________________
३०८
पदमचरि
[44]
सासुआ एक मेक-इराई
सुष्हाण
भारु भणेसह जं त्रिसु । वयगेण तेण मन्तिहं तपग 1 'किं कन्ऍ ह - विनियऐं । किं सु-कह शिरलङ्कारय । घरे अञ्जन समरण पत्र । सं पिसुर्णे च परेण णिवारियर | वशु गम्पिइ भीखण्ड | 'हा विह्नि हा काऍं कियन्त किउ
विहि मि कलु कम्दन्तियहि हिं चरन्त
ר
जण सुपसिद्धई । अणाइ - निबद्ध ई ॥ १।
विरुभारो होस तं दिवसु ॥२॥ भारुड पण कत्ति मण ॥३॥ किं किनिए इरिहिं जानियऍ ॥४॥ किं धीय गायि ॥५॥ राहों मंत्रन्धु पश्धु कवणु ॥ ६३॥ पढप्पणु णीसारियउ ॥ ७ ॥ वाहाविज पहवि अध्यण्ड ११८ ॥ । णिहि दरि विलोभण-जुयलुहिउ ' ॥१॥
बत्ता
वर्ण क्रों को व पण पेलियउ । हरिणेहि वि दोबड मेलियउ ॥१०॥
[६]
वारवार सोआउर शेत्र अञ्जणा ।
हयास
सासु हा माइ-जयेरहों गिट्ठर । कुलहर पहरहि मि गहु मि । गभेसरि जब जब संचरद् । सिस - भुक्ख किलामिक चत्तन्तुह सहिंदि महारसि सुमइ । असावण-ताबें ताविद्यउ । वहि अवसरे ये चि पहुक्किबउ ।
'का चिाहिँ मई जेही मुक्खहं भाषणा ॥१॥ परिहविय । हा माएँ पत्रिड संघविय ॥२॥ णीमारिय कह स्यन्ति पुरहों ॥३॥ परन्तु मणोरह सब मि ॥४॥ तरु सहिरहों छिल्लरु भरद्द ॥ ११ गय तेथ्थु नेत्धु पलियक-गुह ॥ ६३ ॥ णामेण भारउ अभियद् ॥७॥ छु र्जे बुड़ जोग्गु खम्मावियड ॥८॥ शुक्रख किले सहि सुकिय ||11