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पउमचरित
[१३. तेरहमो संधि ] पेक्खेपिणु वालि-मदार रावणु रोसारियउ । पभणइ कि मह जीवन्तण जाम ण रिउ मुसुमूरियड' ॥१॥
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दुवई बिज्जाहर-कुमारि ग्यणावलि णिचालोय-पुरवरे ।
परिणेंवि कलाइ जाम सा थम्भिउ पुष्फविमाणु अम्बरे ॥१॥ महरिसि-तव-तेएं थिउ विमाणु णं दुलिय-कम्म-वसेण दाणु ॥२॥ प सुके खोलिउ मेह-जाल । णं पाउसेण कोइल-धमाल ॥२॥ पं दूसामिण कुटुम्प-वित्तु । णं मच्छ घरिस महायबसु (१)॥४॥ पां कन्यय-सेले पवण-गमणु । प्यं दाण-पहाचे णीय-भवष्णु ॥ णीसाड हयड किङ्किणीउ । णं सुरऍ समता कामिणीउ ॥६॥1 घग्घर हि मि घवधव-घोसु चत्तु । णं गिम्भयालु ददुरहुँ पसु ॥७॥ पारवर? परोप्परु हुड चप्पु । महों धरणि एनेविणु धरणि-कम्॥४॥ पदिपेल्लियउ चि ण वह विमा शु । णं महरिसि भइयएँ मुभा पाणु ॥९॥
धत्ता चिहाइ थाहा ण दुकइ उपरि वाति-महाराहों। छुटु छुद्ध परिणियड कलतु प रह-दइयहाँ बड्डाराहीं ॥१०॥
दुवई तो एत्यन्तरेण कयं पहुणा सन्त्र-दिसावलोयगं ।
सम्व-दिसावकोयणेण वि रत्तुष्पलमिव जहागं ॥१॥ 'मरु कहों अथक[प]कालु कुद्ध । कर केण भुयाम-वयण छुधु॥९॥ के सिरण पहिच्छित कुलिस-बाउ । को णिग्गड पञ्चाणण-मुहाउ ॥शा