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पउमचरित
[ ४] जह वि ण कि पि देहि सुर सारा । तो वरि पक्कसि वोल्छि मडारा ॥१॥ अपगहुँ देसु विहनवि दिण्ण। अम्हहुँ कि पहु मिदाग्विण्णउ' ||२|| अण्णहुँ दिण्ण तुरङ्गम गयवर। अम्हहुँ का किग्राउ परमेसर ॥३॥ अपनहुँ निगम-वेसग हद मागमेण निस' । एम जाम गरहन्ति जिणिन्दहौँ। भासणु चलिउ ताम धरणिन्द्रहों ।।५ अवहि पर अवि अपरिवारउ । भाउ खणखें जेल्धु महारउ || ६|| लक्विड विहि मि मझें परमेसह । सखि सुरन्तराल पं मन्दरु ||७| नुरिट ति-धारउ भामरि देफ्णुि । जिगर-वन्दणहत्ति करपिशु ॥४॥
पुछिय धरणिधरण थिय कजें करणेण
घत्ता 'चिणि वि उपप्याविय-मरथा ! उपवय-करवाल-विस्था ॥२॥
[१५] तं णिसुणेवि दिण्णु पच्छुत्तर । पेसिय वे घिसि सन्तर ।।१ दूरवाणु जाम त पावहुँ । जाम वलेवि पढ़ीवा आवडें ॥२॥ ताम पिहिमि गिय-पुत्तहँ देप्पिणु । अम्महं घिउ अवहेरि करप्पिणु ।।३।। तं णिसुण व विहसिय-मुह-वन्द । दिण्णा विजय के भरणिन्दै ३३!। 'गिरि-वेयवहाँ होहु पहाण्या । उत्तरदाहिण-सेजिङ हि राणा' ।।५।। सं णिसुण चि मि-विगभिहि बुखाइ । पण दिणी पिहिवि न रुचाइ ।।६।। जइ गिरगन्धु देइ सइँ हत्थें । तो अम्हे वि लेहुँ परमार्थे ।।७।। ते णिसुणेवि चे वि अवलोवि घिउ ऊग्गर सो मुणिवरु होवि ॥८॥
हत्थु थलिउ तेण उत्तर-लेदिहि' एक्कु
यत्ता गय वे विलापिणु विजउ । थिङ दाहिण-सेदिहि विजउ ।।२।।