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पउमचरित
सं णिसुणे वि जम्मूदीव-पहु। णं जलिउ उलय जाला-णिवहु ॥१॥ 'सो कवणु पत्थु णिकम्पिर। जाँ जीवइ जी महु बाहिरड' ॥२॥ अहिमुहु पयह तहाँ श्रासयहाँ। सुय विट्ठ ताम स्यणासवहाँ ॥३॥ 'भहाँ पवश्यहाँ अहिष्णवहाँ। के शायहाँ कबणु देउ थुष्णहो ' ॥४॥ ज एशु वि उत्तर दिग्णु म वि। तं पुणु वि समुहिँउ कोष-हबि १५॥ उयसा घोरु पारग्मियज । पहुरुवं हि जलु वियम्मिया ॥३॥ आसीविस-विसहर-अजयरें हिं। सब्दुल-पोह-कुअर-घरेंहि ॥७॥ गय-भूय-पिसाएँ दि रमली हिं। गिरि-पवण-हुआसण-पाउसहि ॥८॥
घत्ता दस-दिसि-बहु अन्धारउ करवि मोहम्मेंवि जामवि उरभर थि । गउ णिप्फलु सो उपसागु किह गिरि-मस्थएँ वासारत्तु जिह ॥९॥
[0] ज चित्तु ण सहित अवह वि। थिउ तक्खणे अण्ण माय धरेंवि ॥१॥ दरिसावित सयलु वि बन्धुजणु | कलुणउ कग्दन्तु विसण्ण-मण ॥२॥ कस-घाएँ हिँ घाइजन्तु वणे। 'णिवडन्तुहन्त खणे जे खणें ॥३१६ रयणासयु कइकसि चन्दहि । झम्मन्तइँ जइ पा अम्हे गहि ।।१।। सो सरणु मणेवि पहिच(?र)क्रुख करें रिउ मारह लम्गह पुस धा ।।५॥ तं पुरिसयार किं बीसरिट । पव-क्यणु बेण कण्डम धरिउ ।।। श्रौँ भाणुकण्या करें चारहहि। मिरि महि लगाउ कार-हछि ।।। भही धरहि विहीसण जताई। वणे मेहि पिहिज्जन्ताई ॥८॥