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पडमचरित
आलग्णु सो वि वणे जिह हुमासु । जस मुछा सो सो केह णासु ॥७॥ तहि अवसर वेहाविदएण। रणे विजयसीह इउ भन्धएण 16॥
धत्ता महि-ममद्धल सीसु दीसह असिषर-खण्डिया । णावह सयवन सोवि हंसे छण्डियउ ॥९||
[३] विणिशाइ' विजयमइन्हें खु। किएँ पाराउट्टएँ वस्त्र-समुरें ।।। सुहागणु मणा सुकेसु एम। 'सिरिमाल लएप्पिणु जाहुँ देव' ॥२॥ से घयणे गय कण्टइय-गत्त। जिविससे कि-पुरक्खु पच ॥३॥ गुप्ता, विदुगिट्टवण-हेड । केण विणिसुणाविउ असणिवेउ ॥४॥ 'परमेसर पर-गरवर-सिरीहु । श्रोहगाह पाणे हिं विजयसीह ।।५।। पडिचन्दही सुगण कहइएण। आवहिउ जम-मुहें श्रन्धएण' ॥६॥ तं वयणु सु वि ण करन्तु खेड। सण्णहवि पधाहत असणिवेड ॥ चवर विजाहर-वलेण। परिवेनिउ पट्टणु से छलेण ॥८॥
पत्ता हकारिय वे वि "पावहीं पमय-महदयहो। लाइ हुन्उ काल णिमाहाँ किकिन्धनधषही' ॥२॥
[५] पुणु परछएँ विस्फुरियाणणेण। हकारिष विजुळवाहणेण ।।३।। 'अरें माइ महारउ णिहउ जेम । बुद्धर-सर-धोरणि धरहाँ तेम' ॥२॥ वं णिसुणेवि दूसह-दसणेहि। पडिबग्द-णरिन्दहों पन्दणेहि ।।१।। णिरगन्तहि जण-णिगाय-पयातु । कित पाराउट्ठउ सेण्णु साधु ॥३॥
सो असणिवेट अन्धयहाँ वसिर । सरिवाहणेण सिक्किन्धु खलिउ ॥५॥ पहरण मुयन्ति सु-दारूया। खणे भग्गेयाई खणे धारणा ॥३॥ सगे पषणस्थर खणे थम्मणा। खगें वामोडण-उम्मोइणा ।।७।।