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पउमचरिउ
घत्ता मयगले हि महन्ते हि विहि मि भमन् हि सुरवह-लाहि पधर । भव-भवर्गहि छूटो णं महि मूढी भमइ स-सायर स-धरधर ।।९।।
_ [१] तिजगविहसणेय किउ सुर-फरी णिरस्थी।
परिभोसिय णिसागरा ल्हसिट बहरि-सस्थो ॥॥ रावणु णव-जवाणु वलपम्तउ। भमराहिड गय-वेस-मान्त11२॥ ममें विण सात करिवरू खोट । स्क्वे सयवारस परियचिउ ॥३॥ गड़ गएण पढ़ पहुणोद्धउ । झम्म देवि अंसुगुण णिवन्दउ ॥४।। विजन घुटु रयणीयर-साहणें। देहि दुन्दुहि दिषण दिवङ्गण ।५॥ ताव जयन्तु दसाण-जाएँ। आणि वन्धेवि पाहु-सहाएं ॥३॥ जम सुग्गी दूसम-सीले । भणलु णलेण मणिलु रण णीसें ॥७॥ खर-दूसपणे हि चित्त-चिसङ्गय ।। रवि ससि लेवि आय अमान्य ८॥ सुरवर-गुरु मपण णिभिचें। बहउ कुबेरु समरें मारिरुचें ॥९॥
घत्ता जो जसु उत्थरियड सो ते धरियउ गण्हॅवि पवर-धन्दि-सयहूँ । गउ सुरवर-धामह पुरु भजरामह जिणु जिह जिगवि महामयई॥१०॥
[ १८ ] लङ्क पुरन्दरे लिए जय-सिरी-णिवासो।
सहसारेण परिधदो पस्थिओ दसासो ॥५॥ 'अहाँ जम-धणय-सक्क-काराषण । देहि सुपुत्त-मिक्ख महु रावण' ॥२॥ तं णिसुणेवि भणइ सुर-वधए । 'तुम्हवि श्रम्ह वि एड णिवन्धः । जमु सलवत परिपालउ पर। पशु णिवित करत पाणु ॥४॥ पुफ्फ-पबरु घर देउवणासह । सहुँ गन्धम् हि गाय सरसर ।।५५