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पारासह पभणह 'विहि मणोज्नु । उ एक्कै मलिए रज्ज-कज्जु ॥१॥ विलुणेण मुनिवि होन्ति । अवरोप्परु घर्मेचि कुमन्तु देति ॥ २ ॥ कवि 'करण भन्ति । विवि मारि विवाह मन्ति' ॥३॥ मणु चमड् 'गरुन चार वृद्धि । जए विहिं विहिं कम-सिद्धि' ॥४॥ संणिसुदिपसाइ अमरमस्ति । 'असुन्दरु जड़ सो हन्ति ॥ ५७ मिगुणन्दणु षोड 'बुद्धिषन्तु । अफिस बोलहिं होइ मन्तु ॥५॥ निसुर्णेषि चव सहासनगणु विणु मम्ति सहासे मन्तु कवणु ॥ ७ ॥ अण्णही अण्णारिस होड़ बुद्धि । अकिलेसें सियाह कज्ज-सिद्धि ॥८॥
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अबकारि सवेंहिं तो समदसा
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'अम्स फेरी बुद्धि नह सुम्दर सन्धि सुराहिव ॥ ९ ॥
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खुद्द मध्यस्थ पमणन्ति एव ।
कहिँ सम्म उत्तम सन्धि देव ॥११॥
ही तर परमेसर कवण हाणि । खइ साम- मेष- दाणेंहिं जि सिद्धि मच्छन्ति वाकि रशु संभरेवि । कणीक ते विवि असुद्ध खर-दूसणा विनिय पाण- भोय माहेसरपुर बइ-मरुणरिन्द ।
वि माकिहें सिरु खुडें वि धित्तु । अण्णु वि जइ रावणु होइ मित्तु ॥२॥ अहि असह तो विसिहि महुर-वाणि ॥ ॥ । तो दण्डे पक्षिए करण विद्धि ॥४॥ सुग्गी-बन्दकर कुछ वे वि ॥५॥ सुम्बन्ति शिरारिउ अस्थ-लुद्ध ॥१६॥ कज्ज्रेण जेण चन्दणहि णीय ॥ ॥ ॥ भवमा वि वसिकिय जिड़ गइन्द || 4 ||
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आरहिं उबाऍ हिं
मेइज्जन्ति णराहिषड् ।
दहवचन- किशु जाह वूड चित्त जइ ॥९॥
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