जं कुसुमाउह-तिस्थकराह ॥॥ जं अन्तर गरुड-महोरगाहूँ। जं अमरराय-पहरण-णगा? ॥७॥ जं पुण्डरीय-चन्दुजयाहुँ। संविझुप्पहु-पक्षणन्जयाहूँ ॥८॥
धत्ता आऍहि आला हि कुविङ गरु थिउ भीसणु उक्लप-रषग्ग-करु । 'किं वयहिं बहुपडि बाहिरहि रिड स्वउ विहि मि केमि सिरह ॥५॥
[] कडु-अक्वरेण परिमासिरेण । करें धरिउ पहजशु पहसिएण ॥१॥ 'अं करि-सिर-स्य गुजलिय(?)देव । ते असिवरू महलहि एल्थु केम ॥२॥ लजिजहि घोलहि णाई मुशावु'। णिउ णिय-आवासहीं दुक्खु दुषनु ॥३ दस-बरिस-सरिस गय रयणि तासु । रवि उग्गउ पसरिय-कर-सहासु ।। कोका वि गरवइ पवर वर (?) हय भेरि पयाण दिग्ण णवार ॥५॥ अम्जणसुन्दरिह तुरन्तएण। उम्माहट लाइड जम्तएण ॥६॥ संचल्लइ पउ पर जेम जेम । कपिज्जह हियवउ तेम तेम ॥७॥ तेहएँ अवसरें बहु-जाणएहि। कर-चरण धरेपिणु राणएहि ॥८॥
घत्ता वलि-चण्ड भण्ड परियत्तियउ तेण वि उचाउ परिचिम्तियउ । 'लह एकवार करयले घरैवि पुशु बारह परिसई परिहरेहि' ॥९॥
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२९७
अरहरी सकि
पवनंजय जैसा पति मिला ।" यह सुनकर कोई दुर्मुख दुष्टबेशवाली अपना सिर पीटती हुई मिश्रकेशी बोली, "प्रभु विद्युत्प्रभ को छोड़कर, पवनंजयकी याद करने में कौन सा गुण है ? जो अन्तर गोपद और समुद्र में, जो जुगनू और सूर्यमें, जो अन्तर सिंह और गजमें, जो कामदेव और तीर्थकर में, जो अन्तर गरुड़ और महानागमें, जो वन और पर्वतराजमें, जो पुण्डरीक और चन्द्रमा है वही विद्युत्प्रभ और पवनंजय में है” ॥ १-८||
धत्ता- इन आलापोंसे पवनंजय कुपित हो गया, उसने अपने हाथ में तलवार निकाल ली और बोला, "बाहरी औरतों और वचनोंसे क्या शत्रु रक्षित हैं ? मैं दोनोंका सिर लेता हूँ" ॥९॥
[4] तब, कटु-अक्षरोंसे तिरस्कृत प्रहसितने पवनंजयका हाथ पकड़ लिया और कहा, "हे देव, जो असिवर गजोंके सिरोंके रत्नोंसे उज्ज्वल है, उसे इस प्रकार मैला क्यों करते हो. तुम्हें लज्जा आनी चाहिए कि तुम मूर्खकी तरह बोलते हो ।" वह बड़ी कठिनाई से उसे अपने आवासपर ले गया। उसकी रात दस वर्षके समान बीती । सवेरे अपनी हजारों किरण फैलाता हुआ सूर्य निकला। राजाने श्रेष्ठ लोगोंको बुलाया, भेरी बजा दी गयी। अंजनासुन्दरीके लिए तुरन्त कूच करवा दिया गया। परन्तु जाते हुए वह उन्मत्त हो गया। जैसे-जैसे वह एक पग चलता वैसे-वैसे उसका हृदय काँप उठता। उस अवसरपर बहुत से जानकार राजाओंने उसके हाथ-पैर पकड़कर ।। १-८।।
पत्ता - जबरदस्ती उसे मोड़ा। उसने भी अपने मनमें उपाय सोच लिया । "एक बार उसका पाणिग्रहण कर फिर बारह वर्ष के लिए छोड़ दूँगा” ॥९॥
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परमचरित
[१]
तो दुम्सु दक्खु पुम्मिय-मणेण। किड पाणिग्गहाणु पहजणेण ॥१॥ थिउ वारह वरिसई परिहरेवि । दि सुभइ भालवह सुइणवे(?)वि॥२॥ घारे चि ण जाइ ण (?) जेम जेम । खिज्जइ मिज्जा पुणु तेम तेम ॥३॥ उज्रन्त उस विरहाणलेण । णं बुज्झायह अंसुअ-जलेपण ॥४|| परिवार-भित्ति-चित्ताई जाई। णीसास-भूम-मलियाई ताई ॥५॥ दिल्लई आहरणई परियन्ति । णं गेहखण्ड-रण्दइँ पडन्ति ॥६॥ गउ रुहिरु णवर घिउ भइणु भस्थि ! णउ णावह जीषिउ अस्थि गस्थि ॥७॥ महिं तेहएँ का दसाणणेण । सुरवर-कुश पञ्चाणणेण ॥४॥
घत्ता जो दुम्मुहु दूर विसनिय सो पायउ कप्प-विवज्जियउ । हय समर भरि रहबरें चडिउ रणे रावणु वरुणही मम्मिजिउ ॥९॥
[..] एस्थस्तर वरुणहों णदणेहि। समरगणे बाहिय-सन्दर्णेहि ॥ १H राजीव-पुण्डरीएहि पवर। रघर-दूसण पावि धरिय गवर ॥२॥ गय पवण-गमण केण विदिट्ट । सहुँ बरुणे जल-युग्गमें पइट्स ॥३॥ 'सालयहुँ म होसह कहि मि घाउ' । उम्मेद्ध वि गड पगिया-राउ ॥४॥ णीसेस-दीव-दीवन्तराहुँ। लहु लेह दिपण विज्जाहराहे ॥५॥ अवरेक्कु रपणे दुज्जयासु। पवित लेहु पवणक्षया ॥६॥ संपेक्सवि तेण वि या किउ खेउ । णीसस्टि स-साहशु पाउ-बेउ ॥७॥ थिय मम्जण कामु कवि वार। णिन्ममिय 'भोसरु बुट्ठ दारें |
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अट्ठारहमो संधि
२१५ [२] तब उसने बड़ी कठिनाई और दुर्मनसे विवाह किया। उसने बारह वर्ष के लिए छोड़ दिया। स्वप्नमें भी न याद करता और न बात करता । जैसे-जैसे वह उसके द्वार तक नहीं जाता, वैसे-वैसे वह वेचारी खिन्न होती और छीजती। उसका हृदय विरहाग्निमें जलने लगा, मानो वह उसे आँसुओंके जलसे बुझाती। परिवारकी दीवालोंपर जितने चित्र थे, वे सब उसके विश्वासके धुएँसे मैले हो गये। ढीले आभूषण इस प्रकार गिर पड़ते, जैसे उसके स्नेहके खण्ड-खण्ड हो गिर रहे हों। रुधिर सूख गया। केवल चमड़ा और हलियौँ वची थीं। यह मालूम नहीं पड़ता था कि 'जीव है या नहीं। ठीक इसी अवसरपर सुरवररूपी कुरंगोंके लिए सिंहके समान दशाननने ॥१-८।। ___ घत्ता-जो दुर्मुख नामका दूत भेजा था, और जो समयसमयसे रहित है ( जिसका कोई समय निश्चित नहीं है }, ऐसा दूत आया। उसने कहा, "समरभेरी बज चुकी है, और रावण रथवरपर चढ़कर युद्ध में वरुणसे भिड़ गया है" ||२|
[१०] इसी बीच वरुणके पुत्रों, राजीव-पुण्डरीक आदिने युद्ध में अपने रथ आगे बढ़ाते हुए प्रवर खरदूषणको धरतीपर गिरा दिया। पवनगामी भी गये, उन्हें किसीने नहीं देखा,
और वरुणके साथ जलदुर्गमें प्रविष्ट हो गये । 'सालोपर हमला न हो' (यह सोचकर ) उन्मुक्त निशाचर-राज रावण भी यहाँ गया है । उसने समस्त द्वीप-द्वीपान्तरों के विद्याधरोंके लिए लेखपत्र भेजा है। एक लेख युद्ध-प्रांगणमें अजेय पवनंजयके लिए भी भेजा है। उस लेखपत्रको देखकर पवनंजयने, जरा मी खेद नहीं किया और सेनाके साथ कूच किया। अंजना द्वारपर कलश लेकर खड़ी थी। उसने उसे अपमानित किया, "हे दुष्ट स्त्री, हद ॥१-८॥
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पउमचरित
पत्ता तं णिसुणे दि अंसु फुपनियएँ वुचइ लीहउ ऋढन्तियएँ । 'भच्छन्त अच्छिर और महु अन् जाएसइ पई जि सहुँ' ॥२॥
तं ययणु पडिउ णं असि-पहारु । अवहेरि करेप्पिणु गड कुमार ॥१॥ मासण-सरवरें आवासु मुक्छ। प्रत्यवहाँ ताम पया दुक्कु ॥२॥ दिट्टई सयवत्तई मउलियाई। पिय-विरहिय-महुरि-मुहलिया॥३॥ चही वि दिह विणु चकएण। पाहिज्जमाण मयरन्दएण ॥३॥ विहुणन्ति चनु पङ्खाहणन्ति । विरहाउर पान्दन्ति धन्ति ॥५॥ सं णिएँ वि जाउ तहों कपा-मार । 'मई सरिसज अण्णु ण को वि पाउim ण कयाइ वि जोइड णिय-कलत्तु । अच्छह मयणमिग-पक्षिप्त-पतु ॥॥ परिभते वि संमाणिज' ण जाम । रणें वरुणही अज्झु ण देहि ताम'८॥
घत्ता सम्भाउ सहायहाँ कहिउ तुणु पहसिॉण घुनु 'ऐड परम-गुणु' । उप्पऍ चि णहङ्गणे वे वि गय पंसिय-अहिसिळणे मत्त गय ॥९॥
[ १२ ] मिधिसेण अत्त अक्षणह मवणु। पच्छपणु होवि घिउ कहि मि पवणु॥॥ गड पहसिउ भन्सरें पढ़ । पणप्पिणु पुणु भागमणु सिंह ॥२॥ 'परिपुण्ण मणीरह अजु देवि । हरें भायज बाउकुमास लेवि' ॥६॥ संणिसुणेवि भणह वसन्तमाल । औरंसु-सित्त-यण-अन्तराल ॥॥ 'मव-मव-संचिय-दुह-भाषणाएँ। एचड्डु पुण्णु शाह भक्षणाएँ ॥५॥ जो कि वेथारहि' रुभइ जाय । सयमेव कुमार पट्ट ताव ॥६॥
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भट्ठारहसो संधि
. घत्ता-यह सुनकर, आँसू पोछते हुए और लकीर खींचते हुए उसने कहा, "तुम्हारे रहते हुए ही मेरा जीव है, तुम्हारे जानेपर वह भी साथ चला जायेगा" ||९||
[११] यह वचन कुमारको असिपहारकी तरह लगा। वह उसकी उपेक्षा करके चला गया। मानस सरोवरपर उसने अपना डेरा डाला। तबतक सूर्यास्त हो गया। कमल मुकुलित दिखाई देने लगे, प्रिय के वियोगमें मधुकरियाँ मुखरित हो उठी, चकवी भी बिना चकवेके, कामदेयके द्वारा पीड़ित दिखाई दी, चोंचको पीटती और पंखोंको नष्ट करती हुई, विरहातुर वह चिल्लाती और दौड़ती हुई। उसे देखकर कुमारको करुणभाव उत्पन्न हो गया । ( वह सोचता है )"मेरे समान कोई दूसरा पापी नहीं है, मैंने अपनी पत्नीकी ओर देखा तक नहीं, वह कामकी ज्यालाओंमें जल रही है। जबतक लौटकर मैं उसका सम्मान नहीं करता, तबतक वरुणके युद्ध में मैं नहीं लगा" ||१८||
धत्ता--अपने सहायकसे उसने अपना सद्भाव बताया। प्रहसितने भी कहा, "यह अच्छी बात है।" आकाश में उड़कर दोनों गये, मानो लक्ष्मीका अभिषेक करनेके लिए दो महागज जा रहे हो ॥२॥
[१२] निमिष मात्रमें वे अंजनाके भवनमें जा पहुँचे । पवनकुमार कहीं छिपकर बैठ गया । प्रहसित भीतर घुसा और प्रणाम करते हुए, उसे आगमन बताया, "हे देवी, आज तुम्हारा मनोरथ परिपूर्ण हैं, मैं पवनकुमारको लेकर आया हूँ।" यह सुनकर घसन्तमाला, जिसका स्तनोंके बीचका हिस्सा आँसुओंसे गीला हो गया है, बोली, "यदि अंजनाका इतना बड़ा पुण्य है. तो क्या सोचते हो" ! ( यह कहकर ) वह जबतक
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१.३
पठमचरित
पहुरक्खर विणयाला लिन्तु । श्राणन्दु सोक्तु सोहग्गू दिन्तु ॥७॥ पल के पहिच कर लेवि देवि । विहसन्त-रमन्तई थियो वे पि ॥८॥
पत्ता स ई मु यहि परोप्यरु लिम्ता सरबसु आदिमा दिनताई। णीसन्धि-गुणेण ण णाया. दोण्णि वि एवं पिव जाया ॥१॥
ह्य रामएवचरिए णायासिय-सयम्भुएच-कए । 'पद णम्ज णा वि वा हो' भट्ठारहम इमं पम्वं ॥
[१९. एगुणवीसमो संधि ]
पशिष्टम-पहरें पहाण भावच्छिय पिय पयसन्तएँण । 'तं मरुसेग्जहि मिगणयणि ज मई अचहस्थिय मन्तएण' ॥
[१] जन्तएण आवषिमय जं परमेसरी ।
थिय दिसण्ण हेटामुह अन्जणसुन्दरी ||३|| कर मउलिकरेप्पिणु विष्णवह। 'रयसलहँ गम्भु जइ संमवइ ।।२।। तो उत्तर काई देमि जगहों। णवि सुज्झइ एउ मझु मणहो' ॥३॥ चित्तेण तेण सुपरिहवें वि। कणु अहिणाणु समल्ल वि ॥१॥ मउ परवइ सहुँ मित्तेण वहि। भाणसस- दूमावासु बहिं ।।५।। गुरुहार हुआ एत्तहे वि सह । कोकाव वि पमणह केडमह ।।६।। 'एड काई कम्मु पहूँ भायरिउ णिम्मलु महिन्द-कुल्लु धूसरिङ ॥७॥
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एणवीसमो संधि
३.६ रोती है कि कुमार प्रवेश करता है। मधुर अक्षर और विनयालाप करते हुए, आनन्द-सुख और सौभाग्य देते हुए, एक दूसरेका हाथ लेते-देते हुए वे पलंगपर चढ़े। दोनों हँसने और रमण करने लगे ॥१-८॥ - पत्ता-अपनी बाँहों में एक दूसरेको लेते हुए सहर्ष आलिंगन देते हुए दोनों एक हो गये और उन्हें नियोगही वान झात नहीं रही ।।५|| इस प्रकार धनंजयके आश्रित स्वयम्भदेव कृत 'पवनंजयविवाह' नामका अठारहवा यह पर्व समाप्त हुआ।
उनीसवीं सन्धि अन्तिम पहर में प्रवास करते हुए पवनंजयने प्रियासे कहा, "हे मृगनयनी, जो मैंने भ्रान्तिके कारण तुम्हारा अनादर किया, उसे क्षमा करो।" __ [१] जाते हुए प्रियने जब परमेश्वरीसे यह पूछा तो अंजनासुन्दरोने दुःखी होकर अपना मुँह नीचा कर लिया। वह हाथ जोड़कर प्रार्थना करती हैं, "रजस्वला होनेसे यदि गर्भ रह जाता है, तो लोगोंको में क्या उत्तर दूंगी ! यह बात मेरी समझमें नहीं आ रही है ?" तब उसके चित्तके विश्वास
और पहचान के लिए कंगन देकर कुमार पवनंजय अपने मित्रके साथ वहाँ गया, जहाँ मानसरोवरमें उसका तम्बू था। यहाँ यह सती गर्भवती हो गयी। तब केतुमती उसे बुलाकर कहती है, "यह तूने किस कर्मका आचरण किया है, निर्मल
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पडमचरित
दुग्वार-वहरि-विणिवाराहीं। मुहु मलित सुभहों महाराहों' ॥८॥ तं सुगंवि वसंतमाल अवह। 'सुविणे वि कलङ्क ण संभवह ॥९॥
অন্যা इमु कशशु इमु परिहणउ इमु कञ्चीदाम पहाणहाँ। गंतो का वि परिक्ष करें परिसुजमाई जेण मों जणहों ॥३०॥
संणिसुणवि वा समुष्टिय गुणु :
वे वि ताउ कसघाएँहि हयउ पुणुप्पुणु ॥१॥ कि जारही गाहिं सुधष्णु घरें। जें कहर घडावे वि छुहइ करें ॥२॥ अण्णु वि पत्तिउ सोहग्गु कर । जे काणु देव कुमार पर' ॥६॥ कडुअक्खर-पहर-भयाउरउ । संजायउ घे वि णिसाउ ॥ हकार वि पणिड कूर-मदु । 'हय जोत्तें महारह-वीद घडू ॥५॥ एयर दुहउ अवलक्षणड । सति-धवसामल-कुल-सन्छणउ ॥६॥ माहिन्दपुरहों दूरन्तरेण परिधिवधि आउ सहुँ रहवरेण ॥७॥ जिह मुअ ण आवड वत्त महु' त णिसुप वि सन्दणु जुत्तु लहु ॥८॥ गड वे वि चहावि गवर हि । सामिणि करड आएसु शहिं ॥९॥
घत्ता णयरहों दूरे वरन्तरैण अक्षण रुवन्ति भोरिया । 'माएँ खमेजहि जामि हउँ' सहुँ धाहएँ पुणु शोकारिया ॥३०॥
कूर-वीरें परिभत्तएँ रवि अत्यन्तो ।
अक्षणाएँ करउ चुक्षु व असहन्तभो ॥३॥ मीषण-रणिहि भीमण अड़ह । खाइ व गिलइ घ उवरि व पद ||२॥ भिभियइ ध भिकारी-रव हि। रुवह व सिव-सहहि रउरवहिं ॥३॥
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एगुणधीसमो संधि
२.५ महेन्द्रकुलको सूने कलंक लगाया है, दुर्धार वैरियोंका निवारण करनेवाले मेरे पुत्रका मुख मैला कर दिया।" यह सुनकर वसन्तमाला कहती है, "स्वप्नमें भी कलंककी
कहती हैं, ल मैला कर दियापारियोंका
भावना नहीं है
घत्ता-यह कंगन, यह परिधान और यह सोनेको माला कुमार पयनंजय की है। नहीं तो कोई परीक्षा कर लो जिससे लोगोंके बीच हम शुद्ध सिद्ध हो जाये" ॥१०॥ _[२] यह सुनकर केतुमती स्वयं काँपती हुई उठी। उसने दोनोंकों कोड़ोंसे बार-बार मारा। "क्या यारके घरमें सोना नहीं है, जो कड़े गढ़माकर हायमें इजा सकता है . और तुम्हारा इतना सौभाग्य कैसे हो सकता है कि कुमार तुम्हें कंगन दे।" उसके कटु वचनोंके प्रहारके डरसे व्याकुल होकर वे दोनों चुप हो गयीं । उसने क्रूर भटको बुलाकर कहा, "घोड़े जोतो और महारथकी पीठपर चढ़ो, कुलक्षणों चन्द्रमाके समान पवित्र कुलको कलंक लगानेवाली इस दुष्टाको महेन्द्रपुरसे बहुत दूर रथसे छोड़ आओ, जिससे इसकी बात मुझ तक न आये।" यह सुनकर उसने शीघ्र रथ जोता, उन दोनोंको चढ़ाकर वह केवल यहाँ गया जहाँके लिए स्वामिनीका आदेश था ॥१-२॥ __ धत्ता--नगरसे दूर बनान्तरमें उसने रोती हुई अंजनाको . उतार दिया, "आदरणीये क्षमा करना, में जाता हूँ" यह कहकर जोरसे रोते हुप. नमस्कार किया ॥१०॥
[३]"क्रूर वीरके वापस होनेपर सूरज डूब गया, मानो वह अंजनाका दुःख सहन नहीं कर पा रहा था । भीषण रातमें अटवी और भी भयानक थी, जैसे खाती हुई, लोलती हुई, ऊपर, गिरती हुई, भंगारीके शब्दोंसे डराती हुई, सियारांके
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पडमचरिउ
पुप्फुबह ष फणि-फुक्कार" हिं। बुकह व पमय-तुकारऍहि ॥४॥ सा दुक्खु बुक्म्नु पश्यिकिय णिसि । दिणवरण पसाहिय पुग्न-दिसि ॥५॥ गयड णिप-णयह पराइयर। मग्गए परिहास पधाइयउ ॥६॥ 'परमेसर आइय मिग-णयण । अक्षणसुन्दरि सुन्दर-वयण' ॥७॥ से सुवि जाय दिहि णरचरहों। 'लहु पट्टणे सट्ट-सोह करहों ॥८॥ उतम मणि-कजण-तोरणई। वर-वेसउ लेन्तु पसाहणइ ॥५॥
__ घत्ता सन्च पसाहहाँ मत्त गय पल्लाणहाँ पत्रर तुरङ्ग-थट । (जय-) मङ्गल-दूर आहूणहाँ सवडम्मुझ सन्तु असेस भउ ॥१०॥
भणे वि एम पडिपुच्छिउ पुणु दद्धाचओ ।
'कह तुरङ्ग कह रहवर को वोलायो' ॥१॥ पडिहारु पयोलित्र अतुल-चल । णड को वि सहाउ ण कि पि वलु॥२॥ मञ्जण वसन्तमाला सहुँ। भाइय पर एत्ति कहिउ महु ॥३॥ एकऍ अंसुभ-जल-सित्त-थण। दीसह गुरुहार विसरणा-मण' तं णिसुणे वि घिउ हेटामुहर। परवाइ सिरें वज्जेण हउ ॥५॥ 'दुस्सील दुट्ट मं पइसरउ । विणु खेवें जयरहों णीसरउ' ॥६॥
भणइ आणन्दु मन्ति सुचवि। अपरिक्रिसर किजाइ की ण दि ॥७॥ सासुअर होन्ति विरुधारित । महसइहें वि अवगुण-मारियउ |||
धत्ता सुफइ-कहाँ जिद खल-महउ हिम-वलियड कमलिणिहि जिह । होन्ति सहा घरिणिउणिय-सुहाँ खक-सासुअर सिंह ॥९॥
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एगुणवीसमो संघि
भयंकर शब्दोंसे रोती हुई, साँपोंकी फूत्कारसे फुफकारती हुई, बन्दरोंकी बुक्कारसे घिघियाती हुई-सी ! बड़ी कठिनाईसे वह रात बीती । और पूर्व दिशामें सूर्य हसा । जाती हुई वह किसी तरह अपने पिताके नगर पहुँची । प्रतिहारने आगे जाकर कहा, "हे परमेश्वर ! मृगनयनी, सुन्दरमुखी अंजना आयी है।" यह सुनकर राजाको सन्तोष हुआ! ( उसने कहा ) 'शीघ्र नगरमें बाजारी शांभा कराओ, मणिस्वर्ण के वन्दनवार सजाओ, सुन्दर वेष और प्रसाधन कर लिये जाय ।।१-२|
धत्ता-सभी मत्तगज्ञ सजा दिये जायें, प्रवर अश्वोंको पर्याणसे अलंकृत कर दिया जाये, सामने जाती हुई समस्त भटसेना जयमंगल तूर्य बजाय" ॥१०॥
[४] यह कहकर बधाई देनेवाले राजाने पूछा-"कितने घोड़े. कितने रथवर और साथ कौन आया है ?" तब अतुलबल प्रतिहारने उत्तर दिया, "न तो कोई सहायक है, और न कोई सेना है ? अंजना वसन्तसेनाके साथ आयी है, मुझसे केवल इतना कहा गया है, सिर्फ आँसुओंके जलसे उसके स्तन गीले हो रहे हैं, वह गर्भवती और दुःखी दिखाई देती हैं।" यह सुनकर राजा नीचा मुंह करके रह गया, मानो किसीने उसके सिरपर वा मारा हो । वह बोला, "दुष्ट दुःशील उसे प्रवेश मत दो, बिना किसी देरके नगरसे बाहर निकाल दो।" इसपर विचार कर आनन्द मन्त्री कहता है, “बिना परीक्षा किये कोई काम नहीं करना चाहिए, सास बहुत बुरी होती हैं, वे महासत्तियोंको भी दोष लगा देती हैं ॥२-८॥
घत्ता-जिस प्रकार सुकविकी कथाके लिए दुष्टकी मति, और जिस प्रकार कमलिनीके लिए हिमघन, उसी प्रकार अपनी बहुओंके लिए दुष्ट साँसें स्वभावसे शत्रु होती हैं" ॥९॥
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३०८
पदमचरि
[44]
सासुआ एक मेक-इराई
सुष्हाण
भारु भणेसह जं त्रिसु । वयगेण तेण मन्तिहं तपग 1 'किं कन्ऍ ह - विनियऐं । किं सु-कह शिरलङ्कारय । घरे अञ्जन समरण पत्र । सं पिसुर्णे च परेण णिवारियर | वशु गम्पिइ भीखण्ड | 'हा विह्नि हा काऍं कियन्त किउ
विहि मि कलु कम्दन्तियहि हिं चरन्त
ר
जण सुपसिद्धई । अणाइ - निबद्ध ई ॥ १।
विरुभारो होस तं दिवसु ॥२॥ भारुड पण कत्ति मण ॥३॥ किं किनिए इरिहिं जानियऍ ॥४॥ किं धीय गायि ॥५॥ राहों मंत्रन्धु पश्धु कवणु ॥ ६३॥ पढप्पणु णीसारियउ ॥ ७ ॥ वाहाविज पहवि अध्यण्ड ११८ ॥ । णिहि दरि विलोभण-जुयलुहिउ ' ॥१॥
बत्ता
वर्ण क्रों को व पण पेलियउ । हरिणेहि वि दोबड मेलियउ ॥१०॥
[६]
वारवार सोआउर शेत्र अञ्जणा ।
हयास
सासु हा माइ-जयेरहों गिट्ठर । कुलहर पहरहि मि गहु मि । गभेसरि जब जब संचरद् । सिस - भुक्ख किलामिक चत्तन्तुह सहिंदि महारसि सुमइ । असावण-ताबें ताविद्यउ । वहि अवसरे ये चि पहुक्किबउ ।
'का चिाहिँ मई जेही मुक्खहं भाषणा ॥१॥ परिहविय । हा माएँ पत्रिड संघविय ॥२॥ णीमारिय कह स्यन्ति पुरहों ॥३॥ परन्तु मणोरह सब मि ॥४॥ तरु सहिरहों छिल्लरु भरद्द ॥ ११ गय तेथ्थु नेत्धु पलियक-गुह ॥ ६३ ॥ णामेण भारउ अभियद् ॥७॥ छु र्जे बुड़ जोग्गु खम्मावियड ॥८॥ शुक्रख किले सहि सुकिय ||11
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एगुणवीसमो संधि [५] "लोगों में यह प्रसिद्ध है कि सासों और बहुओंका एक दुसरेके प्रति बैर अनादिनिबद्ध हैं। जिस दिन पति इस बातका विचार करेगा, उस दिन बहुत बुरा होगा।" लकिन मन्त्रीके इन वचनोंसे राजा प्रसन्न कीर्ति अपने मनमें क्रुद्ध हो उठा। वह बोला, "स्नेहहीन पत्नीसे क्या ? दात्रुको जाननेवाली कीर्तिसे क्या अलंकार-विहीन सुकचिकी कथासे क्या ? कलंक लगानेवाली लड़कीसे क्या ? घरमें अंजना, और युद्धमें पचनंजय, यहाँ गर्भका सम्बन्ध कैसा?" यह सुनकर एक नरने अंजना. का निवारण कर दिया और ढोल बजाकर निकाल दिया। यह भीषण वनमें घुसी। और अपनेको पीटती हुई जोर-जोरसे चिल्लायी, "हे विधाता, हे कृतान्त, तुमने यह क्या किया, तुमने निधि दिखाकर दोनों नेत्र हर लिये ।।१-९॥ - घसा- करण विलाप करती हुई म दोनोंने वन में किसको द्रवित नहीं किया, यहाँ तक कि स्वच्छन्द चरते हुए हरिणोंने भी मुँहका कौर छोड़ दिया ||१०||
[६] अंजना शोकातुर होकर बार-बार रोती है कि "ऐसी कोई भी नहीं, जो मेरे समान दुखकी भाजन हो । हताश सासने तो मुझे छोड़ा ही, परन्तु हे माँ, तुमने भी मुझे सहारा नहीं दिया, हे निष्ठुर भाई और पिता, तुम लोगोंने रोती हुई मुझे नगरसे कैसे निकाल दिया। अब कुलगृह, पतिगृह, पति भी सभीके मनोरथ पूरे हों।" गर्भवती बह जैसे-जैसे चलती चैसे-वैसे खूनका चूंट पीकर रह जाती। सुखोंसे परित्यक्त, प्यास और भूख से तिलमिलाती हुई वे दोनों वहाँ गयीं, जहाँ पयकगुहा थी। वह उन्होंने शुद्धमति महामनि आदरनीय अमितगति के दर्शन किये। आत्माके तपको करनेवाले जो योग्य और क्षमाशील थे | उस अवसरपर वे दोनों वहाँ पहुँची, मानो दुख और क्लेशसे वे सूख चुकी थीं ।।१-२।।
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पउमरिज
पत्ता चलण पदेय्पिणु मुणिवरहों मझग विपणवह लहन्ति मुह । 'अण्ण-भवन्तरें काई मइँ किउ दुकिज जे अणुहमि दुहु ॥१०॥
[७] पु वसम्ममालाई सुतु 'गड सर ।
पट सन्चु फलु एयहाँ गम्भों केरउ' ॥ १॥ तं णिमुणे वि चिगम-राउ-मण । 'ऍउ मध्यहाँ दोसु ण संभयह ॥२॥ जा घोखछ 'होमह तणउ त। हु चरिम-दंड रणे लव-जद ॥३॥ पइँ पुम्ब-मवन्तरे सइँ करें । जिण-पहिम सवप्तिहँ मच्छरेण ॥४ परिचित्त पस सं राहु युद्ध । एवहिं पावेसहि सयल-सहु' ||५|| गज एम मणेपि अभियगई। साणन्सर हुक्कु भयाहिंनद ॥६॥ बिहुणिय-सणु दूसग्गिष्णा-कम। रूणि अणि णाई जमु काल-समु।।७। कुमार-विर हिरामण-णहरु । कोला-मित्त-मर-पसर ।। || अद-बिन्द्रय साठ-पादिय-ययणु । रत्तप्य-गुस-परिहा-पY ॥९॥ खय-सायर-स्व-गम्भार-गिरु । लाल-देगा कपडुइय-सिरु ।।108
घत्ता तं पेक्यवि हरिणाहिनइ भजण स-मुच्छ महियले पहइ । विजा-पाणएँ उपाधि भायास वसन्तमाल रडई ॥१॥
[८] 'हा समीर पवणाय अगिल पक्षणा ।
हरि-कियन्त दन्तन्त र वक्ष अक्षणा 1|१॥ हा कम्मु काई किउ केउमइ खल सुक्ष्य रूहसहि कवण गइ ॥२॥ हा साय महिन्द मइन्टु धरें। सु.पागणांकत्ति पडिरक्स करें ॥३।। हा मायरिं तुष्टु मि ण संश्रवहि। मुलानिय दुहिय समुत्यवाहि ॥४!] गन्धवहीं देवहाँ दाणवहों। विजाहर-किंण्णर माणवहाँ ॥५॥
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एगुणवीसमो संधि घत्ता-मुनिवरके चरणोंकी वन्दना कर, अंजना अपना मुँह पोछती हुई निवेदन करती है, "मैंने अन्यभवमें ऐमा कौनसा पाप किया, जिससे दुखका अनुभव कर रही हूँ" ॥१॥
[७] तब वसन्तमाला बोली, "यह तेरा नहीं, यह सब फल तेरे गर्भका है ?" यह सुनकर वीतराग मुनि कहते हैं-.-"यह गर्भका दोष नहीं है ।" यति घोषणा करते हैं, "यह चरम शरीरी और युद्ध विजय प्राप्त करनेवाला हूँ। तुमने पूर्वजन्ममें अपने हाथसे सौतकी ईयाके कारण जिनप्रतिमाको फेंका था, उसी कारण इस दुखको प्राप्त हुई। अब तुम्हें समस्त सुख प्राप्त होगा।" यह कहकर अमितगति वहाँसे चले गये। इसी बीच में वहाँ एक सिंह आया, शरीर हिलाता हुआ, और दूरसे ही पैरोको उठाये हुए, जैसे शनि, वन या यम हो । जिसके दख गजोंके शिरोंके रखूनसे लाल है, जिसकी अयाल भी रक्तरंजित है, जिसका मुख्य अति विकट दाहोंके कारण खुला हुआ है, जिसके नेत्र लाल कमल और गुंजाफलके समान लाल है, जिसकी वाणी प्रलयसमुद्र के समान गम्भीर है, जो पूंछके दण्डसे अपने सिरको खुजला रहा है ।।१-१०॥
पत्ता-से उस सिंहको देखकर अंजना मूञ्छित होकर धरतीपर गिर पड़ी। तब विद्याके बलसे आकाशमें जाकर वसन्तमाला जोर-जोरसे चिल्लायो ||११||
[८] "हा समीर पवनंजय, अनिल प्रभंजन! अंजना इस समय सिंहरूपी यमकी दाढ़ोंके भीतर है। हा, केतुमतीने यह कौन-सा काम किया। उसने इसे छोड़ा है, वह कौन-सी गति प्राप्त करेगी ? हा तात महेन्द्र, सिंहको पकड़ो,मुरसनकीर्ति, तुम रक्षा करो, हा माँ, तुम भी सान्त्वना नहीं देती। तुम्हार। कन्या मूञ्छित है, उठाओ इसे | अरे गन्धर्वो, देवदानवो विद्याधरो,
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३१२
पउम चरिउ
जक्खहाँ रक्तही रक्खड़ों सहिय । णं तो पाणणेण गहिय ॥ ॥ ॥
संणिसुर्णेवि गन्धब्बाद्दिछ । मणिचूड रथणचूड दइउ |
अट्ठावड सावज होवि धिट ।
रखड पर उपचार -मह ॥ ७ ॥ पाणणु जेथु तेधु अड् ||८|| हरि पाराउर तेण क्रिउ ॥५९॥
घत
ताहि गया लोअरवि अजण वस तमाल मिलिय ।
'इहु अट्ठावड होन्तु ण वि ता वहह (?) आसि माए गिलिय ||१०॥
[]
एम वोल किर विहि मि परोप्यरु जायें हिं । गीज गेज गर्ने मणहरु ताहिं ॥ १ ॥
संणिणे वि परिक्षोसियकिय मर्णे (?) | 'पण्णु को वि सुद्दि बसवणं ॥ २ असमाहि-मरणु णासियत । अणुवि गन्धम्वु पयासिड' ॥३॥ अवशेष्यरु एम वतिय हुँ । पयिक-गुहहिं अच्छति ॥४॥ माहवमास हो वहुमिए । स्थणि पश्चिम-पहरवें थिएँ ||५|| हरू -कमल- कुलिस-झल- कमळ- जुठ ॥ ६॥ सुह लक्खणु अवक्वण- रहिउ ||७|| पडिसूरें सूर-सम-प्पण || ८ || ओभरें षि विमाणहीँ पुष्क्रिम ||९||
सवर्णे उप्पण्णु सुउ । स- कुम्भ-सह-सहिउ । ताणतरे पर वह जिम्मण हे जस्तै के वि यियि ।
'कहिँ जायज कई बिउ कसुर एवड्डदुड
घत्ता
कहीँ धोयल कहीं कुछउसियउ ! पण अच्छी जे अन्तिय ॥१०॥
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एटीसमो पनि किन्नरो, मनुष्यो, यक्ष, राक्षसो, बचाओ मेरी सखी को, नहीं तो सिंह उसे पकड़ लेगा।" यह सुनकर परोपकारमें हैं बुद्धि जिसकी, तथा जो युद्धमें अजेय है, ऐसा चन्द्रचूड़का पुत्र, विद्याधरराज रविचूड़ वहाँ आया, जहाँ सिंह था, और वह स्वयं अष्टापदका बच्चा बनकर बैठ गया। इस प्रकार सिंहको उसने भगा दिया ।।२-९।।
धत्ता-इतनेमें आकाशसे उतरकर वसन्तमाला अंजनासे मिलती है। (अंजना कहती है ) यहाँ अष्टापद होनेसे वह सिंह नहीं है, वह अष्टापद भी मायासे विलीन हो गया है ॥१०॥
[९] इस प्रकार दोनों में मधुर बातचीत हो ही रही थी तबतक गन्धर्वने एक सुन्दर गीत गाया। उसे सुनकर अंजना अपने मनमें सन्तुष्ट हुई, उसे लगा कि कोई सुधीजन छिपकर घनमें रहता है, जिसने इस असामयिक मरणसे बचाया और यह गन्धर्षगान प्रकाशित किया। इस प्रकार. आपसमें बातचीत करती हुई वे पर्यंक गुफामें रहने लगी। तब चैत्र कृष्ण अष्टमी की रातके अन्तिम पहरके श्रवण नक्षत्र में अंजनाको पुत्र उत्पन्न हुआ जो हल-कमल कुलिश-मीन और कमलयुगके चिह्नोंसे युक्त था। चक्र-अंकुश कुम्भ-शंखसे सहित शुभ लक्षणोंवाला वह अशुभ लक्षणोंसे रहित था। इसके अनन्तर जिसने शत्रुसेनाका नाश किया है और जिसकी प्रभा सूर्यके समान है ऐसे प्रतिसूर्यने आकाशमार्गसे जाते हुए उन दोनोंको देखा । उसने विमानसे उतरकर उनसे पूछा ॥१-२॥
धत्ता-"कहाँ पैदा हुई, कहाँ बड़ी हुई, किसकी कन्या हो, किसकी कुलपुत्रियाँ हो, किसको तुम्हें इतना बड़ा दुःख है जिसके कारण तुम वनमें रोती हुई रह रही हो" ॥१०॥
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पउमचरिउ
[ 0 ]
पुणु वसन्तमालाएँ पड़त्तर दिजइ । णिरवतही जिवन्तु हि 'अक्षणसुन्दरि कामे इम । मणत्रेय-महाविहे तजय । पाय पत्ति भइण । विजाहरु संणिसुर्णेवि दय । 'हउँ माऍ महिन्दी महुण्ड । उ हामि सहायक मारकउ |
१ ॥ सइ सुत्र मुन्नू जिह जिण-पडिम ॥२॥ जड़ सुणों महिन्दु सेण जणि ॥३३॥ मणहर पणञ्जयाह घरिणि ॥ ४ ॥ भाड़ वाहम्म भरिय-जय ॥५॥ सु-पसणकित्ति महु भायणउ || ६ || पढिसूरु हणूह - राउलट || ||
तं णिखुवि जागेवि मरेचि गुणु । अत्तिल्ल हि तारुण्णु पुणु ||८||
आसिहि
।
तं दिष्णु विहिणं खोय- रिशु ॥९॥
धत्ता
३१४
महसुसाइड अंसु पाणीसर
एकमेक भावीलिय । महार पीलियज ॥१०॥
[ 11 ]
दुक्खु दुक्खु साहा विणणावि । साउले यि णियय विमाणें चढ़ावें षि ॥ १ ॥
गण
सुर-करिवर-कुम्भटथल-धणहुँ । णीसरि वालु अइ- दुखलिउ । माइ वत्ति डिउ इन्हें । उच्चावि पिंड विज्जाहरें हिं । अजण समपिड जाय दिहिं । यि पुरु पसारे त्रिगरवरेंण ।
जन्ति भञ्जनायें ॥ २ ॥
ग्राहक सिरि
गहिजे ॥ ३ ॥
णं विज्जु उप्पर सिलहें ॥४॥ जन्मणे जिणवरु सुरवरें हि ॥५॥ प पढीवर लघु निर्हि || ६ || जम्मोच्छउ कि पडिणियरेण ॥७॥
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एगुणधीसमो संधि [१०] तय वसन्तमालाने उत्तर दिया, उसने उसका (अंजनाका) और अपना सारा वृत्तान्त बता दिया । इसका नाम अंजना सुन्दरी है, यह सती उसी प्रकार शुद्ध और सुन्दर है जिस प्रकार जिनप्रतिमा । यह महादेवी मदनवेगा की कन्या है, यदि महेन्द्रको आप जानते हैं, उन्होंने इसे जन्म दिया है। यह प्रसन्नकीर्तिकी प्रकट पहन है, और पवनंजयकी सुन्दर गृहित ।" यः यापन सुनकर विद्यापरको आँखें आँसूसे भर आयीं | वह बोला, "आदरणीये, मैं महेन्द्रका साला हूँ, प्रसन्नकीर्ति मेरा भानजा है, मैं तुम्हारा सगा मामा हूँ, प्रतिसूर्य हनुरुह द्वीपके राजकुलका।" यह सुनकर, जानकर और अतुल गुणोंकी याद कर वह फिर से रोयो कि पुण्योंके बिना जो कुछ मैंने ( पूर्वजन्ममें ) अर्जित किया था, विधाताने वही मुझे शोक-ऋण दिया है ॥१-९॥ | ___घत्ता हर्षपूर्वक एक दूसरेको स्वागत देते हुए उन्होंने जो एक दूसरेको आलिंगन दिया, उससे अश्रुधारा इस प्रकार वह निकलती है, मानो करुण महारस ही पीड़ित हो उठा हो ॥२०॥
[११] कठिनाईसे उसे ढाढ़स बंधाकर और आँसू पोंछकर मामाने उसे अपने विमानमें चढ़ाकर ले गया। ऐरावतके कुम्भस्थलके समान है स्तन जिसके ऐसी वसन्तमाला जब आकाशमार्गसे जा रही थी, तब वह अत्यन्त सुन्दर बालक विमानसे गिर पड़ा, मानो आकाशतलरूपी लक्ष्मीसे गर्भ ही गिर गया हो। हनुमान् शीघ्र ही धरती पर गिर पड़ा, मानो शिलाके ऊपर विद्युत्पुंज गिरा हो, विद्याधर उसे उठाकर ले गये, मानो जन्मके समय सुरवर ही जिनेन्द्रको ले गये हों। उन्होंने अंजनाको सौंप दिया। उसे धीरज हुआ, जैसे नष्ट हुई निधिको उसने दुबारा पा लिया हो, नरवर प्रतिसूर्यने अपने पुरमें ले जाकर उसका जन्मोत्सव मनाया ।।१-७||
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३१५
पउमचरिउ
'सुन्दरु' जग सुन्दर मर्णेवि हगुरुह दीखें पवद्वियड
२ ]
एत्त विवरण मेलावेपिणु । रावणही विसन्धि करेपिणु ॥१॥
'एम भणेजहु केदमइ विरह-दवाणल-दीविषय
[
शिव जयरु पईसइ जाब म६ । पेक्खेणु पुच्छिय का वितिय सं शिसुर्णेचि तुम्बइ वालिय । किर ब्छु भनें वि पर णरवरहीं । तं सुर्णेवि समीरणु णीमरिउ । गज सेन्धु जेधु तं सासुरख | पिय इण दि वर सहिम परियत्ति पहसिया-सयण |
घत्ता
'सिरिमल' सिलाय चुष्णु णिउ | 'हृणुषस्तु' नामु តិ तासु किड ||८||
[
'घता
परन्तु मणोरह माएँ तर । पणजय पायषु खयों गढ़ ||१०||
जीसुष्णु तामयि धरिणि वरु ॥२॥ कहि अअणसुन्दरि परण-पिय ॥३॥ 'प्रणव- रम्भ- राज्भ - सोमालियऍ ॥४॥ केउमइऍ लिय कुरूदर ॥ ॥ अमरहिं वयस परियरिउ ॥६॥ किर दरिसाइ सा सुर ॥७॥ असहन्तु पहजणु गउ कहि मि ॥ ८ ॥ दुक्खाउर ओहुलिय- वयण ॥२९॥
पणजओ वि पवित्र उ पुच्छ 'अहाँ सरवर दिट्ठ धण | अहीं रामहंस साहिव । अहीं दीहरणहर मयाहिवइ । अह कुम्मि कुम्भ-सारिष्द्ध थप |
* ]
दुखु सुक्ख परियत्तिय सयक चि सजणा ।
गय रुपन्त णिय-लियों उम्मण-दुम्मणा ||१||
काण पसर विमाय-र ॥२॥ रसमल - दरू - कोमल चलण ||३|| कड़े कहि मि दिन जइ हंस-गद्द ॥४॥ कहें कहि मि मित्र त्रिणि दिनु जइ || ५ || केसई कि दिट्ट सइ सुद्ध-मण || ६ ||
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एगुणवीसमो संधि
३१७
घत्ता-वह सुन्दर था, दुनिया उसे सुन्दर कहती, 'श्रीशैल' इसलिए कि शिलातल चूर्ण किया था। हनुवन्त नाम इसलिए, क्योंकि हनुरुह द्वीपमें उसका लालन-पालन हुआ था ८।।
[१२] यहाँपर भी खरदूषणको मुक्त कराकर तथा रावण और वरुणकी सन्धि कराकर वर पवनंजय जब अपने नगरमें प्रवेश करता है तो उसे अपनी पत्नीका भवन सूना दिखाई दिया । उसने एक स्त्रीसे पूछा, "प्राणप्रिय अंजना कहाँ है ?" यह सुनकर वह कहती है, "नवकदली वृक्षफे गाभके समान सुन्दर उस बालिकाके गर्भको परपुरुषका गर्भ समझकर केतुमतीने उसे कुलगृहसे निकाल दिया ।" यह सुनकर पवनंजय वहाँसे निकल गया। अपनी समानवयंके मित्रोंसे घिरा हुआ बह वहाँ गया जहाँ उसकी ससुराल थी कि शायद वह प्रिया वहाँ दिखाई देगी? लेकिन उसकी इष्ट प्रिया केवल वहाँ भी नहीं दिखाई दी। इसे असहन करता हुआ पवनंजय कहीं भी चला गया। नीचा मुख किये, दुःखातुर, प्रहसितके साथ वह लौट पड़ा ।।१-९॥ __ घत्ता-केतुमतीसे इस प्रकार कह देना कि हे माँ, तुम्हारे मनोरथ सफल हो गये, पवनंजयरूपी वृक्ष विरहकी ज्वालामें जलकर खाक हो गया ॥१०
[१३] सभी सज्जन बड़ी कठिनाईसे वापस आये । जन्मन, दुर्मन वे रोते हुए बड़ी कठिनाईसे अपने घर गये ।।
प्रतिपक्षका हनन करनेवाला विषादरत पवनंजय भी जंगलमें प्रवेश करता है और पूछता है-अरे हंसोंके अधिराज राजहंस ! बताओ यदि तुमने उस हंसगतिको कहीं देखा हो, अहो दीर्घ-नखवाले सिंह, क्या तुमने उस नितम्बिनीको कहीं देखा है ? हे गज, कुम्भके समान स्तनोंवालीको क्या तुमने
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पउमचरिउ
अहाँ अहाँ असोच पलाय पाणि । कांहें गय पर हुए परहूय-वाणि ॥
अह रुन्द चन्द्र चन्द्राणणिय । अहाँ सिहि कलाव सहि चिहुर
मिंग कहि मिट्टि मिन-टोयणिय 11८ ण णिहालिय कहि मि विरह-बिहर' 119
घता
194
विकें
साखय-पुर-परमेस्वरेंण
मोह-महादुमुदितु किए। मित्रवर्णे पयागु जिषेण जिह ||१०|
[ १४ ]
सं णि िवड पाय अष्णु विसरवरु | कालमे गामेण खमा विजय गय ||१||
'जं सयक काळ कृष्णारि ।
आकाण खम्भे गं आलियड 1
सबल खमंज्जहि कुम्मि महु । 'जह पत्त यस कन्त तनिय । जइ घईं पुणु एह ण य दिहि । घिउ मणु लवि राहिवइ । सच्छन्तु गहन्दु वि संचर | पश्चिरल पासुन मुझइ किह ।
अक्स-खर-पहर-विद्यारियट || २ || अंसल कियसिद्ध ॥३॥ तर्हि पक्राउ कपूर बहु ||४| तो उ णिचित्ति गहू एसडिय ||५|| तो परमज्यु सणास विधि' ॥६॥ झायन्तु सिद्धि जिह परम - जइ ॥ ७॥ सामिय- सम्माणु वा बीसर ||८|| मव भव- किउ सुक्किय कम्मु जिह ॥ १ ॥
ܒ
पत्ता
ताम रुपहसिए भक्ति जगण कुग्णाणणहूँ । 'एउ ण जाणहुँ कहि मि गड महएव विभोएं अजहें ॥१५॥
1
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एगणवीसमो संधि
२१९ देखा है, उस शुद्ध और सतीमनको देखा है। अहो अशोक ! पल्लवोंके समान हाथवाली, उसे देखा है ? हे कोकिल, कोकिलवाणी कहाँ गयो १ अरे सुन्दर चन्द्र ! वह चन्द्रमुखी कहाँ गयी, हे मृग, बताओ क्या तुमने मृगनयनीको देखा है ? अरे मयूर! तुम्हारे कलापकी तरह बालोंवाली उसे क्या तुमने देखा है ? क्या वह विरह विधुरा तुम्हें दिखाई नहीं दी ? ॥२-९॥ ___यत्ता-उस विपुल बियावान जंगलमें भटकते हुए उसे एक महान वटवृक्ष इस प्रकार दिखाई दिया कि जिस प्रकार शाश्वतपुरके परमेश्वर जिनभगवानने दीक्षाके समय प्रयागवन देखा था॥१॥
[१४] उस वटवृक्ष और दूसरे एक सरोवरको देखकर भमजयनेमके कामे के लाजवर ना माँगी । जो हमेशा मैंने तुम्हारे कानों में शब्द किया, अंकुशके खरप्रहारोंसे जो विदीर्ण किया, आलात खम्भेसे जो तुम्हें बाँधा, श्रृंखला और बेड़ियोंसे जो नियन्त्रित किया, हे गज, वह सब तुम क्षमा कर दो। उसने शीघ्र वहाँ यह प्रतिज्ञा कर ली, "यदि पत्नीका समाचार मिल गया, तो मेरी यह संन्यासनाति नहीं होगी, पर यदि मेरा यह भाग्य नहीं हुआ, तो मैं संन्यासविधि ले लूंगा।" राजा मौन होकर उसी प्रकार, स्थित हो गया जिस प्रकार परममुनि सिद्धिका ध्यान करते हुए मौन धारण करते हैं। वह गज स्वच्छन्द विचरण करता, परन्तु स्वामीके सम्मानको नहीं भूलता। वह उसकी रक्षा करता, और किसी भी प्रकार उसका साथ नहीं छोड़ता, जैसे भवभवका किया हुआ पुण्य साथ नहीं छोड़ता ॥१-२॥ __घत्ता-इसी बीच, दुखी है चेहरा जिसका, ऐसी पवनंजयकी माँसे रोते हुए प्रहसित ने कहा, "यह मैं नहीं जानता कि अंजनाके वियोगमें पवनंजय कहाँ चला गया है" ॥१०॥
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पउमचरित
[१५] तं णिसुणनि सच्चशिय-पसरिय-वेयणा ।
पषण-जणणि मुस्लाविध थिय अरचे यया ॥॥ पवालिय हरियन्द-रसेंग! उज्जीविय कह वि पुण्ण-घसंण ॥२॥ 'हा पुत्त पुस दरववाह मुहु । हा पुत्त पुत्त कहिं गयउ मुढे ॥३॥ हा पुस आउ महु कमें हि पछु। हा पुत्त गुप्त रहगएहि चडु ॥५॥ हा पुत्त पुत्त उनवणेहि ममु। हा पुत पुस मेग्दुए हि रमु ॥५॥ हा पुत्त पुस अस्थाणु करें। हा पुन्त महाहव वरुणु धरें ॥३॥ हा यहुए वहुए मई भन्तियए। तुहें घल्लिय अपरिक्वरितय ॥७॥ पल्हाएँ धीरिय 'लुहहि मुहु। णिकारण रोवहि काई राहे ॥८॥ हउँ कन्ते गयेसमि तुत्र तण। इमु मेइणि-मण्डल केतड़उ' ॥९॥
घता एम मोचि राहिण अवधारु कर वि सासणहरहुँ । उमय-संदि-विणिवासियहुँ पढ़वित्र लेह विजाहरहुँ ॥१॥
एषक जीतु संपेसिड पासु दसासहो।
भक्क-लक-तइलोकक-बक्क-संतासहो ॥१॥ अवरक्क विहि मि खर-दूसण? । पायाललक-परिभूसणहूं ॥॥ अवरक्कु कद्वय-पस्थिवहाँ। सुग्गीवहाँ किविकग्वाधिवहीं ॥३॥ अवरंक्कु फिक्कुपुर-राणाहुँ। जल-णीलहुँ पमय-पहाणाहुँ ॥४॥ भवरेक्छु महिन्द-गराहिवहाँ। तिकलिङ्ग-पहाणहाँ पस्थिवहीं ॥५॥ मवरंक्कु धवल-णिमाल-कुलहौं। पदिसूरहीं अक्षण-माउलही. ॥६॥ दूपत्ता पत्तएँ गोड-भय । हगुवन्तहो मायरि मुच्छ गय १७॥ महिसिञ्चिय सीथल-बन्दर्णण । पढ वाय घर-कामिणि-जर्णण ६ ॥ भासासिय सुन्दरि पत्रण-पिय । पंपिय मुहिणाहय कमल-सिय ॥९)
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सगुणवीसमो संधि [१५] यह सुनकर पवनंजयकी माँक सब अंगोंमें वेदना फैल गयी । वह मूच्छित और संज्ञाशून्य हो गयी। हरिचन्दनके रससे छिड़ककर (गीला कर ) किसी प्रकार पुण्यके वशमे वह फिरसे जोषित हुई। (वह विलाप करने लगी), "हा पुत्र-पुत्र, मुझे मुँह दिखाओ, हा पुत्र, पुत्र, तू कहां गया, हे पुत्र आ, और मेरे चरणों में पड़, हा पुत्र-रथ और गजपर पढ़ो, हा पुत्र-पुत्र, उपवनोंमें घूमो, हा पुत्र, पुत्र, तुम गेंदोंसे खेलो, हा पुत्र-पुत्र, तुम सिंहासनपर बैठो, हा पुत्र-पुत्र, महायुद्धमें तुम वरुणको पकड़ो, हा बहका बड़. मैंने बिना परीक्षा लिग तुमे निकाल दिया। तब प्रज्ञादने उसे धीरज बैंधाया, "अपना मुँह पोंछो, अकारण तू क्यों रोती है, हे कान्ते, मैं तेरे पुत्रकी खोज करता हूँ, यह पृथ्वीमण्डल है कितना ॥१-९|
यत्ता-यह कहकर और उसका उपचार कर राजाने शासनधरोंके द्वारा विजयाकी दोनों श्रेणियों में निवास करनेवाले विद्याधरोंके पास लेख भेजा ॥१०॥
[१६] एक योद्धाको सूर्य, शक्र और त्रिलोकमण्डलको सतानेवाले रावणके पास भेजा, एक और, दोनों खर और दूषणको, जो पाताललंकाके भूषण थे, एक और, कपियोंके राजा, और किष्किन्धाधिप सुग्रीव के पास, एक और वानरोंमें प्रमुख किष्कपुरके राजा नल और नीलके पास, एक और प्रैलोक्यमें प्रधान राजा महेन्द्र के पास, एक और धवल और पवित्र कुलवाले, अंजनाके मामा प्रतिसूर्य के पास । उस खोटे पत्रके पहुंचते ही भयभीत हनुमानकी माँ मच्छित हो गयी। उसपर शीतल चन्दनका छिड़काव किया गया, और ससम कामिनीजनने हवा की । पवनंजयकी प्रिया अंजना आश्वासित हुई, मानो हिमाइत कमलश्री हो ॥१-९।।
२१
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पदमश्चरिड
घत्ता
लाम विधीरिय माउलेश 'मा माए विराट करि मणहों। सिवहाँ सासय-सिद्धि विह तिह पर वक्तवमि समीरणही' ||१
[ ७] पुणु पुणो वि धोरेपिणु भक्षणसुन्दरि ।
जिय-विमाणे आस्तु णराहिष-केसरि ॥१॥ गठ सेसई जेत्त केउमइ । अणु वि पाहायणराहिषट् ॥३॥ . गरघर-विन्दा असेसाई । मेलेथिणु गयो गयेसाई ॥१॥ संभूबरवाद स्काई। घर-उलई व याप्यहाँ चुक्काई 1911 पवणार जहि भारद विपद। सो कालमेहु वणे दिख गर ॥५॥ उदाइड उक्कर उन्वयशु । तण्डचिय-कण्णु तस्विर-गयणु ॥ ६॥ तं पाराउट्ठर करवि बनु । गज सहि में पशोपड़ भतुल-बलु ॥७॥ गणियारिड डोहय वसिकिया। णघ-सिमि-सप भमस व थियउ॥८॥ किकरहि गवेसन्तेहिं वर्ण । क्खिड वेलहले लया-मवणें ॥९॥ जोक्कारिउ विजाहर-सप हि। लिह जिणवा सुरहिं समागए 1ि.
पत्ता मउशु म्एवि परिट्रियउ गर यह ण चल्ला माण-परु । जाय मन्ति मणे सम्बहु मि 'कटमउ किग्ण णिग्मविड णर' १७॥
[ ४] पुणु सिलोड बवणीय लिहिउ स-हस्यण ।
'अक्षणाएं मुहगाप भरमि परमायण ॥१m जीवन्ति णिसुणमि पस जइ। तो वोलमि यह एत्तरिय गई ॥३॥
णिसुणेपि हणुरूहाणऍण । बजरिम वत्त परिजाणऍण ॥ सामरस-हास-सरिसाणणज। घिणि मि वसम्तमालाणउ ||॥
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एगुणवीसमो संधि धत्तातब मामाने भी उसे समझाया, "हे आदरणीये, अपने मनमें विषाद मत करो, सिद्ध जैसे शाश्वत-सिद्धिको देखते हैं, उसी प्रकार मैं तुम्हें पवनकुमारको दिखाऊँगा" ॥१०॥
[१७] इस प्रकार बार-बार अंजना सुन्दरीको समझाकर बह नराधिप सिंह अपने विमानमें बैठ गया। वह वहाँ गया, जहाँ केतुमती और प्रहादराज थे। अशेष नरवर समूह एक साथ होकर उसे खोजने के लिए गये, वे उस भूतरवा अटवीमें पहुँचे, जो ऐसी मालूम होती थी, जैसे अपने स्थान च्युत मेघकुल हों। पवनंजय जिस गजपर बैठकर गया था, वह कालमेष उन्हें वहाँ दिखाई दिया | अपनी मह और मुख ऊंचा किये हुए, कान फैलाये हुए, लाल-लाल आँखोवाला वह महागज दौड़ा, सेनाने उसे नियन्त्रित किया, वह अतुलबल फिर वापस वहाँ गया। हथिनी ले जानेपर वह उसी प्रकार वशमें हो गया जिस प्रकार कमलिनियोंके समूह में भ्रमर स्थित रहता है। वनमें खोजते हुए अनुचरोंने उसे बेलफलोंके लतागृह में बैठे हुए देखा। सैकड़ों विद्याधरोंने असे वैसे ही नमस्कार किया, जिस प्रकार आये हुए देव जिनयरको नमस्कार करते हैं ।।१-१०॥
घसा यह मौन लेकर बैठा था, ध्यानमें लीन, न बोलता है और न डिगता है, सभीको यह भ्रान्ति हो गयी, क्या यह मनुष्य काष्ठमय निर्मित है" ॥११॥
[१८] उसने अपने हाथसे धरतीपर श्लोक लिख रखा था, "अंजनाके मर जानेपर मैं निश्चित रूपसे मर जाऊँगा।" यदि उसके जीनेकी खबर सुनूंगा, तो बोलूंगा । बस मेरी इतनी ही गदि है।" यह पढ़कर हनुरुह द्वीपके राजाने अंजनाका समाचार उसे दिया कि किस प्रकार म्लान रक्त कमलके समान मुखवाली बसन्तमाला और अंजना दोनों, दानों नगरोंसे
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पसमचरिड
जिह उमय-पुरहुँ परिपलियर। बिह वणे ममियड एलियर || जिरिवरेण सवसन किड। अट्ठावरण जिह उपसमिज ॥६॥ जिह कर पुत्तु भूसणु इसा! मिह जो जिसन पनि सिल ॥७॥ सिरिसाइलु नाउँ हणुवन्तु जिह। विस असेसु नि कहिउ तिह ॥ तपय पुणेवि समुट्टियउ। पटिरे पिय-गवरहों णियउ ॥९॥
घसा
मिकिट पहाणु अक्षणहाँ पणुस-दीवे परिठियई
देषिण मि णिय-कहर कहताई। मिरु र सई भुञ्जन्ताई ॥१०॥
[२०. वीसमो संधि परम्सन पावणि मर-चूडामणि जाव जुवाण-मा चढाइ । तहिं अपसरे रावणु सुर-संताव रणउहें वरुणही अभिमबह ।
[] इनागमण कोउ सबजाई। सर सरह दसासु सच्याइ ॥३॥ परिवेडिउ रयणियर-सहासें हि। पेसिय सासणहर घठपास हि ॥२॥ लसण-सुग्गीव-रिन्दहुँ। जल-णीलहुँ माहिन्द-महिन्दहुँ ॥३॥ पाहायहाँ परिदिणयर-पवणहुँ । प्राणेंवि समरु परुण-दहवयणहुँ ॥४॥ मारह सयण-जगालाउरें हिं। पद पवणाय-पटिसूर हि ॥५॥ 'वहस परिपालहि मेइणि । माणहिराप-समिजिह कामिणि भम्हेंहि शवण-आण करेगी। पर-वक-जय-सिरि-बहुम हरेवी' । संणिमुणे वि अग्निगरि-सौदामणि। चक्षण पवेप्पिणु पमणइ पाषणि॥
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पीसमो संधि निकाली गयीं, किस प्रकार अकेली वनमें घूमी, किस प्रकार सिंहने उपसर्ग किया और अष्टापदने उन्हें बचाया, किस प्रकार पृथ्वीका आभूषण पुत्र प्राप्त किया, किस प्रकार आकाशमें ल जाते हुए शिलापर गिर पड़ा और किस प्रकार उसका नाम पड़ा, यह सारा वृत्तान्त कह दिया। यह वचन सुनकर वह सठा, प्रतिसूर्य उसे अपने नगरमें ले गया ।।१-२॥
पत्ता--प्रभजन वहाँ अंजनासे मिला दोनों अपनी-अपनी कहानी कहते हुए हनुरुह द्वीपमें प्रतिष्ठित हो गये और स्वयं राज्यका उपभोग करने लगे ॥१०॥
बीसवीं सन्धि जबतक भट चूड़ामणि हनुमान बढ़कर युवक हुआ, तबतक सुरसन्तापक रावण वरुणसे भिड़ गया। - [१] दूतके आगमनसे उसका क्रोध बढ़ गया । स्वयं दशानन हर्षके साथ तैयारी करने लगा। वह हजारों निशाचरोंसे घिरा हुआ था, उसने चारों ओर शासनधर भेजे। खरदूषण-सुप्रीव राजाओंको, नल-नील और महेन्द्रनगरके महेन्द्रको । प्रह्लाद, प्रतिसूर्य और पवनंजयको। वरुण और रावणके समरकी बात जानकर, स्वजनकी विजयकी आशासे पूरित पषनंजय और प्रतिसूर्यने हनुमानसे कहा, "षत्स-वत्स, तुम धरतीका पालन करो और राजलक्ष्मीको कामिनीकी तरह मानो। हमें रावणकी आशाका पालन करना है और शत्रुसेनाकी विजयश्रीरूपी वधूका अपहरण करना है ।" यह सुनकर शत्रुरूपी पर्वतके लिए बिजली के समान हनुमान्ने चरणोंको प्रणाम कर कहा-॥१-८॥
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२२९
पउमचरित
घत्ता 'मि तुम्हें विजाहाँ अप्पुणु मुभाहों मई हशुषन्ने हुन्तऍण । पावम्ति वसुन्धर चम्द-दिवायर कि किरणो सन्तपण' ॥९॥
[२] मणह समीरणु 'जयसिरि-लाहउ । अन्जु घि पुस ण पेक्विन माहउ ॥३॥ अज्जु वि चालु केम तु जुल्महि । अन्जु वि यूह भेउ णद बुभमहि' १२॥ सं णिसुणेवि कुविउ पवणचह। 'वालु कुम्मिकि विवि ण माइ॥३॥ वाल सीह किं करि ण विहादइ । कि वालग्गि दहा महारइ ॥ वालयन्दु कि जणं ण मुणिज्जह । वालु भारउ किं ॥ थुणिज्जा ॥4 बाल भुषामु काई ण खाइ। बाल रवि समोहु किं UR' ॥३॥ एम मणेवि पहम्मणि-राणड । बडाणपरिह दिण्णु पयाण ॥७॥ दहि-अखिय-जल-साल-कलसहि । पढ-कहा-बम्वि-विष्प-णिग्योसहि ॥६॥
धत्ता हणुवस्तु स-साहणु परिमोसिय-मशु एम्त दिख सकेसरण । कण-दिषसें बलम्वउ किरण-फुरन्त तरुण-तरणि प ससहरण ॥५॥
[१] दूरहों ऑकोक्क-मपावणु। सिक जावें वि जोक्कारिज रावणु ॥१॥ वेण वि साहसेण सब्वानित । पम्तउ सामीरणि आलिखित ॥॥ सुम् वि उचोलिहि वहसारिख । वारवार पुणु साहुपकारिउ ॥३॥ 'धण्णउ पवणु जासु नहुँ गन्दणु । भरहु ओम पुरपवहाँ पदणु' | एम कुसल-पिय-महुरालार्वेदि। करण-कश्मीदाम-कलावहिं ॥५॥ सं हणुवन्त-कुमार पपुषि। वरुणही उपरि गउ गङगाविस
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पीसमो संधि घसा-"मुझ हनुमान्के जीवित होते हुए तुम विरुद्धोंसे स्वयं लड़ोगे, क्या सूर्य-चन्द्रमा किरणसमूहके होते हुए धरती पर पाते हैं १" ॥५॥
[२] तब पवनंजय कहता है, “हे पुत्र, अभी तक तुमने न तो युद्ध देखा है और न विजयश्रीका लाभ । अभी भी तुम बालककी सरह हो, तुम क्या लड़ोग अभी भी तुम युद्धव्यूह नहीं जानते।" यह सुनकर हनुमान् क्रुद्ध हो गया, "क्या गजशिशु पेड़को नहीं नष्ट कर सकता, शिशु सिंह क्या हाथीको विघटित नहीं करता, क्या शिशु आग अटवीको नहीं जलाती, क्या बालचन्द्रको लोग सम्मान नहीं देते, क्या बालक योद्धाकी प्रशंसा नहीं की जाती, क्या बाल सर्प काटता नहीं है, बाल रषिके सामने क्या तमका समूह ठहर सकता है " यह कहकर हनुमान्ने लंकाके लिए कूच किया । दही, अझस, जल, मंगल-कलश, नट, कवि-वृन्द और ब्राह्मणोंके निर्घोषके साथ ॥१-८॥
पत्ता-सन्तुष्ट मन हनुमानको अपनी सेनाके साथ रावणने इस प्रकार देखा मानो पूर्णिमाके दिन चन्द्रमाने आलोकित किरणोंसे भास्वर तरुण-तरणिको देखा हो ||२||
[३] जो त्रिलोक भयंकर है, ऐसे रावणको उसने दूरसे ही सिरसे प्रणाम किया। उसने भी आते हुए हनुमानका हर्ष और पूरे अंगोंसे आलिंगन किया 1 चूमकर अपनी गोद में बैठाया,
और बार-बार उसे साधुवाद दिया, “पवनंजय धन्य है जिसके तुम पुत्र हो, ऋषभनाथके पुत्र भरतके समान ।" इस प्रकार कुशलप्रिय और मधुर आलापों, कंकण और स्वर्ण डोरके समूहसे उसका सम्मान कर रावण गरजता हुआ वरुणपर चढ़ाई करने के लिए गया। अपना कुच बन्द कर शरद्के मेषकुलके
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पउमचरित
वेब वर-धरै मुक-पयाणउ। पिट वलु सरगम्भ-उस-समाण ॥७॥ कहि मि सम्बु-मर-दूसण-राणा । कहि मि हणुष--णीक-पहाणा॥6॥ कहि मि कुमुम-सुग्गीवनमय। थिय धहि मत महाग्य ॥५॥
घत्ता रेहए णिसियर-पल वतिय-कलयलु घोहि यहि आधासिया । णं दहमुइ-फेरउ विजय-जणेरड पुण्ण-पुष्ट पुणे हि थियउ ॥१०॥
[१] तो एरथन्तर रणे णिकरुणहों। घर-पुरस हि जाणाविड धरणहाँ ॥६॥ 'देव देव कि अच्छहि भविघल। बेलन्धरें लावासिउ पर-बलु' ॥२॥ चारई तणउ वयणु णिसुणेप्पिणु । वरुणु पराहिड श्रोसारेपिणु १३॥ मन्तिहिं कपण-जाउ कहाँ दिजइ । 'केर दसाणण-केरी किवा ॥४॥ जेण धाड समरगणे पक्किट । तिजगविहसणु वारणु वसि कितामा 9 भट्टापड गिरि उद्धरियउ। माहेसर-वाह गरवइ धरियड ॥२॥ जेण णिरस्थीकिर णल-कुम्वरु। ससहरु सूरु कुवेरु पुरन्दन ॥७॥ तेण समाणु कवण किर बाहर कर करतहुँ कवणु पराहउ ॥८॥
घत्ता तं णिसुर्णेवि दुद्धय घरुणु अणुबरु पलित कोष-पासण। “जहरहे वर-दूसण जिय पेसिमि जण ताड़ का किउ रावण' ५||
एव मणेवि भुषणे जस-खट । सरह वरुणु राउ सम्म ॥१॥ करि-मयरासणु विष्फुरिमाहरू। दारुण-णागपास-पहरण-करू २॥ साडिय समर-मेरि उम्भिय धप । सारिसिज किय मत महागय ॥३॥ इय पक्रवरिय पजोसिय सन्दण। णिगय वरुणही केरा णन्दण ॥४ पुण्यारीपराजीव धणुद्धर । वेळाणल-कस्लोक-वसुन्धर ॥५॥
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पीसमो संधि
३२९ समान सेना बेलन्धर समर ठहर गाणी! की पर सम्मक खर-दूषण राजा, कहीपर हनुमान् , नल-नील प्रमुख, कहींपर कुमुद, सुनीष, अंग और अंगद, मानो मत्त महागजोंके समूह ही ठहरे हों ॥१-५|| ___धत्ता-कोलाहल करता हुआ और समूहोंमें ठहरा हुआ निशाचर-बल ऐसा मालूम हो रहा था, मानो दशाननकी विजयका जनक पुण्यपुंज ही समूहों में ठहरा हो ॥१०॥
[४] इसी अवधिमें निष्करुण वरुणसे, उसके घरपुरुषोंने कहा, "हे देव-देव, अचल क्यों बैठे हो, शत्रुसेना बेलन्धरपर ठहरी हुई है।" गुप्तचरोंकी बात सुनकर राजा वरुणको हटाते हुए एकान्तमें मन्त्रियोंने उसके कानमें कहा-"रावणकी आशा मान लीजिए, उसने धनदको युद्धके प्रांगणमें कुचला, त्रिजगभूषण महागज वशमें किया, जिसने अष्टापद पहाड़ उठाया, राजा माहेश्वरपतिको पकड़ा, जिसने नलकूबरको अनविहीन कर दिया। चन्द्रमा, कुबेर, सूर्य और इन्द्रको हराया, उसके साथ कैसा युद्ध, और आज्ञा मान लेनेपर कैसा पराभव ?" ॥१-टा
धत्ता--यह सुनकर दुर्धर धनुर्धारी वरुण कोपकी ज्वालासे भड़क उठा, "कि जब मैंने खर और दूषण दोनोंको जीत लिया था, उस समय रावणने क्या कर लिया था" ॥९॥
[५] यह कहकर, भुवनमें यशका लोभी घरुण हर्षपूर्वक युद्धके लिए सनद्ध होने लगा। गजके ऊपर मकरासनपर आरूढ़, फड़क रहे है ओठ जिसके, और दारुण नागपाश शस्त्र हाथमें लिये हुए । रणभेरी बजा दी गयी, ध्वज उठा लिये गये, हाथियोंको अम्बारीसे सजा दिया गया, अश्वोंको कषप पहना दिये गये, रथ जोत दिये गये। वरुणके पुत्र निकल पड़े। पुण्डरीफ,
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परामचरित
योपालि-तर-बगलामुह ।
वेलम्बर सुवेल बेकामुह || २ || जाहा मुह म छोड़ बाकाहि ॥७॥
सम्झा - गलगजिय-सम्झाव । जळकता अणेय पधाय ।
सरस भाव-भूमि पराइ ॥ ८॥
विरवि-हु थिय जावेंहि । वह्निहिं चाव-बू हुकिज तायें हिं ॥९॥
छत्ता
अवरोप्परु वरिय हैं मच्छर भरियई दूरुग्वोसिय-कयल हूँ ।
रोम-बिसह रणें अमिट्ट
वे वि बरुण रावण-वक हूँ ॥१०॥
[+]
रावण वरुण-बलहूं आला ॥१॥ कण्ण-मर-मलयाणिक-पराई ॥ ॥ सूरकन्ति दिण-लङ्काबसरहूँ ॥३॥ कबूदिय-असि मुसाहरु नियर हूँ ॥४॥ दस- दिसिह धाइय कौलारू हूँ ॥५॥ णखाविय - कवन्ध-संघाई ॥६॥ चेविड चन्दु जेम जोमुरों हि ॥ ७ ॥ जीउ प्रेम तुकम्म समूहहिं ॥ ८॥
घत्ता
एक्स्कट रावणु भुवण-मयाबणु भ्रमइ अणऍ बरि-वलें । स- णियम्बु सकन्दर णाएँ महीहरु मस्थिस्वन्तएँ उर्षाहि वले ॥१॥
किय भङ्ग उल्कालिय-खगई। राय घडण -पासेश्य-गत | इन्दणीक-निखि-जासिय-पसरहूँ । उक्य-करिकुम्मस्थळ - सिहर हूँ । पम्मुके मेक करवाल हूँ। राय-मब-ज-पाय- घायई । साव दाणण वरण पुसेंहिं । केसरि प्रेम महागय-जू हहिं ।
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बीसमो संधि राजीव, धनुर्धर, वेलानल, कल्लोल, वसुन्धर, तोचावलि, तरंग, बगलामुह, वेलन्धर, सुबेल, बेलामुख, सन्म्या गलगजिन: सन्ध्यावलि, ज्वालामुख, जलोह, ज्वालावलि और जलकेताइ आदि अनेक वरुण पुत्र दौड़े, हर्षके साथ युद्धभूमिपर पहुंचे। अबतक गरुड़-व्यूह बनाकर वे स्थित हुए कि तबतक शत्रुओंने अपना चाप-ज्यूह बना लिया ॥१-९॥
पत्ता--एक दूसरेसे बलिष्ठ, ईर्ष्या से भरे हुए दूरसे ही कोलाहल करते हुए और पुलकित, रावण और वरुणके दल आपस में लड़ने लगे ॥१०॥
[६] कवच पहने और खड्ग उठाये हुए रावण और वरुणके दल लड़ने लगे। जिनके शरीर गजघटाके सघन प्रस्वेदसे युक्त थे, उनके कर्णरूपी चमरोंसे जो दक्षिणपवनका आनन्द ले रहे थे, इन्द्रनीलरूपी निझासे जिनका प्रसार रोक दिया गया था, सूर्यकान्त मणियोंसे जिन्हें दिनको दुबारा अवसर दिया गया, उखाड़ दिये हैं महागजोंके कुम्भस्थल जिन्होंने, तलवारसे निकाल लिये हैं मुक्तासमूह, जिन्होंने, जो एक दूसरेपर तलवार पला रहे हैं, दसों दिशापयों में रक्तकी धाराएँ बह रही हैं जिसमें, गजमदके जलमें धोये जा रहे हैं घाव जिसमें, नचाये जा रहे हैं धड़ जिसमें । तबतक यरुणके पुत्रोंने दशाननको इस प्रकार घेर लिया, जिस प्रकार मेध' चन्द्रमाको घेर लेते हैं, जैसे सिंह हाथी घेर लेते हैं, जैसे जीव दुष्कर्मों के समूहसे पेर लिया जाता है ॥१-८॥ __घत्ता--अकेला भुवनभयंकर रावण अनन्त शत्रुसेनामें उसी प्रकार घूमता है, जिस प्रकार समुद्रमन्थनके समय तद और गुफाओं के साथ मन्दराचल ||९||
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पदमचरित
[ - ]
साम वरुणु राम्रणव मिहि । विहि-सुअ-सारण-मय-सारिखें हि ॥१॥
यह वाण माहि सार-सर- रम्भ-विससेणेंहिं ॥ ३ ॥ जव जल-पीलें हिं सोण्टीरें हिं ॥४॥ तेण वि सरवर धोरणि पेसेंवि ॥५॥ तास दसाणु वरुण कुमारे हिं ॥ ३ ॥ बहु साहु महाधड खनि ॥ ॥ सरहसेण हतकुमारें ||८||
हस्थ-पथ - विही
अङ्ग सुग्गी- सुसेणेंहि । कुम्मयण्णखर दूसण-पोरेहिं । बेहि खत धम्मु परिसेवि । खेटिय अणसुहव जळधारहिं । आमावि सम्वहिं समकण्डि । सं णिचि जिय-कुल-मारें ।
धता
रणउहें पसरि बहुओं राबणु लम्बेद्वाविष्ट । श्रविषाणिय-काएं णं दुष्वाएं रवि मेहई मेल्लापि ॥ ९॥
[4]
संवेद्वेषि विज्या कह ले ॥ १ ॥
ताम पधाइज वरणु स सन्दणु ॥१२॥ कहिं सञ्चरहि सण्ड भहवा जर ५३॥ सोहु व सीहाँ बेदाविउ || ४ || । मागपाल कङ्ग- व्यहरण ॥ ५॥ अन्तर थिङ रण भूमि पसाई वि ॥ ५ ॥ । महँ कुविएण ण देय दाणव || सहस- किरण णककुम्वर-रुकहुँ ||८॥ घत्ता
सत्तु सतु पढिले ।
सयन छेडू ण के जाम मरुणन्दणु । 'भरें खुद पाव वलु वाणर । à मिणेपिणु बलिउड विणि विकिरमिति दणु-दारण ताम दसाणणुरहरु नार्हसि । भरें वलु वलु हयास भरें माणत्र 'जं कि जम- मिच भ्रणयक हैं।
अवरहु मि सुरिन्दहुँ णरवर-विन्द परिहव तुमच फळ विधि
दिई आसि जाएँ जाएँ । सु विदेभिताई हूँ ॥१॥
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वीसमो संधि
[७] तबतक वरुणको रावणके अनुचरोंने घेर लिया, दोनों सुतसार और व्यमारी और विभीषणाने, महाकाय इन्द्रजीत और धनवाहनने, अंग-अंगद - सुप्रीव और सुषेणने, तारन्तरंग-रम्भ और वृषभसेनने, कुम्भकर्ण और खरदूषण वीरोंने, जाम्बवान् नल, नील और शौण्डीरने । इन्होंने घेर लिये क्षात्रधर्मको ताक पर रखकर। उसने भी सरबरोंकी बौछार की। तबतक दशानन वरुणकुमारोंके साथ उसी प्रकार क्रीड़ा करने लगा जैसे बैल जलधाराओंसे । आयाम करके उसे सबने घेर लिया, और उसका रथ, कवच और महाध्वज खण्डित कर दिया । यह देखकर अपने कुलका नेतृत्व करनेवाले हनुमान् कुमारने हर्ष के साथ ||१८||
पत्ता - युद्धमुखमें प्रवेश कर, दुश्मनोंको खदेड़कर, उसी प्रकार रावणको मुक्त किया, जिस प्रकार अविज्ञात मार्ग दुर्वात मेघोंसे रविको मुक्त करता है ||२५||
[८] शत्रुसे प्रतिकूल होनेपर सभी शत्रुओंको हनुमानने विद्याकी पूँछसे घेर लिया, और जबतक वह पकड़े या न पकड़े तबतक वरुण अपने रथके साथ दौड़ा। वह बोला, "अरे खल क्षुद्र पापी बानर, मुड़, हे तर या साँड़, कहाँ जाता है ?" यह सुनकर वानर मुड़ा जैसे सिंह सिंहपर क्रुद्ध होकर मुड़ता है। दनुका दारण करनेवाले वे दोनों आपस में भिड़ते हैं, नागपाश और पूँछके प्रहरण लिये हुए । तब दशानन रथ हाँककर, रणभूमि में पहुँचकर बीच में स्थित हो गया । वह बोला, "अरे हताश मनुष्यो, मुड़-मुड़ो, मेरे क्रुद्ध होनेपर न देव रहते हैं और न दानव । यम, चन्द्र और धनद अर्कका मैंने जो किया, सहस्र-किरण, नलकूबर और इन्द्रका जो किया ॥१-८||
घत्ता - और भी सुरवृन्द और नरविन्दोंको तुमने जो पराभव के बुरे बुरे फल दिये हैं, वे मैं तुझे दूँगा " ||९||
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पउमचरिद
[ ] संणिसुर्णेवि मंतुलिय-माहणे। जिम्भपिछत जलकन्तहाँ पर्षे ॥१॥ 'लाहिव देवाइउ भवरें हि। सूर-कुवेर-पुरन्दर-अमरहि ॥१॥ इस पुणु वरुणु घरुणु फलु दामि । पहुँ दहमुह-दवग्गि उल्हामि ॥३॥ दोच्छित रावणेण एस्थन्तरें। 'केतिज गजहि हरभन्तरें ॥४॥ महिमुह थक्कु तुक्कु वल्लु घुमहि । सामण्णाउहे हि छह जुज्महि ॥५॥ मोहण-यम्मण-दहण-समरहि। को रिण पहरइ दिहि अरहि ॥६॥ एम भणेवि महाइवे वरुणहों। गहकल्लोलु भिडिउ णं अरुणहाँमा वहिं भवसर पवणम्जय-सारें। आयामें वि इणुवम्त-कुमार ॥६॥
यत्ता णस्वर-सिर-सूल णिय-बरुगूले वेधि थरिय कुमार किह। कम्पावण-सीले पक्षणावीले तिहुवण-कोदि-पएतु जिइ ।५।।
[५. ] णिय-णन्दण-बन्धण स-करुणहों। पहरण हाय करण वरुणहों ॥३॥ रावणेण उप्पऍवि णहाणें। हम्मु जेम तिह धरिउ रणगणे ।।२।। करूयल पुट्ट हय अय-उरई। सकपिहि-सए साइनाय-रहे ।।३।। ताव भाणुकपणेण स-णेउरु । आणिउ गिरवसेसु अम्तेउरु || रसणा-हार-दाम-गुप्पन्तक । गकिय-धुसिण कामें खुप्पन्त ठ ।।५।। अलि-मटार-पमुहलिजन्तउ। जिय-मसार-विभोर-किलन्सउ ॥५॥ अंसु-जलेण धरिणि सिमन्तउ। कम्जल-मण बयई महलन्सड । संपेक्खवि गम्मोल्लिय-ग। गरहिउ कुम्भयपणु दहवत्तें ॥८॥
घसा 'कामिणि-कमल-वाई सुभ-लय-मवण महुअरि-कोइल-अलिउपर। एगई सुपसिद्धई धम्मा-पिन्ध पालिम्ति अणाटक ॥९॥
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वोसमो संधि [२] यह सुनकर अतुल माहात्म्यवाले जलकान्तके पिता वरुणने तिरस्कारके स्वरमें कहा, "लंकाधिप तुम दूसरे सूर्य कुबेर और इन्द्रादि अमरों द्वारा जिता दिये गये हो, मैं वरुण हूँ, और तुम्हें वरुण फल दूंगा, तुम्हारे दसमुखोंकी आगको शान्त कर दूंगा।" तब रावणने उसे खूब झिड़का, “सुभटोंके बीच में कितना गरज रहा है, सामने आ, अपनी शक्ति समझ ले। सामान्य आबुध से ही युद्ध पर, मोहन, साम, बहन कादिमें समर्थ दिव्य अत्रोंसे आज कोई भी नहीं लड़ेगा।" यह कहकर वह वरुणसे भिड़ गया, मानो प्रह-समूह बालसूर्यसे भिड़ गया हो ॥१-८॥
घत्ता-नयरोंके शिर है, शूल जिसमें, ऐसी कम्पनशील और पवनसे आन्दोलित अपनी पूंछसे हनुमान वरुण कुमारीको घेरकर ऐसे पकड़ लिया जैसे त्रिभुवनके करोड़ों प्रदेशों को ।९||
[१०] अपने पुत्रों के बाँचे जानेसे दीन वरुणके हाथमें कोई अस्त्र नहीं आ रहा था। तब दशाननने आकाशमें उछलकर, युद्ध के प्रांगण में उस इन्द्रको पकड़ लिया। कोलाहल होने लगा, जयतूर्य बजने लगे, समुद्रके शब्दकी तरह तूर्य शब्द दूर-दूर तक गया। तबतक भानुकर्ण नू पुर सहित समूचे अन्तःपुरको ले आया, जो करधनी, हार और मालाओंसे ढका हुआ, गलित केशरकी कीचड़में निमग्न, भौरोंके झंकारोंसे मुखरित, अपने पतियोंके वियोगसे क्लान्त, आँसुओंसे धरती सींचता हुआ, काजलके मलसे मलिन मुख था । यह देखकर हर्षित शरीर रावणने कुम्भकर्णको निन्दा की॥१-८॥
पत्ता-कामिनीरूपी कमल वन, शुक-लताभषन मधुकरी कोयल और अलिकुल, ये कामदेवके प्रसिद्ध चिह्न है, इनका अनाकुल भावसे पालन होना चाहिए ॥॥
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पउमचरित
[1] तं णिसुणेवि समोर सगे उरु। रविकरणेग मुक असे उह ॥ १॥ मउ णिय-गपक महाफर-मुकर। करिणि-जूहु णं वारिह चुका ॥२॥ कोकावेष्पिणु वरुणु दसासें। पुस्जिद सुर-जय-लरिष्ठ-णिवासें ॥३॥ 'अवलुप में राहु करहि सरीरहीं। मरणु गाहणु जउ सम्वहाँ वीरहों ।।४।। णवर पळायणेण जिग्नह। जें महु णामु गोतु मइकिजई' ॥५॥ दहवपणहों वयणेहि स-करुणे। घरूण पवेप्पिणु वुशन वरुणे ॥६॥ 'धान्ति -सक ए.के। रूसकिय पर पति किया। तासु मिह जो सी जि प्रयागज । अन्धों करणें चि तुहुँ महु राणन gen
घता
अण्णु वि ससि-वयणी कुबळयणयणी महु सुप णामें सच्वइ । करि लाएँ समाणउ पाणिग्गहणउ विज्ञाहर-भुवणादिवा' ॥२॥
[१२] कुसुमाउहकमला चुह-णयणे । परिणिय घरुण-धीष दहययणें ॥१॥ पुप्फ-विमाणे बडिउ आणः। दिण्णु पयाणड जयजय-सरे ॥२॥ पलियई णपणा जाण-बिमाणई। स्यणई सत्त णबद्ध-णिहाण ॥३॥ अट्ठारह सहास घर-दारहूँ। अदछ?-कोडीउ कुमार? ॥४॥ णव भक्खोहणोउ वर-तरहुँ । (णस्वर-अक्खोहणिउ सहास? ॥५॥ अक्खोहणि परवर-गय-तुरपहुँ)। श्रमखोहणि-सहासु चउ-सूरहुँ ॥३॥ लङ्क पट्ट सुट्ट परिओस । मङ्गल-धवलुछाइ-परोसें ॥७॥ पुज्जिड पचण-पुत्तु दहगीवें दिनद पउमराय सुग्गीधे ।। खरण अणकुसुम बय-पाकिणि । माछ-णाले हि धीय सिरिमारिणि ॥९॥
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बीसमो संधि [११] यह सुनकर भानुकर्णने डोर नूपुरसे सहित अन्तःपुरको मुक्त कर दिया। अहंकारसे शून्य, वह अपने नगरके लिए उसी प्रकार गया मानो वारिसे ( जलसे या हाथी पकड़नेकी जगहसे) हथिनियोंका झुण्ड छूट गया हो। देवलक्ष्मीके विलाससे युक्त दशाननने वरुणको बुलाकर उसका सम्मान किया और कहा, "शरीरका नाश मत कीजिए, मृत्यु प्रहण और जल, सहवीरोंश शेती है । केवल पलायन करने लज्जित होना चाहिए, जिससे नाम और गोत्र कलंकित होता है।" रावणके शब्द सुनकर, सकरुण वरुणने उनके चरणों में प्रणाम करते हुए कहा, "जिसने धनद, कृतान्त और वकको सीधा किया, सहस्र किरण और नलकूबरको वशमें किया, उससे जो लड़ता है वह अज्ञानी हैं, आजसे लेकर, तुम मेरे राजा हो” ॥१-दा
धत्ता--और भी मेरी चन्द्रमुखी कुमुदनवनी सत्यवती नामकी कन्या है, हे विद्याधर भुवनफे राजा, उसके साथ आप पाणिग्रहण कर लीजिए ||२||
[१२] बुधनयन दशमुखने कामदेवकी लक्ष्मीके समान वरुणकी कन्यासे विवाह कर लिया। आनन्द के साथ पुष्पविमानमें चढ़ा, और जय-जय शब्दके साथ उसने प्रयाण किया । नाना यान और विमान चल पड़े, सात रत्न नये खजाने, अठारह हजार सुन्दर स्त्रियाँ, तीन करोड़ कुमार, नौ अक्षोहिणी वरतूर्य, हजारों मनुष्योंकी अक्षौहिणियाँ, नरवर गज और अश्वोंकी अक्षौहिणियाँ, शूरोंकी चार इजार अक्षौहिणियाँ, साथ लेकर सन्तोष पूर्वक मंगल धषल और उत्साहकी घोषणाओंके मध्य रावणने पवनपुत्रका सत्कार किया, सुग्रीवने उसे अपनी कन्या पद्मरागा दी, और खर
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पउमपरित
भट्ट सहास एम परिणेपिणु । गड णिय-जयर पसाज मणेप्पिणु॥१०॥ सम्मु कुमार वि गउ घणवासहो । खमाही कारणे दिणपरहासहों !
घचा
सुगगीवात्म मकणीक वि गय लादू सण वि कियस्थ-फिया । विधाहर-कोएं णिय-निय-कीकएँ पुरस भुजम्त थिय ॥1॥
।
इम 'घि ना हरक एणि 'उ जमा कर। धुधरामवत इयलु । जामेण सामिया । सीए लिहादिमिणं । 'सिरि-विस्ताहर-क ।
वीस हि भासासए हिं मे सिद्ध ॥ साहिलन्त मिसामेह ॥ अपत्ति णसी सुयाणुपाडेण (1) । सयम्भु परिणो महासता ॥ वोसहि मासासएहि परिवद्धं । कई पिव कामपखस्स !!
इह पडम विज्जाहरवं समत
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________________ पीसमो संधि प्रचौका पास करने वाली अनुसुम / म और नीलने अपनी कन्या श्रीमालिनी / इस प्रकार बह आठ हजार कन्याओंका पाणिग्रहण कर, साभार अपने नगर चला गया। शम्यूकुमार वनवासके लिए चला गया, सूर्यहास तलवार सिद्ध करनेके लिए" ||1-12 // पत्ता-सुग्रीव अंग, अंगद, नल, नील भी गये, खरदूषण भी कृतार्थ हुए, सष विद्याधरोंकी क्रीड़ाके साथ भोग करते हुए, रहने लगे // 12 // इस प्रकार बीस आश्वासकोंका यह विद्याधर काण्ड मैंने पूरा किया | अब अयोध्याकाण्ड लिखा जाता है, उसे सुनिए / ध्रुवराजके वात्सल्य से, .... .... .... .... ... ......... अमृतम्मा नामकी महाससी, स्वयम्भकी पत्नी है, उसके द्वारा लिखाया गया यह बीस आश्वासकों में रचित है। यह विद्याधर काण्ड कामदेवके काण्डके समान प्रिय है। विद्याधर काण्ड पूरा हुआ।