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________________ सप्तमो संधि १११ छोड़ देता है । दीपिका जैसे आगे-आगे प्रकाश करती हुई, पीछे अन्धकार छोड़की जाती है, जैसे सिर खोटे मुनिवरको छोड़ देता है ।।१-२|| धत्ता–हथिनी बालाको किष्किन्धके पास इस प्रकार लें गयी। जैसे नदीकी लहर कलहसीको फलइसके पास ले जाती है |१०|| [४] उसने किष्किन्धको माला पहना दी, मानो सुलोचनाने मेघेश्वरको माला पहना दी हो। विमलदेह वह उसीके पास बैठ गयी, मानो कनकगिरि पर नवचन्दलेखा हो । सभी राजा कान्तिहीन हो गये, मानो चन्द्रज्योत्स्नाके बिना महीधरेन्द्र हों, मानो परमगतिसे चूका हुआ खोटा तपस्वी हो, मानो सूर्य की कान्तिसे रहित कमलोंका सरोवर हो । इसी बीच विजयसिंह श्रीमालाके पतिपर क्रोधकी ज्वालासे भड़क उठा, "श्रेष्ठ विशाधरोंके मध्य वानरोंको प्रवेश क्यों दिया गया ? वधू छीन लो और घरको मार डालो, वानरवंशरूपी वृक्ष की जड़ खोद दो।" यह शब्द सुनकर, अमर्षसे भरकर अन्धकने उसे ललकारा ||१-८॥ ___ पत्ता-तुम विद्याधर हो और हम वानर ? यह कौन-सा छल है ? ले पाप, आक्रमण कर जबतक मैं तेरा सिरकमल नहीं गिराता ॥९॥ [१] यह वचन सुनकर प्रवल और विकसित बाहुओंवाला विजयसिंह उछल पड़ा ! इस प्रकार श्रीमालाके लिए दुर्धर विद्याघरों में संघर्ष होने लगा। सेनाएँ भी आपस में उसी प्रकार मिड़ गयीं, मानो सुकवि के काव्य वचन आपस में मिल गये हों। शून्य आसनवाले अश्व और गज घूम रहे हैं, मानो कुकविके अगठित काव्य वचन हों। जिस समय विद्याधरों और वानरोंका युद्ध चल रहा था, असमय लंकानरेश सुकेश वहाँ पहुँचा।
SR No.090353
Book TitlePaumchariu Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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