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________________ २६५ सत्तरहमो संधि घत्ता-मनुष्य, अश्व और हाथियों के शरीर, रथ, ध्यज, छम सब एक क्षणमें धूम मा हाये। जिला प्रसार गोले बढ़नेसे कुल मैले हो जाते हैं, वैसे ही दोनों सेनाएँ धूर से मैली हो गयीं ॥१०॥ [२] विभ्रम हाव-भाव और भ्रूभंगसे युक्त अप्सराएं और देवताओंके विमान धूलसे धूसरित हो गये। इतने वनके संघर्षसे उत्पन्न भयंकर आगकी ज्वालमाला उठी, जो शिविकाओं और छत्रध्वजोंसे लगती हुई सैकड़ों अमरविमानोंकों जलाने लगी। फिर बादमें रक्तकी धारासे धूल शान्त हुई और आगका निवारण हुआ। उस रक्तधारासे अशेष दिशामुख सिक्त हो गये और आकाश ऐसा लगा जैसे कुसुम्भरंगमें डाल दिया गया हो, अथवा नभरूपी लक्ष्मीका कुंकुम-जल आकाशमें फैल गया हो। रक्तसे लाल धरती, सुभटोंके वेगपूर्ण धड़ोंसे जैसे नाच रही हो, हाथियोंके सिरोंसे गिरे हुए मोतियोंसे मिश्रित वह ऐसी लगती थी मानो नक्षत्रोंसे व्याप्त सन्ध्या दिखाई दे रही हो । रथ { कीचड़में ) गड़ गये, उनके पहिये नहीं चलते थे, वाहन, विमान और यान रुक गये ॥१-९॥ घत्ता-धरतीके लिए लड़े गये उस महायुद्ध में मनुष्य रामें तिर रहे हैं। ईर्ष्यासे भरकर और अप्सराओंको सन्तुष्ट करते हुए ऐसे लड़ते हैं, मानो महासमुद्रमें जलचर लड़ रहे हो ॥१०॥ [३] तब, गरज रहे हैं मतवाले महागज जिसमें, ऐसी देवसेना क्रोध और अमर्षसे भरकर राक्षसोंकी सेनापर उसी प्रकार पिल पड़ती है जैसे प्रलय-समुद्र विश्वपर | हाथमें प्रहरण लिये हुए राक्षस घूम रहे हैं मानो क्षुब्ध और जलके बुलबुलों.
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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