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पउमचरित
पकहि दिणे आवच्छेवि जपणु। गय तिषिण वि भोसणु मीम-षणु ॥१॥ जहिं जक्ख-सहास, दारुणई। जहि सीह-पयइँ सहिरारुण ॥२॥ जहिं णीसासन्त हिं अजयरें हि। दोलन्ति हाल महुँ तरुवर हि ॥३॥ जहिं साहारूद विप्पय । अन्दोलण-परम-मात्र-गयइ ।।४।। साहिं तेहएँ भोसण भीम-वणे। थिय विजहें प्राणु परेवि मजें ||५|| जा भट्टक्खरै हिं पसिद्धि गम। गामेण सम्व-काम-रूप ||१| सा विहिं पहरे हि पासु भय । णं गाढानिलग-गय दइय ||७|| पुथ साइच सोबह-भक्खरिय। जम (!-कोटि-सहास-दहुलरिया
धत्ता ते भायर अविचल-झाग-रव दहवयण-विहीसण-माणुसह । वणे दिट्ट जक्ष-सुन्दरि किह जिण-वाणिएं तिण्णि वि लोय निह ।।१।।
[८] जं जबिखएँ गवण दिठ्ठ वणें । तं यम्मह-वाण पइट्ठ मणे • 'वोल्लाविर बोलाइ किं ण सहुँ । किं बहिरउ किं दह गाहिं मुह ॥२॥ किं झायहि भक्खसुस्त धिवहि। महु फेरउ रूप-सलिलु पिवहि ॥३॥ दहगीव-पसरु असहन्तियएँ। स-विलक्खड खेहु करग्तियएँ ॥ वच्छन्थलें पहउ सुकामलण। कपणावर्यस-णोदप्पलेंग ||५|| अपणेकर कुत्तु वरणएँ । पप्फुरिलय-तामरसाणणएँ ॥६॥ 'त जाणहि प णरु सश्चमउ। उप्पाइज केण वि कमउ' ।।७।। पुणु गम्पिगु रग-रस-मढियहीं । जक्खहों वरिट अपष्ट्रियहाँ ॥
घत्ता 'कनी-कलाव-केलर-धर पई तिण-समु मण्णे वि तिपिण गर । वणे विजय भाराहन्त थिय णावइ जग-भवणही खम्म किय ॥९॥