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पउमचरित
पसदह भङ्गकिहि भरो णराय: पसहि पहिं गउ गयवरासु।
ग्यलिहि हि निति इट लगाम धाशुकिउ छहिं धाणुडियासु ॥४॥
पत्ता
संरएप्पिणु समरगणें मेणि
भीसणु तस्वमालु किं । सक्कु स ई भूसेवि थिउ
॥
[ १७. सत्तरहमो संधि ] मन्सणाएँ समत्तर दू मियतएँ उभय-बलहँ अमरिसु चहह । सइलोक-मयङ्कर सुरवर-दामा राधणु इन्दही अम्भिबाह ।।
किय करि सारि-सज्ज पक्ररिय तुरय-यहा ।
उहिमय धय-णिहाय स-विमाण रह पयहा ।।१॥ आइय समर-मेरि मीसावणि। सुरवर-बहरि-वीर-कम्पावणि ॥२॥ इत्य-पहस्थ करें वि सेणावद। दिण्णु पयाणड पचलिउ गरवइ ॥३॥ कुम्मयण्णु सकेस-विहीसण। जळ-सुगीच-णील-स्वर-दूसण ॥४॥ मय-मारिध-मिश्च सुलसारण ! अजनय-हम्दइ-घणवाहण ॥५॥ रण-रसेण भिजन्त पधाइय। णिविसे समर-भूमि संपाविय ॥६॥ पञ्चहि घणु-सएहि पहु देप्पिणु । रिचवूहहाँ पदिसू हु रएप्पिगु ॥७॥ णिवदिड जाउहाण-बलु सुर-घलें। पहय-पदइ-परिवद्विय कलयलें ।।८ जाज महाहउ भुषण-भयकरु । उविउ रड महलन्तु दियम्त ॥९॥