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________________ चउरथो सधि निर्धन मनुष्य कामिनी-जन, जिस प्रकार दूरभव्य में सम्यग्दर्शन, जिस प्रकार दुर्गन्धित वनमें मधुकरी-कुल, जिस प्रकार अज्ञानीके कानमें गुरुकी निन्दा, जिस प्रकार संसारधर्ममें परम सुख, जिस प्रकार पापकर्म में उत्तम जीवदया, जिस प्रकार प्रथमा विभक्तिमें तत्पुरुष समास प्रवेश नहीं करती, उसी प्रकार अयोध्यामें चक्ररत्न प्रवेश नहीं करता ।।१-८11 __घत्ता-विघ्न करते हुए उस स्थिर चक्रको देखकर नरपति भरत क्रोधसे भर उठा और बोला, "यश और जयका रहस्य जाननेवाले हे मन्त्रियो, कहो क्या कोई मेरे लिए असिद्ध (अजेय ) चा है ? ॥२॥ [२] यह सुनकर मन्त्रियोंने इस प्रकार कहा, "देव, जो तुम सोचते हो वह तो सिद्ध हो चुका है। छह खण्ड धरती, नौ निधियाँ, चौदह प्रकारके रत्न, निन्यानबे हजार खदानें और बत्तीस हजार देशान्तर ! और भी जो-जो चीजे सिद्ध हुई हैं, उनको कौन दिखा सकता है ? परन्तु एक स्वाभिमानी सिद्ध नहीं हुआ है, वह है साढ़े पांच सौ धनुष प्रमाण, तीर्थकरका पुत्र, तुम्हारा छोटा भाई, परन्तु अट्ठानबे भाइयों में बड़ा पोदनपुरका राजा, चरम शरीरी, अस्खलितमान और जयलक्ष्मीका घर, दुर्वार वैरियों के लिए अन्तकाल, बलमें विशाल, और नामसे बाहुबलि ॥१-८|| ___घत्ता-सिंहकी तरह संनद्ध, पर शान्ति धारण करनेवाला, वह यदि कभी आ जाये, तो एक ही प्रहारमें सेनासहित, हे देव, तुम्हें चूर चूर कर दे" ||९|| [३] यह सुनकर, भरतके परमेश्वर भरतने ओंठ काटते हुए, शीघ्र उसके पास मन्त्री भेजे कि उससे कहो कि "वह राजाकी आज्ञा माने । यदि किसी प्रकार वह यह स्वीकार नहीं करता तो ऐसा करना जिससे वह हमसे लड़ जाये।" सिखाये
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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